SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः कृतियाँ तो प्राप्त होती हैं किन्तु सहस्रदलात्मक प्राप्त नहीं होती हैं। यह एक सहस्रदलकमलगर्भित चित्रकाव्य है। जिसमें १००० रकारों का प्रयोग किया गया है। मध्यदल (गर्भ) में रकार को रखा है और प्रत्येक दल (पाँखड़ी) में दो अक्षरों का निवेश किया है। प्रत्येक पाँखडी के ट्यक्षरों का मध्य में स्थित रकार से संबंध है। अर्थात् प्रत्येक पाँखडी का सीधा सम्बन्ध मध्यदल के रकार से है। देखिये: असुरनिर्जरबन्धुरशेखर-प्रचुरभव्यरजोभिरपञ्जिरम्।. क्रमरज शिरसा सरसं वरं जिन रमेश्वर मेदुर शङ्कर॥१॥ इस पद्य में ४८ अक्षर हैं। जिनमें १६ रकारों का प्रयोग हैं। अर्थात् प्रत्येक दो अक्षर के बाद रकार का प्रयोग है। चित्रकाव्य की रचना में छन्दःशास्त्र, व्याकरण, निर्वचन तथा कोष आदि पर पूर्ण आधिपत्य होना आवश्यक है, जो इस कृति में स्पष्टरूप से लक्षित होता है। विचारवैदग्ध्य, रचनाकौशल तथा उक्तिवैचित्र्य की दृष्टि से यह काव्य एक सर्वोत्कृष्ट काव्य है। इस काव्य में अठारहवें जैन तीर्थंकर अरनाथ भगवान् की स्तुति की गई है। रकार गर्भात्मक ५४ पद्य है और ५५वाँ पद्य उपसंहारात्मक प्रशस्तिरूप है। इस स्तोत्र काव्य पर स्वयं श्रीवल्लभरचित स्वोपज्ञ टीका प्राप्त है। यदि कवि स्वयं टीका की रचना न करता तो इसकी मार्मिकता समझने में काफी असुविधायें रहती। यह काव्य और टीका श्रीवल्लभ के प्रौढावस्था की रचना है, अत: इस काव्य की भाषा भी बहुत ही प्राञ्जल और प्रवाहपूर्ण है । इस स्तोत्र में कवि को अनिष्पन्न और अप्रचलितशब्दों को रकारगर्भित करने के लिये जिस योजनाकौशल और पाण्डित्य की आवश्यकता थी वह इसमें पूर्णरूपेण विद्यमान है। जहाँ १००० रकार प्रधान काव्य की रचना करना हो, वहाँ उस काव्य में प्रायः अधिक शब्द तो अप्रसिद्ध ही प्रयुक्त होते हैं। उन्हें सिद्ध करने के लिये उणादि सूत्र, और अनेकार्थी तथा एकाक्षरी नाममालाओं का आश्रय लेना ही पड़ता है। टीकाकार श्रीवल्लभ ने इसमें हैमव्याकरण, उणादिसूत्र, धातुपारायण, पाणिनीयादि व्याकरण, कविकल्पद्रुम, अनेकार्थनाममाला, सौभरि, सुधाकलश, विश्वशम्भु, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy