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श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः 'श्रीवल्लभ उपाध्यायः, मं. ४; श्रीवल्लभः पाठक-सर्ग १९, प. २०३' 'श्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते' प्रान्तपुष्पिका में, विजयदेवमाहात्म्य
अतः यह निश्चित है कि श्रीवल्लभ को सं. १६७४ के पश्चात् श्रीजिनराजसरि ने उपाध्याय पद प्रदान किया था। वादी
श्रीवल्लभ ने कई स्थलों पर अपने नाम के साथ वादी विशेषण का प्रयोग भी गौरव के साथ किया है। इसका सर्व प्रथम उल्लेख सं० १६६७ में रचित अभिधानचिन्तामणिनाममाला टीका की प्रशस्ति पद्य ११ में वाचनाचार्यो वादिश्रीवल्लभोऽदृभत्' प्राप्त होता है। दूसरा उल्लेख सं. १६६९ में रचित अजितनाथ स्तुति टीका में मङ्गलाचरण में 'श्रीश्रीवल्लभवादिभिः' और प्रान्तपुष्पिका में 'वादिश्रीश्रीवल्लभगणिविरचिता' मिलता है। सं. १६६७ में या इसके पूर्व कहां, किसके साथ और किस विषय पर इनका विवाद-शास्त्रार्थ हुआ? कोई संकेत नहीं मिलता है।
सं. १६६९ में रचित अजितनाथस्तुति टीका में लिखा है - किसी विद्वान् के साथ विवाद हो जाने से साधारण जिन स्तुति के वास्तविक अर्थ को त्याग कर, अजितनाथ स्तुति के रूप में नवीनार्थद्योतक टीका की मैंने यथामति रचना की है:
__ केनापि विदुषा सार्द्ध विवादादजिनार्हतः। वर्णना वर्णिता त्यक्त्वा वास्तवार्थं यथामति॥७॥
महाराजा सूरसिंहजी के राज्यकाल में जोधपुर में यह रचना हुई है। अत: अनुमान है कि यह विवाद जोधपुर में ही हुआ हो।
मेरे विचारानुसार, 'विद्वत्प्रबोध' की रचना भी ऐसे ही किसी शास्त्रार्थ के रूप में ही कवि ने की हो ! कवि स्वयं लिखता है:- 'बलभद्रपुर में बलभद्र के राज्य में, विशिष्ट विद्वद्गोष्ठी में मेधावियों के अभिमान का नाश करना ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है:
विद्वद्गोष्ठयां विशिष्टायां सञ्जातायां प्रयोजनम्।
एतद्ग्रन्थस्य मेधाव्यभिमानोन्मथनाय वै॥३॥ हालांकि इस कृति में वादी शब्द का प्रयोग नहीं है 'वाचनाचार्यधुर्यश्री श्रीवल्लभगणीश्वरैः' शब्दों का गौरव के साथ प्रयोग किया है।
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