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________________ श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः "रायणिनामानि श्रीहेमचन्द्राचार्यकृतहैमनिघण्टुशेषोक्तानि ज्ञेयानि। तद्यथा राजादने तु राजन्या आदि। एतेषां व्युत्पत्तिस्तु अस्मत्कृतनिघण्टुशेषटीकातो ज्ञेया॥" इस अवतरण से स्पष्ट है कि इस टीका की रचना सं. १६६७ के पूर्व ही श्रीवल्लभ ने कर दी थी। इस टीका में भी श्रीवल्लभ ने संस्कृत शब्दों के राजस्थानी रूप ६०० से भी अधिक दिये हैं। सारस्वतप्रयोगनिर्णय नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें सारस्वत व्याकरणस्थ कतिपय शब्दों के प्रयोग का निर्णय किया गया है। इसकी रचना श्रीजिनराजसूरि के राज्य में (सं. १६७४-१६९०) में हुई है। साहित्यरसिक श्री अगरचन्द्रजी नाहटा की सूचनानुसार इसकी २३ पत्रात्मक एक मात्र प्रति भावहर्षीय खरतरगच्छ ज्ञानभण्डार, बालोतरा' में थी। दुःख है कि बालोतरा का ज्ञानभण्डार अस्त-व्यस्त होकर बिक चुका है। स्थूलिभद्र एकत्रीसो यह ३१ पद्यात्मक भाषा कृति श्रीसाराभाई मणिलाल नवाब के संग्रह में सं० १६५८ में श्रीमहिमासागरलिखित गुटके में प्राप्त है। प्रस्तुत संकलन इस संकलन में १४ लघुकृतियों का संकलन किया गया है। इसीलिए इस ग्रन्थ का नाम श्रीश्रीवल्लभीयचतुर्दशलघुकृति समुच्चय रखा है। १. मातृकाश्लोकमाला ___ इस श्लोकमाला की रचना वि० सं० १६५५ चैत्र मास में बीकानेर में हुई है। इसमें दो परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में २७ पद्य हैं। तथा अन्त में रचना प्रशस्ति में ६ पद्य हैं । प्रथम परिच्छेद में अ से झ तक २५ वर्गों में आदिनाथ से महावीरस्वामी तक के चौवीसों तीर्थङ्करों की स्तवात्मक वर्णना है और द्वितीय परिच्छेद में ब से लेकर क्ष तक २६ वर्गों में विष्णु, महेश, ब्रह्मा, कार्तिकेय, गणेश, सूर्य, चन्द्र, कुबेर, इन्द्र, शेष, मुनिपति, यम, राम, लक्ष्मण, वन, समुद्र आदि भिन्न-भिन्न पदार्थों की वर्णना है। श्रीवल्लभ ने कुल ५१ वर्णों की वर्णमाला स्वीकार की है, स्वर १६ और व्यञ्जन ३५ । स्वरों में- अ. आ. इ. ई. उ. ऊ. ऋ ऋ. ल. ल. ए. ऐ. ओ. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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