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श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः स्तुतिरेषा कृता श्रीमजयसागरपाठकैः। यमकस्रग्विणीछन्दोमयी साधारणार्हताम्॥६॥ केनाऽपि विदुषा सार्द्धं विवादादजितार्हतः। वर्णना वर्णिता त्यक्त्वा वास्तवार्थं यथामति॥७॥ नवरसरसादित्यसंख्ये (१६६९) वर्षे सदासुरौ। श्रीमद्योधपुरे राज्ये सूरिसिंहमहीपतेः॥८॥ स्तुतिवृत्तिरियं शश्वद् वाच्यमाना कवीश्वरैः। ' नन्दताच्छारदादेवीप्रसादाजगतीतले॥९॥
साधारण जिनस्तुति की नामविशेष तीर्थङ्कर की रचना सिद्ध करने में कवि ने जिनागमों का प्रचुर उल्लेख किया है, जिनमें प्रमुख-प्रमुख हैं- अनुयोगद्वार सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, उपासकदशाङ्ग, दशवैकालिकसूत्र, नन्दीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, बृहत्कल्पसूत्र टीका, भगवतीसूत्र, समवायाङ्गसूत्र और स्थानाङ्ग सूत्रों का भी उद्धरण प्रदान किया है। इसके अतिरिक्त व्याकरण, काव्य, कोष, निघण्टु आदि के लगभग ४० ग्रन्थों के उद्धरण देते हुए, स्तुति के प्रत्येक अक्षर एवं शब्दों के श्रीवल्लभ ने जो नवीन-नवीन अर्थों की कल्पना की है वह वस्तुतः अनुपम है और इनके प्रगाढ-पाण्डित्य की द्योतक है।
६. श्रीशान्तिनाथ विषमार्थस्तुतिटीका 'वाराणं वरणं रणं रणरणं वारारणं वीरणम्' शब्दालंकृत, शार्दूलविक्रीडित छन्द में ग्रथित, यमक-श्लेषगर्भित ४ पद्यों की यह साधारण जिनस्तुति है। इस स्तुति का कर्ता अज्ञात है। टीकाकार ने भी कर्ता के विषय में कोई संकेत नहीं दिया है। पूर्वोक्त अजितनाथ स्तुति की तरह ही इस साधारणजिन स्तुति को श्रीवल्लभ ने अपनी वैदग्ध्य एवं चमत्कारपूर्ण शैली द्वारा शान्तिनाथ की स्थापना कर टीका की रचना की है। अजितनाथ स्तुति टीका की शैली में श्रीवल्लभोपाध्याय की यह दूसरी व्याख्या है। इसका रचनाकाल भी अनुमानतः वि. सं. १६६९ के आसपास का ही संभव है। एकाक्षरी-अनेकार्थी कोषों, अनेक व्याकरणों के उणादिसूत्रों और धातुपाठों के आधार से प्रत्येक शब्द के वैचित्र्यपूर्ण अर्थों का प्रतिपादन इस व्याख्या में किया गया है।
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