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________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः में बड़े विलक्षण ढंग से रचना की। इससे भी स्पष्ट है कि इनके हृदय में साम्प्रदायिक भावों का लवलेश भी नहीं था, अपितु वे सहृदय एवं उदारमना थे। विहार और शिष्य-परम्परा इनके ग्रन्थों के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि इनका बाल्यजीवन और प्रौढावस्था का समय नागौर, बीकानेर, जोधपुर, बलभद्रपुर आदि राजस्थान के नगरों में ही व्यतीत हुआ है। किन्तु विजयदेवमाहात्म्य और संघपतिरूपजीवंशप्रशस्ति को देखते हुये यह कल्पना की जा सकती है कि कवि श्रीवल्लभ वृद्धावस्था में सं० १६७५ के आसपास गुर्जर देश पहुँचे और वहीं पर 'संघपतिरूपजीवंशप्रशस्तिकाव्य' एवं आचार्य विजयदेव के चारित्र और तप से आकृष्ट होकर विजयदेवमाहात्म्य की रचना की। इसलिये बहुत संभव है कि इनकी वृद्धावस्था वहीं पूर्ण हुई हो और सं० १६८७ के पश्चात् कुछ ही वर्षों में इनका स्वर्गवास भी उसी गुर्जर प्रदेश में हुआ हो। सबसे बड़ी आश्चर्य की वस्तु यह है कि श्रीवल्लभोपाध्याय की शिष्यपरम्परा चली हो-ऐसा प्रतीत नहीं होता और न इस सम्बन्ध में किसी प्रकार के उल्लेख ही मिलते हैं । अथवा इनके स्वयं के शिष्य हों तो भी यह निश्चित है कि इनकी परम्परा दीर्घकाल तक नहीं चली। अन्यथा उनमें से कोई तो विद्वान् आदि होता, जिनका कोई न कोई उल्लेख अवश्य मिलता। साहित्य सर्जना “The works of the commentator Shri Shrivallabhupådhyaya prove him to be an expert in the science of lexicography.... He was a master in that field.” - आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजय, निघुण्टुशेष प्रस्तावना पृ०६ उपाध्याय श्रीवल्लभ न केवल प्रामाणिक टीकाकार ही हैं अपितु महाकवि भी हैं। जहाँ ये व्याकरण, एकार्थी तथा अनेकार्थी कोश साहित्य के उद्भट विद्वान् हैं वहाँ ये चित्रकाव्यों के आचार्य भी हैं । जहाँ इनमें संस्कृत भाषा की प्रौढता और प्राञ्जलता दृष्टिगोचर होती है वहाँ पर इनमें राजस्थानी शब्द भण्डार की सुमधुर शब्दावली भी देखते में आती है। जहाँ इनके ग्रन्थों में ऐतिहासिक स्तोत्र प्राप्त होते हैं, वहाँ वैदुष्यप्राप्ति के साधन स्रोत भी प्राप्त होते हैं। इन्होंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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