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श्री श्रीवल्लभीय- लघुकृति - समुच्चयः
८. 'केशाः कञ्जालिकाशाभा:' पद्यस्य व्याख्या सारस्वतव्याकरणस्थ इस पद्य' की व्याख्या में श्रीवल्लभ ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश के वर्ण, आयुध, वाहन और स्थान का अनेकार्थी दृष्टि से सुन्दर प्रतिपादन किया है और अनेक ग्रन्थों के उद्धरण देकर उसे सरल और सरस भी बनाया है। इसकी एकमात्र प्रति महिमाभक्ति जैन ज्ञान भण्डार (बड़ा भण्डार), बीकानेर, पोथी ७० ग्रन्थाङ्क १८९० में प्राप्त होती है । इसका आद्यन्त इस प्रकार है:
[ आदि]
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सारस्वतस्य सूत्रे यत् केशा इति पदं स्फुटम् । तच्छ्लोकटीकामाचष्टे श्री श्रीवल्लभवाचकः ॥
[अन्त]
कृतश्चायं श्रीज्ञानविमलमहोपाध्यायमिश्राणां शिष्यवाचनाचार्य श्रीवल्लभगणिभिः स च शिष्यादिभिर्वाच्यमानश्चिरं नन्द्यात्
श्रीशारदाप्रसादात्।
इस टीका में रचना के संवत् का उल्लेख नहीं है ।
९. ' खचरानन पश्य सखे खचरः' पद्यस्य अर्थत्रिकम् इस पद्य के कवि ने तीन अर्थ किए हैं और वह भी एकाक्षर अनेकार्थ कोषों की सहायता से ।
१०. 'यामाता' पद्यस्य अर्थपञ्चकम्
यह श्लोक श्लेषालङ्कार प्रधान है। प्रत्येक शब्द या पदों के पृथक्पृथक् अर्थ करना यह कवि का सहज सम्भाव्य है । कवि ने इसके पाँच अर्थ किए हैं और वह भी एकार्थी अनेकार्थी कोषों के सहयोग से ११. ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी
लेखक ने इस कृति में अनेकार्थी दृष्टि से ओकेश और उपकेश पद के पाँच-पाँच अर्थ निरूपित किये हैं ।
१२. खरतरपदनवार्थी
ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी के समान इस कृति में खरतर पद के लेखक ने नव अर्थ किये हैं । इसमें कृतिकार ने अपना नाम नहीं दिया है। न आदि मङ्गल है और न अन्तिम प्रशस्ति है । इसीलिए यह संदिग्धावस्था में है । फिर भी शैली सामञ्जस्य होने के कारण इसे श्रीवल्लभ की कृति मान सकते हैं।
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