________________
38
श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः दोदोष्टि दुष्टेषु कदापि नो यस्तोतोष्टि शिष्टेषु जनेषु नित्यम्। शेश्लेष्टयभीष्टान् विदुषोऽनगारान्, रोरोष्टि ना रुष्टजने शिवोऽव्यात्॥६८॥"
यह प्रशस्ति मेरे द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित हो चुकी है।
हैमलिंगानुशासनदुर्गपदप्रबोध टीका
श्रीहै मचन्द्रचार्यप्रणीत लिङ्गानुशासन के स्वोपज्ञ विवरण पर 'दुर्गपदप्रबोध' नामक टीका की रचना श्रीवल्लभ ने आचार्य जिनचन्द्रसूरि एवं उनके पट्टधर श्रीजिनसिंहसूरि के धर्मराज्य में विचरण करते हुये वि० सं० १६६१ कार्तिक शुक्ला सप्तमी को जोधपुर में नृपति सूरसिंह के विजयराज्य में ९० से अधिक ग्रन्थों का उद्धारण देते हुये २००० ग्रन्थ परिमाण में की।
वृत्ति की रचना मूल लिङ्गाशासन पर नहीं की गई है ! इसमें 'विद्यते या शुभा वृत्तिस्तस्य दुर्गार्थबोधदः' [प्र. प. १०] से स्पष्ट है कि आचार्य हेमचन्द्र का ही जो लिङ्गानुशासन पर स्वोपज्ञ विवरण है, उसमें जिन जिन स्थानों में दौर्गम्य या काठिन्य है उन ही स्थलों पर इसमें विवेचन किया गया है। इसीलिये इस व्याख्या का नाम श्रीवल्लभने 'दुर्गपदप्रबोध' रखा है।
श्रीवल्लभ ने विवेच्य शब्दों का विवेचन और लिङ्गनिर्वचन, विशदता एवं प्रामाणिकता के साथ किया है।
संस्कृत शब्दों का व्यवहार देश्य शब्दों में किस प्रकार होता है इसको दिखलाने के लिये श्रीवल्लभ ने प्रायः 'इति भाषा, लौकिके' कहकर १५०० शब्दों के लगभग राजस्थानी शब्द इस टीका में दिये हैं । यह टीका अमी सोम जैन ग्रन्थमाला, बम्बई द्वारा सन् १९४० में प्रकाशित हो चुकी है।
अभिधानचिन्तामणिनाममाला सारोद्धार टीका __ आचार्य हेमचन्द्रप्रणीत अभिधानचिन्तामणिनाममाला पर श्रीवल्लभ ने सं. १६६७ में जोधपुर में, महाराज श्री सूरसिंहजी के राज्यकाल में सारोद्धार नामक विस्तृत टीका की रचना पूर्ण की:
तथा योधपुरद्रङ्गे सूरिसिंहनरेशितुः। ___ राज्ये च वत्सरे सप्तषष्टिषट्चन्द्रसम्मिते॥७॥ सारोद्धारप्रशस्तिः
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org