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________________ भूमिका 1 जयसागरोपाध्याय इस परम्परा के नायक रहे हैं । पन्द्रहवीं शताब्दी इनका समय है । कवीश्वर श्री जयसागरोपाध्याय के सम्बन्ध में श्रीवल्लभ कहते हैंइनकी यमकमय ५०० स्तुति स्तोत्रों की रचना की थी । उसमें से एक स्तुति है साधारण जिनस्तुति । साधारण जिनस्तुति के मूल अर्थ का परिहार करके अजितनाथ भगवान् की स्तुति सिद्ध करते हुए भिन्न-भिन्न नवीनार्थों द्वारा व्याख्याद्वय की रचना की है। इस रचना का उल्लेख करते हुए प्रशस्ति में लिखा है कि संवत् १६६९ में जोधपुर में महाराज सूरसिंह के राज्यकाल में श्रीवल्लभ का किसी विद्वान् के साथ वाद-विवाद हुआ था । उसी शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में श्रीवल्लभ ने पूर्वोक्त साधारण जिनस्तुति का मूलार्थ परिहार कर व्याख्याद्वय की रचना की थी। टीका के आद्यन्त प्रशस्ति से स्पष्ट है । [ आदि ] [अन्त] १. सन्ध्यभावः अपाणिनीयः Jain Education International - श्रीमन्तमजितं नुत्वा श्री श्रीवल्लभवादिभिः । वास्तवार्थं परित्यज्य नवीनोऽर्थः प्रकाश्यते ॥ १ ॥ स्तुतेरजितनाथस्य द्वितीयस्य जिनेशितुः । यमकस्रग्विणीछन्दःकृताया जयसागरैः ॥ २ ॥ सर्वतीर्थकृतामेषा साधारणा स्तुतिः खलु । तथाप्यजितनाथस्य ज्ञेया भिन्नार्थतो बुधैः ॥ ३॥ श्रीजिनेश्वरसूरीन्द्राद्यः ख्यातः शोभतेतराम् । नित्योत्कृष्टक्रियाचारो गच्छः खरतराभिधः ॥ १॥ युगप्रधान आभाति जिनचन्द्रस्तदीश्वरः । अकब्बरशिलेमाख्य- साहिदत्तघनादरः ॥ २ ॥ तच्छिष्यः साम्प्रतं सम्यग् युवराजं भुनक्त्य[ पि ] | वादिद्विरदसिंहो यो जिनसिंहः स सूरिराट् ॥ ३ ॥ तयो राज्ये कृता वृत्तिः स्तुतेः श्री अजितार्हतः । ज्ञानविमलपाठकशिष्यः श्रीवल्लभाभिधैः ॥ ४॥ अत्र वृत्तौ बुधैर्ज्ञेयं व्याख्याद्वयमनिन्दितम् । यदशुद्धं भवेत्तद्धि शोध्यं सम्यक्कृपापरैः ॥ ५ ॥ For Personal & Private Use Only 47 www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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