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भूमिका 'साहाय्यकारी गणिरत्नचन्द्रः' इससे स्पष्ट है कि संवत् १५०३ तक इन्हें गणिपद प्राप्त हो चुका था। वाड़ी पार्श्वनाथ मन्दिर पाटण में विद्यमान संवत् १५२१ में लिखित सिद्धहेम लक्षण बृहद्वृत्ति की प्रशस्ति में इनके लिए उपाध्याय शब्द का प्रयोग किया गया है। सम्भवतः १५२१ के पूर्व ही जिनभद्रसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया होगा।
इनके शिष्य श्री भक्तिलाभोपाध्याय हुए जिनकी प्रमुख रचनाएँ बालशिक्षाव्याकरण और कल्पान्तर्वाच्य आदि प्राप्त है।
भक्तिलाभ के तीन शिष्य हुए- उपाध्याय चारित्रसार, भावसागरगणि और चारुचन्द्र वाचक। जिनमें से दो के उल्लेख मात्र प्राप्त होते हैं कोई कृति प्राप्त नहीं होती। केवल वाचक चारुचन्द्र की उत्तम कुमार चरित्र आदि रचनाएँ (१५७२-१५९८) तक प्राप्त हैं। उपाध्याय चारित्रसार के शिष्य उपाध्याय भानुमेरु हुए। इनका भी कोई परिचय प्राप्त नहीं है। केवल शब्दप्रभेद टीका प्रशस्ति और श्रीवल्लभोपाध्याय रचित अनेक ग्रन्थ प्रशस्तियों में दो शिष्यों का नाम मिलता है- तेजोरङ्गगणि और उपाध्याय ज्ञानविमल। शेषसंग्रह नाममाला टीका के अनुसार विक्रम संवत् १६५४ तक तेजोरङ्गगणि विद्यमान थे।
ज्ञानविमल उपाध्याय श्रीवल्लभ के गुरुवर्य ज्ञानविमलोपाध्याय हुए। इनके सम्बन्ध में भी कोई परिचय प्राप्त नहीं होता है किन्तु इन्होंने १६५४ में रचित शब्दप्रभेद टीका प्रशस्ति पद्य में स्वयं के लिए 'ज्ञानविमलपाठकश्रेष्ठैः' पाठकश्रेष्ठ विशेषण का प्रयोग किया है। अतः यह निश्चित है कि १६५४ के पूर्व हो युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने इन्हें उपाध्याय पद प्रदान कर दिया था। संवत् १६५७ की लिखित शब्दप्रभेद टीका (हेमचन्द्राचार्य ज्ञान भण्डार, पाटण) के अनुसार १६५७ तक विद्यमान थे ही।
टीकाकार ज्ञानविमलोपाध्याय का परिचय देते हए इनके जन्म और दीक्षा के सम्बन्ध में प्रारम्भ में ही विचार किया जा चुका है। ज्ञानविमल ने सम्वत् १६५४ में स्वरचित शब्दप्रभेदटीका प्रशस्ति पद्य १९ में स्वयं के लिए 'ज्ञानविमलपाठकश्रेष्ठैः' पाठकश्रेष्ठ विशेषण का प्रयोग किया है, अत: निश्चित है कि सम्वन १६५४ के पूर्व ही युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने इन्हें उपाध्याय पद
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