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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका
में उपलब्ध है। उनके प्रत्येक पद में आध्यात्मिकता का भाव भरा पड़ा है। जैसे
हम मगन भये प्रभु ध्यान में। बिसर गई दुविधा तन-मन की, अचिरा सुत गुनगान में। हरिहर ब्रह्म पुरन्दर की रिथि, आवत नहीं कोउ मान में। निदानन्द की मांघ मची है, समता रस के पान में।
उपर्युक्त पद में भाव तथा भाषा की सरलता के साथ भाषा की शुद्धता आकर्षित किये बिना नहीं रहती।
यशोविजय जी के समय में विनय विजय जी नामक श्वेताम्बर संप्रदाय के विद्वान आचार्य हुए थे। उनके 'विनय-विलास' नामक ग्रन्थ में 37 पदों को संग्रहीत किया गया है। वे भी यशोविजय जी के साथ अध्ययन हेतु काशी रहे थे। अतः हिन्दी में अच्छी योग्यता प्राप्त की थी।
'त्रिलोक-दर्पण' के रचयिता खरगसेन भी 18वीं शताब्दी के कवि थे। जिनेन्द्र भक्ति से प्रेरित होकर 'त्रिलोक दर्पण' की रचना की थी, जिसमें तीन लोक का वर्णन करते जिन चेत्यों का वर्णन किया है। रचना साधारण है, लेकिन पंजाब की भूमि पर लिखी जाने पर भी पंजाबी भाषा का प्रभाव न होकर शुद्ध हिन्दी भाषा की है।
'धर्म सरोवर' के रचयिता बोधराज गोदी का ने धर्म तत्व का निरूपण विविध प्रकार के सुभाषितों तथा स्तूति परक छन्दों में किया है। रचना सामान्यतः अच्छी है।
सीतलनाथ भजो परमेश्वर अमृत मूरति जोति वही। भोग संजोग सुत्याग सर्वे सुषदायक संजम लाभ करी॥ क्रोध नहीं जहां लोभ नहीं कछु मान नहीं, नहीं है कुटिलाई। हरि ध्यान सम्हारि भजो तुम केवल, 'जोध' कहे बात खरी॥
इसके अतिरिक्त उन्होंने 'सम्यक्त' या 'कौमुदी-भाषा-प्रीतंकर चरित्र', कथाकोष, प्रवचनसार, भावदीपिका, वचनिका(गद्य) और ज्ञान समूह की रचना की है। इन कृतियों का बाबू ज्ञानचन्द्र जी ने उल्लेख किया है।
आचार्य लक्ष्मीचन्द्र जी खतरगच्छ के एक अच्छे विद्वान और कवि थे और उन्होंने दिगम्बर जैनाचार्य श्री शुभचन्द्र जी कृत 'ज्ञानार्णव' का पद्यानुवाद किया था। 1. द्रष्टव्य-बाबू ज्ञानचन्द्र जी जैनः दिगम्बर जैन भारतग्रन्थः पृ. 4,5.