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________________ भूमिका चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल तो स्पष्टतः वाद की कृति ही है । इसमें किसी कूर्चालसरस्वतीविरुदधारक प्रतिपक्षी द्वारा स्थापित मान्यता का परिहार कर १४ स्वरों की स्थापना की गई है। यह वाद सं० १६७४ के पश्चात् कहीं पर हुआ है 1 25 इस प्रकार हम देखते हैं कि १६६७ के पूर्व से लेकर १६७४ के पश्चात् तक श्रीवल्लभ ने कई विद्वद्गोष्ठियों में और कई शास्त्रार्थों में भाग लिया है और वहाँ अपने वैदुष्य की पूर्ण रूपेण प्रतिष्ठा की है। अतः अपने नाम के साथ वादी विशेषण श्रीवल्लभ के लिये सार्थक ही प्रतीत होता है । विशालहृदयता उस समय १७वीं शताब्दी में खरतरगच्छ और तपागच्छ में विधिवाद विषयक विवाद प्रबलवेग से चल रहा था और उसमें दोनों गच्छों के प्रमुख - प्रमुख व्यक्ति भाग ले रहे थे। इधर तपागच्छ की ओर से उपाध्याय धर्मसागर, नेमिसागर, लब्धिसागर आदि और खरतरगच्छ की ओर से महोपाध्याय धनचन्द्र, महो. साधुकीर्त्ति, उ. जयसोम, उ. गुणविनय, मतिकीर्त्ति आदि लगे हुये थे। यही नहीं, किन्तु सब गच्छों के माननीय शान्तमना महर्षि महोपाध्याय समयसुन्दर जैसे भी अपने ग्रन्थो में प्रतिपक्षीओ के प्ररूपित प्रश्नों को सरलतापूर्वक खण्डन कर स्वगच्छ की आचरणाओं का मण्डन कर रहे थे । इन दो गच्छो के विवाद के अलावा अन्य गच्छोके भी विवाद समय समय पर होते रहे । सब कोई अपने मतको पुष्ट करके अपनी परम्परा, अपने भक्तवर्ग पर प्रभुत्व जमाकर रखते थे । परन्तु तत्कालीन गच्छनायकों की चातुरी से समाज तो छिन्न-भिन्न नहीं हुआ । ऐसे विक्षेप के समय में 'वादी' होते हुए भी श्रीवल्लभ का इन प्रपञ्चों में फँसना प्रतीत नहीं होता और न किसी ग्रन्थ में इनका इस विषय में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है । अत: यह निश्चित है कि श्रीवल्लभ दोनों गच्छों के संघर्ष में तटस्थ ही रहे थे। किसी प्रकार के वादों में पड़कर स्वसमय को नष्ट करना नहीं चाहते थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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