SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः जिस समय तपागच्छ के साधु खरतरगच्छ के आचार्यों की प्रशंसा करना तो दूर, उनकी कीर्ति का श्रवण करना भी अच्छा नहीं समझते थे और इसी प्रकार खरतरगच्छ के साधु भी तपागच्छ के प्रभावक पुरुषों का कीर्तिगान करने में सकुचाते थे, उस समय समयसुन्दरजी ने पार्श्वचन्द्रगच्छीय पूँजा ऋषि का गुणवर्णन मुक्तकण्ठ से किया है तथा खरतर, तपा, अंचल इन तीनों गच्छों के आचार्यों का सुललित पद्यों में भट्टारक तीन भए बड़ीभागी' कहकर गुणगान किया है, जो तत्कालीन समग्र साहित्य में अपवाद रूप ही समझना चाहिए। ऐसे समय में तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य विजयदेवसूरि के चारित्रिक गुणों से प्रभावित होकर कवि श्रीवल्लभ ने १९ सर्गात्मक विजयदेवमाहात्म्य नामक महाकाव्य की रचना कर अपनी मध्यस्थता, उदारता, विशालहृदयता का परिचय दिया है। इसके सम्बन्ध में मुनि जिनविजयजी 'विज्ञप्ति-त्रिवेणी' की प्रस्तावना में लिखते हैं: 'श्रीवल्लभोपाध्याय की कृतियों में से एक कृति बड़ी ध्यान खींचने लायक है। इसका नाम है विजयदेवमाहात्म्य। इसमें तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्री विजयदेवसूरि का सविस्तार जीवन-चरित्र वर्णन किया गया है। (ध्यान में रहे कि चरित्रनायक और चरित्रलेखक दोनों समकालीन हैं और विजयदेवसूरि अपने माहात्म्य के निर्माण के समय में विद्यमान थे।) उस समय परस्पर साम्प्रदायिक विरोध इतना बढ़ा हुआ था कि एक गच्छ वाले दूसरे गच्छ के प्रतिष्ठित व्यक्ति के गुणानुवाद करना तो दूर, परन्तु श्रवण में भी मध्यस्थता नहीं दिखला सकते थे। अर्थात् तपागच्छवाले खरतरगच्छीय व्यक्ति के प्रति अपना बहुमान नहीं दिखा सकते थे और खरतरगच्छानुयायी तपागच्छ के प्रसिद्ध पुरुष की प्रशंसा करते दिल में दुःख मनाते थे। ऐसी दशा में, खरतरगच्छीय एक विद्वान् उपाध्याय के द्वारा तपागच्छ के एक आचार्य के गुणगान में बड़ा ग्रन्थ लिखा जाना अवश्य आश्चर्य उत्पन्न करता है। समाज की यह विरोधात्मक प्रकृति, श्रीवल्लभ पाठक के ध्यान से बाहर न थी। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि मेरे इस भिन्न गच्छ के आचार्य की प्रशंसा और स्तवना करने वाले इस ग्रन्थ के लिखनेरूप कार्य से बहुत दुराग्रही और स्वसाम्प्रदायिक असन्तुष्ट होकर मुझ पर कटाक्ष करेंगे। इसलिये उन्होंने ग्रन्थ के अन्त में संक्षेप में परन्तु असरकारक शब्दों में लिख दिया है कि: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy