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भूमिका
___49 ७. प्रश्नोत्तरषष्टिशतक काव्य टीका इस लघु काव्य के प्रणेता महाकवि श्री जिनवल्लभसूरि हैं। इनका विस्तृत परिचय जिनवल्लभसूरि ग्रन्थावली में दिया है अतएव वहाँ पठनीय है। इसमें मूल के १६० पद्य हैं।
प्रश्नोत्तरषष्टिशतक की अपूर्ण टीका की एक मात्र प्रति राजस्थान, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रहालय में विद्यमान है। यह टीका केवल १९ पद्यों तक ही है, २०वें पद्य की टीका अपूर्ण है। जिस प्रकार का पाण्डित्य जिनवल्लभ ने इस ग्रन्थ में दिखाया है उसी प्रकार का श्रीवल्लभ का पाण्डित्य इस टीका में दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक शब्द को सिद्ध करने के लिए श्रीवल्लभ ने पद-पद पर अष्टाध्यायी के सूत्र और धातुपाठ का उद्धरण देते हुए उपयोग किया है वैसे ही कोषों में अभिधान चिन्तामणि नाममाला, अमरकोष तथा वैजयन्ती कोष का प्रयोग, एकाक्षरी कोषों में सौभरी एवं अमरचन्द्र के कोष का प्रयोग, अनेकार्थी कोषों में मुख्यतः हेमचन्द्रसूरि रचित अनेकार्थ संग्रह, महेश्वर कवि रचित विश्वप्रकाश, श्रीधर रचित विश्वलोचन, हलायुध कोष इत्यादि का उद्धरण देकर कविप्रयुक्त शब्द की सार्थकता सिद्ध करते हुए मुक्त रूप से प्रयोग किया है। व्याकरण ग्रन्थों में पाणिनि के अतिरिक्त कातन्त्र, बुद्धिसागर, हेमचन्द्रीय धातुपारायण, देव और सुभूतिचन्द्र का भी किया है। देव और सुभूतिचन्द्र का व्याकरण ग्रन्थ कौनसा है ज्ञात नहीं है। इस काव्य श्लोक छ: का 'केन जेत्रा' उत्तर वीराज्ञाविनुदतिपापम् शब्द के चार अर्थ भी इनकी नैसर्गिक प्रतिभा के द्योतके हैं। इसी प्रकार श्लोक १० की व्याख्या और श्लोक ११ की व्याख्या भी पठनीय एवं मननीय है। विस्तार भय से यहाँ केवल उल्लेख मात्र किया गया है। इस टीका में भी कवि का मातृभाषा प्रेम ओझल नहीं हुआ है। स्थान-स्थान पर इति भाषा कहकर राजस्थानी शब्दों का भी प्रयोग किया है।
श्रीवल्लभोपाध्याय की विशिष्ट शैली के कारण यह टीका भी विद्वद्भोग्या बन गई है। विद्वद्-भोग्या होने पर भी सामान्य पाठक भी इसका अध्ययन कर इसके हार्द को समझ सकते हैं। भाषा प्राञ्जल है, शैली सरल और सरस है, साथ ही लेखक के हृदय के भाव को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करती है।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि इस टीका की अपूर्ण प्रति ही हमें प्राप्त हुई। यदि किसी भण्डार में इसकी पूर्ण प्रति प्राप्त हो जाए तो सूचना मिलने पर हम इसे पूर्ण भी प्रकाशित करने का प्रयत्न करेंगे।
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