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श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः श्रीवल्लभ को विद्वान् और युक्तायुक्तविवेचक अवश्य कहा है किन्तु श्रीवल्लभ के साथ किसी पद का उल्लेख नहीं किया है।
श्रीवल्लभ की संवत् के लेख वाली प्रथम प्रौढ रचना 'शेषसंग्रहनाममालाटीका' है। इस टीका की पूर्णाहुति ज्ञानविमलीय शब्दप्रभेद की रचना के ठीक २१ दिन बाद अर्थात् १६५४, श्रावण कृष्णा अष्टमी को हुई है। इसकी रचना प्रशस्ति में 'गुरूणामन्तिषदाणुना श्रीवल्लभेन (१८)' लिखा है। ऐसे ही इसी वर्ष की इनकी दूसरी प्रौढ रचना 'हैमनाममालाशिलोच्छ-टीका' है। इसकी रचना तिथि सं० १६५४, चैत्र कृष्णा सप्तमी है। इसमें भी श्रीज्ञानविमलपाठकसत्पादाम्भोजचञ्चरीकेण श्रीवल्लभेन, (१९) लिखा है। अर्थात् नाम के साथ किसी पद का उल्लेख नहीं है। किन्तु दोनों ग्रन्थों की प्रशस्तियों में पदोल्लेख न होते हुये भी, दोनों ग्रन्थों में प्रत्येक काण्ड की प्रान्तपुष्पिकाओं में 'वाचनाचार्य श्रीवल्लभगणिविरचितायाम्' वाचनाचार्य एवं गणिपद का उल्लेख प्राप्त होता है। सं० १६५५ की लिखित एवं श्रीवल्लभ द्वारा संशोधित हैमनाममालाशिलोञ्छ की प्रति भी प्राप्त है, इसकी प्रान्तपुष्पिका में वाचनाचार्य एवं गणिपद का उल्लेख है। अतः यह मानना असंगत न होगा कि सं० १६५४ में ही या इसके १-२ वर्ष पूर्व ही इनको वाचनाचार्य एवं गणिपद प्राप्त हो गया था।
सं० १६५५ में रचित ओकेश-उपकेशपदद्वयदशार्थी में 'पण्डित श्रीवल्लभगणि' उल्लेख है। इसी प्रकार बिना संवत् के उल्लेखवाली दो और रचनाएँ हैं, जिनमें 'खचरानन पश्य सखे खचर' पद्य की व्याख्या में 'विद्वछ्रीवल्लभाह्वो, पण्डित श्रीवल्लभगणि' तथा अत्यन्त प्रौढरचना सहस्रदलकमलबद्ध 'अरजिनस्तव' की स्वोपज्ञ टीका में श्रीवल्लभेन गणिना (४) उल्लेख मिलता है। अर्थात् इन तीन कृतियों में पण्डित, विद्वान् और गणि का उल्लेख तो प्राप्त है किन्तु वाचनाचार्य या वाचक का उल्लेख नहीं है।
अतः यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि सं० १६५४ की रचनाओं में वाचनाचार्य का उल्लेख होने पर भी सं० १६५५ की रचना में केवल 'गणि' का उल्लेख ही क्यों कर लेखक ने किया? मेरी समझ में तो वाचनाचार्य होने पर भी लेखक ने स्वाभाविक प्रवाह में स्वयं को गणि लिखा है। क्योंकि अनेक
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