________________
57
57
आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका 'नवकार-मंत्र" की महिमा का कवि ने भावपूर्ण वर्णन किया है
जहां जपहिं नवकार तहां भय कैसे होय। जहां जपहिं नवकार तहां बंक्षर भज जांव। जहां जपहिं नवकार, तहां सुख, सुमति होय। जहां जपहिं नवकार, तीर्थ तहां दु:ख रहे न कोई। नवकार जपत नवनिधि मिलें, सुख समूह आवें सरल। सो महामंत्र शुभ ध्यान सों, 'भैया' नित अपनो करन॥
भगवतीदास के पदों में विभिन्न राग-रागनियों का समन्वय देखने को मिलता है।
आनंदधन जी श्वेताम्बर संप्रदाय के प्रसिद्ध महात्मा थे। वे कबीरदास की तरह मस्तमोला निजानंदी सन्त कवि थे। यशोविजय जी के प्रायः समकालीन थे। कबीरदास की भावानुभूतियों और कृतित्व का स्पष्ट प्रभाव इनकी कविता में लक्षित होता है। इन्होंने हिन्दी और गुजराती दोनों भाषाओं में रचना की है।
हिन्दी में उनकी 'आनंदघन बहोत्तरी' उपलब्ध होती है। गुजराती और हिन्दी दोनों भाषाएं उनको अपना महाकवि स्वीकृत पर उनके पदों का आदर करती हैं। यह सम्मान उनके पदों में छिपे हुए अध्यात्म के साथ आत्मनिष्ठा, संगीतात्मकता तथा गहरी वैयक्तिकता के कारण ही मिलता है। उनके पदों में निर्भीकता एवं आत्मा की उदात्तता स्पष्ट घोषित होती है। 'आनंदघन-बहोत्तरी' के अध्ययन से पता चलता है कि ये एक पहुंचे हुए सन्त थे और जगत की मोह-माया से निर्द्वन्द रहकर आध्यात्मिक जगत में ही विचरण करते थे। हादिर्क भाव के बिना कोरा नाम-स्मरण या यंत्रवत् माला फेरना उन्होंने भी सन्त कवियों की तरह व्यर्थ समझा है। सच्चे हृदय एवं तन्मयता से किया गया प्रभु स्मरण अनासक्ति एवं भक्तिभावना पैदा करने के लिए आवश्यक होता है। उनके पदों में 'समता-रस' की निर्मल धारा प्रवाहित हुई है।
'जग आशा जंजीर की, गति उलटी कछ और जकरयौ धावत जगत में, रहे छटों एक ठौर। आतम अनुभव फूल की, कोऊ नवेली रीत, नाक न पकरै वासना, कान गहै न प्रतीत।
प्रसिद्ध पद 'अब हम अमर भये ना हम मरेंगे' को आनंदधन का माना जाता था, लेकिन अब आखिरी खोजो से उपलब्ध हुआ है कि यह पद धानतराय जी का है। 'थोड़ा ही परिश्रम करने से हमें मालूम हुआ कि इनका
1. नमस्कार-सूचक पद।