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श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः १८वीं शती और श्री खरतरगच्छ ज्ञान भण्डार, शिवजीराम भवन, जयपुर क्रमांक छ. १०६ पत्र ७, ले. १९वीं शती में उपलब्ध है। उपाध्याय जयचन्द्रजी की प्रति में निम्नलिखित उल्लेख भी मिलता है:
तत्त्वविचक्षणैर्वाच्यमानं चिरं नन्दतात्। श्रीरस्तु। श्री:छः ।। श्री।।
श्रीजिनराजसूरिभिः । तत्सिष्यश्रीमानविजयजी तत्सिष्यश्रीकमलहर्षजी तस्य छात्रवद् विद्याविलासेन लिखतमस्ति ।। श्री।। आभार
जिन-जिन ज्ञान भण्डारों से जो-जो प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, उन-उन ज्ञान भण्डार के संवाहकों, जो-जो प्रतियाँ प्रकाशित हुई हैं, उनके सम्पादकों एवं प्रकाशकों तथा श्रीवल्लभ पर जिन-जिन विद्वानों ने लिखा है उन सबका मैं आभार स्वीकार करता हूँ।
सुविहित चक्रचूड़ामणि परमपूज्य पूज्यपाद स्वर्गीय श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज की भी अमोघ कृपा से इस प्रकार के साहित्य-युग में मैं सहयोग दे सका इसके लिए मैं उनका विनयावनत हूँ।
शासनसम्राट् प.पू.आ. श्री विजयनेमिसूरीश्वरजीकी पट्टपरंपरामें विराजमान जिनशासनशणगार प.पू.आ.श्री विजय चन्द्रोदयसूरीश्वरजी म.सा. के लघुबंधु सूरिमंत्रसमाराधक प.पू.आ.श्री विजयअशोकचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य सौम्यस्वभावी प.पू.आ.श्री विजयसोमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का में अत्यत आभारी हूं । जिनका मार्गदर्शन इस पुस्तक प्रकाशनमें हमें प्राप्त हुआ ।
परम पूज्य आ.श्री विजयसोमचन्द्रसूरिजीकी प्रेरणा से पुस्तक प्रकाशनके लीए आर्थिक सहयोगकर श्रुतभक्तिकरने वाले श्री रांदेर रोड जैन संघका भी में आभारी हूं।
इसके सम्पादन में मेरे अनुजकल्प पण्डित नारायण शास्त्री काङ्कर जो कि राष्ट्रपति-पुरस्कार से सम्मानित हैं उन्होंने इसमें पूर्ण रस लेकर सहयोग दिया है, इसके लिए मैं उनको अत्यन्त आशीर्वाद देता हूँ।
___ मैं अपनी दिवङ्गत पुण्यात्मा धर्मपत्नी श्रीमती सन्तोष जैन के प्रति भी अपनी भूयसी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिसने मुझे गार्हस्थ्य चिन्ता से
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