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________________ 30 श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः रखा गया है। विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में महाकाव्य के जो लक्षण दिये हैं उन लक्षणों से तुलना करने पर यह माहात्म्य भी महाकाव्य की कोटि में आता है। इनके नायक विजयदेवसूरि धीरोदात्त और देवत्व गुण से परिपूर्ण हैं। इसमें शान्तरस मुख्य है। इसका कथानक महर्षि के जीवनचरित पर आश्रित है और तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन होने से ऐतिहासिक भी है। इसमें धर्मफल की प्रधानता है। प्रारम्भ में नमस्कार और कथावस्तु का निर्देश भी है। इसमें १९ सर्ग हैं। सर्ग के श्लोकों की संख्या ३६६ पद्य हैं। इसमें कई स्थलों पर खलों की निन्दा और महापुरुषों का गुणगान भी किया गया है। प्रसङ्गोपात्त पुत्रजन्म, विवाह (दीक्षा), मुनि, स्वर्ग, सूर्य, चन्द्र, सागर आदि का वर्णन भी है। स्थानस्थान पर अनुप्रास, श्लेष, यमक, वक्रोक्ति, अर्थान्तरन्यास, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, विरोध, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का अच्छा समावेश किया है। अतः यह काव्य केवल माहात्म्य ही नहीं है किन्तु लक्षणसिद्ध घटनाबहुल ऐतिहासिक महाकाव्य है। इसका रचनासमय अज्ञात है। महाकवि श्रीवल्लभ ने प्रशस्ति में इसका कोई उल्लेख नहीं किया है किन्तु इस महाकाव्य का आलोडन करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसकी रचना सं. १६८७ के पश्चात् ही कवि ने की है। इसका आधार यह है कि कवि, चरितनायक के जन्मकाल सं. १६३४ से लेकर १६८७ तक की क्रमबद्ध घटनाओं का वर्णन साङ्गोपाङ्ग करता है। नायक का देहावसान सं. १७१३ में हुआ है। कवि उनके देहावसान का तो क्या, किन्तु चरितनायक के सं. १६८७ के बाद दक्षिण देश में पधारने और काफी समय तक उस प्रदेश में विचरण करने का उल्लेख भी नहीं करता। सं. १६८४ में विजयदेवसूरि ने विजयसिंहसूरि को भट्टारक पद दिया और सं. १६८६ में स्वर्णगिरि (जालोर) में प्रतिष्ठा करवाई। सं. १६८७ में मेदिनीतट (मेड़तासिटी) में प्रतिष्ठा करवाई और उसके पश्चात् करवाया गंगाणी तीर्थ का जीर्णोद्धार । इसके पश्चात् काव्य में कोई जीवन की उल्लेखनीय घटना नहीं है, - किन्तु जहाँगीर पर प्रभाव, तपवर्णन, चरितवर्णन, और गुणवर्णनों में ही आगे के सर्ग पूर्ण किये गये हैं। इसमें एक और घटना का उल्लेख है, मेघजी आदि मुख्य श्रावक वर्ग ने सागरमत का त्याग कर, पुन: गुरु के वासक्षेप प्राप्त कर बोधिलाभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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