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भूमिका बात न होकर ४००० शब्दों का केवल राजस्थानी प्रयोग, उसमें भी आंचलिक शब्दावली का व्यवहार इन्होंने किया है, जो बाल्यपन के संस्कार के बिना भाषा में नहीं आ सकते। अत: मेरे विचारानुसार जब तक कोई दूसरा पुष्ट प्रमाण प्राप्त न हो, तब तक भाषा के आधार पर इन्हें राजस्थानी मानने में किसी को संदेह नहीं होना चाहिये।
जन्म-संवत् - दीक्षा समय के प्रसंग में मैंने, अनुमानतः सं० १६३०४० के मध्य में इनका दीक्षाकाल माना है। अतः दीक्षा के पूर्व इनकी अवस्था १०-१२ वर्ष की भी मानी जाय तो इनका जन्म समय सं० १६२०-१६२५ के मध्य में माना जा सकता है।
दीक्षा-संवत् - खरतरगच्छालङ्कार आचार्यप्रवर श्रीजिनमाणिक्यसूरि के पट्टधर, सम्राट अकबर द्वारा प्रदत्त युगप्रधान विरुदधारक आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने अपने ५८ वर्ष के विशद गणनायक आचार्य काल में ४४ नन्दिओं (नामान्तपदों) की स्थापना की थी। इसमें २६वीं संख्या की नन्दी वल्लभ' नाम की है। इन ४४ नन्दिओं में से १६वीं नन्दी सिंह की स्थापना सं० १६२३ में हो चुकी थी। अत: अनुमानतः 'वल्लभ' नन्दी की स्थापना सं० १६३० एवं १६४० के मध्यकाल में हुई होगी। इस अनुमान का मुख्य कारण एक यह भी है श्रीवल्लभ ने सं० १६५४ में हैमनाममालाशिलोञ्छ और शेषसंग्रहनाममाला पर टीकाओं की रचना की। इसी वर्ष इनके गुरु ज्ञानविमलजी ने भी शब्दप्रभेदटीका पूर्ण की जिसमें श्रीवल्लभ सहायक थे। किसी भी ग्रन्थ पर लेखनी चलाने के लिये विशेषकर व्याकरण एवं कोष पर, विशेष अध्ययन और योग्यता की अपेक्षा है। अतः प्रौढ़ एवं पाण्डित्यपूर्ण टीका निर्माण के लिये दीक्षा के पश्चात् १५-२० वर्ष का समय तो अवश्य ही अपेक्षित है। इस लिये यह अनुमान युक्तिसंगत ही होगा कि यु. जिनचन्द्रसूरि ने सं० १६३० और १६४० के मध्य में आपको दीक्षा प्रदान कर श्रीवल्लभ नाम प्रदान किया हो।
टीकाकार श्रीवल्लभोपाध्याय श्रीवल्लभरचित मौलिक एवं टीकाग्रन्थों का अवलोकन करने से इनके विषय में जो कुछ जानकारी मिलती है, वह इस प्रकार है:
श्री ज्ञानविमलोपाध्याय ने सं. १६५४, आषाढ शुक्ला द्वितीया को रचित शब्दप्रभेद-टीका में 'विद्वच्छ्रीवल्लभाह्वस्य युक्तायुक्तविवेचिन:' (२०),
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