________________
34
श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः संघपति सोमजी ने सिद्धाचल तीर्थ पर खरतरवसही (चौमुखजी की ट्रॅक) का निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया था, किन्तु दुर्भाग्यवश मन्दिर की प्रतिष्ठा कराने के पूर्व ही संघपति सोमजी का स्वर्गवास हो गया था, ऐसी अवस्था में सोमजी पुत्र संघपति रूपजी ने सं० १६७५ में खरतरगणनायक श्रीजिनराजसूरि के करकमलों से इस खरतरवसही की प्रतिष्ठा का कार्य बड़े महोत्सव के साथ सम्पन्न करवाया। दूसरी बात, खरतरगच्छीय पट्टावलियों के अनुसार, इस प्रतिष्ठा महोत्सव के अतिरिक्त संघपति रूपजी के अन्य विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण कार्यों का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। अतः इस काव्य की रचना का समय प्रतिष्ठा महोत्सव का समय सं० १६७५ के पश्चात् का ही माना जा सकता है। ग्रन्थसार इस काव्य के अनुसार संघपति रूपजी का वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है:प्राग्वाटवंशीय श्रेष्ठिदेवराज (पत्नी-रूडी)
श्रे. गोपाल (पत्नी राजू)
श्रे. राजा (पत्नी-रत्नदेवी)
श्रे. साइया (पत्नी नाकू)
श्रे. नाथ (पत्नी-नारङ्गदेवी)
श्रे. योगी (पत्नी २, जसमादेवी और नानी काकी)
- श्रे. सूरजी (पत्नी सुषमादेवी) श्रे. सोमजी (माता जसमादे) श्रे. शिवा (माता जसमादे) श्रे. इन्द्रजी श्रे. रूपजी
काव्य में वंशावली के अतिरिक्त जिन-जिन ऐतिहासिक कार्यों का इसमें उल्लेख किया है, वे इस प्रकार है:
प्राग्वाटवंशीय श्रेष्ठी देवराज अहमदाबाद का निवासी था। इसने सं० १४८७में माघ शुक्ला ५ को मुनिसुव्रतस्वामी के बिम्ब की प्रतिष्ठा खरतरगणाधीश
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org