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श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः प्रदान कर दिया था। इस भू-मण्डल पर ये कब तक विद्यमन रहे, कोई संकेत प्राप्त नहीं होता है। श्री हेमचन्द्राचार्य ज्ञान भण्डार पाटण की शब्दप्रभेद टीका की प्रति से स्पष्ट है कि सम्वत् १६५७ तक यह विद्यमान थे क्योंकि यह प्रति इन्हीं के उपदेश से लिखी गई थी। इस टीका के अतिरिक्त ज्ञानविमलोपाध्याय की अन्य कोई कृति भी प्राप्त नहीं है। शिष्य-परम्परा
ज्ञानविमलोपाध्याय के तीन शिष्य थे - १. श्रीवल्लभोपाध्याय २. ज्ञानसुन्दर ३. जयवल्लभ। श्रीवल्लभ का जन्म स्थान
जन्मस्थान - अभिधानचिन्तामणिनाममाला की सारोद्धार नामक टीका, हैमलिङ्गानुशासन-विवरण दुर्गपदप्रबोध नामक टीका एवं निघण्टुशेष टीका आदि स्वप्रणीत टीका ग्रन्थों में श्रीवल्लभ ने स्थान-स्थान पर, पद-पद पर 'इति भाषा' 'इति लोके' इति प्रसिद्धे' शब्द से शब्दों के पर्याय देते हुये, राजस्थान में रूढ़ प्रचलित शब्दों का व्यापक रूप से उल्लेख किया है। इन टीकाग्रन्थों में लगभग ४००० भाषा शब्दों का उल्लेख है। इन शब्दों का मैंने स्वतन्त्र रूप से संग्रह कर लिया है जो शीघ्र ही 'राजस्थानी-संस्कृत शब्दकोश' के नाम से प्रकाशित होने वाला है।
उदाहरणार्थ कुछ शब्द देखिये:
तावडा, कलाइणि, तेडण, ऊकरडओ, ओलम्भओ, ओलखाण-पिछाण, कवा, खेजड़ी, सांगरी, चलू, लूगड़ा आदि। अतः यह निश्चत रूप से कहा जा सकता है कि श्रीवल्लभ का जन्म एवं बाल्यकाल राजस्थान प्रान्त में व्यतीत हुआ है। साथ ही रूढ शब्दों के प्रयोग से यह भी अधिक संभव है कि राजस्थान में भी जोधपुर राज्य इनका जन्मस्थान रहा हो।
यहाँ यह प्रश्न अवश्य ही विचारणीय हो सकता है कि श्रीवल्लभ जैन मुनि थे। मुनि होने के कारण विचरण करते रहते थे। फिर भी इनके जीवन का अधिकांश भाग राजस्थान प्रदेश में ही व्यतीत हुआ है। अतः निरन्तर जनसम्पर्क के कारण इनकी भाषा में राजस्थानी शब्दों का प्रयोग अधिक हुआ हो। किन्तु ध्यान देने की बात यह है कि कतिपय राजस्थानी शब्दों के प्रयोगों की
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