________________
भूमिका
यह टीका बहुत ही प्रौढ और विशाल है। इसमें टीकाकार ने शब्दों के पर्यायमात्र देने एवं प्रचलित शब्दों की साधनिका देने के चक्र में न फँसकर, विशिष्ट शब्दों की सिद्धि, व्युत्पत्ति, लिङ्गनिर्वचन तथा भूरिशः ग्रन्थों के उद्धरणों द्वारा टीका को स्पष्ट और सरस बनाने का प्रयत्न किया है । शाब्दिकसिद्धि और लिङ्गभेदादि के कारण शाब्दिक प्रयोगों को ध्यान में रखते हुये, इस टीका में श्रीवल्लभ ने अन्य ग्रन्थों के विपुलता के साथ उद्धरण दिये हैं। व्याख्या में लगभग एक सौ सत्तर १७० ग्रन्थों के उद्धरण प्राप्त होते हैं।
इस टीका में भी श्रीवल्लभ ने हैमलिङ्गानुशासन दुर्गपदप्रबोध एवं निघण्टुशेष टीका के समान ही 'इति प्रसिद्धे' कहकर लगभग २५०० शब्दों के राजस्थानी भाषा के रूप प्रदान किये हैं।
इस टीका से श्रीवल्लभ की प्रौढ एवं बहुमुखी प्रतिभा, शब्द-व्युत्पत्तिज्ञान एवं कोश, काव्यादि ग्रन्थों के विशाल ज्ञान का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है। दुर्भाग्य है कि इस प्रकार की महत्त्वपूर्ण टीका साहित्यजगत् में अभी तक प्रकाश में नहीं आई है।
इस सारोद्धार में काण्ड ६ पद्य १७१ की व्याख्या में संवत् शब्द का उदाहरण देते हुए सिद्धहेमकुमारसम्वत् का उल्लेख किया है जो ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्व का है। इससे यह तो निश्चित है कि इस सिद्धहेमकुमारसम्वत् का नाम-प्रचलन १७वीं शती के उत्तरार्द्ध तक अवश्य था। तदनन्तर तो सम्भवतः इस नाम का उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता।
इस टीका की अनेकों प्रतियाँ बड़ा ज्ञान भण्डार, बीकानेर, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर एवं शारदा कार्यालय, बीकानेर आदि स्थानों पर प्राप्त हैं। कई विद्वान् लोग इसका सम्पादन कर रहे हैं किन्तु अभी तक अप्रकाशित है।
शेषसंग्रहनाममाला दीपिका कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरिणीत शेषसंग्रह नाममाला पर श्रीवल्लभ ने 'श्रीवल्लभी' नामक दीपिका की रचना वि० सं० १६५४ भाद्रपद कृष्ण ८ को, महाराज रायसिंह के राज्यकाल में बीकानेर में की है। संवत् के उल्लेख वाली रचनाओं में श्रीवल्लभ की यह सर्वप्रथम रचना है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org