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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका
रस आपूर्ण साहित्य की भेंट कर रहे थे। तत्कालीन और शृंगारिक रचनाओं के प्रचार से भगवती दास को अत्यन्त ग्लानि व घृणा होती थी। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप वे लिखते हैं
बड़ी नीति लघुनीति करत है, वास सरत वदषोथ भरी। फोड़ा आदि फुतगुनी मंडित, सफल देह मनु रोग धरी॥
भगवतीदास नामक चार कवि प्राप्त होते हैं, लेकिन प्रसिद्ध भक्त शिरोमनी भैया भगवतीदास 'ब्रह्मविलास' के रचयिता इस काल में हुए ऐसा प्रेमी जी का मत है और डा. प्रेमसागर ने भी इस तर्क की पुष्टि की है। वे आगरे के रहनेवाले ओसवाल जैनी कटारिया गोत्र के थे। उन्होंने कभी भी भोग-वैभव की प्राप्ति हेतु आश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिए या स्वान्तःसुखाय कविता न करके लोकोपकार के लिए ही की थी। जनता को धर्म का संदेश सुनाने के लिए ही भक्तिपूर्ण कविता का प्रवाह बहाया। 'ब्रह्म विलास' में उनकी तमाम रचनाओं का संग्रह हुआ है, जिसकी संख्या 67 के लगभग है। प्रायः उन्होंने अपने लिए 'भैया', 'भविक' या 'दासकिशोर' उपनामों का प्रयोग किया है। बनारसीदास की तरह वे भी जन्मजात प्रतिभाशाली आध्यात्मिक कवि थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी होने से केवल एक ही भाषा में नहीं, वरन् बंगला, मारवाड़ी, गुजराती, संस्कृत व फारसी आदि अन्य भाषाओं में भी साधिकार कलम चलाई। काव्य की सभी रीतियों से वे काफी परिचित थे। 'भैया एक विद्वान व्यक्ति थे। प्राकृत और संस्कृत पर तो उनका अटूट अधिकार था। हिन्दी, गुजराती और बंगला में भी विशेष गति थी। इसके साथ-साथ उन्हें उर्दू और फारसी का ज्ञान था। उनकी कविताएं इस तथ्य का निदर्शन है।" जैन विद्वान् मूलचन्द जी 'वत्सल' ने भी भगवतीदास की रचना, भाषा, शैली ज्ञान एवं उत्कृष्ट आध्यत्मिक की भूरि-भूरि प्रसंशा की है। उनकी रचना की मार्मिकता एवं भावुकता के लिए एक-दो उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं
“सुनि सयाने नर कहा करे 'घर-घर' तेरो जो शरीर घर घरी ज्यो तुरतु है। छिन छिन छिजे आय बाल वैसे घटी जाय, ताहू को इलाज कछू उरहूं घटतु है।" कवि दुनियाँ राग-रंग में मस्त जीवों की दशा का वर्णन करते हुए कहते
1. डा. प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ. 267. 2. डा. प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ. 269. 3. द्रष्टव्य-मूलचंद 'वत्सल'--प्राचीन हिन्दी जैन कवि-पृ. 137.