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भूमिका
साहित्य पर एकाधिपत्य, विशाल एवं गहन अध्ययन, प्रौढपाण्डित्य एवं वैचारिकी गरिमा का दर्शन स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है। इस व्याख्या की विशेषतायें निम्नाङ्कित हैं:
१. प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति धातुपाठ और व्याकरण-सूत्रों द्वारा प्रदान की है।
२. सिद्धहेमशब्दानुशासन, इसी का उणादि और धातुपाठ का समस्त स्थलों पर उपयोग किया है और कतिपय स्थलों पर पाणिनीय, चान्द्र और इन्द्रादि व्याकरणों का भी प्रयोग किया है। शब्द-साधन में मतान्तर होने पर अन्य आचार्यों के विचारों को भी ग्रहण किया है।
३. लिङ्ग-निर्वचन और शब्द-प्रयोग की उपयोगिता को ध्यान में रखकर, अनेक नामकोष, निघण्टु, आयुर्वेद, धर्मशास्त्र एवं व्याकरण आदि के ४५ ग्रन्थ तथा ग्रन्थकारों के अभिमत उद्धृत कर अपने मन्तव्य को पुष्ट किया है, इससे इस व्याख्या की प्राञ्जलता दीप्तिमती हो उठी है। (ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों के नाम परिशिष्ट में द्रष्टव्य हैं)
४. उद्धृत ग्रन्थों में विक्रमादित्यकोष (पृष्ठ-३), इन्द्र (पृष्ठ-६३) एवं चन्द्र (पृ० ६३) प्रणीत कोषों के उद्धरण मिलते हैं। ये तीनों कोष सम्भवतः आज प्राप्त नहीं है।
५. मूलगत शब्दों की व्याख्या के साथ ही आचार्य हेमचन्द्रप्रणीत अभिधानचिन्तामणिनाममाला और शेषसंग्रहनाममाला में आगत शाब्दिक पर्यायों को छोड़कर, १७वीं शती के प्रचलित शब्दों के सहस्राधिक नवीन पर्याय दिये हैं। इन नवीन शब्द-पर्यायों में अनेकों ऐसे शब्द हैं जिनका साहित्य में प्रयोग कदाचित् ही देखने में आता है। यह ग्रन्थ एल.डी.इन्स्टीट्यूट से प्रकाशित हो चुका है।
हैमनिघण्टुशेषटीका यह टीका आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी द्वारा सुसम्पादित होकर लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद से सन् १९६८ में प्रकाशित हो चुकी है।
श्रीवल्लभ ने अपनी अभिधानचिन्तामणिनाममाला की सारोद्धार टीका (र. सं. १६६८) में काण्ड ४ पद्य २०८ की व्याख्या करते हुए लिखा है:
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