Book Title: Vallabhiya Laghukruti Samucchaya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकोत्तंस-श्रीश्रीवल्लभगणिविनिर्मितः श्रीवल्लभीयलघुकृति-समुच्चयः अयोनामिनइनिपनिपादयतिसदसन पूर्वक विषणीनव्याकरणायनेक येथे सहविरोधात सरस्वतीकृतममा नामपिचसर्वपूर्वकविषणीतानेक ग्रंथसंज्ञानुयायित्नान वः इतिश्रीश्रीवल्लनोपाध्यायविरचितं चतुर्दशरवस्था। पनवादस्थलसमा श्रीजिनराजराम्ररीधर्मराज्पंरिभातरि अस्मिनखरतरेगछै धमराज्यविधातरि ? जगह स्यानसत्वीनिनिधिमलपायकायोउभयतस्पपादानमरामितमाममा २ श्रीवहन नपाध्यायः सारयानी तिसूतं चउर्दशवरायतेसशास्त्रानुसारतः ३ त्रिनिर्विशेयकं ॥ इनिश्रीश्रीयननोपाध्यायविरचितसारखता मतानुगनसशास्त्रसम्मतयमुर्दशखरस्थापनबाद स्थलवालिः समाप्ता नगमानवसमाचदशरवर स्थापा नवादस्थलंतवायमानंचिरंनंतात्॥ श्रीची० च्या हेभीवीतरागभगवन मेममपुहलाच अनूवन करिमा नविययेऽव्येऽव्यविषयाः क्षेत्रश्यिया कालेंकालविययाः भावभावविश्याः कथं नवन भयतः समयालोक। मंघिना नवसिद्धांतविचारविमा रहेखामित्रहंत्रीता एकरमात्मवात भयेयपाशविविशिष्टःरानभयरंगसंगतीन यसार:सावरंगरंगोनाहारथानससंगतः स्थिता करमान्माहरोहरोहोनमानसानसायपरोहोकररतस्प रोहोरहितस्मात करववियतकासंबांताअनंतानने कालसिडाननाययास यसत्यता पल्पहातेमानजय अनेसाद तमनंतानंतकालनांतःकिंतःपृथच्यारियुयट्मकायुकृतः कायारीरयेनसऊदा पहना २४ प्रेरक: प. पू. आ. श्री विजय सोमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सम्पादक: 'महोपाध्याय-विनयसागर प्रकाशक : श्री रांदेर रोड जैन संघ (सुरत) For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरिग्रथमाला-४२ वाचकोत्तंस-श्रीश्रीवल्लभगणिविनिर्मितः श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः पावन प्रेरणा परम पूज्य आ.श्री विजयसोमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सम्पादको साहित्यवाचस्पति-महोपाध्याय-विनयसागरः एवं आचार्य डॉ० नारायणशास्त्री काङ्करः (राष्ट्रपति-सम्मानितः विद्यालङ्कारः, डी.लिट्.) प्रकाशक श्री रांदेर रोड जैन संघ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः प्रकाशन : वि.सं २०६८ प्रकाशक : श्री रांदेर रोड जैन संघ नकल : ४०० प्राप्तिस्थान : १) श्रीनेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि जैन ज्ञानमंदिर Clo. निकेशभाई संघवी 'संयम' बंगलो, कायस्थ महोल्लो, गोपीपुरा, सुरत-३९५००१ (मो.) ९९२५३४८७७३ २) रांदेर रोड जैन संघ Clo. श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन देरासर पेढी, अडाजण पाटीया, रांदेर रोड, सुरत-३९५००१ फोन : २६८७४८८ ३) मुनि सुयशविजयजी C/o. राकेशभाई संघवी ७०३, धर्मशांति बिल्डींग, सातमो माळ, ओन.स. मनकीकर मार्ग, चुनामट्टी (वेस्ट) मुंबई-२२ (मो.) ९८२०२८५०८० मुद्रक : किरीट ग्राफिक्स ४१६, वृंदावन शोपींग सेन्टर, पानकोरनाका, अमदावाद-१ (मो.) ०९८९८४९००९१ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रसंग एक दिवसनो छे. अमो श्रीसंङ्घना आगेवानो साथे मळी पर्दूषण बाद पू. गुरुभगवन्तने वंदन करवा गया. चालु वर्षे थयेली श्रीसङ्घनी आराधना तेमज पूज्यश्रीनी पधरामणीने अनुलक्षीने कोईक अविस्मरणीय आयोजन नक्की करवू हतुं. गुरुभगवंत पासे गया त्यारे तेओ कोईक ग्रंथनी मेटर वांची रह्या हता. सहज जिज्ञासाथी ज हाल कया ग्रन्थ- प्रकाशन चाले छे ? ते अंगे पूछ्युं । खरतरगच्छना एक समर्थविद्वान प.पू.उपाध्याय श्रीवल्लभजीनी लघुकृतिओना समुच्चनुं कार्य महो.विनयसागरजी तथा डो. नारायणशास्त्रीजी करी रह्या छे ते समुच्चयनुं पुस्तक रूपे प्रकाशन थवानुं छे ते जाणवा मळ्युं. अन्यगच्छना विद्वान गुरुभगवंतोनी रचना प्रकाशित करवानुं कार्य अन्यगच्छना गुरुभगवंतो करे ते अंगे मनमा शंका थई. अमारा मननां भावोने जाणे के समजी गया होय तेम गुरुभगवंते तुरंत ते समुच्चयनी प्रस्तावनामांथी तपागच्छीय विजयदेवसूरीश्वरजी म.सा.ना जीवनचरित्रना एक श्लोकनो अनुवाद वंचाव्यो. आश्चर्य साथे अहोभाव आंखमां तरवरवा लाग्यो. तपागच्छीय आचार्यनी प्रभावकता मानसपट पर छवाई गई. केवा ए समर्थ पू.विजयदेवसूरिजी म.सा. हशे के जेमना गुणोनुं गान एक अन्य गच्छना विद्वान गुरुभगवंत करे छे ? साथे ए विद्वान पण केवा गुणानुरागी हशे के जेओ अन्य कोईपण आशंका लाव्या विना पोतानी मस्तिमां ज आवी उत्तम रचना करे छे. For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः मननी शंकानुं समाधान जोई. अन्य कोई पण आयोजननो विकल्प विचार्या वगर ज प्रस्तुत पुस्तक- प्रकाशन करवानो लाभ अमोने मळे ते अंगे पूज्यश्रीने विनंती करी. गुरुभगवंते पण योग्य मार्गदर्शन आपी प्रकाशन अंगेनी अमोने सहर्ष अनुमति आपी. पुस्तक प्रकाशनमां अमोने प्रेरणा आपनार परम पूज्य आचार्य श्री विजयचंद्रोदयसूरीश्वरजी म.सा.ना लघुबंधु परम पूज्य आचार्य भगवंत श्री विजय अशोकचंद्रसूरीश्वरजी म.सा.ना शिष्यः परम पूज्य आचार्य श्री विजयसोमचंद्रसूरीश्वरजी म.सा.नो तेमज संपादक महो. विनयसागरजी तथा डो. नारायण शास्त्रीनो खूब खूब आभार. प्रस्तुत पुस्तकना प्रकाशननो लाभ सा.श्री विनीतयशाश्रीजीना शिष्या सा.श्री विश्वयशाश्रीजीना शिष्या सा.श्री धन्ययशाश्रीजीना चरणकमलमां जीवन अर्पण करनार बेनश्री चंद्राबेन (सा.श्री सिद्धयशाश्रीजी) तथा तेमना सुपुत्री बेनश्री दीप्तिबेन (सा.श्री हेमयशाश्रीजी)ना दीक्षा प्रसंगे थयेल ज्ञानद्रव्यनी उछामणीमांथी लेवायो छे. प्रस्तुत प्रकाशननी संपूर्ण प्रीन्टिीग जवाबदारी संभाळवा बदल श्री मंजुलभाई तथा किरीट ग्राफीक्सवाला श्री किरीटभाईनो खूब खूब आभार. For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन समये - समये साहित्यजगतने केटलाय विद्वानोए पोतानी साहित्यसेवा द्वारा उजागर कर्यु छे. जो के तेमांना केटलाक विद्वानोए स्वमतना के गच्छाघाना भार हेठळ पोतानी विद्वत्ताने शोचनीय करी मूके छे, तो बीजा वळी केटलाक विद्वानो पोतानी आत्मरमणतामां ज स्थिर रहेनारा गच्छवादना - स्वमतना चोखंडामांथी घणा दूर रही अध्यात्मना सर्वोच्च शिखर सुधी पण पहोंचे छे. जेना कविश्री देवचंद्रजी, श्री आनंदघनजी, श्री ज्ञानसारजी आदि ज्वलंत उदाहरणो छे. प्रस्तुत कृति 'लघुकृति समुच्चय'ना कर्ता कवि श्रीवल्लभजी पण गच्छवादथी पर रहेनारा एक विद्वान कवि छे. खरतरगच्छना समर्थ कवि होवा छतां तेमनी कृतिओमां प्रायः करी क्याय पण गच्छवाद देखातो नथी. उलटु अन्यगच्छीय आचार्यना गुणथी आकर्षाइ तेमणे रचेली 'श्रीविजयदेवमाहात्म्य'नामनी कृति ते काले थता गच्छवादना विवाद प्रत्येनी तेमनी अरुचीनुं एक उदाहरण कही शकाय. कवि श्रीवल्लभजी'नी १४ लघुकृतिओनो (समुच्चय) संग्रह प्रस्तुत पुस्तकमां प्रकाशित करवामां आवेल छे. व्याकरण, काव्य, अलंकार, कर्मसाहित्य आदि दरेक विषयोमां कविए पोतानी कलम चलावी छे. कविना जीवननो संपूर्ण परिचय संपादकश्रीए प्रस्तावनामां आप्यो ज छे. For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः प्रस्तुत पुस्तकना संपादक महो. विनयसागरजी तथा डो. नारायण शास्त्रीनी श्रुतभक्ति खरेखर प्रशंसनीय छे के जेमना प्रयत्नथी ज आजे आ प्रकाशन संपूर्णताने पाम्युं. आर्थिक सहयोग द्वारा श्रुतभक्ति करनार श्री रांदेर रोड जैन संघनी खूब खूब अनुमोदना. For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O C શ્રી શંખેશ્વર પાર્શ્વનાથ ભગવાન રાંદેર રોડ, સુરત For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 શ્રી વિજયનેમિસ 4 પ.પૂ. આચાર્ય છે ૠ . શાસનસમ્રાટુ પ, રરરર . 2મસૂરીશ્વરજી મ.સા. થss ' કરી 'વાત્સલ્યવારિધિ ૫.પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજય વિજ્ઞાનસૂરીશ્વરજી મ.સા. 'પ્રાકૃતવિશારદ પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજય કસ્તૂરસૂરીશ્વરજી મ.સા. = = ' સૂરિમંત્રસમરાધક પ.પૂ. આચાર્યદેવ શ્રી વિજયઅશોકચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. જિનશાસન શણગાર પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજય ચન્દ્રોદયસૂરીશ્વરજી મ.સા. For Personal & Private Use Only આ પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજયસોમચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका | भूमिका । श्रमण संस्कृति में कठोरतम साधुचर्या का पालन करते हुए श्रमण/ साधुगण निरन्तर और नियमित रूप से अट्ठारह घण्टे अर्थात् ६ प्रहर स्वाध्याय और चिन्तन में व्यतीत किया करते थे। क्रमश: यह परम्परा मतिमान्द्य कहो, प्रमाद कहो या एकरूपता कहो, इसमें शनैः-शनैः परिवर्तन होता गया। प्रारम्भ में भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित अविसंवादी वाणी को समयानुसार स्पष्ट करने के लिए आचार्यगणों ने चूर्णि, नियुक्ति, भाष्य और टीका आदि का निर्माण किया। क्रमश: यह परम्परा प्रज्ञापना, न्यायदर्शन, सूत्र रूप में रचना, टीका ग्रन्थों की रचना और मौलिक ग्रन्थों के निर्माण के रूप में यह परम्परा विकसित होती रही। कथा-साहित्य, भगवद् भक्ति स्वरूप स्तोत्र साहित्य का निर्माण भी होता रहा। इस परम्परा के उन्नायक आचार्यों में भद्रबाहु, जिनदासगणि महत्तर, श्यामाचार्य, सङ्घदासगणि महत्तर, आचार्य सिद्धसेन, उमास्वाति, आचार्य हरिभद्र, शिलाङ्काचार्य, बप्पभट्टिसूरि, जिनेश्वरसूरि, आचार्य अभयदेव, जिनवल्लभसूरि, देवभद्रसूरि, हेमचन्द्रसूरि, मलयगिरि, जिनपतिसूरि, देवेन्द्रसूरि, क्षेमकीर्ति और यशोविजयोपाध्याय आदि समर्थ आचार्य हुए, जिनके ग्रन्थ आज भी आपके रूप में स्वीकार किए जाते हैं। इसी परम्परा में उपाध्याय श्रीवल्लभ की गणना भी की जा सकती है, जिन्होंने मौलिक ग्रन्थों के निर्माण के साथ टीका ग्रन्थों में - आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत लिङ्गानुशासन, कोश आदि साहित्य का निर्माण तत्कालीन उपलब्ध साहित्य का अवलोकन कर अपनी श्रेष्ठ प्रतिभा और प्रज्ञा के बल पर निर्माण किया। इनके ग्रन्थ अनेकार्थी कोषों पर अधिक निर्भर थे और यह कवि साम्प्रदायिक परम्पराओं से रिक्त भी रहा। इसीलिए इनका साहित्य विशुद्ध साहित्य रहा और सबके लिए अनुकरणीय भी रहा। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः गुरु-परम्परा प्रस्तुत पुस्तक के रचयिता कवि श्रीवल्लभ वाचनाचार्य उपाध्याय श्री ज्ञानविमल गणि के शिष्य थे। आपकी गुरु-परम्परा बहुत ही उच्चकोटि के विद्वानों तथा गीतार्थों से अलंकृत रही है, जैसा कि आपने अपनी टीका ग्रन्थों की प्रशस्तियों में दिखलाया है: शुशुभिरे जिनराजमुनीश्वराः, खरतराहगणाभ्रदिवाकराः । तदनु भूरिगुणा जयसागरा, जगति रेजुरनुत्तमपाठकाः ॥ ७॥ तेषां शिष्या मुख्या दक्षा आसन्नदूष्यगुणलक्षाः । श्रीरत्नचन्द्रनामोपाध्यायाः साधुपरिधायाः ॥ ८॥ तत्पट्टस्फुटपद्मप्रकाशनोदारसूरसङ्काशाः । श्रीभक्तिलाभनामोपाध्यायाः शास्त्रकर्तारः॥९॥ धीमन्तोऽन्तिषदस्तेषां कालकौशलपेशलाः । समजायन्त राजन्तौ ग्रन्थार्थाम्भोधिपारगाः ॥१०॥ चारित्रसागरपाठक-भावाकर-सद्गणीश्वरा दक्षाः। श्रीचारित्रचन्द्रवाचकधुर्याः स्मार्या मुनीशानाम् ॥ ११ ॥ तेषां क्रमशः पट्टव्योमाङ्गणशीतरश्मिसङ्काशाः । श्रीभानुमेरुवाचक-जीवकलश-कनककलशाह्वाः ॥ १२॥ तत्र चारित्रसाराख्या उपाध्यायाः महाशयाः । बभूवुः श्रुतपाथोधिपारीणाः साधुवृत्तयः ॥ १३ ॥ तत्पट्टे समभूवन् विलसत्संवेगरङ्गसंल्लीनाः । वाचकपदप्रधानाः श्रीमन्तो भानुमेर्वाह्वाः ॥ १४॥ सौभाग्यौघं निविडजडतां व्यञ्जयत्यन्तयन्ती, यद्वक्त्राम्भोरुहसुवसतिं प्राप्य गौालसीति। गम्भीरां ये बृहदुदधयः स्फूर्तिमन्तो महान्तो, गाम्भीर्यादिप्रवितसुगुणैर्वर्ण्यलावण्यपुण्याः ॥१५॥ जयन्ति मायां समयकथित ज्ञानविमलाश्चिरं चञ्चत्पाठकपदवरा ज्ञानविमलाः । For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका लसत्तत्पट्टे वचनरचनारञ्जितजना, महावादिवाजप्रमितिकथनावाप्तविजयाः ॥ १६ ॥ वैराग्यरससल्लीना तद्गुरुभ्रातरोऽधुना।। विजयन्ते महान्तः श्रीतेजोरङ्गगणीश्वराः ॥ १७ ॥ तेषां जयन्ति जयिनः सुनया विनेयाः, सद्भागधेयमतिमत्प्रतिवाद्यजेयाः । श्रीज्ञानसुन्दरसुधी-जयवल्लभाद्याः, वाग्देवताप्रतिमसत्प्रतिभाप्रधानाः ॥१८॥ श्रीज्ञानविमलपाठकसत्पादाम्भोजचञ्चरीकेण। श्रीवल्लभेन रचिता शिलोञ्छशासने शुभा टीका॥ १९ ॥ शीलोञ्छनाममालावृत्ति-प्रशस्तिः । * * * राजच्छ्रीजिनराजसूरिगुरवोऽभूवन् पुरा भूतले, विख्यातामलकीर्तिपूरितचतुर्दिङ्मण्डला: सर्वदा। मानोन्मत्तवदावदप्रवरधीवाद्योघदुर्दन्तिनां, सिंहध्वाननिभाः प्रणाशनविधौ लब्धप्रतिष्ठोच्चयाः ॥७॥ तत्पट्टे विबुधार्चिताघ्रिकमलाब्राहृयाप्तचञ्चद्वराः, नानाशास्त्रपवित्रवृत्तिरचनाविख्यातसद्बुद्धयः । रेजुस्ते जगतीतले वरगुणाजीवावतारा इवोपाध्याया जयसागराः सुयशसः सत्पात्रशोभावहाः ॥ ८॥ तत्पट्टोदयशैलबालविलसत्सूर्योदया: पाठका, आसन् वाग्जितदेवसूरिकवयः श्रीरत्नाचन्द्राह्वयाः । तेषामन्तिषदो दिदीपिर इह क्ष्मायास्तले पाठका, नानाशास्त्रकृतोवदातयशसः श्रीभक्तिलाभाह्वयाः ॥ ९ ॥ चारित्रसार-भावाकर-चारुशुद्धांशुनामकाः शिष्याः । पाठक-गणीश-वाचकमुख्यास्तेषामजायन्त ॥ १० ॥ For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः श्रीभानुमेरुवाचक-जीवकलश-कनककलशनामानः । समजायन्त महान्तस्तेषां पट्टे क्रमेणैतै॥ ११ ॥ श्रीभक्तिलाभपाठकशिष्याश्चारित्रसारनामानः । वेदेन्दुसङ्ख्याविद्यापारीणाः पाठका आसन्॥ १२ ॥ सिद्धान्तानुगतक्रियालयलसत्सम्प्राप्तशोभोदया, दुर्मिथ्यात्वमतोत्कटोत्पलवनव्याघातसूर्योदयाः । तत्पट्टे विलसज्जगजनितमुच्चारित्रलक्ष्मीधराः, . श्रीमद्वाचक-भानुमेरुगुरवो धात्र्यां विरेजुश्चिरम् ॥ १३ ।। वेदग्रन्थविदन्यशास्त्रजडधीर्नारायणोऽयं पुनर्विज्ञायेति सरस्वती भगवती सम्यग्गुणान्वेषिणी। . सार्द्धं यन्मुखपङ्कजेऽखिलगुणैः किं लालसीति वसत्, तर्कव्याकरणाद्यनेककठिनग्रन्थावलीपाठकाः ॥ १४ ॥ जगन्द्वन्द्यास्तेजोपति हि सततं पाठकवरा, इदानीं तच्छिष्या मुनिवरगुणा ज्ञानविमलाः । यश:शीतज्योतिर्धवलितलसत्क्षोणिवलयाः, स्फुरत्तेजःपुञ्जग्रहपुषमुषः पुण्यवपुषः ॥ १५ ॥ युग्मम्॥ तत्सतीर्थ्या विराजन्ते तेजोरङ्गगणीश्वराः । साम्प्रतं स्थविरा नित्यं तपोजपपरायणाः ॥ १६ ॥ श्रीज्ञानसुन्दरसुधी-जयवल्लभाद्या, शिष्या जयन्ति च भुविप्रथितावदाताः। . विद्वत्तमा वरगुणाः सुवचस्विनश्च, तेषां स्फुरद्गुणमणिप्रवरोदधीनाम्॥१७॥ तेषां विख्यातकीर्तीनां गुरुणामन्तिषदाणुना। कृता श्रीवल्लभेनेयं शेषसङ्ग्रहदीपिका॥१८॥ शेषसङ्ग्रहदीपिका-प्रशस्तिः । For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इन प्रशस्तियों के आधार पर यदि इनका वंशवृक्ष बनाया जाय तो इस प्रकार होगा: जिनराजसूरि जयसागरोपाध्याय रत्नचन्द्रोपाध्याय मेघराज' सोमकुञ्जर सत्यरूचि आदि सत्यरुचि आदि भक्तिलाभोपाध्याय चारित्रसारोपाध्याय भावसागरगणि चारुचन्द्रवाचक भानुमेरु उपाध्याय जीवकलश कनककलश ज्ञानविमलोपाध्याय तेजोरंग गणि श्रीवल्लभोपाध्याय जयवल्लभ ज्ञानसुन्दर श्रीवल्लभोपाध्याय खरतरगच्छ की सुविशाल परम्परा में श्रीजिनराजसूरि (प्रथम) के प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय जयसागर की परम्परा में हुए हैं । उपाध्याय जयसागरजी का समय १५वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १६वीं सदी का प्रारम्भ का है। ये जयसागरोपाध्याय चौमुखजी मन्दिर आबू के निर्माता मन्त्री मण्डलीक के भ्राता थे। अतः इस सम्बन्ध में जो ऐतिहासिक प्रशस्ति प्राप्त हुई है उसका यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है। यह स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र लेखन प्रशस्ति स्वयं जयसागरोपाध्याय द्वारा संवत् १५०६ में रचित है स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र-प्रशस्ति स्वस्ति सर्वास्तिमन्मुख्यः, ऊकेशः ज्ञातिमण्डनः । पद्मसिंहः पुरा जज्ञे, खीमसिंहस्ततः क्रमात् ।। १ ।। खीमणिर्दयिता तस्य हरिपालस्तदङ्गभूः। निविष्टं यन्मनः पूष्णि श्राद्धधर्ममयं महः ।। २ ।। दसाजकान्हड़ी भोज वीरभावासिगस्तथा। बड्याकश्च सर्वेऽपि षडमी हरिपालजाः ।।३।। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः भारमल्लो भावदेवो, भीमदेवस्तृतीयकः। कान्हड़स्य त्रयोऽप्येते सुता: सुजनताश्रिताः ।। ४।। छाड़ादयः पुनः पञ्चनन्दनाभोजसम्भवाः । आसीद्वीरमसम्भूतो-नगराजः सुताधिकः ।। ५ ।। प्रथमराज इत्यस्ति बडुयाङ्गरुहो महान्। तेषु श्रीमानुदारश्च, साध्वासाको व्यशिष्यत।। ६ ।। तत्प्रिया प्रियधर्मासौ-त्सापूरित्यमलाशया। तयोरष्टसुतेष्वाद्यः पाल्हः प्रह्लादभून्मनाः ।। ७।। द्वितीयो मण्डनो नाम कुटुम्बजनपूजितः । तृतीयो जिनदत्तश्च यो बाल्येऽप्यग्रहीव्रतम्।।८।। चतुर्थः किल देल्हाख्य झुटाकः पञ्चमः पुनः । मण्डलाधिपवन्मान्यः षष्ठो मण्डलिकस्तथा। सप्तमः साधुमालाको-ऽष्टमः साधुमहीपतिः।। ९ ।। गोविन्दरतनाहर्ष - राजा पाल्हाङ्गजास्त्रयः। कीहटो देल्हजन्माऽऽस्ते तस्याप्यस्त्यम्बडोङ्गजः ।। १० ।। श्रीपालो भीमसिंहश्च, द्वाविमौ झण्टजातकौ। साजण: सत्यनामास्ते, पुत्रो मण्डलिकस्य तु ।। ११ ।। पोमसिंहो लष्म(क्ष्म) सिंहो-रणमल्लश्च माल्हजाः । सुस्थिर: स्थावरो नाम, महीपत्यङ्गसम्भवः ।। १२ ।। तद्भार्या पूतलिः पुण्य-वती शीलवती सती। तनयौ सुनयौ तस्या देवचन्द्र-हर्याभिधौ।। १३ ।। कलत्रं देवचन्द्रस्य, कोबाई नामतः शुभा। महीपतिपरीवार - श्चिरं जयतु भूतले ।। १४ ।। इत्यादि सन्ततिर्भूयस्यासाकस्योज्ज्वले कुले। उत्तरोत्तर-सत्कर्म-निरतास्ते निरन्तरम् ।। १५ ।। धर्मशाला तीर्थयात्रो-पाध्याय स्थापनादिषु । साधर्मिकेषु चासाको धनं निन्ये कृतार्थताम्।। १६ ।। संवत् १४८७ वर्षे सहोदरभावस्थितोपाध्यायश्रीजयसागरगणिसान्निध्यमासाद्य For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका महाविभूत्या च महामहिम्ना, यात्रां महातीर्थ युगेऽप्यकार्षीत् । सङ्केन युक्तो महता महिष्ठः सङ्घ शतां मण्डलिकः प्रपन्नः । । १७ । । संवत् १५०३ वर्षे तत्सान्निध्यादेव लोकोत्तरा स्फीतिरुदारता च, लोकोत्तरं सङ्घजनार्च्चनञ्च । शत्रुञ्जये रैवतके च यात्रा कृताद्भुता मण्डलिकेन भूयः ।। १८ ।। समं मण्डलिकेनैव, मालाकश्च महीपतिः । तदा सङ्घपती जातौ प्रिया-मण्डलिकस्य तु ।। १९ ।। रोहिणी नामतः ख्याता मांजुर्मालाङ्गना पुनः । मणकाई महोत्साहा, महीपतिसधर्म्मिणी ।। २० ।। आसदन् सङ्घपत्नीत्वमेतास्तिस्रः कुलस्त्रियः । प्रायेण हि पुरन्ध्रीणां, महत्त्वं पुरुषाश्रितम् ।। २१ ।। अर्बुदाद्विशिरस्युच्चै - स्ते प्रासादं चतुर्मुखम् । भ्रातरः कारयन्ति स्म, त्रयो मण्डलिकादयः ।। २२ ।। इतश्च चान्द्रे कुले श्रीजिनचन्द्रसूरि : संविज्ञभावोऽभयदेवसूरिः । सद्वल्लभः श्रीजिनवल्लभोऽपि युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ।। २३ ।। भाग्याद्भुतः श्रीजिनचन्द्रसूरिः क्रियाकठोरो जिनपतिसूरिः । जिनेश्वरः सूरिरुदारवृत्तो, जिनप्रबोधो दुरितालिवृत्तः ।। २४ ।। प्रभावक : श्रीजिनचन्द्रसूरिः सूरिर्जिनादिः कुशलान्तशब्दः । पद्मानिधिः श्रीजिनपद्मसूरि- लब्धेर्निधानं जिनलब्धिसूरिः ।। २५ ।। संवेगिक : श्रीजिनचन्द्रसूरिर्जिनोदयः सूरिरभूदभूरिः । तस्योपदेशामृतपानतुष्टस्तेषु त्रिषु भ्रातृषु पुण्यपुष्टः ।। २७ ।। श्रीरैवते वीरजिनेन्द्रचैत्ये, विधाप्य सद्देवकुलीं कुलीनः । महीपतिः सङ्घपतिः सुवर्णाक्षरैर्मुदा लेखयतिस्म कल्पम्।। २८ ।। युग्मम्।। संवत् १५०६ वर्षे श्रीजयसागर वाचक - विनिम्मिता सदसि वाच्यमानाऽसौ । 13 कल्पप्रशस्तिरमला नन्दत्वानन्दकल्पलता ।। २९ ।। इति श्री खरतरगुरुभक्त-सङ्घपति-मण्डलिक- भ्रातृ सङ्घपति सा० महीपतिकल्पपुस्तकप्रशस्तिः । For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसिंह 14 खीमसिंह-स्त्री खमणी हरिपाल दाज कान्हड़ भौज वीरम आसिग बहुयाक प्रथमराज नगराज __ छाडादि ५ भीमदेव स्त्री-सोषु प्रथमराज भारमल भावदेव मंडन देल्हा महीपति For Personal & Private Use Only पाल्हा भा०सारू जिनदत्त दीक्षा ली झांटा भा०अमरी मंडलिक | माला भा०मांजू गोविन्दराज रत्नराज हर्षराज श्रीपाल भीमसिंह पोमसिंह लक्ष्मसिंह रणमल भाoहीराई रोहिणी सहसमल वस्तुपाल श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः साजण भा०सोनाई . स्थावर पूतलीभा० अंबड देवचंद्र हरिचंद्र Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भूमिका जयसागर महोपाध्याय श्री जयसागरजी के लघुभ्राता (गृहस्थावस्था के) संघपति महीपति ने स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र लिखवाया था, उसकी २९ पद्यात्मक लेखन-प्रशस्ति की रचना वि०सं० १५०६१ में स्वयं जयसागरोपाध्याय ने की है। इस प्रशस्ति की प्रतिलिपि स्व० अनुयोगाचार्य श्री बुद्धिमुनिजी से श्री अगरचन्दजी नाहटा ने प्राप्तकर मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रन्थ में 'महोपाध्याय जयसागर' नामक निबन्ध में इस प्रशस्ति को प्रकाशित किया है। स्वरचित इन प्रशस्ति से उपाध्यायजी की पूर्वावस्था के पूर्वजों, भ्राताओं तथा उनके परिवार एवं सत्कृत्यों पर महत्त्वपूर्ण विशद प्रकाश पड़ता है। इस प्रशस्ति और आबू खरतरवसही (५३५-५५५ खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह) के लेखों के आधार से इनका वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है: उक्त प्रशस्ति में आधार से इस परिवार के सक्रियाकलापों का वर्णन निम्नांकित है: १. संघपति आसिग (आसराज), धर्मशाला, तीर्थयात्रा, उपाध्याय पद-स्थापन और स्वधर्मीवात्सल्यादि कृत्यों में द्रव्य व्यय कृतार्थ हुआ था। (पद्य १६) २. सं० १४८६ में बृहद्भ्राता जयसागरोपाध्याय की अध्यक्षता में मण्डलिक ने शत्रुञ्जय, गिरनार महातीर्थों की संघ सहित यात्रा की और संघपति पद प्राप्त किया। (प० १७) ___३. सं० १५०३ में पुन: जयसागरोपाध्याय के सान्निध्य में संघपति मण्डलिक ने शत्रुञ्जय और रैवतक तीर्थ की संघ सहित यात्रा की। मण्डलिक के साथ मालाक और महीपति ने भी संघपति पद प्राप्त किया। (प० १८-१९) ४. सं० मण्डलिक और उसकी भार्या रोहिणी, सं० माला और उसकी भाषा मांजू तथा सं० महीपति और उसकी भार्या मणकाई, अर्थात् सपत्नीक तीनों भाइयों ने मिलकर अर्बुदगिरि शिखर (आबू) पर चौमुखा प्रसाद का निमार्ण करवाया। (प० १९-२२) अर्बुदादिशिरस्युच्चस्ते प्रासादं चतुर्मुखम् । भ्रातरः कारयन्ति स्म त्रयो मण्डलिकादयः ।। २२ ॥ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः इस पद्य में कारयन्ति स्म' क्रियापद से स्पष्ट है कि सं० १५०६ के पूर्व ही इस मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण हो गया था। संभावना है कि कुछ अज्ञात कारणों से उस समय इसकी प्रतिष्ठा न हो सकी हो। प्राप्त मूर्तिलेखों से स्पष्ट है कि सं० १५१५ आषाढ वदि १ को जिनभद्रसूरि के पट्टधर जिनचन्दसूरि ने इसकी प्रतिष्ठा करवाई थी। यही तिमंजिला चौमुखा प्रासाद, वर्तमान समय में खरतरवसही के नाम से प्रसिद्ध है। ५. रैवतगिरि तीर्थ पर महावीर स्वामी के मन्दिर में देवकुली का निर्माण करवाया। (पद्य २८) ६. मण्डलिक, मालाक और महीपति तीनों भाई श्री जिनभद्रसूरि के उपदेशामृत का पान किया करते थे। (पद्य २७) ७. संघपति महीपति ने स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र की प्रति लिखवाई। सं० आसराज और उनका परिवार किस प्रदेश का निवासी था इस पर प्रशस्ति या मूर्तिलेखों से कोई प्रकाश नहीं पड़ता है। अस्तु। श्री जयसागरोपाध्याय उपकेशज्ञातीय दरडागोत्रीय' सा० आसिग (आसाक, आसराज) के पुत्र थे। इनकी माता का नाम सोखू था। आसराज के ८ पुत्र थे जिनमें इनका तीसरा स्थान था। इनका नाम था जिनदत्त। इन्होंने बाल्यावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी। दीक्षा नाम जयसागर था। श्री जिनराजसूरि का स्वर्गवास सं० १४६१ में हो गया था। जयसागरजी जिनराजसूरि के ही शिष्य थे अतः इनका दीक्षाकाल १४६० के पूर्व ही मानना चाहिये। 'बाल्येऽप्यग्रहीद् व्रतम्' वाक्य से ही यह निश्चित है कि दीक्षा के समय इनकी अवस्था ८ से १२ के मध्य अवश्य होगी अतः इनका जन्म-समय १४४५-१४५० के मध्य में होना चाहिए। जयसागरजी के दीक्षा गुरु थे जिनराजसूरि और विद्यागुरु थे जिनवर्द्धनसूरि। ' इन्होंने जिनवर्द्धनसूरि से ही लक्षण, साहित्यादि ग्रन्थों का अध्ययन किया था। इनको उपाध्याय पद २ श्री जिनभद्रसूरि ने प्रदान किया था। जिनराजसूरि के करकमलों से आचार्य पद प्राप्त सागरचन्द्रसूरि ने जिनराजसूरि के पट्टधर जिनवर्द्धनसूरि को, जिन पर देवी का प्रकोप हो गया था, गच्छ की उन्नति के निमित्त पट्ट से उतार कर वि० सं० १५७५ में जिनभद्रसूरि को स्थापित For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका किया था । जिनवर्द्धनसूरि से खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा का प्रादुर्भाव हुआ था। इनकी योग्यता को देख कर ही १४७५ या इसके आस - पास ही जिनभद्रसूरि ने इनको उपाध्याय पद दिया होगा। क्योंकि सं० १४७३ में कीर्तिराज साधु ने जैसलमेर के पार्श्वजिनालय के प्रशस्ति की रचना की थी, जिसका संशोधन श्री जयसागरजी ने किया था । ३ इस प्रशस्ति में इनके लिये 'वा० जयसागरगणिना' का प्रयोग मिलता है और जैसलमेर के ही शान्तिनाथ मन्दिर के प्रशस्ति की रचना सं० १४७३ चैत्र शुक्ल १४ को स्वयं जयसागरजी ने की थी। इसमें भी स्वयं के लिए 'वा० जयसागरगणिविरचिता प्रशस्तिरियं ' वाचनाचार्य का उल्लेख किया है तथा सं० १४७८ में स्वप्रणीत पर्वरत्नावली में अपने को उपाध्याय पद से व्यक्त किया है । , ४ आचार्य जिनभद्रसूरि ने जो ग्रन्थोद्धार का महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ किया था उसमें इनका सहायक रूप से पूर्ण सहयोग था । इन्होंने भी अपने उपदेशों से बहुत से ग्रन्थ लिखवाये एवं शुद्ध किये, जो जैसलमेर, पाटण आदि भण्डारों में आज भी उपलब्ध हैं । 17 वि० सं० १५११ में लिखित 'श्रीजयसागरोपाध्याय रचित प्रशस्ति' ६ से इनके सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है, वह इस प्रकार है: : "उज्जयन्तगिरि पर संघपति नरपाल ने 'लक्ष्मीतिलक' नामक मन्दिर बनवाना प्रारम्भ किया उस समय श्री अम्बिका देवी इनको प्रत्यक्ष हुई। सेरीषक ग्राम में, पार्श्वनाथ मन्दिर में शेषनाग पद्मावती सहित इनको प्रत्यक्ष हुआ था । मेदपाटदेशस्थ नागद्रह (नागदा ) के नवखण्डा पार्श्वनाथ चैत्य में सरस्वती देवी इन पर प्रसन्न हुई थी। श्री जिनकुशलसूरि आदि देवता भी इन पर प्रसन्न थे। श्री जयसागरोपाध्याय ने पूर्व में राजद्रह नगर, उद्दण्डविहारादि, उत्तरदिशा में नगरकोटादि स्थान, और पश्चिम दिशा में वलपाटक, नागद्रह आदि स्थानों की राजसभाओं में भट्टादि अनेक वादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजय प्राप्त की थी। ××××××××× इन्होंने अनेकों उपासकों को संघपति पद प्रदान किया था और उनके शिष्यों को पढ़ाकर विद्वान् बनाया था । " खरतरगच्छ की परम्परानुसार ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध, वयोवृद्ध एवं गीतार्थ स्थविर को महोपाध्याय पद से अभिहित किया जाता था, जो अपने समय में For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः गच्छ में एक ही होता था। इन्हीं गुणों से परिपूर्ण होने के कारण जयसागरजी भी महोपाध्याय कहलाये। खरतरवसही के लेख से ४४९, ४५६ आदि में इनको श्रीजयसागरमहोपाध्यायबान्धवेन' महोपाध्याय पद का उल्लेख मिलता है अतः सं० १५१० के लगभग ही इन्हें इस विरुद के साथ स्मरण करना प्रारम्भ हुआ होगा। श्री जयसागर जी असाधारण प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् और उच्चकोटि के मर्मज्ञ थे। इन्होंने कई मौलिक ग्रन्थों, टीकाओं एवं स्तोत्रों की रचनायें की थीं। स्तोत्र एवं स्तुति साहित्य के प्रसंग में जयसागरोपाध्याय रचित साधारण जिनस्तुति की व्याख्या करते हुए श्री वल्लभोपाध्याय ने लिखा है: "कवीश्वरशिरोवतंसैः श्रीजयसागरमहोपाध्यायहं सैस्तीर्थकृतां लघुवृद्धसंस्कृतप्राकृतयमकाऽयमकमयस्तोत्राणां पञ्चशती विहिता। स्तुतयोऽप्यस्तोकास्तथैव विहिताः।" सं० १५११ में लिखित श्रीजयसागरोपाध्यायप्रशस्ति में भी लिखा है: "विरचित xxxxxxx संस्कृत-प्राकृतबन्धस्तवनसहस्राणाम्।" इससे स्पष्ट है कि इन्होंने स्तोत्र-स्तुति-स्तवन साहित्य का विपुल परिमाण में सर्जन किया था। किन्तु खेद है कि वर्तमान समय में इनके स्तोत्रसंग्रहों की ३ प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, वे सभी अपूर्ण हैं और इनके आधार से ५८ रास, स्तवन, स्तोत्रादि प्राप्त होते हैं । अस्तु । अधुना इनके द्वारा निर्मित जो कुछ साहित्य प्राप्त होता है, सूची देखने के लिये देखें शब्दप्रभेद कोश की ज्ञानविमलीय टीका में मेरी भूमिका। श्री जयसागरोपाध्याय का अन्तिम समय अनुमानतः १५१५ के आसपास माना जा सकता है। श्री जयसागरोपाध्याय के प्रमुख शिष्य रत्नचन्द्र उपाध्याय थे। जिनके लिए जयसागरोपाध्याय ने विज्ञप्ति त्रिवेणी (१४८४) में रत्नचन्द्र के लिए लिखा है 'रत्नचन्द्र क्षुल्लकं चाधीयमानस्वाध्यायं शब्दब्रह्मव्याकरणमधिजिगापियिषन्तः'। सम्भवतः संवत् १४८४ के लगभग ही इनकी दीक्षा हुई होगी। स्वरचित पृथ्वीचन्द्र चरित्र (१५०३) की प्रशस्ति के आठवें पद्य में For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 'साहाय्यकारी गणिरत्नचन्द्रः' इससे स्पष्ट है कि संवत् १५०३ तक इन्हें गणिपद प्राप्त हो चुका था। वाड़ी पार्श्वनाथ मन्दिर पाटण में विद्यमान संवत् १५२१ में लिखित सिद्धहेम लक्षण बृहद्वृत्ति की प्रशस्ति में इनके लिए उपाध्याय शब्द का प्रयोग किया गया है। सम्भवतः १५२१ के पूर्व ही जिनभद्रसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया होगा। इनके शिष्य श्री भक्तिलाभोपाध्याय हुए जिनकी प्रमुख रचनाएँ बालशिक्षाव्याकरण और कल्पान्तर्वाच्य आदि प्राप्त है। भक्तिलाभ के तीन शिष्य हुए- उपाध्याय चारित्रसार, भावसागरगणि और चारुचन्द्र वाचक। जिनमें से दो के उल्लेख मात्र प्राप्त होते हैं कोई कृति प्राप्त नहीं होती। केवल वाचक चारुचन्द्र की उत्तम कुमार चरित्र आदि रचनाएँ (१५७२-१५९८) तक प्राप्त हैं। उपाध्याय चारित्रसार के शिष्य उपाध्याय भानुमेरु हुए। इनका भी कोई परिचय प्राप्त नहीं है। केवल शब्दप्रभेद टीका प्रशस्ति और श्रीवल्लभोपाध्याय रचित अनेक ग्रन्थ प्रशस्तियों में दो शिष्यों का नाम मिलता है- तेजोरङ्गगणि और उपाध्याय ज्ञानविमल। शेषसंग्रह नाममाला टीका के अनुसार विक्रम संवत् १६५४ तक तेजोरङ्गगणि विद्यमान थे। ज्ञानविमल उपाध्याय श्रीवल्लभ के गुरुवर्य ज्ञानविमलोपाध्याय हुए। इनके सम्बन्ध में भी कोई परिचय प्राप्त नहीं होता है किन्तु इन्होंने १६५४ में रचित शब्दप्रभेद टीका प्रशस्ति पद्य में स्वयं के लिए 'ज्ञानविमलपाठकश्रेष्ठैः' पाठकश्रेष्ठ विशेषण का प्रयोग किया है। अतः यह निश्चित है कि १६५४ के पूर्व हो युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने इन्हें उपाध्याय पद प्रदान कर दिया था। संवत् १६५७ की लिखित शब्दप्रभेद टीका (हेमचन्द्राचार्य ज्ञान भण्डार, पाटण) के अनुसार १६५७ तक विद्यमान थे ही। टीकाकार ज्ञानविमलोपाध्याय का परिचय देते हए इनके जन्म और दीक्षा के सम्बन्ध में प्रारम्भ में ही विचार किया जा चुका है। ज्ञानविमल ने सम्वत् १६५४ में स्वरचित शब्दप्रभेदटीका प्रशस्ति पद्य १९ में स्वयं के लिए 'ज्ञानविमलपाठकश्रेष्ठैः' पाठकश्रेष्ठ विशेषण का प्रयोग किया है, अत: निश्चित है कि सम्वन १६५४ के पूर्व ही युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने इन्हें उपाध्याय पद For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः प्रदान कर दिया था। इस भू-मण्डल पर ये कब तक विद्यमन रहे, कोई संकेत प्राप्त नहीं होता है। श्री हेमचन्द्राचार्य ज्ञान भण्डार पाटण की शब्दप्रभेद टीका की प्रति से स्पष्ट है कि सम्वत् १६५७ तक यह विद्यमान थे क्योंकि यह प्रति इन्हीं के उपदेश से लिखी गई थी। इस टीका के अतिरिक्त ज्ञानविमलोपाध्याय की अन्य कोई कृति भी प्राप्त नहीं है। शिष्य-परम्परा ज्ञानविमलोपाध्याय के तीन शिष्य थे - १. श्रीवल्लभोपाध्याय २. ज्ञानसुन्दर ३. जयवल्लभ। श्रीवल्लभ का जन्म स्थान जन्मस्थान - अभिधानचिन्तामणिनाममाला की सारोद्धार नामक टीका, हैमलिङ्गानुशासन-विवरण दुर्गपदप्रबोध नामक टीका एवं निघण्टुशेष टीका आदि स्वप्रणीत टीका ग्रन्थों में श्रीवल्लभ ने स्थान-स्थान पर, पद-पद पर 'इति भाषा' 'इति लोके' इति प्रसिद्धे' शब्द से शब्दों के पर्याय देते हुये, राजस्थान में रूढ़ प्रचलित शब्दों का व्यापक रूप से उल्लेख किया है। इन टीकाग्रन्थों में लगभग ४००० भाषा शब्दों का उल्लेख है। इन शब्दों का मैंने स्वतन्त्र रूप से संग्रह कर लिया है जो शीघ्र ही 'राजस्थानी-संस्कृत शब्दकोश' के नाम से प्रकाशित होने वाला है। उदाहरणार्थ कुछ शब्द देखिये: तावडा, कलाइणि, तेडण, ऊकरडओ, ओलम्भओ, ओलखाण-पिछाण, कवा, खेजड़ी, सांगरी, चलू, लूगड़ा आदि। अतः यह निश्चत रूप से कहा जा सकता है कि श्रीवल्लभ का जन्म एवं बाल्यकाल राजस्थान प्रान्त में व्यतीत हुआ है। साथ ही रूढ शब्दों के प्रयोग से यह भी अधिक संभव है कि राजस्थान में भी जोधपुर राज्य इनका जन्मस्थान रहा हो। यहाँ यह प्रश्न अवश्य ही विचारणीय हो सकता है कि श्रीवल्लभ जैन मुनि थे। मुनि होने के कारण विचरण करते रहते थे। फिर भी इनके जीवन का अधिकांश भाग राजस्थान प्रदेश में ही व्यतीत हुआ है। अतः निरन्तर जनसम्पर्क के कारण इनकी भाषा में राजस्थानी शब्दों का प्रयोग अधिक हुआ हो। किन्तु ध्यान देने की बात यह है कि कतिपय राजस्थानी शब्दों के प्रयोगों की For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका बात न होकर ४००० शब्दों का केवल राजस्थानी प्रयोग, उसमें भी आंचलिक शब्दावली का व्यवहार इन्होंने किया है, जो बाल्यपन के संस्कार के बिना भाषा में नहीं आ सकते। अत: मेरे विचारानुसार जब तक कोई दूसरा पुष्ट प्रमाण प्राप्त न हो, तब तक भाषा के आधार पर इन्हें राजस्थानी मानने में किसी को संदेह नहीं होना चाहिये। जन्म-संवत् - दीक्षा समय के प्रसंग में मैंने, अनुमानतः सं० १६३०४० के मध्य में इनका दीक्षाकाल माना है। अतः दीक्षा के पूर्व इनकी अवस्था १०-१२ वर्ष की भी मानी जाय तो इनका जन्म समय सं० १६२०-१६२५ के मध्य में माना जा सकता है। दीक्षा-संवत् - खरतरगच्छालङ्कार आचार्यप्रवर श्रीजिनमाणिक्यसूरि के पट्टधर, सम्राट अकबर द्वारा प्रदत्त युगप्रधान विरुदधारक आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने अपने ५८ वर्ष के विशद गणनायक आचार्य काल में ४४ नन्दिओं (नामान्तपदों) की स्थापना की थी। इसमें २६वीं संख्या की नन्दी वल्लभ' नाम की है। इन ४४ नन्दिओं में से १६वीं नन्दी सिंह की स्थापना सं० १६२३ में हो चुकी थी। अत: अनुमानतः 'वल्लभ' नन्दी की स्थापना सं० १६३० एवं १६४० के मध्यकाल में हुई होगी। इस अनुमान का मुख्य कारण एक यह भी है श्रीवल्लभ ने सं० १६५४ में हैमनाममालाशिलोञ्छ और शेषसंग्रहनाममाला पर टीकाओं की रचना की। इसी वर्ष इनके गुरु ज्ञानविमलजी ने भी शब्दप्रभेदटीका पूर्ण की जिसमें श्रीवल्लभ सहायक थे। किसी भी ग्रन्थ पर लेखनी चलाने के लिये विशेषकर व्याकरण एवं कोष पर, विशेष अध्ययन और योग्यता की अपेक्षा है। अतः प्रौढ़ एवं पाण्डित्यपूर्ण टीका निर्माण के लिये दीक्षा के पश्चात् १५-२० वर्ष का समय तो अवश्य ही अपेक्षित है। इस लिये यह अनुमान युक्तिसंगत ही होगा कि यु. जिनचन्द्रसूरि ने सं० १६३० और १६४० के मध्य में आपको दीक्षा प्रदान कर श्रीवल्लभ नाम प्रदान किया हो। टीकाकार श्रीवल्लभोपाध्याय श्रीवल्लभरचित मौलिक एवं टीकाग्रन्थों का अवलोकन करने से इनके विषय में जो कुछ जानकारी मिलती है, वह इस प्रकार है: श्री ज्ञानविमलोपाध्याय ने सं. १६५४, आषाढ शुक्ला द्वितीया को रचित शब्दप्रभेद-टीका में 'विद्वच्छ्रीवल्लभाह्वस्य युक्तायुक्तविवेचिन:' (२०), For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः श्रीवल्लभ को विद्वान् और युक्तायुक्तविवेचक अवश्य कहा है किन्तु श्रीवल्लभ के साथ किसी पद का उल्लेख नहीं किया है। श्रीवल्लभ की संवत् के लेख वाली प्रथम प्रौढ रचना 'शेषसंग्रहनाममालाटीका' है। इस टीका की पूर्णाहुति ज्ञानविमलीय शब्दप्रभेद की रचना के ठीक २१ दिन बाद अर्थात् १६५४, श्रावण कृष्णा अष्टमी को हुई है। इसकी रचना प्रशस्ति में 'गुरूणामन्तिषदाणुना श्रीवल्लभेन (१८)' लिखा है। ऐसे ही इसी वर्ष की इनकी दूसरी प्रौढ रचना 'हैमनाममालाशिलोच्छ-टीका' है। इसकी रचना तिथि सं० १६५४, चैत्र कृष्णा सप्तमी है। इसमें भी श्रीज्ञानविमलपाठकसत्पादाम्भोजचञ्चरीकेण श्रीवल्लभेन, (१९) लिखा है। अर्थात् नाम के साथ किसी पद का उल्लेख नहीं है। किन्तु दोनों ग्रन्थों की प्रशस्तियों में पदोल्लेख न होते हुये भी, दोनों ग्रन्थों में प्रत्येक काण्ड की प्रान्तपुष्पिकाओं में 'वाचनाचार्य श्रीवल्लभगणिविरचितायाम्' वाचनाचार्य एवं गणिपद का उल्लेख प्राप्त होता है। सं० १६५५ की लिखित एवं श्रीवल्लभ द्वारा संशोधित हैमनाममालाशिलोञ्छ की प्रति भी प्राप्त है, इसकी प्रान्तपुष्पिका में वाचनाचार्य एवं गणिपद का उल्लेख है। अतः यह मानना असंगत न होगा कि सं० १६५४ में ही या इसके १-२ वर्ष पूर्व ही इनको वाचनाचार्य एवं गणिपद प्राप्त हो गया था। सं० १६५५ में रचित ओकेश-उपकेशपदद्वयदशार्थी में 'पण्डित श्रीवल्लभगणि' उल्लेख है। इसी प्रकार बिना संवत् के उल्लेखवाली दो और रचनाएँ हैं, जिनमें 'खचरानन पश्य सखे खचर' पद्य की व्याख्या में 'विद्वछ्रीवल्लभाह्वो, पण्डित श्रीवल्लभगणि' तथा अत्यन्त प्रौढरचना सहस्रदलकमलबद्ध 'अरजिनस्तव' की स्वोपज्ञ टीका में श्रीवल्लभेन गणिना (४) उल्लेख मिलता है। अर्थात् इन तीन कृतियों में पण्डित, विद्वान् और गणि का उल्लेख तो प्राप्त है किन्तु वाचनाचार्य या वाचक का उल्लेख नहीं है। अतः यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि सं० १६५४ की रचनाओं में वाचनाचार्य का उल्लेख होने पर भी सं० १६५५ की रचना में केवल 'गणि' का उल्लेख ही क्यों कर लेखक ने किया? मेरी समझ में तो वाचनाचार्य होने पर भी लेखक ने स्वाभाविक प्रवाह में स्वयं को गणि लिखा है। क्योंकि अनेक For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका रचनाओं में वाचनाचार्य का उल्लेख करते हुये भी सं० १६६९ में रचित ' अजितनाथ स्तुति टीका' में स्वयं के लिये वाचक का उल्लेख न करके केवल 'वादिश्री श्रीवल्लभः ' एवं 'वादिश्रीवल्लभगणि' का ही प्रयोग किया है। अतः यह निश्चित है कि सं० १६५४ के आसपास इनको वाचनाचार्य एवं गणिपद प्राप्त हो चुका था। उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त संवत् के उल्लेख वाली एवं बिना संवत् के उल्लेख वाली प्राप्त समग्र रचनाओं में श्रीवल्लभ ने स्वयं के लिये गणि के साथ वाचक या वाचनाचार्य पद का सर्वत्र उपयोग किया है। देखिये: १. मातृकाोकमाला (र. सं० १६५५ ) वाचक श्रीवल्लभाह्वेन प्र. प्र. ३ २. हैमलिङ्गानुशासन - दुर्गपदप्रबोध टीका ( १६६१) श्री श्रीवल्लभवाचकैः, प्र. प. १० ३. ४. ५. अजितजिनस्तुतिटीका (१६६९) वादि श्रीश्रीवल्लभः, मं. प. १ विद्वत्प्रबोधकाव्य वाचनाचार्यधुर्य श्री श्रीवल्लभगणीश्वरैः प्र. प. १ केशाः पद्यव्याख्या श्रीश्रीवल्लभवाचकः, मं. १. वाचनाचार्य - श्रीवल्लभगणिभिः पुष्पिका संघपतिरूपजी-वंशप्रशस्ति (१६७५ के आसपास) श्री श्रीवल्लभवाचकः, मं. ५ ! : उपाध्याय पद का उल्लेख हमें केवल दो ग्रन्थों में प्राप्त होता है: १. चतुर्दशस्वर स्थापन वादस्थल एवं २. विजयदेवमाहात्म्य । वादस्थल की रचना जिनराजसूरि के शासनकाल में होने से स्पष्ट है कि सं० १६७४ के पश्चात् की यह कृति है और विजयदेवमाहात्म्य का रचनाकाल १६८७ के पश्चात् का है। दोनों का उद्धरण निम्नाङ्कित है: श्रीवल्लभः पाठक उत्सवाय' मं. ३; श्रीवल्लभ उपाध्यायः, प्र. प. ३ ६. ७. ८. अभिधानचिन्तामणिनाममाला टीका (१६६७) वाचनाचार्यो वादिश्रीवल्लभो, प्र. प. ११ वाचनाचार्य श्रीवल्लभगणि प्रान्तपु. निघण्टुशेष टीका ( १६६७ से पूर्व ) वाचनाचार्य श्री श्रीवल्लभगणि प्रान्त पु. " 23 " चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल, For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः 'श्रीवल्लभ उपाध्यायः, मं. ४; श्रीवल्लभः पाठक-सर्ग १९, प. २०३' 'श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते' प्रान्तपुष्पिका में, विजयदेवमाहात्म्य अतः यह निश्चित है कि श्रीवल्लभ को सं. १६७४ के पश्चात् श्रीजिनराजसरि ने उपाध्याय पद प्रदान किया था। वादी श्रीवल्लभ ने कई स्थलों पर अपने नाम के साथ वादी विशेषण का प्रयोग भी गौरव के साथ किया है। इसका सर्व प्रथम उल्लेख सं० १६६७ में रचित अभिधानचिन्तामणिनाममाला टीका की प्रशस्ति पद्य ११ में वाचनाचार्यो वादिश्रीवल्लभोऽदृभत्' प्राप्त होता है। दूसरा उल्लेख सं. १६६९ में रचित अजितनाथ स्तुति टीका में मङ्गलाचरण में 'श्रीश्रीवल्लभवादिभिः' और प्रान्तपुष्पिका में 'वादिश्रीश्रीवल्लभगणिविरचिता' मिलता है। सं. १६६७ में या इसके पूर्व कहां, किसके साथ और किस विषय पर इनका विवाद-शास्त्रार्थ हुआ? कोई संकेत नहीं मिलता है। सं. १६६९ में रचित अजितनाथस्तुति टीका में लिखा है - किसी विद्वान् के साथ विवाद हो जाने से साधारण जिन स्तुति के वास्तविक अर्थ को त्याग कर, अजितनाथ स्तुति के रूप में नवीनार्थद्योतक टीका की मैंने यथामति रचना की है: __ केनापि विदुषा सार्द्ध विवादादजिनार्हतः। वर्णना वर्णिता त्यक्त्वा वास्तवार्थं यथामति॥७॥ महाराजा सूरसिंहजी के राज्यकाल में जोधपुर में यह रचना हुई है। अत: अनुमान है कि यह विवाद जोधपुर में ही हुआ हो। मेरे विचारानुसार, 'विद्वत्प्रबोध' की रचना भी ऐसे ही किसी शास्त्रार्थ के रूप में ही कवि ने की हो ! कवि स्वयं लिखता है:- 'बलभद्रपुर में बलभद्र के राज्य में, विशिष्ट विद्वद्गोष्ठी में मेधावियों के अभिमान का नाश करना ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है: विद्वद्गोष्ठयां विशिष्टायां सञ्जातायां प्रयोजनम्। एतद्ग्रन्थस्य मेधाव्यभिमानोन्मथनाय वै॥३॥ हालांकि इस कृति में वादी शब्द का प्रयोग नहीं है 'वाचनाचार्यधुर्यश्री श्रीवल्लभगणीश्वरैः' शब्दों का गौरव के साथ प्रयोग किया है। For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल तो स्पष्टतः वाद की कृति ही है । इसमें किसी कूर्चालसरस्वतीविरुदधारक प्रतिपक्षी द्वारा स्थापित मान्यता का परिहार कर १४ स्वरों की स्थापना की गई है। यह वाद सं० १६७४ के पश्चात् कहीं पर हुआ है 1 25 इस प्रकार हम देखते हैं कि १६६७ के पूर्व से लेकर १६७४ के पश्चात् तक श्रीवल्लभ ने कई विद्वद्गोष्ठियों में और कई शास्त्रार्थों में भाग लिया है और वहाँ अपने वैदुष्य की पूर्ण रूपेण प्रतिष्ठा की है। अतः अपने नाम के साथ वादी विशेषण श्रीवल्लभ के लिये सार्थक ही प्रतीत होता है । विशालहृदयता उस समय १७वीं शताब्दी में खरतरगच्छ और तपागच्छ में विधिवाद विषयक विवाद प्रबलवेग से चल रहा था और उसमें दोनों गच्छों के प्रमुख - प्रमुख व्यक्ति भाग ले रहे थे। इधर तपागच्छ की ओर से उपाध्याय धर्मसागर, नेमिसागर, लब्धिसागर आदि और खरतरगच्छ की ओर से महोपाध्याय धनचन्द्र, महो. साधुकीर्त्ति, उ. जयसोम, उ. गुणविनय, मतिकीर्त्ति आदि लगे हुये थे। यही नहीं, किन्तु सब गच्छों के माननीय शान्तमना महर्षि महोपाध्याय समयसुन्दर जैसे भी अपने ग्रन्थो में प्रतिपक्षीओ के प्ररूपित प्रश्नों को सरलतापूर्वक खण्डन कर स्वगच्छ की आचरणाओं का मण्डन कर रहे थे । इन दो गच्छो के विवाद के अलावा अन्य गच्छोके भी विवाद समय समय पर होते रहे । सब कोई अपने मतको पुष्ट करके अपनी परम्परा, अपने भक्तवर्ग पर प्रभुत्व जमाकर रखते थे । परन्तु तत्कालीन गच्छनायकों की चातुरी से समाज तो छिन्न-भिन्न नहीं हुआ । ऐसे विक्षेप के समय में 'वादी' होते हुए भी श्रीवल्लभ का इन प्रपञ्चों में फँसना प्रतीत नहीं होता और न किसी ग्रन्थ में इनका इस विषय में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है । अत: यह निश्चित है कि श्रीवल्लभ दोनों गच्छों के संघर्ष में तटस्थ ही रहे थे। किसी प्रकार के वादों में पड़कर स्वसमय को नष्ट करना नहीं चाहते थे । For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः जिस समय तपागच्छ के साधु खरतरगच्छ के आचार्यों की प्रशंसा करना तो दूर, उनकी कीर्ति का श्रवण करना भी अच्छा नहीं समझते थे और इसी प्रकार खरतरगच्छ के साधु भी तपागच्छ के प्रभावक पुरुषों का कीर्तिगान करने में सकुचाते थे, उस समय समयसुन्दरजी ने पार्श्वचन्द्रगच्छीय पूँजा ऋषि का गुणवर्णन मुक्तकण्ठ से किया है तथा खरतर, तपा, अंचल इन तीनों गच्छों के आचार्यों का सुललित पद्यों में भट्टारक तीन भए बड़ीभागी' कहकर गुणगान किया है, जो तत्कालीन समग्र साहित्य में अपवाद रूप ही समझना चाहिए। ऐसे समय में तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य विजयदेवसूरि के चारित्रिक गुणों से प्रभावित होकर कवि श्रीवल्लभ ने १९ सर्गात्मक विजयदेवमाहात्म्य नामक महाकाव्य की रचना कर अपनी मध्यस्थता, उदारता, विशालहृदयता का परिचय दिया है। इसके सम्बन्ध में मुनि जिनविजयजी 'विज्ञप्ति-त्रिवेणी' की प्रस्तावना में लिखते हैं: 'श्रीवल्लभोपाध्याय की कृतियों में से एक कृति बड़ी ध्यान खींचने लायक है। इसका नाम है विजयदेवमाहात्म्य। इसमें तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्री विजयदेवसूरि का सविस्तार जीवन-चरित्र वर्णन किया गया है। (ध्यान में रहे कि चरित्रनायक और चरित्रलेखक दोनों समकालीन हैं और विजयदेवसूरि अपने माहात्म्य के निर्माण के समय में विद्यमान थे।) उस समय परस्पर साम्प्रदायिक विरोध इतना बढ़ा हुआ था कि एक गच्छ वाले दूसरे गच्छ के प्रतिष्ठित व्यक्ति के गुणानुवाद करना तो दूर, परन्तु श्रवण में भी मध्यस्थता नहीं दिखला सकते थे। अर्थात् तपागच्छवाले खरतरगच्छीय व्यक्ति के प्रति अपना बहुमान नहीं दिखा सकते थे और खरतरगच्छानुयायी तपागच्छ के प्रसिद्ध पुरुष की प्रशंसा करते दिल में दुःख मनाते थे। ऐसी दशा में, खरतरगच्छीय एक विद्वान् उपाध्याय के द्वारा तपागच्छ के एक आचार्य के गुणगान में बड़ा ग्रन्थ लिखा जाना अवश्य आश्चर्य उत्पन्न करता है। समाज की यह विरोधात्मक प्रकृति, श्रीवल्लभ पाठक के ध्यान से बाहर न थी। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि मेरे इस भिन्न गच्छ के आचार्य की प्रशंसा और स्तवना करने वाले इस ग्रन्थ के लिखनेरूप कार्य से बहुत दुराग्रही और स्वसाम्प्रदायिक असन्तुष्ट होकर मुझ पर कटाक्ष करेंगे। इसलिये उन्होंने ग्रन्थ के अन्त में संक्षेप में परन्तु असरकारक शब्दों में लिख दिया है कि: For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 27 यदन्यगच्छप्रभवः कविः किं, मुक्त्वा स्वसूरि तपगच्छसूरेः। कथं चरित्रं कुरुते पवित्रं, शङ्केयमार्न कदापि कार्या॥ आत्मार्थसिद्धिः किल कस्य नेष्टा, सा तु स्तुतेरेव महात्मनां स्यात्। आभाणकोऽपि प्रथितोऽस्ति लोके, गङ्गा हि कस्यापि न पैतृकीयम्॥ तस्मान्मया केवलमर्थसिद्धयै, जिह्वापवित्रीकरणाय यद् वा। इति स्तुतः श्रीविजयादिदेवः, सूरिस्समं श्रीविजयादिसिंहैः॥ ____ अर्थात् - अन्य (खरतर) गच्छवाला कवि अपने गच्छ के आचार्य को छोड़कर तपागच्छ के आचार्य का चरित्र कैसे बनाता है, यह शङ्का विद्वान् मनुष्यों को न लानी चाहिए, क्योंकि आत्मसिद्धि किसे अभीष्ट नहीं है ?-सभी को इष्ट है । यह आत्मसिद्धि महात्माओं की स्तुति द्वारा होती है, और महात्माओं के लिये यह कोई नियम नहीं है कि वे अमुक पन्थ या समुदाय में ही उत्पन्न हुआ करते हैं और यह भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है कि अमुक मतानुयायी अमुक ही महात्माओं की स्तवना करे। जैसे गङ्गा किसी के बापकी नहीं है- सबही उसका अमृतमय जल का पान कर सकते हैं- वैसे महात्मा भी किसी के रजिस्टर्ड नहीं किये हुए हैं। सब ही मनुष्य अपनी-अपनी इच्छानुसार उनके गुणगान कर उन्नति कर सकते हैं। इसलिये मैंने खरतरगच्छानुयायी होकर भीअपनी जिह्वा को पवित्र करने के लिये तपागच्छ के महात्मा श्री विजयदेवसूरि और उनके शिष्य विजयसिंहसूरि का यह पवित्र चरित्र लिखा है । इस विषय में किसी को उद्वेगजनक विकल्प करने की जरूरत नहीं है। वाह ! वाह ! कैसी उदार दृष्टि और गुणानुराग!। यदि केवल इन्हीं ३ पद्यों का स्मरण और वर्तन हमारा आधुनिक जैन समाज करे तो थोड़े ही दिनों में यह उन्नति के शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। शासनदेव वह दिन शीघ्र दिखावें। (पृ० ८२-८४) उपाध्याय श्रीवल्लभ के उदार हृदय का परिचय देने वाली एक घटना और भी है। श्वेताम्बर जैनों में एक गच्छ है जिसका नाम है उपकेश गच्छ। श्रीवल्लभजी के समकालीन उपकेशगच्छनायक श्रीसिद्धसूरि ने चाहा कि उनके गच्छ के नाम की एक सुन्दर और प्रामाणिक व्युत्पत्ति हो जाय।' इस पर उन्होंने श्रीवल्लभजी से आग्रह किया। इस पर उन्होंने इस आग्रह को स्वीकार कर 'ओकेश-उपकेश पदद्वयदशार्थी' की सं० १६५५ में विक्रमनगर (बीकानेर) For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः में बड़े विलक्षण ढंग से रचना की। इससे भी स्पष्ट है कि इनके हृदय में साम्प्रदायिक भावों का लवलेश भी नहीं था, अपितु वे सहृदय एवं उदारमना थे। विहार और शिष्य-परम्परा इनके ग्रन्थों के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि इनका बाल्यजीवन और प्रौढावस्था का समय नागौर, बीकानेर, जोधपुर, बलभद्रपुर आदि राजस्थान के नगरों में ही व्यतीत हुआ है। किन्तु विजयदेवमाहात्म्य और संघपतिरूपजीवंशप्रशस्ति को देखते हुये यह कल्पना की जा सकती है कि कवि श्रीवल्लभ वृद्धावस्था में सं० १६७५ के आसपास गुर्जर देश पहुँचे और वहीं पर 'संघपतिरूपजीवंशप्रशस्तिकाव्य' एवं आचार्य विजयदेव के चारित्र और तप से आकृष्ट होकर विजयदेवमाहात्म्य की रचना की। इसलिये बहुत संभव है कि इनकी वृद्धावस्था वहीं पूर्ण हुई हो और सं० १६८७ के पश्चात् कुछ ही वर्षों में इनका स्वर्गवास भी उसी गुर्जर प्रदेश में हुआ हो। सबसे बड़ी आश्चर्य की वस्तु यह है कि श्रीवल्लभोपाध्याय की शिष्यपरम्परा चली हो-ऐसा प्रतीत नहीं होता और न इस सम्बन्ध में किसी प्रकार के उल्लेख ही मिलते हैं । अथवा इनके स्वयं के शिष्य हों तो भी यह निश्चित है कि इनकी परम्परा दीर्घकाल तक नहीं चली। अन्यथा उनमें से कोई तो विद्वान् आदि होता, जिनका कोई न कोई उल्लेख अवश्य मिलता। साहित्य सर्जना “The works of the commentator Shri Shrivallabhupådhyaya prove him to be an expert in the science of lexicography.... He was a master in that field.” - आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजय, निघुण्टुशेष प्रस्तावना पृ०६ उपाध्याय श्रीवल्लभ न केवल प्रामाणिक टीकाकार ही हैं अपितु महाकवि भी हैं। जहाँ ये व्याकरण, एकार्थी तथा अनेकार्थी कोश साहित्य के उद्भट विद्वान् हैं वहाँ ये चित्रकाव्यों के आचार्य भी हैं । जहाँ इनमें संस्कृत भाषा की प्रौढता और प्राञ्जलता दृष्टिगोचर होती है वहाँ पर इनमें राजस्थानी शब्द भण्डार की सुमधुर शब्दावली भी देखते में आती है। जहाँ इनके ग्रन्थों में ऐतिहासिक स्तोत्र प्राप्त होते हैं, वहाँ वैदुष्यप्राप्ति के साधन स्रोत भी प्राप्त होते हैं। इन्होंने For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका छोटे-मोटे अनेकों ग्रन्थों की रचना कर भारती के भण्डार को अवश्य ही समृद्धिशाली बनाया होगा। वर्तमान समय में इनके द्वारा सर्जित साहित्य जो भी प्राप्त हुआ है, वह निम्नलिखित है: मौलिक पद्य ग्रन्थ- १. विजयदेवमाहात्म्य, २. सहस्रदलकमलबद्ध अरजिनस्तव स्वोपज्ञ टीका सह, ३. संघपतिरूपजीवंशप्रशस्ति स्वोपज्ञ टीका सह, ४. मातृका-श्लोकमाला, ५. विद्वत्प्रबोधकाव्य स्वोपज्ञ टीका सह, ६. पार्श्वनाथ स्तोत्र, ७. तिमरीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र मौलिक गद्य ग्रन्थ - ८. सारस्वतप्रयोगनिर्णय, ९. ओकेशउपदेशपदद्वयदशार्थी, १०. खरतरपदनवार्थी, ११. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल ___टीकाग्रन्थ - १२. हैमलिङ्गानुशासन दुर्गपदप्रबोध टीका, १३. अभिधानचिन्तामणिनाममालासारोद्धार टीका, १४. हैमनाममाला शेषसंग्रह टीका, १५. हैमनाममालाशिलोच्छ टीका, १६. हैमनिघण्टुशेष टीका, १७. विदग्धमुखमण्डन टीका, १८. प्रश्नोत्तरेकषष्टिशतक काव्य टीका, १९. अजितनाथ स्तुति टीका, २०. शान्तिनाथविषमार्थस्तुति टीका, २१. केशा: कञ्जालिकाशोभाः पद्यस्य व्याख्या, २२. खचरानन पश्य सखे खचर पद्यस्य अर्थत्रिकम्, २३. यामाता पद्यस्य अर्थत्रयम्। भाषा ग्रन्थ - २४. चतुर्थगुणस्थानस्वाध्याय, २५. स्थुलिभद्र एकत्रीसो श्री नाहटा बन्धुओं ने सिद्धहेमशब्दानुशासन का भी विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमन्दिर आगरा में संकेत किया था। यह संग्रह कैलाशसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा में आ गया है। इस प्रति को देखने पर यह स्पष्ट हो गया कि यह हैमलिङ्गानुशासन दुर्गपदप्रबोध टीका ही है। सिद्धहेमशब्दानुशासन की टीका नहीं है। श्री नाहटाजी ने विदग्धमुखमण्डलटीका का पारीक संस्कृत कॉलेज, मेड़तासिटी में उल्लेख किया है, किन्तु वह यथास्थान प्राप्त नहीं है। प्रकाशितअप्रकाशित क्रमश: इन ग्रन्थों का परिचय दिया जा रहा है: विजयदेवमाहात्म्य महाकाव्य १७वीं शती के तपागच्छाधिपति आचार्य विजयदेवसूरि के माहात्म्य का वर्णन होने से इस महाकाव्य का नाम भी विजयदेवमाहात्म्य महाकाव्य For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः रखा गया है। विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में महाकाव्य के जो लक्षण दिये हैं उन लक्षणों से तुलना करने पर यह माहात्म्य भी महाकाव्य की कोटि में आता है। इनके नायक विजयदेवसूरि धीरोदात्त और देवत्व गुण से परिपूर्ण हैं। इसमें शान्तरस मुख्य है। इसका कथानक महर्षि के जीवनचरित पर आश्रित है और तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन होने से ऐतिहासिक भी है। इसमें धर्मफल की प्रधानता है। प्रारम्भ में नमस्कार और कथावस्तु का निर्देश भी है। इसमें १९ सर्ग हैं। सर्ग के श्लोकों की संख्या ३६६ पद्य हैं। इसमें कई स्थलों पर खलों की निन्दा और महापुरुषों का गुणगान भी किया गया है। प्रसङ्गोपात्त पुत्रजन्म, विवाह (दीक्षा), मुनि, स्वर्ग, सूर्य, चन्द्र, सागर आदि का वर्णन भी है। स्थानस्थान पर अनुप्रास, श्लेष, यमक, वक्रोक्ति, अर्थान्तरन्यास, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, विरोध, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का अच्छा समावेश किया है। अतः यह काव्य केवल माहात्म्य ही नहीं है किन्तु लक्षणसिद्ध घटनाबहुल ऐतिहासिक महाकाव्य है। इसका रचनासमय अज्ञात है। महाकवि श्रीवल्लभ ने प्रशस्ति में इसका कोई उल्लेख नहीं किया है किन्तु इस महाकाव्य का आलोडन करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसकी रचना सं. १६८७ के पश्चात् ही कवि ने की है। इसका आधार यह है कि कवि, चरितनायक के जन्मकाल सं. १६३४ से लेकर १६८७ तक की क्रमबद्ध घटनाओं का वर्णन साङ्गोपाङ्ग करता है। नायक का देहावसान सं. १७१३ में हुआ है। कवि उनके देहावसान का तो क्या, किन्तु चरितनायक के सं. १६८७ के बाद दक्षिण देश में पधारने और काफी समय तक उस प्रदेश में विचरण करने का उल्लेख भी नहीं करता। सं. १६८४ में विजयदेवसूरि ने विजयसिंहसूरि को भट्टारक पद दिया और सं. १६८६ में स्वर्णगिरि (जालोर) में प्रतिष्ठा करवाई। सं. १६८७ में मेदिनीतट (मेड़तासिटी) में प्रतिष्ठा करवाई और उसके पश्चात् करवाया गंगाणी तीर्थ का जीर्णोद्धार । इसके पश्चात् काव्य में कोई जीवन की उल्लेखनीय घटना नहीं है, - किन्तु जहाँगीर पर प्रभाव, तपवर्णन, चरितवर्णन, और गुणवर्णनों में ही आगे के सर्ग पूर्ण किये गये हैं। इसमें एक और घटना का उल्लेख है, मेघजी आदि मुख्य श्रावक वर्ग ने सागरमत का त्याग कर, पुन: गुरु के वासक्षेप प्राप्त कर बोधिलाभ For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 भूमिका उपार्जन किया। इसका भी समय अवचूरिकार उपाध्याय श्री मेघविजयजी ने सं० १६८७ दिया है। अत: यह अनुमान ठीक ही प्रतीत होता है कि इसकी रचना सं. १६८७ के अन्त में ही हुई है, अन्यथा सं. १६८८ की भी कोई घटना का उल्लेख अवश्य किया जाता। कवि ने काव्य के प्रथम और द्वितीय सर्ग में चरितनायक का जन्म, विद्याभ्यास, वैवाहिक बन्धनों को न स्वीकार ब्रह्मचारी रहने की अत्युत्कट अभिलाषा और संयम के प्रति आकर्षण का वर्णन किया है। ३-४ सर्ग में आचार्य हीरविजयसूरि का प्रभाववर्णन और विजयसेनसूरि का जीवन-चरित है।५-७ सर्ग में माता सहित चरितनायक की दीक्षा, शास्त्राभ्यास, विजयसेनसूरि के साथ सम्राट अकबर से मिलाप तथा चरितनायक के गणि और आचार्यपद प्राप्ति का वर्णन किया गया है। ८वें सर्ग में कनकविजयादि शिष्यों का और ९१० सर्गों में प्रतिष्ठा, चातुर्मास, दीक्षाप्रदान एवं विजयसिंहसूरि को स्वपट्ट पर अभिषिक्त करने का वर्णन मिलता है। ११वें सर्ग में प्रतिवादियों को पराजित करने का उल्लेख है। १२-१४ सर्गों में नवलक्षप्रासाद पार्श्वनाथ, जालोर, मेड़ता आदि प्रतिष्ठाओं का विशद वर्णन तथा गंगाणी तीर्थ के जीर्णोद्धार का प्रसंग कवि ने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है। १५वें सर्ग में तपवर्णन, १६वें में स्तम्भतीर्थ चातुर्मास-वर्णन तथा १७-१८ में सम्राट् जहाँगीर पर प्रभाव और महातपा विरुद का वर्णन है। सर्ग १९वें में नायक के औदार्यादि गुणों का व्याख्यान है। __यह कवि श्रीवल्लभ की अन्तिम रचना प्रतीत होती है। इसके पश्चात् की अभी तक कोई भी कृति प्राप्त नहीं हुई है। इस काव्य की समसामयिक प्रसिद्ध साहित्यकार उपाध्याय श्री मेघविजयजी प्रणीत अवचूरि प्राप्त है। इस काव्य की दो सुन्दर प्रतियाँ उ. श्री जयचन्द्रजी भण्डार (रा. प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान) बीकानेर एवं श्रीजिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट में प्राप्त है। अवचूरि सहित यह काव्य मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित होकर जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद से सन् १९२८ में प्रकाशित हो चुका है। अरजिनस्तव स्वोपज्ञ टीका सह भारतीय वाङ्मय में यह स्तवात्मक लघुकाव्य अद्वितीय कृति के रूप में माना जा सकता है, क्योंकि चित्रकाव्यों में अष्टदल, षोडशदल शतदलात्मक For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः कृतियाँ तो प्राप्त होती हैं किन्तु सहस्रदलात्मक प्राप्त नहीं होती हैं। यह एक सहस्रदलकमलगर्भित चित्रकाव्य है। जिसमें १००० रकारों का प्रयोग किया गया है। मध्यदल (गर्भ) में रकार को रखा है और प्रत्येक दल (पाँखड़ी) में दो अक्षरों का निवेश किया है। प्रत्येक पाँखडी के ट्यक्षरों का मध्य में स्थित रकार से संबंध है। अर्थात् प्रत्येक पाँखडी का सीधा सम्बन्ध मध्यदल के रकार से है। देखिये: असुरनिर्जरबन्धुरशेखर-प्रचुरभव्यरजोभिरपञ्जिरम्।. क्रमरज शिरसा सरसं वरं जिन रमेश्वर मेदुर शङ्कर॥१॥ इस पद्य में ४८ अक्षर हैं। जिनमें १६ रकारों का प्रयोग हैं। अर्थात् प्रत्येक दो अक्षर के बाद रकार का प्रयोग है। चित्रकाव्य की रचना में छन्दःशास्त्र, व्याकरण, निर्वचन तथा कोष आदि पर पूर्ण आधिपत्य होना आवश्यक है, जो इस कृति में स्पष्टरूप से लक्षित होता है। विचारवैदग्ध्य, रचनाकौशल तथा उक्तिवैचित्र्य की दृष्टि से यह काव्य एक सर्वोत्कृष्ट काव्य है। इस काव्य में अठारहवें जैन तीर्थंकर अरनाथ भगवान् की स्तुति की गई है। रकार गर्भात्मक ५४ पद्य है और ५५वाँ पद्य उपसंहारात्मक प्रशस्तिरूप है। इस स्तोत्र काव्य पर स्वयं श्रीवल्लभरचित स्वोपज्ञ टीका प्राप्त है। यदि कवि स्वयं टीका की रचना न करता तो इसकी मार्मिकता समझने में काफी असुविधायें रहती। यह काव्य और टीका श्रीवल्लभ के प्रौढावस्था की रचना है, अत: इस काव्य की भाषा भी बहुत ही प्राञ्जल और प्रवाहपूर्ण है । इस स्तोत्र में कवि को अनिष्पन्न और अप्रचलितशब्दों को रकारगर्भित करने के लिये जिस योजनाकौशल और पाण्डित्य की आवश्यकता थी वह इसमें पूर्णरूपेण विद्यमान है। जहाँ १००० रकार प्रधान काव्य की रचना करना हो, वहाँ उस काव्य में प्रायः अधिक शब्द तो अप्रसिद्ध ही प्रयुक्त होते हैं। उन्हें सिद्ध करने के लिये उणादि सूत्र, और अनेकार्थी तथा एकाक्षरी नाममालाओं का आश्रय लेना ही पड़ता है। टीकाकार श्रीवल्लभ ने इसमें हैमव्याकरण, उणादिसूत्र, धातुपारायण, पाणिनीयादि व्याकरण, कविकल्पद्रुम, अनेकार्थनाममाला, सौभरि, सुधाकलश, विश्वशम्भु, For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 33 ध्वनिमञ्जरी आदि एकाक्षरी नामालाओं के आधार पर ही शब्दों की निष्पत्ति कर अपने विलक्षण पाण्डित्य का परिचय दिया है। उदाहरणार्थ अकडारशब्द की व्याख्या द्रष्टव्य है: हे अकडार! न कडारः- न विषमदन्तो यः सोऽकडारः, 'कडारः पिङ्गलः विषमदशनश्च' [सि. हे. उ. सू. ४०५] इति उणादिवचनात् तत्सम्बोधनं हे अकडार!- हे सुदन् ! हे श्री अरनाथजिन ! [पद्य ५३] श्रीवल्लभ ने इस काव्य में और टीका में रचना-समय का निर्देश नहीं किया है, फिर भी 'श्रीमच्छ्रीजिनचन्द्राभिधानसूरिष्वधीशेषु,' [प्र.प.२.] श्रीजिनचन्द्रसूरि के राज्य में होने से स्पष्ट है कि १६७० के पूर्व ही यह रचना है, क्योंकि जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास सं. १६७० में हो चुका था। और, स्वयं के लिये गणिपद का ही प्रयोग होने से स्पष्ट है कि १६५५ से १६७० के मध्य में श्रीवल्लभ ने टीका सहित इसकी रचना की है। इस काव्य की एकमात्र प्रति भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में प्राप्त है। मेरे द्वारा सम्पादित होकर यह काव्य टीका सहित सन् १९५३ में अरजिनस्तव के नाम से प्रकाशित हो चुका है। संघपतिरुपजी-वंश-प्रशस्ति, स्वोपज्ञ टिप्पणीसह यह एक वंश-प्रशस्त्यात्मक ऐतिहासिक लघुकाव्य है। इस काव्य की एकमात्र प्रति राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, क्रमाङ्क १९२५० में प्राप्त है। प्रति अपूर्ण होने से इस काव्य का नाम कवि ने क्या रखा है, निर्णय नहीं कर सकते। काव्य के प्रारम्भ में कवि 'श्रीसंघाधिपरूपजीविजयताम्' (पद्य ३) तथा 'भुवि श्रावकाधीश्वरो रूपजी सः' (पद्य ४) का उल्लेख कर, पद्य पाँचवें में रूपजी के पूर्वजों का वर्णन करने का संकेत करता है। इससे स्पष्ट है कि कवि श्रीवल्लभ संघपति रूपजी की प्रशंसा में यह प्रशस्ति काव्य लिखना चाहता है, परन्तु काव्य के प्राप्तांश में केवल रूपजी के पिता संघपति सोमजी एवं चाचा संघपति शिवाजी के कतिपय सुकृत कार्यों का ही वर्णन प्राप्त है। रूपजी का जन्म और विशिष्ट कृत्यों का उल्लेख भी इसमें नहीं आ पाया है। ऐसी अवस्था में मैंने इसका नाम 'संघपति-रूपजी-वंश-प्रशस्ति' रखना ही समुचित समझा है। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः संघपति सोमजी ने सिद्धाचल तीर्थ पर खरतरवसही (चौमुखजी की ट्रॅक) का निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया था, किन्तु दुर्भाग्यवश मन्दिर की प्रतिष्ठा कराने के पूर्व ही संघपति सोमजी का स्वर्गवास हो गया था, ऐसी अवस्था में सोमजी पुत्र संघपति रूपजी ने सं० १६७५ में खरतरगणनायक श्रीजिनराजसूरि के करकमलों से इस खरतरवसही की प्रतिष्ठा का कार्य बड़े महोत्सव के साथ सम्पन्न करवाया। दूसरी बात, खरतरगच्छीय पट्टावलियों के अनुसार, इस प्रतिष्ठा महोत्सव के अतिरिक्त संघपति रूपजी के अन्य विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण कार्यों का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। अतः इस काव्य की रचना का समय प्रतिष्ठा महोत्सव का समय सं० १६७५ के पश्चात् का ही माना जा सकता है। ग्रन्थसार इस काव्य के अनुसार संघपति रूपजी का वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है:प्राग्वाटवंशीय श्रेष्ठिदेवराज (पत्नी-रूडी) श्रे. गोपाल (पत्नी राजू) श्रे. राजा (पत्नी-रत्नदेवी) श्रे. साइया (पत्नी नाकू) श्रे. नाथ (पत्नी-नारङ्गदेवी) श्रे. योगी (पत्नी २, जसमादेवी और नानी काकी) - श्रे. सूरजी (पत्नी सुषमादेवी) श्रे. सोमजी (माता जसमादे) श्रे. शिवा (माता जसमादे) श्रे. इन्द्रजी श्रे. रूपजी काव्य में वंशावली के अतिरिक्त जिन-जिन ऐतिहासिक कार्यों का इसमें उल्लेख किया है, वे इस प्रकार है: प्राग्वाटवंशीय श्रेष्ठी देवराज अहमदाबाद का निवासी था। इसने सं० १४८७में माघ शुक्ला ५ को मुनिसुव्रतस्वामी के बिम्ब की प्रतिष्ठा खरतरगणाधीश For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका श्रीजिनभद्रसूरि के करकमलों से करवाई थी । सं० योगी की प्रथम पत्नी जसमादे ने अहमदाबाद के तलीयापाडे में सुमतिनाथ का नवीन मन्दिर बनवाया था । सं० योगी की दूसरी पत्नी नानी काकी ने जैनशास्त्रों की प्रतिलिपियाँ करवाकर, स्वयं के नाम से अहमदाबाद में ज्ञान भण्डार स्थापित किया था । सं० सोमजी ने सं० १६४४ में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि की अध्यक्षता में शत्रुञ्जयतीर्थ यात्रा का विशालतम संघ निकाला था। सं० सोमजी ने सं० १६४८ में हलारास्थान के बन्दियों को द्रव्य देकर कैदखाने से छुड़वाया था । सं० सोमजी ने अहमदाबाद के सामलपाडे में सांवला पार्श्वनाथ चैत्य का नवीन निर्माण करवाया । सं० सोमजी ने सूत्रधार धना की पोल में नीचे भूमितल पर आदिनाथ भगवान् का और ऊपर चतुर्मुख (चौमुखा ) शान्तिनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया और सं० १६५३ में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि से इस मन्दिर की बड़े महोत्सव के साथ प्रतिष्ठा करवाई थी। सं० सोमजीने इस प्रकार आठ नये - मन्दिरों का निर्माण करवाया और सिद्धान्त-टीका आदि सर्वशास्त्रों की प्रतिलिपियाँ करवाकर अहमदाबाद में ज्ञानभण्डार स्थापित किया एवं खरतरगच्छ की सर्वत्र उन्नति की थी । सं० सोमजी के सम्बन्ध में अन्य उल्लेख संघपति सोमजी के संबंध में अन्य ग्रन्थों में जो उल्लेखनीय विशेष बातें प्राप्त होती हैं वे निम्नलिखित हैं: - १. शीलविजयकृत तीर्थमाला के अनुसार संघपति सोमजी शिवा न केवल प्राग्वाटवंशीय ही हैं अपितु विश्व प्रसिद्ध नेमिनाथ मन्दिर, आबू के निर्माता महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के वंशज है: 35 वस्तुपाल मन्त्रीश्वर- वंश, शिवा सोमजी कुल - अवतंश । शत्रुंजय उपरि चौमुख कियउ, मानव-भव लाहो तिण लियउ ॥ २. क्षमाकल्याणोपाध्यायकृत पट्टावली के अनुसार सोम और शिवा प्रारम्भ में गरीब थे और चिमड़े का व्यापार करते थे । आचार्य जिनचन्द्रसूरि के चमत्कार के प्रभाव से ये धनाढ्य हो गये । For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः ३. वाचक रत्ननिधानकृत चैत्यपरिपाटी स्तवन के अनुसार सं० सोमजी का संघ सं० १६४४ चैत्र कृष्णा ४ को शत्रुञ्जय पर पहुँचा था: संवत सोलह सइ चिम्मालइ, बरसि सवि सुखकार। चैत वदी चउथी दिनइ, बुधवल्लभ बुधवार॥१०॥ संघपति योगी सोमजी, मन धरि हरख तुरंग। गच्छपति श्रीजिनचन्द्रनइं, यात्रा करावी रंग॥११॥ सुविहित खरतर संघनइ, श्री आदिदेव प्रसन्न। . वाचनाचारिज इम भणइ, रत्ननिधान वचन्न ॥१२॥ ४. महोपाध्याय समयसुन्दरकृत कल्पसूत्रटीका कल्पलता (र० सं० १६८५) की प्रशस्ति में लिखा है कि जगद्विश्रुत सोमजी और शिवा ने राणकपुर, गिरिनार, आबू, गौडी पार्श्वनाथ और शत्रुञ्जय के बड़े-बड़े विशाल संघ निकालकर तीर्थयात्रायें की और प्रतिनगर में स्वगच्छानुयायियों को २ रुक्म (सिक्का) की प्रभावना की: यद्वारे पुनरत्र सोमजि - शिवा श्राद्धौ जगद्विश्रुतौ, याभ्यां राणपुरश्च रैवतगिरिः श्रीअर्बुदस्य स्फुटम्। गौडी श्रीविमलाचलस्य च महान् संघो नयः कारितो, गच्छे लम्भनिका कृता प्रतिपुरः रुक्मा द्विमेकं पुनः॥ ५. गुणविनयोपाध्याय ने ऋषिदत्ता चौपाई (र० सं० १६६३) में लिखा है कि सं० शिवा सोमजी ने खंभात में भी बहुत द्रव्य खर्च करके अनेकों जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई:श्रीखंभायत थंभण पास, धरण पउम परतिख जसु पास॥६३॥ श्री खरतरगच्छ गगननभोमणि, अभयदेवसूरि प्रगटित सुरमणि। धन खरची बहु बिंब भराविय, साह शिवा सोमजी कराविय॥६४॥ अचरजकारी पूतली जसु ऊपरि, शरणाइ वर भेरि विहि परि। पास भगति वस जिहा बजावइ, गुरु परसाद रह्या शुभ भावइ॥६५॥ ६.श्री अगरचंद भंवरलाल नाहटा - लिखित युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पृ० २४२-२४३ में लिखा है कि: (क) अहमदाबाद की दस्सा पोरवाड़-जाति में आपने कई गच्छे रीतिरिवाज प्रचलित किये थे। अब भी विवाह-पत्र के लेख में शिवा सोमजी की रीति For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 37 प्रमाणे लेन-देन की मर्यादा लिखी जाती है। आपके निवास-स्थान धना सुतार की पोल में, जिनालय के वार्षिक दिवस और अन्य प्रसंगों में जब कभी जिमनवार होता है, तब निमन्त्रण-पत्र भी शिवा सोमजी के नाम से दिया जाता है। (ख) धना सुतार की पोल वर्तमान समय में शिवा सोमजी की पोल के नाम से भी प्रसिद्ध है । (ग) सं० सोमजी कारित झवेरीवाड़ा के चौमुखजी की पोल में शान्तिनाथ का चौमुख मन्दिर और हाजा पटेल की पोल के कोने में श्री शान्तिनाथजी का मन्दिर भी वर्तमान में प्राप्त है । (घ) सेठ सोमजी शिवाजी का स्वधर्मी वात्सल्य बहुत ही प्रशंसनीय और अनुकरणीय था । एक बार किसी अज्ञात अपरिचित स्वधर्मी - -बन्धु ने विपत्ति के समय आपके ऊपर साठ हजार रुपये की हुंडी कर दी। जब वह हुंडी भुगतान के निमित्त आपके पास आई, तब इनके मुनीम, कर्मचारियों को सारा खाता ढूंढ लेने पर भी हुंडी करने वाले का कहीं नाम तक न मिला । विचक्षण सोमजी को उस हुंडी के गौरपूर्वक देखने मात्र से उस पर अश्रुबिन्दु का दाग देखकर रहस्य समझ में आ गया और अपने किसी स्वधर्मीबन्धु के विपत्ति का अनुभव कर निजी खाते में खरच लिखवा कर सिकार दी। कुछ दिन के पश्चात् वह अज्ञात स्वधर्मी भाई वहाँ आया और आग्रहपूर्वक हुंडी के रुपये जमा करने को प्रार्थना की। किन्तु, सोमजी ने- 'हमारा आपके ( नाम से) पास एक पैसा भी लेना नहीं है' यह कहते हुए रुपया लेना अस्वीकार कर दिया । आखिर संघ की सम्पत्ति से श्री शान्तिनाथ प्रभु का जिनालय - निर्माण कराने में वे समस्त रुपये व्यय कर दिये गए। (च) सं० सोमजी की वंश परंपरा के व्यक्ति अब भी अहमदाबाद में निवास करते हैं । प्राप्त अपूर्ण प्रति स्वोपज्ञ टिप्पणी के साथ १४० पद्य ही प्राप्त है । प्रसादगुणयुक्त रचना में क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग भी श्रीवल्लभ बड़ी सरलता के साथ करता है । उदाहरण के लिये सं० शिवाजी का वर्णन पद्य द्रष्टव्य है :" शर्वत्ववश्यं शिवान् स शश्वच्छिवोऽशिवान्याऽऽशु विशां शिवोव ( ? )। यच्छ्रेयसो विश्वसितीह विश्वं, विश्वं यशो यस्य हि शंसतीति ॥ ६० ॥ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः दोदोष्टि दुष्टेषु कदापि नो यस्तोतोष्टि शिष्टेषु जनेषु नित्यम्। शेश्लेष्टयभीष्टान् विदुषोऽनगारान्, रोरोष्टि ना रुष्टजने शिवोऽव्यात्॥६८॥" यह प्रशस्ति मेरे द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित हो चुकी है। हैमलिंगानुशासनदुर्गपदप्रबोध टीका श्रीहै मचन्द्रचार्यप्रणीत लिङ्गानुशासन के स्वोपज्ञ विवरण पर 'दुर्गपदप्रबोध' नामक टीका की रचना श्रीवल्लभ ने आचार्य जिनचन्द्रसूरि एवं उनके पट्टधर श्रीजिनसिंहसूरि के धर्मराज्य में विचरण करते हुये वि० सं० १६६१ कार्तिक शुक्ला सप्तमी को जोधपुर में नृपति सूरसिंह के विजयराज्य में ९० से अधिक ग्रन्थों का उद्धारण देते हुये २००० ग्रन्थ परिमाण में की। वृत्ति की रचना मूल लिङ्गाशासन पर नहीं की गई है ! इसमें 'विद्यते या शुभा वृत्तिस्तस्य दुर्गार्थबोधदः' [प्र. प. १०] से स्पष्ट है कि आचार्य हेमचन्द्र का ही जो लिङ्गानुशासन पर स्वोपज्ञ विवरण है, उसमें जिन जिन स्थानों में दौर्गम्य या काठिन्य है उन ही स्थलों पर इसमें विवेचन किया गया है। इसीलिये इस व्याख्या का नाम श्रीवल्लभने 'दुर्गपदप्रबोध' रखा है। श्रीवल्लभ ने विवेच्य शब्दों का विवेचन और लिङ्गनिर्वचन, विशदता एवं प्रामाणिकता के साथ किया है। संस्कृत शब्दों का व्यवहार देश्य शब्दों में किस प्रकार होता है इसको दिखलाने के लिये श्रीवल्लभ ने प्रायः 'इति भाषा, लौकिके' कहकर १५०० शब्दों के लगभग राजस्थानी शब्द इस टीका में दिये हैं । यह टीका अमी सोम जैन ग्रन्थमाला, बम्बई द्वारा सन् १९४० में प्रकाशित हो चुकी है। अभिधानचिन्तामणिनाममाला सारोद्धार टीका __ आचार्य हेमचन्द्रप्रणीत अभिधानचिन्तामणिनाममाला पर श्रीवल्लभ ने सं. १६६७ में जोधपुर में, महाराज श्री सूरसिंहजी के राज्यकाल में सारोद्धार नामक विस्तृत टीका की रचना पूर्ण की: तथा योधपुरद्रङ्गे सूरिसिंहनरेशितुः। ___ राज्ये च वत्सरे सप्तषष्टिषट्चन्द्रसम्मिते॥७॥ सारोद्धारप्रशस्तिः For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका यह टीका बहुत ही प्रौढ और विशाल है। इसमें टीकाकार ने शब्दों के पर्यायमात्र देने एवं प्रचलित शब्दों की साधनिका देने के चक्र में न फँसकर, विशिष्ट शब्दों की सिद्धि, व्युत्पत्ति, लिङ्गनिर्वचन तथा भूरिशः ग्रन्थों के उद्धरणों द्वारा टीका को स्पष्ट और सरस बनाने का प्रयत्न किया है । शाब्दिकसिद्धि और लिङ्गभेदादि के कारण शाब्दिक प्रयोगों को ध्यान में रखते हुये, इस टीका में श्रीवल्लभ ने अन्य ग्रन्थों के विपुलता के साथ उद्धरण दिये हैं। व्याख्या में लगभग एक सौ सत्तर १७० ग्रन्थों के उद्धरण प्राप्त होते हैं। इस टीका में भी श्रीवल्लभ ने हैमलिङ्गानुशासन दुर्गपदप्रबोध एवं निघण्टुशेष टीका के समान ही 'इति प्रसिद्धे' कहकर लगभग २५०० शब्दों के राजस्थानी भाषा के रूप प्रदान किये हैं। इस टीका से श्रीवल्लभ की प्रौढ एवं बहुमुखी प्रतिभा, शब्द-व्युत्पत्तिज्ञान एवं कोश, काव्यादि ग्रन्थों के विशाल ज्ञान का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है। दुर्भाग्य है कि इस प्रकार की महत्त्वपूर्ण टीका साहित्यजगत् में अभी तक प्रकाश में नहीं आई है। इस सारोद्धार में काण्ड ६ पद्य १७१ की व्याख्या में संवत् शब्द का उदाहरण देते हुए सिद्धहेमकुमारसम्वत् का उल्लेख किया है जो ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्व का है। इससे यह तो निश्चित है कि इस सिद्धहेमकुमारसम्वत् का नाम-प्रचलन १७वीं शती के उत्तरार्द्ध तक अवश्य था। तदनन्तर तो सम्भवतः इस नाम का उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता। इस टीका की अनेकों प्रतियाँ बड़ा ज्ञान भण्डार, बीकानेर, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर एवं शारदा कार्यालय, बीकानेर आदि स्थानों पर प्राप्त हैं। कई विद्वान् लोग इसका सम्पादन कर रहे हैं किन्तु अभी तक अप्रकाशित है। शेषसंग्रहनाममाला दीपिका कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरिणीत शेषसंग्रह नाममाला पर श्रीवल्लभ ने 'श्रीवल्लभी' नामक दीपिका की रचना वि० सं० १६५४ भाद्रपद कृष्ण ८ को, महाराज रायसिंह के राज्यकाल में बीकानेर में की है। संवत् के उल्लेख वाली रचनाओं में श्रीवल्लभ की यह सर्वप्रथम रचना है। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति, लिङ्गनिर्वचन और शब्दों के प्रयोग सिद्धहेमशब्दानुशासन, उणादिसूत्र, धातुपारायण, विश्वप्रकाश, शाश्वत, वैजयन्ती, माला, इन्दु, वनमाला, अमर, वाचस्पति, भविष्योत्तरपुराण, विष्णुपुराण, मार्कण्डेयपुराण, मत्स्यपुराण, सङ्गीतरत्नावली आदि ४६ ग्रन्थों के उद्धरण देते हुए दीपिकाकार ने सफलता के साथ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। दीपिका में २० शब्दों के राजस्थानी रूप भी प्राप्त हैं। ग्रन्थपरिमाण १९०० श्लोक में है। दीपिका प्रकाशन योग्य है किन्तु अभी तक अप्रकाशित है। इसकी प्रतियाँ विनयसागर संग्रह कोटा क्रमाङ्क ७७७ और महिमाभक्तिज्ञानभण्डार बीकानेर, ग्रन्थाङ्क १६३५ में प्राप्त है। जिनरत्नकोष के अनुसार इसकी एक प्रति विमलगच्छ उपाश्रय, अहमदाबाद के डाबडा नं. ४६ ग्रन्थाङ्क ३५ पर प्राप्त है। सन् ७३ में इस ग्रन्थ का सम्पादन कर प्रेसकॉपी एल.डी.इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी में प्रकाशनार्थ भेजी थी। उस समय श्री दलसुखभाई मालवणिया निदेशक थे। उन्होंने इसे स्वीकृत भी किया था किन्तु यह लिखा था कि इसके प्रकाशन में कुछ विलम्ब होगा। आज यह संवाद है कि वह प्रेसकॉपी प्राप्त नहीं है। हैमनाममालाशिलोच्छदीपिका प्रस्तुत हैमनाममालाशिलोञ्छ-दीपिका (टीका) की रचना के सन्दर्भ में श्रीवल्लभोपाध्याय ने प्रशस्ति में लिखा है: 'सुरत्राण अकबर प्रतिबोधक एवं अकबर से प्राप्त युगप्रधान-पदधारक श्रीजिनचन्द्रसूरि के धर्मराज्य में तथा सम्राट अकबर के समक्ष ही स्वकरकमलों से स्वपद पर स्थापित श्रीजिनसिंहसूरि के युवराज-धर्मसाम्राज्य में, वि. सं. १६५४, चैत्र कृष्णा सप्तमी को नागपुर (नागौर) में मैंने इस व्याख्या की रचना पूर्ण की है। अर्वाचीन विद्वान् द्वारा निर्मित इस व्याख्या को विद्वद्गण उपेक्षा की दृष्टि से न देखें, क्योंकि मैंने हैमव्याकरण, हैमोणादि आदि व्याकरण ग्रन्थ और नामकोषों को देखकर, गहन विमर्ष कर, पूज्यों का आशीर्वाद प्राप्त कर इस व्याख्या की रचना की है।' संवत् के उल्लेख वाली रचनाओं में श्रीवल्लभ की यह दूसरी रचना है। इस व्याख्या में टीकाकार श्रीवल्लभोपाध्याय का व्याकरण और कोष For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका साहित्य पर एकाधिपत्य, विशाल एवं गहन अध्ययन, प्रौढपाण्डित्य एवं वैचारिकी गरिमा का दर्शन स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है। इस व्याख्या की विशेषतायें निम्नाङ्कित हैं: १. प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति धातुपाठ और व्याकरण-सूत्रों द्वारा प्रदान की है। २. सिद्धहेमशब्दानुशासन, इसी का उणादि और धातुपाठ का समस्त स्थलों पर उपयोग किया है और कतिपय स्थलों पर पाणिनीय, चान्द्र और इन्द्रादि व्याकरणों का भी प्रयोग किया है। शब्द-साधन में मतान्तर होने पर अन्य आचार्यों के विचारों को भी ग्रहण किया है। ३. लिङ्ग-निर्वचन और शब्द-प्रयोग की उपयोगिता को ध्यान में रखकर, अनेक नामकोष, निघण्टु, आयुर्वेद, धर्मशास्त्र एवं व्याकरण आदि के ४५ ग्रन्थ तथा ग्रन्थकारों के अभिमत उद्धृत कर अपने मन्तव्य को पुष्ट किया है, इससे इस व्याख्या की प्राञ्जलता दीप्तिमती हो उठी है। (ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों के नाम परिशिष्ट में द्रष्टव्य हैं) ४. उद्धृत ग्रन्थों में विक्रमादित्यकोष (पृष्ठ-३), इन्द्र (पृष्ठ-६३) एवं चन्द्र (पृ० ६३) प्रणीत कोषों के उद्धरण मिलते हैं। ये तीनों कोष सम्भवतः आज प्राप्त नहीं है। ५. मूलगत शब्दों की व्याख्या के साथ ही आचार्य हेमचन्द्रप्रणीत अभिधानचिन्तामणिनाममाला और शेषसंग्रहनाममाला में आगत शाब्दिक पर्यायों को छोड़कर, १७वीं शती के प्रचलित शब्दों के सहस्राधिक नवीन पर्याय दिये हैं। इन नवीन शब्द-पर्यायों में अनेकों ऐसे शब्द हैं जिनका साहित्य में प्रयोग कदाचित् ही देखने में आता है। यह ग्रन्थ एल.डी.इन्स्टीट्यूट से प्रकाशित हो चुका है। हैमनिघण्टुशेषटीका यह टीका आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी द्वारा सुसम्पादित होकर लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद से सन् १९६८ में प्रकाशित हो चुकी है। श्रीवल्लभ ने अपनी अभिधानचिन्तामणिनाममाला की सारोद्धार टीका (र. सं. १६६८) में काण्ड ४ पद्य २०८ की व्याख्या करते हुए लिखा है: For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः "रायणिनामानि श्रीहेमचन्द्राचार्यकृतहैमनिघण्टुशेषोक्तानि ज्ञेयानि। तद्यथा राजादने तु राजन्या आदि। एतेषां व्युत्पत्तिस्तु अस्मत्कृतनिघण्टुशेषटीकातो ज्ञेया॥" इस अवतरण से स्पष्ट है कि इस टीका की रचना सं. १६६७ के पूर्व ही श्रीवल्लभ ने कर दी थी। इस टीका में भी श्रीवल्लभ ने संस्कृत शब्दों के राजस्थानी रूप ६०० से भी अधिक दिये हैं। सारस्वतप्रयोगनिर्णय नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें सारस्वत व्याकरणस्थ कतिपय शब्दों के प्रयोग का निर्णय किया गया है। इसकी रचना श्रीजिनराजसूरि के राज्य में (सं. १६७४-१६९०) में हुई है। साहित्यरसिक श्री अगरचन्द्रजी नाहटा की सूचनानुसार इसकी २३ पत्रात्मक एक मात्र प्रति भावहर्षीय खरतरगच्छ ज्ञानभण्डार, बालोतरा' में थी। दुःख है कि बालोतरा का ज्ञानभण्डार अस्त-व्यस्त होकर बिक चुका है। स्थूलिभद्र एकत्रीसो यह ३१ पद्यात्मक भाषा कृति श्रीसाराभाई मणिलाल नवाब के संग्रह में सं० १६५८ में श्रीमहिमासागरलिखित गुटके में प्राप्त है। प्रस्तुत संकलन इस संकलन में १४ लघुकृतियों का संकलन किया गया है। इसीलिए इस ग्रन्थ का नाम श्रीश्रीवल्लभीयचतुर्दशलघुकृति समुच्चय रखा है। १. मातृकाश्लोकमाला ___ इस श्लोकमाला की रचना वि० सं० १६५५ चैत्र मास में बीकानेर में हुई है। इसमें दो परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में २७ पद्य हैं। तथा अन्त में रचना प्रशस्ति में ६ पद्य हैं । प्रथम परिच्छेद में अ से झ तक २५ वर्गों में आदिनाथ से महावीरस्वामी तक के चौवीसों तीर्थङ्करों की स्तवात्मक वर्णना है और द्वितीय परिच्छेद में ब से लेकर क्ष तक २६ वर्गों में विष्णु, महेश, ब्रह्मा, कार्तिकेय, गणेश, सूर्य, चन्द्र, कुबेर, इन्द्र, शेष, मुनिपति, यम, राम, लक्ष्मण, वन, समुद्र आदि भिन्न-भिन्न पदार्थों की वर्णना है। श्रीवल्लभ ने कुल ५१ वर्णों की वर्णमाला स्वीकार की है, स्वर १६ और व्यञ्जन ३५ । स्वरों में- अ. आ. इ. ई. उ. ऊ. ऋ ऋ. ल. ल. ए. ऐ. ओ. For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका औ. अं. अः, तथा व्यञ्जनों में-क. ख. ग. घ. ङ, च. छ. ज. झ. ञ, ट. ठ. ड. ढ. ण, त. थ. द. ध. न, प. फ. ब. भ. म, य. र. ल. व, श. ष. स. ह, ल्ल और क्ष का समावेश किया है। वर्णमाला की प्रसिद्धि मातृका के नाम से प्रसिद्ध है। मातृकाक्षरों से सम्बन्धित रचना होने के कारण इसका नाम मातृकाश्लोकमाला रखा गया है। प्रत्येक मातृकाक्षर, प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण (पाद) के प्रारम्भ में गम्फित किया गया है। अर्थात् प्रत्येक में प्रत्येक वर्णमाला का ४ बार प्रयोग हुआ है। उदाहरण के लिये लवर्ण का प्रयोग देखिये: लतकनतजनानां मङ्गलानि प्रदेया, लूफिडकपटहारी सार्व चन्द्रप्रभ त्वम्। लतनययतिराज्या गीतविख्यातकीर्त्ति लरिव विशदतेजाः केवलज्ञानभास्वान्॥११॥ आशुता से काव्यकलाभ्यासी को प्रवीणता प्राप्त हो, यह इस रचना का उद्देश्य है। श्रीवल्लभ की प्रारम्भिक रचना होने पर भी इस कृति में प्रौढता, और काव्यगरिमा सर्वत्र लक्षित होती है। ५९ पद्यों की रचना में श्रीवल्लभ ने शार्दूलविक्रीडित, अनुष्टुप्, उपजाति, मालिनी, द्रुतविलम्बित, दोधक, स्वागता, हरिणप्लुता, वसन्ततिलका, हरिणी, इन्द्रवज्रा, आर्या, आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया है। कवि ने इसमें त्र और ज्ञ का प्रयोग नहीं किया है। संभवतः संयुक्ताक्षर मानने के कारण इसका त्याग कर दिया। मराठी ल्ल कार का प्रयोग अवश्य ही अङ्कित है। २. विद्वत्प्रबोधकाव्य स्वोपज्ञ टीका सह श्रीवल्लभ ने विद्वत्प्रबोध की रचना बलभद्रपुर (संभव है उसे ही आजकल बालोतरा कहते हैं जो जोधपुर प्रदेश में पचपदरा के पास है) में बलभद्र नामक शासक की विशिष्ट विद्वत्सभा (गोष्ठी) में मेधावियों के अभिमान का मन्थन करने के लिये और विद्वानों की वैदुष्यवृद्धि के लिये रचना की है। लेखक ने स्वयं के लिये 'वाचनाचार्यधुर्यश्री-श्रीवल्लभगणीश्वरैः' विशेषणों का प्रयोग किया है। लेखक ने प्रशस्ति में रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है। फिर भी For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः अत्यन्त प्रौढ और क्लिष्टतम रचना होने के कारण निर्माण समय १६६०-से १६६६ के मध्य का माना जा सकता है। __ इस अनुमान का आधार यह है कि श्रीवल्लभ ने अभिधानचिन्तामणि नाममाला की टीका में (र. सं. १६६७) स्वयं के लिये 'वादी' शब्द का प्रयोग किया है, जो इस टीका रचना १६६७ के पूर्व किसी बाद प्रसंग की ओर संकेत करता है। विद्वद्गोष्ठयां विशिष्टायां मेधाव्यभिमानोन्मथनाय' शब्दों से कल्पना की जा सकती है कि यह विशिष्ट विद्वद्गोष्ठी शास्त्रार्थ की ही थी और विजयश्री प्राप्त करने के पश्चात् श्रीवल्लभ ने अपनी परवर्ती कृतियों में अपने लिये 'वादी' का प्रयोग किया हो। फिर भी निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस पक्ति के अतिरिक्त विद्वत्-प्रबोध में कहीं भी वाद का संकेत प्राप्त नहीं है। ___कवि सौभरिप्रणीत व्यक्षरकाण्ड में वर्णित क्णा से लेकर विपर्यन्त संयुक्तवर्णों के माध्यम से वस्तुवर्णना की गई है। इसमें तीन परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के ६० पद्यों में चतुश्चरणधारी गज, अश्व, वृषभ, सिंह, उष्ट्र आदि का वर्णन है। द्वितीय परिच्छेद के ६० पद्यों में द्विपदधारी शुक, तित्तिरि, हंस, बक, चक्रवाक, सारस, टिट्टिभ, मयूर, चाष, खञ्जरीट आदि पक्षियों का वर्णन है। तृतीय परिच्छेद के २१ पद्यों में साधु, पण्डित और वीरजनों का वर्णन है । अन्त में प्रशस्ति के ६ पद्य हैं। विशेषतः प्रत्येक पद्य में राजा को सम्बोधन करके प्रासंगिक वर्णन लिखा गया है। इस काव्य पर स्वयं श्रीवल्लभ की ही स्वोपज्ञ टीका है। द्वितीय परिच्छेद के १९ पद्य से तो टीका न होकर टिप्पण मात्र ही प्राप्त है। इस काव्य की परिचयात्मक महत्ता दिखाते हुए पद्मश्री मुनि जिनविजयजी ने एकाक्षर नामकोषसंग्रह के संचालकीय वक्तव्य (पृ० १०) में लिखा है: __ "यह एक कुतूहल प्रदर्शक काव्याभ्यासी पद्यमय कृति है । इसकी रचना एक जैन विद्वान् श्रीवल्लभगणि ने की है। यह एक केवल शब्दपाण्डित्य प्रदर्शक अनोखी रचना है। रचनाकार ने शब्द-वैलक्षण्य की विचित्रार्थता प्रकट करने के उद्देश्य से इस विनोदात्मक पद्यरचना का गुम्फन किया है। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रस्तुत संग्रह में सौभरिकृत जो 'एकाक्षर नाममाला' मुद्रित हुई है उसके व्यक्षरकाण्ड में कण, काण, कणु, कणौ आदि अनेक ऐसे संयुक्ताक्षर वाले एकस्वरीय शब्दों का संग्रह किया है जो अन्य संग्रहों में खास करके नहीं मिलते। इसमें अनेकानेक ऐसे संयुक्ताक्षर-युक्त एकस्वरीय शब्द हैं जिनका उच्चारण भी कठिन और विलक्षण प्रतीत होता है। कुछ की ध्वनि में तो ह्रा, ही, भ्रा, भ्री, स्रा, स्त्री आदि मन्त्राक्षरों जैसा आभास होता है, परन्तु कोषकार ने इनको मन्त्राक्षरों के बीज रूप में नहीं लिखा है, विचित्र शब्दध्वनि वाले शब्दों के रूप में संकलित किया है। ग्रन्थों में ऐसे शब्दों का प्रयोग प्रायः नहीं-सा उपलब्ध होता है । तथापि कोषकार के इन शब्दों का अपने कोश में संकलन करने का कोई शास्त्राधार अवश्य रहा होगा और इसलिये उसने इन्हीं शब्दों को अपनी रचना में विशेष रूप से संगृहीत किया है। सौभरिकवि-संकलित इन विचित्र शब्दों का आधार लेकर उक्त श्रीवल्लभगणि ने संग्रहान्तर्गत अन्तिमकृति विद्वत्प्रबोध का गुम्फन किया है। इसमें उन्होंने सौभरि के संकलित क्वण, क्वाण आदि बहुत से विचित्र शब्दों का सार्थक उपयोग कर दिखाने की चेष्टा है। यद्यपि है यह केवल कुतूहल प्रदर्शक रचना, तथापि संस्कृत भाषा के शब्द-सामर्थ्य का इससे बोध होने जैसा है। यह रचना अर्थक्लिष्ट एवं शुष्क-पद्य-प्रबन्ध रूप है, इसलिये रचयिता ने स्वयं इसके क्लिष्ट शब्दों का अर्थ बोध कराने के लिये संक्षिप्त टिप्पण भी साथ में लगा दिये हैं।" इसी 'एकाक्षरनामकोष संग्रह' पुस्तक की भूमिका लिखते हुये जैन पण्डित पं. लालचन्द्र भगवान् गान्धी ने (पृ. २३) पर लिखा है: "यह एक अपूर्व विशिष्ट विद्वद्गम्य, अद्भुत संस्कृत काव्य है। इस एकाक्षरी कोशसंग्रह में इसका सुसम्बद्ध आवश्यक स्थान है। इस संग्रह में चतुर्थ क्रमाङ्क में सौभरिकृत व्यक्षरनाममाला प्रकाशित हुई है, उसमें प्रदर्शित विविध अर्थवाले संयुक्तवर्णों को प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण में प्रयुक्त कर इस चमत्कृतिकर रसिक काव्य की रचना कवि ने की है। संस्कृत साहित्य में यह अद्वितीय कहा जाय, ऐसा काव्य है। शायद ही इस पद्धति को अन्य काव्य विद्वानों ने देखा होगा।" For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः रसास्वादन के लिये हंसवर्णन में ब्र का उपयोग देखिये:ब्र-षोडशाचिः स्तवनीय! सन्मते! ब्रयुक्! चतस्रः ककुभो विलोकयन्। ब्रभा! बकस्त्रस्त ऋधग् ब्रवीत्यरं, ब्रचोरभीति नृपते! सुखच्छिदम्॥२७॥ द्वि. प. ३. श्रीपार्वजिनस्तोत्र यमकालंकार गर्भित है। इसके पद्य १४ हैं। १ से १३ तक पद्य सुन्दरीछन्द में है और अन्तिम १४वाँ पद्य इन्द्रवज्रा छन्द में है। कवि ने प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण में मध्ययमक का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए प्रथम पद्य देखिए - जिनवरेन्द्रवरेन्द्रकृतस्तुते, कुरु सुखानि सुखानिरनेनसः ॥ भविजनस्य जनस्यदशर्मदः, प्रणतलोकतलोकभयापहः॥१॥ इसमें प्रथम चरण में वरेन्द्र-वरेन्द्र', द्वितीय चरण में 'सुखानि सुखानि', तीसरे चरण में 'जनस्य जनस्य' और चौथे चरण में 'तलोक तलोक' की छटा दर्शनीय है। यही क्रम १३ श्लोकों में प्राप्त है। ४. तिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथस्तोत्र यह समस्या-गर्भित स्तोत्र है। कवि ने तिमिरीपुर स्थान का उल्लेख किया है। यह तिमिरीपुर आज तिंवरी के नाम से प्रसिद्ध है जो जोधपुर से लगभग २५ किलोमीटर दूर है। यह समस्या-प्रधान होते हुए भी महाकवि तुलसीदास के जाकी कृपा पंगु गिरिलंघे के अनुकरण पर कवि की भावाभिव्यक्ति है। प्रभु के प्रात:काल दर्शन करने पर निर्धन भी धनवान् हो जाता है, मूक भी वाचाल हो जाता है, बधिर भी सुनने लगता है, पङ्गु भी नृत्य करने लगता है और कुरूप भी सौन्दर्यवान् हो जाता है। १२ श्लोक हैं। इसमें कवि ने वसन्ततिलका आदि ७ छन्दों का प्रयोग किया है। ५. श्रीअजितनाथ स्तुति टीका श्रीवल्लभ की पूर्व गुरु-परम्परा उपाध्याय-परम्परा रही है। श्री For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 1 जयसागरोपाध्याय इस परम्परा के नायक रहे हैं । पन्द्रहवीं शताब्दी इनका समय है । कवीश्वर श्री जयसागरोपाध्याय के सम्बन्ध में श्रीवल्लभ कहते हैंइनकी यमकमय ५०० स्तुति स्तोत्रों की रचना की थी । उसमें से एक स्तुति है साधारण जिनस्तुति । साधारण जिनस्तुति के मूल अर्थ का परिहार करके अजितनाथ भगवान् की स्तुति सिद्ध करते हुए भिन्न-भिन्न नवीनार्थों द्वारा व्याख्याद्वय की रचना की है। इस रचना का उल्लेख करते हुए प्रशस्ति में लिखा है कि संवत् १६६९ में जोधपुर में महाराज सूरसिंह के राज्यकाल में श्रीवल्लभ का किसी विद्वान् के साथ वाद-विवाद हुआ था । उसी शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में श्रीवल्लभ ने पूर्वोक्त साधारण जिनस्तुति का मूलार्थ परिहार कर व्याख्याद्वय की रचना की थी। टीका के आद्यन्त प्रशस्ति से स्पष्ट है । [ आदि ] [अन्त] १. सन्ध्यभावः अपाणिनीयः - श्रीमन्तमजितं नुत्वा श्री श्रीवल्लभवादिभिः । वास्तवार्थं परित्यज्य नवीनोऽर्थः प्रकाश्यते ॥ १ ॥ स्तुतेरजितनाथस्य द्वितीयस्य जिनेशितुः । यमकस्रग्विणीछन्दःकृताया जयसागरैः ॥ २ ॥ सर्वतीर्थकृतामेषा साधारणा स्तुतिः खलु । तथाप्यजितनाथस्य ज्ञेया भिन्नार्थतो बुधैः ॥ ३॥ श्रीजिनेश्वरसूरीन्द्राद्यः ख्यातः शोभतेतराम् । नित्योत्कृष्टक्रियाचारो गच्छः खरतराभिधः ॥ १॥ युगप्रधान आभाति जिनचन्द्रस्तदीश्वरः । अकब्बरशिलेमाख्य- साहिदत्तघनादरः ॥ २ ॥ तच्छिष्यः साम्प्रतं सम्यग् युवराजं भुनक्त्य[ पि ] | वादिद्विरदसिंहो यो जिनसिंहः स सूरिराट् ॥ ३ ॥ तयो राज्ये कृता वृत्तिः स्तुतेः श्री अजितार्हतः । ज्ञानविमलपाठकशिष्यः श्रीवल्लभाभिधैः ॥ ४॥ अत्र वृत्तौ बुधैर्ज्ञेयं व्याख्याद्वयमनिन्दितम् । यदशुद्धं भवेत्तद्धि शोध्यं सम्यक्कृपापरैः ॥ ५ ॥ For Personal & Private Use Only 47 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः स्तुतिरेषा कृता श्रीमजयसागरपाठकैः। यमकस्रग्विणीछन्दोमयी साधारणार्हताम्॥६॥ केनाऽपि विदुषा सार्द्धं विवादादजितार्हतः। वर्णना वर्णिता त्यक्त्वा वास्तवार्थं यथामति॥७॥ नवरसरसादित्यसंख्ये (१६६९) वर्षे सदासुरौ। श्रीमद्योधपुरे राज्ये सूरिसिंहमहीपतेः॥८॥ स्तुतिवृत्तिरियं शश्वद् वाच्यमाना कवीश्वरैः। ' नन्दताच्छारदादेवीप्रसादाजगतीतले॥९॥ साधारण जिनस्तुति की नामविशेष तीर्थङ्कर की रचना सिद्ध करने में कवि ने जिनागमों का प्रचुर उल्लेख किया है, जिनमें प्रमुख-प्रमुख हैं- अनुयोगद्वार सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, उपासकदशाङ्ग, दशवैकालिकसूत्र, नन्दीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, बृहत्कल्पसूत्र टीका, भगवतीसूत्र, समवायाङ्गसूत्र और स्थानाङ्ग सूत्रों का भी उद्धरण प्रदान किया है। इसके अतिरिक्त व्याकरण, काव्य, कोष, निघण्टु आदि के लगभग ४० ग्रन्थों के उद्धरण देते हुए, स्तुति के प्रत्येक अक्षर एवं शब्दों के श्रीवल्लभ ने जो नवीन-नवीन अर्थों की कल्पना की है वह वस्तुतः अनुपम है और इनके प्रगाढ-पाण्डित्य की द्योतक है। ६. श्रीशान्तिनाथ विषमार्थस्तुतिटीका 'वाराणं वरणं रणं रणरणं वारारणं वीरणम्' शब्दालंकृत, शार्दूलविक्रीडित छन्द में ग्रथित, यमक-श्लेषगर्भित ४ पद्यों की यह साधारण जिनस्तुति है। इस स्तुति का कर्ता अज्ञात है। टीकाकार ने भी कर्ता के विषय में कोई संकेत नहीं दिया है। पूर्वोक्त अजितनाथ स्तुति की तरह ही इस साधारणजिन स्तुति को श्रीवल्लभ ने अपनी वैदग्ध्य एवं चमत्कारपूर्ण शैली द्वारा शान्तिनाथ की स्थापना कर टीका की रचना की है। अजितनाथ स्तुति टीका की शैली में श्रीवल्लभोपाध्याय की यह दूसरी व्याख्या है। इसका रचनाकाल भी अनुमानतः वि. सं. १६६९ के आसपास का ही संभव है। एकाक्षरी-अनेकार्थी कोषों, अनेक व्याकरणों के उणादिसूत्रों और धातुपाठों के आधार से प्रत्येक शब्द के वैचित्र्यपूर्ण अर्थों का प्रतिपादन इस व्याख्या में किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ___49 ७. प्रश्नोत्तरषष्टिशतक काव्य टीका इस लघु काव्य के प्रणेता महाकवि श्री जिनवल्लभसूरि हैं। इनका विस्तृत परिचय जिनवल्लभसूरि ग्रन्थावली में दिया है अतएव वहाँ पठनीय है। इसमें मूल के १६० पद्य हैं। प्रश्नोत्तरषष्टिशतक की अपूर्ण टीका की एक मात्र प्रति राजस्थान, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रहालय में विद्यमान है। यह टीका केवल १९ पद्यों तक ही है, २०वें पद्य की टीका अपूर्ण है। जिस प्रकार का पाण्डित्य जिनवल्लभ ने इस ग्रन्थ में दिखाया है उसी प्रकार का श्रीवल्लभ का पाण्डित्य इस टीका में दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक शब्द को सिद्ध करने के लिए श्रीवल्लभ ने पद-पद पर अष्टाध्यायी के सूत्र और धातुपाठ का उद्धरण देते हुए उपयोग किया है वैसे ही कोषों में अभिधान चिन्तामणि नाममाला, अमरकोष तथा वैजयन्ती कोष का प्रयोग, एकाक्षरी कोषों में सौभरी एवं अमरचन्द्र के कोष का प्रयोग, अनेकार्थी कोषों में मुख्यतः हेमचन्द्रसूरि रचित अनेकार्थ संग्रह, महेश्वर कवि रचित विश्वप्रकाश, श्रीधर रचित विश्वलोचन, हलायुध कोष इत्यादि का उद्धरण देकर कविप्रयुक्त शब्द की सार्थकता सिद्ध करते हुए मुक्त रूप से प्रयोग किया है। व्याकरण ग्रन्थों में पाणिनि के अतिरिक्त कातन्त्र, बुद्धिसागर, हेमचन्द्रीय धातुपारायण, देव और सुभूतिचन्द्र का भी किया है। देव और सुभूतिचन्द्र का व्याकरण ग्रन्थ कौनसा है ज्ञात नहीं है। इस काव्य श्लोक छ: का 'केन जेत्रा' उत्तर वीराज्ञाविनुदतिपापम् शब्द के चार अर्थ भी इनकी नैसर्गिक प्रतिभा के द्योतके हैं। इसी प्रकार श्लोक १० की व्याख्या और श्लोक ११ की व्याख्या भी पठनीय एवं मननीय है। विस्तार भय से यहाँ केवल उल्लेख मात्र किया गया है। इस टीका में भी कवि का मातृभाषा प्रेम ओझल नहीं हुआ है। स्थान-स्थान पर इति भाषा कहकर राजस्थानी शब्दों का भी प्रयोग किया है। श्रीवल्लभोपाध्याय की विशिष्ट शैली के कारण यह टीका भी विद्वद्भोग्या बन गई है। विद्वद्-भोग्या होने पर भी सामान्य पाठक भी इसका अध्ययन कर इसके हार्द को समझ सकते हैं। भाषा प्राञ्जल है, शैली सरल और सरस है, साथ ही लेखक के हृदय के भाव को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करती है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि इस टीका की अपूर्ण प्रति ही हमें प्राप्त हुई। यदि किसी भण्डार में इसकी पूर्ण प्रति प्राप्त हो जाए तो सूचना मिलने पर हम इसे पूर्ण भी प्रकाशित करने का प्रयत्न करेंगे। For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः ८. 'केशाः कञ्जालिकाशाभा:' पद्यस्य व्याख्या सारस्वतव्याकरणस्थ इस पद्य' की व्याख्या में श्रीवल्लभ ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश के वर्ण, आयुध, वाहन और स्थान का अनेकार्थी दृष्टि से सुन्दर प्रतिपादन किया है और अनेक ग्रन्थों के उद्धरण देकर उसे सरल और सरस भी बनाया है। इसकी एकमात्र प्रति महिमाभक्ति जैन ज्ञान भण्डार (बड़ा भण्डार), बीकानेर, पोथी ७० ग्रन्थाङ्क १८९० में प्राप्त होती है । इसका आद्यन्त इस प्रकार है: [ आदि] 50 सारस्वतस्य सूत्रे यत् केशा इति पदं स्फुटम् । तच्छ्लोकटीकामाचष्टे श्री श्रीवल्लभवाचकः ॥ [अन्त] कृतश्चायं श्रीज्ञानविमलमहोपाध्यायमिश्राणां शिष्यवाचनाचार्य श्रीवल्लभगणिभिः स च शिष्यादिभिर्वाच्यमानश्चिरं नन्द्यात् श्रीशारदाप्रसादात्। इस टीका में रचना के संवत् का उल्लेख नहीं है । ९. ' खचरानन पश्य सखे खचरः' पद्यस्य अर्थत्रिकम् इस पद्य के कवि ने तीन अर्थ किए हैं और वह भी एकाक्षर अनेकार्थ कोषों की सहायता से । १०. 'यामाता' पद्यस्य अर्थपञ्चकम् यह श्लोक श्लेषालङ्कार प्रधान है। प्रत्येक शब्द या पदों के पृथक्पृथक् अर्थ करना यह कवि का सहज सम्भाव्य है । कवि ने इसके पाँच अर्थ किए हैं और वह भी एकार्थी अनेकार्थी कोषों के सहयोग से ११. ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी लेखक ने इस कृति में अनेकार्थी दृष्टि से ओकेश और उपकेश पद के पाँच-पाँच अर्थ निरूपित किये हैं । १२. खरतरपदनवार्थी ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी के समान इस कृति में खरतर पद के लेखक ने नव अर्थ किये हैं । इसमें कृतिकार ने अपना नाम नहीं दिया है। न आदि मङ्गल है और न अन्तिम प्रशस्ति है । इसीलिए यह संदिग्धावस्था में है । फिर भी शैली सामञ्जस्य होने के कारण इसे श्रीवल्लभ की कृति मान सकते हैं। For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १३. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल इस वादस्थल में सारस्वतव्याकरण एवं पाणिनीयादि प्रमुख - प्रमुख व्याकरणों के आधार से चौदह स्वरों की स्थापना की गई है। किसी 'कूर्चालसरस्वतीविरुदं मन्यमानः ' प्रतिवादी ने अनुभूतिस्वरूपाचार्य कृत सारस्वतव्याकरण के 'अ इ उ ऋ ऌ समाना: ' और ' ए ऐ ओ और सन्ध्यक्षराणि' सूत्रों के अनुसार स्वर नव ही हैं, स्थापना की । उसे श्रीवल्लभ ने पञ्चविकल्पों की स्थापना कर, सारस्वत, पाणिनिव्याकरण, कलाप, कातन्त्र, सिद्धहेमशब्दानुशासन, सिद्धान्तचन्द्रिका, पाणिनीयशिक्षा आदि व्याकरण और अमरकोष, अनेकार्थसंग्रह, विश्वप्रकाश, हलायुध, वर्णनिघण्टु आदि कोष तथा नरपतिजयचर्यादि ज्योतिष ग्रन्थों का आधार लेकर, सारस्वत व्याकरण की दृष्टि से ही ऋ और ऌ के दीर्घ का अभाव मानते हुए १४ स्वरों की स्थापना कर, प्रतिवादी के मत को निरस्त किया है। इसीलिये श्रीवल्लभ ने इस कृति का नाम भी चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल रखा प्रतीत होता है, जैसा कि इसकी अवतरणिका से स्पष्ट है:सन्ति स्वराः के कति च प्रतीताः, सारस्वतव्याकरणोक्तयुक्त्या । समस्तशास्त्रार्थविचारवेत्ता, कश्विद् विपश्चित् परिपृच्छतीति ॥ २ ॥ पुरातनव्याकरणाद्यनेक, ग्रन्थानुसारेण सदादरेण । तदुत्तरं स्पष्टतया करोति, श्रीवल्लभः पाठक उत्सवाय ॥३॥ यह वाद किस प्रतिवादी के साथ हुआ ? कहाँ पर हुआ ? किसकी सभा में या अध्यक्षता में हुआ ? इस कृति से ज्ञात नहीं होता । 51 यह रचना गच्छनायक श्रीजिनराजसूरि (श्रीजिनराजसूरीन्द्रे धर्मराज्यं विधातरि प्र. प. १) के धर्मराज्य में हुई है और इसमें कवि श्रीवल्लभ ने उपाध्याय पद का प्रयोग किया है। श्रीजिनराजसूरि को आचार्य पद सं० १६७४ में प्राप्त हुआ था। अतः इसका रचनाकाल १६७४ के पश्चात् का ही है । इस कृति में मातृभाषा प्रेम स्पष्ट रूप से प्रकट होता है । व्याकरण जैसे शुष्क और कठिन विषय में भी आइड़ा भे भाइड़ा कहकर अपने जन्म प्रदेश की ओर संकेत किया गया प्रतीत होता है । १४. चतुर्दशगुणस्थान स्वाध्याय यह स्वाध्याय (सज्झाय) भाषा में गुम्फित है । इसमें १४ गुणस्थानों का क्रमशः वर्णन है। इसके २३ पद्य है । यह श्रीवल्लभ मुनि अवस्था की प्रारम्भिक कृतियों में से है । For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः इस प्रकार २५ छोटी-मोटी कृतियाँ अभी तक मेरी जानकारी में आई हैं। इन कृतियों में हम चाहे इनके काव्यों को देखें अथवा टीकाग्रन्थों को, प्रत्येक पृष्ठ पर श्रीवल्लभ का प्रकाण्ड-पाण्डित्य और सौजन्यपूर्ण औदार्य ही प्रफुटित हो रहा है। प्रति-परिचय १.मातृकाश्लोकमाला - इस श्लोकमाला की एकमात्र प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में मुनि श्री पुण्यविजयजी संग्रह में ग्रन्थाङ्क २८८८ पर अङ्कित है। २.विद्वत्प्रबोधकाव्य - इस काव्य की एक मात्र प्रति १७वीं शताब्दी की लिखित श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में उपलब्ध है। पहिले यह काव्य जिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार, सूरत से महावीर स्तोत्र के साथ प्रकाशित हुआ था और पुन: राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से एकाक्षरनामशेषसंग्रह में प्रकाशित हुआ है। ३. तिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथस्तोत्र - श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भण्डार, पाटण, श्री तपागच्छ भंडार, डाबडा २४८, क्र० नं० १२३५७, पत्र १, साइज २५.५ x १२ सी०एम०, पंक्ति १६, अक्षर ४६, लेखन अनुमानतः १७वीं शताब्दी, रचना के तत्कालीन समय की लिखित यह शुद्ध प्रति है। ४. श्री अजितनाथ स्तुति - इसकी एकमात्र ५ पत्रों की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबादस्थ मुनि श्री पुण्यविजयजी संग्रह ग्रन्थाङ्क ५२५० पर सुरक्षित है। इस प्रति में प्रथम पद्य और दूसरे पद्य की व्याख्या सम्मिलित हो गई है और प्रथम पद्य का द्वितीय अर्थ रह गया है अतएव यह विचारणीय है। ५. श्री शान्तिनाथ विषमार्थस्तुतिटीका - यह स्तुति टीका सहित श्रीवल्लभगणि ने स्वयं ने लिखी है इसलिए इसका समय १७वीं शताब्दी है। ६. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य टीका - इसकी प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहालय में क्रमांक १९८६७ पर सुरक्षित है। प्रतिष्ठान के पुष्पाङ्क १२५ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्यूस्क्रीप्ट For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कैटलॉग पार्ट ४, क्रमांक २२९३ पर अंकित है । इसकी साईज २६.८×११.३ पत्र १०, पंक्ति १७ और प्रति पंक्ति अक्षर ४९ हैं । त्रिपाठ है बीच में मूल पाठ दिया गया है और ऊपर नीचे टीका दी गई है । संशोधित प्रति है । जहाँ-जहाँ लेखन/मन्तव्य छूट गया है वहाँ-वहाँ हाँसियों पर एवं ऊपर-नीचे लिखा गया है । कई स्थानों पर स्थानाभाव से अक्षर अस्पष्ट हो गये हैं जो पढ़ने में नहीं आ रहे हैं । 5बी का पत्र कोण खण्डित होने के कारण कई अक्षर पढ़ने में छूट गये हैं । इसीलिए उसको मैंने टिप्पणी में देना ही उचित समझा है। प्रति शुद्ध एवं । स्फीत है । ७. केशाः कञ्जालिकाशाभाः पद्यस्य व्याख्या १८वीं शताब्दी में पण्डित महिमामेरु लिखित इसकी प्रति बीकानेर ज्ञानभण्डार में प्राप्त है । ८. खचरानन पश्य सखे खचर पद्यस्य व्याख्यात्रिकम् - श्रीलालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद, मुनिश्री पुण्यविजयजी संग्रह, ग्रन्थाङ्क २६९७, आकार - २५x१२ से.मी., पत्र २ [१बी एवं २ए ] पंक्ति कुल ३४ । अक्षर ६० । ९. यामाता पद्यस्य व्याख्या - इसकी प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में मुनि पुण्यविजयजी के संग्रह में ग्रन्थाङ्क २६९७ पर है। आकार २५x१२, पत्र १ए, पंक्ति कुल २४, अक्षर प्रति पंक्ति ६० । १०. ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी इस कृति की रचना उपकेशगच्छीय़ आचार्य श्रीसिद्धसूरि के आग्रह से सं० १६५५ में बीकानेर में हुई है। इसकी अनेकों प्रतियाँ बीकानेर, जयपुर, कोटा आदि भण्डारों में प्राप्त हैं । - ११. खरतरपदनवार्थी - यह कृति ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी के साथ ही लिखी हुई प्राप्त होती है । १२. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल इसकी प्राचीन प्रति उपाध्याय श्री जयचन्द्रजी संग्रह, शाखा कार्यालय राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, बीकानेर, श्री कैलाशसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा, अहमदाबाद नं. १६१७७ पत्र ५, ले. - 53 For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः १८वीं शती और श्री खरतरगच्छ ज्ञान भण्डार, शिवजीराम भवन, जयपुर क्रमांक छ. १०६ पत्र ७, ले. १९वीं शती में उपलब्ध है। उपाध्याय जयचन्द्रजी की प्रति में निम्नलिखित उल्लेख भी मिलता है: तत्त्वविचक्षणैर्वाच्यमानं चिरं नन्दतात्। श्रीरस्तु। श्री:छः ।। श्री।। श्रीजिनराजसूरिभिः । तत्सिष्यश्रीमानविजयजी तत्सिष्यश्रीकमलहर्षजी तस्य छात्रवद् विद्याविलासेन लिखतमस्ति ।। श्री।। आभार जिन-जिन ज्ञान भण्डारों से जो-जो प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, उन-उन ज्ञान भण्डार के संवाहकों, जो-जो प्रतियाँ प्रकाशित हुई हैं, उनके सम्पादकों एवं प्रकाशकों तथा श्रीवल्लभ पर जिन-जिन विद्वानों ने लिखा है उन सबका मैं आभार स्वीकार करता हूँ। सुविहित चक्रचूड़ामणि परमपूज्य पूज्यपाद स्वर्गीय श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज की भी अमोघ कृपा से इस प्रकार के साहित्य-युग में मैं सहयोग दे सका इसके लिए मैं उनका विनयावनत हूँ। शासनसम्राट् प.पू.आ. श्री विजयनेमिसूरीश्वरजीकी पट्टपरंपरामें विराजमान जिनशासनशणगार प.पू.आ.श्री विजय चन्द्रोदयसूरीश्वरजी म.सा. के लघुबंधु सूरिमंत्रसमाराधक प.पू.आ.श्री विजयअशोकचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य सौम्यस्वभावी प.पू.आ.श्री विजयसोमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का में अत्यत आभारी हूं । जिनका मार्गदर्शन इस पुस्तक प्रकाशनमें हमें प्राप्त हुआ । परम पूज्य आ.श्री विजयसोमचन्द्रसूरिजीकी प्रेरणा से पुस्तक प्रकाशनके लीए आर्थिक सहयोगकर श्रुतभक्तिकरने वाले श्री रांदेर रोड जैन संघका भी में आभारी हूं। इसके सम्पादन में मेरे अनुजकल्प पण्डित नारायण शास्त्री काङ्कर जो कि राष्ट्रपति-पुरस्कार से सम्मानित हैं उन्होंने इसमें पूर्ण रस लेकर सहयोग दिया है, इसके लिए मैं उनको अत्यन्त आशीर्वाद देता हूँ। ___ मैं अपनी दिवङ्गत पुण्यात्मा धर्मपत्नी श्रीमती सन्तोष जैन के प्रति भी अपनी भूयसी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिसने मुझे गार्हस्थ्य चिन्ता से For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मुक्त होकर इस दुष्कर साहित्य साधना-व्रत के निर्वहण में सतत संलग्न रहने के लिये अविरत प्रोत्साहित किया है। अन्त में मेरे आयुष्मान् पुत्र मञ्जुल जैन, पुत्रवधू नीलम जैन, पुत्र विशाल जैन, पौत्री तितिक्षा और पौत्र वर्द्धमान की सतत प्रेरणा से मैं इस कार्य को सम्पन्न कर सका, इसके लिए हृदय से इन सबको आशीर्वाद। प्रस्तुत ग्रन्थ का कम्प्यूटरीकरण करने में सागर सेठी का भी पूर्ण सहयोग रहा है, अतएव इनको भी आशीर्वाद। म. विनयसागर For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः वाचकोत्तंस-श्रीश्रीवल्लभगणिविनिर्मितः श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः * ) कृति-नाम १. मातृका-श्लोकमाला २. विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् ३. श्रीपार्श्वजिनस्तोत्रम् तिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ५. श्री अजितनाथस्तुति: मूलार्थपरिहाररूपा टीकाद्वययुक्ता ६. श्री शान्तिनाथ-विषमार्थस्तुति टीका प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् ८. केशाः कञ्जालिकाशाभाः पद्यस्य व्याख्या ९. खचरानन पश्य सखे खचर पद्यस्य व्याख्या-त्रिकम् यामाता पद्यस्य अर्थपञ्चकम् ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी खरतरशब्दनवार्थी १३. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलम् १४. चतुर्दशगुणस्थानस्वाध्याय परिशिष्ट - १ परिशिष्ट - २ १२२ १२६ *** For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशान्तिं प्रणिपत्य नित्यमनघं सनम्रकम्रामराधीशाभ्यर्चितपूजनीयचरणाम्भोजं जनानन्दनम् । विद्वबुद्धिसरोजसूर्यसदृशीं श्रीश्लोकमालामहं, वक्ष्ये काव्यकलाशुसिद्धय इमां श्रीमातृकायाः शुभम् ।। १ ।। चतुर्विंशतिसार्वाणां प्रथमे ह्यत्राऽस्ति वर्णना । भिन्नभिन्नपदार्थानां परिच्छेदे द्वितीयके ।। २ ।। तद्यथा वाचकोत्तंस - श्री श्रीवल्लभगणिविनिर्मिता श्रीमातृका - श्लोकमाला । ।।६० ।। ॐ नमः ।। एँ नमः ।। चतुर्विंशतिजिनवर्णनो नाम प्रथमः परिच्छेदः अनेकदेवासुरपूजनीया, अहर्निशं रान्तु सुखानि सार्वाः । अगण्यपुण्याम्बुधयः शरण्या, अनिष्टदुष्कर्महरा वरेण्याः ।। ३ ।। आतङ्कदोषक्षयकारि धर्मम्, आदीश्वरो यच्छतु मङ्गलानि । आश्चर्यकारी भविनां जिनेश, आभासिता येन महोदय श्रीः । । ४ । । इलातलख्यातयशा वरौजा, इतामयः श्री अजिताह्वसार्वः । इतो भवात् पातु जगत्प्रतीत, इभाङ्कशाली गुणरत्नमाली ।। ५ ।। ईष्टे त्रिलोक्यां किल तीर्थराज, ईशो मुनीनां स हि शम्भवाख्यः । ईर्ष्यालुतामुक्तविशुद्धचेता, ईड्यस्सतां वैरिगणस्य जेता । । ६ ।। उदारतारञ्जितसाधुचेता, उपास्यतां भव्यजना जिनेशः । उपासना यस्य ददाति पद्माम्, उपासकानामभिनन्दनाह्वः ? ।। ७ ।। ऊर्जेन बुद्धेर्विदितप्रतिष्ठ, ऊर्जस्वि धीमत्प्रतिवादिगोष्ट्याम् । ऊर्ध्वं गतं यद्यश एधते वै, ऊर्वान् क्रियाच्छं सुमतिर्जिनस्सः । । ८ । । * सन्ध्यभावः For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः ऋद्धिप्रदाता सततं त्रिलोक्या, ऋध्यन्महासंयमरम्यलक्ष्म्या । ऋजस्व' पुण्यानि विशां वरश्रीः ऋश्येङ्ग' पद्मप्रभतीर्थनाथ।। ९।। ॠकारमन्त्रेण सुजप्त एष, ॠदायकः स्यान्नितरा जनानाम् । ॠभूत्करैरक्र्कितपादपद्म, ऋतामृतश्रीश्च सुपार्श्वसार्वः ।। १० ।। 'लृतकनतजनानां मङ्गलानि प्रदेयाः (प्रदद्या:) लृफिडकपटहारी सार्वचन्द्रप्रभ त्वम् । लृतनययतिराज्या' गीतविख्यातकीर्त्ति लृरिव' विशदतेजाः केवलज्ञानभास्वान्।। ११ ।। ऌभ्विन्द्रभूमीन्द्रकृतोपचर्य", ॡकारमन्त्रोपमनामधेयः । ऌलोकचक्रस्य११ ददातु बुद्धी -ऌजातसेव्यः १२ सुविधिः स्वयम्भूः।। १२ ।। एधित्वगम्भीर उदारचेता, एनांसि नाशं नयतान्मुनीनाम् । एषोऽब्जसौम्याननशीतलेश, एकाग्रसद्ध्यानमना जिनेश: ।। १३ ।। ऐश्वर्यवृद्ध्यै भवताद्धतांहा, ऐरावताङ्गोपमवर्ण्यवर्णः । ऐन्द्रीं श्रियं योऽनुचकार सद्य, ऐश्यश्रियैकादशतीर्थपः सः ।। १४ ।। ओघं मघानां विदधातु देवा ओजोयुता यस्य यशः स्तुवन्ति । ओकः कलानां च लसद्गुणाल्या, ओर्जाप्रदः १४ श्रीजिनवासुपूज्यः ।। १५ ।। १. स्तोतव्यज्ञानेत्यर्थः । ३. धनदायकः । ५. प्राप्तमुक्तिश्रीः । ६. सत्यकथनलृलोकानाम् । ७. ऋक् गतौ, इग्रति मिथ्यात्वं प्राप्नुवन्ति ये ते ऋफिड़ा:, कुतीर्थिन इत्यर्थः । बाहुलकात् फिडक् प्रत्ययः। ततः ऋफिडादीनां डश्च इत्येनन ऋकारस्वरस्य लृत्वे लृफिडास्तेषां कपटं हरतीत्येवंशीलः लृफिडकपटहारी । २. पाकीकुरु । ४. सुरसङ्घैः । ८. लृः सप्तर्षीणां माता तस्यास्तनयाः पुत्रा लृतयास्ते ते यतिनश्च लृतनययतिनः सप्तर्षय इत्यर्थः, तेषां राजी श्रेणिस्तया । ९. अग्निः । ११. मूर्खजनवृन्दस्य । १३. समुद्रगम्भीरः । १४. आ समन्तात् ऊर्जां जीवनं प्रददाति यः स तथा । १०. सुरेन्द्र भूपतिकृतसेवः । १२. नागकुमारसेव्यः । For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमातृका-श्लोकमाला औदार्यगाम्भीर्यगुणैर्गरिष्ठः, औन्नत्ययुक्तो विमलः स सार्वः । औद्धत्यहृद् रातु सुखं त्रिलोक्या औचित्यमर्चा धरतीह यस्य ।। १६ ।। अंतकनाशक चञ्चुरचेता, अंचति५ ना तव यश्चरणौ वै। अंकत१६ आशु सुखानि गतागा, अंयुगऽनन्त जगद्धितकारिन्।। १७ ।। असम८ कामहतौ विहतैना, अःस्थितमानस९ नाशय दुःखम्। अस्त कुवादिमतप्रतिमौजा, अस्तुलभायुत२१ तीर्थपधर्मः ।। १८।। कनककान्तिसमानशरीररुक्, कलुषमेष निरस्यतु मामकम् । करणवारणवारणसद्धरिः, कलगुणः किल शान्तिजिनेश्वरः ।। १९ ।। खनतु पापखनिं करुणानिधिः, खलकलाम्बुजनाशनचन्द्रमाः । *खरतरा अथ कुन्थुजिनेश्वर: खचरनिर्जरकिन्नरसंस्तुतः ।। २० ।। गगनमणिरिवेदं ज्ञानमाविष्करोति, गणधरवरराजो वस्तुजातं हि यस्य। गज इव तरुवृन्दं नाशयैनो मदीयं, गतिजितकरिराजोऽराऽऽप्त स त्वं प्रसद्य ।। २१ ।। घोरचोररिपुभीतिविनाशी, घट्टितामृतरस: शुभदायी। घट्टयाश्वनिशमिष्टसमृद्धिं, घर्षिताऽकुशल मल्लिजिन त्वम् ।। २२ ।। ङाक्षरवक्रकुकर्मविनाशिन्, २२ङाचयमाशु विधेहि विधातः । ङागत२३ सुव्रततीर्थप नित्यम् ङामदरोगसुखेतरहारिन्२४ ।। २३ ।। चर्कर्तु भर्ता वरमुक्तिलक्ष्म्या, श्चञ्चच्छुभं भक्तजनस्य नित्यम् । चन्दद्गुणो२५ यो नमिनाथसार्व,-श्चन्द्रोपमक्षान्तिरसाम्बुधिस्सः ।। २४ ।। १५. पूजयति। १६. प्राप्नोति। १७. परमब्रह्मसहित। १८. शिवतुल्यः। १९. असि आश्चर्ये स्थितं मानसं यस्य स तथा तत्सम्बोधने अ:स्थितमानस। २०. क्षिप्त। २१. असः सूर्यस्य तुला यस्याः सा अस्तुला सा चासौ भा च अस्तुलभा, तया युतो यः स तथा तत्सम्बोधने अस्तुलभायुत। * वस्तुस्तु पादेऽस्मिन्नेकवचनान्त एव प्रयोगः समुचितः, परं ग्रन्थकारेण बहुवचनान्त: कृत इति हेतोस्तस्य चिन्त्यत्वेऽपि तथाभूत खरतरा। इति शब्दो निहितः । २२. ङाचयं लक्ष्मीनिचयम्। २३. सिद्धिगत। २४. निन्दामदरोगदुःखनाशक। २५. चन्दन्त आह्लादयन्तो दीप्यमाना गुणा यस्य स तथा। For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः छिन्नच्छलो नेमिजिनेश्वरस्सः, छिन्द्यात्तमां कर्ममलानि सद्यः। छेकाललोकाः स्तवनं यदीयं, छिन्दन्त एनो रचयन्ति दिष्ट्या ।। २५ ।। जयतु पार्श्वजिनस्स विधीयते, जनतया नतया च यदर्चनम्। जलदकान्तिसमानशरीररुग्, जगति दीप्तयशा जयवानहो!।। २६ ।। झषध्वजस्थाममहीध्रवज्रो, झरां२६ नयत्वाऽऽश्वऽशुभानि मेऽद्य। झट्यन्त एनांसि च यत्प्रसत्त्या, झगित्य८ थो वीरजिनेश्वरस्सः ।। २७ ।। इति श्रीमातृकाश्लोकमालायां चतुर्विंशतिजिनवर्णनो नाम प्रथमः परिच्छेदः।।१॥ * ** अथ भिन्न-भिन्नपदार्थवर्णनो नाम द्वितीयः परिच्छेदः प्रारभ्यते अमाप्रद:२९ पातु भवाजनानां, अमन्त्रजप्तो हितकारकश्च। अ उत्तरश्रीश्च नरायणस्स, अतुल्यभाल:३१ कमलाभनेत्रः ।। १ ।। टङ्कोपमो३२ व्याजदृषद्विनाशे, टङ्कोज्झित:३३ शर्मयुतो महेशः। टङ्गायुधेना४ऽऽह तदानव त्वं, टङ्क्या५ जनानां दुरितानि शीघ्रम्।। २ ।। ठत्वं विधाता मम सेवकस्य, ठग्या त्तमामक्षरमन्त्रकर्ता। ठेत्यक्षरं यो वलयेति नाम्ना, ठादेषु मन्त्रेषु समाचचक्षे ।।३।। २६. हानिम्। २७. झट्यन्ते विनश्यन्ते। २८. शीघ्रम्। २९. ज्ञानलक्ष्मीप्रदः। ३०. जो गूढरूपः। ३१. ञः चन्द्रार्द्धमण्डलं तत्तुल्यं भालं ललाटं यस्य स तथा। ३२. पाषाणदारकसमानः । ३३. कोपरहितः। ३४. खड्गयुधेन। ३५. हन्यात्। ३६. ठस्य भावः ठत्वं, सठत्वमित्यर्थः। ३७. हन्यात्। ३८. विजयेषु। For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमातृका-श्लोकमाला डिण्डीरपिण्डसमपाण्डुरशीलसेवी*, डीनाऽमलाऽनल्पसुकल्पकल्प:३९ । डिम्ब सुराणां शिखिवाहनो १ऽसौ, डिम्भ्या २त्तरामाऽऽहतदानवौघः ।। ४।। ढक्कादिवाद्यानि च यत्पुरस्तात्, ढौकन्त ऋद्धा मनुजाः स्मरन्तः । ढुंढी सुदेवी प्रददातु बुद्धीौक्या३ नितान्तं बुधलोकचक्रैः ।।५।। णकारमन्त्राक्षरजप्तनामा, णमा नवव्राजसभाजिताघ्रिः५ । णमा प्रदद्यात् सकलां गणेशो, णदायक:४७ शान्तिविधायकश्च ।। ६।। ततसुदीधितिराऽऽशु तमस्तर्ति, तरणिरेष विनाशयतु प्रगे। तरुणसत्किरणैररुणैररं, *तमसनाशकर:४८ कृतपद्ममुत्९ ।।७।। थे देहि सद्यो लसदुत्पलानां, थट्टै:५१ कलानां कलितो दिनेशात्। थे चोदयस्योदितत:५२ सुकान्ते, थोरोहिणीनायक चन्द्रमस्त्वम्।। ८ ।। दिक्पालमुख्यो दयितो जनानां, दक्षक्षमानाथमन:प्रमोदी। दिष्टिं५३ विशिष्टां हि सुभिक्षकारी, दद्यात्तमां सोमसुदैवतोऽसौ।। ९ ।। धनपतिः सुरनायकसेवको, धवलरूप्यमहीध्रकृताश्रयः । धनद एव समृद्धिविधायको, धरतु शर्म च यच्छतु सुश्रियम् ।। १० ।। नलिनमोहनशोभनलोचनो, नरवरार्चितपश्चिमदिक्पतिः। नयतु भद्रशतान्यमिताग्न्यऽसौ, नयमयोर्णवमन्दिरऋद्धिदः ।। ११ ।। परमपुण्यपवित्रविचित्ररुक्, पटुगुणः प्रवण: करुणाविधौ। पविपतिस्त्रिदशाननिशं नतान्, पदमसौ प्रददातु पुरन्दरः ।। १२ ।। * पद्येऽस्मिन् प्रथमचरणे वसन्ततिलकाया अवशिष्टे पादत्रये चेन्द्रवज्राया नियमानुसारेण च्छन्दोद्वैविध्यमिति ग्रन्थकृदानृकूल्यसुरक्षाधिया तथैव पद्ममिदमुपन्यस्तम्। ३९. प्राप्तनिर्मलप्रचुरसुवेदाङ्गनयः। ४०. भयं डमरं वा। ४१. कार्तिकेयः। ४२. हन्यात्।। ४३. सेव्या। ४४. योग्य। ४५. सेवित्। ४६. स्पष्टलक्ष्मीम्। ४७. ज्ञानदाता। * यद्यपि तमस । इत्यकारान्तः प्रयोगो न साधीयान् तथापि मूलसुरक्षाविचारेण स एवाऽत्र गृहीतः । अन्यथा तु तिमिर-नाशकर:- इत्यपि भवितुमहति। ४८. अन्धकारनाशकरः। ४९. हर्षः। ५०. भीत्रणम्।? ५१. सङ्गैः। ५२. किम्भूताद्धि थेचोदयस्य उदयस्य थे पर्वते उदयाचले इत्यर्थः, उदिततः उदिता इत्यर्थः । ५३. आनन्दम्। ५४. त्राणम्। For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः फटपदिष्ठवराङ्गवराङ्गरुक्, फणिपतिर्धरणी धरतात्तराम्। फणितकिल्विषकिल्विषकल्मष:५५, फलितपेशलकोमललोचन:५६ ।। १३ ।। बहुलपुष्कलमङ्गलमण्डलीं, बलवतां बलता७ परमेश्वरः। बत५८ सतां यतिनां नमतां सदा, बहुकलाकलितः कुशलाशयः ।। १४।। भगवतोऽभ्युपपत्तिवशा"च्छुभं, भवतु पुण्यवत: परमात्मनः । भवत एधित विश्वलसद्यशो, भयभरोज्झित भूमिपते प्रभो।। १५ ।। मुनिपतिर्नयवान्नयतादसौ, मतशुभानि१ शुभानि२ जनस्य वै। मनुजपूजितसच्चरणाम्बुजो, मथितमन्मथदुस्सहदर्परुक् ।।१६।। यमो हि दिक्पालवरो विभाति, यथार्हदण्डं प्रददान एषः । यथा पतिः पूर्वदिशः सुरेन्द्रो, यशोयुगीशश्च तथा ह्यपाच्याः ।। १७ ।। रामो नपेन्द्रः प्रणताङ्गभाजां, रम्यां रमा रातु मनः प्रसन्नः । राजव्रजैस्सेवित एधिती , रत्नाकरः सद्गुणरत्नराज्याः ।। १८ ।। लुलितमिलितपृथ्वीपालभालाभिसेव्यो, ललितचतुरराज्या रञ्जितः स्पष्टवाग्भिः । लसितसितगुणोघो लक्ष्मणाख्य: कुमारो, लयनयचययुक्तस्तुष्टिपुष्ट्यै समस्तु ।। १९ ।। वनमिदं प्रतिभाति महत्तरं, वरफलालियुतैस्तरुभि: शुभम्। विजितनन्दननन्दनसत्प्रभं, विविधपक्षिमधुव्रतसेवितम्।। २० ।। शमयतु जनतायाः पातकानां प्रतानं, शमरसऋतियुक्तैर्योगिभिः सेवनीयः । शमनशमनकामोत्तुङ्गमातङ्गसिंह:, शिशिरकिरणचञ्चच्छुक्लिमा नष्टकष्टः ।। २१ ।। षण्ढत्ववल्लीपरशुः सुधर्मः, षड्वर्गसंसर्गवियुक्त एषः। षण्डालिका४ सङ्गमदोषवादी, षिड्गेतरै राजति पुम्भिरपः ।। २२ ।। समुद्र एष प्रतिभाति नित्यं, सरित्स्फुरन्नीरसुसङ्गमाढ्यः । सदा निशानाथसुवृद्धवेलः, सतां जनानां स्तवनीय इष्टः ।। २३ ।। ५५. नाशितरोगाऽपराधपातकः । ५६. फलितानि विस्तीर्णानि अक्षीणि द्विसहस्रत्वात्, पेशलानि मनोहराणि कोमलानि मृदूनि लोचनानि यस्य स तथा। ५७. दत्ताम्। ५८. हर्षेण। ५९. प्रसादात्। . ६०. तव। ६१. सम्मतभद्राणि। ६२. भव्यान। ६३. कल्याणसहितैः। ६४. कामुकस्त्री। For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमातृका-श्लोकमाला हतकुतीर्थिमतं भगवन्मतं, हरतु दुर्गतिपातकपातकम्। हरिहरादिसुरैरजितप्रभं, हसितचन्द्रसुचन्द्रगुणैर्युतम्।। २४ ।। लख्यातकीर्तिर्गुरुरेष जीयाल्लब्धप्रतिष्ठः प्रतिवादिगोष्ठ्याम्। ल्लानाथशौक्ल्योपम यत्प्रसादाल्लष्टप्रतिज्ञो भवतीह मूर्खः ।। २५ ।। क्षेमङ्करैस्तीर्थकरैर्य उक्तः, क्षामः कुतीर्थ्यालुदितैः कलङ्कः। क्षिप्यात्तमामागम एष पापं, क्षेत्रं गुणानामथ चिन्मयस्सः ।। २६ ।। इति श्रीमातृकाश्लोकमालायां भिन्नभिन्नपदार्थवर्णनो नाम द्वितीयः परिच्छेदः। [प्रशस्तिः ] श्रीमद्विक्रमनगरे प्रवरे द्रव्याढ्यसभ्यजनवृन्दैः। इषुशरषोडशसंख्ये (१६५५) वर्षे मासे च चैत्राख्ये।। १ ।। येषां प्रथते पृथिव्यां कीर्त्तिः कर्पूरपूरसंकाशा। पाठकमुख्या नन्द्युर्ज्ञानविमलपाठकाधीशाः ।। २।। शिष्येण निर्ममे येषां मातृकालोकमालिका। वाचक श्रीवल्लभाह्वेनाऽऽत्मीयज्ञानस्य८ वृद्धये।। ३ ।। यं वर्णं यश्च बुधः कथयत्यादौ विधाय तं विद्वान्। कुर्यात् सद्यः पद्यं चतुर्यु पादेषु निश्शङ्कः ।। ४।। यस्यैषा याति मुखे सुखेन लभतां स सत्वरं सभ्यः । विद्वज्जनेषु विद्वान् सौभाग्यौघं कवित्वञ्च ।। ५ ।। यस्मिन् काव्येऽस्ति यन्नाम व्यत्ययात्तस्य सत्वरम्। यथोक्तवर्ण्यस्य सद्व्याख्या तदा ज्ञायेत भो बुधाः ।।६।। इति श्रीमातृकाश्लोककमालाप्रशस्तिः समाप्ता।। तत्समाप्तौ समाप्ता चेयं श्रीमातृकाश्लोककमाला।। श्रीरस्तु लिखितं त्रैलोक्यस्यन्ताह्न। छ। छ।।श्री।। ६५. लोक। ६६. ला गौरी तस्या नाथो लानाथो महादेव इत्यर्थः । ६७. लक्ष्यानुरोधात् श्रीयोगे वाचक इत्यत्र गुरुत्वाभावः, यथा धन प्र-न श्रुतेन क वित्यादिचदिहापि न दोषपोषः । ६८. अस्मिंश्चरणे एकाक्षरवृद्धिः । अत एकाक्षर न्यूनतायै ज्ञानस्ववृद्धये इत्यस्यस्याने ज्ञान वृद्धये इति पाठः सप्रचितः For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकोत्तंस-श्रीश्रीवल्लभगणिविनिर्मितम् विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् [सौभरिकोशद्वयाश्रयकाव्यरूपम् ] (टिप्पणीयुतम्) प्रथमः परिच्छेदः सारदां शारदां देवीं, श्रीगुरुं सुगुरुं पुनः । प्रणम्य क्रियते शास्त्रं, विद्वत्प्रबोधनामकम् ॥ १ ॥ तत्र संयोगिवर्णौघै, - र्वर्ण्यते वस्तुवर्णना । सकर्णलब्धवर्णानां, प्रबोधाय प्रबोधदा ।। २ ।। तत्रास्मिन् प्राक् परिच्छेदे, वर्णनं क्रियतेऽधुना । गजाश्ववृषभादीनां चतुश्चरणधारिणाम् ।। ३ ।। क्णातले गजघटा प्रकटेष्टे, क्णालीकृदिव सज्जलदाली । क्णापतीन्द्र ! हृदयस्य मोददा, क्णारिराजिरनिशं मददीप्ता ।। ४। , टिप्पणी - क्णा = भूः तस्याः पतय:, तेषां इन्द्रः तत्सम्बोधने हे ' क्णापतीन्द्र !'=नरनाथ ! । क्णाया: = भुवस्तलं तत्र, प्रकटा गजघटा अनिशम् ईष्टे। केव? ‘सज्जलदालीव'=सन्मेघश्रेणिरिव । किम्भूता सज्जलदाली ? क्णानां=धान्यकणानाम् आवली तां करोति इति क्विपि क्णावलीकृत् । किम्भूता गजघटा ? हृदयस्य मोददा। पुनः किम्भूता गजघटा ? क्णा=छिन्ना अरिराजिर्यया सा तथा । पुनः किम्भूता गजघटा ? मददीप्ता ।। ४।। क्तिप्रभेन्द्रहरिकालनैर्ऋत, - क्ताऽनिलैलविलकेशदिग्धवाः । क्ताबलेन रचयन्ति यत्स्तुतिं क्तस्फुटा द्विपघटा विभाति सा ।। ५ । थालिद्दशदिशो धृता यतः, क्थं हरन्त्यविकलं तया हि च । क्थो नृणां कथयतीत्ययं जनः, क्थेड् ! न किं भवति वै स्वकार्थिकः ॥ ६ ॥ युग्मम्।। टिप्पणी- कथा - मही तस्याम् ईष्टे स्वामित्वेन क्थेड्= राजा तदामन्त्रणं थेट् ! ? क्ति: सूर्य:, = 'हे क्थेट् !'=राजन् ! सा द्विपघटा विभाति । किम्भूत हे तद्वत् [प्रभा-] प्रतापो यस्य स तदामन्त्रणम् । सा का ? For Personal & Private Use Only यस्या: - द्विपघटाया: = Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् स्तुतिः यत्स्तुतिः तां 'रचयन्ति' कुर्वन्ति। के ? इन्द्रश्च हरिश्च कालश्च यमः नैर्ऋतश्च क्तश्च-वरुणः अनिलश्च वायुः ऐलविलकश्च=कुबेर: ईशश्च-ईशानः इन्द्र-हरि-काल-नैर्ऋत-क्ता=ऽनिलैलविलकेशाः, ते च ते दिग्धवाश्च–दिक्पतय इन्द्र-हरि-काल-नैर्ऋत=क्ताऽनिलैलविलकेशाः । ते च ते दिग्धवाश्च दिक्पतय इन्द्र-हरि काल-नैर्ऋत-क्ता=ऽनिलैलविलकेशदिग्धवाः। केन? क्ता-वाक् तस्या बलं तेन, वाक्पाटवेन इत्यर्थः। दिक्पतयः स्तुतिं रचयन्ति तत्र हेतुमाह= यतः यस्मात् कारणात् 'तया' द्विपघटया दशदिशो धृता अतः कारणादेव स्तुवन्तीति। को भावः? दिशां धारका गजाः, इन्द्राद्याश्च दिशां पतयः, गजाश्च दिशस्तदैव धरन्ति यदा सन्तोषिता भवन्ति, 'सन्तोषित एव कार्यं करोत्यन्योऽपि' इति लोकोक्तिः, अत एव इन्द्रादीनां स्वार्थः, तेन द्विपघटां तावकीं दृष्ट्वा दिग्गजभ्रान्त्या स्तुवन्तीति भावः । 'हि' यस्मात् कारणाद् 'नृणां क्थः' मनुष्याणां सङ्घ इति कथयति। इति इति किम्? अयं जनः 'वै' स्फुटार्थे, अयं जनः 'स्वकार्थिकः' स्वार्थी किं न भवति? अपि तु भवति इत्यर्थः । काक्काऽत्र नञ्, यतो यस्य स्वार्थः भवति स तद्वर्णनं करोत्येव, अतो गजान् दिग्धर्तृत्वेनेन्द्राद्याः स्तुवन्तीति। किम्भूता द्विपघटा? क्तेन ज्योतिषा बलकान्त्या स्फुटा क्तस्फुटा। पुनः किम्भूता द्विपघटा? क्थस्य दुःखस्य आलिः क्थालिः, तां हरतीति क्थालिहृत् । किं कुर्वाणा द्विपघटा? 'अविकलं' सर्वं 'क्थं' दैन्यं हरन्ती।। ५ ।। ६।। युग्मम्।। क्थावलीहरणतत्परोद्धरा, स्थावली ह्यलति मञ्जुलोबला। क्थापते! तव घनार्जितश्रियः, क्थेन चैव तदवापनं यतः॥७॥ टिप्पणी-क्थाया: भुवः पतिः क्थापतिस्तत्संबुद्धौ हे क्थापते!=नृप! तव स्थानां गजानामावली स्थावली हि निश्चितमलति-दीप्यते। किम्भूता क्थावली? क्थावलीहरणतत्परा-दुःखश्रेणिहरणप्रहा। उद्धरा-उत्कटा। किम्भूता? मञ्जुलोबला-मञ्जुलम् उत्कृष्टं च बलं यस्याः सा तथा। किम्भूतस्य तव? घनाऽर्जितश्रियः यतः यस्मात्कारणात् क्तेन-घनेनैव तदवापनंगजघटाप्रापणं भवति, अत एव घनार्जितश्रीरिति विशेषणम्।।७।। क्नप्रदस्तव गजः स सङ्गरे, वनाधिनाथ! हरति द्विषां बलम्। क्नद्वयस्य सुखकारियद्यशः, क्नुप्रसद्मविहितस्थितीन्दति।।८।। For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः टिप्पणी-हे क्नाधिनाथ हे नृपते! तव स गजः सङ्गरे युद्धे द्विषां बलं हरति । स कः? यद्यशः जयकीर्तिः इन्दति, इदि परमैश्वर्ये। किम्भूतो गजः कप्रदः उत्सवदाता, किम्भूतं यद्यशः? कद्वयस्य कर्णयुग्मस्य सुखकारि। पुनः किम्भूतं यद्यशः? नवः समुद्रास्त एव प्रसद्म तत्र विहिता स्थितिर्येन तत् लुप्रसद्मविहितस्थिति।।८।। क्मोज्झिता अपि यतीश्वरा यकं, क्मायुताः सततमर्कयन्त्यरम्। क्यूप्रभाप्रतिभदन्तसुन्दरः, क्मक्षम! क्षितिप! भाति स द्विपः॥९॥ टिप्पणी-'हे क्षितिप!' भूप! स 'द्विपः' गजः भाति । स कः? यकं यतीश्वरा अपि 'सततं'=प्रत्यहं अर्कयन्ति स्तुवन्ति। किम्भूता यतीश्वराः? 'क्मोज्झिता:' कन्दर्परहिताः। पुनः किम्भूता यतीश्वराः? क्मया-रत्या युताः क्मायुताः । किम्भूतो द्विपः? क्म शङ्खस्तस्य प्रभा तया प्रतिमौ सदृशौ यौ दन्तौ ताभ्यां सुन्दरो यः स तथा। किम्भूत हे क्षितिप!? क्मेषु कर्मक्षमः=समर्थो यः स तथा तत्सम्बोधनम्।। ९ ।। क्यप्रताप! नृपतीन्द्र! तावकः, क्यप्रतप्तघनगोलबिन्दुयुक्। क्यब्विलोप इव पञ्चमी गजः, क्यऽद्भुतेभसम आपताजयम्।।१०।। ॥ इति गजवर्णनम्।। टिप्पणी हे नृपतीन्द्र! तावको गजो जयम् आपतात्' प्राप्नुयात्, “आप्Mण् लम्भने" यौजादिकः । कां क इव? पञ्चमी विभक्तिं 'क्यब्विलोप इव' यथा क्यब्लोपः कर्मणोऽर्थे अधिकरणस्यार्थे च पञ्चमी विभक्तिं प्राप्नोति तथा गजो जयं प्राप्नुयादित्यर्थः । किम्भूत हे नृपतीन्द्र!? क्यः सूर्यः स इव प्रतापो यस्य स तथा तदामन्नणम्। किम्भूतो गजः? क्यः =अग्निः तेन प्रतप्तो यो घनगोल:=लोहगोलकः तद्वद् ये रक्ता बिन्दवः तैः युग्=युक्तो यः स तथा, रक्तबिन्दुमानित्यर्थः। पुनः किम्भूतो गजः? किम् इन्द्रः तस्य यः अद्भुतेभः सम्यग् हस्ती तेन समः=समानो यः स तथा।। १० ।। ॥इति गजवर्णनम्॥ क्रामति क्षितिपते! तुरङ्गमः, क्रष्टमाश्वरिभुवं जयावहः। क्रष्टुवच्चतुरताविराजित!, क्रान्तशक्रतुरगप्रभोदयः।।११।। टिप्पणी–'हे क्षितिपते!'=नृप! 'तुरङ्गमः' अश्वः ‘क्रामति'-पादविक्षेपं करोति। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् ११ किं कर्तुम् ? ' आशु ' = शीघ्रम् 'अरिभुवं' रिपुपृथ्वीं 'क्रष्टुं' = विलिखितुम् । किंवत् ? 'क्रष्टृवत्' = कर्षुक इव, यथा कर्षुको भुवं क्रष्टुं क्रामति तथा । किम्भूतस्तुरङ्गमः ? जयावहः । किम्भूत हे क्षितिपते ! ? चतुरताविराजित ! पुनः किम्भूतस्तुरङ्गमः ? क्रान्तः शक्रतुरगस्य = उच्चैः श्रवसोऽश्वस्य प्रभोदय:- शोभोदयो येन स तथा ।। ११ । क्लेशितातुलबलावलोकनक्लेशकारकविपक्षपक्षकः । क्लीबतारहितचेतसां विशां, क्लान्तिकृज्जयति भूपते ! हयः ।। १२ ।। टिप्पणी- हे भूपते ! हयो जयति । किम्भूतो हयः ?" क्लेशि बाधने" क्लेशितः अतुलबलावलोकनेन क्लेशकारकविपक्षाणं पक्षो येन स तथा । पुनः किम्भूतो हयः ? क्लीबतारहितचेतसां 'विशां ' = नृणां क्लान्तिकृत् ।। १२ ।। क्वाप्यवस्थितिमसावनाप्नुवन्, क्वाथ हा! हरिहयो हरिं श्रितः । क्वां हयोऽसति यदोजसा जितः, क्वाण एष जगतीति वर्त्तते ॥ १३ ॥ टिप्पणी- 'जगति'-लोके 'एषः '= प्रत्यक्षः 'क्काण:- शब्द इति वर्त्तते । इतीति किम् ? स हय: ‘क्कां'=पृथ्व्याम्' असति' दीप्यते । स कः ? यदोजसाऽसौ ‘हरिहय:'=उच्चैःश्रवाः जितः सन् क्वापि अवस्थितिम् अनाप्नुवन्, 'हरिम्'=इन्द्रं ‘श्रितः'=आश्रितः। किम्भूतो हयः ? 'क्वाथहा'= दुःखहा।। १३।। ख्यातकीर्त्तिरसकौ हयो वरः ख्याति खल्वविकलं जयं तव । ख्यातिमन्नृपं! सुलालिकामिषैः, ख्यान्ति पण्डितजना इति स्फुटम्।।१४।। टिप्पणी- पण्डितजना इति स्फुटं ' ख्यान्ति' = कथयन्ति । इतीति किम् ? हे नृप! असकौ हयः तव 'खलु'=निश्चितम् अविकलं जयं 'ख्याति'= आचष्टे । कै: ? 'सुलालिकामिषै: 'शोभनलालाव्याजैः । किम्भूतो हयः ? ख्यातकीर्त्तिः । पुनः किंभूतो हयः ? वरः । किंभूत हे नृप ? ख्यातिमन् ! ।। १४ । । खक्षमापंतिततिप्रणाशक, स्राधिनाथ! विचरँस्तुरङ्गमः । , स्रं प्रयच्छति तवारिसन्ततेः, स्रं विनैव कुतुकं त्विदं महत् ।। १५ ।। टिप्पणी-हे स्राधिनाथ != भूपाल ! तुरङ्गमः विचरन् सन् तवारिसन्ततेः स्रं-खङ्गं विनैव सं=मरणं प्रयच्छति, इदं महत् कुतुकम् । किं० ? हे स्राधिनाथ ! स्रा:-दुष्टहृदयाः ये क्षमापतयस्तेषां ततिस्तस्या; प्रणाशकस्तदामन्त्रणम् ।। १५ ।। ख्लावली छलति तावदुद्वलं, ख्लावलीव सकलं प्रजाबलम्। ख्लाकुला खलु मिलत्यहो ! न भू, - ख्लापते तव हयः पुमानिव ।। १६ ।। For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः टिप्पणी- भूरेव ख्ला - स्त्री तस्याः पतिस्तदामन्त्रणं हे भूख्लापते ! ख्लावली=दुर्जनश्रेणिः उद्बलम् = उत्कृष्टबलं सकलं प्रजाबलं तावत् छलति, अत्र यावदिति पदमध्याहार्यम्, अहो इत्याश्चर्ये, खलु निश्चितं तव हयः पुमानिव न मिलति ।। १६ ।। १२ ग्याङ्गजावितवराः सुवागरा, ग्यं यदीयमनिशं स्तुवन्त्यरम् । ग्यद्भुतोदितजय! प्रदीप्यते, ग्यद्विषन् ! स तुरगो महीपते ! ।। १७ ।। ग्रस्तसङ्गररुजां सुभूभुजां, ग्रावराजसमधैर्यसंयुजाम् । ग्रासवन्मदकरोऽरिसंपदा, ग्राममाशु हरतीश ! ते हयः ।। १८ ।। ।। इति अश्ववर्णनम् । ग्लानतारहितपीनभूघनो, ग्लौलसत्किरणकोटितुल्यरुक् । ग्लायति प्रबलमाश्वशं यतो, ग्लौगुणेश ! नृप ! भाति गौः स ते ।। १९ ।। ग्वः प्रदीप्यत इलापतेऽनिशं, ग्वावलीषु सबलोऽमलाङ्गरुक् । ग्वाधिनाथ! वृषभप्रभोदयो, ग्वद्भुताङ्ग ! वसुधापते! तव ।। २० ।। घ्नप्रदाभनिनदो नदन्नरं, घ्रातिदीप्तिततियुक् ककुद्युतः । नोऽतिदुष्कृतततेर्विराजते, नामणिप्रतिभ! भूप! ते वृषः ।। २१ ।। ध्याशयान्तरसिताङ्गदीधितिर्घ्यद्भुतेद्धजनचित्तहर्षदः । ध्यादिदेवविसराः स्तुवन्त्यरं, घ्यर्क्यरुग् यमसते वृषः सकः ।। २२ ।। प्रभो ! गुणसुमङ्गलश्रिया, घं वरं प्रविदधान इन्दति । घ्राणभूषणयुतो महातनुर्ग्रानन! क्षितिप! तावको वृषः ।। २३ । । घ्लारोहसन्दोहफलीकृताज्ञ !, ग्लौजोविराजी नृप ! राजते ते । घ्लोर्जस्व्यनड्वान् वृषभो वृषेभो, घ्लालीलसल्लक्षणलुब्धचेतः ।। २४ ।। घ्वेतिनिस्वनमिषेण मेघजं, घ्वं जयंश्च विदधाति ते स्तुतिम् । घ्वीश्वर! त्वदतनुस्फुरद्गुणध्वादनेन सुमना वृषोऽसकौ ।। २५ ।। ङ्ाधिनाथ! जनयत्ययं वृषोऽप्रधानमुदमुत्तमां नृणाम् । ड्रावलीं शरणदायकाग्रणीद्धुरो रथधुरन्धरोत्तरः ।। २६ ।। च्यावयन् धवलपद्ममण्डलीं, च्योतिताऽपरसितार्थकान्तिभिः । च्यावयत्यतनुभारमुद्धुरां, च्यातिसुन्दरगते! महीपते ! ।। २७ ।। ।। इति वृषभवर्णनम् ॥ For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् चावलीस्तुतगुणौघ! भूपते ! चातिचञ्चरमहौजसो हरिः । चापवर्जित उदारसारयुक्, चोदितस्य विश एति सम्मदम् ।। २८ ।। छ्यौघं यथा चित्रक आशु तुष्यच्छ्यामाङ्गरोचिर्हरति प्रकामम् । छ्यारञ्जकोर्वीश! हरिस्तथाऽयं, छ्याढ्यस्त्वदीयो रिपुहस्तिवृन्दम् ।। २९ ।। छू इव हन्ति तिरश्च इमां ततिं, छ्रवियुतो नृपते ! नखरायुधः । छ्रततिनाशविधिप्रवणक्रमः, छ्ररहिताद्भुतवर्णमणीगण ! ।। ३० ।। छ्लोत्कटान् प्रकटकान् सदोल्लसच्छ्लक्ष्णलक्ष्मिकलितानरिद्विपान् । छ्लायुतो हरिरयं हिनस्त्यलच्छिष्टकीर्तिकमलाऽचलापते!।। ३१ ।। छ्वावन्! महीपाल! महाबलिष्ठ!, छ्वाद्यासुमत्पालनसावधान! । छज्ञप्ति - मूर्त्ते! तव भाति भास्वच्छ्वासो हरिः प्राज्ञजनाऽर्कणीयः ।। ३२ ।। टिप्पणी- छ्वा = छविर्विद्यते यस्य स छावान् तदामन्त्रणम्। छः= छाग आद्यो येषां ते वाद्याः, ते च ते असुमन्तश्च प्राणिनः वाद्यासुमन्तः, तेषां पालने सावधानो यः स तथा तदामन्त्रणम् । छे= स्वच्छे ज्ञप्ति : - मूर्ती यस्य स तथा तत्सम्बोधनम् । ज्ञप्तिः = बुद्धिः ।। ३२ ।। ज्यायानसौ भाति हरिस्त्वदीयो, ज्यायामतो नास्त्यपरो बलीयान् । ज्यानाथविख्यातयशः! प्रधानेज्यः शोभमानौष्ठविशिष्टवक्त्रः ।। ३३॥ टिप्पणी–‘ज्यानाथविख्यातयशः !'-भूनाथख्यातकीर्ते!।‘प्रधानेज्यः'= शोभनपूजः ।। ३३ ।। ज्रज्वालिकातापितहेमविद्यु, -ज्योद्भासिनेत्रो वरपीवरोरुः । जं राजते त्वद्धरिरेष दिव्यो, ज्रश्रीतिरस्कृत्कमलाऽचलेश ! ।। ३४ ।। टिप्पणी- ज्रज्वालिकाभि:-अग्निज्वालाभिस्तापितं यद् हेम ज्रज्वालिकातापितहेम, तच्च विद्युच्च ज्रज्वज्वालिकातापितहेमविद्युतौ, तयोरिव जोद्भासिनी-वृद्धदीप्यमाने नेत्रे यस्य स तथा, पीतनेत्रत्वात् सिंहस्य । ‘ज्रम्’=अजस्रम्। ‘ज्र श्रीतिरस्कृत्कमल !' =कृष्णश्रीतिरस्कृत्कमल ! । 'अचलेश' = हे महीश ! ।। ३४ ।। ज्वालावलीदुस्सहसत्प्रताप, -ज्वाक्रान्तभूपालकलाऽचलेश ! । ज्वालाऽऽभचक्षू रसनाऽतिरक्ता, ज्वा दीप्यते यस्य हरिः स कस्ते ? ।। ३५ ।। टिप्पणी-ज्वेन = वेगेन आक्रान्ता भूपालानां कला येन स तथा For Personal & Private Use Only १३ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः तदामन्त्रणम्। 'अचलेश' हे भूप!। ज्वालाभे ज्वालासदृक्षे चक्षुषी यस्य स तथा। किम्भूता रसना? ज्वा=चञ्चला, लपलपायमानत्वात्।। ३५ ।। झ्यानाथतीरे तव यस्य कीर्ति, झ्यौघाकुले गायति देववृन्दः। झ्यैश्वर्यमेकाकिनमाप्नुवन्तं, झ्याढ्याऽवनीनाथ! हरिं स पश्य॥३६।। टिप्पणी-हे 'अवनीनाथ !'= भूपाल! स त्वं 'हरिं '=सिंह 'पश्य' विलोकय। किं कुर्वन्तं हरिम् ? 'आप्नुवन्तं' प्राप्नुवन्तम्, किं तत्? 'झ्यैश्वर्यं =हस्त्याधिपत्यम्। झीशब्द ईबन्तो हस्तिवाचक एकाक्षरकोषे। किंविशिष्टं हरिम् ? एकाकिनं, स त्वं पश्य । स इति कः? यस्य तव कीर्ति' यशः देववृन्दो गायति । व? झ्यानाथतीरे-झ्याः नद्यस्तासां नाथो ‘झ्यानाथः' समुद्रस्तस्य 'तीरे' तटे। किम्भूते झयै घाकुले-झ्यानां=द्रहाणाम् 'ओघो' वृन्दं तेनाकुलो यः स तथा तस्मिन्। किम्भूत हे अवनीनाथ! झ्याढ्य कलाढ्य !। इदन्तो झिशब्द: कलावाचकः [सौ.ए.को.लो.४०] ।। ३६ ।। झां करोत्यरिगावलेनूप! झोर्जधार्यऽविरतं मृगाधिपः। झस्थिरप्रवरवृत्तदंष्ट्रिको, झातिमुक्तवरकेसरच्छटः ।। ३७।। टिप्पणी-किम्भूतो मृगाधिपः ! झोर्जधारी कठोरबलधारी । ऊर्जशब्दो बलवाची अदन्तोऽप्यस्ति। पुनः किम्भूतो मृगाधिपः? झाश्च=पुष्टाः स्थिराश्च प्रवराश्च वृत्ताश्च दंष्ट्रा विद्यन्ते यस्य स तथा। पुनः किम्भूतो मृगाधिपः? झा जरा तयाऽतिशयेन मुक्तः=रहितो य स झातिमुक्तः, स चासौ वरकेसरच्छटश्च झारहित (झातिमुक्त) वरकेसरच्छटः।। ३७।। झ्वाधवादिमुनिसङ्घसेवक,-इवोधचित्तमददायिकीर्तिसन्!। झ्वाद्मरो नर इवाऽलते बली, इवङ्कहनरपते! हरिस्तव।। ३८॥ टिप्पणी-हे नरपते ! तव 'हरिः' सिंह: 'अलते' शोभते, किम्भूतः सन् ? 'बली' बलवान् सन्। क इव? 'झ्वाद्मरो' दधिभोक्ता नर इव, यथा दधिभोक्ता मर्त्यः बली शोभते तथा। किम्भूत हे नरपते ! 'झ्वा' अरुन्धती तस्या 'धवो' भर्ता 'झ्वाधवः' वसिष्ठः, स आदिर्येषां ते झ्वाधवादयः, ते च ते मुनयस्तेषां सङ्घस्तस्य सेवकस्तदामन्त्रणम्। झूशब्देन देवास्तेषामोघस्तस्य चित्तमददायिनी या कीर्तिस्तया 'सन्' प्रधानस्तदामन्त्रणम् । झुश्च शोकः, अक़-च दुःखं ते हरतीति क्विपि झ्वङ्कहृत्, तदामन्त्रणम् ।। ३८।। For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् १५ ज्युत्तमोच्छसितपुच्छशोभितो, ज्यग्रणीड्य! नरनाथ! तावकः। ज्यारहाश्च रमणीयवीक्ष्यकृद्, ज्याभताप! रमतेतरां हरिः।।३९।। टिप्पणी-हे नरनाथ! तावको हरिः रमतेतराम्। किम्भूतो हरिः? जिशब्देन ज्ञानवृद्धाः [सौ.ए.को.श्री. ४३], तेषूत्तमः तत्सम्बोधनम्। उच्छसित-उदग्र। पुनः किम्भूतो हरिः? त्रिशब्देन सम्राजः [सौ.ए.को.लो. ४३], तेषु अग्रण्यः तेषाम् ईड्यः स्तुत्यः, तदामन्त्रणम्। जिसम्राट्, तच्च तदारं च ब्यारम्, तद् हन्तीति ग्यारहा, 'क्विप्' [सि. ४/१/१४८] इत्यनेन क्विप्। वीक्ष्यम्=आश्चर्यं करोतीति वीक्ष्यकृद्, रमणीयश्चासौ वीक्ष्यकृच्च०, सिंहस्यैतद् विशेषणद्वयम्। त्रि:=अग्निः तदाभ: तापः प्रतापो यस्य स तथा तदामन्त्रणम्।। ३९ ।।। जावलीक्षितिविधानतत्पर!, राऽभिरञ्जितमहाप्रजाऽरजः!। आऽभिभूतगजराज! राजते, आभियुक्त! हरिरेष तावकः॥४०॥ टिप्पणी-जावली-चौरश्रेणिः ।जाभिरञ्जित-नीत्यभिरञ्जित। अरजः ! निष्पाप!। राभिभूत गतिजित। 'राभियुक्त!' हे नीतिसहित नृप!।। ४० ।। ट्यानाथदंष्ट्रातिविडम्बितास्यं, ट्याघूर्मितं पश्य सुदृश्यशौर्यम्। ट्यालीबलं स्राक् खलु नाशयन्तं, ट्योघारिमेनं मृगराजमग्रम्।। ४१।। टिप्पणी- ट्या-पृथ्वी तस्या नाथ: स्वामी ट्यानाथस्तत्सम्बुद्धौ ‘हे ट्यानाथ !' भूपते! एवं 'मृगराज'=सिंह 'पश्य' विलोकय। किं कुर्वन्तम्? 'खलु' निश्चितं, 'टीनां' करेणूनाम् आली-राजी ट्याली तस्या बलं-स्थाम तत् 'स्राक्' शीघ्रं नाशयन्तम्। किम्भूतम् ? दंष्ट्राभिरतिशयेन विडम्बितम् अलङ्कृतम् आस्यं मुखं यस्य स तथा तम् । पुनः किम्भूतम् ? ट्या-सुरा तया घूर्मितो यः स तथा तम् । पुनः किंभूतं ? सुतरां दृश्यं विलोकनीयं शौर्य-पराक्रमो यस्य स तथा तम्। पुनः किंभूतं? टीनां गजानाम् ओघस्तस्यारिर्यः स तथा तम्।। ४१ ।। ट्रस्थित! क्षितिपते! गजावली,-ट्रारवोत्करविराजि राज्यकम्। ट्रेतिशब्दवरटोत्करोत्कर,-ट्राग्रहस्ति तयुदेति तस्य ङोः।।४२॥ टिप्पणी-'हे ट्रस्थित'=सिंहासनस्थ! 'हे क्षितिपते'=नृप! तस्य 'ते' तव 'ङोः'=सिंह: 'उदेति-उदयं प्राप्नोति। तस्य कस्य? यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् यस्य 'राज्यकं' राज्यं राजत इति शेषः । किम्भूतम् ? 'ट्रेतिशब्द०' टम् इति शब्दं उत्=प्राबल्येन करोतीति टोत्करः, लोके 'टोकरउ' इति प्रतीतिः, ट्रेतिशब्देन For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः वर:= श्रेष्ठः ऐतिशब्दवरः, स चासो टोत्करश्च ट्रेतिशब्दवरटोत्करः, तस्य उत्कर:= वृन्दं तस्य यत् ट्रं-शब्दविशेषः तेन अग्रा:= श्रेष्ठा हस्तिनो यत्र तत् तथा।। ४२ ।। ट्वाक्षिजन्ममुख! मुख्यसम्पद!, ट्वेन्द्रियायतन! भूप! तावकी। ट्वेव सुप्तिसमये रणे सुखं, ट्वं करोति हरिराजिरेषका॥४३॥ __टिप्पणी-हे भूप! तावकी 'एषका'=एषा 'हरिराजिः'=सिंहावली 'रणे' सङ्ग्रामे सुखं करोति । किम्भूतं सुखम्?'ट्वम्'–पुष्टं क्षयाभावात्। कस्मिन् केव? 'सुप्तिसमये' शयनकाले 'ट्वेव' खट्वेव, यथा खट्वा शयनकाले सुखं करोति तथैषाऽपि।किम्भूत हे भूप!? ट्व:=अत्रिः तस्य अक्षि नेत्रंततो जन्म-जननं यस्य सः ट्वाक्षिजन्मा-चन्द्रः, तद्वन्मुखं यस्य स तथा तदामन्त्रणम्। ट्वं-पुष्टम् इन्द्रियायतनं कायो यस्य स तथा तदामन्त्रणम्।। ४३ ।।। ठ्यप्रताप! वसुधापते! क्षितौ, ठ्यो मनो हरति ते स्वकौजसा। ठ्यं वदन्ति खलु कोविदा इति, ठ्यग्र! दर्शनभयङ्कराननः।। ४४।। टिप्पणी- 'हे ठ्यप्रताप!' दुस्सहत्वाद् वह्निसमानप्रताप! 'हे वसुधापते !' = भूप! 'ते'=तव मनः 'ठ्यः' = हरि : हरति। के न ! 'स्वकौजसा' स्वीयबलेन। 'खलु' निश्चितम्। कोविदा इति 'ठ्यं' वाक्यं वदन्ति । ठी: कुटुम्बवान् पुत्रवान् वा, स चासौ अग्रश्च तदामन्त्रणम् ।। ४४ ।। ठूस्वादवच्चित्तमदप्रदः श्रीठाविह्वलद्वेषितमृगप्रणाशी। ट्रालीद्धकुम्भस्थलदन्तिभेदी, ह्रादमीष्टे विदधत् सुसिंहः।। ४५।। टिप्पणी-हे नृप! सुसिंहः ईष्टे । किं कुर्वम् ? 'ठहादं"ठम्' इति शब्दं 'विदधत्'-कुर्वन् । किम्भूतः सुसिंहः? 'चित्तमदप्रदः' चेतोहर्षदाता। किंवत्? 'ठूस्वादवत्' मिष्टान्नफलरसास्वादवत्। पुनः किम्भूतः सुसिंहः? श्री: लक्ष्मीः सैव ठा=सुरा तया विह्वला ये द्वेषिणः त एव मृगाः तान् प्रणाशयतीत्येवंशीलो यः स तथा। पुनः किम्भूतः सुसिंहः? ठाणां भ्रमरीणाम् आली-श्रेणिः तया इद्धः समृद्धः कुम्भस्थलो येषां ते ट्रालीद्धकुम्भस्थलाः, ते च ते दन्तिनश्च-गजाः तान् भिनत्तीत्येवंशीलो यः स तथा।। ४५ ।। ठ्वार्कणीयगुणगौरव! प्रभो!, ठ्वेज्यया विगतभूरिवैरिराट्!। ट्वग्रगीष्पतिमतिक्षितिप्रद!, ठ्वग्र! हर्षयति ते मनो हरिः।। ४६।। For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् ।। सिंहवर्णनम् ।। टिप्पणी—‘हे प्रभ्रो!’=स्वामिन्!'ते'=तव मनः हरिर्हर्षयति । किम्भूत हे प्रभो!? ठ्वस्य=वसिष्ठऋषेः अर्कणीयं = स्तवनीयं गुणगौरवं यस्य स तथा तदामन्त्रणम्। पुनः किम्भूत हे प्रभो ! ? ठूः = प्रज्ञा तया अग्रः ठ्वग्रः, स चासौ गीष्पतिश्च=बृहस्पतिः तस्य मतिः तस्याः क्षितिं क्षयं प्रददातीति तथा तदामन्त्रणम्। ठूः = धृतिः तया अग्रः ट्वग्रः, तत्सम्बोधनम् ।। ४६ ।। ॥ इति सिंहवर्णनम् ॥ ड्यप्रमुक्त! वृषरक्त! कोविदे, -ड्यस्फुरद्गुणगण! क्रमेलकः । ड्यं द्विषां गतिविलोकनात्क्षणाद्, ड्यर्यभक्त ! तनुते महातनुः ।। ४७ ।। टिप्पणी–हे‘ड्यप्रमुक्त’=जाड्यरहित!' वृषरक्त'=धर्मनिरत ! कोविदानाम् ईड्यः-स्तवनीयः स्फुरद्गुणगणो यस्य स तथा तदामन्त्रणम्। ‘क्रमेलकः’=उष्ट्रः ‘द्विषां’=वैरिणां‘ड्यं' जाड्यं तनुते । कस्मात् ? क्षणात् = क्षणमात्रेण गतिविलोकनात् । डिः=गौरी तस्या अर्यः=स्वामी ड्यर्य:- शम्भुस्तस्य भक्तस्तदामन्त्रणम् । किम्भूतः क्रमेलकः ? 'महातनुः'=महाकायः । । ४७ ।। ड्रदायकाऽनीतिमतां जनानां, ड्रमानवव्राजमतल्लिकस्य । ड्रनेत्र ! भूपेन्द्र ! तवावनीं स्राक्, ड्रमुख्य आक्रामति केलिकीर्णः । । ४८ ।। हे भूपेन्द्र ! तव ‘केलिकीर्णः 'उष्ट्रः स्राक् अवनीम् आक्रामति । किम्भूतः केलिकीर्णः ? ' ड्रमुख्य: ' दूरगामि श्रेष्ठः । किम्भूत हे भूपेन्द्र ! अनीतिमतां जनानां ‘ड्रदायक’=दण्डदातः ! किम्भूतस्य तव ? डूमानवव्राजमतल्लिकस्य= दक्षमनुष्यनिकरश्रेष्ठस्य । ड्रं-कमलं तत्तुल्ये नेत्रे-लोचने यस्य स तथा तदामन्त्रणम् ।। ४८ ।। १७ ड्वामण्डलीमण्डितवक्त्र उष्ट्रो, ड्वो दीप्यते भूप ! तवैष वृद्धः । ड्वाभाननाऽतुल्यशरीरदीप्ति, ड्वशानडिण्डीरविशुद्धकीर्त्ते ! ।। ४९ ।। टिप्पणी - हे भूप ! तव एष उष्ट्रः दीप्यते । किम्भूत उष्ट्र : ? ड्वामण्डल्या=दाढाश्रेण्या मण्डितं वक्त्रं यस्य स तथा । पुनः किम्भूत उष्ट्रः ? 'ड्वः' महोदरः । किम्भूत हे भूप ! ? डुः = चन्द्रस्तदाभं=तत्सदृक्षम् आननं यस्य स तथा, तदामन्त्रणम् । किम्भूत उष्ट्र ?' अतुल्यशरीरदीप्तिः' अतुल्या= उच्चनीचा शरीरदीप्तिः=कायशोभा यस्य स तथा । किम्भूत हे भूप ! डुश्च = चन्द्र ईशानश्च = ईश्वरः For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः डिण्डीराश्च फेना: ड्वीशानडिण्डीराः, त इव विशुद्धा कीर्तिर्यस्य स तथा, तदामन्त्रणम्।। ४९ ।। ढ्याधीश! धीश! विदधातु तव प्रमोद, ढ्यायुक्त एष करभः शुभलक्षणाढ्यः । ढ्याभृद्गृहस्य इव दिव्यकलाकलापा, ढ्यस्य प्रशस्यबहलश्रियईड्यमूर्तेः ।।५०॥ टिप्पणी-'हे ढ्याधीश' महीश! हे धीश!'=धीनाथ! एष 'करभ:' उष्ट्रः तव प्रमोदं विदधातु। कस्य क इव? 'गुहस्य' स्कन्दस्य ढ्यां गङ्गां बिभर्तीति 'ढ्याभृत्' महेशः स इव, यथा महेशः गुहस्य प्रमोदं करोति तथा। किम्भूतः करभः? ढ्या=रमा बलसम्पदित्यर्थः, तया युक्तः। महेशपक्षे, ढ्या विभूतिश्रीस्तया युक्तः। पुनः किम्भूतः करभः? शुभलक्षणाढ्यः, पक्षे, श्रेयोलक्षणसमृद्धः । किम्भूतस्य तव? दिव्यकलाकलापाढ्यस्य, गुहपक्षेऽप्येवमेव । पुनः किम्भूतस्य ? प्रशस्यबहलश्रियः, पक्षेऽप्येवमेव। पुनः किम्भूतस्य? ईड्यमूर्तेः, पक्षेऽपीत्थमेव।। ५०।। दारिः पथं लङ्घयति क्षणेनाोऽढ़ो लम्बजङ्घश्च सुदुर्गलची। द्राधीश! भूमीश! तवैष उष्ट्रौ, द्रापद्विनिर्मुक्तसमस्तशत्रुः ।। ५१।। टिप्पणी-हे भूमीश! तव एष उष्ट्रः क्षणेन पथं मागं लङ्घयति, पथशब्दोऽकारान्तोऽपि। किम्भूत उष्ट्रः ? ढ़ाः=भ्रष्टा नष्टा इति यावत् अरयो यस्मात्स तथा। तथा ढूं-फल्गु अभव्यमित्यर्थः, न द्रो 'अद्रः' भव्यः सुखकारीत्यर्थः । 'द्राधीश! विदुराधीश! । 'द्रापद्विनिर्मुक्त!' मरणापद्रहित!। 'समस्तशत्रु'= सम्यग्हतरिपुः ।। ५१ ।। दिलस्तुत्यलक्ष्मीर्बलवान् क्रमेलो, दलाराट्र तव स्वान्तमुदं दधाति। दलः केशवस्येव विशालभाल!,-लहाद!राजेन्द्र! गिरीन्द्रधीर!॥५२॥ टिप्पणी-'हे ढ्लनाथ' भूप! क्रमेल:' उष्ट्रः 'ते' तव चित्तमुदं दधाति । कस्य क इव? 'केशवस्य दल इव', यथा 'ढ्ल:'-गरुड: केशवस्य चित्तमुदं दधाति तथा, किम्भूत हे दलनाथ!? दिल:=देवेशस्तस्य स्तुत्या लक्ष्मीर्यस्य स तथा तदामन्त्रणम् [पुनः किम्भूत हे ढ्लानाथ!?] 'दलह्राद!'=मधुरारव!।। ५२।। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् ढ्वभसद्गुण! गुडाज्यभोजनात्, ढ्दोजहस्य बलमुष्टकस्य ते। ढ्वाभपद्! भवति भूपते! महद, ढ्वादनाद् विश इव प्रतिप्रगम्।।५३।। टिप्पणी-हे भूपते! ते तव उष्ट्रकस्य प्रतिप्रगम्=अतिप्रभातं बलं-स्थाम महद् भवति=जायते। कस्मात् ? गुडाज्यभोजनात्। कस्य कस्मादिव? विश: मनुष्यस्य वादनादिव-दधिभोजनादिव, यथा मनुष्यस्य दधिभोजनाद्बलं महद् भवति तथा। किम्भूत हे भूपते!? ट्वं दुग्धं तदाभा: तत्समाः सन्तो गुणा यस्य स तथा, तदामन्त्रणम्। किम्भूतस्य उष्ट्रकस्य? ढुः=व्यालस्तस्यौजो-बलं हिनस्तीति वोजहः, 'डप्रत्ययः' तस्य, ओजशब्दोऽकारान्तोऽपि। किम्भूत भूपते? दुः=कूर्मस्तदाभौ पादौ यस्य स तथा तदामन्त्रणं हे ढ्वाभपत्!।। ५३ ।। ण्यानाथगम्भीर! नराधिपाग्र!, ण्याह्रियुग्मोष्ट्र उदाररावः। ण्यारञ्जितस्फारसभ! प्रभाति, ण्यर्याय॑लक्ष्मी! रिपुहृत्प्रभेदी॥५४।। टिप्पणी-ण्या=नदी तस्या नाथः समुद्रस्तद्वद् गम्भीरो यः स तथा, तदामन्त्रणं हे ण्यानाथगम्भीर हे नृप! उष्ट्र : प्रभाति । किम्भूत० !? ण्यानां= भूपश्रेष्ठानाम् अर्घ्यं पूजनीयम् अंह्रियुग्मं यस्य स तथा, तदामन्त्रणम्। किम्भूत उष्ट्रः ? 'उदारराव:' उत्कटशब्दः । ण्या-वाणी तया रञ्जिता स्फारसभा येन स तथा, तदामन्त्रणम् । णी: = स्वर्गस्तस्या अर्य: = स्वामी ण्यर्य: इन्द्रस्तस्यअा स्तुत्या लक्ष्मीर्यस्य स तथा, तदामन्त्रणम्। किम्भूत उष्ट्रः ? रिपुहृत्प्रभेदी।। ५४।। ग्रापन्महीपाऽऽरटनेन दस्यून्, ग्राढ्यांश्च संज्ञापयतीति उष्ट्रः। ग्रौघप्रदेन प्रमदेन राज्ञा,-ऽग्रेनौजसा भो! विजिता भवन्तः।। ५५ ।। __टिप्पणी-'परापत्!'= नष्टापत् हे महीप! उष्ट्र 'आरटनेन' शब्दविशेषेण दस्यून् इति संज्ञापयति । किम्भूतान् दस्यून् ? 'पराढ्यान्'-लक्ष्म्याढ्यान्। इतीति किम् ? भो दस्यवः ! भवन्तो विजिताः । केन? राज्ञा । केन? 'ओजसा' बलेन। किम्भूतेन राज्ञा? 'परौघपदेन' उत्सववृन्ददात्रा। पुनः किम्भूतेन? 'प्रमदेन' वरहर्षेण गताहङ्कारेण वा। पुनः किम्भूतेन ? 'अण्रेन =अभीरुणा।। ५५ ।। ण्वाभिभूतरतिनाथ! मानवण्व! द्विषां बलमलं बलाद्धर। ण्वायुतेति रटति त्वदुष्ट्रको, ण्वर्य! भास्वरचमूसमन्वितः॥५६।। १. 'अण्रेन' इत्यत्र णत्वाभावः चिन्त्यः For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः टिप्पणी- 'ण्वाभिभूतरतिनाथ !'=रूपजितकन्दर्प ! । मानवानां नृणां ण्वः-स्वामी यः स तथा तदामन्त्रणं 'हे मानवण्व' हे राजन् ! त्वं द्विषां बलम् 'अलम्' अत्यर्थं बलाद्, हर, इति त्वदुष्ट्रको रटति । 'ण्वायुत ! ' = प्रभासहित ! । ‘ण्वर्य!'=भूनाथ!।। ५६ ।। ।। इति प्रथमपरिच्छेदावचूर्णिः ॥ १ ॥ ।। इति श्रीखरतरगच्छीय श्रीज्ञानविमलोपाध्यायमिश्रशिष्यवाचनाचार्य श्रीवल्लभगणिकृते विद्वत्प्रबोधनाम्नि शास्त्रे गजा - ऽश्व-वृषसिंहोष्ट्रवर्णनो नाम प्रथमः परिच्छेदः समाप्तः ।। २० = ।। द्वितीयः परिच्छेदः । परिच्छेदे द्वितीयेऽथो शुकप्रभृतिपक्षिणाम् । वर्णनं क्रियते सम्यक् चरणद्वयधारिणाम् ।। १॥ त्यापते! तव विजोततेतरां, त्यार्चकप्रवर! कीर एषकः । त्यार्चनोदितविभूतिसन्ततेऽन्त्येतरोत्तरसुनीलदीधितिः ।। २ ।। टिप्पणी - त्या = पृथ्वी तस्याः पतिः 'त्यापतिः' नृपः, तदामन्त्रणं हे त्यापते ! तव ‘एषक:'- एष कीर: 'विजोततेतराम् ' = अतिशयेन दीप्यते । किम्भूत हे त्यापते ! ? त्याः=गुरवः तेषामर्चकाः तेषु प्रवरः तदामन्त्रणम् । पुनः किम्भूत हे त्यापते ! ? त्यः= कृष्णः तस्य अर्चनेनोदिता विभूतिसन्ततिर्यस्य स तदामन्त्रणम्। पुनः किम्भूत हे त्यापते ! ? अन्त्याः = अधमाः तेभ्य इतरे अन्त्येतरे, तेषूत्तरो यः स तदामन्त्रणम् । किम्भूतः कीर: ? सुतरां नीला दीधितिर्यस्य स तथा ।। २ ।। त्रातवाशरणाञ् जनान् यक:, त्राणदस्य नृपतेश्च तस्य वै । त्रातनुः सुखयति प्रमोददः, त्रातरेष सवयः शुकोऽनकः ।। ३ ।। टिप्पणी—‘हे सवयः !' =मित्र ! तस्य नृपतेः एष शुकः 'सुखयति' = सुखं करोति । तस्य कस्य ? 'यकः ' नृपोऽशरणान् जनान् 'त्रातवान्'= रक्षितवान् । किम्भूतस्य तस्य ? त्राणदस्य । पुनः किम्भूतस्य तस्य ? 'त्रातनुः’=कष्टाद्रक्षितनरस्य। किंभूत हे सवयः । 'त्रातः ! ' = पालक । किम्भूतः शुकः ? प्रमोददः । पुनः किम्भूतः शुकः ? 'अनक: ' = दुःखरहितः ।। ३ ।। For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् त्वेषते तव महीपते! शुकः, त्वेष्टमद्भुतमनोकहं परः। त्विट्पटुः पटुकटप्रमोदद!, त्वष्टसत्करततप्रतापभाक्॥४॥ टिप्पणी-हे महीपते! तव शुकः त्वेषते' शोभते । किम्भूतः शुकः? अद्भुतं 'अनोकह'वृक्षं त्वेष्टुं शोभां कर्तुंपरः' सावधानः । पुनः किम्भूतः शुक:? त्विट्पटुः । किम्भूत महीपते!? पटूनां कट-भृशं प्रमोदं ददाति तदामन्त्रणम्। पुनः किम्भूतमहीपते!? त्वष्टसत्करवत् सूर्यकिरणवत् ततं-प्रतापं भजते यः स क्विपि, तदामन्त्रणम्।।४।। थ्यर्य! राजति शुकः सुखकारी, थ्यानिवेदनविशारदमुख्यः। थ्यो विशामिव वरो मदादायी, थ्यर्कणीयकगभीरसुवर्णः॥५॥ टिप्पणी-'हे थ्यर्य'=भूनाथ! शुको राजति, किम्भूतः? सुखकारी । क इव? 'विशां'=नृणां 'थ्य इव'=स्वामीव यथा नृस्वामी सुखकारी भवति तथा। किम्भूतः? थ्या कथा तस्या निवेदने विशारदास्तेषु मुख्यः । पक्षेऽप्येवमेव; पुनः किम्भूतः ? वरः । पुनः किम्भूतः मददायी। पुनः किम्भूतः ? थी:=समुद्रः, स इवार्कणीयको गभीरसुवर्णो यस्य स तथा।। ५ ।। थात्मा शुको रञ्जयति प्रधानं, थ्रानाथ! भूनाथ! मनस्त्वदीयम्। थ्रार्चाविधानोदितपापशुद्धे, थ्रामोददाता विदुषां नराणाम्।।६।। टिप्पणी-हे भूनाथ! शुकस्त्वदीयं मनो रञ्जयति । किंविशिष्टः शुकः ? थ्रः पवित्र आत्मा यस्य स तथा। किम्भूतं मनः ? प्रधानम्। किम्भूत हे भूनाथ! थ्रा लक्ष्मीः राज्यसम्पत्, तस्या नाथस्तदामन्त्रणम्। पुनः किम्भूत हे भूनाथ! थ्राणां तीर्थानाम् अर्चा= पूजा प्रस्तावाद् यात्रा तस्या विधानेनोदिता-आविर्भूता, पापशुद्धिर्यस्य स तथा, तदामन्त्रणम्। पुनः किम्भूतः शुकः? धे-सुखम् आमोदश्च-हर्षस्तयोर्दाता। केषाम् ? विदुषां नराणाम्।।६।। थ्विन्द्रधी! नरवीर! पीवरः, थ्वाऽयुतो जयति तावकः शुकः। थ्वीश्वरः प्रवरनीलवर्णरुक्, थ्वाकथाकथनसावधानधीः॥७॥ टिप्पणी-थुः = पर्वतस्तन्मध्ये इन्द्र इव महत्त्वात् थ्विन्द्रस्तद्वद्धीरस्तदामन्त्रणम्-हे थ्विन्द्रधीर! हे नरवीर! तावकः शुको जयति। किम्भूतः शुकः? पीवरः । पुनः किम्भूतः? थ्वेन मैथुनेन न युतः=न सहितः थ्वाऽयुत:-अतिकामुकत्वाभावात्। पुन: किम्भूतः शुकः? थूनां साक्षिणाम् ईश्वर For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः २२ इव थ्वीश्वरः, तिर्यक्त्वेऽप्यतिनिपुणत्वात् । पुनः किम्भूतः शुकः ? प्रवरनीलवर्णा रुक्=कान्तिर्यस्य स तथा। पुनः किम्भूतः । शुकः ? थ्वानां=स्त्रीणां कथाकथने सावधाना प्रधानत्वाद्धीर्यस्य स तथा ।। ७।। द्योतमानक लकौशलशाली, द्योततेऽतिचतुरस्तव कीरः । द्यामते! नरपते! सुमुदोको, द्योपतिस्तुतयशस्सुयशः पते ! ॥ ८ ॥ टिप्पणी- हे नरपते ! तव कीरः द्योतते । किम्भूतः कीरः ? द्योतमानं यत्कलं कौशलं तेन शालते इत्येवंशीलो यः स तथा । पुनः किम्भूतः कीर: ? अतिचतुरः । किम्भूत हे नरपते ? द्या=दया तत्र मतिर्यस्यासौ तथा तदामन्त्रणम् । पुनः किम्भूत० ? हे सुमुदोकः ! - हर्षालव ! । । ८ । । द्राणशौर्यजयमञ्जुलश्रियो दान्ति भूप! तव दस्यवो भुवः । द्रव्यवन्निति निवेदयत्ययं द्रष्टिनो वरगिरा शुकोऽपशुक् ।। ९ ।। " टिप्पणी- अयं 'शुकः ' कीर इति निवेदयति । कया ? वरगिरा । इतीति किम् ? । हे भूप ! तव दस्यवो भुवो द्रान्ति = पलायन्ते । किम्भूताः सन्तः ? 'द्राणशौर्यजयमञ्जुलश्रियः'=पलायितप्राणजय श्रेष्ठश्रियः । किम्भूत हे भूप?=द्रव्यवन् । किम्भूतः शुकः ? ' द्रष्ट्रिन: 'द्रष्टनाथः । पुनः किम्भूतः शुकः ? अपशुक्= गतशोकः ।। ९ ।। द्वारिकेव हरिणा त्वया पुरी, द्वेषरोषरहिताऽसते सनत् । द्वन्द्वहीन ! सुमहीन ! निःस्पृहाऽद्विड् ! गिरेति निगृणाति कीरराट् ।। १० ।। टिप्पणी- 'कीरराट्' शुकराजः 'गिरा' = वाण्या इति 'निगृणाति'= कथयति।‘हे सुमहीन'=शोभनभूनाथ ! त्वया कृत्वा ' पुरी'=नगरी ' सनत्’=सदा ‘असते'=शोभते। केन केव ? 'हरिणा' = कृष्णेन द्वारिकेव । कथम्भूता पुरी ? द्वेषरोषरहिता, द्वारिकाऽपीदृगेव । किम्भूत० ? हे सुमहीन 'द्वन्द्वहीन ! 'युद्धरहित ! नि:स्पृह !, न द्वेष्टीति अद्विट्, तदामन्त्रणम् ।। १० ।। नोशजयोऽस्खलितां हतितोऽयं, धनाधिप ! भूपतिरापति कीर्तिम् । ध्नं विदधत्स्वकदेवचयस्य, ध्नाभयशा हि शुको वचतीति ।। ११ ।। टिप्पणी- ' हि ' निश्चितं शुक इति वचति । इतीति किम् ? नानां=धनिनाम् अधिपः श्नाधिपस्तदामन्त्रणम् - हे नाधिप ! ' अयं' प्रत्यक्षः भूपतिः कीर्तिम् आपति=प्राप्नोति कुतः ? अस्खलितांहतितः । किम्भूतो भूपतिः ? ध्रेशजय: - ध्रं =धनं = For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् २३ तस्येशः ध्रेशस्तं जयतीति ध्रेशजयः । किं कुर्वन् ? स्वकदेवचयस्य ध्रं = साधनं विदधत् = कुर्वत् । किम्भूतः शुकः ? ध्रः = ईशस्तदाभं यशो यस्य स तथा ।। ११ ।। ध्यायतीत्ययकमर्क्युरुक् शुको, ध्यानधीर्जयतु भूपराडसौ । ध्याढ्य ! नीतिपरिरञ्जितप्रजो, ध्यातदेवगुरुनामको यतः ।। १२ ।। टिप्पणी–‘हे ध्याढ्य!' = प्रज्ञाढ्य विद्वन्! अयकम् = अयं शुक इति ध्यायति, इतीति किम् ? असौ भूपराड् जयतु । तत्र हेतुमाह-यत: कारणात् नीतिपरिरञ्जितप्रजः, ध्यातदेवगुरुनामकश्च । किम्भूतः शुकः ? अर्क्यरुक्=स्तवनीयकान्तिः । किम्भूतः भूपराड् ? ध्यानधीः ।। १२ । । धायत्यपायैर्विधुरस्त्वदीयो, धातातिचित्तस्तव सौम्यदृष्ट्या । ध्राणातिचेतांसि महांसि कुर्वन्, धानार्थसार्थस्य महीप ! कीरः ।। १३ ।। टिप्पणी - हे महीप ! त्वदीयः कीरः भ्रायति = तृप्तिं प्राप्नोति । 'अपायैः कष्टैः ‘विधुरः'=रहितः । कया ध्रायति ? तव सौम्यदृष्ट्या । पुनः किम्भूतः कीर: ? ध्रातं=तृप्तम् अतिशयेन चित्तं यस्य स तथा । किं कुर्वन् ? 'ध्रानाथसार्थस्य'= राजवृन्दस्य‘महांसि’=उत्सवान् कुर्वन् । किम्भूतानि ? भ्राणं = तृप्तिं प्राप्तम् अतिशयेन चेतो येभ्यस्तानि तथा तानि ।। १३ ।। ध्वस्त्वारिसैन्यं विजयी जयत्ययं ध्वस्ता प्रशस्ती नृपतिर्मदीयः । ध्वानं करोति प्रमना इतीमं, ध्वाङ्क्षः सुखानामसकौ शुकोऽग्रः ॥ १४ ॥ टिप्पणी- असकौ शुकः इति = इमं ध्वानं करोति । इतीति किम् ? अयं मदीयो नृपतिर्विजयी सन् जयति । किं कृत्वा ? अरिसैन्यं ध्वस्त्वा । किम्भूतो नृपतिः ? ध्वस्ताऽप्रशस्तः । किम्भूतः शुकः ? प्रमनाः । पुनः किम्भूतः शुकः ? सुखानां ‘ध्वाङ्क्षः'=याचकः । पुनः किम्भूतः ? अग्रः ।। १४ ।। न्यग्भावमाप्तं वदनं रिपूणां, न्युज्झत्प्रतापं सवितेव साये । न्यायैकमाणिक्यनिधे! तवेश!, न्यस्यन्नशस्तं वदतीति कीरः ।। १५ । ॥ शुकवर्णनम् । टिप्पणी- हे न्यायैकमाणिक्यनिधे ! हे ईश ! तव रिपूणां वदनं 'न्यग्भावं'= नीचैस्त्वम्‘आप्तं’=प्राप्तम्, इति कीरो वदति । किं कुर्वन् ?' अशस्तम्' = अमङ्गलं ‘न्यस्यन्’=निक्षिपन् । किम्भूतं वदनम् ? ‘न्युज्झत्प्रतापं'=त्यजत्प्रतापम् । कस्मिन् क इव ?‘साये’=सन्ध्यायां' सविता इव' सूर्य इव, यथा साये सूर्यः न्युज्झत्प्रतापो भवति तथेदमपीति । । १५ ।। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः ।।शुकवर्णनम्। नेश्वर! स्फुरति सद्यशस्त्विति, नावलीति निगृणाति सुन्दरम्। नायुना जयिजिघांसवो हता,-नोत्तमा वदति तित्तिरिस्त्विदम्।।१६।। टिप्पणी-'हे नेश्वर !'-नृप! न्नावली इति सुन्दरं निगृणाति। इतीति किम्? तित्तिरिरिदं वदति' शब्दायते । तदेवाह-अमुना 'ना' नृपलक्षणेन पुंसा जयिजिघांसवो हताः, इति सद्यशः स्फुरति। किम्भूता जयिजिघांसवः? 'नोत्तमाः' मनुष्योत्तमाः । तुशब्दौ पादपूरणार्थी ।। १६ ।। न्वाभाभिभूतस्मररूप! भूपते!, न्वां चञ्चुरां वाचमसौ समुच्चरन्। न्वग्रो जयस्तित्तिरिराहवेतव, न्वालीवियुक्तो वचतीति भावी।।१७॥ टिप्पणी-हे भूपते! असौ तित्तिरिरिति वदति। इतीति किम् ? 'आहवे' सङ्ग्रामे तव जयो 'भावी' भविता। तित्तिरिः किं कुर्वन् ? 'न्वां' नव्यां 'चञ्चुरां' सुन्दरां वाचं समुच्चरन् । किम्भूत हे भूपते? न्वा-नवा या आभा शोभा तया अभिभूतं स्मररूपं येन स तथा, तदामन्त्रणम्। किम्भूतो जयः? 'न्वग्रः' स्तुतिश्रेष्ठः । किम्भूतस्तित्तिरिः? न्वालीवियुक्त:=पातकालीरहितः 'नूशब्द: पातके पुंसि' [विश्वशम्भुएका० ७९] इत्युक्तेः ।। १७ ।। प्याढ्यगभीर! सुतित्तिरिरेष, प्याधिषणाऽवति राज्यश्रीति। प्यात्मगुणक्षितिपैतु सुवृद्धिं, प्यग्रसुवाक् शुभभाग्महिमाढ्यः ।।१८।। टिप्पणी-हे क्षितिप! एष सुतित्तिरिः इति अवति वक्ति कथयतीत्यध्याहार्यम्। इतीति किम्? अतनु राज्यश्री: सुवृद्धिं 'एतु'=प्राप्नोतु। किम्भूत हे क्षितिप! प्य:=पयस्तेनाढ्यः प्याढ्यः=समुद्रस्तद्वद् गम्भीरः, तत्संबोधनम्। 'प्याधिषणा'=कृपाबुद्धे पयः पवित्रा आत्मगुणा यस्य स तथा तदामन्त्रणम्। 'प्यग्र' लक्ष्मीश्रेष्ठ! किम्भूतः तित्तिरिः? सुवाक्-शुभभाक् महिमाढ्यः शकुनेषु प्रतीतत्वात् ।। १८ ।। प्रष्ठतित्तिरिरयं पुनः पुनः, प्राक्कपिञ्जल इति स्वकाभिधाम्। प्रीतिदाय्यनुकरोति यो वदन्, प्राति सोऽभिमतमर्थमीश्वर!।।१९।। प्लक्षो यथा नियतदुस्सहरक्तपित्त,प्लोषाय मानवचयस्य रुजा जितस्य। For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् प्लुष्टामयः खलु तथा खरकोणपक्षी, प्लुष्णन् जनान् भवतु सन्ततसम्मदाय।।२०।। ।। इति तित्तिरिवर्णनम्।। प्वो यथा झटिति हन्ति निस्तुषां, प्वां तथा दुरितसन्ततिं नृणाम्। प्वात्मभूप तव राजहंसकः, प्वाः प्रपालक शरीरलोकनात्।। २१।। टिप्पणी-१ वायुः । २ धूलिम् । ३ हे पुण्यात्मराजन् । ४ भुवः ।। २१ ।। 'फ्यश्वेतशम्भुसमनिर्मलदेहदीप्तिः, ___ 'फ्यायुक्त एष विदधाति मुदं मरालः। रेफ्यालीद्धतुल्यरमणीयगभीरताग्रः, ___ *फ्यातङ्कदोषरहित! क्षितिप! त्वदीयः।। २२।। टिप्पणी-१ फेन। २ रजरहितः । ३ पयः श्रेणीद्धः, समुद्र इत्यर्थः । ४ मरण।। २२ ।। "फ्राकर्णनाद् यस्य भवन्ति सिद्धयः, 'फ्राऽरिष्टकोटिः स्फुटवेकटोऽ कटुः। "फ्रादातरुर्वीश्वर! सत्सितच्छदः, .."फ्रामुद्धृशं भाति सकः सनत्तव।।२३।। टिप्पणी-शब्दश्रवणात् । २ स्फेटित।३ जाततारुण्यः । ४ अमत्सरी।५ लक्ष्मीदातः!। ६ राजहंसः । ७ ध्वस्ताऽहर्षः ।। २३ ।। 'फ्लमिव हन्त्वरिवृन्दममङ्गलं, 'फ्लविशदद्युतिरेष मरालराट्। फ्लकलहंसकुलस्य विभूषकः, फ्लकलभाजितचन्द्र! महीपते।। २४।। टिप्पणी-१ बाणपूरम् । २ वपुः। ३ समस्त। ४ वदन।। २४ ।। 'फ्वुपम भूप! विभात्यतिभासुरः, फ्ववनकृत्तव दिव्यसितच्छदः। रेफ्ववसितौ सुविचक्षण! सक्षणः, *फ्वितरराडभिधानसुखप्रदः।। २५।। For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः टिप्पणी-१ इन्द्रोपम!।२ हे शरणागतत्राणकारिन्!। ३ मन्त्रावसाने। ४ सफलजल्पनेन राजते।। २५ ।। ॥हंसवर्णनम्॥ 'ब्ययुक्तवक्ति क्षितिपासकौ बको, ब्यदीधिते वामपदास्थितः सन्। ब्यलार्थपत्नीविषयाप्तिमीक्षितां, ब्यनुत्तमः पापविपाकनाशकृत्।। २६।। टिप्पणी-१ हे सुखयुक्त!। २ सूर्य। ३ हे पूजनश्रेष्ठ!। ४ कान्तिश्रेष्ठः ।। २६ ।। 'ब्रषोडशार्चिःस्तवनीयसन्मते! 'ब्रयुक्! चतस्रः ककुभो विलोकयन्। 'ब्रभा कबस्रस्त ऋधक् ब्रवीत्यरं, ___ "ब्रचोरभीतिं नृपते! सुखच्छिदम्।। २७।। टिप्पणी–१ बृहस्पति शुक्र। २ हे बलयुक् । ३ ब्रह्मदीप्त!। ४ बहुल० ।। २७ ।। 'ब्लतुल्यतेजो वसुधां च पान्थकं, 'ब्लयुक् बकः पश्यति यः पुनः पुनः। ब्लकोपटोप क्षितिपाल! विजकान्, __ "ब्लरूप सर्वानुपहन्ति स क्षणात्।। २८॥ टिप्पणी-१ हे अग्निसमतेजः!। २ बलयुक्। ३ यम। ४ कामरूप!।। २८ ।। 'ब्वबुद्धिजिद्धीः! स्ववपुर्निरूपयन्, ब्वभक्त! सम्यग् महिलाप्तये भवेत्। रेब्वमानकोर्वीश! बको विसंशयो, "ब्वया प्रदत्तेन्दिरवित्तसद्यशः।।२९।। टिप्पणी-१ गीष्पति। २ ब्रह्मा। ३ कृष्णवाक्यमानक!। ४ अम्बया।। २९ ।। ॥बकवर्णनम्।। 'भ्यक्षित्! समृद्धयै वरकोकयुग्मं, 'भ्यस् शस्त्रधारिन्! रववीक्षणाभ्याम्। ३भ्यानुज्ञ! विज्ञेश! सिमास्पदेषु, भ्युद्धं मुदड़ वदतीति विद्वान्।।३०।। टिप्पणी-१ भयहृत् !। २ भयकारि। ३ रौद्राज्ञ!। ४ भीहरम् ।। ३० ।। For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् भ्रष्टकष्टशकुनज्ञ जना इति, भ्रन्तिहारिण ऋतं निगृणन्त्यरम्। भ्राः प्रलाप सविषाददुरारवं, भ्राग्रथाङ्गयुगलं विपदे भवेत्॥३१॥ टिप्पणी-१ दीप्तप्रताप!। २ दीप्तम्।। ३१ ।। भ्लासते नरपतेऽतिमनोहरं, भ्लासथूद्धतरथाङ्गयुगं तव। भ्लासमानतनुकं हृदयावनं, भ्लागिभस्तिकृतहृत्प्रमदोदयम्॥३२॥ टिप्पणी–१ दीप्तिः, प्रताप इति यावत्। २ दीप्त ।। ३२ ।। ॥चक्रवाकवर्णनम्॥ भ्वानाथसेवाविधिसावधान!, भ्वीशोल्लसत्सारसयुग्मदर्शः। भ्वानन्ददायी भवतीष्टसौख्य-भ्वैश्वर्यभोक्तः! पथि गच्छतो नुः।। ३३॥ टिप्पणी- १ गौरीनाथ। २ हे भूनाथ!। ३ धन।। ३३ ।। 'म्यावर्णिनीलाभविधायकं भवेम्या युक्तवामं यदि सारसद्वयम्। रेम्याऽर्हारिराजीहर! भूप! सारवं, म्याऽश्वेभमुख्याधिपते! महौजः॥३४॥ टिप्पणी-१ रमा। २ क्षमा। ३ हिंसा। ४ उष्ट्र ।। ३४ ।। 'प्रस्तुत्यकीर्ते नृप! सारसद्वयं, 'प्रेणायुतैकं सुकृतारवं वरम्। म्रक्षेण हीनं किल पार्श्वयामले, "प्रभ्रष्ट वक्त्युत्तमकन्यकापनम्।। ३५।। __टिप्पणी–१ देव। २ हे मैथुनरहित!। ३ हसत् । ४ रोषेण । ५ द्वये।६ मृत्युरहित!।। ३५ ।। म्लानाङ्गभासां मनुजाधिनाथ!, म्लानिं गता वक्त्ररमा रिपूणाम्। म्लेयादथाशेषविपच्चयश्चा-ऽम्लानेति ते वक्ति 'सरोजयुग्मम्।।३६।। टिप्पणी-१ सारस।। ३६।।। ॥सारसवर्णनम्।। 'म्वापतेऽध्वनि विशां हि गच्छता, 'म्वस्थितस्य खलु 'वामनिस्वन!। म्वाय टिट्टिभपतत्रिणोऽगसे', म्वा-ऽऽमयादिरहितेश्वरश्रियः।। ३७।। टिप्पणी-१धरापते!। २ वृक्ष। ३ वामशब्दः । ४ उत्तमाय । ५ क्षेमाय । ६ बन्धन ।। ३७।। य्यालीकृतस्तोत्रपवित्रचेतो,-ऽर्योर्वीपते! वै टिटिटीति दीप्तम्। य्याक्षेट्टिटीति प्रवरं च शान्तं, य्योऽस्या रवद्वन्द्वमुदाहरन्ति॥ ३८॥ 'याधिनाथ! विधिपूजनकी, 'याऽयुतोत्तमतनुर्विबुधाली। ग्रिव्रजप्रथितमुद्वदतीति, "ग्रप्रभ क्षितिप! टिट्टिभवर्णनम्।। ३९।। For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः टिप्पणी-१ यादवपति। २ जरा । ३ स्त्री। ४ जायमान।। ३९ ।। ॥टिट्टिभवर्णनम्॥ 'यवस्थितिस्थिरमनः! श्रृणु वर्णान्, 'य्वाकृतप्रमद! मोररवस्य। रेय्वप्रधान! निनदे प्रथमेऽरिय्व प्रकृद्! द्रविणलाभ ऋधक् स्यात्।।४०।। टिप्पणी-१ यज्ञकरणलक्षणा। २ स्त्री। ३ जगत्। ४ मर्दनकारिन्!।। ४०।। 'ल्योल्लसद्गुणगणप्रमणीनां, 'ल्यारिहार! लभते सुकलत्रम्। ' ल्यालिबान्धवयशोऽपररावे, 'ल्यग्रबर्हिण इलाप्रतिपाल!।। ४१ ।। टिप्पणी-१ निलय। २ उद्धत । ३ नलिन्यालि।४ द्वितीय। ५ शब्दाग्र।। ४१ ।। 'लूस्थिताम्बुदविलोकनहर्षाऽलावरञ्जितजनस्य तृतीये। 'लूप्रमोदद! शिखण्डिन ऋद्धयऽलोचिरारव हलापतिभीतिः।। ४२।। टिप्पणी–१ ख। २ ललनानन ।। ४२ ।। 'ल्लानाथतुग्वाहनकस्य रङ्गल्लष्टाचलानायक! चोरभीत्यै। 'ल्लाऽऽह्लाददातुः शिखिनः क्षणात् स्यालक्ष्मप्रतिज्ञेद्धतुरीयरावः।। ४३।। टिप्पणी-१ गौरी। २ लोक।। ४३ ।। 'ल्वतातनामस्मृतिकान्तचेता, 'ल्विनाहिभुक् पञ्चमनिस्वनः स्यातृ। रेल्वभीतये चान्यजनाज्जनानां, ल्वपूजकानेकजनप्रमोदिन्!।। ४४॥ टिप्पणी१ लव। २ हे भूनाथ! ३ सूदन। ४ रुद्रकृष्ण ।। ४४ ।। व्यपोहतीलाप्रतिपाल! दुष्टां, व्यथां च सत्कर्म करोति शीघ्रम्। व्ययेन हीनस्य रवश्च षष्ठो, व्युपाधिराट्र सर्पभुजो विराजः।। ४५।। ___ टिप्पणी-१ पक्षिराजस्य ।। ४५ ।। व्रतीश्वराः शास्त्रविदो वदन्ति, व्रतावना मोररवस्य वर्णान्। व्रजद्रुजैतादृशकान् महीप! व्रजोत्तमाङ्गप्रवरावतंस!।। ४६ ।। श्यत्याशु दुःखं मनसो जनानां, 'श्याख्यां प्रभाते कथयन् मयूरः। श्यामादिवर्णैः शुभपिच्छदीप्तिः, श्यग्रो महीपाल! सुनीलकण्ठः।। ४७।। टिप्पणी-१ आशीर्वचः ।। ४७।। For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् ॥ मयूरवर्णनम् । 'श्रानाथडिण्डीरहिमांशुवर्ण!, श्रश्रेष्ठ! चाषः पथि गच्छतो नुः । `श्रामङ्गलेभ्यः खलु दक्षिणः श्रयाश्रय्यग्र ! भूपाल ! कलानिधान ! ।। ४८ । टिप्पणी - १ गौरी । २ रमा ।। ४८ । । २९ लोकशौक्ल्यविजिताऽमृतप्रसूः, श्राघनीयकिकिदीविमर्क्यभम् । लघयन्ति विबुधाः प्रबोधयः, श्लाघ्यपक्षिनिकरेषु सुन्दरम्।। ४९ ।। 'श्वस्वस्तिकान्तर्गमनेन चाषकोऽश्वौ पात्तभक्षः करति प्रदक्षिणाम् । अश्वश्रीप्रदाऽभीष्टसुखार्थलब्धयेऽश्वो वपते ! स्याद्धि यदा तदा मुदा ।।५० ॥ टिप्पणी- १ यत्र। २ अशयन । ३ शरण । ४ अमैथुन ।। ५० ।। 'ष्यौघार्घिताङ्के ! यदि दक्षिणेन, ष्याऽऽभात्म यान्तं किकिदीविमग्र्यम् । ३ष्यानन्द! काकश्च जयेत्तदा स्यात्, ष्यग्राग्रणीः पान्थपराजयाय ॥ ५१ ॥ टिप्पणी - १ प्रेष्य । २ शङ्खाभात्म । ३ पुत्रानानन्दयतीति । ४ सुख्यग्राग्रणीः ।। ५१ ।। ष: ' स्तौति वाचेति मुदा प्रवक्ति, षे' न्दत्प्रतापं नृपतिं विलोक्य । श्षाऽस्पृग्! भवन्तं पथि चाष एष, षो द्दामगाम्भीर्ययुजं व्रजन्तम् ।। ५२ ।। टिप्पणी-१ इन्द्रः । २ सूर्य । ३ कष्टास्पृग् । ४ अर्णव । । ५२ ।। ष्ट्राऽरिष्ट! शिष्ट! प्रतिशिष्टदौष्ट्याऽष्ट्राऽर्च्याऽथ चाषो जयति प्रकाकम् । ष्ट्राद्यैः सुधीभिर्विजयो विदेशे, 'ष्ट्राद्यासनानां कथितोऽध्वगानाम् ।। ५३ । टिप्पणी - १ भ्रष्ट । २ अव्रात्य । ३ विप्रा० । ४ शकटाद्या० ।। ५३ । ष्टि' दार्व्य ! शस्त्राहतवैरिवार!, 'ष्टदोषरोषेश्वर! चाषकस्य । ष्टदानबुद्धे! रुतमीक्षणं च ष्टु चोपदिष्टं सकलास्पदेषु ।। ५४ ।। टिप्पणी - १ यष्टि । २ भ्रष्ट । ३ शरण ।। ५४।। 'ष्ठोऽरण्यवध्ये व्रजतः पुरश्चेत्, ष्ठं चाषको यो विदधाति दीप्तम् । ष्ठाऽऽभाजिताब्जेट्! कलहावहः स', ष्ठाः पण्डिता इत्थमुदाहरन्ति । । ५५ ॥ टिप्पणी - १ श्रेष्ठः । २ यदि । ३ शब्दम् । ४ वदना० । ५ चाषः । ६ मुखराः ।। ५५ । For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः स्कंत्ताऽऽपदां क्र क्र इति प्रदीप्तः, स्कन्नापदर्केऽर्क इति प्रशान्तः । स्कन्धस्थिरोर्वीश! किकीदिवेश्व, स्कन्दा इति ध्वानयुगं वदन्ति । । ५६ ॥ ।। चाषवर्णनम् ।। स्खलितदुष्कृत! खञ्जनकं बुधाः, स्खलदलीक! वदन्ति अमूदृशम् । स्खलनहीनकयोगयुतं सदा, - स्खलितधीर्मुनिसूनुमिलापते ! ।। ५७ ।। स्तुत्योदितेऽगस्त्यमुनौ सुदेशे ऽस्ति मंश्च दृष्ट्वा वर खञ्जरीटम् । स्तब्धार ! कुर्याद्वरमन्त्रपूजा, स्तत्सूचिताभीष्टफलस्य सिद्धयै ।। ५८ ।। टिप्पणी - १ हे । २ हे ।। ५८ ।। स्थान! श्रियां यः कुवयुः कुचेष्टः, ३० स्थास्त्रो कुदेशे हि निरीक्ष्यतेऽह्नि । स्थायिन् ! रणे खञ्जनकः कदाचित्, स्थाण्वर्च दृष्ट्वा परिशोषयेत्तम् ।। ५९ ।। स्थान! श्रीसुखपेटकस्य कुवपुः सत्खञ्जरीटः खगः, स्थास्त्रो भूप! कुचेष्टितः खलु कुदेशे दृश्यते जातु यः । स्थाण्वर्चाविधितत्पराऽमलमते ! दृष्ट्वा विशेषादृधक्, स्थायिंस्तं परिशोषयेत्तदुदिताऽसौख्यव्रजध्वस्तये ।। ६० ।। ।। खञ्जरीटवर्णनम् ।। इति श्रीखरतरगच्छीयश्रीजयसागरमहोपाध्यायसन्तानीयश्रीज्ञानविमलोपाध्यायमिश्रशिष्यवाचनाचार्य श्रीवल्लभगणिकृते विद्वत्प्रबोधनाम्नि शास्त्रे शुकादि - खञ्जरीटान्तचरणद्वयधारि पक्षिवर्णनो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।। २ ।। ।। तृतीयः परिच्छेदः ।। परिच्छेदे तृतीयेऽथ यत्यादिजलवर्णनम् । क्रियते बुधलोकानां कुतुकानन्दहेतवे ।। १ ।। स्नेहो गेहे च गेहिन्यमितधनचये नास्ति येषां कदापि, स्नेहिनुर्वीश! शश्वदुचिरचरितसत्पालनप्रह्वचित्ताः । For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् ___ ३१ स्निह्यन्तस्ते तपस्सु प्रवरमुनिजनाः साधयन्तीष्टमार्ग, स्नानश्वेताङ्गदीप्ते नृपजनजनितानन्दभन्दा अमन्दाः।।२।। स्पन्दं कुर्वन्त्य उर्त्यां प्रचुरवरनरोदारसारप्रबोधं, स्पष्टं यच्छन्त्य इष्टं रविरुचय इवाम्भोजवृन्दप्रबोधम्। स्पर्शनानन्ददायिंच्छ्रमणजनघटा भान्ति दुर्भ्रान्तिमुक्ताः, स्पष्टदुष्टेष्टचित्तप्रमदविधिपरज्ञानलक्ष्मीशरीराः॥ ३॥ स्फूर्जत्तेजस्विभास्वन्नविरतमतनुश्रेयसां दायकास्ते, स्फूर्तानन्दाः प्रमोदं विदधतु भवतां साधुलोकाः सुलोकाः। स्फूर्जन्ति प्राज्ञवाः प्रगुणगुणगणा भूतले भूप! येषां, स्फूर्त्या चारित्रलक्ष्म्याः प्रविदितयशः सेवनीया जनानाम्॥४॥ स्मरन्त इन्दन्त इमे मुनीन्द्राः, स्मार्यां शुभां पञ्चनमस्कृतिं ते। स्मर्यन्त ईशान सुतारमुख्यान्, स्मेराब्जचक्षुः स्वगुणैर्जयन्ति।।५।। ॥साधुवर्णनम्॥ स्यमीकदातार इव ध्वनन्तः, स्यदेन वादावसरे प्रबुद्धाः। स्यान्तार्थसार्थास्तव भान्त्यनेके, स्यमन्त उद्दामसुतर्कशास्त्रम्॥६॥ स्तायन्तोऽस्ति च नास्ति वस्त्विदमिति प्रत्यक्षमानादिषट्, स्त्यानोद्दामलसत्प्रमाणकधनप्रह्वाः प्रबुद्धा अमी। स्त्यातारो विविधप्रधर्मसुविधेर्धात्रीधवौघाग्रणीः, स्त्यायन्ति प्रमदोदयादतनुसत्तर्कप्रयुक्तीर्हठात्।।७।। स्रष्टेव सृष्टिं विदधाति दिव्यां, साक् शास्त्रराजी मतिमत्समूहः। स्रक्शोभमानाङ्गरुचिर्वचस्वी, सस्ताऽतनुस्वीयदुरन्तदुःखः।।८।। स्ल श्लाध्या अघसङ्घसंहतिकृतः, शास्त्रेषु लीना भृशं, स्ला: पोष्विव भूपते! तव पुरे राजन्त्यरं पण्डिताः। स्लाविल्यर्चितपत्प्रहर्षुलसुराचार्योशनो जिष्णवोऽस्लामौढ्याढ्यविरूढविश्वमहिमाः संरूढराढावृढाः।।९।। टिप्पणी-१ नर। २ भ्रमरः । ३ अमरालि। ४ सुखि।।९।। स्वीयस्वीयसुदर्शनेष्वविरतं चञ्चत्प्रतिज्ञा-भृतः, स्वच्छातुच्छगुणावसाननिपुणप्रज्ञा गुणिज्ञानिनः । For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः स्वर्वास्याश्रयसन्निभे तव महीनाथाग्रणी: पत्तने, स्वाढ्यादूढ्यजनप्रियाः शुभचया बौद्धादयो भान्त्यरम्।।१०।। ॥पण्डितवर्णनम्॥ ह्रोतार आस्कन्दनशुष्मणा स्राक्, ह्रोतव्यदैत्यप्रततेः सुशूराः। ह्रव्यं वचो नैव निवेदयन्तो, लुत्युन्मनस्त्वां नृप रंजयन्ति।।११।। ह्य प्रभास्पर्द्धियशोनिधाना, ह्यो घार्थितेशार्चनसावधानाः। ह्यारेह्लाददातार उदारसारा,-ऽह्या लीपते! भूप! विभान्ति वीराः।।१२।। टिप्पणी-१ मृगाङ्क। २ नरौध। ३ हर्षवदाह्राददाः । ४ दुर्ग।। १२ ।। ह्रीणाः सन्तो वनान्तः सततवसतिं यत्सुशौर्याभिभूत्या, ह्रीमन्तश्चक्रिरेऽरं प्रचुरतरतरः संयुता एणराजाः। ह्रौ घस्तंबेरमोक्षव्रजनजययुतास्ते त्वदीया महीश!, हाऽब्रह्माऽनीयकायुद्धतमदमथना एत आभान्ति वीराः।।१३।। टिप्पणी - १ हंस। २ चौरमि।।१३।। ह्ला दन्ते नृपते! भवन्तमनिशं दुर्दान्तवीरास्तव, हृत्तिव्रातयुता अकान्तसमिति स्तोतव्यसत्कीर्तयः। हनामिन्नमनोजनस्तुतलसद्गाम्भीर्यशौर्यादिकान्, ह्ला दन्ते प्रगुणान् गुणान् गुणविदो येषां मुदा बन्दिनः।।१४।। __ टिप्पणी - १ सुखं कुर्वन्ति। २ सुखित। ३ समन्तात् स्नेहवत्। ४ कथयन्ति।। १४।। ह्वयन्ति वीरो इति यात कुत्र भो!, हयन्त ऋद्धानहितान् मिथो युधि। ह्वयान्यया सार्द्धमसङ्गकारिणो, ह वैरिवारप्रहृतौ महीपते!।।१५।। _ टिप्पणी - १ कथयन्ति। २ स्पर्धमाना। ३ स्त्रिया। ४ प्रह।। १५ ।। क्ष्णु तोत्तमास्त्राभ्यसना बलान्यमी, क्ष्णु दुत्तमाः क्षमाप! त्वोल्लसद्भटाः। क्ष्णवप्रकर्मप्रवणा नरा इव, क्ष्णु वन्ति शस्त्राणि हि दीपयन्त्यरम्॥१६॥ टिप्पणी - १ तैजित। २ निशापकद्वराः । ३ निशाव। ४ तेजयन्ति ।। १६ ।। क्ष्मा पाल! वीरास्तव चङ्गभोगान्, मायां प्रभुञ्जन्ति गतापवादाः। क्ष्माधृत्समानाः सुकुले कुलीनाः, मावर्णिनीभालसुवर्णकाभाः।।१७।। For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ विद्वत्प्रबोधशास्त्रम् क्ष्या नाथ! युष्मत्पदपद्मसेवां, क्ष्य ग्राङ्ग! कुर्वन्ति भटा: पटिष्ठाः । क्ष्यश्वेतचित्तेन दृढप्रतिज्ञाः, क्ष्या त्यदुस्सह्यतपत्प्रतापाः।।१८।। टिप्पणी - १ भू। भूप। २ ज्योतिरग्राङ्ग।३ क्षारोज्जवल। ४ अग्नि ।।१८।। थू विद्विषां द्वेषजुषां नृपाणां, क्षा'ज्ञाप्रतिज्ञेश्वर! कुर्वतेऽमी। क्षाढ्या भटा नष्टनिघृष्टदुष्टाः, झू पाथसां जीवनदा इवेभ्याः।।१९।। टिप्पणी - १ क्षोदनम् । २ खर।३ लक्ष्मी। ४ क्षरणे।। १९ ।। क्ष्वेडन्त एते त्वयि भूप! वीराः, क्ष्वेडोपमा वैरिकरिप्रणाशे। क्ष्विट्टोत्कटश्रेष्ठसुकृष्टिलोकाः, क्ष्वि द्यत्सदो भन्दविधानदक्षाः।।२०।। टिप्पणी - १ स्निहन्ति । २ सिंहनाद । ३ स्निग्छ। ४ स्निह्यत् ।। २० ।। ॥वीरवर्णनम्। ईदृग् विभो! प्राणिगणस्त्वदीयो, वर्यो बुधानामिह वर्णितोऽयम्। संयुक्तवर्णैः कविकौतुकाय, स्वबोधवृद्ध्यै च विशुद्धबुद्ध्या।।२१।। ॥ इति श्रीखरतरगच्छीयश्रीजयसागरमहोपाध्यायसन्तानीय श्रीज्ञानविमलोपाध्यायमिश्रशिष्यवाचनाचार्य श्रीवल्लभगणिकृते विद्वत्प्रबोधनाम्नि शास्त्रे यत्यादिवीरान्तजनवर्णनो नाम तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः।।३।। तत्समाप्तौ च समाप्तोऽयं श्रीविद्वत्प्रबोधनामा ग्रन्थः।। For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ।। ग्रन्थ प्रशस्तिः ।। श्री ज्ञानविमलोपाध्यायानां शिष्यैर्विनिर्ममे । वाचनाचार्यधुर्यश्रीश्रीवल्लभगणीश्वरैः ।। १ ।। विद्वत्प्रबोधनामाऽयं ग्रन्थो विद्वत्प्रबोधकृत् । स्फुर्जच्छ्रीबलभद्रे श्रीबलभद्रपुरे वरे ।। २ ।। युग्मम् ।। विद्वद्गोष्ठ्यां विशिष्टायां सञ्जातायां प्रयोजनम् । एतद्ग्रन्थस्य मेधाव्यभिमानोन्मथनाय वै ।। ३ । संयोगिवर्णं निगृणाति विद्वान्, यो यं तमादौ च विधाय विद्वान् । दिव्येषु पादेषु चतुर्ष्वशङ्कः, सद्यः सुपद्यं विदधातु हृद्यम् ।। ४ ।। यस्यायमेति सुमुखे सुखेन लभतां स सत्वरं सभ्यः । विद्वज्जनेषु विद्वान् सौभाग्यौघं कवित्वं च ।। ५ ।। यस्मिन् काव्येऽस्ति यन्नामव्यत्ययात्तस्य सत्वरम् । यथोक्तवर्ण्यसद्व्याख्या तदा जायेत भो बुधाः ! ।।६॥ ।। इति श्रीविद्वत्प्रबोधग्रन्थः समाप्तः ।। ।। श्रीरस्तु सर्वदा कारक-वाचक-लेखकादीनाम् ॥ शम् ॥ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः *** For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकोत्तंस-श्रीश्रीवल्लभगणिविनिर्मितम् श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् (सुन्दरीच्छन्दः) ॥र्द ० ॥ ॐनमः॥ जिनवरेन्द्रवरेन्द्रकृतस्तुते, कुरु सुखानि सुखानिरनेनसः ॥ भविजनस्य जनस्यदशर्मदः, प्रणतलोकतलोकभयापहः ॥१॥ अविकलं विकलङ्कमुनिः शिवं, विगतमो गतमोहभरः क्रियात्। विनयवन्ननयवन्नृभिरर्चितः प्रमददो मददोषमलोज्झितः ॥ २॥ मुनिजने निजनेमियुजा मुदं, वितरतातरता च भवाम्बुधिम्। अविरतं विरतं स ददातु शं, शिवरमावरमापि हि येन वै॥३॥ कलिकुमार्गकुमार्गमहामृग-द्विपरिपोऽपरिपो परमं पदम् । विवरमे वरमे चरणाम्बुजे, रतिमतोऽममतो महितस्तव॥ ४॥ सुर गुरूपमरूपमनोहरै :, प्रवर धीभिरधीभिरसंयुतैः । अभिनुतो भवतो भवतोऽवता,-ज्जिनवरोमररोमरकापहृत् ॥ ५ ॥ असुमतः सुमतः शुभतीर्थपः सुमहसोऽमहसोज्झितमाधुपः । विदितजातिरऽजातिरतिः श्रियं, वितनुतात्तनुतामलदीधितिः॥६॥ सकलमुत्कलमुत्पललोचनं, नमत तं मततन्त्रमगः प्रदम्। मुनिजना निजनायकमादरा,-दसितरुक्सितरुक्करुणापरम्॥७॥ सुकविराजिविराजितपर्षदा,-श्रितमसंतमऽसंतमसंश्रिया। भजत मालतमाल समुद्युति-प्रचुरमर्त्यरमर्त्यपहं गुरुम्॥ ८॥ भुजगचिह्न ममंदममंदकं , चतुरसादरसादरमानकम् । भृशममंदतमंदतरांहसं, वसुमती तमतीतरसं भजे ॥ ९ ॥ मुनिपतेर मृतेरमृते शितु, - श्चरणमक्षयमक्षयदं सदा अरितहन्तुरऽहन्तुरसाछ्ये, वितरसोदरसोदरसङ्गरे ॥ १० ॥ भववृषाय वृषायतसंयमः, शुभवतो भवतो नवदो मम। सुखकृतेखकृते विदितावधे, विमलधीमलधीरिमयुग्विभो! ॥११॥ For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः सुतनुभाऽतनुभा तनुभावुकं, वृजिनहृज्जिनहृत्कमलार्यमा। सततमाततमाननृपार्चितो, विजयदो जयदोहदपूरकः ॥ १२ ॥ सुमहितानि हितानि वचांसि यः, श्रुतिवशन्तवशंतनु पार्श्वराट्। नयति तस्यतितस्य च दुर्विशं, नरवरः स्तवरस्तमसोज्झितम्॥१३॥ (इन्द्रवज्रा छन्दः) इत्थं स्तुतो यो यमकस्तवेन, वामाङ्गजः पार्श्वजिनो जनानाम् । भूयाद्विभूत्यै विभुताप्रशस्तः, श्रीवल्लभेनार्चितपादपद्मः ॥ १४॥ इति श्रीपार्श्वनाथजिनं यमकमयं स्तोत्रं समाप्तम् । For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् समस्यामयं श्रीपार्श्वनाथजिनपं तमहं स्तवीमि, दृष्ट्वा यदीयवरधारिमवर्द्धनत्वम्। स्थूलोन्नतोऽपि जनमानसमुत्सुमेरुः, शैलो बिभर्ति परमाणुसमत्वमेषाम् ॥१॥ (वसन्ततिलकाछन्दः) वामेय सर्वीयमहं स्मरामि, त्रैलोक्यलोकंपृणवर्ण्यवर्णम् । धर्मोपदेशावसरे यदास्य,- चन्द्रो हि पृथ्व्यामुदितो विभाति ॥२॥ (इन्द्रवज्राछन्दः) यस्तर्हि पश्यति मुखं सुषमं प्रभाते, निःस्वोऽपि पार्श्वजिन! जायत इन्दुरौकाः । मूक: प्रजल्पति शृणोति च कर्णहीन:, पङ्गुश्च नृत्यति विभातितरां कुरूपः ॥३॥ (वसन्ततिलकाछन्दः) श्रीपार्श्वनाथः सततं करोतु, श्रेयांसि भूयांसि नताङ्गभाजाम्। यत्कीर्तिनक्षत्रलसत्तरङ्गै,-र्देदीप्यते व्योमतले समुद्रः ॥ ४॥ (इन्द्रवज्राछन्दः) पार्श्वप्रभो! त्वं तिमिरीपुरीशं, ध्यायंश्चिरं घातिकुकर्महत्वा। ज्ञानौषधं प्राप विलासि तस्मा,-दन्धो जगत् पश्यति दर्शरात्रौ ॥ ५॥ (इन्द्रवज्राछन्दः) प्रणतः सततं कुरुते स्तवनं, महनं च यकस्तव देवनरः। कुशलं कमलामरुजं च शिवं, लभते लभते लभते लभते ॥६॥ (त्रोटकछन्दः) पापानि नाशय भवान्तरसञ्चितानि, स त्वं जिनेश रचयाशु च मङ्गलानि। यत्सद्विशुद्धयशसः स्फुरतस्त्रिलोक्यां, सोमश्चिरेण शुशुभे खलु नीलमूर्तिः ॥७॥ (वसन्ततिलकाछन्दः) प्रापूयते नम्र सुरेन्द्र मत्र्यै, - र्दिवस्पृथिव्योरथ पार्श्वनाथः । यदीयगाम्भीर्यगुणाग्रतो वै, दधाति सिन्धुः सुरभी पदाभाम् ॥ ८॥ (उपेन्द्रवज्राछन्दः) For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः समवसरणमध्यासीनसन्नाष्टकर्मन् प्रहतकुमतिमान त्वत्पदाभ्यर्चनार्थम् । जिनवर ! सुरनागैरागते रागवद्भिः, शुभभुवि भुवि दृश्येते द्युपाताललोकौ ॥ ९ ॥ (मालिनीच्छन्दः ) ३८ स्व: सिन्धुपानीयसमानराज, - द्युष्मद्यशोमञ्जुलमण्डलाल्या । विस्तारवत्या नभसा तदात, - र्देदीप्यते चन्द्र इवोष्णरश्मिः ॥ १० ॥ (इन्द्रवज्राछन्दः) श्रीपार्श्वनाथस्स ददातु मङ्गलं, स्फूर्जद्यशोभिर्गुरुभिर्यदीयकैः । क्षीराम्बुनिध्यन्तरशुभ्रिमोपमै, - र्देदीप्यते रूप्यनिभं हि कज्जलम् ॥११॥ (इन्द्रवंशाछन्दः ) इत्थं श्रीपार्श्वनाथः शमयमवितदुर्मन्मथो वल्गुमार्गे, मुक्ति श्रीपत्तनातोर्भवतु भुवि विशां भावुकानां प्रदाता । स्फू र्जत्छूीपाठक ज्ञानविमलसुगुरूपास्ति रक्तेन भक्त्या, धीमच्छ्रीवल्लभेन स्तुतकृतवचसा सत्समस्यास्तवेन ॥ १२ ॥ (स्रग्धराच्छन्दः) इति श्रीतिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथजिनराजप्रशस्य-समस्यास्तोत्रं समाप्तम्। कृतिरियं श्रीज्ञानविमलोपाध्यायमिश्राणां चरणसरसीरुहचञ्चरीक प्रकारवाचनाचार्य श्रीवल्लभगणीनामिति । ॥ श्रीरस्तु ॥ *** For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्यायश्रीजयसागरकृता साधारणजिनस्तुतिः अपरार्थतः श्री* अजितनाथस्तुतिः वादिश्रीश्रीवल्लभगणिविरचित-मूलार्थपरिहाररूपा व्याख्याद्वयसंवलिता ।। ।। एँ नमः।। श्रीमन्तमजितं नुत्वा श्रीश्रीवल्लभवादिभिः । वास्तवार्थं परित्यज्य नवीनोऽर्थः प्रकाश्यते॥१॥ स्तुतेरजितनाथस्य द्वितीयस्य जिनेशितुः। यमकस्रग्विणीछन्दः कृताया जयसागरैः।।२।। युग्मम्। सर्वतीर्थकृतामेषा साधारणा स्तुतिः खलु। तथाप्यजितनाथस्य ज्ञेया भिन्नार्थतो बुधैः।।३।। कवीश्वर-शिरोवतंसैः श्रीजयसागरमहोपाध्यायहंसैस्तीर्थकृतां लघुवृद्धसंस्कृतप्राकृतयमकाऽयमकमयस्तोत्राणां पञ्चशती विहिता। स्तुतयोऽप्यस्तोकास्तथैव विहितास्तासां मध्यादेषा सर्वतीर्थकृतां साधारणास्तुतिः, तथापि मूलार्थपरिवर्जनान्नवीनापरार्थविधानाच्चात्र व्याख्याने श्रीअजितनाथस्तुतिः, अतस्तस्याः किञ्चिद् व्याख्या प्रकाश्यते तीर्थसन्नायकं सिद्धितादायकं , सिद्धितादायकं तीर्थसन्नायकम्। संस्तुतानाम यं सत्त्वमाराजितं, . सत्त्वमाराजितं संस्तुतानाम यम्॥१॥ तीर्थेत्यादि। अत्र काव्ये अर्द्धपरिवृत्तिर्नाम यमकम्। तदुदाहरणञ्च काव्यानुशासने, यथा ससारसाकं दर्पण कन्दर्पण स सारसा। शरनवानाविभ्राणा ना बिभ्राणा शरन्नवा।। * सन्ध्यभावः चिन्त्यः। For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः इति। हे संस्तुतानाम! सम्यक् अपरचरकादिकुतीर्थिकापेक्षया तीर्थकरप्ररूपितनिरवद्यधर्मनिरतीचारविधायित्वात् स्तुत:=प्रशंसितो यः स संस्तुतः। यद् वा, समन्तात् स्तूयते शङ्कादिदोषादूषितसम्यक्त्वधारित्वाद् यः स संस्तुतः । न विद्यते आम:=रोगो बाह्यान्तरङ्ग भेदभिन्नो यस्यासौ अनामः । पूर्वकृतसुकृतप्राग्भारतो वेदनीयकर्मक्षयतश्च बाह्यान्तरङ्गभेदभिन्नज्वरादिक्रोधादिरोगरहित इत्यर्थः । आम आमय आकल्यमुपतापो गदः समा। [अभिधान. ४६३] इति हैमः। संस्तुतश्चासौ अनामश्च संस्तुता[ना] मः। यद् वा, संस्तुता:=गुणोत्कीर्तनेन देवन्द्रादिभिः प्रशंसिता: ये आ-अर्हन्तस्ते संस्तुताः । 'अः स्यादर्ह ति सिद्धे च' [अपवर्गनाममाला द्वितीय खण्ड] इति श्रीजिनभद्रसूरिः। ‘णम् प्रह्वीभावे'[ ] 'भावाकोंः ' [सि.हे. ५.३.१८] इति भावे घञि, नामः। संस्तुतानां प्रशंसितार्हतां नाम:=प्रणामो यस्य स संस्तुतानामः । सम्यक्त्वप्रतिपत्तेरनन्तरं श्रावकस्य हरिहरादीनां प्रणामाकरणात् । यत्सप्तमोपासकदशाङ्गम्- ‘णो खलु मे भंते कप्पइ अजप्पभिई अण्णउत्थि ए वा अण्णउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहि आणि अरिहंतचेइयाणि वा वंदित्तए वा णमंसित्तए वा' [उपासक. प्रथम अध्याय सूत्र ७] इत्यादि। तदाऽऽमन्त्रणं हे संस्तुतानाम! सुरासुर नर निक र संस्तुततीर्थङ्करचरणप्रणामकरणप्रवण हे श्रावक! तम् अजितम् अजितनामानं द्वितीयमर्हन्तं अम=भजस्व। 'अम शब्दभक्त्योः '। [सि.धा. ३९१] भक्ति: भजनम्' [ ] इति धातुपारायणम् । यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात् तम् इति कम्? यत्-अजिततीर्थंकरं सत्त्वम् बलं कर्तृ आर-प्राप। 'कं प्रापणे च' भ्वादिः परस्मैपदी [सि.धा. २६] । बलं हि सुरासुरनरेश्वरादीन् विहाय श्रीअजितनाथजिनं प्राप्तवान् इत्यर्थः । अपरसांसारिकजीवापेक्षया तीर्थकृतो बलस्य अनन्तत्वात्। सत्त्वं द्रव्ये गुणे चित्ते व्यवसाय स्वभावयोः । पिशाचादावात्मभावे बले [अनेकार्थ. २/५५३] इति हेमचन्द्रसूरयः। किम्भूत हे संस्तुतानाम ! सत्त्वम्। सन्=प्रशस्तः सभ्यो वा त्वं सत्त्वम्, तदाऽऽमन्त्रणं हे सत्त्वम् ! 'सद् विद्यमाने सत्ये च प्रशस्तार्चितसाधुषु' [अनेकार्थ. १/१० ] इति हैमानेकार्थः । वाच्यलिङ्गोऽयम्। पुनः कथम्भूतः हे संस्तुतानाम! संस्तुतान ! 'अनश्वसक् प्राणने' अदादिः [सि.धा. १०८९] । प्राणनम् जीवनं, घञि, आनः। संस्तुतः आनः जीवनं यस्य स संस्तुतानः For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथस्तुतिः ४१ प्रशंसितजीवनः। यद्वा, संस्तुतः आन:=प्रेम यस्य स संस्तुतानः। आन: कुशलयुक्ते स्याद् वचसि प्रेमधर्मयोः' [ ] इति राजनिघण्टुः । संस्तुतप्रेम इत्यर्थः। दृढधर्मत्वात् । तदाऽमन्त्रणं हे संस्तुतान !। कस्मिन् ? आराजि, आ सामस्त्येन आत्=तीर्थकृ तो राजते = शोभते इति आराट् । अहिंसासंयमतपोलक्षणो दानशीलतपोभावनालक्षणो वा धर्मः, तस्मिन् । जीवनं हि धर्मं विना स्तवनोचितं न स्यात्, त्वं च धर्मकरणे परायणो दृढप्रेमा च, अत एव युक्तं विशेषणमेतत् । यदुक्तम् जा जावच्चइ रयणी न सा पडिनिअत्तइ। अहम्मं कुण माणस्स अहला जंति राइउ।[ ] इति। 'धर्मे रागः श्रुतौ चिन्ता' [ ] इत्यादिवाक्याच्च। अथ अजितार्हन्तं विशेषणैर्विशिनष्टि- किम्भूतम् अजितम् ? तीर्थसन्नायकम्, 'षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु'[सि.धा. ९९६] गत्यर्थानां प्राप्त्यर्थत्वात्। तीर्थम् गुरुं तीर्थकरलक्षणं सीदन्ति प्राप्नुवन्ति ये ते। 'क्विप्' [सि.हे. ५/१/१४८] इति क्विपि। तीर्थसदः=गणधराः पञ्चनवतिसंख्याः , सामान्यके वलिनो वा, तेषां मध्ये नायक:= श्रेष्ठो यः स तथा तम्। 'निपानागमयोस्तीर्थमृषिजुष्टेजले गुरौ' [अमर. ३/३/८६] इत्यमरः । तीर्थं शास्त्रे गुरौ [अनेकार्थ. २/२१९] इति हेमचन्द्रसूरिश्च । 'नायको नेतरि श्रेष्ठे' [ ] इति श्रीधरः । यद् वा, तीर्थम् आगमादिशास्त्रं तस्य सन्=प्रशस्तो नायकोऽर्थतः प्रापको यः स तथा तम्। 'अत्थं भासइ अरहा' [ ] इत्युक्तेः । तीर्थं शास्त्रे इति वाक्यात् । पुनः कथम्भूतम् ? सिद्धितादायकम्, 'षिधौ शास्त्रमङ्गल्ययोः[]' सेधति मङ्गल्यं करोतीति, क्विपि, सित्=मङ्गल्यकारि यत् हितम्=पथ्यं धर्मोपदेशलक्षणं तस्य आ समन्तात् दायक: दाता यस्य स तथा तम्। ऐहिकपारत्रिकमङ्गलकारिहितोपदेशदातारमित्यर्थः । पुनः कथम्भूतम् अजितम् ? सिद्धितादायकम्, सिद्धिः=योगविशेषः । यथा 'वज्रां सिद्धिर्व्यतीपात' [ ] इति। सेव तायाः लक्ष्याः सांसारिक्यादायको यः स तथा तम्। यथा हि सिद्धियोगः कार्यकारिणां नृणां लक्ष्मीदाता तथासावपि। 'लक्ष्मी: पद्मा रमा या माता सा श्रीः' [अभिधान. २२६ ] इत्याधुक्तत्वात् । यद् वा, सिद्धीनाम् अणिमादीनां समूहः सिद्धिता, तां दयते-ददाति यः स तथा तम्। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः 'दयि दानगतिहिंसादहनेषु च ' भ्वादिरात्मनेपदी । 'णकतृचौ' [सि.हे. ५ /१/ ४८] इति णकः प्रत्ययः । पुनः कथम्भूतम् अजितम् ? तीर्थसन्नायकम्, तीर्थम् = पुण्यक्षेत्रं शत्रुञ्जयादि तत् सीदन्ति गच्छन्ति वन्दनापूजनाद्यर्थं ये ते तीर्थसदः । शत्रुञ्जयगिरिनारसम्मेतशिखर्यष्टापदादितीर्थयात्राकारकाः साधवः श्रावका वा, तेषां नायकः = स्वामी यः स तथा तम् । यद् वा, 'षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु' [सि.धा. ९६६ ] । 'विशरणं शटनं अवसादोऽनुत्साहः ' [ ] इति धातुपारायणम् । क्ते सन्नः । तीर्थम् = पुष्करादिपुण्यक्षेत्रे तत्र सन्नाः-उत्साहरहिताः ये ते तीर्थसन्नाः, अर्थात् श्रावकास्तैः ईयते = गम्यते वन्दनादिना पुण्याय वा यस्मिन् सः तीर्थसन्नायः । 'इणक् गतौ' अदादिः परस्मैपदी, स्वार्थे के, तीर्थसन्नायकः । तीर्थसन्नानाम् = श्रावकाणाम् आयश्च=लाभो दानादिसम्बन्धी, कं च सुखं ऐहिकं पारत्रिकं वा यस्मात् स इति वा तीर्थसन्नायकस्तम् । पुनः कथम्भूतम् ? यम्, यः = सूर्य: स इव, देशनांशुभिर्यथावस्थितवस्तुप्रकाशको यः स तथा । 'यः सूर्ये'' [एकाक्षरनाममालिका, प. ९८] इति विश्वशम्भुः । यद् वा, 'यांक् प्रापणे' अदादि: परस्मैपदी । याति प्राप्नोति देवादिभ्योऽतिशयपूजामिति यः, तम् । [सि.धा. १०६२] 'आतो ड:' [ सि.हे. ५/१/७६] इति ङः । 4 प्रथमस्तुते प्रथमोर्थः । 'कान् कर्मतापन्नान् ? मान् । किम्भूतान् मान् अरिणः, अश्च अकारः, रश्च रकारः इति द्वन्द्वे अरौ अकाररकारौ, तौ विद्येते प्रस्तावादादौ येषां ते अरिणः तान् । कोऽर्थः ? अरमान् । ततोऽयमर्थः - न विद्यते रमः-कन्दर्पस्तज्जयाद् येषां ते अरमास्तान् अरमान्=साधून् इत्यर्थः । तीर्थकृतः केवल्यावस्थायां परिवारत्वेन साधूनां सद्भावात्।‘रमः कान्ते रक्ताशोके मन्मथे' [ अनेकार्थ. २/३३७] इति हैमानेकार्थः । अह इति अव्ययं विनियोगे । यद् वा, मान् इत= प्राप्नुत । किम्भूतान् मान् ? रिणः, रः रकारो विद्यते प्रस्तावादादौ येषां ते रिणः, तान्। कोर्थः ? रमान् । ततोऽयमर्थः-रमः-रक्ताशोकः प्रातिहार्याष्टकमध्ये तृतीयं प्रातिहार्यमसौ, तेन बहुवचनग्रहणात् शेषसप्तप्रातिहार्यग्रहणम्, ततो रमान् अष्टप्रातिहार्याणि इत्यर्थः । तीर्थकरावस्थायामेषां सद्भावात् । ' रमः कान्ते रक्ताशोके' [ अनेकार्थ. २/ ३३७] इति हैमः । देवैर्जिनस्योपरि अशोकतरुश्च काम:, अकञ्च = दुःखं पापं वा I For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथस्तुतिः ४३ इति द्वन्द्वे यके कामपापे। तीर्थस्य चतुर्विधसङ्घस्य सन्ने शटिते आ-सामस्त्येन यके यस्मात्स तीर्थसन्नायकः। यद्वा, तीर्थम्=प्रस्तावात् क्रियावाद्यादीनां बौद्धादीनां वा दर्शनम्। 'तीर्थं शास्त्रे गुरौ यज्ञे पुण्यक्षेत्रावतारयोः । ऋषिजुष्टे जले सत्त्रिण्युपाये स्त्रीरजस्यपि। योनौ पात्रे दर्शनेषु' [अनेकार्थ. २/२१९, २२०] इति अनेकार्थः। ततोऽयमर्थः-तीर्थे स्वीयतीर्थे सीदन्ति स्म क्रियैव परलोकसाधनाय अलमिति जानन्ति स्म ये ते तीर्थसन्नः क्रियावादिनः । एते हि क्रियामात्रादेव अमीष्टार्थं सिद्धिमिच्छन्ति, न च किञ्चिदपि ज्ञानेन प्रयोजनम्, निश्चेष्टत्वात्, घटादिकरण प्रवृत्तौ आकाशादिपदार्थवत्। पठ्यते च क्रियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतम्। यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत्।[ ] इति । एवम् अन्ये अक्रियादयो बौद्धादयो वा तान् प्रति अयते-याति तत्त्वोपदेशेन सम्यगवबोधविधानाय यः सः तीर्थसन्नायकः, तम्। क्रियावतो ज्ञानहीनस्य देशाराधकत्वम्, अक्रियावतो ज्ञानवतो देशविराधकत्वम्, क्रियावतो ज्ञानवतो सर्वाराधकत्वम्, अक्रि यावतो ज्ञानरहितस्य सर्वविराधकत्वम्, इति यथावस्थिततत्त्वोपदेशकत्वात् तीर्थकरस्य। पुनः कथम्भूतम् अजितम् ? संस्तुतानामयम्, सम्यक् स्तुतः संस्तुतः, आमम्=अविशोधिकोट्याख्यं याति=प्रोप्नोति आमयः, न आमयो अनामयः, संस्तुतश्चासौ अनामयश्च संस्तुतानामयस्तम्। यत् सूत्रकृताङ्गवीरस्तवः णिरामगंधे [सूत्र. आध्ययन ६. पद्य ५] वृत्तिश्चास्य - 'निर्गतः- अपगत आमः- अविशोधिकोट्याख्यः तथा गन्धः-विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः।" इति। [सूत्र अ. ६ प. ५ शीलांकाचार्यकृत व्याख्या] पुनः कथम्भूतं अजितम् ? यम्, इ:कामस्तं अस्यति क्षिपति यः सः यः । क्वचित्' [सि.हे. ५/१/१७१] इति डः । याति-गच्छति वा यः, वायुरिव अप्रतिबद्धविहारी इत्यर्थः । आतो ड: ' [सि.हे. ५/१/७६] इति डः। इति प्रथमायाः स्तुतेर्द्वितीयोऽर्थः।१। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अथ द्वितीयायां स्तुतौ चतुर्विंशतितीर्थकृतां स्तुतिं प्रकटयतिविश्वतीर्थाधिपा भव्यदायक्रमा विश्वतीर्थाधिपा भव्यदायक्रमाः । मानिताहारिणः सत्त्वमाबिभ्रतां मानिताहारिणः सत्त्वमा बिभ्रताम् ।। २ ।। विश्वतीर्थेत्यादि। अत्र काव्ये युग्मकं नाम यमकम्। तदुदाहरणञ्च काव्यानुशासनकार आह, यथा श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः 'विनायमेनोनयता मुखादिता विनायमेनोनयता मुखादिता । महाजनो दीयत मानसादरं महाजनो दीयत मानसादरम् ।।' इति । तीर्थम् = प्रवचनाधारं चतुर्विधसङ्घम् अधिपान्ति- अधिकं पालयन्ति ये ते तीर्थाधिपाः, विश्वे च ते तीर्थाधिपाश्च विश्वतीर्थाधिपाः, समस्ताश्चतुर्विंशतिस्तीर्थकृतः, तदाऽऽमन्त्रणं हे विश्वतीर्थाधिपाः ! यूयम् इत= प्राप्नुत । विश्वे=लोके, विश्वानि=समस्तानि वा, तीर्थानि=दर्शनानि विश्वतीर्थानि, बौद्धनैयायिकादिमतानीत्यर्थः । तीर्थं शास्त्रे गुरौ यज्ञे पुण्यक्षेत्रावतारयोः ।। अनेकार्थ. २/ २१९ ।। ऋषिजुष्टे जले सत्त्रिण्युपाये स्त्रीरजस्यपि ।। योनौ पात्रे दर्शनेषु । [ अनेकार्थ. २/ २१९, २२०] इति वाक्यात् । तेषु य आधिः = आशा तद्धर्मविधानेच्छेति यावत्, तं पिंषन्ति सञ्चर्णयन्ति ये ते विश्वतीर्थाधिपाः । 'आधिर्मनोत्तौ व्यसनेऽधिष्ठाने बन्धकाशयो:' [अनेकार्थ. २/ २४२] इति हेमचन्द्रसूरिः।‘पिष्लृप् सञ्चूर्णने’ [सि.धा. १४९] रुधादि: परस्मैपदी । 'क्वचित्' [सि.हे. ५/१/१७१] इति डः प्रत्यय । यद् वा, तीर्थम्=जलं तस्य आधि: =अधिष्ठानं, तीर्थाधिः समुद्रः स इव । तीर्थाधिः अर्थात् संसारः तस्मात् पान्ति= रक्षन्ति ये ते तीर्थाधिपाः । संसारसागरे निमज्जन्तो जन्तूनां पालका इत्यर्थः । विश्वे च ते तीर्थाधिपाश्च विश्वतीर्थाधिपाः । For Personal & Private Use Only - Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ श्री अजितनाथस्तुतिः यद् वा, विश्वस्य भव्यलोकस्य तीर्थस्य च चतुर्विधसङ्घस्य अधिपाः=नाथाः योगक्षेमकृतो ये ते विश्वतीर्थाधिपाः । तत्र योगम्=बीजाधानोभेदपोषणकरणम्, क्षेमं तदुपद्रवाद्यभावापादनम् । तदाऽऽमन्त्रणं हे विश्वतीर्थाधिपाः != चतुर्विंशतिस्तीर्थङ्कराः ! भ्रताम्, भ्रा भासुरा ता-लक्ष्मी: शोभा यस्य तत् भ्रतम्। 'भ्रं भासुरम्' [द्वयक्षरकाण्ड, प. ९१] इति सौभरिकृतसंयुक्तैकाक्षरकोषे। ता सा श्री: कमलेन्दिरा [अभिधान. २२६] इति वाक्यात्। लक्ष्मीशोभयोः साहचर्यात् ता शब्द: शोभावाची। अम्=ज्ञानम्। अम्शब्दो मान्तो ज्ञानवाची। यद् विश्वशम्भुः 'अंमान्तो ब्रह्मसम्वादे परब्रह्मप्रवाचकः।।१९।। व्यसने व्याधिते व्याधौ ज्ञानविज्ञानवेदने।।२०।। [एकाक्षरनाममालिका] इति। भ्रतञ्च तत् अम् च भ्रताम् शोभनशोभं ज्ञानम् अर्थात् श्रुतज्ञानम् आवि:प्राप्तम्, भवत्प्रभावात् इति गम्यते । अवधातुरत्र एकविंशतावर्थेषु मध्यात् प्रापणार्थः । 'यमकशूषचित्रेषु बवयोर्डलयोन भित्' [वाक्भट] इति वाक्याद् बकारस्य वकारो न दुष्टः । केन? अमा, 'अम् शब्दभक्त्योः ' अमति भजति जिनान् इति । क्विपि। अम्, तेन अमा-मल्लक्षणेन सेवकेन इत्यर्थः । कथम्भूतं भ्रताम्? सतत्=प्रशस्तं विद्यमानं वा। तुः अव्ययम् अत्र विशेषे। श्रुतज्ञानस्य अधुनातनजनानां अत्यन्तोपकारित्वाद् अपरज्ञानापेक्षया विशिष्टत्वात्, अपरज्ञानत्रिकविच्छेदे विद्यमानत्वाच्च। साम्प्रतं हि ज्ञानपञ्चकात् ज्ञानत्रिकविच्छेदे मतिश्रुतज्ञानयोः सद्भावेऽपि श्रुतज्ञाने परस्परमनुगते, अतः श्रुतज्ञानस्य विशिष्टत्वं विद्यमानत्वञ्च युक्तम् । यदुक्तं श्रीबृहत्कल्पटीकायाम् 'जत्थ मतिनाणं तत्थ सुअनाणं, जत्थ सुअनाणं तत्थ मइनाणं, दोवि ए आई अण्णोण्णमणुगयाइं।' [ ] इति। तुः अवधारणे वा। तेनायमर्थः-भ्रताम् भासुरशोभं ज्ञानम् श्रुतज्ञानम् अमा मल्लक्षणेन सेवकेन भवत्प्रभावात् इति गम्यते, आवि:=प्राप्तम् इति अवधारयामि इत्यर्थः । कथम्भूतेन अमा? सत्त्वम्=पिशाचादिदुष्टदेवम्। आ निषेधे For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः अव्ययम्, बिभ्रता न धरता चित्ते इति गम्यते। पिशाचादिना दुष्टदेवेन नाधिष्ठितेन, किन्तु जिनसेवारतत्वात् जिनाधिष्ठितेन इत्यर्थः । सत्त्वं द्रव्ये गुणे चित्ते व्यवसायस्वभावयोः। पिशाचादौ' [अनेकार्थ. २/५५३] इति। यद् वा, सत्त्वम्अतिशयवद्वीर्यम् अवष्टम्भम् इति यावत्। जिननामध्यानरूपम् अवष्टम्भम् आबिभ्रता धरता। पतितेऽप्यनिष्टे कष्टे जिननामध्यानावष्टम्भधारिणा नान्यतीर्थिकदेवावष्टम्भधारिणा इत्यर्थः । आम् इति अव्ययम् अवधारणे। अथ विश्वतीर्थाधिपाः ! सम्बोधनपदैविशेष्यन्ते-कथम्भूताः हे विश्वतीर्थाधिपाः ! भव्यदायक्रमाः।* [भव्यम् फलं स्वर्गापवर्गासंख्यसुखप्रापणलक्षणं, तस्य दायः=दानं येषां ते भव्यदायाः। एवम्विधाः क्रमा: शास्त्राणि आचाराङ्गादीनि येषां ते भव्यदायक्रमाः । भव्यं तु फले [अनेकार्थ. २/३७७] इत्येनकार्थः । दायो दाने [अनेकार्थ. २/३६९] इति वचनात् । 'क्रमः कल्पांह्निशक्तिषु' [अनेकार्थ. २/३२०] इति। 'कल्पो न्यायः शास्त्रं वा' [ ] इति तद्वृत्तिः । यद् वा] * भवः= श्रेयो विद्यते येषां ते भविनः । मुक्तिप्राप्तत्वात् शाश्वतानन्तकल्याणभाजः इत्यर्थः । 'भवः सत्ताप्ति-जन्म। रुद्रे श्रेयसि' [अनेकार्थ. २/५४५] इत्युक्तेः । दाय: सोल्लुण्ठभाषणम् । 'दायो दाने यौतकादिधने सोल्लुण्ठभाषणे' [अनेकार्थ. २/३६९] इत्यनेकार्थः । दायस्य क्रमः परिपाटी दायक्रमः। इह क्रमग्रहणाद् असभ्योद्भावनाऽप्रीतिकारिगालिराल्यादिग्रहः । नास्ति दायक्रमो येषां ते अदायक्रमाः, अमर्मवेधिन इत्यर्थः । तीर्थङ्करा हि परमर्मोद्घाटनं न कुर्वन्तीति वचनातिशयो दर्शितः । भविनश्च ते अदायक्रमाश्च भव्यदायक्रमाः, तदाऽऽमन्त्रणे हे भव्यदायक्रमाः ! पुनः कथम्भूताः हे विश्वतीर्थाधिपाः? विश्वतीर्थाधिपाः, तीर्थम् जलं कारणे कार्योपचारात् जलस्नानम् इत्यर्थः, तत्र आधि: व्यसनं येषां ते तीर्थाधयः, अर्थात् वारिभद्रकादयो भागवतविशेषाः जलस्नानमोक्षाङ्गीकारकाः कुतीर्थिकाः, ते हि शीतोदकसेवनेन मोक्षं प्रवदन्ति । यथा उदकं बाह्यमलम् अपनयति एवं आन्तरमपि। वस्त्रादेश्च यथा उदकात् शुद्धिरुपजायते तथा अन्तराऽपि शुद्धिरुदकादेव इति। विश्वं लोकं तीर्थाधिभ्यो जलसेचनमोक्षाङ्गीकारकेभ्यो वारिभद्रकादिम्यः सदुपदेशेन पान्ति रक्षन्ति ये ते विश्वतीर्थाधिपाः । अत्र विच् प्रत्ययः, सोमपा * चिह्नान्तर्गतांशो मूलप्रतौ हरितालितम्। For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ स्तुतिः शब्दवद् रूपाणि। तीर्थं शास्त्रे गुरौ यज्ञे पुण्यक्षेत्रावतारयोः । ऋषिजुष्टे जले [ अनेकार्थ. २/ २१९, २२०] इति हैम: । यद् वा, विश्वतीर्थानाम्स्वसमयपरसमयसमस्तशास्त्राणाम् अधिपाः = स्वामिनः सर्वज्ञत्वाद् ये ते विश्वतीर्थाधिपाः, तदाऽऽमन्त्रणं हे विश्वतीर्थाधिपाः ! पुनः कथम्भूता: हे विश्वतीर्थाधिपाः? भव्यदायक्रमाः, भवः = संसारो विद्यते येषां ते भविनः, संसारिणः=एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाः । दों छोंच् छेदने [ सि.धा. १६४ ] तन् व्यधीति णे दायः । भविनां न विद्यते दाय:-छेदनं येषां ते भव्यदायाः । क्राणि - इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि पञ्च, तानि मीनन्ति हिंसन्ति । इन्द्रियनिग्रहकरणाद् ये ते क्रमाः । क्रं खमिन्द्रियमित्युक्तम् [द्व्यक्षरकाण्ड प. ५६ ] इति सौभरिकृतसंयुक्तैकाक्षरकोषे । मीग्श् हिंसायाम् [ सि.धा. १६४] क्र्यादिरुभयपदी । अस्मात् डः प्रत्ययः[सि.धा.१५१२] । भव्यदायाश्च ते क्रमाश्च भव्यदायक्रमाः । यद् वा, भव्याः=सत्पुरुषाः, तीर्थकृतामपरपुरुषापेक्षया प्राधान्यात् । भव्यस्तु कर्मरङ्गतरौ सति । [ अनेकार्थ. २/३७७] इति । सति, सत्पुरुषे, सति-विद्यमाने [ ] इति मङ्ख:, इति तट्टीका | दायस्य धनस्य क्रमः - सामर्थ्यं गृहस्थावस्थायां येषां ते दायक्रमाः । यद् वा, दायः = धनं, स च मोक्षं प्रति प्रवृत्तानां संयमः, तस्य क्रमः = शक्तिर्येषां ते दायक्रमाः । दायशब्दो धनमात्रेऽपि [ ] इति अनेकार्थटीका । भव्याश्च ते दायक्रमाश्च भव्यदायक्रमाः । यद् वा, दायस्य क्रमो दायक्रमः = धनशक्तिः संयमशक्तिर्वा, भव्यः=विद्यमानो गृहस्थावस्थायां कैवल्यावस्थायां वा दायक्रमो येषां ते भव्यदायक्रमाः । तदाऽऽमन्त्रणं हे भव्यदायक्रमाः ! " - पुनः कथम्भूताः हे विश्वतीर्थाधिपाः ? मानिताहारिणः, मानम्= = प्रमाणं प्रत्यक्षानुमानादि । यदाहु:- मानं प्रमाणे [ अनेकार्थ. २ / २८१] इति । प्रमाणं प्रत्यक्षादि [ ] इति मङ्खः । तद् विद्यते येषां ते मानिनः = बौद्धादयस्तेषां समूहो मानिता, तां हरन्तीति मानिताहारिणः । ग्रहादिभ्यो णित् [ सि.हे. ५/१/ ५३] इति णिन् । यद् वा, मायाः = लक्ष्म्याः संसारसम्बन्धिन्याः न विद्यते इतंगमनं येभ्यस्ते मानिताः । हारः संग्रामो द्यतेते येषां ते हारिणः, न हारिणो अहारिणः। हारस्तु मुक्तादामनि संयुगे [ अनेकार्थ. २/४८४] संयुगं सङ्ग्रामः [ अनेकार्थ. टीका० ] इति तट्टीका । मानिताश्च ते अहारिणश्च मानिताहारिणः । तदामन्त्रणं हे मानिताहारिणः ! ४७ For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः पुनः कथम्भूताः हे विश्वतीर्थाधिपाः ? मानिताहारिणः ! मा= लक्ष्मी: सेव, असंख्यसौख्यमयत्वात् । मा=मुक्तिः । तत्र अनिताः=ज्ञानादिभावप्राणधारित्वेन जीविता ये ते मानिताः । यत्प्रज्ञापनासूत्राष्टादशपदम् 'जीवे णं भंते जीवेत्ति कालतो केव चिरं होति । गोअमा सव्वद्धं जीवे णं' [पद १८, सूत्र २३२ ] इत्यादि । वृत्तिश्चास्य- 'इह जीव[न] पर्यायविशिष्टो जीव उच्यते । तत्प्रश्नयति- जीवे णमिति । णं इति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! जीवस्य इति जीवनपर्यायविशिष्टतया इत्यर्थः । कालतः अधिकृत्य कियच्चिरं कियन्तं कालं यावत् भवति । भगवानाह - गौतम ! सर्वाद्धां सर्वकालं यावत् । कथमिति चेत् ? उच्यते- इह जीवन उच्यते प्राणधारणम् । प्राणाश्च द्विधा, द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च।' द्रव्यप्राणाः - इन्द्रियपञ्चकबलत्रिको च्छ्वासनिः श्वासायुष्कर्मानुभवलक्षणाः । भावप्राणाः ज्ञानादयः । तत्र संसारिणाम् आयुष्कर्मानुभवलक्षणं प्राणधारणं सदैव स्थितम् । न हि सा काचिदवस्था संसारिणाम् अस्ति यस्याम् आयुष्कर्मानुभवनं न विद्यत इति । मुक्तानां तु ज्ञानादिरूपप्राणधारणमेव स्थितम् । मुक्तानामपि हि ज्ञानादिरूपाः प्राणाः सन्ति । यैर्मुक्तोऽपि [ द्रव्यप्राणै: ], जीवतीति व्यपदिश्यते । ते च ज्ञानादयो मुक्तानां शाश्वतिका, अतः संसार्यवस्थायां मुक्ताऽवस्थायां च सर्वत्र जीवनमस्तीति । सर्वकालभावी जीवनपर्याय: [ प्रज्ञा० मलयगिरि टीका, पद १८, सूत्र २३२] इति । 1 ४८ = 1 यद् वा, न इता=गता अनिता । मा-लक्ष्मीः । सा च मोक्षं प्रति प्रवृत्तानां संयमश्रीः, केवलिनां केवल श्रीः, सिद्धानां च ज्योतिः श्रीर्वा । अनिता=विद्यमाना येषां ते मानिता:, यथाकालं शश्वद्भास्वत्संयमादिलक्ष्मीका इत्यर्थः । आहारः=भोजनं विद्यते येषां ते आहारिणः । तीर्थकृतामाहारविधेः सद्भावात् । अत एवोक्तं श्रीसमवायाङ्गे चतुस्त्रिंशत्समवाये पच्छपणे आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा [ सूत्र ३४५ ] इति । ततः पदद्वस्य कर्मधारये मानिताहारिणः । तदाऽऽमन्त्रणं हे मानिताहारिणः ! इति द्वितीयायाः स्तुतेर्द्वितीयोऽर्थः । २ । अथ तृतीयस्तुतिस्तवनीयं समस्तजनकमनीयं श्रीमदर्हच्छासनं वर्णयतिसत्क्रिया दं चितं साधुवर्णक्रम, साधुवर्णक्रमं सत्क्रियादञ्चितम् । For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथस्तुतिः निर्जरानन्दनं सर्वदाशासनं सर्वदाऽशासनं निर्जरानन्दनम् ।। ३ ।। सत्क्रियेत्यादि। हे सर्वद ! सर्वाणि=समस्तानि पञ्चप्रकारत्वात् दशप्रकारत्वाद् वा, दानि दानानि यस्य स सर्वदः । अभयं सुपत्तदाणं अणुकंपा उचिय कित्तिदाणं च । दुण्णवि मुक्खो भणिओ तिण्णवि भोगाइअं दिति ।। इति पञ्चधा दानम्। दशधा तु एवं श्रीस्थानाङ्गे दशमे स्थानकेदसविहे दाणे पण्णत्ते । तं जहा अणुकंपा संग चेव भये कालुणिएइ अ । लज्जाए गारवेणं च अहम्मे उण सत्तमे । धम् अ अट्टमे वुत्ते काहीति त कर्तति त ।। ४९ [उ.सूत्र ७८७] इति । एतेषां दशधा-दानानां व्याख्या एतद् वृत्तितोऽवसेया । अस्माभिस्तु स्तुतिवृत्तिगौरवभिया न लिखिता इति । श्रावकस्य सर्वदानदायित्वाद् युक्तं विशेषणमिदम् । दस्तु दातरि छेददानयो: [ ] इति श्रीधरः । यद् वा, सर्वेषु दानशौण्ड यः सः सर्वदः । 'दो दाने पूजने क्षीणे दानशौण्डे' [ एका.ना.प. ६७ ] इति विश्वशम्भुः । तदामन्त्रणं हे सर्वद ! = जिनशासनोक्तपञ्चविधदशविधदानदातः श्रावकलोक ! आः = अर्हन्तः । अ स्यादर्हति सिद्धे च [अपवर्गनाममाला, द्वितीय खण्ड प. १५३] इति वचनात् । तेषां शासनं - शास्त्रं द्वादशाङ्गीरूपम्, अत्र शासनं जिनागम इत्यर्थः । शासनं नृपदत्तोर्व्यां शास्त्राज्ञालेखशास्तिषु [अनेकार्थ. ३/४५३] इति हैमानेकार्थः । तत् त्वं सत्क्रियाः=सत्कुर्याः । सत् इति अव्ययम् आदरे । अथ जिनशासनं विशेषणैर्विशिनष्टि-किम्भूतम् अशासनम् ? दम्, दों छोंच् छेदने [सि.धा.१६९] दिवादि: परस्मैपदी । द्यति खण्डयति समाराधनया अज्ञानं चातुरन्तसंसारकान्तारं च यत्तत् दम् । यद् उत्तराध्ययनम् 'सुअस्स आराहणयाए णं भंते जीवे किं जणयइ । सुअस्स आराहणयाए णं अण्णाणं खवेइ, न य संकिलिस्सइ । [ अध्ययन २९, सूत्र २४ ] इति । नन्दीसूत्रं च For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः 'इच्चेइअं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीए काले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइंसु। इच्चेइअं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णकाले अणंता [परित्रा] जीवा आणाए आराहित्ता चाउरतं संसारकंतारं वीईवयंति । इच्चेइअंदुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं वीई वइस्संति। [सूत्र ५७, पृ. २४७] इति। युक्तं विशेषणम्। यद् वा, दाम् दाने [सि.धा. ७] भ्वादिः परस्मैपदी। यच्छति स्वर्गापवर्गसुखं संयमाऽसंयमस्वरूपविपाकश्रवणेन संयमस्य समाचरणात् ददाति यत्तत् दम्। यद् दशवैकालिकसूत्रम् सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं। उभयपि जाणइ सोच्चा जं छेअंतं समायरे।। [अध्ययन ४, गाथा. ११] इति । यद् वा, 'दैव शोधने' [सि.धा. २९] भ्वादिः परस्मैपदी। दायति-शुध्यति आत्मा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यो मोक्षमार्गो वा, कुमार्गश्रद्धानप्रवर्तनप्ररूपणापनयनाद् अनेन इति दम् । सर्वत्र डः प्रत्ययः । तत् दम्। ___ पुनः किम्भूतं अशासनम् ? चितम्, चीयते शुभं कर्म अनेन इति चितम्। अथवा चितम्=पुष्टं गम्भीराथैः इति गम्यते । अर्थतो भगवत्प्रणीतस्य द्वादशाङ्गस्य विश्वव्यापित्वात् पुष्टता सद्भावात् । तत्। पुनः किम्भूतम् अशासनम् ? साधुवर्णक्रमम्, वर्णाः=भेदाः, अर्थात् जीवाजीवादिभेदास्तेषां क्रम:=परिपाटी वर्णक्रमः। साधू रम्यो वर्णक्रमो जीवाजीवादिभेदपरिपाटी यस्मिंस्तत् साधुवर्णक्रमम्। यद् वा, साधुः शोभनो वर्णः=यशः क्रमेषु शास्त्रेषु यस्य तत् साधुवर्णक्रमम्। पुराणादिसर्वशास्त्राणां मध्यात् सिद्धान्तस्यैव परमार्थसाधकत्वेन परमयशस्वित्वात्। वर्णः स्वर्णे व्रते स्तुतौ। रूपे द्विजादौ शुक्लादौ कुथायामक्षरे गुणे। भेदे गीताक्रमे चित्रे यशस्तालविशेषयोः । [अनेकार्थ. २/१५३, १५४ ] इति। पुनः कथम्भूतम् अशासनम् ? साधुवर्णक्रमम्, साधुः=युक्तो वर्णैः स्वरादिभिरक्षरैः क्रमः= पदसन्धिर्यस्मिन् तत् साधुवर्णक्रमम् । सिद्धान्तस्य प्रधानाक्षरपदसन्धित्त्वात्। साधुशब्दो युक्ताऽर्थोऽपि अनेकार्थटीकायाम्। 'क्रमशब्दः परम्परापादक्षेपानन्तर्यपदसन्धिष्वपि' मङ्खः । इति हैमानेकार्थवृत्तिः। For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथस्तुतिः यद् वा, वर्णण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचनेषु अदन्तो धातुः । वर्णक्रिया वर्णवर्णनं वर्णकरणं वा, कथां वर्णयति सुवर्णं वर्णयति [ ] इति धातुपारायणम्। वर्ण्यते सूत्रं अनेन वर्ण:=अर्थः । साधूनां जम्बूस्वामिप्रभृतिमुनीनां वर्णस्य अर्थस्य क्रमः परम्परा यस्य तत् साधुवर्णक्रमम्। सिद्धान्तस्य तीर्थकृद्भिरर्थतो गणधरान् गणधरै श्च जम्बूस्वाम्यादिसाधून् प्रतिपादनेन परम्परागमत्वात्। यद् अनुयोगद्वारसूत्रम् 'आगमे तिविहे पण्णत्ते । तं सुत्तागमे अ अत्थागमे अ तदुभयागमे अ। अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते । तं अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे। तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे। गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे। अत्थस्स अणंतरागमे। गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे। अत्थस्स परंपरागमे। तेण परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे, परंपरागमे। [सूत्र १४७, पृ. २१८] इति । यद् वा, वर्ण: अक्षरम् । पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्। वर्ण:-वर्णश्रुतम् अक्षरश्रुतम् इत्यर्थः । साधूनां वर्णस्य अक्षरश्रुतस्य क्रमः परम्परा यस्य तत् साधुवर्णक्रमं तत् । यत् नन्दीसूत्रम् 'से किं तं सुअनाणपरोक्खं ? सुअनाणपरोक्खं चोद्दसविहं पण्णत्तं, तं जहा- अक्खरसुअं अणक्खरसुअं' [सूत्र ३७, पृ. १८६] इत्यादि इति । ___ पुनः कथम्भूतम् अशासनम् ? सत्क्रियादञ्चितम्, सती-प्रशस्ता क्रिया विचारो अर्थविचारणा तया अतति याति आयुर्वर्जं सप्तकर्मप्रकृतयो निकाचितबन्धनबद्धा श्लथबन्धनबद्धत्वं यस्मात् तत् सत्क्रि यात् । सिद्धान्तार्थविचारणा या निकाचितबन्धनबद्धानां सप्तकर्मप्रकृतीनां श्लथबन्धनबद्धत्वात् । यद् उत्तराध्ययनसूत्रम् अणुप्पेहाए णं भंते जीवे किं जणयइ, अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ धणिअबंधणबद्धाओ सिढिलबंधनबद्धाओ। पकरेइ । दीहकालट्ठिईआओ हस्सकालट्ठिईआओ पकरेइ । तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ। [अध्ययन २९, सूत्र २२] इत्यादि। अम्=परब्रह्मज्ञानं विज्ञानं वा तेन चितम्=पुष्टं यत् तत् अञ्चितम्। अंमान्तो ब्रह्मसंवादे परब्रह्मप्रवाचकः ।। १९ ।। व्यसने व्याधिते व्याधौ ज्ञानविज्ञानवेदने। [एकाक्षरनाममालिका प. १९२०] इति विश्वशम्भुः । यद् वा, अम् अनुस्वारस्तेन चितं यत् तत् अञ्चितम् । For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः अं अः अनुस्वारविसर्गों [सि.हे. १/१/९ ] इति श्रीहेमसूरिपादाः । अंइति अनुस्वारे [पाणिनि ८/२/१ टीकायां] इति पाणिनिश्च। सिद्धान्तस्य प्राकृतत्वात् प्रचुरानुस्वारत्वाद् विसर्गाभावत्वाच्च युक्तं विशेषणम् । सत्क्रियाच्च तदञ्चितं च इति कर्मधारये सत्क्रि यादञ्चितम् । यद् वा, क्रिया कायव्यापारः । क्रियाकरणचेष्टयोः [अनेकार्थ. २/३५५] इति हैमः । चेष्टा-कायकृतो व्यापार: [अनेकार्थटीका. ] इति तत् टीका। सती शोभना क्रिया प्रतिक्रमणसामायिकपोषधव्रताघनुष्ठाने सिद्धान्तोक्तेर्यादिसमिति यत् नानवद्यः कायव्यापारो यस्मिन् तत् सक्रियम्। अर्थात् प्रतिक्रमणादिकं तत्र अड्डन्ति ये ते सत्क्रियादः साधवः श्रावका वा। अद्ड् अभियोगे दोपान्त्यः, भ्वादिः परस्मैपदी। क्विपि, पदस्य इति संयोगान्तलोपे अद् अत् तैरञ्चितम्=प्राप्तं यत् तत् सत्क्रि यादञ्चितम् । यद् वा, अञ्चण विशेषणे [सि.धा. १७३०] विशेषणम् =अतिशयः। अञ्चयति अर्थ व्यक्तीकरोति इत्यर्थः । सत्क्रियस्य प्रतिक्रमणस्य अत्-ज्ञानं सत्क्रियात्। अत सातत्यगमने, सातत्यगमनं नित्यगतिः, गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात् क्विप्, क्विप् प्रत्ययस्य स्त्रीलिङ्गत्वात्। सा अञ्चिता व्यक्तीकृता यत्र तत् सत्क्रियादञ्चितं तत्। पुनः कथम्भूतं अथासनम् ? निर्जरानन्दनम्, निर्जरया कर्मक्षपणया आनन्दयति साधून् यत् तत् निर्जरानन्दनम्। सिद्धान्ताध्ययनात् साधोः कर्मक्षपणा सद्भावात्। यदुक्तं श्री स्थानाङ्गे तृतीये स्थाने चतुर्थोद्देशे तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । तंकया णं अहं अप्पं वा बहुं वा सुअंअहिजिस्सामि। [स्थान ३, उद्देशक ४, सूत्र २१०] इत्यादि इति। __ पुनः कथम्भूतम् अशासनम् ? सर्वदाशासनम्, सर्वदा निरन्तरं शासनम् आज्ञा शिक्षा वा उत्सर्गापवादमार्गयोर्यस्मिन् तत् सर्वदाशासनम्। सिद्धान्तस्य उत्सर्गापवादमार्गयोर्नित्यत्वात्। शासनं नृपदत्तो| शास्त्राज्ञालेखशास्तिषु । [अनेकार्थ. ३/४५३] इति वाक्यात्। दाश: धीवरः स इव हिंसकत्वात्। दाश: दयारहितः पापफलानवबोधी हिंसकलोकः । सर्वश्चासौ दाशश्च सर्वदाशः तस्य आसनं-निरसनं यस्मिन् तत् सर्वदाशासनम्, तत्। For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __५३ श्री अजितनाथस्तुतिः पुनः कथम्भूतम् अशासनम् ? निर्जरानन्दनम्, निरा अतिशयेन जरा-शरीरं दुःखं येषां ते निर्जराः, संसारिणो जीवाः । यदुक्तं श्रीभगवत्यङ्गे षोडशे शते द्वितीयोद्देशे रायगिहे जाव एवं वयासि। जीवाणं भंते किं जरा सोगे?, गोअमा, जीवाणं जरा वि सोगे वि।से केणढे णं भंते जाव सोगे वि। गोअमा, जेणं जीवा सारीरं वेअणं वेदेति, तेसि णं जीवाणं जरा। जेणं जीवा माणसं वेअणं वेदेति, तेसि णं जीवाणं सोगे से तेणढे णं जाव सोगे वि। एवं नेर इयाण वि। एवं जाव थणिअकुमाराणं। [शतक १६. उद्देशक २, सूत्र ५६६ ] इति। अस्य वृत्तिश्च रायगिहे इत्यादि। जरत्ति, जृ वयोहानौ [ ] इति वचनात् । जरणं जरा= वयोहानिः, शरीरदुःखरूपा चेयम्, अतो यद् अन्यदपि शारीरं दुःखं तदनयोपलक्षितम्। ततश्च जीवानां किं जरा भवति, सोगेत्ति, शोचनं शोकः, दैन्यमुपलक्षणत्वात्, एवञ्चास्य सकलमानसदुःखपरिग्रहः, ततश्च उत शोको भवतीति । चतुर्विंशतिदण्डके च [येषां शरीरं] तेषा जरा, येषां नु मनोऽप्यस्ति तेषामुभयमपि। [अभयदेवीया टीका पृ. ७००] इति। ततो निर्जरान् संसारिजीवान् आनन्दं नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिं नयति-प्रापयति यत् तत् निर्जरानन्दनम्। डः प्रत्ययः। आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षे प्रतिष्ठितम्। [ ] इति श्रवणात्। तत् । निः इत्यत्र शब्दो न तु अव्ययम् । यत् निघण्टुः निः स्यादतिशयवाची गत्यर्थे निर्गतार्थे च। शब्दत्वमव्ययत्वं द्वयमपि भजते न सन्देहः। इति। इति तृतीयस्तुतेर्द्वितीयोऽर्थः ।।३।। साम्प्रतं तुरीयस्तुतिस्तवनीयाम् अजितबलानाम्नीं जिनोपासिकां आशीर्वादपूर्वकं श्लाघमानः प्राह कामदाऽनक्षमाऽकामदाऽऽनक्षमा, नव्यपद्मासना नव्यपद्मासना। देवताऽवोदितादेव तावोदिता साऽमला भारती सामला भारती।।४।। इति श्रीमजितनापथस्य अपरार्थतः स्तुतिः। कृ तिरि यञ्च श्रीजयसागरमहोपाध्यायमिश्राणाम्। For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः कामदेत्यादि । सा त्वं देवता - सुरी, प्रस्तावादिह अजितबलानाम्नी साम्लक्ष्मीं शोभां, लक्ष्मीशोभयोरभेदेन विवक्षितत्वात्, उदितात् = प्राप्नुहि । इण्क् गतौ [सि.धा. १०७५]अदादि: परस्मैपदी । गत्यर्थानां प्राप्त्यर्थत्वात्। एव इति अव्ययम् अवधारणे नियोगे । वा । सा का ? यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात्, यत्वं, भम् = भयम्, भम् नक्षत्रं भयं ब्रह्मं [एकाक्षरनाममाला प. ७६ ] इत्यादि सौभरिवाक्यात् । अरतिः=पदार्थेषु अप्रीतिः, ततो द्वन्द्वे भारती भयाप्रीतिः इत्यर्थः । ते कर्मतापन्ने अलाः । तयोस्सर्वथा विध्वंसनविधानेन अग्रहीः । अथ देवतां विशेषणैर्विशिनष्टि - कथम्भूता देवता ? कामदा, कं= सुखं तेन आ=समन्ताद् अविनश्वरत्वात् मदः = हर्षो यस्याः सा कामदा । यद् वा, कामस्य इन्द्रियभोगस्य दः=दानं यस्याः सा कामदा । कामः स्मरेच्छाकाम्येषु [ अनेकार्थ. २/३२२] इति। काम्यम्-इन्द्रियभोग्यम् [ ] इति तट्टीका । इन्द्रियभोग्यवस्तूनां दायिका इत्यर्थः । पुनः कथम्भूता देवता ? अनक्षमा, न क्षमा अक्षमा असमर्था । न अक्षमा अनक्षमा, सेवकाभीष्टार्थसिद्धिविधाने [सर्वथा ] समर्था इत्यर्थः । यद् वा, णक्ष गतौ भ्वादि: परस्मैपदी । पाठ इति णस्य नत्वे, न क्षति गच्छति, अचि, नक्षा गमनशीला इत्यर्थः । न विद्यते नक्षा मा लक्ष्मीर्यस्याः सा अनक्षमा, शश्वल्लक्ष्मीका इत्यर्थः । यद् वा, अनन्ति= प्राणन्ति ये ते अनाः, अर्थात् प्राणिनः तेषां क्षमा=हिता या सा अनक्षमा। देवतायाः समस्तप्राणिनां हितकारिणीत्वात् । क्षमः शक्ते हिते [अनेकार्थ. २/३२१] इति वाक्यात् । यद् वा, क्षमा = क्षान्तिः, न क्षमा अक्षमा कोपः । न विद्यते अक्षमा- कोपो यस्यां सा अनक्षमा । सत्यपराधे सेवक परि अकोपना इत्यर्थः । ५४ पुनः कथम्भूता देवता ? अकामदा, 'अकं दुःखाघयो:' [अनेकार्थ. २/१] इति वाक्यात् । अकम्=पापं तस्मिन् न विद्यते मदः- हर्षो यस्याः सा अकामदा । यद् वा, को ब्रह्मण्यात्मनि रवौ मयूरेऽग्नौ यमे [ अनेकार्थ. १/५] इति हैमानेकार्थः । ततो न विद्यते कः = यमः कालरूपो दुःखदायित्वात् यस्याः सा अका । यत्प्रसादाद्धि यमोऽपि न दुःखदायी, अतो युक्तं विशेषणम् । आमान् = रोगान् द्यति-खण्डयति या सा आमदा। आम आमय आकल्यमुपतापो गदः समा । [अभिधान. ४६३] इति अभिधानचिन्तामणिः । ततः कर्मधारये अकामदा । For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथस्तुतिः पुनः कथम्भूता देवता? आनक्षमा, अनश्वसक् प्राणने, घञि। आना:प्राणास्तैः क्षमा समर्था या सा आनक्षमा। पुनः कथम्भूता देवता? नव्यपद्मासना, नव्या नवा प्रतिदिनमधिकरमणीयात्वात्, पद्मा लक्ष्मीस्तस्या असनम् दीप्तिः सत्ता वा यस्यां यस्या वा नव्यपद्मासना। अषी असी गत्यादानयोश्च, चकाराद् दीप्तौ इति धातुपारायणम्। 'अनट' [सि.हे. ५/३/१२४] इति अनट्। 'टकार उत्तरत्र ड्यर्थः' [ ] इति वृत्तौ । एतदर्थश्चिन्त्यः । नव्यपद्मासना सजीवा हंसगमना नीत्वा। अस् भुवि'[सि.धा. ११०२], अनटि, असनम् । स्यान्नवेति चिन्त्यम्। पुनः कथम्भूता देवता? नव्यपद्मासना, पद्मम्=पद्मनामसंख्याविशेषम् असन्ति प्राप्नुवन्ति ये ते पद्मासाः । पद्मो व्यूहे निधावहौ, संख्याब्जयो [अनेकार्थ. २/३३२] इति । अषी असी गत्यादानयोश्च, चकाराद् दीप्तौ इति धातुपारायणम्। गत्यर्थानां प्राप्त्यर्थत्वात् । अच् प्रत्ययः । पद्मासाश्च ते नाश्च-नराः पद्मासनाः । नो नरे च सनाथेऽपि [एकाक्षरनाममालिका प. ७६] इति विश्वशम्भुः । ततो नव्या-स्तोतुं योग्या, पद्मासनानां पद्मसंख्यनराणां या सा नव्यपद्मासना। अनेकसेवकनरस्तवनीया इत्यर्थः । यद् वा, पद्मशब्देन चत्वारिंशद्वर्षदेशीयस्य गजस्य गात्रे शोणाः बिन्दव उच्यन्ते । यद् अनेकार्थः-पद्ममिभबिन्दौ [अने. २/३३२] इति। ततः पौः शोणबिन्दुभिः असनम्=दीप्तिर्येषां ते पद्मासना हस्तिनः । अत्र असीधातोर्दीप्त्यर्थस्य अनटि रूपम्। नव्याः स्तवनीयाः पद्मासनाहस्तिनो यस्याः प्रभावादिति गम्यते, सा नव्यपद्मासना। ये हि नरा हस्त्यर्थिनो ध्यायन्ति तेषां हस्तिनाम् अवाप्तिर्यत् प्रभावादिति । यद् वा, पद्मेषु स्वर्णकमलेषु असनम् गमनं चरणन्यासः यस्य स पद्मासनो जिनः, अर्थात् श्रीअजितनाथः । नव्यः स्तवनीयः पद्मासनो यस्याः सा नव्यपद्मासना। यद् वा, अकारप्रश्लेषात् अनव्यपद्मासना, 'अस् भुवि' [सि.धा. ११०२] अनटि, असनम्=भूः सत्ता इत्यर्थः । पद्मात्=कमलात् असनम् सत्ता प्रादुर्भाव इत्यर्थो यस्य स पद्मासनः=ब्रह्मा। पद्मभूः इत्याख्यत्वात् । अनव्यः अस्तवनीयः पद्मासन: ब्रह्मा यस्याः सा अनव्यपद्मासना। यद् वा, अविर्भूपुष्पवत्योः स्त्री [ ] इति वैजयन्ती वचनात् न अविः अनवि:= अरजाः देवतात्वात्, ऋतुवर्जिता इत्यर्थः । न पद्मा अपद्मा=अलक्ष्मीः, लोके अलाछि, अदशा इति भाषा। तस्याः असनम् क्षेपो यस्या सा अपद्मासना अलक्ष्मीनाशिका इत्यर्थः । असूच क्षेपणे [सि.धा. For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः १२२१]अनट प्रत्ययः। अनविश्चासौ अपद्मासना च इति कर्मधारये अनव्यपद्मासना। पुनः कथम्भूता देवता? अवा, 'अव रक्षणगतिकान्तिप्रीत्यादिषु' [सि.धा.]अवति-रक्षति कष्टाद्या सा, अवि, अवाकष्टकोटिरक्षाकारिका इत्यर्थः । पुनः कथम्भूता देवता? तावोदिता, 'तुंक् वृत्तिहिंसापूरणेषु' [सि.धा. १०७९] अदादिः परस्मैपदी। 'भावाकों:' [सि. हे. ५/३/१८] इति भावे घञि। ताव:=पूरणं, प्रस्तावात् सांसारिकसमीहितपूरणम्। तत्र उदिता-उद्गता या सा तावोदिता, मनोरथफलपूरणोदिता इत्यर्थः । यद् वा, ता-लक्ष्मीस्तस्याः आववृद्धिः उदिता-उत्कर्षेण प्राप्तो यया सा तावोदिता, लक्ष्मीवृद्धिप्राप्ताः इत्यर्थः । पुनः कथम्भूता देवता? अमला, न विद्यते मलं कालिमा मनोवाक्कायविषया अशुद्धिर्वा यस्यां सा अमला। देवता हि गौरवर्णाः, सेवकलोकार्तिहरणे च मनोवाक्कायविषयाशुद्धिरहिता च इत्यर्थः । मलशब्द कालिम्नि मनोवाक्कायविषयायाम् अशुद्धौ च [ ] अनेकार्थटीकायां दृष्टः । पुनः कथम्भूता देवता? भारती, रतिः स्मरस्त्री, तस्या ई: लक्ष्मी, शोभा, रती। अत्र ईशब्दो ड्यन्तः । अस्य कृष्णस्य स्त्री ई। धवाद् योगात्। [सि.हे. २/४/५९] इति ङी प्रत्ययः । लक्ष्मीशोभयोस्साहचर्यात् ईशब्दः शोभावाची। ततो मया कान्त्या अर्थात् शरीरकान्त्या रतीव कन्दर्पस्त्रीशोभेव या सा भारती । शरीरकान्त्या रतिसमा इत्यर्थः । भांशौ इति वाक्यात्, आबन्तोऽयम्। यद् वा, भारती-वाक्प्रधानावृत्तिः, सेव भारती वाचा वरिष्ठा इत्यर्थः । यथा हि. भारतीवृत्तिर्वचोरचनाप्रधाना तथेयमपि। कैशिक्यारभटी चैव सात्वती भारती तथा। [ ] इति। यद् वा, भरताम् बिभ्रतामियं भारती। ये हि नित्यं चेतसि ध्यायन्ति तेषामभीप्सितदानेन स्वामिनी इत्यर्थः । इति चतुर्थ्याः स्तुतेर्द्वितीयोऽर्थः। ४। इति श्री-खरतरगच्छीय-श्रीजयसागरमहोपाध्याय-सन्तानीय श्रीज्ञानविमलोपाध्यायशिष्यवादिश्रीवल्लभगणिविरचिता मूलार्थपरिहारेण द्वितीयनवीनार्थविधानेन द्वितीयजिनेश्वर श्रीमदजितनाथस्तुतिवृत्तिः समाप्ता। For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथस्तुतिः [ वृत्तिकृता - प्रशस्तिः ] श्रीजिनेश्वरसूरीन्द्राद्यः ख्यातः शोभतेतराम् । नित्योत्कृष्टक्रियाचारो गच्छः खरतराभिधः । । १ ॥ युगप्रधान आभाति जिनचन्न्द्रस्तदीश्वरः । अकब्बरशिलेमाख्य साहिदत्तघनादरः ।। २ ।। तच्छिष्यः साम्प्रतं सम्यग् युवराजं भुनक्त्यलम् । वादिद्विरदसिंहो यो जिनसिंहः स सूरिराट् ।।३ ॥ यो राज्ये कृता वृत्तिः स्तुतेः श्री अजितार्हतः । ज्ञानविमलपाठक शिष्यैः श्रीवल्लभाभिधैः ।। ४।। अत्र वृत्तौ बुधैर्ज्ञेयं व्याख्याद्वयमनिन्दितम् । यदशुद्धं भवेत्तद्धि शोध्यं सम्यक्कृपापरैः । । ५ । । स्तुतिरेषा कृता श्रीमज्जयसागरपाठकैः । यमकस्रग्विणीछन्दोमयी साधारणार्हताम् ।। ६ ।। केनापि विदुषा सार्द्धं विवादादजिताऽर्हतः । वर्णना वर्णिता त्यक्त्वा वास्तवार्थं यथामति ।। ७ ।। नवरसरसादित्यसंख्ये (१६६९) वर्षे सदासुखे। श्रीमद्बोधपुरे राज्ये सूरसिंहमहीपतेः । स्तुतिवृत्तिरियं शश्वद्वाच्यमाना कवीश्वरैः । नन्दताच्छारदादेवीप्रसादाज्जगतीतले ।। ९ ।। इति श्री अजितनाथस्तुतिवृत्तिः समाप्ता । । १. सन्ध्यमावो विचिन्त्यः *** For Personal & Private Use Only ५७ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभोपाध्यायप्रणीतटीकयोपेता श्री शान्तिनाथ-विषमार्थस्तुतिः। वाराणं वरणंरणं रणरणं वारारणं वीरणं, कङ्कालं कुललं कलंकलं कलं कीलं कोकिलम्। तंतानन्तननं तनं तनतनं संतानवीतानकं, विद्योतं विदितं दुतं दितसुतं विद्याविनोऽदं विदुः॥१॥ अस्य व्याख्या-उ इति सम्बोधने। हे वार! वर एव-संयम एव! "व: प्रमादसान्त्वने' वायौ संयमे" [नानार्थरमाला, एकाक्षरकाण्ड ६४] इति इरुगपदण्डाधिनाथवचनात्। आ=लक्ष्मीः तया राजते शोभते इति वारः, तत्सम्बोधनं हे वार! हे साधो! अहं तम् 'अणम्' आ: जिनाः 'अः स्यादर्हति सिद्धे च' [अपवर्गनाममाला द्वि.रां. १५३] इत्युक्तेः । तेषु णः-प्रकट: सकलक्षुद्रोपद्रवविद्रावणकारित्वेनेति अण: श्रीशान्तिनाथजिनः, तम् अणं श्रीशान्तिजिनं आर=प्राप्तवान् । देवत्वेन ध्येयत्वेन वा इति गम्यम् । तम् इति कम् ? यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात् यम् अणं 'विद्याविनः' विद्यया बुद्ध्या अवन्ति–दीप्यन्ते इत्येवंशीला विद्याविनः पण्डिताः, 'दितसुतं' दितम् खण्डितं सुतम्=पीडा येन स दितसुतः तं दिसुतं एवम्विधं विदुः=जानन्ति । ""जन् सन्धाक्लेदपीडमस्थे" इत्युक्तेः । “नपुंसके क्तः" [पा.सू.३.३.११४] इति क्ते सिद्धिः । श्रीशान्तिनाथो हि गर्भावासानन्तरं देशनगरग्रामविविधोग्रोपद्रवविद्रावणं विहितमिति युक्तमिदं विशेषणम्। अथ शान्तिजिनो द्वितीयान्तविशेषणैर्वर्ण्यते किम्भूतं अणम् ? वरणम्' 'वृञ् वरणे' [पा.धा.१३३४] वृणाति मुक्तिश्रियमिति वरणस्तम्। 'तृकृशृ' [सि.हे.उ.सू.१८७] इति अणः । पुनः किम्विशिष्टम् अणम्? 'रणम्' 'रण व्रण रुति' रणति-द्विविधं धर्मं कथयतीति अचि प्रत्यये रणस्तम्। पुनः किम्विशिष्टं अणम् ? 'रणरणम्' 'रण् गतौ' [सि.धा. १०३९]रणणं रणः गमनं नाशनमिति यावत्। रणस्य सङ्ग्रामस्य रण:=नाशनं यस्येति रणरणस्तम्। शत्रूणामभावात् तदभावः इत्यर्थः । पुनः किम्विशिष्टं अणम्? १. मुद्रितसंस्करणे 'व: पुमान् सान्त्वने'। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्तिनाथ-विषमार्थस्तुतिः ५९ 'अरणम्' रणशब्दः प्रस्तावाद् अपशब्दः स न विद्यते यस्य स अरणस्तम्। पुनः किम्विशिष्टं अणम् ? 'वीरणम्' वीरेषु-सुभटेषु णः-प्रकटो यः सः वीरणस्तम्। 'णः प्रकटे' [एकाक्षरनाममाला, श्लो. २२] इति सुधाकलशवचनात् । पुनः किम्विशिष्टम् ? 'कङ्कालम्' "कङ्क व्रजने' [पा.धा.९७] गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात् कङ्कनं कङ्क:-ज्ञानं केवलज्ञानलक्षणं तेन अलते-शोभते कङ्कालस्तम्। 'अलज् वारणपर्याप्तिभूषासु' [पा.धा.५५२] इति वचनात्। पुनः किम्विशिष्टम्? 'कुललम्' कुलानि शरीराणि औदारिकादीनि तानि लुनातीति। "लूञ् छेदने" [पा.धा. १५८०] ड प्रत्यये, कुललस्तम्। मुक्तावस्थायां विशेषणमिदम्। पुनः किम्विशिष्टम् ? कलंकलकलम्"रक लकक् स्वाद आपने" [पा.धा. १८७३७४] अलिलकः, कलङ्कानां = दोषाणां लक: आपनं येभ्यस्तानि कलङ्कलकलस्तम्। पुनः किम्विशिष्टम् ? 'कीलम्' की: लक्ष्मीः। "कीर्गजस्तुरगो व्यालो जारो जीव पिपीलिका। धरा रमा च" [एकाक्षरनाममाला श्लो. १८] इति सौभरिवचनात्। तां मिलति प्राप्नोतीति कीलस्तम्। "इलथ् शये गतौ"१ [कविकल्पद्रुम. षष्ठपल्लव, १७] इति कविकल्पद्रुमोक्तेः । पुनः किं विशिष्टम् अणम् ? कलम?-मनोज्ञम्। पुनः किम्विशिष्टम् ? 'कोकिलम्' रत्नयोरैक्यात् 'कोकिरम्'। "कुक आदाने" [पा.धा. ९४] कोकन्ते उपदेशेन प्रतिबुद्धास्सन्तो यतिधर्मं श्रावकधर्मं वा गृह्णन्ति-अङ्गीकुर्वन्ति इत्येवंशीला: कोकिन:-मुनयः श्रावकाः वा तैः राजते शोभते इति कोकिरस्तम्। पुनः किम्विशिष्टम् अणम्? 'तानन्तननम्' तायाः-लक्ष्म्याः न विद्यते अन्तो येषां ते तानन्तास्ते च ते नाश्च-नश: तानन्तना: चक्रवर्त्यादयः "नो नरे" [एकाक्षरनाममालिका ७६] इति विश्वशम्भूक्तेः। तेषां नः=ज्ञानं यस्मात् स तानन्तननस्तम्। “नो बुद्धौ ज्ञानबन्धयोः" [एकाक्षरनाममाला श्लो. २७] इति सुधाकलशोक्तेः। पुनः किम्विशिष्टम् अणम् ? 'तनम्' तनति=शरणागतानां लोकानां उपकारं करोतीति तनस्तम्। "तनु व्युपहतौ श्रद्धाघाते श्रद्धोपकारयोः" [ अजन्तः । पुनः किम्विशिष्टम् अणम् ? तनतनम्' तः शान्तः "त: प्रेते निष्फले शान्ते" [एकाक्षरनाममालिका ६०] इति विश्वशम्भूक्तेः। नता:=नम्रीभूता नाः जराः यस्मिन् सः नतनः । तश्चासौ नतनश्च तनतनस्तम्। पुनः किम्विशिष्टं १. मुद्रितसंस्करणे- इलत् क्षेपणगमतस्वप्नेषु। For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः अणम् ? 'संतानवीतानकम्' "तनु व्युपहतौ श्रद्धाघाते श्रद्धापकारयोः" ] घजि । तानः, सत्-सम्यक् तान:= श्रद्धादानादौ यस्मात् स संतानः । “अन् प्राणने" [पा.धा. ११४६] अनः, स्वार्थे के, अनकः, वीत:=गतो अनक:=द्रव्यप्राणधारणं यस्मात् स वीतानकः । सिद्धावस्थायामिदं विशेषणम्। संतानश्चासौ वीतानकश्च संतानवीतानकस्तम्। पुनः किं विशिष्टम् अणम् ? 'विद्योतम्' "द्युत दीप्तौ" [पा.धा. ७९७] घञि, द्योतः, विशिष्टो द्योतः प्रकाशोऽस्येति विद्योतस्तम्। पुन: किम्विशिष्अं अणम्? विदितंविख्यातम्। पुनः किम्विशिष्टम् अणम् ? 'दुतम्' 'दुं गतौ' [पा.धा. १०१०] क्विबन्तः । दवते गच्छति मुक्तिश्रियं प्राप्नोतीति दुत् तम्। गत्यर्थानां प्राप्त्यर्थत्वात्। पुनः किम्विशिष्टम् अणम् ? 'अदम्' न विद्यते दः-छेदो यस्य यस्माद् वा स अदस्तम्। “दः पुंसि दातरि छेदे" [नानार्थरत्नमाला, एकाक्षर कां. ४१] इति इरुगपदोक्तेः । यद् वा, अदः=दाता तम् । एवम्विधं अणं= श्रीशान्तिनाथजिनम् अहं प्राप्तवान् इति वृत्तार्थः ।। १ ।। ___ अथ द्वितीये सर्वजिनस्तुतिमाहवेतालं विरलं रलं रलरलं विस्तारतारं तरं, चाणरं चरणं चरं वणवणं वीकारकारागृहम्। मायामोहमयं मया मयमयां वात्सल्यवंशोद्भवं, वृन्दं चामरमारमेरुमरणं मोरारिमारोत्सवम्।। २।। व्याख्या-'मयमयाम्' 'मयङ् गतौ' [पा.धा. ५१०] अजन्तः । गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात्। मयन्ते वस्तुजातं जानन्तीति मया: चतुर्ज्ञानधराः तेषां मा लक्ष्मीस्तस्या ई : = प्राप्तिर्येभ्यस्ते मयमयः। ई ल् कान्तिगतिव्याप्तिक्षेपप्रजनखादने '[ ]क्विबन्तः। तेषां मयमयां-चतुर्विंशतितीर्थकृतां वृन्दं-समूहं वन्दे इति अध्याहार्यम् । किम्भूतं वृन्दम्? वेतालं वेन संयमेन इतं गतं आलम् अनर्थदण्डो यस्मादिति वेतालं तत्। 'आलं स्यादनर्थहरितालयोः' [अनेकार्थसंग्रह ४८६] इत्युक्तत्वात्। पुनः किम्विशिष्टं वृन्दम्? 'विरलम्' परस्परं= सान्तरम्। पुनः किम्विशिष्टं वृन्दम् ? 'रलम्' रम् कामं लुनातीति रलं तत्। 'र: कामे' [एकाक्षरनाममाला ३६] इति सुधाकलशोक्तेः। पुनः किम्विशिष्टं वृन्दम् ? 'रलरलम्' राणां नराणां, 'र: कामे तीक्ष्णे वैश्वानरे For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ श्री शान्तिनाथ - विषमार्थस्तुतिः E नरे' [एकाक्षरनाममाला ३६ ] इति सुधाकलशोक्तेः । लम् सुखं, 'लं लक्षणं सुखम्' [एकाक्षरनामाला ८४] इति सौभरिवचनात्। राति=दाति या सा रलरा=पुरुषसुखदा, एवम्विधा ला- लक्ष्मीः संयम श्रीर्यस्य तत् रलरलं तत् । 'ला लक्ष्मी:' [एकाक्षरनाममालिका १०४] इति विश्वशम्भूक्तेः । पुनः किम्विशिष्टं मयमयां वृन्दम् ? विस्तारतारम् विस्तारं प्रस्तावाद् भव्यजनवृन्दं तारयति संसारसागरादिति विस्तारतारं तत् । पुनः किम्विशिष्टम् ? तरं तरन्ति अपारसंसारसागरमात्मना इति तरं तत् । पुनः किम्विशिष्टम् ? 'चरम् ' चरति=आचरतीति चरत् तत् । किं तत् ? चरणम् = चारित्रम् । किम्भूतं चरणम् ? ‘चाणूरम्’=चाणूरमल्ल इव दुष्टाष्टकर्मप्रतिमल्लमथने प्रत्यक्षत्वात् चाणूरस्तम् । पुनः किम्विशिष्टं वृन्दम् ?‘व्रणव्रणम्' व्रणशब्देन समयभाषया 'अतीचारा' प्रोच्यन्ते । व्रणान्-अतीचारान् ब्रणति कथयति यद् इति व्रणव्रणं तत् । ' व्रण शब्दे' [पा.धा. ४८०] अजन्तः । पुनः किम्विशिष्टं वृन्दम् ? 'वीकार कारागृहम् ' ईल् दीप्तौ [ ] इत्युक्तेः । क्विपि । ई:, विशिष्टा ई: वी : - विशिष्टशोभा तस्याः कारकं =कर्तृ वीकारकम्, आ=समन्तात् रा=समृद्धिस्तस्यां गृहं=सद्म आरागृहं तत् । रा लक्ष्मीः समृद्धिः स्यात् [ सौभरि एकाक्षरनाममाला ८२] इत्युक्तेः । पुनः किम्विशिष्टं वृन्दम् ? ‘मायामोहमयम्' मायामोहौ मयन्ते नाशयति यत् मायामोहमयं तत् । कया ? मया-लक्ष्म्या संयमश्रिया इत्यर्थः । पुनः कथम्भूतम् ? ' वात्सल्यवंशोद्भवं' वत्सल्यस्य भावो वात्सल्यम्, वात्सल्येन = वात्सल्यगुणेन प्रधानो वंशो वात्सल्यवंशः=इक्ष्वाक्वादिकुलं तत्र उद्भवः उत्पत्तिर्यस्येति तत् । यद् वा, भिन्नपदेन ‘वात्सल्यवं' वात्सल्यं=वत्सलत्वं तद् वातयति= भजते भक्तजनेष्विति वात्सल्यवं तत् । 'वा- तण् गतिसुखसेवनयों: ' [पा.धा. २०३०] इति वचनात् । ड प्रत्यये सिद्धम्। पुनः किम्विशिष्टं मयमयां वृन्दम् ?' शोद्भवनम् ' शस्य = श्रेयसः कीर्त्या वा उद्भवो यस्मादिति शोद्भवं तत् । 'शं क्लीबे शास्त्रे श्रेयसि मङ्गले कीर्ती' [नानार्थरत्नमाला एकाक्षरकाण्ड ६८ ] इति इरुगपदण्डाधिनाथोक्तेः। चकारः पादपूर्ती । पुनः किम्विशिष्टं वृन्दम् ? अमरम् - मरणरहितम् । पुनः किम्विशिष्टं वृन्दम् ? ‘आरमेरुम्' ऋः = देवमाता तस्या इमे आरा:-देवाः तेषां मेरुरिव सेव्यत्वेनेति आरमेरुस्तम् । मेरुशब्दस्य आविष्टलिङ्गत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः । यथा हि देवानां मेरुः सेव्यो भवति तथा मयमयां वृन्दमपि । पुनः किम्विशिष्टं For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः वृन्दम् ? ‘अरणम्’=निर्द्वन्द्वम् । पुनः किम्विशिष्टं वृन्दम् ? ' मोरारिमारोत्सवम्' 'मुर वेष्टने' [पा.धा. १४३०] मुरन्ति आत्मानमिति मोरा, अणन्तः, तेच ते अरयश्च भावशत्रवो मोरारयः तान् मथ्रातीति । क्वचित् [ सि.हे. ५/१/१७१] इति डे। मोरारिमम्। आ=समन्तात् राणां नराणाम् उत्सवः = हर्षो यस्मात् आरोत्सवम् । मोरारिमं च तत् आरोत्सवं चेति कर्मधारये मोरारिमारोत्सवं तत् । एवम्विधं मयमयां वृन्दं वन्दे ।। इति द्वितीयवृत्तार्थः ।। २ ।। अथ तृतीये वृत्तेऽर्हत्प्रणीतप्रवचनप्रणुतिं प्रकटयन्नाह - लक्ष्मीलक्षणलक्ष्यलक्षणगुणं कल्याणवाणव्रणं, वंशोद्धारवरं वरं वर वरं सेनासमूहक्षणम् । उद्यानं सदनं घनं घन घनं घानां घनं घं घनं, केलीको! ऽल कलं कचन्दनंवनं सल्लाच्छनं वाञ्छनम्।। ३।। अस्य व्याख्या - हे केलीको ! केलिः = क्रीडा अर्थात् सुकृतस्य तस्याः कुः-स्थानं केलीकुः तत्सम्बुद्धौ हे केलीको ! - हे सुमते ! 'कल्याणवाणव्रणम्' कल्याण:-कल्याणकारी वाण:- शब्दो येषामिति कल्याणवाणा:-तीर्थकृतस्तेषां व्रणः=वचनं तं कल्याणवाणव्रणं तीर्थकृदुदितसिद्धान्तलक्षणं त्वं वर= अङ्गीकुरु । अत एव घनं=प्रभूतं घम् - पापं अल-निवारय । 'घं पापम्' [ एकाक्षरनाममाला ३०] उच्यते सौभरिः । किम्भूतं कल्याणवाणव्रणम् ? 'लक्ष्मीलक्षणलक्ष्यलक्षणगुणम्' 'इलस् शये गतौ ' [ ] ' गत्यर्थानां प्राप्त्यर्थत्वात्' लक्ष्मीं=चारित्रश्रियं इलन्ति = प्राप्नुवन्तीति लक्ष्मीला :- साधवः तेषां क्षण: - उत्सवो यस्मादिति लक्ष्मीलक्षणः, लक्ष्या - दर्शनीया लक्षणगुणा यस्य लक्ष्यलक्षणगुणः लक्ष्मीलक्षणश्चासौ लक्ष्यलक्षणगुणश्चेति कर्मधारये लक्ष्मीलक्षणलक्ष्यलक्षणगुणस्तम्। पुनः किम्विशिष्टम् ? वंशोद्धारवरम् । वंशः = सङ्घो अर्थात् गणधरादीनां तस्मात् य उद्धारस्तेन वरः = प्रधानो वंशोद्धारवरस्तम्। 'वंशः सङ्के [अनेकार्थसंग्रह २/५६७] इत्युक्ते ।' पुनः किम्विशिष्टं=कल्याणवाणव्रणम् ? ‘वरम्’‘वृङ् सम्भक्तौ' [पा.धा. १६०८] व्रियते, = सेव्यते मुनिजनैरिति वरस्तम्। पुनः किमिवशिष्टं कल्याणवाणव्रणम् ? ‘वरम्' उ: रक्षाप्रस्तावाद् भक्तलोकानां ताम् इयर्ति प्राप्नोति यः स वरस्तम् । रक्षार्थवाचकावेतौ व्याख्यातौ लघुदीर्घकौ [ एकाक्षरनाममालिका ११] इति विश्वशम्भूक्तेः । पुनः किम्विशिष्टं For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्तिनाथ-विषमार्थस्तुतिः ६३ कल्याणवाणवणं? सेनासमूहक्षणम्,-विकटकटकपेटकविध्वंसकम्। पुनः किम्विशिष्टं कल्याणवाणवणम्? 'उद्यानम्' उद-ऊर्ध्वं यानं गमनं स्वर्गापवर्गयोर्यस्मात् स उद्यानं तम्। पुनः किं विशिष्टं कल्याणवाणव्रणम् ? 'घानाम्'=पुण्यानां 'घो मन्त्रेऽन्यार्थवाचक: पुण्ये' [एकाक्षरनाममाला २८, २९] इति विश्वशम्भूक्तेः। घनं-निविडं सदनं-गृहम्। पुनः किम्विशिष्टं कल्याणवाणव्रणम् ? 'घनघनम्' घनः=मुद्गरस्तद्वत् घन: कठिनः कठिनार्थत्वात् घनघनस्तम्। 'घन: सान्द्रे दृढे दाढ्य विस्तारे मुद्गरे पुनः' [अनेकार्थसंग्रह २/२६५] इति अनेकार्थवचनात्। पुनः किं विशिष्टं कल्याणवाणव्रणम्? 'घनम्'-दृढं युक्तिभिरमेयं । पुनः किम्विशिष्टं कल्याणवाणवणम् ? 'कलम्' मनोज्ञं श्रवणार्हत्वात्। पुनः किम्विशिष्टं कल्याणवाणव्रणम् ? कचन्दनवनम् कान्येव सुखान्येव चन्दनानि कचन्दनानि तेषां वनमिव वनं यः स कचन्दनवनस्तम्। यथाहि वनेषु चन्दनानामुत्पत्तिर्भवति तथाऽत्रापि सुखोत्पत्तिः । पुनः किम्विशिष्टं कल्याणवाणवणम् ? 'सल्लाञ्छनं' सन्ति शोभनानि लाञ्छनानि वृषगजादीनि जिनानामुक्तानि सन्ति यत्र स सल्लाञ्छनस्तम्। पुनः किं विशिष्टं कल्याणवाणव्रणम् ? वाञ्छनं' वाञ्छ्यते इष्यते ज्ञानादिसाधनत्वेन मुक्त्यर्थिभिः इति वाञ्छनस्तम्।।३।। अथ तुरीये वरीयः श्रीमदाचिरेयसर्वीयशासनाधिष्ठायकगरुडयक्ष-स्तुतिमाह प्रज्ञापूरपराऽगरागरजकं राणारणं वारणं, सर्गोत्सर्गकुमार्गमार्गभरणं भाराभिभूतं भणम्। व्यासायाऽमविकाशकासरसनं नासानसेसानसं, कायाऽऽपाऽऽयविमायमायमसनं मायासमं मोसमम्।। ४।। अस्य व्याख्या-हे प्रज्ञापूरपर! प्रज्ञाया:=बुद्ध्याः पूरो येभ्यस्तानि प्रज्ञापूराणि नानाविधशास्त्राणि तैः परः प्रधानो यः स प्रज्ञापूरपरस्तत्सम्बुद्धौ हे प्रज्ञापूरपर! हे चतुर्विधसङ्घ ! त्वं वारणम्'। वारयति सम्यग्दृष्टीन् क्षुद्रोपद्रवेभ्यः इति वारणस्तं वारणं श्रीशान्तिनाथशासनाधिष्ठायकं गरुडनामानं यक्षं कायन्सुखार्थं आप-प्राप्नुहि भजेत्यर्थः । किम्भूताय काय? 'व्यासाय' विस्तीर्णाय। किम्भूतं वारणम् ? 'अगरागरजकम्', 'अगुवक्रगतौ' [ ] अगयन्ति-कुटिले यान्तीति अगा: मिथ्यात्विनः तान् रागेण प्रस्तावाद् धर्मरागेण रजति जैनधर्मे रागी करोतीति For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः अगरागरजकस्तम्। अयं हि मिथ्यादृष्टीनपि प्रतिबोधदानेन स्वामिधर्मे दृढीकरोतीत्यर्थः। पुनः किम्विशिष्टं वारणम् ? 'राणारणम्' रया समृद्ध्या धर्मरूपया णा:=प्रकटाः राणाः सम्यग्दृष्टि श्रावकाः तैः सह नास्ति रण: कलिर्यस्य स राणारणस्तम्। साधर्मिकत्वात्। पुनः किम्विशिष्टं वारणम् ? 'सर्गोत्सर्गकु मार्ग-मार्गमरणम् सर्ग-दानं वदतीति सगोत्सर्गोत्सर्ग: (सर्गः=उत्सर्गः-) स्वभावो यस्येति सर्गोत्सर्गः, कौ=पृथिव्यां मार्ग:=प्रस्तावाद् मोक्षमार्गस्तं मार्गयति-अन्वेषयतीति कुमार्गमार्गः प्रस्तावाच्चतुर्विधसङ्घः तस्य भरण-पोषणं यस्मिन् स कुमार्गमार्गभरणः, सर्गोत्सर्गश्चासौ कुमार्गमार्गभरणश्च सर्गोत्सर्गकुमार्गमार्गभरणस्तम्। पुनः किम्विशिष्टं वारणम् ? भाराभिभूतम्', भारःगुणानां प्राग्भारस्तम् अभि सामस्त्येन भूतः प्राप्तो भाराभिभूतस्तम्। पुनः किम्विशिष्टं वारणम् ? भणम्', भणति भणस्तं भणं वक्तारमित्यर्थः । पुनः किम्विशिष्टं वारणम् ? 'अमविकाशकासरसनम्' अम् गतौ 'भजने शब्दे' अजन्तणं। अमन्ति= भजन्तीति अमा:=सेवकास्तान् विकाशयति दीपयतीति अमविकाशकः, अ: अर्हन् श्रीशान्तिनाथजिनः । अः स्यादर्हति सिद्धे च [अपवर्गनाममाला द्वि. खं १५३] इत्युक्तेः । तत्र सा=प्रधानाः रसना-जिह्वास्य गुणग्रामग्रहणप्रवणत्वेनेति असरसनः, सं सुखं रसन कार्य प्रधानम् [एकाक्षर नाममाला ९४] इति सौभरि वचनात् । अमविकाशकश्चासौ असरसनश्चेति कर्मधारये अमविकाशकासरसनस्तम्। पुनः किंविशिष्टं वारणम् ? 'नासानसेसानसम्' 'षन सम्भक्तौ' [ ] घञि, सानः, नानाम्=नराणां आ सामस्त्येन सान: भक्तिर्यस्मिन् स नासानः, सा-लक्ष्मी: ई: कान्ति: 'ईल् दीप्तौ' [ ] क्विबन्तः, तयोः सानो दानं यस्य स सेसानः । सः सदानन्दे [एकाक्षरनाममालिका ११२] इति विश्वशम्भूक्तेः। नासानश्चासौ सेसानश्चासौ सश्चेति त्रयाणां कर्मधारये नासानसेसानसस्तम्। पुनः किम्विशिष्टं वारणम् ? 'आयविमायम्' आयेन सम्यक्त्वलाभेन विगता माया अनन्तानुबन्धिनी यस्मात् स आयविमायस्तम्। पुन: किंविशिष्टं वारणम् ? 'आयमसनम्' 'यम विरतौ' यमनं यमः आ समन्तात् यमो येषां ते आयमाः साधवः तान् सनति-सेवते इति १. मुद्रित संस्करणे 'शरणं'। For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्तिनाथ-विषमार्थस्तुतिः आयमसनस्तम् । पुनः किम्विशिष्टं वारणम् ? 'मायासमम्' मा मरणं तस्य आयासः खेदः=तं मनातीति सम्यग्दृष्टित्वात् मायासमस्तम्। 'मा स्त्री माने मृतौ' [नानार्थरत्नमाला एकाक्षरकाण्ड ५४] इति इरुगपदोक्तेः। पुनः किम्विशिष्टं वारणम् ? 'मोसमम्' मा बुद्धिः उ:-रक्षा ताभ्यां समः-साधुरिति मोसमस्तम् । ‘मा स्त्री माने मृतौ वेला मेधा' [नानार्थरत्नमाला एकाक्षरकाण्ड ५४] इति वचनप्रामाण्यात् ।। ४।। इति श्रीशान्तिनाथविषमार्थस्तुतिवृतिः समर्थिता। श्रीवल्लभकृति'रियम्। श्रीवल्लभेन गणिना अस्याः स्तुतेर्वृतिकृता। व्यलेखि वा. सहदेवाय्र्यैः ।। १. खऊरतरगच्छेऽभूम्। For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ ह्रीँ अर्हं नमः ॥ ॥ श्रीजिनमणिसागरसूरिभ्यो नमः ॥ पूज्याचार्यश्रीजिनवल्लभसूरिपादैर्विरचितं प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् श्री श्रीवल्लभोपाध्यायप्रणीतटीकया संवलितम् ॥ र्द०॥ एँ नमः॥ श्री शान्तिस्तनुतात्सुखानि सततं श्रीः शाश्वतीश्चादरात्, नव्यग्रन्थविधानतत्परपरप्रज्ञावतां धीमताम् ॥ सर्वप्राणिगणस्य चाऽद्भुतगुणैः पुंवृन्दमध्याग्रणीर्, मेघानाम घदुःखहारि सुखकृत्सत्पुष्करावर्तवत् ॥ १ ॥ जिनवल्लभसूरीन्द्रो गणे खरतरे प्रभुः । प्रश्नोत्तरषष्टिशतग्रन्थं जग्रन्थ सत्पथः ॥ २ ॥ तस्य टीकां करोत्येष श्रीश्रीवल्लभवाचकः । व्याकरणादिशास्त्राणि दर्श दर्शमनेकशः ॥ ३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् क्रमनखदशकोटीदीप्रदीप्तिप्रतानैदशविधतनुभाजामुज्ज्वलं मोक्षमार्गम्। पृथगिव विदिशन्तं पार्श्वमानम्य सम्यक्, कतिचिदबुधबुद्धयै वच्यहं प्रश्रभेदान्॥ १॥ व्याख्याः- क्रमनखेति। अहं श्रीजिनवल्लभसूरिः कतिचित् का संख्या एषामिति, कति। किमः संख्यापरिमाणे [पा. सू. ५/२/४१] डति चेति डतिप्रत्ययः। तान् कति? अज्ञातान् कतीति कतिचित्-कियतोऽपि। प्रश्नभेदान् प्रश्नप्रकारान् वच्मि कथयामीत्यर्थः, इत्यन्वयः। किमर्थे ? अबुधबुद्धयै, न बुधाः अबुधाः=अनधीतप्रश्नोत्तर ग्रन्थाः, अधीतापरव्याकरणाद्यनेकग्रन्थाः, पण्डितसदृशा इत्यर्थः। अत्र नञः पर्युदासार्थस्य ग्रहणात्। तथा च तल्लक्षणं द्वौ नौ हि समाख्यातौ पर्युदासप्रसज्यतौ। पर्युदासः सदृग्ग्राही प्रसज्यस्तु निषेधकृत्॥ [ ] न ब्राह्मणो अब्राह्मणः= ब्राह्मणसदृशः क्षत्रियादिरित्यर्थः । अब्राह्मणशब्दवत् अबुधशब्दोऽपीत्यर्थः । अबुधानां बुद्धि: अबुधबुद्धिस्तस्यै। तादर्थ्य चतुर्थी वाच्येति वक्तव्यात् तादर्थ्य चतुर्थी अथवा नजो निषेधार्थत्वात्। न बुधाः अबुधाः अपण्डिताः= [पा. वा. १४६] सर्वथाऽनधीतशास्त्राः मूर्खा इत्यर्थः । यद्वा नब ईषदर्थत्वात् न ईषद्बुधाः । अबुधाः ईषत्पण्डिताः अधीताऽनेकशास्त्रा अपि। अल्पबुद्धित्वादसंस्फुरबुद्धयस्तेषां बुद्ध्यै अबुधबुद्ध्यै। अनेन पदेन एतद्ग्रन्थाध्ययनश्रवणादिना मूर्खा: ईषबुद्धयश्च ये ते प्रभूताद्भुतप्रबुद्धबुद्धयो भवन्तीत्येतस्य माहात्म्यमावेदितं। अथवा अनेन पदेन श्रीजिनवल्लभसूरिः स्वगर्वाऽपहारमकरोत् ॥ तादर्थ्य चतुर्थी वाच्येति [पा. वा. १४६] वक्तव्यात् तादर्थ्य चतुर्थी। किं कृत्वा? पार्श्व श्रीपार्श्वनाथं जिनं सम्यक्सत्यं यथास्यात्तथा आनम्य-प्रणम्य। आडो[दौ] भक्तिवशश्रद्धा वातिशयलक्षणप्रकर्षस्य द्योतनात्। सत्यं सम्यक्समीचीनमिति हेमकोषः [अभि. २/१९८] । किंकुर्वन्तं श्रीपार्श्वम्? उज्ज्वलं निर्मलं मोक्षमार्ग पृथगिव भिन्न-भिन्नमिव विदिशन्तं प्रयच्छन्तम्। For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः क्रमनखदशकोटीदीप्रदीप्तिप्रतानैः दशविधतनुभाजाम् उज्ज्वलं ..समासः, मोक्षमार्गं पृथगिव विदिशन्तं । क्रमयोश्चरणयोर्नखाः क्रमनखास्त एव दश, दश इति नाम्नी संख्या, विशेषण.. तेषां । कोट्या=उत्कर्षेण दीप्रा = दीपनशीलाः याः दीप्तयः - तेजांसि, 'झिगझिग इति' लोकभाषाप्रसिद्धाः, तासां प्रताना:- विस्तारास्ते तथा स्यात् कोटिरस्त्रौ चापाग्रे संख्याभेदप्रकर्षयोः [विश्वप्रकाश ट-द्विकम् - २७] इति महेश्वरः । यद्वा दशकोट्य इव दशकोट्यः, अत्युत्कटतेजस्वित्वात् दशकोटितुल्याः । ततो द्वाभ्यां कर्मधारये, अंत एव दीप्रा - दीपनस्वभावाः या दीप्तयस्तासां प्रताना: दशकोटीदीप्रदीप्तिप्रतानाः, क्रमनखानां दशकोटिदीप्रदीप्तिप्रतानाः, क्रमनखदशकोटीदीप्रदीप्तिप्रतानास्तैः करणभूतैः तनव:-पञ्चदशविधाः- प्रकाराः । मुक्तबद्धेति लक्षणभेदद्वयात् यासां ताः दशविधाः, दशविधाः यास्तनव:, औदारिक १ वैक्रिय २ आहारक ३ तेजस् ४ कार्मण ५ लक्षणा: पञ्चदशविधतनवस्ता भजन्तीति दशविधतनुभाजः, भजो ण्विः (पा.सू.३/२/६२) इति ण्विः, सुरासुरनरादयः प्राणिनस्तेषाद्गञ्च । उज्वलं= निर्मलं मोक्षमार्गं पृथगिव = भिन्न-भिन्नमिव विदिशन्तं = प्रयच्छन्तम् । दिश अतिसर्जने (पा. धा. १३६७) तुदादिरुभयपदी दानार्थोऽत्र। यदाहविजयानन्दः - ददते ददाति दिशति च । विश्राणयति प्रयच्छति च । उत्सर्जति राति वितरत्यर्पयति इति स्मृता दाने ॥ १ ॥ इति ६८ औदारिकादिशरीरपञ्चकस्य प्रतीकं मुक्केल्लया बद्धेल्लया इति लक्षणः मुक्किल्लया बद्धिल्लया इत्येके, प्राकृतत्वात् स्वार्थे कश्च वा इति [ हैम. प्राकृतव्याकरण २/१६४] प्राकृतसूत्रेण चकारात् स्वार्थिके सोडिल्लौ प्रत्ययौ भवत इति । डिल्लडुल्लौभवे [ हैम. प्राकृत व्याकरण २ / १६३] डिदिल्लप्रत्यये साधू, ततो मुक्किल्लया इति मुक्तानीत्यर्थः बद्धिल्लया इति बद्धानीत्यर्थः । द्वि द्विभेदग्रहणात् दशभेदास्ते च श्री प्रज्ञापना- श्यअनुयोगद्वारसूत्रवृत्तितोऽवसेया, अत्र तु पाठबाहुल्यात् ग्रन्थबाहुल्याच्च न लिखामः । तथाप्येकस्य भेदं लिखामः । तद्यथा कइणं भंते सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचसरीरगा पण्णत्ता, तंजहा - ओरालिए १ वेउव्विए २ आहारए ३ तेजए ४ कम्मए ५ । [ अनु. सू. ४०५, प्रज्ञापना सृ. ९०१] For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् ६९ कइ विहाणं भंते ओरालियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- मुक्केल्या य १ बद्धेल्लया य २ तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया तेणं असंखेज्जा असंखेजाहि उसप्पिणि-ओस्सपिणीहिं अवहीरंति। कालओ खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। तत्थ णं जे ते मुक्केलया ते अणंता। अणंताहिं उसप्पिणि - ओस्सपिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, अभवसिद्धिएहि अणंतगुणासिद्धाण अणंतभागो। [अनु. सू. ४१३; प्रज्ञापना सूत्र ९१० ] अत्र वृत्तिः। एवं वैक्रियादीनां, चतुर्णामपि शरीराणां मुक्किलया य बद्धिल्लया य इत्येतावेव द्वौ द्वौ भेदौ ज्ञेयौ। एवं पञ्चानां शरीराणां दशप्रकारा अवसेयाः। इतिप्रथमश्लोकार्थः ॥ १॥ कीदृग्वपुस्तनुभृतामथ शिल्पिशिक्यदेहानुदाहरति काध्वनिरत्र कीदृग् ?। काश्चारुचन् समवसृत्यवनौ भवाम्बुमध्यप्रपातिजनतोद्धृतिरज्जुरूपाः?॥ २॥ ॥ जिनदन्तरुचयः॥ [ समस्तजातिः ॥ व्याख्याः- कीदृग्वपुरिति। तनुभृतां प्राणिना=एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियान्तानां वपुः=शरीरं कीदृग् भवतीति क्रियाध्याहारः, इति प्रश्ने उत्तरम्- जिनत् वयोहानिं गच्छत् भवतीति प्राग्वत् ज्या वयोहानो [पा. धा. १५९७] फ्यादिः, लक्षणहेत्वोः क्रियायाः इति शतरि, क्यादिभ्यः श्रा [पा. सू. ३/१/८३] इति श्नाप्रत्यये ग्रहिज्या [पा. सू. ६/१/१६] इत्यादिना यकारस्य इकारसम्प्रसारणे, हल [पा. सू. ३/३/१२१] इति तदन्ताङ्गस्य दीर्घत्वे कृते प्वादीनां ह्रस्वः [पा. सू. ७/३/८०] इति ह्रस्वे स्नाभ्यो तयोरातः [पा. सू. ६/४/११२] इति ना इत्यस्य आकारलोपे जिनत् इति सिद्धम्। अथ शब्दः प्रारम्भार्थोऽत्राऽव्ययं, ततोऽयमर्थः। प्रथमप्रश्नसमाप्तौ द्वितीयप्रश्नारम्भमथ शब्दो ज्ञापयतीति। एवं सर्वत्र अथ शब्दार्थोऽवधार्यः। अत्र इति अस्मिन्क्रियमाणलक्षणे प्रश्ने प्रश्नोत्तरग्रन्थे वा काध्वनिः का इति दीर्घाकारो निर्विभक्तिकः। का एव ध्वनिः काध्वनिः, काशब्दः । For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः कीदृग् सन् ? शिल्पिशिक्यदेहान्, शिल्पी च प्रकृतिः, 'कारू' इति लोकभाषाप्रसिद्धः, शिक्यं च 'छीका' इति लोकभाषाप्रसिद्धम्, देहश्च = शरीरमिति समाहारद्वन्द्वे शिल्पिशिक्यदेहास्तान् उदाहरति कथयति इति प्रश्ने उत्तरम् - अन्तरुचयः, रुश्च चश्च यश्च इति रुचयाः । अन्ते= अवसाने रुचया यस्य सः अन्तरुचयः । ततो यथाक्रमं कारु-काच- काय इति पृथक्-पृथक् निर्विभक्तिकाः त्रयः शब्दाः भवन्ति, ते चाऽनुक्रमेण शिल्पिशिक्यदेहान् कथयन्तीत्यर्थः । ७० = ननु काध्वनय इति बहुवचने वक्तव्ये कथं काध्वनिंरित्येकवचनं भिन्नान्नां प्रश्नोत्तरशब्दानां त्रित्वात् ? ब्रूमः - एकस्य द्वितीयस्वरोपेतस्य का इत्यक्षर जात्यऽपेक्षया प्राधान्येन च एकत्वात् एकत्वमेव युक्तं, न त्रित्वम्, कार्यबहुत्वेऽपि कारणस्य ऐक्यात् । यथा- पितुः पुत्राः त्रिचतुरादयः इति वत् काध्वनिरित्यत्राप्येकत्वमेव । तथा कारु काच काय इत्यअर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् [ पा. सू. १/२/४५] इति प्रातिपदिकत्वं अर्थमात्रैकत्वंविवक्षाया अभावात् प्रथमैकवचनसुबभावश्च एकवचनत्वं, तु, काध्वनिरित्यत्र प्रथमैकवचनस्य सिद्धत्वात् । रुकारान्तत्व- चकारान्ततत्व रयकारान्तव इति विशेषणत्वात् सिद्धमेव। ततः क्रमेण पृथक्-पृथक् प्रथमैकवचनान्तशब्दानां विधानात् । कारुः शिल्पिनं, काचः शिक्यं, काय: - देहमुदाहरतीति क्रियमाणपदं त्रिष्वपि योज्यम्। एवमन्यत्राऽप्यग्रे ज्ञेयम् । कारुस्तु कारी प्रकृतिः शिल्पी इति हैमकोषः । [ अभिधा. ३/५६३] शिक्यं काचः इत्यमरः [ अमर. २/१० / ३०] समवसृत्यवनौ=समवसरणभूमौ का: अरुचन्- आदीप्यन्त ? कथंभूताः का: ? भवाम्बुमध्यप्रपातिजनतोद्धृतिरज्जुरूपाः, भवः चतुर्गतिरूपः संसारः स एव अम्बुमध्यं - जलमध्यं तस्मिन् प्रपातिनी - पतनशीला या जनता=जनसमूहस्तस्या उद्धृतिः - उद्धारो नीचैर्बुडनादुच्चैरानयनमित्यर्थस्तस्यां रज्जूनां= रश्मीनां, 'रांढ्र' इत्यादि लोकभाषाप्रसिद्धानां रूपम् आकारो यासां तांस्तथा इति प्रश्ने उत्तरं - जिनदन्तरुचयः - तीर्थङ्करदन्तदीप्तयः, अथवा प्रश्नोत्तरग्रन्थानां सर्वदर्शन- साधारणत्वात् अर्थान्तरमेतत् । समन्तात् अव=निश्चयेन सृति=सरणं क्रीडया इतस्ततो गमनं यस्मिन् स समवसृतिः । अर्थात् नारायणस्य रासमहोत्सवः तस्याऽवनिः तस्यां समवसृत्यवना रासमहोत्सवभुवि का अरुचन् ? शेषं सर्वं पूर्ववत् । इति प्रश्ने उत्तरं - जिनदन्तरुचयः = नारायणदन्तदीप्तय For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् इत्यर्थः। जिनोऽर्हद्बुद्धविष्णुषु इति हैमानेकार्थः [अनेकार्थ. २/२६९] । एकव्यस्तसमस्तजातिः ॥ २॥ सश्रीकं यः कुरुते स कीदृगित्याह जलचरविशेषः?। अप्सु ब्रुडन् किमिच्छति? कीदृक्कामी? च किं वाञ्छेत् ?॥३॥ ॥ समुद्रतरणम्॥ एकव्यस्तसमस्तजातिः॥ व्याख्याः- जलचरविशेष इत्याह। जलचरा: जलजन्तवो मत्स्यादयस्तेषां विशेषो भेदः जलचरविशेषः, इति कथयति। इतीति किं? यः सश्रीकं कुरुते, स कीदृक् ? सह श्रिया लक्ष्म्या वर्तते इति सश्रीक: नवृतश्च [पा. सू. ५/४/१५३] इति समासान्तः कप्प्रत्ययस्तं विधत्ते। स कीदृशः? इति प्रश्ने उत्तरं– समुद्र! हे उद्र ! हे जलचरविशेष! जलमार्जार ! मम्=सह मया लक्ष्म्या वर्तते इति समस्तं करोतीति तत्करोति तदाचष्टे [पा. वा. ४२६] इति णिचि क्विपि सम् लक्ष्मीसहितकर्ता, उद्रस्तुजलमार्जार [वैजयन्ती कोश ४/१/५४] इति। अप्सु पानीयेषु ब्रुडन्-निमज्जन् किमिच्छति। वाञ्छति इति प्रश्ने उत्तरं- तरणं-मज्जनं ब्रुडनमित्यर्थःल्लङ्घनं-प्लवनम्, तृ प्लवनतरणयोः प्लवनं मज्जनं तरणं [पा. धा. १०३८] उल्लङ्घनम् इति धातुपारायणम् [हैम. धा. ]। नन्वत्र ब्रुडनं द्विधा। जलक्रीडादिचातुर्यात् सरोवापिकादि मार्गनदनद्यादिजलोल्लङ्घनवशात्। ब्रुडनम् अभीप्सितं स्वाभाविकम् ॥ १॥ रोषाधुपाधिवशात् सरोवापिकादिषु जलमध्ये पतनात् ब्रुडनम् औपाधिकम् ॥ २॥ तत्र यत्स्वाभाविकं ब्रुडनं तत्र अप्सु ब्रुडन् किमिच्छतीति प्रश्ने उत्तरंतरणम् उल्लङ्घनम् इत्यर्थः । यच्च औपाधिकं ब्रुडनम् तत्र अप्सु ब्रुडन् किमिच्छति? इति प्रश्ने, उत्तरं-तरणं प्लवनं मज्जनमित्यर्थः । एवं ब्रुडन् इत्यस्यार्थो द्विविधा विबुधैर्विधेय इति। चः पुनरर्थे । कीदृक् कामी कामुकः किं वाञ्छेत् ? इति प्रश्ने उत्तरं– समुद्रतरणं सह मुदा-प्रीत्या वर्तते यः सः समुत् प्रीतिमान्, रते=मैथुने रणं युद्धं, रतं मैथुनमेव । रणं युद्धं रतरणं । यद्वा, रते सुरतस्य वा, यो रणशब्दो रतरणं तम्। अर्थात् .... सम्भोग .... क्लेश.... आर्या। द्वाभ्याम् ॥ एकव्यस्तसमस्तजातिः ॥ ३॥ For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः कीदृक् पुष्पमलिव्रजो न भजते ? वर्षासु केषां गतिर्न स्यादध्वनि? कं श्रितश्च कुरुते कोकं सशोकं रविः?। लङ्केशस्य किल स्वसारमकरोद्रामानुजः कीदृशीं ?, केषां वा न मनो मुदे मृगदृशः शृङ्गारलीलास्पृशः?॥ ४॥ ॥ अपरागमनसाम्॥ [द्विळस्तसमस्तजातिः ॥ व्याख्याः- कीदृक् पुष्पमिति। अलिव्रजः भ्रमरनिकरः, कीदृक् पुष्पं कीदृशं फुल्लं न भजते न सेवते? इति प्रश्ने, उत्तरम्- अपरागं न विद्यते पराग:=पुष्परजो यस्मिन् तदपरागं, पुष्परजो रहितमित्यर्थः । परागः पुष्परजसि इति श्रीधरः [विश्वलोचन कोष-ग-तृतीय-४६] । वर्षासु वर्षाकाले अध्वनि मार्गे केषां गतिः गमनं न स्यात् ? इति प्रश्ने उत्तरम्- अनसां शकटानाम्। __ रविः सूर्यः कं श्रितः आश्रितः सन् कोकं चक्रवाकं सशोकं चक्रवाकीवियोगसहितं कुरुते? इति प्रश्ने, उत्तरम्- अपरागम् अपरस्यां पश्चिमायां दिशि यो अग=:पर्वतः सः अपरागस्तं, अस्ताचलमित्यर्थः । किल इति वार्तायां, रामानुजः बलभद्रः लङ्केशस्य रावणस्य स्वसारं भगिनी कीदृशीम् अकरोत् ? इति प्रश्ने, उत्तरम्- अनसां नास्ति नसा=नासिकाऽस्याः अनसा ताम् अनसां कृन्न नक्रामित्यर्थः । अत्र नसा शब्दः आबन्तः । मृगदृशः स्त्रियः केषां वा अव्ययमत्र निश्चये, मनो मुदे मनो हर्षा च न! कथं भूताः मृगदृशः? शृङ्गारलीलास्पृशः शृङ्गारश्च लीला च स्थानवैशिष्ट्यं शृङ्गारलीले ते स्पृशन्ति भजन्ते इति यावत् शृङ्गारलीलास्पृशः। यद्वा शृङ्गारेण लीलां=शृङ्गारप्रभावप्रभवां कायिकी क्रियां प्रियस्यानुकृतिरूपां स्पृशन्तीति शृङ्गारलीलास्पृशः । प्रियस्याऽनुकृतिर्लीलः श्लिष्टावाग्वेषचेष्टिते इति भरतः [ ]। यद्वा, शृङ्गार एव लीला-क्रीडा शृङ्गारलीला, शृङ्गारसहिता लीला क्रीडा शृङ्गारलीला, सर्वदा शृङ्गारोपेतत्वात् । शाकपार्थिवादिवत् [पा. वा. १७८] मध्यपदलोपिसमासः। इति वा, तां स्पृशन्तीति शृङ्गारलीलास्पृशः । लीलाकेलिर्विलासश्च शृङ्गारभावजक्रिया इति हैमानेकार्थः [अनेका. २/५२०] केलि: क्रीडा विलासः स्थानादिनां For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् ७३ वैशिष्ट्यमिति तट्टीका इति प्रश्ने, उत्तरम् - अपरागमनसां अपगतौ रागौ विषयाभिलाषात्त्विकोऽनुरागो वा यस्मात् तत् अपरागम्, एवंविधं मनो येषां ते अपरागमनसस्तेषां । रागोऽनुरक्तौ मात्सर्ये क्लेशादौ लोहितादिषु इति महेश्वरः [विश्वप्रकाश ग-द्विकम् - ९] क्लेशा = अविद्यादयः, यदाह - अविद्या स्मृतः रागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशाः । आदिशब्दाद् विषयाभिलाषादि ॥ द्विर्व्यस्तसमस्तजातिः ॥ ४॥ प्रभविष्णुविष्णुजिष्णुनि युद्धे कर्णस्य कीदृगभिसन्धि: ? । नकुलकुलसङ्कुलभुवि प्रायः स्यात्कीदृगहिनिवहः ? ॥ ५ ॥ ॥ विलसदनरतः ॥ [ द्विः समस्तजाति: ] व्याख्या:- प्रभविष्णु इति । युद्धे सङ्ग्रामविषये कर्णस्य कर्णनाम्नो राज्ञः कीदृक् अभिसन्धिः ? प्रतिज्ञासु अभिमुखः = अभिमुखः सन्धिरेकत्वं मिथो=मेल इत्यर्थः अभिसन्धिः, कुगति प्रादयः [पा. सू. २२१८] इति समासः । युद्धार्थं मिथो मेल:, सन्धिविग्रह- राज्यानां विग्रहो यानमासनं द्वैधमाश्रयः षड्गुणा: [ ] इति वचनात् । राज्यषड्गुणमध्ये सन्धिः प्रथमो गुणः । कथं भूते युद्धे ? प्रभविष्णुविष्णुजिष्णुनि विष्णुश्च =नारायणः जिष्णुश्च अर्जुन: द्वाभ्यामितरेतरयोगद्वन्द्वे विष्णुजिष्णू, प्रभविष्णू= ईश्वरभवनशीलौ विष्णुजिष्णू यस्मिंस्तत् तस्मिन् प्रभविष्णुजिष्णुनि । ऐश्वर्यार्थोऽत्र प्रोपसर्गः, तद्योगे भूधातुः ईश्वरार्थः - यथा प्रभुर्देशस्य तथा प्रभविष्णुरपि, इति प्रश्ने, उत्तरं - विलसदनरतः । अत्र च नारायणः नरश्च = अर्जुनः द्वाभ्यामितरेतरयोगद्वन्द्वे अनरौ । नरोऽजे मानवेऽर्जुने इति विश्वः [विश्वप्रकाश र-द्विकम् - ५] विलसन्तौ इव - ओजस्वि - तेजस्वि - वर्चस्वित्वादिगुणैः क्रीडन्तौ इव, संग्रामादिकेषु कर्मसु श्लिष्यन्तो वा समादधतौ तत्परीभवन्तौ रतौ इति यावत्, अनयौ अनरौ तौ विलसदनरौ तौ कर्मतापन्नौ तस्यतिम् = उपक्षयं नयति यः सः विलसदनरतः । तसु उपक्षये [पा. धा. १२८९] दिवादिः परस्मैपदी क्विप् डप्रत्यो वा, लस श्लेषणक्रीडनयोः [पा. धा. ७५९] परस्मैपदी अचि लसः, कर्मसु श्लिष्टः समाहित इति यावत् इति = For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः धातुपारायणं [ ] इति वत्। शतृप्रत्यये विलसच्छब्दोऽपि तत्परीभवदित्यस्य पर्यायः, न लसो अलसः अतत्परः। प्रायो बाहुल्येन नकुलकुलसंकुलभुवि नकुलानां कुलं सजातीयसमूहः कुलानि बिलरूपाणि गृहाणि वा तेन तैर्वा संकुला व्याप्ता या भूः=भूमिः तस्यां नकुलकुलसंकुलभुवि। अहिसमूहः सर्पसंघातः कीदृग्? इति प्रश्ने, उत्तरंबिलसदनरतः बिलानि छिद्राण्येव सदनानि=गृहाणि तेषु रतः=आसक्तो यः स तथा मन्दिरं-सदनं स ति। द्विःसमस्तजातिः॥ ५॥ . ब्रूतो ब्रह्मस्मरौ के रणशिरसि जिताः? केन जेत्राह विद्वानुद्यानं स्यान्न कीदृग् ? जलधिजलमहो! कीदृशं स्यान्न गम्यम् ?। को मां वक्त्याह कृष्णः? क्व सति पटुवचः ? स्यादुतः केन वृद्धिस्त्याज्यं कीदृक् तडागं ? नतिमति लघु का किं करोत्युत्कटं किम् ?॥६॥ ॥ वीराज्ञाविनुदतिपापम्॥ शृङ्खलाजातिः॥ व्याख्या:- ब्रूतो ब्रह्मेति। ब्रह्मस्मरौ विधातृकन्दो ब्रूतः कथयत:केन जेत्रा जयनस्वभावेन न्यूनीकरणभावेन रणशिरसि रणे सङ्ग्रामे शिर:तेनाग्रभागः रणशिरः तस्मिन्, के जिताः पराभूताः शिरो मूर्धन्प्रधानयोः सेनाऽग्रभागे इति । इति प्रश्ने, उत्तरं- हे वी! वीरा राज्ञा उश्च ब्रह्मा इश्चकाम इति इतरेतरयोगद्वन्द्वे इकोयणचि [पा. सू. ६/१/७७] इति यणि वी, तयोः सम्बोधने, हे वी! ब्रह्मकन्दौ वीराः सुभटाः राज्ञा= भूपेन? उकारस्तु भवेद् ब्रह्मा [ ] । वी इत्यत्र पञ्चमस्वरं षष्ठस्वरो वा एकाक्षरकोषेषु ब्रह्मणो नाम्नोऽदर्शनादपि एकमूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्म विष्णुमहेश्वरा इति [ ] पुराणवचनात् । त्रयाणामैक्यात्। उः समुद्रे ( सम्बुद्धौ ) रोषोक्तौ शिववाचीत्व नव्ययम् इति [विश्व. अनेकार्थअव्यय-४] महेश्वरवचनात् महादेवपर्याय उशब्दो। ब्रह्मपर्यायो निश्चेष्टः जिताः जेत्रा इत्युभयं जि अभिभवे [पा. धा. १०१२] अभिभवो न्यूनीकरणं भ्वादिः परस्मैपदी सकर्मकः इत्यस्मात् क्तप्रत्यय शीलार्थे तृन् प्रत्ययाभ्यां सिद्धं ज्ञेयम् । यदाह देवःजयिर्जयाभिभवयोराद्येऽर्थे ऽसावकर्मकः उत्कर्षप्राप्ति राद्योऽर्थो, द्वितीयेऽर्थे सकर्मकः इति। [ ] For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् विद्वान् पण्डितः आह ब्रवीति-उद्यानं पुष्पादिमवृक्षसंकुलम् उत्सवादौ बहुजनभोग्यं राज्ञा लोकैः सह साधारणं वनं कीदृक् न स्यात् ? इति प्रश्ने, उत्तरं- ज्ञाऽवि हे ज्ञ!-पण्डितः ! अविः न विद्यन्ते वयः पक्षिणो यत्र तत् अविः पक्षिभी रहितं न भवति, सपक्षि भवतीत्यर्थः । य ... पुंपक्षिणश्च पक्षिण्यः पुमा- या इति पुंसि वयः न विद्यन्ते वयः पक्षिणः पक्षिण्यश्च तस्मिंस्तत् अविः पक्षि-पक्षिणीरहितं भवति। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि। [पा. धा. १११९] अदादिरुभयपदी। ब्रुवः पञ्चानामादितः आहो ब्रुवः [पा. सू. ३/४/८४] इति लटि तिपो णलादेशे ब्रू इत्यस्य आहादेशे च आहेति रूपम्। उद्यानं स्वयमपरैः समं च लोकैः इति हलायुधः [ ] ज्ञः पण्डिते बुधे वेधसि इति श्रीधरः [विश्वलोचन-बैकम्-१] यद्वा, केन जेत्रा उत्कर्षप्रापणस्वभावेन सह, सह विनापि तद्योगेन इति वचनात् [ ]। सह प्रयोगाभावेऽपि सहयोगे। तृतीया व्याख्यानात् । रणशिरसि-सङ्ग्रामसेनाग्रभागे के जिताः उत्कर्ष प्राप्ताः? इति प्रश्ने, उत्तरं- हे वी! वीराः राज्ञा, हे वी! ब्रह्मस्मरौ वीराः सुभटाः राज्ञा-भूपेन सह सङ्ग्रामे हि स्वामिना सह सुभटा उत्कर्षं प्राप्नुवन्ति, नाऽन्ये कातरादय इति। अत्र जि जये [पा. धा. ६००] अकर्मकः । जयः उत्कर्षप्राप्तिः, अस्मात् क्ते तृनि च प्रत्यये जितजेतृशब्दौ सिद्धौ। जेत्रा-राज्ञा अत्रोभयत्र विनापि तद्योगेनेति वचनात्। [ ] सह प्रयोगाभावेऽपि तृतीया॥ २ ॥ अथवा केन जेत्रा न्यूनीकरणस्वाभेन कर्ता कर्तृकरणयोस्तृतीया [पा. सू. २/३/१८] इति कर्तरि तृतीया। रणशब्दः, अर्थात् संस्कृतशब्दोद्धाररूपः। शिर:=प्रधानं यस्मिन् सः रणशिरः । यद्वा, रणः शब्दः संस्कृतशब्दोच्चाररूप एव, शिर:=सेनाग्र भागो रणशिरः। अर्थात् वादिप्रतिवादिनोर्वादः तस्मिन् रणशिरसि वादविषये के जिता:= न्यूनीकृताः? इति प्रश्ने, उत्तरं- वी वीरा:- राज्ञा, हे वी! ब्रह्मस्मरौ विरुद्धा इरा-वाक् येषां ते वीराः, प्रतिवादिन इत्यर्थः । राज्ञा राजा इव राजा प्रतिवादिद्विषज्जेतृत्वात् वादी तेन राज्ञावादिना ॥ ३ ॥ अथवा, केन जेत्रा उत्कर्षप्रापणस्वभावेन सह रणशिरसि प्राग वदर्थविधानात् वादे के जिता उत्कर्ष प्राप्ताः? इति प्रश्ने, उत्तरं- हे वी? For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः वीरा:- राज्ञा विशिष्टा इरा-वाक् येषां ते वीराः। वाग्मिनः-वादिनः । राजा इव राजा=गुरुस्तेन सह इत्यर्थः ॥ ४॥ विद्वान् पण्डितः आह कथयति-उद्यानं कीदृक् न स्यात्? पुष्पादिमवृक्षसंकुलम् उत्सवादौ बहुजनभोग्यं राज्ञा लोकैः सह साधारणं वनम् उद्यानं कीदृशं न भवेत् ? इति प्रश्ने, उत्तरं- ज्ञाऽवि हे ज्ञ!- पण्डित! अवि=न विद्यन्ते वयः पक्षिणो यत्र तत् अविः पक्षिभी रहितं न भवेत्, सपक्षिभवेदित्यर्थः। ननु एवं सति विशब्दस्य पुँल्लिङ्गत्वात् पक्षिग्रहणे पक्षिणीनामग्रहणात् पक्षिभिः सहितं पक्षिणीभी रहितमेव उद्यानं स्यादित्ययमर्थः । स चोद्यानयुक्तो यत्र पक्षिणस्तत्र पक्षिण्योऽपि भवन्त्येव, पक्षिसद्भावे पक्षिणीनां निषेधो भवति, नैवम्, एकशेषाद् भविष्यति, एकशेषे तत्रायमर्थः-वयश्च पुंपक्षिणः, व्यश्चस्त्रिपक्षिण्यः, पुमान् स्त्रिया [पा. सू. १/२/६७] इति पुंशेषे वयः । न विद्यन्ते वयः-पक्षिणः पक्षिण्यश्च यस्मिंस्तत्। अवि-पक्षिपक्षिणीरहितं न स्यादित्ययमों युक्तः। स्त्रियां वि इति सुभूतिचन्द्रः। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि [पा. धा. ११२८] ब्रुवः पञ्चानाभादितः आहो ब्रुवः [पा. सू. ३/४/८४] इति लटि तिपो णलादेशे ब्रूइत्यस्य आहादेशे च आहेति रूपम् । उद्यानं स्वयमपरैः समं च लोकैः इति हलायुधः [ ]। यद्वा, विद्वान् ज्ञाता आह- उद्यानं कीदृक् न स्यात् ? उद्यानंनिस्सरणं, तच्च पुत्रादेः सेवकादेश्च स्वकुलादेः स्वस्वाम्यादेश्च रोषाधुद्भवम्? इति प्रश्ने, उत्तरं- ज्ञावि, हे ज्ञ!=ज्ञातः अवि रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशश्रवणस्वाम्यर्थयाचनक्रियेच्छादीप्त्यवाप्त्यालिङ्गनहिंसादानभागवृद्धिषु। [पा. धा. ६३९] एकोनविंशतावर्थेषु भ्वादि परस्मैपदी। अवतीत्येवं शीलं ताच्छीलिके [पा. सू. ३/२/१२९] इति णिनि, अवि-रक्षकं शोभकं प्रीतिकरं वा स्यात्। विद्वानात्मविदि-प्राज्ञे पण्डिते चाभिधेयवत् इति महेश्वरः [विश्वप्रकाश स-त्रिकम्-२५] । ज्ञः पण्डिते बुधे वेधसि इति श्रीधरः [विश्वलोचन जान्त वर्ग-१] उद्यानं क्लीबमाक्रीडे निःसृतौ च प्रयोजने इति श्रीधरः [विश्वलोचन-न-तृतीय ४४] । For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् यद्वा, उद्यानं प्रयोजनं वृत्तिसाध्यं फलम् इत्यर्थः, कीदृग् न स्यात् ? इति प्रश्ने, उत्तरं - हे ज्ञ! आवि अवति हिनस्तीत्येवं शीलं आविः । हिंसकं=मारकं इत्यर्थः, न स्यात् । अहो, इत्यव्ययं प्रश्ने आश्चर्ये वा । जलधिजलं समुद्रपानीयं कीदृशं गम्यम् गमनयोग्यं उल्लङ्घनयोग्यमित्यर्थः न स्यात् ? इति प्रश्ने, उत्तरं - विनु विगता नावौ - बेडा यस्मात्तत् विनु, बेडारहितम् । ७७ कृष्णः श्रीनारायणः आह- कथयति, मां को वक्ति स्तोष्यतीत्यर्थः स्तवनस्यापि मौनादोष्ठयोरस्फुरणत्वाद्वा वचनपूर्वकत्वात् ? इति प्रश्ने उत्तरं - नुद हे अ! कृष्ण ! नुत् णु स्तुतौ [ पा. धा. १११०] अदादिः परस्मैपदी, नौति=स्तौतीति, क्विपि तुकि च नुत्, स्तोता = सेवकः यस्त्वां स्तौति स त्वां समीहितं देहीत्यादि विज्ञप्तिं कथयतीत्यर्थः । क्व सति पटुवचः स्यात् कस्मिन् विद्यमाने पटु-प्रकटं वक्तीत्यचि पटुवचः=प्रकटकथकः स्यात् ? इति प्रश्ने, उत्तरं - दति दन्ते विद्यमाने दतीत्यत्र जातावेकवचनम्, जात्याख्यायामेकस्मिन् बहुवचनमन्यतरस्यामिति । पद्दन्नोमा. [पा. सू. ६/१/६३] इति सूत्रेण दन्तस्य वैकल्पिकददादेशे दतीति । उतः=उकारस्य केन इति प्रत्ययेन वृद्धिः स्यात् ? इति प्रश्ने उत्तरं - तिपा लटि तिप्प्रत्ययेन उतो वृद्धिर्लुकि हलि [पा. सू. ७ / ३ / ८९ ] इति अदादौ गणसूत्रेण अदादौ गणे उकारान्तधातूनां नौति स्तौति यौति इत्यादिवत् । तडागं सरोवरं कीदृक् त्याज्यम् ? इति प्रश्ने, उत्तरं - पापम् अपगताः आपः पानीयानि यस्मात्तत् पापम् । वष्टिभागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः [पा. अव्ययप्रकरणवृत्त्याम् ] इति । अत्र अवाप्योरिति षष्ठी द्विवचनमुपलक्षणं, तेन अन्यस्याप्युपसर्गे चाद्यव्यय स्वरस्य लोपं षष्ठीत्यर्थं । तथा च बुद्धिसागरव्याकरणं चादेरंश: [ १ / २ / ५३ सूत्र की व्याख्या ] चादेरेव अंशः स्वरलक्षणो हलि परे इत् लोपः स्यात् । तु वै त्वै नुवै 5बी पत्रांके खण्डितकोणके निम्नलिखितपाठोऽस्ति तत्पाठस्तु खण्डितत्वात् टिप्पण्यां प्रदर्शितः.दि............. वक्तव्यात् । व्यन्तरोपसर्गे भ... प ईटिति ईकारा भ .... वे । अप्रययश्च ननु अपारपमितिसिद्धौ रापमित्यत्र अकारलोपः कथं ? अवाप्योरेव उपसर्गयोः वष्टिभागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोरित्यनेन भागुरि . न....... I For Personal & Private Use Only · Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः ७८ न्वै अतीतं तीतं अपिधानं पिधानमित्यादि स्युरन्येप्याह इति गणत्वादिति । एवम् अपीत्यस्य यथा अकारलोपस् तथा अप इत्यस्यापि अकारलोपात् पापमिति सिद्धम्। का कर्तृ लघु शीघ्रं नतिमति प्रणामवति किम् उत्कटम् उद्धरं किं करोति ? इति प्रश्ने, उत्तरं वीराज्ञाविनुदतिपापम् महावीरतीर्थङ्करस्य आज्ञा विनुदति - प्रेरयति पापमिति प्रकटोऽर्थः । शृङ्खलाजातिः ॥ ६ ॥ ची रा ज्ञा वि - दृष्ट्वा राहुमुखग्रस्यमानमिन्दुं किमाह तद्दयिता ? | असुमेति पदं कीदृक् कामं लक्ष्मीं च बोधयति ? ॥ ७ ॥ है। ति पा प ॥ अवतमसम् ॥ व्याख्या: दृष्ट्वेति । इन्दुं चन्द्रमसं दृष्ट्वा विलोक्य तद्दयिता तस्य इन्दोर्दयिता=पत्नी तद्दयिता रोहिणी किमाह किं कथयति ? कथं भूतम् इन्दुं ? राहुमुखग्रस्यमानं राहोर्मुखं राहुमुखं तेन ग्रस्यमानः = भुज्यमान यः स तथा तं, ग्रसु ग्लसु अदने [पा. धा. ६७०, ६७१] भ्वादिरात्मनेपदी, इति प्रश्ने, उत्तरम्— अवतमसम् अवत- रक्षत मसम् = चन्द्रम् अस् प्रत्ययान्तोऽयम् । यदाह श्रीधरः - माः सुधा दीधितौ मासे [ विश्वलोचन सद्वितीय-८ ] इति । मसौ मसः एवं रूपाणि चन्द्रमस् शब्दवत्। ------ असुमेति पदं कीदृक् ? असुमेति चतुरक्षरात्मकं असुमेति पदं निर्विभक्तिं कं यत्पदं शब्दः पदं शब्दे च वाक्ये चेति मसं । कीदृक् ? कामं कन्दर्पम्, चः अनुक्तसमुच्चये, लक्ष्मीं नारायणस्त्रियं बोधयति सम्बोधयति इत्यर्थः। इति प्रश्ने, उत्तरम् - अवतमसम् असुमेति एषां चतुर्णां भिन्नस्वर-व्यञ्जनानां विपर्ययात् मकारस्थैकादस्वरस्य तकारस्य तृतीयस्वरस्य च पृथक्करणं भवति । तत् समासश्चायं उश्च अश्च तश्च मश्च सश्च वतमसाः उकाराकारतकारमकारसकाराः । न विद्यन्ते वतमसा यत्र For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् असुमेति पदं तत् अवतमसं । तकार - मकार - सकार - अकार उच्चारणार्थः, ततः सिद्धम् । ए इ इति शब्दद्वयं सिद्धम् । तस्यायमर्थः - इ:= कामस्तत्सम्बोधनं हे ए ! = काम, इकार उच्यते कामः इत्येकाक्षरकोषः [महाक्षपणक-३८]। अस्य - विष्णोरपत्यं इः, अत इञ् [ पा. सू. ४/१/ ९५] इति इञ्, ह्रस्वस्य गुण: [ पा. सू. ७ / ३ / १०८] इति गुणे, एह्रस्वात्संबुद्धेः [पा. सू. ६/१/६७ ] इति सम्बुद्धिलोपे च ए इति रूपम् । हे इ! लक्ष्मि ! अस्य नारायणस्य स्त्री ई, पुंयोगादाख्यायाम् [पा. सू. ४/ १/४८] इति ङीष्, अम्बार्थनद्योर्हस्वः [पा. सू. ७/३/१०७] इति संबुद्धौ ह्रस्वे हे इ! नारायणस्त्रि ! इति रूपं हे नारायणस्त्रि इत्यर्थः । आर्या ॥ ७ ॥ कमभिसरति लक्ष्मीः ? किं सरागैरजय्यं ?, सकलमलविमुक्तं कीदृशं ज्ञानमुक्तम् ? | सततरतविमर्दे निर्दये बद्धबुद्धिः, किमभिलषति कान्ता ? किं च चक्रे हनूमान् ? ॥ ८ ॥ व्याख्या: ॥ अक्षरणम्॥ वर्द्धमानाक्षर - चलद्विन्दुजातिः ॥ कमभिसरतीति । लक्ष्मी: नारायणस्त्री कमभिसरति सम्मुखं याति ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - अं नारायणं । अः कृष्ण इत्यमरः [अमरचन्द्र एकाक्षरनाममालिका - २] सरागैः सह रागेण=अनुरागेण विषयाभिलाषादिना वा वर्तते ये ते सरागास्तैः । किम् अजय्यं ! जेतुमशक्यम् इति प्रश्ने, उत्तरम् - अक्षम् इन्द्रियं जात्यपेक्षया एकवचनम् अक्षं स्याद्रिन्द्रिये क्लीबं इति श्रीधर : [ विश्वलोचन स द्वितीय - २] ७९ कीदृशं ज्ञानं ? सकलमलविमुक्तं समस्तदोषरहितम् उक्तम् कथितम् ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - अक्षरं न क्षरति न चलति कटकुड्यादिना यत्तत् अक्षरं केवलज्ञानं, अक्षरं न द्वयोर्मोके ब्रह्मणि व्योमवर्णयोः इति [विश्वलोचन- २ - तृतीय - ११०] श्रीधरः । कान्ता स्त्री किमभिलषति वाञ्छति ? कथं भूता कान्ता ? सततरतविमर्द्दे बद्धबुद्धिः । मृद क्षोदे [पा. धा. १६१६] क्रयादिः घञि, मर्दः, विशिष्टो मर्दः विमर्दः, रते सम्भोगे, रतेन सम्भोगेन वा, यो विमर्दो For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः गर्भजजीवानां ध्वंसरूपः क्षोदः स रतविमर्दः, सततं निरन्तरं रतविमर्दः सततरतविमर्दस्तस्मिन् बद्धा=निगडिता बुद्धिर्यया सा बद्धबुद्धिः । कथं भूते सततरतविमर्दे ? निर्दये दयारहिते इति प्रश्ने, उत्तरम्- अक्षरणं वीर्यस्य अपतनं प्रभूतकालं यावत्त् सम्भोगासेवनरूपामतिः । हनूमान् किं चक्रे किम् अकरोत् ? इति प्रश्ने, उत्तरम्- अक्षरणं अक्षः रावणसुतस्तेन सह यो रणः सङ्ग्रामस्तम् अक्षरणम्। अक्षो रथस्यावयवे व्यवहारे विभीतके। प्रासके शकटे कर्षे ज्ञाने चात्मनि रावणौ इति है मानेकार्थः [अनेकार्थ २/५६९] । रणशब्दः पुंक्लीबलिङ्गः। वर्द्धमानाक्षरचलबिन्दुजातिः ॥ ८॥ भूरापृच्छति किल चक्र-वाकमेषोऽपि भूमिमप्राक्षीत्। पीतांशुकं किमकरोत् ? कुत्र? क्व नु मादृशां वासः?॥ ९॥ ॥ कोकनदे॥ व्याख्या:- भूरापृच्छतीति। किल इति वार्तायां, भूः पृथिवी चक्रवाकम् आपृच्छति आदिशति-समन्तात् ज्ञातुमिच्छति। प्रच्छ जीप्सायां [पा. धा. १५०६] इत्यस्य द्विकर्मकत्वात्, चक्रवाकान् किञ्चिदन्यत् पीतांशुकं पीतं पिशङ्गं यदंशुकं वस्त्रं तत्पीतांशुकं कुत्र कस्मिन् किमकरोत् ? इति प्रश्ने, उत्तरं- कोऽकनदे हे को! हे भूमे ! अकनत्=अशोभन्त। ए-नारायणे, गोत्रा कुः पृथिवी पृथ्वी इत्यमरः [अमर. २/१/३] कनि दीप्तिकान्तिगतिषु [पा. धा. ४९२] भ्वादि परस्मैपदी। अः कृष्णः इत्यमरः [अमरचन्द्र. एकाक्षरनाममालिका-२] ज्ञातुमिच्छतीत्यर्थः आङ् उपसर्गोऽनमर्यादार्थः । ननु आङि नुप्रच्छः [पा. वार्तिक ४५५] इति वार्तिकात् आङ् पूर्वः प्रच्छेरालिङ्गादिना कुशलादिपृच्छार्थत्व आत्मनेपदित्वं च। यत्कालिदासो मेघदूतकाव्ये-आपृच्छस्व प्रियसखमऽमुं तुङ्गमालिङ्ग्य शैलं [पूर्व मेघ१३] तथा च- हैमकोष:-आनन्दनं त्वाप्रच्छनं स्यात् सभाजनमित्यपि [अभिधा. ३/३९५] इत्यपीति। तत्कथं नाऽत्रालिङ्ग्य-कुशलादिपृच्छार्थः आत्मनेपदित्वं च? ब्रूमः-यत्र आड्यूर्वः पृच्छिरालिङ्गनादिना कुशलादिपृच्छार्थः आलिङ्गनादिना, आनन्दनार्थः तत्रैवाऽयमात्मनेपदी, न सर्वत्र। अतोऽत्र For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् आलिङ्गनादिना कुशलादिपृच्छार्थ इति विशेषार्थस्य अभावात् । सामान्यमूलार्थस्यैव द्योतकत्वात् परस्मैपदित्वं न दुष्टमिति । अपिरव्ययमत्र समुच्चये । एषः चक्रवाको भूमिं धरित्रीम् अप्राक्षीत्=अपृच्छत् । नु इति प्रश्ने, मादृशां क्व वासो निवासः इति चक्रवाकस्य प्रश्ने, उत्तरं - कोकनदे हे कोक ! = हे चक्रवाक ! नदे = ह्रदे| आर्या ॥ ९ ॥ हरिरतिरमा यूयं कान् किं कुरुध्वमदोऽक्षरं ?, किमपि वदति भेजे गीतश्रियाऽपि च कीदृशा ? । जिनमतजुषां का स्यादस्मिन् कियच्चिरमङ्गिनां ?, गतशुभधियां का स्यात् कुत्राभियोगविधायिनाम् ? ॥ १० ॥ ॥ यानताम स, समतानया, विभुता सदा, दासता भुवि ॥ मन्थानजातिः ॥ व्याख्या: हरिरतीति । अदः अक्षरं प्रत्यक्षगतः कश्चन वर्ण इत्यर्थः । यद्वा, अदसः अदस्शब्दस्य अक्षरं वर्णो अदोऽक्षरं सकारलक्षणम्। अयं वर्ण: किमपि वदति कथयति — हे हरिरतिरमाः हरिश्च= नारायणः, रतिश्च = कन्दर्पस्त्री, रमा च= लक्ष्मीरिति समाहारद्वन्द्वे हरिरतिरमाः, तत्सम्बोधने हे हरिरतिरमाः ! यूयं कान् प्रति किं कुरुध्वं ? इति अमुना अक्षरेण अदः शब्दसम्बन्धिना अक्षरेण वा कृते प्रश्ने, उत्तरं - यान ताम स। अस्यार्थ :- हे स! सकार, अथवा हे अदशब्दस्य सकारः यान्, ई च ईश्च वा लक्ष्मी:, इश्च= कन्दर्पः, अश्च = कृष्णः । अकः सवर्णे दीर्घः [पा. सू. ६/१/१०१] इति दीर्घे, इको यणचि [पा. सू. ६/१/७७] इति यणि च, याः तान्, यान् लक्ष्मीकन्दर्पनारायणान् अताम सातत्येन गच्छाम । अत सातत्यगमने [पा. धा. ३८] भ्वादि: परस्मैपदी आशिषि लिङ्लोटौ [पा. सू. ३/३/१९३] इति मध्यमपुरुषस्य एकवचनम्। [सकारे अकार उच्चारणार्थः] अपीति सम्भावनायाम् । कीदृशा कीदृशया गीतश्रिया गीतस्य = गानस्य संगीतशास्त्रोक्तपदस्तु श्रीः = शोभा गीतश्रीः तया भेजे अशोभ्यत, भावोक्तौ रूपम्, इति प्रश्ने, उत्तरं - समतानया समाः सदृशा:- साधवः, समस्ता वा ताना, For Personal & Private Use Only ... - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः कालक्रियायामानस्य विस्तारो यस्यां सारामतानां तया। षड्जग्रामाश्रिताः अग्निष्टोमादय एकविंशतिर्यस्यां सा समताना तया। ता च भेदाः संगीतशास्त्रतो ज्ञेयाः। ते चामी-अग्निष्टोमो १, ऽत्यग्निष्टोमो २, वाजपेयो ३, ऽथ येयसी ४, पुण्डरीको ५, ऽश्वमेधश्च ६, राजसूयश्च ७ सप्तमः॥ कृबहुः ८, स्वर्णगौरश्वः ९, गोशतश्च १०, महाद्रत: ११॥ विश्वजिद् १२, ब्रह्मयज्ञश्च १३, प्राजापत्य १४, स्तथैव च। सूर्यक्रान्त १५, रजक्रान्तौ १६, इत्यादीनि। ___ जिनस्य मतं सन्मतं जिनमतम्। मतं पूजितं सन्मते (मू. सं. सन्धिते) इति महेश्वरः [विश्वप्रकाश त-द्विकम्-४] जुषी प्रीतिसेवनयोः [पा. धा. १३७२] तुदादिरात्मनेपदी, जिनमतं जुषन्ते सेवन्ते, क्विपि, जिनमतजुषस्तेषां जिनमतजुषाम्, अङ्गिनां प्राणिनां अस्मिन् मनुष्यलोके कियच्चिरं कियद्दीर्घकालं का स्याद् भवेद् ? चिरशब्दोऽत्र अकारान्तःक्लीबलिङ्गः। यदाह-चिरन्तनं [ ] इत्यत्र वामनः चिरशब्दस्यापि मकारान्तत्वं निपात्यते इति। तथा च श्री रामचन्द्राचार्योऽपि-चिरन्तनं प्राङ्केतनं प्रगेतनम् अनव्ययानामेषां मान्तत्वमेदन्तत्वं च निपात्यते इति। तथा च वार्तिकसूत्रमपि चिरपरुत्यरारिभ्यस्नो [पा. वार्तिक २५६] वक्तव्यः, अव्ययादाप सुप् [पा. सू. २/४/८२] इति। कालाध्वनो. [पा. सू. २/३/ ५] इति द्वितीया। चिरमिति मान्तमव्ययमपि, तदापि द्वितीयैव, अव्ययत्वाद् विभक्तेर्लुक्। कियद् इत्यत्र च अव्ययविशेषणस्य क्लीबत्वात् क्लीबत्वम्, इति प्रश्ने, उत्तरं- विभुता सदा विभुता=नायकत्वं, यद्वा विभुः=व्यापिका सर्वजनपरमोपकरणात्सर्वलोक-व्यापिका इत्यर्थः । नित्या वा, या ता-लक्ष्मी: सा, विभूता-सर्वजगत्व्यापिनी अविनाशिनीत्वात् नित्या वा सम्पदित्यर्थः । वोतो गुणवचना. [पा. सू. ४/१/४४] इति वैकल्पिके ङीष्-सद्भावे पुंवत्कर्मधारयजातीयदेशीयेषु [पा. सू. ६/३/४२] इति पुंवद्भावे, डीषोऽसद्भावे वा विभूतेति रूपसिद्धिः। सदा सर्वस्मिन्काले विभु प्रभौ व्यापके शङ्करे नित्ये। इति हैमानेकार्थः [अनेकार्थ २/३१५-१६] । लक्ष्मी: पद्मा रमा, या मा ता सा श्री: कमल . इति अभिधानचिन्तामणिः [अभिधा. २/१४०] गतशुभधियां शुभकारिणी शुभधी:=बुद्धिः शाकपार्थिवादिवत् [पा. वार्तिक. १७८] मध्यपदलोपी समास: गता शुभधीर्येभ्यस्ते गतशुभधियः For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् ८३ तेषां गतशुभधियां, कुत्र कस्यां विषये का स्याद् = भवेत् ? कथं भूतानां शुभधियाम् ? अभियोगविधायिनाम् अभियोगम् उद्यमं विदधते इत्येवं शीलाः, अभियोगविधायिनस्तेषाम् आजीविका- ये स्वामिकार्येषु उत्साहकारिणामित्यर्थः । उत्साहः प्रगल्भता। अभियोगोद्यमौ प्रौढिः [अभिधा. २/ २१३-१४] इत्यभिधानचिन्तामणिः। इति प्रश्ने, उत्तरं - दासता भुवि दासत्वं भूमौ इत्यर्थः । यद्वा, गम्लृ गतौ [ पा. धा. १०५१] गत्यर्था ज्ञानार्था इति न्यायात्, गमनं गतं ज्ञानम् अर्थात् मोक्षविषयं मोक्षफलं चेत्यर्थः । नपुंसके भावे क्तः [पा. सू. ३/३/११४] इति क्तः । यदमरः - मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः [अमर. २ / ५ / ६ ] । गतेन ज्ञानेन शुभधी:- शुभकारिणी धीर्बुद्धिर्येषां ते शुभधियः तेषां गतशुभधियां परमज्ञानवतामित्यर्थः । कुत्र का स्यात् ? कथं भूतानां गतशुभधियाम् अभियोगविधायिनाम् अभियोगः-उद्यमः स चार्थतो मोक्षाय सदाचारविधाने तं विदधते इत्येवंशीलाः अभियोगविधायिनः= सदाचाराचरणपरायणाः इत्यर्थस्तेषाम् इति प्रश्ने, उत्तरं - दासता भुवि दासस्य पात्रस्य भावो दासता = दानयोग्यता इत्यर्थ भुवि = धरित्र्यां, दासः शूद्रे दानपात्रे भृत्यधीवरयोरपि इति महेश्वरः [विश्वप्रकाश स द्विकम् - ३] हरिणीच्छन्द:, तथा च तल्लक्षणं रसयुगहयैर्नसौ म्रौ स्लौ गो यदा हरिणी तदा । [वृत्तरत्नाकर ३ / ९०] मन्थानजातिः ॥ १० ॥ या न वि भु ता स दा म स प्रतिवादिद्विरदभिदे गुरुणेह किमक्रियन्त के कस्य ? | उरशब्दः कल्याणदबलहिमशृङ्गान् वदति कीदृक् ? ॥ ११ ॥ || आदिश्यन्तरवविशिखानुः ॥ For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः व्याख्या:- प्रतिवादीति। इह विवादसमये विवादविषये वा गुरुणा धर्मोपदेशकेन प्रतिवादिद्विरदभिदे प्रतिकूला: वादिनः प्रतिवादिनः त एव द्विरदा-हस्तिनस्तेषां भिद्-भेदस्तस्यै प्रतिवादिद्विरदभिदे। कस्य के किम् अक्रियन्त व्यधीयन्त ? भिदिर विदारणे [पा. धा. १५३२] रुधादिः, भावे क्विप्। इति प्रश्ने, उत्तरम्- आदिश्यन्तरवविशिखानुः, आदिश्यन्त अकथ्यन्त रवाः शब्दा एव विशिखा: =बाणाः रवविशिखाः, नु: = पुरुषस्य प्रतिवादिद्विरदभेदनाय पुरुषस्य शब्दबाणा: आदिष्टा इत्यर्थः।। उरशब्दः कीदृक् ? कल्याणदबलहिमशृङ्गान् वदति कथयति? इति प्रश्ने, उत्तरम्- आदिश्यन्तरवविशिखानुः आदौ=धुरि शि:= तृतीयस्वरोपधस् तालव्यशकारो यस्मिन् स: आदिशिः । वश्च विश्च शिश्च रवश्च वविशिखाः चतुर्भिरक्षरैर्द्वन्द्वे, अन्तरे विचाले वविशिखाः यस्मिन् स अन्तरवविशिखः । न विद्यते उ:-उकारो यस्मिन् सः अनुः, भावे अत्र नम्। उर इत्यक्षरद्वयस्य आदौ तृतीयस्वरतालव्यशकार-चतुष्टयकरणे विचाले आद्यस्वरदन्तौष्ठ्य १ तृतीयस्वरदन्तौष्ठ्य २ तृतीयस्वरतालव्यशकार ३ प्रथमस्वरकवर्गद्वितीय ४ क्षरकरणे उकाराभावे च। ततः आदिशिश्चासौ अन्तरवविशिखश्चासौ अनुश्चेति त्रिभिः कर्मधारये, आदिश्यन्तरवविशिखानुः । तत: शिवर १ शिविर २ शिशिर ३ शिखर४ इति शब्दचतुष्टयसिद्धिः तदर्थश्चायम्। १. शिवं कल्याणं राति-ददाति यः सः शिवरः, आतोऽनुपसर्गे कः [पा. सू. ३/२/३] इति कः, कल्याणं मङ्गलं ददातीति कल्याणदम्। २. शिविरं-सैन्यावासः क्लीबलिङ्गः, यदमर:- निवेशः शिविरं षण्ढे [अमरकोष २/८/३३] इति, सैन्यसैन्यावासयोरभेदविवक्षायां शिविरं, बलं सैन्यम् इत्यर्थः, वदति। ३. शिशिरः पुंक्लीबलिङ्गः, हिम-तुषारं वदति, शिशिरस्तु ऋतौ पुंसि तुषारे शीतलेऽन्यवत्, इति श्रीधरः [विश्वलोचनकोश र-तृतीय २३०] । ४. शिखर: पुंक्लीबलिङ्गः, शृङ्ग-पर्वताग्रं वदति, यदमर:-कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गम् [अमर. २/३/४] इति लिङ्गभेदात् विसर्गानुस्वारौ। नानुस्वारविसर्गों For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् ८५ तु चित्रभङ्गाय सम्मतौ [ वाग्भटालङ्कार १ /२० ] इति वचनात् न दोषपोषाय । उरेत्ययमत्र अक्षरद्वयात्मको अनुकरण - शब्दोऽकारान्तो निरर्थको, न व्यञ्जनदन्त्यान्तो हृदयपर्यायः ॥ आर्या ॥ ११ ॥ हरति क इह कीदृक् कामिनीनां मनांसि ?, व्यरचि सचिवभावः केन धूमध्वजस्य ? | क्षयमुपगमिता रुक् कीदृशेनाऽऽतुरेण ?, प्रसरति च विबाधा कीदृशीहार्शसानाम् ? ॥ १२ ॥ ॥ ना युवा, वायुना, जायुपा, पायुजा ॥ मन्थानजातिः ॥ व्याख्याः हरतीति । इह लोके कः कीदृक् कामिनीनां स्त्रीणां मनांसि चेतांसि हरति ? इति प्रश्ने, उत्तरं - ना युवा = ना पुरुषः युवा - तरुण: । केन धूमध्वजस्य अग्नेः सचिवस्य = सहायस्य भावः सत्ता सचिवभावः साहाय्यं व्यरचि अकारि ? सचिवः सहाये मन्त्रिणि स्मृतः इति महेश्वरः [विश्व. व- त्रिकम् - २९] इति प्रश्ने, उत्तरं - वायुना वातेन । - कीदृशेन आतुरेण रोगिणा रुक् रोगाः क्षयं विनाशम् उपगमिता प्रापिता ? इति प्रश्ने, उत्तरं - जायुपा जायुमौषधं पिबति, आतो मनिन्क्वनि. [पा. सू. ३/२/७४] क्वनिपश्च इति चकाराद् विचिप्रत्यये जायुपा तेन जापा औषधग्राहिणा इत्यर्थः। आतो धातोः [पा. सू. ६/४/१४०] इत्याकारलोपे टा रूपं जायुपेति । भेषजौषधभेषज्यान्यगदौ जायुरित्यपीति [ अमर. २/६/ ५०] । रुक् इत्यत्र गमेर्ण्यन्तत्वात् गतिबुद्धि. [ पा. सू. १/४/५२] इति सूत्रेण कर्मोक्तौ प्रथमा । इह संसारे अर्शसानां अर्शोरोगिणां कीदृशी विबाधा व्युपसर्गस्य भृशार्थत्वात् अत्यन्तपीडा प्रसरति वर्धते ? प्रोपसर्गपूर्वस्य सरतेर्वृद्ध्यर्थत्वात् । यदवादीत् विजयानन्दः - वृद्ध्यर्थे कथिता वृद्धैर्वर्धते तद्वदेधते। ऋध्नोति ऋध्यतींद्धे च स्फायते चोपचीयते । पचीयते प्रसूक्षते विसरति प्रसरत्यतिरिच्यते इति [ ] इति प्रश्ने, उत्तरं - पायुजा पायौ - अपाने जाता पायुजा, सप्तम्यां जनेर्डः [पा. सू. ३/२/९७] इति डः । अर्शोरोगयुतोऽर्शसः [अमर. २ / ६ / ५९ ] गुदं त्वपानं पायुर्ना [अमर. २/६/७३ ] इत्युभयं अमरः । मन्थानजातिः ॥ १२ ॥ For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ श्री श्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः यु वा वाजिबलीवर्दविनाश-सुष्ठ निष्ठ रमुरद्विषो यमिह । प्रशं विदधुर्वपुष-स्तस्मिन्नेवोत्तरमवापुः॥ १३॥ ॥ हेतुरङ्गमोक्षान्तसुखराजिनयेकः॥ व्याख्या:- वाजीति। इह कविगोष्ठी समये वाजि-बलीवर्दविनाश-सुष्ठ-निष्ठर-मुरद्विषः शब्दाः कर्तारः वपुषः यं प्रश्नं विदधुः तस्मिन्नेव प्रश्ने उत्तरमवापुः इत्यन्वयः। वाजी=अश्वः बलीवर्दो वृषभः 'बलद' इति भाषाप्रसिद्धः, विनाश:=प्रणाशः, सुष्ठ इति प्रशंसा) निर्भरार्थं चाव्ययं, निष्ठर:=कठोरः, मुरद्विट्-नारायणः, वाज्यादयः=षट्शब्दाः एषां षण्णां द्वन्द्वे वाजिबलीवर्दविनाशसुष्ठनिष्ठरमुरद्विषः शब्दाः, वपुषः शरीरवाचिवपुष्ब्दस्य यं प्रश्नं पृच्छां विदधुश्चक्रुस्तस्मिन्नेव प्रश्ने, उत्तरं– प्रतिवचः अवापु:=प्रापुरित्यन्वयार्थः। वाज्यादीनामयं प्रश्नः, उत्तरं - हेतुरङ्गमोक्षान्तसुखराजिनयेकः, अस्यार्थः ! हे अङ्ग! शरीर मोक्ष: अपवर्गः अन्तं = पर्यन्तं यस्य तत् मोक्षान्तं, एवंविधं यत्सुखं तस्य राजि:=पङ्क्तिरविच्छिन्नत्वात् तस्यानय:=प्रापणं तस्मिन् मोक्षान्त सुखराजिनये। कः हेतुः कारणम्? इति वाज्यादिभिः प्रश्ने कृते वाज्यादीन् सम्बोध्य तैरेव प्रश्नाक्षरैः शरीरशब्द उत्तरं करोति। हेतुरङ्गमो १ऽक्षां २ ऽन्त ३ सु ४ खरा ५ ऽजिनये कः। अस्यार्थः? तुरङ्गमः अश्वः १ उक्षा=बलीवर्दः २ अन्तं विनाशः, सु-इति पूजार्थं ३, भृशार्थं चाव्ययम् ४, खर:=कठोरः ५, अ:=नारायणः ६ एषां षण्णां द्वन्द्वे सम्बोधने च हे तुरङ्गमोक्षांतसुखराः जिनः अर्हन एकः। द्वयादिसंख्यारहितः, असहायः- श्रेष्ठो वा एकस्तु स्यात् त्रिषु श्रेष्ठे केवलेतरयोरपि इति श्रीधरः [विश्वलोचन-क-द्वितीय-६] संख्यायामपि। यत्कात्यः- प्रधानाऽन्याऽसहायेषु संख्यायामेक इष्यते इति For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् ८७ [ ] । सुष्ठ प्रशंसनेऽत्यर्थे इति श्रीधरः [विश्वलोचन. अव्यय-दान्त.१६] । सु पूजायां भृशार्थाऽनुमति। कृछ्रसमृद्धिषु इति महेश्वरः [विश्वप्रकाशअनेकार्थ-अव्यय-६५] किमुत स्वऽत्यऽतीव च निर्भरे इत्यमरः [ ]। जिनः एकः इत्यत्र भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि [पा. सू. ८/३/१७] इति यादेशे जिनयेकः इति सन्धिः सिद्धिः । आर्या ॥ १३ ॥ क्रव्यादां केन तुष्टिर्जगदनभिमता का ? रिपुः कीदृगुग्रः ?, कं नेच्छन्तीह लोकाः? प्रणिगदति गिरिर्वृश्चिकानां विषं व?। कुत्र क्रीडन्ति मत्स्याः? प्रवदति मुरजित्कापिले भोगभाक्कः?, कीदृक्का कीदृशेन प्रणयभृदपि चाऽऽलिङ्ग्यते न प्रियेण?॥ १४॥ ॥ अस्नातास्त्रीमङ्गलेप्सुना ॥ अष्टदलकमलम्॥ व्याख्याः- क्रव्यादामिति। क्रव्यादां राक्षसानां केन तुष्टिः= संतोष:? राक्षस: कोणपः क्रव्याद् इत्यमरः [अमर. १/१/५९] इति प्रश्ने, उत्तरम्- अस्ना-रुधिरेण, केन अस्ना इत्युभयत्र विनापि तद्योगेन तृतीयेति सहयोगं विनापि तृतीया। असृजशब्दस्य पद्दन्नोमास्हृनिशसन्. [पा. सू. ६/ १/६३] इति असन्नादेशे अल्लोपे च तृतीयैकवचनमस्नेति । जगदनभिमता का? न अभिमता इष्टा अनभिमता विरोधार्थोऽत्र नञ्, जगत: लोकस्य अनभिमता जगदनभिमता का? इति प्रश्ने, उत्तरम्अता विरुद्धाऽतो लक्ष्मी: अता, विरोधेऽत्र नञ्, अलक्ष्मी: 'अलाछि' इत्यादि लोकभाषा। रिपुः कीदृग्? उग्र-उत्कट: भयङ्करः इति यावत् इति प्रश्ने, उत्तरम्अस्त्री, अस्त्रं-धनुः खड्गाद्यायुधो वा अस्त्यस्य अस्त्री धनुष्मान्, खड्गाद्यायुधसहितो वा। अत इनिठनौ [पा. सू. ५/२/११५] इति इनिः। अस्त्र प्रहरणे चापे इति श्रीधरः? [हैमानेकार्थ. २/४०६] । इह संसारे लोकाः किं नेच्छन्ति न वाञ्छन्ति? इति प्रश्ने, उत्तरंअमं रोगम्। गिरिः पर्वतः प्रणिगदति कथयति वृश्चिकानां विषं व कुत्र? इति प्रश्ने, उत्तरम्- हे अग! हे पर्वत !, अले-वृश्चिकपुच्छे, अलं तत्पुच्छकण्टकः [अभिधा. ४/२७७] इत्यभिधानचिन्तामणिः । For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्रीश्रीवल्लभीय- लघुकृति-समुच्चयः मत्स्याः कुत्र क्रीडन्ति? इति प्रश्ने, उत्तरम्- अप्सु पानीयेषु । मुरजित्=नारायणः प्रवदति-कथयति कापिले सांख्यमते भोगभाक् भोगान् राज्य-सुख-धन-पालन-भोजन-वेश्या-भृतीर्भजन्तीति भोगभाक् कः? भजो ण्विः [३/२/६२] इति ण्विः। इति प्रश्ने, उत्तरम्- अना, हे अ! नारायणः, पुरुषः, आत्मेत्यर्थः । वा- सांख्यमते हि प्रकृतिः कर्ता, आत्मानभोक्ता। यदवादीत्– अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः- सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने। (षड्दर्शन समुच्चय का-४१ गुणरत्नटीकायाम्) इति। कीदृशेन प्रियेण वल्लभेन कीदृक् का न आलिङ्ग्यते? कथं भूता का? अपीति सम्भावनायां अव्ययम्। प्रणयभृत् प्रणय-प्रेमयाञ्चां विश्वासं वा बिभर्तीति क्विपि प्रणयभृत्, स्नेहवती सुरताभिलाषात्-सुरतयाचिका विश्वासवती वेत्यर्थः । स्वकीया परकीया वा नायिका, प्रणयः प्रेम्णि विस्त्रम्भे याच्ञाप्रसरयोरपि इति महेश्वरः [विश्वप्रकाश य-त्रिकम्-६५] इति प्रश्ने, उत्तरम्- अस्नातास्त्रीमङ्गलेप्सुना अस्नाता-अकृतस्नाना स्त्री स्वकीया परकीया वा नारी, स्त्रीशब्दस्य स्वकीयायाः परकीयायाश्च नायिकायाः सामान्येन नामत्वात्। मङ्गलेप्सुना=मङ्गलम् इप्सुर्मङ्गलेप्सुः न लोकाव्यय. [पा. सू. २/ ३/६९] इति षष्ठीनिषेधात् द्वितीयासमासः, तेन मङ्गलेप्सुना कल्याणं विवाञ्छिषुणा इत्यर्थः। अष्टदलकमलम्॥ १४ ॥ (प्सु अ । स्त्री) में कीदृशो नाव इष्यन्ते तरीतुं वारि वारिधेः ?। अशिवध्वनिराख्याति तिर्यग्भेदं च कीदृशः?॥ १५॥ ॥ अपराजयः॥ For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् ___ व्याख्याः- कीदृशो नाव इति। नावो बेडा कीदृशः कीदृक्षाः इष्यन्ते वाञ्छ्यन्ते? अत्र कीदृक् शब्दः त्यदादिषु दृशः. [पा. सू. ३/२/ ६०] इति क्विन्नन्त्वात् स्त्रीलिङ्गेऽपि व्यञ्जनान्तः । किं कर्तुं ? वारिधेः समुद्रस्य उपलक्षणात् नद्यादीनामपि वारि जलं तरीतुम् उल्लवितुं, तरीतुं इत्यत्र तुमुन् ण्वुलौ क्रियायाम् [पा. सू. ३/३/१०] इति तुमुन्। इति प्रश्ने, उत्तरम्अपराजयः राजि:=रेखा, राजिः स्यात् पङ्क्तिरेफयोः इति महेश्वरः [विश्वप्रकाश ज-द्विकम्-९] । 'लीहटी' इत्यादि भाषा। तदाकारत्वात् 'तेड' इति लोकप्रसिद्धभाषापि राजिरित्युच्यते। अपगता राजयो रेखा 'तेड' इति लोकभाषाप्रसिद्धा, याभ्यस्ताः अपराजयः । चः अनुक्तसमुच्चये। अशिवध्वनिः अशिव इति अक्षरत्रयात्मक: शब्दः कीदृशः तिर्यग्भेदमाख्याति कथयति इति प्रश्ने, उत्तरम्= अपराजयः अकरोत् । अशिव इति अक्षरत्रयस्य प्रथमस्वराक्षरात्, पर:-अग्रिमो यः अच् इकाररूप: तालव्यशकाराक्रान्तः तृतीयः स्वरः तस्य अयः गमनं नाशः इति यावत् यस्मात् सः अपराजयः। अशिव- शब्दः तालव्यशकार-तृतीयस्वरवर्जितो अश्व इति शब्दः सिध्यति, स च तिर्यग्भेदं घोटकनामानं आख्यातीत्यर्थः । ननु स्वराणां व्यञ्जनेभ्यः परत्वात् तालव्यशकारात् तृतीयस्वरस्य परत्वात्, अकारात् परस्य तालव्यशकारस्य परत्वं युज्यते, न इकारस्य, तत् कथम् अकारात् परः इकार इति चेत् ? उच्यते- इकारं विना अपराऽकारादिस्वराणां अग्रे अध उपरि च अवस्थानम् । इकारस्य तु व्यञ्जनानां पश्चादेवावस्थानम्। यतः द्वादशाक्षर्यां पच्छिम किम् इत्यादि पठनं लेखनं न्यासेऽपि व्यञ्जनानां पश्चादेवाऽस्य लेखनम्, अत: अकारात् पर इकार इत्ययमर्थो युक्तः ॥ १५॥ पीनकुचकुम्भलुभ्यन् किमाह भगिनीं स्मरातुरः कौल:?। हरनिकरपथस्वःसृष्टि वाचि ननर्गपदं कीदृक् ?॥ १६॥ ॥ भव मा स्वसा, दिशस्तनम्॥ व्याख्या:- पीनकुचेति। कौल: नास्तिक: भगिनी किमाह किं कथयति? कथं भूतः कौलः? पीनकुचकुम्भलुभ्यन् पीनौ-मांसलौ यौ For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० श्री श्रीवल्लभीय-लघुकृति - समुच्चयः कुचौ स्तनौ तावेव कुम्भौ वर्तुलोच्चत्वात् कलशौ पीनकुचकुम्भौ तौ लुभ्यन् गार्ध्यं कुर्वन् पीनकुचकुम्भलुभ्यन् । पीनपीनी तु स्थूलपीवरे इत्यमरः [अमर. ३/१/६१] । न लोकाव्यनिष्ठाखलर्थतृणा [पा. सू. २ / ३ / ६९] इति षष्ठीनिषेधात् तृतीया तत्पुरुषः । लुभ गायें [पा. धा. १३१८] गार्ध्य=आकाङ्क्षा, दैवादिकः अस्मात् लटः शतृशानचौ [पा. सू. ३/२/ १२४] अप्रथमा समानाधिकरणे इति शतृ प्रत्ययः । पुनः कथं भूतः कौल : ? अत-एव स्मरातुरः स्मरः कन्दर्पस्तेन आतुरो = व्याधित इव यः स स्मरातुरः, इति प्रश्ने उत्तरं - भव मा स्वसा दिशस्तनम् स्वसा - भगिनी मा - भव = मा स्तात् स्तनं दिशः- देहि मा इत्ययमत्र निषेधार्थे अव्ययम् । न माङ् स्तनमित्यजात्याख्यायात्रम् [पा. सू. १ / २ / ५३] इति जातावेकवचनम्। = चः पुनः ननर्गपदं चतुर्थवर्गपञ्चमद्वयव्यञ्जनरेफकवर्गतृतीयमयो निरर्थको ननर्गशब्दः । कीदृक् ? सत् हरनिकरपथस्वः सृष्टि वाचि ? ईश्वरसमूहमार्गदेवलोकसृष्टिवाचकं भवेदिति क्रियाध्याहारः । इति प्रश्ने, उत्तरं - भव मा स्वसा दिशस्तनम्, भश्च वश्च मा च स्वश्च सश्च भवमास्वसाः । भवमास्वसा एतानि अक्षराणि आदौ = धुरि यस्य तत् भवमास्वसादि । शस्तौ हिंसितौ लुप्तौ इति यावत् नौ नकारौ यस्मिंस्तत् शस्तनं-लुप्तनकारद्वयमित्यर्थः । ततो द्वाभ्यां कर्मधारये भवमास्वसादिशस्तनम् । ननर्ग इति वर्णत्रयात्मकशब्दस्य नकारद्वयलोपे आदौ भवमास्वसानां करणे च भर्ग वर्ग मार्ग स्वर्ग सर्ग इत्येते पञ्च शब्दा भवन्ति ते च हरादीनां पञ्चानां वाचका भवन्तीत्यर्थः । शसु हिंसायां [पा. धा. ७७२ ] भ्वादि उदितो वा [ पा. सू. ७/२/५६ ] इति वैकल्पिके डो अभावे शस्त इति सिद्धिः ॥ आर्या ॥ १६॥ नाभ्यम्भोजभुवः स्मरस्य च रुचो विस्तारयेति श्रियः, पत्युः प्रत्युपदेशनं कथमथो पत्नीष्यते कीदृशी ? । इत्याख्यत् कमला तथा कलियुगे कीदृक्कुराज्यस्थिति: ? कीदृश्याऽहनि चण्डभास्करकरे नक्षत्रराज्याऽजनि ? ॥ १७ ॥ ॥ विभावितानया ॥ गतागतद्विर्गत जातिः ॥ For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् व्याख्या:- नाभ्यम्भोजेति । लक्ष्मीनारायणयोः परस्परं प्रश्नोत्तरगोष्ठ्यां नारायणो लक्ष्मीमुपदिशति - हे लक्ष्मीति सम्बोधनपदमध्याहार्यम् । नाभ्यम्भोजभुवः ब्रह्मणः, च समुच्चये, स्मरस्य कन्दर्पस्य रुचः कान्तीर्महत्त्वरूपाः विस्तारय प्रथय । इति अव्ययमत्र विवक्षानियमे । ततोऽयमर्थः- रुचा- विस्तारय, एतल्लक्षणे नारायणस्य प्रश्नविवक्षानियमे श्रियः पत्युः नारायणस्य, अथवा पार्थक्येन व्याख्यानात् श्रियोलक्ष्म्याः पत्युः - स्वामिभर्तुरर्थात् नारायणस्य प्रत्युपदेशनं प्रतीपमुपदेशनं प्रत्युपदेशनं प्रतिकूलकथनं केन प्रकारेण स्यात् ? इति क्रियाध्याहारः । नारायणेन एवं प्रश्ने कृते लक्ष्मीः प्रतीपमुत्तरं वक्ति - विभावितानया । अस्यार्थः- हे अ! नारायण ! - विभाः उश्च ब्रह्मा, इश्च, कन्दर्पः इतीतरेतरयोगद्वन्द्वे इको यणचि [पा. सू. ६/१/७७] इति यणि, वी व्योः- ब्रह्मकामयोर्भा=कान्तयोर्विभाः, ता:- कर्मभूताः वितानय = प्रपञ्चय इत्यर्थ: स्युः प्रभारुग्ग्रुचिस्त्विङ्भाभाश्छविद्युतिदीप्तय: [ अमर. १/४ / ३४] इति स्वरूपे सान्निध्ये विवक्षानियमे मते इति अव्ययकाण्डः [ अनेकार्थ परिशिष्ट काण्ड२८] - -- -- कमला लक्ष्मीरित्याख्यत् इतीति अव्ययमत्र एवमर्थे, एवं कथयामास । इतीति किं ? अथो इत्योकारान्तः प्रश्नार्थोऽव्ययम् । अथाऽथो च शुभे प्रश्ने इति श्रीधर : [ विश्वलोचन अव्ययवर्ण अकारान्त- ३३ ] । पत्नी परिणीतास्त्री कीदृशी इष्यते वाञ्छ्यते इति कमलया कृते प्रश्ने नारायण उत्तरं कथयति - यानताविभावि । अस्यार्थः- वा-पत्नी नता= नम्रा विभौ स्वामिविषये हे इ ! - लक्ष्मि ! अस्य स्त्री ! पुंयोगादाख्यायाम् [पा. सू. ४/१/४८ ] इति डीषि, अम्बार्थनद्योर्हस्वः [पा. सू. ७/३/१०७] इति सम्बुद्धौ ह्रस्वः । ९१ कलियुगे राज्ये स्थितिः राज्ञः कर्ममर्यादा, राज्यं पत्यन्तपुरोहितादिभ्यो यक् [पा. सू. ५/१/१०८] इति यकः तस्य स्थितिः=मर्यादाः राज्यस्थितिः । कीदृशी ? मर्यादा धारणा स्थितिः इत्यमरः [ अमर. २/८/२६] इति प्रश्ने उत्तरं - विभावितानया विभावितः, उत्पादितः साक्षात्कृतो । विशेषणलब्धो For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः वा अनयः = अन्यायो यया सा विभाविताऽनया। विभावितमाश्च स्तोत्यादितसाक्षात्कृतनिषेवितेषु इति अनेकार्थशेषः [ ] । लब्धं प्राप्तं विन्नं भावितमासादितं च भूतं च इत्यमरः [अमर. ३/ १/१०४] । नक्षत्रराज्या नक्षत्रपङ्क्त्या। कीदृश्या! नक्षत्रराज्या नक्षत्रपङ्क्त्या अहनि दिवसे चण्डभास्करकरे सूर्यकिरणेषु अजनि जाता इति प्रश्ने, उत्तरं- विभावितानया। विगतो भानां भासां वा किरणानां वितानो विस्तारो यस्या सा विभाविताना तया। भाशब्द आबन्तः सकारान्तोपि। यद्वा विभाभि:प्रभाभिर्विताना उच्चा मन्दा शून्या वा या सा विभाविताना तया। वितानं तुच्छमन्दयोरिति इति महेश्वरः [विश्वप्रकाश न-त्रिकम्-५४] यद्वा, विगतो भानां वितानोऽवसरो यस्याः सा विभाविताना, विगततेजोऽवसरा इत्यर्थः । वितानं कदके यज्ञे विस्तारे क्रतुकर्मणि॥ ४४२ ॥ तुच्छे मन्दे वृत्तशून्ये शून्यावसरयोरपि [अनेकार्थ. ३/४४२-४४३] इति हैमानेकार्थः। ननु चण्डभास्करकरेषु इति बहुवचने वक्तव्ये कथं चण्डभास्करकरे इत्येकवचनम् इति चेत् ? जात्याख्यायाम् कस्मिन् बहुवचनमन्यतरस्यां [पा. सू. १/२/५८] इति। कराणां जातित्वात् एकवचनं, सम्पन्नो यवः, सम्पन्ना यवाः इत्यादिवत्॥ गतागतद्विर्गतजातिः ॥ १७ ॥ प्रभुमाश्रित्य श्रीदं किमकुर्वन् के कया समं लक्ष्मि!?। कह केरिसया के मरणमुवागया लोद्धयनिरुद्धा?॥ १८॥ ॥ समगंसताऽसा मया॥ [ द्विर्गतभाषाचित्रजातिः]॥ व्याख्या:- प्रभुमाश्रित्य इति। नारायणो लक्ष्मी पृच्छति- हे लक्ष्मि! के कया समं सः श्रीदं प्रभुम् ईश्वरम् आश्रित्य आसिव्य किमकुर्वन् किं कृतवन्तः? श्रीर्वेषरचना-शोभा-भारती-सरलद्रवे। लक्ष्यां त्रिवर्गसम्पत्तौ इति महेश्वर: [विश्वप्रकाश र-एकम्-२] त्रिवर्ग सम्पत्तिः समृद्धिरिति तट्टीका। इति प्रश्ने, उत्तरं- समगंसताऽसा मया। अस्यार्थ:- न विद्यते लक्ष्मीर्येषां ते असा:= नि:श्रीका नि:स्वा इति यावत्। मया लक्ष्म्या सह समगंसत=अमिलन् इति। गम्लुगतौ [पा. धा. १०५१] सम्पूर्वको गम्लृगतौ मेलनार्थः। समो For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् गम्वृच्छिभ्यां [पा. सू. १/३/२९] इति आत्मनेपदित्वे। वा गमः [पा. सू. १/ २/१३] इति झलाघोर्लुङ् सिचोरात्मनेपदविषययोर्वा कित्वात् तदाशयस्य अनुदात्तोपदेशे. [पा. सू. ६/४/३७] इति अनुनासिकस्य घोषस्य अभाव झलि ह्रस्वादङ्गात् [पा. सू. ८/२/२७] सिचस्य भावे च समगंसत इति सिद्धिः । लोद्धयनिरुद्धा के के रिसया कह मरणमुवागया। लुब्धकै: मृगवधाजीविभिर्निरुद्धा=निषिद्धस्वेच्छाचरणविचरणाः । के कीदृशाः कहं केन प्रकारेण मरणमुवागता=प्राप्ताः? इति प्रश्ने, उत्तरं– समगं सतासा मया। अस्यार्थ:-समकं = सह तुल्यकालमिति यावत् सत्रासा:=भयसहिताः दृगासन आकस्मिकभयेन च 'चमक अउद्रक' इत्यादि लोकभाषाप्रसिद्धे, न वर्तन्ते ये ते सत्रासा: मया-मृगा इत्यर्थः । लोद्धय इत्यत्र ओत्संयोगे [हैम. प्राकृत व्याकरण १/१/१६] इति प्राकृतसूत्रेण ह्रस्वोकारस्य त्रयोदशस्वर एव भवति, पञ्चमस्वरस्तु अशुद्धः । समकमिति सममित्यव्ययं सहार्थे, सार्धं तु साकं सत्रा समं सह [अमर. ३/४/४] अतः अव्ययसर्वनाम्नामकच् [पा. सू. ५/३/७१] प्राक्टेरिति अज्ञाताद्यर्थे अकचि, सिद्धिः॥ आर्या ॥ १८॥ वसुदेवेन मुररिपु - हिँसाहेतुतां श्रियां पृष्टः। तेणं तेहिं चिय अक्खरेहिं से उत्तरं सिटुं॥ १९॥ ॥ तायकमनयंत रयम्॥ [शाश्वतचित्रसमवर्णप्रश्नोत्तरम् ] व्याख्या:- वसुदेवेन इति। वसुदेवेन नारायणस्य पित्रा यैरिति अक्षरैः मुररिपुः नारायणः श्रियां लक्ष्मी हिंसाहेतुतां हिंसाकारणभावं विनाशमिति यावत् पृष्टः ? तेणं तेन मुररिपुणा चिअ इत्यव्ययं प्राकृते अवधारणार्थः, तेहिं तैः अक्खरेहिं से तस्य-वसुदेवस्य उत्तरं प्रतिवचः सिटुं सृष्टं दत्तमित्यर्थः । इति शस्तस्य सकारे पूर्वोक्त .......... इत् कृपादौ इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण [हैम. प्राकृतव्याकरण १/१२८] शकारस्य इकारे ष्टस्यानुष्ट्रेष्टासंदृष्टे [हैम. प्राकृतव्याकरण २/३४] इत्यनेन ......... टकारस्य ठकारे सिट्ठमिति सिद्धिः अतोऽत्र सिटुं कथितमिति व्याख्यान्ति न च ..... । इति प्रश्ने, कृते उत्तरंतायकमऽनयंत रयम्। अस्यार्थः हे अ!=कृष्ण! ताः= लक्ष्म्यः कंरयं For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः अनयन्त=प्रापयन्। री गतिरेषणयोः [पा. धा. १५९९], रेषणं हिंसा इति धातुपारायणे _ [ ] आत्मनेपदी रयणं रयः परश्च [पा. सू. ३/१/२] इति .... वादौ अश्च हिंसा क्षय इति यावत् रायणं रैषणं रेभृ शब्दे [पा. धा. ४१०] इति क्रयादि परस्मैपदी माधवः । अयं वसुदेवकृतप्रश्नार्थः । एतानि वसुदेवकृतप्रश्नाक्षराणि एषा एभिरेवाक्षरैर्वसुदेवं प्रतिरायणः उत्तरति-तायकमनयन्तरयम् प्राकृतमेतत् । अस्यार्थ:-ताय हे तात! हे पितः! वसुदेव! कमनयन्तरयं क्रमनयाऽन्तरतं क्रमश्च-परम्परा, अर्थात् कुलस्य, नयश्च नीतिः इति द्वन्द्वे क्रमनयौ। क्रमस्तु स्यात् पदसन्धिपरम्परयोः इति [ ] परम्पराशब्दोऽत्र अन्वयार्थः । परम्पराऽन्वये वधे इति हैमानेकार्थः [अनेकार्थ. २/४७५] । तयोरन्ते-विनाशे यो रतः आसक्तः सः क्रमनयान्तरतस्तम्। यः कुलं न्यायं च नाशयति तं, लक्ष्म्यौ नाशं नयन्तीत्यर्थः। अथवा क्रमायातो नयः क्रमनयः परम्परागतन्यायः। यद्वा क्र म:=शास्त्रां तदुक्तो नयः क्र मनयः राजनीतिशास्त्राद्युक्तनीतिः । अत्रोभयत्र शाकपार्थिवादिवन् [पा. वा. १७८] मध्यपदलोपी समासः । क्रमः कल्पांहिशक्तिषु परिपाट्यामिति। [अनेकार्थ संग्रह २/३२०] कल्पो। न्यायः शास्त्रं इति तट्टीका तथा च पाणिनिव्याकरणसूत्रम् क्रमादिभ्यो वुन् [पा. सू. ४/२/६१] । अत्रहि क्रमशब्दः शास्त्रपर्यायः, क्रमं वेत्ति अधीते वा क्रमकः, क्रमनयस्य अन्तो नासः तत्र रतो सः क्रमनयान्तरतस्तं। आर्याभेदः-द्वाभ्यां शाखाचित्र समवर्णप्रश्नोत्तरजातिः ॥ १९ ॥ किं प्राहुः परमार्थतः कमृषयः ? किं दुर्गमं वारिधेविद्याः कं न भजन्ति? रागिमिथुनं कीदृक्किमर्धं स्मृतम् ?। रक्षांसि स्पृहयन्ति किं ? तनुमतां कीदृक् सुखार्थादिकं ?, कीदृक्कर्षकलोकहर्षजनकं न व्योमवर्षाष्वपि?॥ २०॥ ॥विगतजलदपटलम्॥ विपरीतमष्टदलकमलम्॥ व्याख्याः- किं प्राहुः इति। ऋषयः तत्त्वज्ञाः मुनयः परमार्थतः परमाभिधेयेन कं किं प्राहुः ? इति प्रश्ने, उत्तरं– विलं गलं-गलकण्ठं, विलं For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रोत्तरैकषष्टिशतकाव्यम् ९५ बवयोरैक्यात् बिलं-विवरं प्राहुरिति योज्यम् । शरीरे प्रायो गलस्येव विवरत्वेन प्रतिपादनात्। वारिधेः समुद्रस्य किं दुर्गमं दुःखेन गमनयोग्यम् ? इति प्रश्ने, उत्तरं- तलम् अधोभागः । तलं स्वरूपाधरयोः इति महेश्वरः [विश्वप्रकाश र-द्विकम्-७] अत्र अधरशब्दः अधोभागपर्यायः । विद्याः चतुर्दश संख्याः, षडङ्गाद्याः पुराणान्ताः कं न भजन्ति न सेवन्ते? षडङ्गो ६, वेदाश्चत्वारो १० मीमांसा ११, ऽऽन्वीक्षिकी १२ तथा धर्मशास्त्रं १३ पुराणं १४ च विद्या एता चतुर्दशः॥ इति प्रश्ने, उत्तरं- जलं जडमित्यर्थः । जलं गोकलले (मु. सं. गोकवले) नीरे ह्रीबेरे च जडेऽन्यवत् इति महेश्वरः [विश्वप्रकार ल-द्विकम्-४] । रागि! मिथुनं, रागि कामसहितं तच्च तन्मिथुनं च दम्पतियुग्मं रागिमिथुनम् । कीदृक् ? रागी रक्तरि (रक्ते च) कामुके इति महेश्वरः [विश्वप्रकाश न-त्रिकम् १११] । मिथुनं दम्पतियुग्मे इति श्रीधरः [विश्वलोचन. न तृतीय-१०७] इति प्रश्ने, उत्तरं- ललं लडविलासे [पा. धा. ३८३] भ्वादि: परस्मैपदी। डलयोरैक्यात् डस्य लत्वे ललति=विलसति क्रीडतीत्यर्थः यत्तत् अचि ललं............... [अपूर्णम्] इत्यत्र भोभगोअघोअपूर्वयो ऽशीयत्वम् For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशा: कञ्जालिकाशाभाः पद्यस्य व्याख्या ।दि. ।। एँ नमः ।। सारस्वतस्य सूत्रे सत्केशा इति पदं स्फुटम्। तच्छ्लोकटीकामाचष्टे श्रीश्रीवल्लभवाचकः।। के शाः कझालिकाशाभाः करकारिपिनाक भाः। विविगोगतयो दद्युः शं वोऽब्जाम्वुनगौकसः।। १।। अस्य व्याख्या - क: ब्रह्मा, को ब्रह्मानिलसूर्याग्निः [विश्वलोचन, वर्ग ३] इत्यादीति श्रीधरः। अः कृष्णः, 'अः शिवे केशवे' [ एकाक्षर नाममालिका ५ ] इति विश्वशम्भुः । ईश:=महादेवः, 'शम्भुरीशः पशुपतिः' [१/१/३०] इत्यादि अमरः। एषां द्वन्द्वे केशाः ब्रह्मविष्णुशम्भवः कर्तारः व:=युष्मभ्यं शं सुखं दधुः=प्रदेयासुः । वः इत्यत्र पदाद् युगविभक्त्यैकवाक्ये वस्नसौ बहुले [ ] इति हैमसूत्रेण युष्मदश्चतुर्थीबहुवचने वस् आदेशः । सारस्वते तु षष्ठीचतुर्थीद्वितीयाभिस्ते मे वां नौ वस् नसौ [ ] इत्यनेन चतुर्थीबहुवचने युष्मदसो वस् आदेशः । चतुर्थीबहुवचनं चात्र सम्प्रदानकारकत्वाद् युक्तं, न तु षष्ठीबहुवचनमत्र इति ज्ञेयम्। शं दानस्य इह युष्मदिति पात्रम्। किम्भूताः केशाः ? कञ्जालिकाशाभाः, कंजलं तस्मिन् जायते । कर्ज-श्वेतकमलं पीयूषं वा। कम् इति मन्तमव्ययम्। कम् उदकसुखाकाशेषु [ ] इति अव्ययवृत्तिः । सप्तम्यां जनेर्ड: ' [पा.सू. ३.२.९७] इति डः । 'कञ्जः केशे विरञ्चेऽपि कझं पीयूषपद्मयोः [विश्वप्र. जद्विके २] इति महेश्वरः। अतिः=भ्रमरः, इकारान्तोऽयम्। इन्दिन्दिरोलीरोलम्बः' [अभि.चि. १२१२] इति हैमः । इनन्तोप्ययम्, 'मधुलिट् मधुपालिनः' [अमर २.५.२९] इति अमरः । काश: लो के काशनामा खट:, तालव्यान्तः। 'काशे स्यादिक्षुगन्धेक्षुकाण्डश्यामलपुष्पकाः' [निघण्टु नाम ३७२] इति हैमनिघण्टुः । एषां द्वन्द्वे कञ्जालिकाशास्तेषामिव आभा देहदीप्तिर्येषां ते कालिकाशाभाः। अनेन हि ब्रह्मा पद्मवर्णः अथवा सुधावर्णः, श्वेतवर्णत्वात् ब्रह्मणः, विष्णुः श्यामवर्णः, शम्भुः श्वेतवर्ण इत्युक्तं भवति। For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशाः कञ्जालिकाशाभाः पद्यस्य व्याख्या ९७ पुनः किम्भूताः केशाः ? करकारिपिनाकभाः, करक:=कमण्डलुः इति लोकप्रसिद्धः पानीयभाजनविशेषः । 'करको दाडिमे पक्षिभेदे करे कमण्डलौ' [ ] इति हैमः । अराणि=चक्राङ्गविशेषाः, लोके अरा इति भाषा । 'अरं शीघ्रे न चक्राङ्गे' [विश्व. प्र. र. द्धि. ३] इति महेश्वरः । तानि सन्त्यस्य अरीचक्रं सुदर्शननामकम्। पिनाकः = ईश्वरधनुः । पिनाकोऽजगवं धनुः ' [ अमर. १.१.३५ ] इति अमरः । एषां द्वन्द्वे करकारिपिनाकाः, तैः कृत्वा भान्ति = शोभन्ते ये ते करकारिपिनाकभाः । 'क्वचित्' [ ] इति डः प्रत्यय । अनेन किमुक्तं भवति ? करकशोभितो ब्रह्मा, ब्रह्मण: पाणौ कमण्डलुरिति लोकप्रसिद्धित्वात् । सुदर्शनाख्यचक्रायुधशोभितः कृष्णः । पिनाकधनुरायुधशोभितः शम्भुरिति । ननु करकारिपिनाका इत्यत्र द्वन्द्वे अल्पस्वरप्रधाने कारो=कारान्तानां पूर्वनिपातो वक्तव्यः इति अनुभूतिस्वरूपाचार्यवचनात्।‘अल्पाच् तरं’ [पा.सू. २.२.३४] अत्यल्पाच्कं द्वन्द्वे पूर्वं स्यात् इति पाणिनीयवचनाच्च अरिशब्दस्य पूर्वनिपातः स्यात् । अरिकरकपिनाकाः इति, तथा च सति क्रमव्यत्ययश्छन्दोभङ्गश्च स्यात् इति संशयापनोदाय ब्रूमः । मैवम्, बहुष्वनियम: [ ] इति तत्रैव पाणिनीयाचार्यैरुक्तत्वात् । यथा चोदाहरणम् - शङ्खदुन्दुभिर्वीणाः वीणाशङ्खदुन्दुभयः इति वत् करकारिपिनाका इति युक्तौ द्वन्द्वसमासः । न चात्रैवं सति क्रमव्यत्ययच्छन्दोभङ्गश्चेति । पुनः किम्भूताः केशाः ? विविगोगतयः, वि: - हंसः, विभिः = हंसै: रिच्यते=उह्यते विरिञ्चः, अकारान्तः शब्दः, पृषोदरादित्वात् साधुः इति अभिधानकोषवृत्तिः। विः=गरुडः, वि: पक्षी गरुडः सूर्यः [एकाक्षर नाममाला ८६] इति सौभरिः। गौ:- वृषभः, गौः पुमान् वृषभे स्वर्गे [ विश्वलोचन १] इति श्रीधरः । एतेषां द्वन्द्वे विविगाव:, तैः कृत्वा गतिः - गमनं येषां ते विविगोगतयः । किमुक्तं भवति ? हंसगतिर्ब्रह्मा, गरुडगतिः कृष्णः, गोगतिः शम्भुरिति । ] ननु विश्व हंसः विश्व मसह इत्यत्र द्वन्द्वे स्यादौ विभक्तौ तुल्यरूपाणां सहोक्तौ गम्यमानायाम् एकः शिष्यते इत्युक्तत्वात् । स्यादावसंख्येय [ इति सूत्रेण स्यादौ तुल्यरूपत्वात् वी इति एक शिष्यते । यथा- अक्षश्च शकटाक्षः, अक्षश्च देवनाख्यः, अक्षश्च विभीतकाख्यः, अक्षाः । एवं हरिण्यौ, रोहिण्यौ, वृक्षौ For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः इति। एवं च सति अत्र छन्दोभङ्गः स्यात् इति संशयविनाशाय निवेदयामःमैवम्, अहो विश्वहंस विश्वगरुडः, गौश्च वृषभ इति विविगावः । तुल्यरूपस्य विशब्दस्य सत्यपि अर्थद्वये गोशब्देन त्रिपदत्वात् द्वन्द्वसमासो, न चात्र स्यादावसंख्येयः [ ] इति सूत्रेण विवीत्यत्र सहोक्तिः, एकशेषश्चेति । यदि शब्दैक्यं तदर्थबाहुल्यं तुल्यरूपत्वं च स्यात्तर्हि सहोक्तिरेकशेषश्च स्यात् । यथाअक्षाः, हरिण्यौ, रोहिण्यौ, वृक्षौ इति। न च तथैवमत्र, किन्तु त्रिपदो द्वन्द्व इत्यलमतिप्रसङ्गेन। पुनः किम्भूताः केशाः? अब्जाम्बुनगौकसः, अब्जञ्च-कमलम्, अम्बु च=जलम्, नगश्च पर्वतः इति द्वन्द्वे अब्जाम्बुनगाः । यथाक्रमम् एते ओक:=गृहं निवसनस्थानमिति यावत् येषां ते अब्जाम्बुनगौकसः। किमुक्तं भवति? अब्जौका: ब्रह्मा पद्मासनत्वात् ब्रह्मणः, अम्ब्वोकाः कृष्णः जलशयत्वाद्विष्णोः, नगौका: शम्भुः हिमाद्रिवसनाच्छम्भोरिति । एवम्विधाः केशाः वः शं दद्युरिति श्लोकार्थः। कृतश्चायं श्रीज्ञानविमलमहोपाध्यायमिश्राणां शिष्यवाचनाचार्य श्रीवल्लभगणिभिः । स च शिष्यादिभि र्वाच्यमानंश्चिरं नन्द्यात् श्रीशारदाप्रसादात्। पं. महिमामेरु ले.। For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खचरानन पश्य सखे खचर पद्यस्य व्याख्या-त्रिकम् ।। र्द. ।। एँ नमः ।। खचरानन पश्य सखेऽखचरः, खचराङ्कितपत्रशतः खचरः। खचरागमने रटते खचरं, खचरी परिरोदिति हा खचर!।। १।। व्याख्या - यस्मिन्नवसरे कर्णराजेन वाक्छलेन हिडिम्बासुतो घटोत्कचो व्यापादितस्तस्मिन्नवसरे भृशं खिद्यमानां घटोत्कचमातरं हिडिम्बानाम्नीं विलोक्य हिडिम्बाभर्तारं पण्डुराजसुतं भीमं प्रति कश्चिद् विपश्चिद् एवं कथयामास हे खचरानन ! खे-आकाशे चरति योऽसौ खचर:-चन्द्रमाः तद्वत् आननम्=मुखं यस्य स खचराननः, तत्सम्बोधनं हे खचरानन != हे भीमपाण्डव! हे सखे! मित्र! त्वं पश्य-विलोकय । खचरी हिडिम्बाराक्षसी त्वत्प्रिया हा इति खेदे, खचर खचर इति कथयन्ती परिरोदिति भृशं रोदनं करोति । कं प्रति? क इव? यथा खचराणाम् = मेघानाम् आगमनं यस्मिन् काले स खचरागमन: वर्षाकालस्तस्मिन् खचरागमने वर्षाकाले खचर:=मयूरो वप्पीहको वा खचरम् मेघं प्रति रटते-जल्पति, तथा खचरी हिडिम्बाराक्षस्यपि खचरेति कथयन्ती परिरोदिति-जल्पति इति यावत्। ननु भो 'रट धातुः' परस्मैपदी वर्तते तत्कथम् अत्र आत्मनेपदी इत्याशङ्कापनो[दार्थम् उच्यते- 'गणकृतमनित्यम्' इति [ ] न्यायवशात् इह आत्मनेपदित्वं न दोषभाक्। यथा अन्यत्राप्युक्तम्- ‘भाषत भव्यजना इह सत्यम्।' [ ] इह हि भाषधातुरात्मनेपदी सन्नपि परस्मैपदित्वे निगदितः, इत्यादिवदिहापि रटधातोः आत्मनेपदित्वं न दोषपोषाय इति हृदयम्। किम्भूतस्त्वं हे भीम! अखचरः, खे=आकाशे चरति यातीति खचरः, न खचरः अखचरः, मनुष्यत्वात्। यद् वा, खानि इन्द्रियाणि चरति अत्तीति खचरः, न खचरो अखचरः। यद्वा, श्लिष्टनिर्देशात् खचरः, खानि-सुखानि For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय-लघुकृति - समुच्चयः शत्रूणाम् इति गम्यते, तानि चरति = अत्ति वा इति खचरः । पुनः किम्भूतस्त्वम् ? खचराङ्कितपत्रशतः, खचरश्च = सूर्यः, खचरश्च = चन्द्रः, खचरश्च = चकोर:, खचरश्च=गरुडः, खचरश्च = शुकः, खचरश्च = राजहंसः, खचराः स्यादावसंख्येयः [ सिद्धम. ३ / १ / ११९] इति सूत्रेण एकशेषः । तैः अङ्कितानि - चिह्नितानि चित्रितानि इति यावत्, यानि पत्राणि - वाहनानि तानि खचराङ्कितपत्राणि, तेषां शतं यस्य स खचराङ्कितपत्रशतः, विविधचित्रयुक्तरथशत इत्यर्थः । इह हि लिङ्गभेदेन लुप्तोपमा दर्शिता । १०० इति प्रथमोऽर्थः । १ । काचित् प्रोषितभर्तृका स्वकीयभर्तृविरहेण अतीववर्षाकाले चिरं खिद्यमाना केनचित् पुरुषेण सार्द्धम् आत्मगतं विरहसमुद्भूतं दुःखम् आत्मनो भर्तारं प्रति निवेदयामास। सोऽपि पुमान् तस्या भर्तुरुपकण्ठे गत्वा तद्गतं विरहजातं दुःखम् अचकथत् हे खचरानन!=हे चन्द्रवदन!, हे सखे! हे परममित्र ! पश्य=जानीहि । तव इति पदमध्याहार्यम् । खानि=इन्द्रियाणि पुरुषाणामिति गम्यते, चरन्ति = गच्छन्ति कटाक्षैर्यस्याः सा खचरी = कामिनी, हा इति खेदे, खम् = चन्द्रमण्डलं, यदुक्तम्खं पुनर्गगने विन्दाविन्द्रिये चन्द्रमण्डले । [महीपसचिवकृत एकाक्षरसंज्ञकाण्ड प. १३] इति । तत् इव चरम् - मुखं यस्य स खचरः, मुखे दन्तालयः स्योनं घनं चरम् [ ] इति वचनप्रामाण्यात् । तत्सम्बोधनं क्रियते हे खचर! - हे चन्द्रमण्डलवर्तुलवदन! हे भर्तः ! इति पुनः पुनः कथयन्ती परिरोदिति-परिखिद्यते । च=पुनः रटते=कथयति । इह चकारोऽध्याहार्यः । किमुक्तं भवति ? हे मित्र ! तव कामिनी हे भर्तः! हे भर्त: ! इति पुनः पुनः उच्चरन्ती सती खिद्यते कथयति च इत्यर्थः। इह परस्मैपदितो रटधातोरात्मनेपदित्वं प्राग्वद्भावनीयम् । किं कथयतीत्याह खचराणां=मेघानाम् आगमनं यत्र काले सः कालः खचरागमनः=वर्षासमय इत्यर्थः । तस्मिन् खचरागमने वर्षाकाले खेषु इन्द्रियेषु चरति=विचरति खचरः = कन्दर्पः । इहापि चकारो ऽध्याहार्यः । च= पुनः खे=विहायसि चरति खचर: = मेघ: । खं सुखं चरति गच्छति यस्मात् तत् खचरं दुःखमित्यर्थः । तत्करोतीति क्रियापदमध्याहार्यम् । किमुक्तं भवति ? वर्षाकाले 1 For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खचरानन पश्य सखे खचर पद्यस्य व्याख्या-त्रिकम् १०१ कन्दर्पो मेघश्च मम दुःखं करोतीत्यर्थः । किम्भूतस्त्वं हे खचरानन? खचराङ्कितपत्रशतः !, खम्=सम्यग्ज्ञानं तच्चरति यः सः खचरः, 'खं स्व: संविदि' [अनेकार्थसंग्रह १/५] इति वचनप्रामाण्यात् । अङ्कितम् विचित्रचित्रश्चित्रितं पत्रशतम्-वाहनं यस्य स अङ्कितपत्रशतः। खचरश्चासौ अङ्कितपत्रशतश्च इति कर्मधारयसमासे खचराङ्कितपत्रशतः। इति द्वितीयोऽर्थः । २। कश्चिद् विपश्चिद् मङ्गलपाठकः प्रभाते जाते सति कञ्चन राजानं प्रति प्रभातसमयं प्रबोधयति स्म-'वाच्यलिङ्गः ख शब्दोऽर्के वितर्के व्योम्नि वेदने। प्रश्ननिन्दानृपक्षेपसुखशून्येन्द्रिये दिवि।' इति वचनप्रामाण्यात्। ख- शब्देन राजा प्रोच्यते, ततस्तत्सम्बोधने हे ख!= हे राजन!, हे खचरानन!-हे चन्द्रवचन! स त्वं पश्यं विलोकय। खचर:-सूर्यः तस्य आगमनम् उदय इति यावत् । यस्मिन्काले खचरागमनः तस्मिन् खचरागमने=प्रभातसमये खे चरतीति खचर:=चक्रवाको रटते-जल्पति। खचर इत्यत्र जातावेकवचनम्। ते न खचर इत्युक्ते खचरा: = चक्र वाका: रटन्तीत्यर्थ: । रटतेर्धातोरित्यत्राप्यात्मनेपदित्वं प्राग्वदवसेयम्। किम्भूतः सन् खचरो रटते? खे-आकाशे चरतीति खचरः सन् । कोऽर्थः? आकाशे उड्डीनः सन् इत्यर्थः । चकारोऽत्र अध्याहार्यः । तेन च पुनः खचरी चकोरस्त्री, हा इति खेदे, हे खचर! हे चन्द्र ! इति समुच्चरति । खस्य-सुखस्य चर:=गमनं यत्र तत् खचरं, सदु:खमित्यर्थः । एवं यथाभवति तथा परिरोदिति, भृशं खिद्यतीत्यर्थः । स त्वं पश्य। स इति कः? यस्त्वं खचराङ्कितपत्रशतः, खे-स्वर्गे चरति विचरतीति खचर:=इन्द्रः; स इव अङ्कित: लक्षितो ज्ञातो यः सः खचराङ्कितः, पत्राणाम् वाहनानां गजाश्वादीनां शतं यस्य स पत्रशतः । खचराङ्कितश्चासौ पत्रशतश्च इति कर्मधारये खचराङ्कितपत्रशतः। इति तृतीयोऽर्थः । ३।। एवमन्येऽप्यर्था भूयांसो भवन्ति, परं किं बहुश्रमेण इति । येषां वाचःशिशिररुचिकलेवातिशुद्धा विबुद्धास्तेषां श्रीवाचकज्ञानविमलसुगुरूणां सुशिष्यः सहर्षम्। For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ काव्यस्यार्थत्रिकं वै समदृभदमलं तत्प्रमोदार्थमेतद्, विद्वच्छ्रीवल्लभाह्वो भ्रमर इव सदा तत्पदाम्भोजलीनः ।। १ ।। इति काव्यस्यार्थत्रिकं पण्डित श्रीवल्लभगणिविरचितं सम्पूर्णम् । श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति-समुच्चयः *** For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यामाता पद्यस्य अर्थपञ्चकम् यामाताममतामायामापरोक्षक्षरोपमा। तारोनेगगनेरोतामक्षगक्षक्षगक्षम!।। १।। व्याख्या = हे अक्षगक्षक्षगक्षम अक्षाणि इन्द्रियाणि तेषु गच्छन्तीति अक्षगा: विषयास्तेषां क्षः संहारः, अपरं क्षग: सहारमार्गे मुक्तिमार्गः तत्र क्षम: समर्थः, हे सन्न्यासिन् ! उद्यमे त्वं तां मायाम् अर=आग्रहि। यामाता ऊन्यते न्यूनेक्षणादौ प्राप्ते तारा तार:=तारको न हि किञ्चिन्न्यूनं तस्य यस्य भगवती कृपां कुरुते । अपरं अपरमालक्ष्मी: परावाणी, अपरम् उक्षा वृषभेण क्षरति-वलति स उक्षक्षर:=महेशस्तस्य उप समीपे याति व्यक्तस्वरूपेत्यर्थः । श्लोकस्य प्रथमार्थः । १। यामाता आ इति अव्ययम्, 'आ वाक्ये मरणे' इत्यव्ययम् [ ] इति वचनात् वाक्यार्थे, अतो वाक्यं प्रथमं क्रियते। लक्ष्मी: पाणिग्रहणावसरे स्वराचार्यः कृष्णं प्रति व्यक्ति। अव्ययानाम् अनेकार्थत्वात्, आइति सम्बोधनार्थे वा। हे अहे= हे विष्णो! हे गगनेगक्षमा! हे आकाशे गमनसमर्थके गमने तारोने ताराभिरूना ताराविवर्जितः सकलगगनगमनसमर्थ इति, हे रो-हे विश्वस्कणरुः ! 'सूर्ये रक्षणेपि च' [ ] इति वचनात्। हे अक्षगक्षक्ष! अक्षा:=पाशकाः तेषु गच्छन्तीति ये ते अक्षगाः द्यूते व्यसनिनस्तेषां क्षेत्रेषु क्षयकारिवान्। क्ष राक्षसतुल्या राक्षसेक्षस्तथा क्षेत्रे इति वचनात्। तां लक्ष्मी यं प्रति ममतां मा अय मा गच्छताम् । का तां! मा अय मा गच्छताम्, का या अपरोक्षक्षरोपमा, अपरोक्षाणि क्षराणि=चलानि उपमानानि यस्याः सा तथा अमाता द्वितीथेऽर्थेऽपि। इति द्वितीयोऽर्थः यामाता ममतामाया अथवा प्रद्युम्न: सूर्यं प्रति वक्ति= हे रौ! सूर्य, हे अक्षग!= हे इन्द्रियगम्य, हे क्षक्ष! क्षेषु क्षेत्रेषु अतोयादिना क्षेयकारित्वात् क्ष राक्षसमुल्पतां तां लक्ष्मी मा आया मा गच्छ। असूर्यपश्या राजदारा: अनोहेत्ये या ममता माता तथा परोक्षक्षरोपमा परोक्षाणि=बलानि उपमानानि यस्याः सा एतावता निःशूलपतिव्रताः । शेषं पूर्ववत् । तृतीयोऽयमर्थः ।३। यामाता० अत्र गुरुः शिष्यं वक्ति= For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः हे अमम ! = हे सर्वजीवरक्षणपर! हे गगन! गगक्षम आकाशगामिलब्धित्वात् । हे अक्षगक्षक्ष ! अक्षगम् = इन्द्रियवशगं यत् क्षं = क्षत्रं वपुस्तत्र तपः प्रभृतिभिः क्षयकारित्वात् क्ष राक्षस्यतुल्यसाधोः तां तां लक्ष्मीं प्रति स्मरणमपि मा अय=मागच्छ=तां कां ? या अपरोक्षक्षरोपमा । शेषं पूर्ववत् । किं० मुनिः अमाता: =‍ = स्वजनादिसंगरहित: । चतुर्थोऽयमर्थः।४। १०४ यामाता० । अस्यायमर्थः यत्र अन्यक्रियापदं श्रूयते तत्रास्थिता भवतां परः प्रयुज्यन्ते इति वचनात् । या=लक्ष्मीः क्षरतीति क्षरम् अनेन्दुधनुरादिवस्तु तेन उपमा यस्याः सा क्षरोपमा अशाश्वताऽस्ति, ता लक्ष्मीश्चपलाऽस्तीत्यर्थः । हे मातामत मादृक्ं मनसशब्दयोः = प्रत्यये माता कथिता । अममतानिर्ममत्वं येन स तस्य सम्बोधनं हे माता मममत ! | हे अमायाम ! न विद्यते मानसी व्यथा अमाऽशरीररोगाश्च यस्य सः तस्य सम्बोधनं हे माया हे अनेन विद्यते इ:- कामो यस्य तस्यामन्त्रणं हे ने ! हे क्षक्षग! 'कै गैरै शब्दे' [पा.धा. ९८२ = ८२, ९७५] इति धातुः [ ]। गानं गण्डप्रत्ययोः गं गानं गीतं तरपक्षः क्षेत्रं राक्षसे क्षं स्तथा क्षेत्रे इत्यनेकाक्षरनाममालावचमात् । क्ष शब्देन क्षेत्रं = स्थानं गन्धर्वलोकः तत्तत्तदीयपञ्चमस्वरोद्गार श्रवणव्याक्षेपकत्वादिना निजसकलसमाधेः ध्यानस्यानर्थहेतुत्वात् क्षं, राक्षसं गच्छसिगम्लृ गतौ ' गत्यर्था ज्ञानार्थाः । गक्षक्षग परमार्थतस्तु परमब्रह्मणि लीनमनस्कत्वात् बहिर्भिरुपाधिभिरप्रतिहतः परमयोगीन्द्र इत्यर्थः । हे अपरोक्ष ! परोक्षः = इन्द्रियज्ञानादिगोचरः, न तादृक् अपरोक्षः प्रत्यक्षः विगतसकलाविद्यामला योगिनां प्रत्यक्षः, तस्य सम्बोधनं हे अपरोक्ष ! हे आदिविष्णो ! तां पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टाः संसारवटकोटरान्ताः वात......... त्यागा हे यां लक्ष्मीम् उपदेशरूपतया द्रक्ष= व्याप्नुहि अक्षौ व्याप्तौ च अस्मान् प्रति व्याकुरु इति विशेषम्। त्वं किं विशिष्टः तृप्लवन तरणयोरिति [ सि. है. धा. २७] तरति विस्तरं संसारसागरम् इति तारः । पुनः किम्भूतस्त्वं ? गने व्योम्नि इरौ गमनं यस्य स। हे क्षम! सकलजगज्जन्तुरक्षासमर्थः । इति पञ्चमोऽर्थः । [लि । चिमनक्षागरगणिना । मुडाडा मै] = For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी ।दि० ।। एँ नमः ।। श्रीगुरुभ्यो नमः ।। ओकेशशब्दस्यार्थाः लिख्यन्ते= १. 'ईशिक् ऐश्वर्ये' [ओकेषु गृहेषु] ईष्टे पूज्यमाना सती या सा ओकेशा सत्यिका नाम्नी गोत्रदेवता। अत्र ओकशब्दो अकारान्तः। तस्यां भवस्तस्या अयमिति वा ओकेशः । भवे' [सिद्ध है. सूत्र ६.३.१२३] इति अण् प्रत्ययः । तस्येदम् [पा.सू. ६.३.१६०] इत्यनेन वा अण् प्रत्ययः । सत्यिकादेवी हि नवरात्रादिषु पर्वसु अस्मिन् गणे पूज्यते। सा च अस्य गणस्य अधिष्ठात्री। अत एवाऽस्य गच्छस्य ओकेश इति यथार्थं नाम प्रोच्यते सद्भिरिति प्रथमोऽर्थः ।। १।। २. ईशनम् ईशः ऐश्वर्यम् ओकै:=महर्द्धिकश्राद्धप्रमुखलोकानां गृहै: ईशो यस्यां सा ओकेशा। ओसिकानगरी तत्र भव ओकेशः । ओसिकामगर्यां हि अस्य गणस्य ओकेश इति नाम श्रीरत्नप्रभसूरिसूरीश्वरतो विख्यातं जातम् । इति द्वितीयोऽर्थः ।। २।। ३. अ:-कृष्णः, उ:-शङ्करः, क: ब्रह्मा, एषां द्वन्द्वसमासे ओकास्ते ईशते-पूज्यमानाः सन्तो देवत्वेन मान्यमानाः सन्तश्च येभ्यस्ते ओकेशाः । ओकैः कृष्णशम्भुब्रह्मभिर्दैवैः ईशते ये ते वा ओकेशाः। परशासनजनाः क्षत्रियराजपुत्रादयः प्रतिबोधविधानात् तेषामयम् ओकेशः। तस्येदम् [सि.है.सू.६.३.१६०] इति अण् प्रत्ययः। श्रीरत्नप्रभसूरिभिस्तेषां पारतीर्थिकधर्मनिष्ठात: सिद्धान्तोक्तविशुद्धजैनधर्मनिष्ठायां प्रतिबोधदानेन प्रवर्तना कृता। तथा च श्रूयते पूर्वं हि श्रीरत्नप्रभसूरीणां गुरवः श्रीपार्थापत्यीयकेशिकुमारानगारसन्तानीयत्वेन विख्यातिमन्तो जगति जज्ञिरे। ततः प्राप्तसूरिमन्त्राः ससत्तन्त्राः रमणीयातिशयनिचयाः स्वकीयनिष्तुषशेमुषीप्राग्भारसम्भारावशतत्रिदशसूरयः श्रीमच्छ्रीरत्नप्रभसूरयः कियति गते काले विहरन्तः सन्तः श्रीओसिकानगाँ For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः समवसृताः । तस्यां च सर्वे लोकाः पारतीर्थिकधर्मधारिणो वसन्ति, न कोऽपि जैनधर्मधारी। ततः साध्वाचारं पालयद्धि: सिद्धान्तोक्त तीर्थङ्करधर्मशुभकर्मप्ररूपणां कुर्वद्भिः सद्भिः श्रीरत्नप्रभसूरिभि: पारतीर्थिकानेकच्छेकविवेकिलोका: प्रतिबोधिताः । तत एतेषाम् ओकेशा इति विरुदो विख्यातो जातः । इति तृतीयोऽर्थः ।। ३ ।। ४. अः कृष्णः, आः ब्रह्मा, उ: शङ्करः, एषां द्वन्द्वे आवरत्ततः ओभिः कृष्णब्रह्मशङ्करैर्देवैः कायते स्तूयते देवाधिदेवत्वात् इति ओकः । प्रस्तावात् श्रीवर्द्धमानस्वामी । क्वचित् [सि.है.सू.५.१.१११] इति ड प्रत्ययः । ओकश्चासौ ईशश्च ओकेशः, तस्याऽयं ओकेशः वर्तमान तीर्थाधिपति श्रीवर्द्धमान जिनपतितीर्थाश्रयणात् । इति चतुर्थोऽर्थः ।। ४।। __५. अ:=अर्हन्, 'अः स्यादर्हति सिद्धे च' [ ] इत्युक्तेः। प्रस्तावादिह अ इति शब्देन श्रीवर्द्धमानस्वामी प्रोच्यते। ततः अस्य ओक:=गृहं चैत्यमिति यावत्, ओक:=श्रीवर्द्धमानस्वामिचैत्यमित्यर्थः । तस्मादीश: ऐश्वर्य यस्य स ओकेशः । यतोऽयं गणः श्रीमहावीरतीर्थकरसान्निध्यतः स्फीतमवाप। इति पञ्चमोऽर्थः ।।५।। एवमस्य पदस्याऽन्येऽनेकेऽप्यर्थाः संबोभुवति परं कि बहुश्रमेणेति। अथ उपकेशशब्दस्य कियन्तोऽर्थाः लिख्यन्ते= १. उपसमीपे, के शाः शिरोरुहाः सत्यस्येति उपके शः । श्रीपार्थापत्यीय- श्रीकेशिकुमारानगारः एतदुत्पत्तिवृत्तान्तस्तु श्रीस्थानाङ्गवृत्त्यादौ सप्रपञ्चः प्रतीत एवास्ति तत एवाऽवगन्तव्यः । ततः उपकेशः श्रीकेशिकुमारानगार: पूर्वजो गुरुर्विद्यते यस्मिन् गणे स उपकेशः । अभ्रादित्वाद् अः प्रत्ययः । अस्मिन् गच्छे हि श्रीकेशिकुमारानगारः प्राचीनो गुरुरासीत्, ततो यथार्थम् उपकेशनाम जातम्। इति प्रथमोऽर्थः ।। १ ।। २. उपवर्जिताः-त्यक्ताः केशा: यत्र स उपकेशः। ओसिकानगरी तस्यां हि सत्यिकादेव्याश्चैत्यमस्ति, तदग्रे च घनैर्जनैः प्रथमं जातबालकानां सुदिने दिने मुण्डनं कार्यते, ततः उपकेश इति यथार्थं नाम ओसिकानगर्याः प्रख्यातं जातम्। तत्र भवो यो गच्छः स उपकेशः प्रोद्य[ ?च्य] ते सद्भिर्विद्वद्भिः । अत्र हि भवे' [सि.हे.सूत्र ६.३.१२३] इत्यनेन सूत्रेण अणि प्रत्यये संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाद् For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी वृद्धेरभावः । श्रीरत्नप्रभसूरितोऽनेकश्रावकप्रतिबोधविधानानन्तरं लोके गच्छस्य उपकेश इति नाम प्रसिद्धं जातम् । इति द्वितीयोऽर्थः ।। २ ।। ३. कः=ब्रह्मा, अः=कृष्णः, अ: = शङ्करः, ततो द्वन्द्वे का:, तै: ईष्टे-ऐश्वर्यं अनुभवति यः सः केशः । कानाम् ईशः = ऐश्वर्यम् यस्माद् वा केशः=पारितीर्थिकधर्म:, स उपवर्जितः त्यक्तो यस्मात् स उपकेशः । तीर्थकृदुक्तविशुद्धधर्मः स विद्यते यस्मिन् गच्छे स उपकेशः । अत्रापि अभ्रादित्वाद् अः प्रत्ययः । इति तृतीयोऽर्थः । । ३ । । ४. कं च-सुखम्, ईः च= लक्ष्मीः, कयौ ईशे = स्वायत्ते यत्र यस्माद्वा स केशः । अर्थाज्जैनो धर्मः स उप-समीपे अधिको वा यस्माद् गच्छात् स उपकेशः । इति चतुर्थोऽर्थः । । ४ ।। ५. कश्च अश्च ईशश्च केशा :- ब्रह्मविष्णुमहेशाः तद्धर्मनिराकरणात् ते उप=हता येन सः उपकेशः । प्रकरणादत्र श्रीरत्नप्रभसूरिगुरुः तस्याऽयम् उपकेशः । अत्रापि तस्येदं [ ] इति अणि प्रत्यये पूर्ववदवृद्धिरभावो न दोषपोषाय । इति पञ्चमोऽर्थः ।। ५ ॥ इत्थमन्येऽप्यनेके अर्थाः ग्रन्थानुसारेण विधीयन्ते परं अलं बहुश्रमेण इति । एवमुक्तव्यक्तयुक्तयुक्तिव्यक्तिशक्त्या ओकेशोपलक्षणे उभे अपि नाम्नी यथार्थे घटां प्राञ्चतः । इति ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी समाप्ता । १०७ ।। सं. १६५५ वर्षे श्रीमद्विक्रमनगरे सकलवादिवृन्दकन्दकुद्दालककुदाचार्यसन्तानीय - श्रीमच्छ्रीसिद्धसूरीश्वराणामाग्रहतः श्रीमद्बृहत्खरतरगच्छीयवाचनाचार्यधुर्यश्रीज्ञानविमलगणिशिष्यपण्डित श्रीवल्लभगणिविरचिता चेयम् । श्रीरस्तु सर्वदा सर्वदानविशारदा श्रीशारदा सुप्रसादा भवतु विशारदजनवृन्दस्य । कल्याणमस्तु । श्रीः । For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः खरतरशब्दनवार्थी अथ खरतरशब्दस्य व्युत्पत्तिः= शाब्दिकप्रष्टा ब्रह्मिष्ठा विशिष्टाः खरतरा इति शब्दस्य युक्तियुक्तां नानाविधामेवम्विधां व्युत्पत्तिं विदधते= १. अतिशयेन खरा:=सत्यप्रतिज्ञा ये ते खरतराः ।। १ ।। २. यद्वा, अतिशयेन खरा: अनर्मछद्मधर्मव्यवहारपटवो ये ते खरतराः । यदुक्तं, अनेकार्थध्वनिमञ्जर्याम्= सत्यसन्धौ खरो ज्ञेयः खरोऽपि पुरुषो मतः। खरो रासभ इत्युक्तो व्यवहारे पटुः खरः।। ३. खः= सूर्यस्तद्वद् राजन्ते नि:प्रतिमप्रतिभाप्राग्भार प्रभाभिः प्रतिवादिविद्वज्जनसंसदि ये ते खराः, अत एव तरन्ति भवाब्धिम् इति तराः। खराश्च ते तराश्च खरतराः।३। ४. खानि इन्द्रियाणि, र:=कामः तौ तस्यान्तेव वशं नयन्ति ये ते खरता: साधुजनास्तेषां मध्ये राजन्ते शोभन्ते ये ते खरतराः । क्वचित् ड: [ ] इति डः प्रत्ययः । ४। ५. खं = सुखं भावसमाधिलक्षणं तस्य र:=रक्षणं तत् तरन्ति=कुर्वन्ति ये, धातूनामनेकार्थत्वात् इति ते खरतराः।५। ६. खा:-दीना ये जनास्तेषां र:=भयं तस्य विध्वंसयति यः स खरतः, तादृग्विधो र:= ध्वनिः सिद्धशुद्धप्रशुद्धविशुद्धसिद्धान्तवचननिर्वचनलक्षणो येषां ते खरतराः। ६। ७. यद्वा, खं-संविद् तत्र रताः तत्पराः खरताः मुनिजनास्तान् रान्ति ददति अर्थात् सम्यग्ज्ञानादि ये ते खरतराः । ७। ८. खः खड्गस्तद्वत् रा: तीक्ष्णाः कुमतिमतिविदारणे ये ते खराः, तानां तस्कराणां जिनमतप्रद्वेषिदृप्तकुवादिजनलक्षणानां रा इव-वज्र इव ये ते तराः । खराश्च ते तराश्च खरतराः। ९. खं-स्वर्गं रान्ति ददति अर्थात् भक्तजनानां ये ते खराः, अतिशयेन खराः खरतराः। ९। इति खरतराणां व्युत्पत्तिः। For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस्थापनवादस्थलम् ।। एँ नमः ॥ श्रीसिद्धी भवतान्तरां भगवती भास्वत्प्रसादोदयाद्, वाचां चञ्चुरचातुरी स्फुरतु च प्रज्ञावदाश्चर्यदा। नव्यग्रन्थसमर्थनोद्यतमति' प्रत्यक्षवाचस्पतेविद्वत्पुंस इहाशु शस्यमनसस्तच्छ्रोतुकामस्य च॥१॥ सन्ति स्वराः के कति च प्रतीताः, सारस्वतव्याकरणोक्तयुक्त्या। समस्तशास्त्रार्थविचारवेत्ता, कश्चिद् विपश्चित् परिपृच्छतीति॥२॥ पुरातनव्याकरणाद्यनेकग्रन्थानुसारेण सदादरेण। तदुत्तरं स्पष्टतया करोति, श्रीवल्लभः पाठक उत्सवाय ॥३॥ ___इह केचिद् अहङ्कारशिखरिशिखां समारूढाः सारासारविचारकरणचातुरीव्यामूढाः कूर्चालसरस्वतीति विरुदमात्मनः पाठयन्तः स्वगल्लझल्लरी-झात्कारेणा अविद्यानीं नाटयन्तः सकलशाब्दिकचक्रचक्रवर्तिचूडामणिमात्मानं मन्यमानाः स्वराणां चतुर्दशसंख्यासत्तां विप्रतिपद्यमाना अतुच्छमात्सर्याद्यनणुगुणमत्कुणतल्पकल्पाः संकल्पिताऽनल्पविकल्पा: प्रजल्पन्ति जल्पाका: स्वराः कियन्त? इति वदन्तो वादिनः सानन्दं सादरं प्रष्टव्या भवन्ति विशिष्टमतिभिः प्रतिवादिभिः । १. कोऽयं स्वरो नाम? किं शब्दपर्यायः? २. उत नासिकासमुद्भूतपर्यायः? ३. अथवा निषादादीनामवबोधकः? ४. किमुत उदात्तादीनां ज्ञापकः? ५. आहोस्वित् विवक्षितकार्यावबोधकाऽकारादि- संज्ञाप्रतिपादक:? २. तद्यथा पाठोऽधिक: कै १. मतिं कैं ३. आहोस्वित् कै. For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः इति विकल्पपञ्चतयी विषयपञ्चतयी च जनमनांसि क्षोभयन्तीति प्रतिभाति। १. यदि आद्यस्तर्हि विविधजातीनां सुरनरतिर्यगविहगादीनां विविधभाषाभाषकत्वात् सुस्वरदुःस्वरोच्चैर्नीचैरादिभेदभिन्नोऽप्यनेकधा शब्दपर्यायः स्वरोऽवधार्य: १ । इत्याद्यः ॥ १ ॥ २. अथ द्वितीयस्तर्हि सोऽपि त्रीन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियजीवानामेव तत्सद्भावाद् द्विविधोऽपि। पुनः शोभनाऽशोभनभेदाभ्यां द्विविधो मनुष्याणामेव। चन्द्र १सूर्यो २- च्च ३- नीच ४- तिर्यगादि ५ - लक्षणैरनेकधा स्वरोदयशास्त्रात् नासिकास्वरोऽवगन्तव्यः । इति द्वितीयः ॥२॥ ३. अथ चेत् तृतीयस्तर्हि सोऽपि निषाद १- ऋषभ २- गान्धार ३षड्ज ४- मध्यम ५- धैवत ६- पञ्चम ७ इति लक्षणैः तन्त्रीकण्ठोद्भवैः सप्तविधः । यदमरः निषादर्षभगान्धार-षड्जमध्यमधैवताः। पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्ठोत्थिता: स्वराः।[१.७.१] इति सप्तविधोऽवसेय: । इति तृतीयः । ४. अथ चतुर्थश्चेत्तर्हि उदात्तानुदात्तस्वरितानां त्रैविध्यात् त्रिविधः । यदमरःउदात्ताधास्त्रयः स्वराः [१.६.४] इति, अकारादीनामेव एते। इति चतुर्थः ॥४॥ अथ पञ्चमो विवक्षितकार्यावबोधकाऽकारादिसंज्ञाप्रतिपादकश्चेत् तर्हि सोऽपि द्विधा, ज्योति:शास्त्रे व्याकरणे च द्विधा दर्शनात्। __ तत्र ज्योति:शास्त्रानुसारेण षोडशप्रकारः, यदवदत् नरपति-दिनचर्यायां नरपतिदिनचर्याकार: मातृकायां पुरा प्रोक्ताः स्वराः षोडशसंख्यया। इति। तथापि तन्मते कार्यकाले अ इ उ ए ओ पञ्चैवैते कार्यकारिणो ज्ञेयाः । यत् नरपतिदिनचर्याकार: २. पाठो नास्ति जे प्रतौ। १. स्वरोऽवधार्य: नास्ति जे प्रतौ। ३. एवं नास्ति कै. For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलम् मातृकायां पुरा प्रोक्ताः स्वराः षोडशसंख्यया । तेषां द्वावन्तिमौ त्याज्यौ चत्वारश्च नपुंसकाः ॥ शेषा दश स्वरास्तेषु स्यादेकैकं द्विकं द्विकम् । ज्ञेया अतः स्वराद्यास्ते स्वराः पञ्च स्वरोदये । [ ] इति । ऋ ऋ लृ ॡ एतान् चतुः संख्यान् नपुंसकान्, द्वौ अन्तिमौ अं अः इत्येतौ च त्यक्त्वा, अ इ उ ए ओ एते पञ्च कार्यकारिणः स्वराः स्वरोदये ज्ञेयाः । इति ज्योतिःशास्त्रे षोडशप्रकारो अकारादिसंज्ञाप्रतिपादकः स्वरशब्दोऽवगन्तव्यः । अथ भो! भो! व्याकरणाद्यनेक-ग्रन्थानुसारेण स्वराः कियन्त इति प्रतिपादयन्ति भवन्तः, तत्रभवन्तः, ' तर्हि तत्रैवं ब्रूमः - अहो व्याकरणाद्यनेकग्रन्थानुसाराणां चतुर्दशसंख्यत्वदर्शनात् चतुर्दश १११ स्वराः । अत्र वादी वदति - नैवम्, अ इ उ ऋ लृ समाना: [ संज्ञाप्र० १.] इत्यनेन सूत्रेण अकारादीनां पञ्चानामेव समानसंज्ञाविधानात् । तदनन्तरम् ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि [संज्ञाप्र० ३.] ३ इत्यनेन सूत्रेण एकारादीनां चतुर्णां सन्ध्यक्षरसंज्ञाविधानात् । तत उभये स्वराः [ संज्ञाप्र० ४ ] इत्यनेन सूत्रेण अकारादीनां पञ्चानां चतुर्णां च एकारादीनां स्वर संज्ञाविधानात् नवैव स्वराः, न चतुर्दश स्वराः इति श्रीमदनुभूतिस्वरूपाचार्यवचनात् । अत्र प्रतिवादी वादिनं प्रति वदति कथं भो विद्वन्! 'उभये स्वरा: ' [ संज्ञाप्र० ४.] इति पञ्चवर्णात्मके सूत्रे एतद्वृत्तौ च ' अकारादयः पञ्च चत्वार एकारादय उभये स्वरा उच्यन्ते ।' इति । त्रयोविंशतिवर्णात्मिकायां साक्षात् नवेति पदस्य अप्रतिपादनात् कथं नवस्वरा इति नियमः कर्तुं शक्यते ? अत्र वादी वदति १. तत्र भवन्तः नास्ति ज जे. प्रतौ २. व्याकरणेषु अकारादीनां स्वराणां कै. प्रतौ । ३. कै. प्रतौ एकारादीनां चतुर्णां सन्ध्यक्षरसंज्ञाभिधानात् तत उभये स्वराः इत्यनेन सूत्रेण । For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः ___ 'अकारादयः पञ्च चत्वार एकारादय' १ इति वृत्तौ नियमस्यैव करणात् नवेति पदस्य ग्रहणे प्रयोजनाभावात्। अत्र प्रतिवादी प्रति वदति नैवम्, नव स्वरा, इत्यङ्गीकरणे दधि आनय, गौरी अत्र, वधू आसनम् इत्यादिषु प्रयोगेषु 'इयं स्वरे' [स्वरसन्धि १] 'उ वम्' [स्वरसन्धि ५] इत्यादिषु सूत्रेषु स्वरे इति पदेन नवानामेव स्वरेण अग्रहणात्। दीर्घानामग्रहणात् 'इयं स्वरे' 'उ वम्' इत्यादीनां प्राप्तेरभावात्। दध्यानय इत्यादीनामुदाहरणानां सिद्धिर्न स्यात्। अथ चेत्, 'ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदाः सवर्णाः'[संज्ञाप्र० २.] इत्यनेन सूत्रेण दीर्घग्रहणात् सिद्धिर्भविष्यति। एवं चेत्, तर्हि स्वरसंज्ञाव्याघातात् इयं स्वरे दीर्घ च इतीदृशं सूत्रं स्यात्, न तथा। अतः स्वराः चतुर्दशैव सर्वव्याकरणादिशास्त्रसम्मतत्वात् सर्वशिष्टप्रमाणत्वाच्च। ननु सरस्वतीविहितसूत्रस्य अनुभूतस्वरूपाचार्यविहितव्याख्यानस्य च अल्पाक्षरै : समस्तपुराणव्याकरणसम्मताऽनल्पार्थसूचनात् अइउऋलुसमानाः [संज्ञाप्र० १. ] इति सूत्रेण समाना इत्यस्य अयमर्थःसमानं तुल्यं मानं परिमाणं येषां ये समानाः । ३ __सत्यम्, उदात्तानुदात्तस्वरितभेदात् त्रयस्तावद् अकाराः । पुनस्ते सानुनासिक-निरनुनासिकभेदात् द्विविधाः । केचिदकाराः उदात्तानुदात्तस्वरिताः सानुनासिकाः, केचिदकाराः उदात्तानुदात्तस्वरिताः निरनुनासिकाः । इति अकार: षोढा भिद्यते। एवं दीर्घप्लुतयोरपि प्रत्येकं भेदकथनात् अष्टादशधा भिद्यते अवर्णः । एवं इवर्णादयोऽपि। इत्थं समानपरिमाणत्वयुक्तत्वात् समान- संज्ञा अन्वर्था अकारादीनामित्यर्थः। __ननु एवं सति अकारादीनां पञ्चानामेव समानसंज्ञासद्भावे गङ्गानामित्यादौ दीर्घाकारादीनां समानकार्यं न स्यात् इत्याशङ्कां निराकर्तुम् अनुक्तामपि १. पञ्च चत्वार एकारादयः नास्ति कै. प्रतौ २. 'प्रति' नास्ति कै.। ३. कै. प्रतौ - ननु अकारादयः पञ्चवर्णा असदृशं विलक्षणमाकारं बिभ्राणाः कथं समानपरिमाणाः येन समानं परिमाणं येषां ते समानपरिमाणा इत्यर्थः कथ्यते? For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलम् ११३ समानातिसंख्यां पुराणव्याकरणानुसारिणी प्रमाणयितुं ह्रस्वदीर्घप्लुतैः स्थानप्रयत्नादिभिश्च स्वर्णसंज्ञां ज्ञापयितुं च 'हस्वदीर्घप्लुतभेदाः सवर्णाः' [संज्ञाप्र० २.] इति परिभाषासूत्रं व्यरचयद् आचार्यः, अनियमे नियमकारिणी परिभाषेति परिभाषालक्षणात् पूर्वसूत्रेण समानसंज्ञाया अनिश्चयीकरणात् 'हस्वदीर्घप्लुतभेदाः सवर्णा'[संज्ञाप्र० २.] इति परिभाषासूत्रेण ह्रस्वदीर्घयोः सावात् सरस्वतीकृते सूत्रे ह्रस्वोक्त्या दीर्घसंग्रह इति वचनादपि दीर्घग्रहणात् 'दश समानाः' [कातन्त्र. १।१।३।] इति समानसंज्ञा निरणयत्। अपरञ्च स्थानप्रयत्नाभ्यामपि सवर्णाः [ ] इति सवर्णसंज्ञां प्राज्ञापयत् श्रीमदनुभूतिस्वरूपाचार्यः। ननु प्लुतभेदयोस्तु समानसंज्ञां प्लुतभेदयोस्तु सवर्णसंज्ञामेव इति हस्वदीर्घप्लुतभेदा इत्यत्र भेदशब्दग्रहणात् स्थानप्रयत्नयोर्ग्रहणात् स्थानप्रयत्नाभ्याम् अकारादीनां व्यञ्जनानां च सवर्णसंज्ञा दर्शनात् । तथा च पाणिनिः। तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् ' [पाणिनि १.१.९ ] इति। तथा च कालापकव्याकरणम्। 'दश समानाः' [कातन्त्र० १।१।३] तस्मिन् वर्णसमाम्नायविषये आदौ ये दशवर्णास्ते समानसंज्ञा भवन्ति। 'तेषां द्वौ द्वावन्योन्यस्य सवर्णी' [कातन्त्र. १ । १ । ४ ] । तेषामेव दशानां समानानां मध्ये यौ द्वौ द्वौ वर्णौ तौ अन्योन्यस्य परस्परं सवर्णसंज्ञौ भवतः । सवर्ण ९ - अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल तेषां ग्रहणं व्यक्त्यर्थं,३ तेन ह्रस्वयोर्द्वयोः दीर्घयोश्च द्वयोः सवर्णसंज्ञा सिद्धेति । तच्चैवम् ह्रस्वदीर्घः अ आ १, दीर्घह्रस्व: आ अ २, ह्रस्वह्रस्व: अ अ ३, दीर्घदीर्घः आ आ ४. इति चतुर्भङ्गी। तदुक्तम् क्रमोत्क्रमस्वरूपेण सवर्णत्वं निवेदितम्। इष्टादपि सवर्णत्वं भणितं ऋलकारयोः॥१॥ [ ] इति । तथा च हैमव्याकरणम्- लृदन्ताः समानाः [सिद्धहेम. १.१.७] इति । तथा च नरपतिः १. समानसंज्ञा प्लुतभेदयोस्तु नास्ति ज़ प्रतौ। २. अन्योन्यसंज्ञौ इति कै. ३. व्यक्तिरर्थः प्रयोजनमस्य करणस्य तत्, कैः For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः मातृकायां पुरा प्रोक्ताः स्वराः षोडशसंख्यया। तेषां द्वावन्तिमौ त्याज्यौ चत्वारश्च नपुंसकाः॥ शेषा दश स्वरास्तेषु स्यादेकैकं द्विकं द्विकम्। इति। एवम् अकारादीनां प्रत्येकं युग्मयुग्मत्वेन सवर्णत्वात् समानसंज्ञा सिद्धा। प्लुतस्य च सवर्णसंज्ञासद्भावेपि सन्ध्यादिकार्येषु सन्धिकार्याऽनर्हत्वात् न समानसंज्ञेति। ननु लोकेऽपि अ-इ-उ-ऋ-लु इति ह्रस्वपञ्चाक्षराणां पञ्चदीर्घाक्षरैः सह रेखाद्याकृतिविशेषे सत्यपि 'एकदेशविकृतम् अनन्यवद्भवति' इति न्यायादभेदात् 'वर्णग्रहणे जातिग्रहणम्' इति न्यायेनाऽपि च एकवर्णग्रहणे तज्जातीयस्य अनेकस्यापि ग्रहणात् समानसंज्ञाप्रतिज्ञा युक्ता। यतः- प्रथम मातृकापाठं पाठयतां बालानामपि' "आईडा बि भाईडा, वडइ भाई कानउ" इत्यादि उच्चारणकालात् अग्रे उपरि अधश्च कानकादिरेखाविशेषाणां लेखनात्, ज्योतिःशास्त्रेऽपि नामादिमाऽक्षरोच्चारे ह्रस्वदीर्घयोरेकराशिगणनाच्च। व्याकरणेनाऽपि मातृकाक्षराणामेव निर्णयकरणात् व्याक्रियन्ते स्वरव्यञ्जनानि स्वरव्यञ्जनसंयोगाऽसंयोगाभ्याम् ३ आकारविशेषी क्रियन्ते अनेनेति व्याकरणम् इति व्युत्पत्तेः । इति सारस्वतव्याकरणे 'दश समाना' इति संज्ञा सिद्धा। 'उभये स्वराः' [ संज्ञाप्र० ४.] इत्यस्यायमर्थः- उभौ अवयवौ ह्रस्वदीर्धी कार्यकाले येषां ते उभये उभशब्दादपि सर्वादित्वाज्जसीत्वम्। ननु ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदानां स्वरसंज्ञासद्भावेऽपि उभये इति पदस्य कस्य कस्यचिद् विशेषार्थस्य प्रतिपादकत्वात् उभये इति पदं प्रयुक्तवानाचार्यः । एवं नो चेत्, उभये इति पदस्य समुदायद्वयपरामर्शकत्वात् 'ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदाः सवर्णाः[संज्ञाप्र० २. ] इति सवर्णसंज्ञकाः । ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि' [संज्ञाप्र० ३. ] इति सन्ध्यक्षरसंज्ञाश्च उभये स्वरसंज्ञा भवन्तीति व्याख्या स्यात्? १. बालकानामवि इति कै। २. कारणात् कै। ३. संयोगा नास्ति कै.। For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलम् ११५ न चैवम्, सत्यम्, अकारादयः पञ्च चत्वार एकारादय 'उभये स्वराः' [संज्ञाप्र० ४. ] इति व्याकुर्वत आचार्यस्याभिप्रायेण अयमर्थः । स चाऽयं ह्रस्वदीर्घति सूत्रस्य समानदशकत्वस्थापकत्वेन साक्षिकस्य इव 'अइउऋल समानाः '[संज्ञाप्र० १.] ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि'[संज्ञाप्र० ३.] इति सूत्रद्वयस्य विचाले स्थितत्वात् अकारादयः पञ्च, उभये ह्रस्वदीर्घाः, चत्वार एकारादयः स्वरा उच्यन्ते इति अयमर्थः समर्थः । यद्वा, उभये इति पदम् अत्र तन्त्रेण भण्यते। तन्त्रं नाम सकृदनुष्ठितस्य उभयार्थसाधकत्वम्। यथा उभयोः प्रधानयोर्मध्ये व्यवस्थापितः प्रदीप: सकृत्प्रयत्नकृतः उभयोपकारक: स्यात्, तथा उभये इति पदमपि सकृदुच्चरितं ह्रस्वदीर्घति समुदायद्वयस्य अकारादिपञ्चक एकारादिचतुष्केति समुदायस्य च उपकारकम्। अथवा, उभये इति पदम् आवृत्त्या आवर्तनीयम्। आवृत्तिर्नाम पुनः पाठः एकशेषे वा। स च यथा उभये उभये स्वराः इति वारद्वयम् उभये इत्यस्य पाठे पठनीये। एकश: पाठे उभये स्वरा, इत्ययम्, पुनः पाठे उभये च उभये च उभये सरूपाणामेकशेष इत्येकशेषेऽपि उभये स्वराः इत्येकशेषः। एवं तन्त्रेण पुनः पाठेन एकशेषेण च उभये स्वराः इतीदृशं सूत्रं सूत्रयति स्म सरस्वती, तस्य अयमभिप्रायार्थः। प्रथमेन उभये इति पदेन चतुर्णां ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदानां स्वरसंज्ञा-सद्भावेपि सन्ध्याकार्यानुपयोगित्वात् प्लुतभेदान् परित्यज्य ह्रस्वदीर्घ इति समुदायद्वयमग्रहीत्। द्वितीयेन उभये इति पदेन 'अइउऋलुसमानाः'[संज्ञाप्र० १. ] इति सूत्रोक्ता अकारादयः पञ्च, ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि[ संज्ञाप्र० ३.] इति सूत्रोक्ताश्चत्वार एकारादय इति समुदायद्वयम् अग्रहीत्। ततोऽयमर्थः- अकारादयः पञ्च, उभये ह्रस्वदीर्घाः, चत्वार एकारादयः उभये स्वरा उच्यन्ते इति। स्वयं राजन्ते शोभन्ते एकाकिनोऽपि अर्थं प्रतिपादयन्त इति स्वराः। उ प्रत्ययः पृषोदरादित्वात् स्वयं शब्दस्य स्वभावः । तथा च स्वरलक्षणं प्रोक्तं प्राग्भिः अविष्णुः स्मृतिवाक्ये आ इ गताविति मूर्तिभिः। लिङ्गनिपातधातूनां विराजन्ते स्वयं स्वराः॥ For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः इति। तच्चैते अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ। ननु इह लवर्णस्य स्वरसंज्ञायां किं प्रयोजनम् ? लकारः कृ पू सामर्थ्य' इत्यस्मिन् धातो एव प्रयुज्यते । कृपोरोलः [ भ्वादि.आत्मने. २० ] कृपेर्धातो: रेफस्य लकारादेशो भवति र इति । रश्रुतिसामान्यम् उपादीयते । तेन यः केवलो रेफो यश्च ऋकारस्थः तयोरपि ग्रहणं ल इत्यपि सामान्यमेव उपादीयते। ततोऽयं केवलस्य रेफस्य स्थाने लकारादेशो विधीयते। इत्यनेन ऋकारस्यापि एकदेशविकारद्वारेण लकारकरणादेव प्रयोगो दृश्यते, न च तत्र स्वरसंज्ञायाः किमपि प्रयोजनं विद्यते । दीर्घस्य लकारस्य तु सर्वथा प्रयोग एव नास्तीति। ___मैवम्, यदशक्ति यदसाधु तदनुकरणस्यापि साधुत्वमिष्यते। यथा- 'अहो ऋतक' इति प्रयोक्तव्ये शक्तिवैकल्यात् । कश्चित् 'अहो तृतक' इति प्रयुक्तवान्। तदा तत्समीपवर्ती किमयम् आह इति अपरेण केनाऽपि पृष्ट सन् तमनुकुर्वन् 'अहो तृतक' इत्याह - इति कथयति। अथ च लकारस्य स्वरसंज्ञया 'ओत् [पाणिनि. १.१.१५] इति प्रक्रियासूत्रेण, औ निपातः'[ प्रकृतिभाव० ३.] इति सारस्वतसूत्रेण वा प्रकृत्या भवनात् क्लृप्त इत्यत्र अनचि च [पाणिनि. ८.४.४७] इति प्रक्रियासूत्रेण, हसेऽर्हहसः [स्वरसंधिः २] इति सारस्वतसूत्रेण वा लस्वरात् परस्य पकारस्य द्वित्वभावनात्। क्लृप्तशिख' इत्यत्र दूराद्हूते चेति गुरोरनृतोऽनन्तस्या-प्यैकैकस्य प्राचाम् [ पाणिनि. ८.२.८६] इति पाणिनीयसूत्रेण स्वराश्रितस्य प्लुतस्य प्रतिपादनाच्च लकारस्य स्वरसंज्ञायां प्रयोजनं विद्यते एव। शर्ववर्मणस्तु मते अकारादीनामिव लवर्णस्यापि स्वरसंज्ञया मुख्यमेवं प्रयोजनं विद्यते। यथा- अमू लकारं पश्यतः, अमी कारं पश्यन्तीति उभयत्राऽत्र अदसोमात् [ पाणिनि. १.१.१२.] इति प्रक्रियासूत्रेण, नामी [ सा. प्रकृतिभाव. १.] इति सारस्वतसूत्रेण वा प्रकृत्या भवनात् लकारस्य स्वरसंज्ञाप्रयोजनसद्भावः सिद्धः। _ 'लवर्णो न दीर्घोऽस्ति' इति यद् रामचन्द्रो अवोचत्, तदपि तदिच्छया तस्यैव स्वतः प्रमाणं न परतः' इति । तथा च कालापकव्याकरणसूत्रं, तत्र, चतुर्दशादौ स्वराः [ ] तथा च एतट्टीका- तत्र तस्मिन् वर्णसमाम्नायविषये आदौ ये चतुर्दशवर्णास्ते १. 'व्याकरण' नास्ति कै.। For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलम् ११७ 1 स्वरसंज्ञा भवन्ति । स्वर १४ अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ ऌ ए ऐ ओ औ । यथा अनुकरणे ह्रस्वकारोऽस्ति तथा दीर्घोऽप्यस्तीति मतमिति । तथा च हैमव्याकरणसूत्रम् 'औदन्ताः स्वराः ' [ सिद्धहैम. १.१.४ वृत्तिश्चास्य- 'औकारावसाना वर्णाः स्वरसंज्ञा भवन्ति । तकार उच्चारणार्थः । अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ ऌ ए ऐ ओ औ । औदन्ता इति बहुवचनं वर्णेष्वपि पठितानां दीर्घपाठोपलक्षितानां प्लुतानां संग्रहार्थं, तेन तेषामपि स्वरसंज्ञेति । ' ? [ - तथा च काव्यकल्पलतासूत्रम् - विकृति स्रोतस्विन्यः चतुर्दश तु ] इति । तथा च हैमानेकार्थसूत्रम् स्वरः शब्देऽपि षड्जादौ [ अनेकार्थ कां . २ श्लो. ४७७ ] इति । 'अच्' इति अकारादीनां चतुर्दशानां वर्णानां पाणिनीया संज्ञा । तत्र यथा 'एकस्वरं चित्रमुदाहरन्ति' [ हैमानेकार्थटीका । ] इति तथा च विश्वप्रकाशकार: - स्वरोऽकारादिमात्रासु मध्यमादिषु च ध्वनौ । उदात्तादिष्वपि प्रोक्तः, [ विश्वप्र० रान्तवर्म ९ हलायुधोऽपि - 'अकारादावुदात्तादौ षड्जादौ निस्वने स्वरः । [ ] इति । तथा वर्णनिर्घण्टौ चामुण्डोऽपि - अकारादीनां मातृकानुक्रमेण नामानि न्यबध्नात् । तद्यथाअकारोऽथ निगद्यते श्रीकण्ठः केशवस्त्वाद्यो ह्रस्वो ब्राह्मणकः शिवः । आयुर्वेदः कलाढ्यश्च मृतेशः प्रथमोऽपि च । ] इति । १. काव्यकल्पलता.. रज्जुसूत्रं पूर्वमहाकुले करिपिण्डप्रकृति इति पाठो विद्यते कै. प्रतौ । २. अकारादिषु वर्षेषु षद्जादिषु सप्तसु उदात्तादिषु विज्ञेयः । प्राणियां च स्वरे स्वरः ।।८६३ ।। कां ५५.७७ इति । धनञ्जयोऽपि इति पाठोऽधिकः कै. प्रतौ । For Personal & Private Use Only रत्नपुरुषत्वे य स्वप्नाः जीवाजीवोपकरणगुणिनाग्रगारं Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः एकमातृकवाणीशौ सारस्वत-ललाटकौ। मृत्युञ्जयः स्वराद्यश्च मातृकाद्यो लघुस्तथा। आ आकारोऽनन्तक्षीराब्धी गुरुर्नारायणो मुखम्! वृत्ताकारो दीर्घ, आपश्चतुर्मुखप्रकाशको। मुखवृत्ताऽमृते वक्रो द्वितीयस्वरमोदकौ। इति। अपि चव्यञ्जनानि त्रयस्त्रिंशत् स्वराश्चैव चतुर्दश। [ ] इति । इत्याद्यनेकशास्त्रानुसारेण चतुर्दशस्वराः सारस्वतव्याकरणेऽप्यवश्यम् 'उभये स्वराः'[सा. संज्ञाप्रकरण. ४] इति सूत्रस्य पूर्वोक्तरीत्या व्याख्यानात् अवबोधव्यानि ? विद्ववृन्दारकैः। एकविंशतिरपि स्वराः यत् पाणिनीयशिक्षा___'स्वरा विंशतिरेकश्च' [पाणिनीयशिक्षा प. ४] इति । तच्चैवम् - अ१, इ२, उ३ एते त्रयः ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदात् नव ९, ऋवर्णः प्लुतहीनो द्विविधः २, लकारो दीर्घहीनो द्विविधः २, सन्ध्यक्षराणि २ दीर्घप्लुतभेदात् ८, एवं एकविंशति-स्वराः सन्ति। परं व्याकरणे सन्ध्यादिकार्योपयोगित्वेन चतुर्दशानामेव उपयोगात् चतुर्दशैव स्वराः। ये च सारस्वतटीकाकाराः वासुदेवादयः पञ्च समानाः नवस्वराः अष्टौ नामिनः इति प्रतिपादयन्ति, तद् असत्, पूर्वकविप्रणीतव्याकरणद्यनेकग्रन्थैः सह विरोधात्, सरस्वतीकृत समानादिसंज्ञामपि च सर्वपूर्वकविप्रणीतानेकग्रन्थसंज्ञानुयायित्वात्। इति श्रीश्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं चतुर्दश स्वरस्थापनवादस्थलं समाप्तम्। १. बोधव्या कै. २. अष्टौ इत्यधिकपाठो कै.। ३. समानऽमपि इति जयपुर प्रतौ. For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलम् ११९ श्रीजिनराजसूरीन्द्रे धर्मराज्यं विधातरि । अस्मिन् खरतरे गच्छे धर्मराज्यं विधातरि ॥१॥ जगद्विख्यातसत्कीर्त्तिानविमलपाठकः । योऽभवत्तस्य पादाब्जभ्रमरायितमानसः ॥ २ ॥ श्रीवल्लभ उपाध्यायः समाख्यातीति सूनृतम्। चतुर्दशस्वरा एते सर्वशास्त्रानुसारतः ॥ ३॥ त्रिभिर्विशेषकम् इति श्रीश्रीवल्लभोपाध्यायविरचित-सारस्वतमतानुगत सर्वशास्त्रसम्मत-चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलप्रशस्तिः समाप्ता। तत्समाप्तौ च समाप्तं चतुर्दश स्वरस्थापनवादस्थलम्। तच्च वाच्यमानं चिरं नन्दतात्। For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशगुणस्थानस्वाध्याय समरवि वीर जिणेसर देव, जसु सुरपति सवि सारइ सेव । सुगुरुतणां वचन निसुणेवि, पभणिसुं गुणठांणानु भेवि । । १ । । गमणागमणतणी गति च्यारि, सासय सुखनि सिद्धि मझारि । कर्मवसि वली वली अवतरि, चौदराजनि फेरइ फिरइ ।। २ ।। सविहुं जीवनी आठज खांणि, इन्द्र जपो तज जर रस जांणि । स्वेदज समूर्छिम मनो भेद, उपपातकी नारकी सुखेद ।। ३ ।। जीवयोनि चुरासी लाख, कुल एक कोडि सताणुं लाख । वरण गंध रस जू जूया वेस, जिन विण छूटक नहीं लवलेस ।। ४ ।। दुलहु मानव भव संसारि, उतपति आरिज देस मझारि । सावि [सावग] कुल संपूरण आय, रूप रिद्धि सहि गुरु समवाय ।। ५ । रोग रहित सावि मित्त, मरिघल धननिं निश्चलचित्त । वर सिद्धान्त श्रवणें निज कांनि, मुनि संगति चित लागइ ध्यानि ।। ६ ।। ग्यानवंतनि निरुपमबुद्धि, विनय विवेक विचार समृद्धि । दोहिलो लाभ भविक जीव एह, हवि बोलिसुं गुणठांणा भेय ।। ७ ।। पहिणि गुणठांणे मिथ्यात, समकित तणी न जांणे वात । अरिहंत देव सुगुरु जिनधर्म, शासन तणो न जांणे मर्म ।। ८ ।। सास्वादन गुणठांण, जिनमत कहितां मांडै कांन । षटावली जाणि मन रहि, पछि मिथ्यात वली संग्रहि ।। ९ ।। त्रीजि मिश्र सुभावज अस्यौ, जिनवइ हरि हर अंतर किस्यउ । द्विज जन मुनिजन नितित नमि, समा धर्म बिहुंय-मगमि ।। १० ।। चउथि अविरति थांनकि जोय, ख्यायक समकित एवउ होय । कंदमूल फल पेय अपेय, श्रेणिक वर निश्चि सवि लेय।। ११ ।। सुण पांच व्रत गुणठांण, परिग्रह तणो करि परिमाण । बादर जीव वि(व) ध टालि सदा, समकित दोष न आणि कदा ।। १२ ।। For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ चतुर्दशगुणस्थानस्वाध्याय छठि थांनकि घणुं प्रमाद, निद्रा विकथा करि विवाद। जांणि जिनमत नवतत्व मर्म, तु नर तिन करि जिनधर्म।।१३।। सातमि थांनकि सुणि अप्रमत, खम दम संयम निश्चल चित। पोसह पडिमा परिबि सहइ, केता चारित्र भइ निरवहइ ।। १४ ।। आठमि थांनकि नर जे होइ, च्यार कषाय मनि मुंकि सोइ। परद्रोह परनिंदा नवि करइ, कूड कपट मुंकी विवहरइ ।। १५ ।। नवमि मुंकि सुषिम लोभ, क्रोध मांन मायानु ख्योभ। नवमा रस, संचय करइ, मणि त्रण सोवन समता धरि ।। १६ ।। दसमि गुणथांनक जे होइ, अष्ट कर्म चूरण करइ सोइ। पंच सुमति त्रण गुपति निरूव, इम सूषिम संपराय पवीत ।। १७ ।। उपसांत मोह गुण ठाणा एह, कर्म तणउ जिणि कीधउ छेह। रख्या मांहि जलणि जिम रहइ, श्रुतधर इग्यारमुं इम कहइ।।१८।। तिहां थउ जीव प्रमाद जउ करि, निगोदमांहि जई वली अवतरि। कोडा कोडि भव जीव इम भमइ, पुद्गल पराव्रत इम इति क्रमि।। १९ ।। बारमि गुणथांनकि हेव, क्षिपक श्रेणिक चडीओ जीव। शुक्ल ध्यान मांडि अस्युं, दहि कर्म ज्वाल्युं त्रण जिस्युं।। २० ।। तेरमि गुणथांनिकि संचरी, घनघातीया कर्म खयकरी। पामि जगमग केवलन्यांन, ओछव करि सुरासुर भांणि।। २१ ।। चउदमउं गुणथानिक एह, अजरामर पद लहीइ जेह। सिद्धि तणि थांनिकि अवतरी, सासि सुख लहि जिधर्मकरी।। २२ ।। [कलस] एय कुसलकारक दुखनिवारक चउद थांनिकि जाणीइ, जिन तणी वांणी हीइ आंणि सुमति मांन वखांणीइ । जे सुणिअ निव्रत करि एक चिति सुषिर समकित तेह तणओ। श्रीवल्लभमुनिवर भणि जिनवर तिहां घरि हुइ सुख घणो।। २३ ।। इति चउदगुणठाणसज्झायसम्पूर्णम् For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - १ ग्रन्थकार-टीकाकारोद्धृत-ग्रन्थनाम-ग्रन्थकारनामानुक्रमणी ग्रन्थकार पृष्ठाङ्क ५१ ग्रन्थ अनुयोगद्वारसूत्रम् अनुयोगद्वारवृत्ति अनेकार्थसंग्रह ६८ हेमचन्द्रसूरि अनेकार्थसंग्रह टीका अपवर्गनाममाला जिनभद्रसूरि अभिधानचिन्तामणिनाममाला हेमचन्द्रसूरि ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४९, ५०, ५२, ५४, ५५, ६०, ६२, ६३, ७१, ७२, ८०, ८४, ८७, ९०, ९२, ९४, ९०, १०१, ११७ ४६, ४७, ५०, ५२, ५४, ५६, ७३, ९६, ११७ ४०, ४९, ५८, ६४ ४०, ४१, ४५, ५४, , ७१, ८२, ८३, ,९६, ९७ ७९ ४१, ८०, ८४, ८५, ८७, ९१, ९२, ९३, ९६, ९६, ११० ४९, ५१ ४० ७९, ८० १४, १५, ४४, ४५, अमरः अमरकोष अमरसिंह उत्तराध्ययनसूत्र उपासकदशाङ्गसूत्र एकाक्षरकोष एकाक्षरनाममाला सौभरि For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकार-टीकाकारोद्धृत ग्रन्थनाम ग्रन्थकारनामानुक्रमणी १२३ एकाक्षरनाममालिका एकाक्षरनाममालिका सुधाकलश विश्वशंभु ४६, ४७, ५४, ५९, ६०, ६१, ६२, ६४, ९७, १०१ ५९, ६० २४, ४२, ४५, ४९, ५१, ५५, ५९, ५६, ६०,६२, ६३, ६४, ९६ ७९, ८० ११७ अमरचन्द्र ५९ ११२ एकाक्षनाममालिका काव्यकल्पलता कविकल्पद्रुम कातन्त्रव्याकरण कात्यः कालापव्याकरण कालापव्याकरण टीका काव्यानुशासन कंशवः चिरन्तन दशवैकालिकसूत्र ११७ ११६ हेमचन्द्रसूरि ११७ शयम्भबसूरि देव धातुपरायण हेमचन्द्रसूरि देव वाचक नन्दीसूत्र नरपति दिनचर्या नारायण निघण्टु पाणिनिव्याकरण ५० ७४ ४२, ५०, ५५, ७१, ७३, ८३, ९४, ९७ ४९, ५१ ११०, ११७ ११८ ५३, ९६ ५१, ५८, ५९, ६०, ६६, ६८, ६९, ७०, ७२, ७३, ७६, ७८, पाणिनि For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पाणिनिव्याकरण टीका पाणिनीधातुपाठ पाणिनीयवार्तिक पाणिनीयशिक्षा पुराण प्रज्ञापनासूत्र प्रज्ञापनासूत्र टीका प्राकृतव्याकरण बुद्धिसागरव्याकरण बृहत्कल्पसूत्र टीका भगवतीसूत्र भगवतीसूत्र टीका भरतः मङ्खको मङ्ख टीका मेघदूत राजनिघण्टु मलयगिरि हेमचन्द्रसूरि बुद्धिसागरसूरि अभयदेवसूरि श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः ७९, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८, ८९, ९०, ९१, ९३, ९४, ९५, ९६, ९७, ९८, ११३, ११७ ५१ ५८, ५९, ६०, ६१, ६२, ६८, ६९, ७१, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८, ७९, ८०, ८१, ८३, ८४, ८५, ९०, ९३, ९६, ९८, ९९ ६७, ७१, ७३, ८२, ९४, १०४ ११८ ४८, ६८ ४८ For Personal & Private Use Only ६८, ९३ ७९ ४५ ५२ ५३ ७२ ४७, ५० ४७ ८० ४१ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ १२५ ग्रन्थकार-टीकाकारोद्धृत ग्रन्थनाम ग्रन्थकारनामानुक्रमणी रामचन्द्राचार्य वर्णनिघण्टु वाग्भटालंकार वामन विजयानन्द विश्वप्रकाशकोश महेश्वर ८२, ११६ ११७, ४५, ८५ ८२ ७३, ७५, ७६, ८३, ८५, ८७, ८८, ८९, ९१, ९२, ९५, ९७, ९८, ११६ ४१, ४९, ५०, ७३, ७६, ७९, ८२, ८४, ८५, ८७, ९१, ९७, ९८ विश्वलोचनकोष श्रीधर केदारभट्ट ८३ ५५, ७२ ५९ ११७ वृत्तरत्नाकरः वैजयन्ती कोष शिलोच्छनाममाला श्रीकण्ठ षड्दर्शनसमुच्चयटीका संगीतशास्त्रम् समवायाङ्गसूत्र सारस्वतव्याकरण ८८ ८२ ४८ सारस्वतव्याकरण टीका सिद्धहेमशब्दानुशासन अनुभूतिस्वरूपाचार्य ९७, १०१, १०६, १०८, ११२, ११३, ११४, ११५, ११६, ११८ वासुदेव ११८ हेमचन्द्रसूरि १५, २०, ४२, ४७, ४८, ५२, ५४, ५५, ५६, ६१, ६२, ९४, ९६, १००, १०१, For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सिद्धहेमधातुपाठः श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः १०३, १०४, १०६, १०७, ११३, ११७ ४१, ४२, ४३,७४६, ४९, ५०, ५२, ५४, ५५, ७२, १०८ ७६ ४३ शीलाङ्काचार्य 3 सुभूतिचन्द्रः सूत्रकृताङ्गसूत्र सूत्रकृताङ्गसूत्र टीका स्थानाङ्गसूत्र हलायुध इत्युक्ते पठ्यते प्राग्भिः भाषा यदुक्तं ४९, ५२, ११२ ४३, ४६, ७६ ४१ ०२ ११५ ५५, ८९, ९७, ११४ वचनात् ५३, ७३, ७५, १००, १०१, १०३ श्रवणात् न्यायेन परिशिष्ट - २ ग्रन्थकार-टीकाकारोद्धृतगच्छाचार्यादिनृपतिग्रामविशेषनामानि अकबर उपकेश ओकेश ओसिका केशिकुमार ७१ खरतरगच्छ २०, ३०, ३३, ५६, ५७, १११, ११९ For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकार-टीकाकारोद्धृतगच्छआचार्यादिनृपतिविशेषनामानि १२७ १२७ जयसागरमहोपाध्याय ३०, ३९, ५३, ५६, ५७ जिनचन्द्रसूरि ५७ जिनभद्रसूरि जिनराजसूरि ११९ जिनवल्लभसूरि ६६, ६७ जिनसिंहसूरि ५७ जिनेश्वरसूरि ५७ ज्ञानविमल ७, २०, ३०, ३३, ३४, ३८,५६, ६७, ९८, १०१, १०७, १११, ११९ तिमिरी ३६, ३९ पार्थापत्य ७१ बलभद्रपुर ३४ योधपुर ५७ रत्नप्रभसूरि विक्रमनगर श्रीवल्लभवादी ७१, ७२ ७, १११ ७, २०, ३०, ३३, ३४, ३६, ३८, ३९, ५६, ५८,६५, ६६,९७, १०१, १०७, १०९, ११३, ११८, ११९ ७२ ६५ सत्यिका देवी सहदेव सिद्धसूरि सूरसिंहनृपति १२१ ५७ For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ : नोंध : श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभीय. लघुकृति-समुच्चयः % 3 Amit . ..निजामशरनवरीमा PARE!ीसंगर From: प.पू. आ. श्री विजय सोमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. Clo. किरीट ग्राफीक्स, 416, वृन्दावन शोपींग सेन्टर, ४थे मजले, पानकोरनाका, अहमदाबाद-३८० 771se