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भूमिका
33 ध्वनिमञ्जरी आदि एकाक्षरी नामालाओं के आधार पर ही शब्दों की निष्पत्ति कर अपने विलक्षण पाण्डित्य का परिचय दिया है। उदाहरणार्थ अकडारशब्द की व्याख्या द्रष्टव्य है:
हे अकडार! न कडारः- न विषमदन्तो यः सोऽकडारः, 'कडारः पिङ्गलः विषमदशनश्च' [सि. हे. उ. सू. ४०५] इति उणादिवचनात् तत्सम्बोधनं हे अकडार!- हे सुदन् ! हे श्री अरनाथजिन ! [पद्य ५३]
श्रीवल्लभ ने इस काव्य में और टीका में रचना-समय का निर्देश नहीं किया है, फिर भी 'श्रीमच्छ्रीजिनचन्द्राभिधानसूरिष्वधीशेषु,' [प्र.प.२.] श्रीजिनचन्द्रसूरि के राज्य में होने से स्पष्ट है कि १६७० के पूर्व ही यह रचना है, क्योंकि जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास सं. १६७० में हो चुका था। और, स्वयं के लिये गणिपद का ही प्रयोग होने से स्पष्ट है कि १६५५ से १६७० के मध्य में श्रीवल्लभ ने टीका सहित इसकी रचना की है।
इस काव्य की एकमात्र प्रति भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में प्राप्त है। मेरे द्वारा सम्पादित होकर यह काव्य टीका सहित सन् १९५३ में अरजिनस्तव के नाम से प्रकाशित हो चुका है। संघपतिरुपजी-वंश-प्रशस्ति, स्वोपज्ञ टिप्पणीसह
यह एक वंश-प्रशस्त्यात्मक ऐतिहासिक लघुकाव्य है। इस काव्य की एकमात्र प्रति राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, क्रमाङ्क १९२५० में प्राप्त है। प्रति अपूर्ण होने से इस काव्य का नाम कवि ने क्या रखा है, निर्णय नहीं कर सकते। काव्य के प्रारम्भ में कवि 'श्रीसंघाधिपरूपजीविजयताम्' (पद्य ३) तथा 'भुवि श्रावकाधीश्वरो रूपजी सः' (पद्य ४) का उल्लेख कर, पद्य पाँचवें में रूपजी के पूर्वजों का वर्णन करने का संकेत करता है। इससे स्पष्ट है कि कवि श्रीवल्लभ संघपति रूपजी की प्रशंसा में यह प्रशस्ति काव्य लिखना चाहता है, परन्तु काव्य के प्राप्तांश में केवल रूपजी के पिता संघपति सोमजी एवं चाचा संघपति शिवाजी के कतिपय सुकृत कार्यों का ही वर्णन प्राप्त है। रूपजी का जन्म और विशिष्ट कृत्यों का उल्लेख भी इसमें नहीं आ पाया है। ऐसी अवस्था में मैंने इसका नाम 'संघपति-रूपजी-वंश-प्रशस्ति' रखना ही समुचित समझा है।
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