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भूमिका उपार्जन किया। इसका भी समय अवचूरिकार उपाध्याय श्री मेघविजयजी ने सं० १६८७ दिया है। अत: यह अनुमान ठीक ही प्रतीत होता है कि इसकी रचना सं. १६८७ के अन्त में ही हुई है, अन्यथा सं. १६८८ की भी कोई घटना का उल्लेख अवश्य किया जाता।
कवि ने काव्य के प्रथम और द्वितीय सर्ग में चरितनायक का जन्म, विद्याभ्यास, वैवाहिक बन्धनों को न स्वीकार ब्रह्मचारी रहने की अत्युत्कट अभिलाषा और संयम के प्रति आकर्षण का वर्णन किया है। ३-४ सर्ग में आचार्य हीरविजयसूरि का प्रभाववर्णन और विजयसेनसूरि का जीवन-चरित है।५-७ सर्ग में माता सहित चरितनायक की दीक्षा, शास्त्राभ्यास, विजयसेनसूरि के साथ सम्राट अकबर से मिलाप तथा चरितनायक के गणि और आचार्यपद प्राप्ति का वर्णन किया गया है। ८वें सर्ग में कनकविजयादि शिष्यों का और ९१० सर्गों में प्रतिष्ठा, चातुर्मास, दीक्षाप्रदान एवं विजयसिंहसूरि को स्वपट्ट पर अभिषिक्त करने का वर्णन मिलता है। ११वें सर्ग में प्रतिवादियों को पराजित करने का उल्लेख है। १२-१४ सर्गों में नवलक्षप्रासाद पार्श्वनाथ, जालोर, मेड़ता आदि प्रतिष्ठाओं का विशद वर्णन तथा गंगाणी तीर्थ के जीर्णोद्धार का प्रसंग कवि ने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है। १५वें सर्ग में तपवर्णन, १६वें में स्तम्भतीर्थ चातुर्मास-वर्णन तथा १७-१८ में सम्राट् जहाँगीर पर प्रभाव और महातपा विरुद का वर्णन है। सर्ग १९वें में नायक के औदार्यादि गुणों का व्याख्यान है।
__यह कवि श्रीवल्लभ की अन्तिम रचना प्रतीत होती है। इसके पश्चात् की अभी तक कोई भी कृति प्राप्त नहीं हुई है। इस काव्य की समसामयिक प्रसिद्ध साहित्यकार उपाध्याय श्री मेघविजयजी प्रणीत अवचूरि प्राप्त है। इस काव्य की दो सुन्दर प्रतियाँ उ. श्री जयचन्द्रजी भण्डार (रा. प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान) बीकानेर एवं श्रीजिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट में प्राप्त है। अवचूरि सहित यह काव्य मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित होकर जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद से सन् १९२८ में प्रकाशित हो चुका है।
अरजिनस्तव स्वोपज्ञ टीका सह भारतीय वाङ्मय में यह स्तवात्मक लघुकाव्य अद्वितीय कृति के रूप में माना जा सकता है, क्योंकि चित्रकाव्यों में अष्टदल, षोडशदल शतदलात्मक
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