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भूमिका
27 यदन्यगच्छप्रभवः कविः किं, मुक्त्वा स्वसूरि तपगच्छसूरेः।
कथं चरित्रं कुरुते पवित्रं, शङ्केयमार्न कदापि कार्या॥ आत्मार्थसिद्धिः किल कस्य नेष्टा, सा तु स्तुतेरेव महात्मनां स्यात्। आभाणकोऽपि प्रथितोऽस्ति लोके, गङ्गा हि कस्यापि न पैतृकीयम्॥
तस्मान्मया केवलमर्थसिद्धयै, जिह्वापवित्रीकरणाय यद् वा। इति स्तुतः श्रीविजयादिदेवः, सूरिस्समं श्रीविजयादिसिंहैः॥ ____ अर्थात् - अन्य (खरतर) गच्छवाला कवि अपने गच्छ के आचार्य को छोड़कर तपागच्छ के आचार्य का चरित्र कैसे बनाता है, यह शङ्का विद्वान् मनुष्यों को न लानी चाहिए, क्योंकि आत्मसिद्धि किसे अभीष्ट नहीं है ?-सभी को इष्ट है । यह आत्मसिद्धि महात्माओं की स्तुति द्वारा होती है, और महात्माओं के लिये यह कोई नियम नहीं है कि वे अमुक पन्थ या समुदाय में ही उत्पन्न हुआ करते हैं और यह भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है कि अमुक मतानुयायी अमुक ही महात्माओं की स्तवना करे। जैसे गङ्गा किसी के बापकी नहीं है- सबही उसका अमृतमय जल का पान कर सकते हैं- वैसे महात्मा भी किसी के रजिस्टर्ड नहीं किये हुए हैं। सब ही मनुष्य अपनी-अपनी इच्छानुसार उनके गुणगान कर उन्नति कर सकते हैं। इसलिये मैंने खरतरगच्छानुयायी होकर भीअपनी जिह्वा को पवित्र करने के लिये तपागच्छ के महात्मा श्री विजयदेवसूरि
और उनके शिष्य विजयसिंहसूरि का यह पवित्र चरित्र लिखा है । इस विषय में किसी को उद्वेगजनक विकल्प करने की जरूरत नहीं है। वाह ! वाह ! कैसी उदार दृष्टि और गुणानुराग!। यदि केवल इन्हीं ३ पद्यों का स्मरण और वर्तन हमारा आधुनिक जैन समाज करे तो थोड़े ही दिनों में यह उन्नति के शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। शासनदेव वह दिन शीघ्र दिखावें। (पृ० ८२-८४)
उपाध्याय श्रीवल्लभ के उदार हृदय का परिचय देने वाली एक घटना और भी है। श्वेताम्बर जैनों में एक गच्छ है जिसका नाम है उपकेश गच्छ। श्रीवल्लभजी के समकालीन उपकेशगच्छनायक श्रीसिद्धसूरि ने चाहा कि उनके गच्छ के नाम की एक सुन्दर और प्रामाणिक व्युत्पत्ति हो जाय।' इस पर उन्होंने श्रीवल्लभजी से आग्रह किया। इस पर उन्होंने इस आग्रह को स्वीकार कर 'ओकेश-उपकेश पदद्वयदशार्थी' की सं० १६५५ में विक्रमनगर (बीकानेर)
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