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________________ भूमिका १३. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल इस वादस्थल में सारस्वतव्याकरण एवं पाणिनीयादि प्रमुख - प्रमुख व्याकरणों के आधार से चौदह स्वरों की स्थापना की गई है। किसी 'कूर्चालसरस्वतीविरुदं मन्यमानः ' प्रतिवादी ने अनुभूतिस्वरूपाचार्य कृत सारस्वतव्याकरण के 'अ इ उ ऋ ऌ समाना: ' और ' ए ऐ ओ और सन्ध्यक्षराणि' सूत्रों के अनुसार स्वर नव ही हैं, स्थापना की । उसे श्रीवल्लभ ने पञ्चविकल्पों की स्थापना कर, सारस्वत, पाणिनिव्याकरण, कलाप, कातन्त्र, सिद्धहेमशब्दानुशासन, सिद्धान्तचन्द्रिका, पाणिनीयशिक्षा आदि व्याकरण और अमरकोष, अनेकार्थसंग्रह, विश्वप्रकाश, हलायुध, वर्णनिघण्टु आदि कोष तथा नरपतिजयचर्यादि ज्योतिष ग्रन्थों का आधार लेकर, सारस्वत व्याकरण की दृष्टि से ही ऋ और ऌ के दीर्घ का अभाव मानते हुए १४ स्वरों की स्थापना कर, प्रतिवादी के मत को निरस्त किया है। इसीलिये श्रीवल्लभ ने इस कृति का नाम भी चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल रखा प्रतीत होता है, जैसा कि इसकी अवतरणिका से स्पष्ट है:सन्ति स्वराः के कति च प्रतीताः, सारस्वतव्याकरणोक्तयुक्त्या । समस्तशास्त्रार्थविचारवेत्ता, कश्विद् विपश्चित् परिपृच्छतीति ॥ २ ॥ पुरातनव्याकरणाद्यनेक, ग्रन्थानुसारेण सदादरेण । तदुत्तरं स्पष्टतया करोति, श्रीवल्लभः पाठक उत्सवाय ॥३॥ यह वाद किस प्रतिवादी के साथ हुआ ? कहाँ पर हुआ ? किसकी सभा में या अध्यक्षता में हुआ ? इस कृति से ज्ञात नहीं होता । 51 यह रचना गच्छनायक श्रीजिनराजसूरि (श्रीजिनराजसूरीन्द्रे धर्मराज्यं विधातरि प्र. प. १) के धर्मराज्य में हुई है और इसमें कवि श्रीवल्लभ ने उपाध्याय पद का प्रयोग किया है। श्रीजिनराजसूरि को आचार्य पद सं० १६७४ में प्राप्त हुआ था। अतः इसका रचनाकाल १६७४ के पश्चात् का ही है । इस कृति में मातृभाषा प्रेम स्पष्ट रूप से प्रकट होता है । व्याकरण जैसे शुष्क और कठिन विषय में भी आइड़ा भे भाइड़ा कहकर अपने जन्म प्रदेश की ओर संकेत किया गया प्रतीत होता है । १४. चतुर्दशगुणस्थान स्वाध्याय यह स्वाध्याय (सज्झाय) भाषा में गुम्फित है । इसमें १४ गुणस्थानों का क्रमशः वर्णन है। इसके २३ पद्य है । यह श्रीवल्लभ मुनि अवस्था की प्रारम्भिक कृतियों में से है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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