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भूमिका
औ. अं. अः, तथा व्यञ्जनों में-क. ख. ग. घ. ङ, च. छ. ज. झ. ञ, ट. ठ. ड. ढ. ण, त. थ. द. ध. न, प. फ. ब. भ. म, य. र. ल. व, श. ष. स. ह, ल्ल और क्ष का समावेश किया है।
वर्णमाला की प्रसिद्धि मातृका के नाम से प्रसिद्ध है। मातृकाक्षरों से सम्बन्धित रचना होने के कारण इसका नाम मातृकाश्लोकमाला रखा गया है। प्रत्येक मातृकाक्षर, प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण (पाद) के प्रारम्भ में गम्फित किया गया है। अर्थात् प्रत्येक में प्रत्येक वर्णमाला का ४ बार प्रयोग हुआ है। उदाहरण के लिये लवर्ण का प्रयोग देखिये:
लतकनतजनानां मङ्गलानि प्रदेया, लूफिडकपटहारी सार्व चन्द्रप्रभ त्वम्। लतनययतिराज्या गीतविख्यातकीर्त्ति
लरिव विशदतेजाः केवलज्ञानभास्वान्॥११॥ आशुता से काव्यकलाभ्यासी को प्रवीणता प्राप्त हो, यह इस रचना का उद्देश्य है।
श्रीवल्लभ की प्रारम्भिक रचना होने पर भी इस कृति में प्रौढता, और काव्यगरिमा सर्वत्र लक्षित होती है। ५९ पद्यों की रचना में श्रीवल्लभ ने शार्दूलविक्रीडित, अनुष्टुप्, उपजाति, मालिनी, द्रुतविलम्बित, दोधक, स्वागता, हरिणप्लुता, वसन्ततिलका, हरिणी, इन्द्रवज्रा, आर्या, आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया है। कवि ने इसमें त्र और ज्ञ का प्रयोग नहीं किया है। संभवतः संयुक्ताक्षर मानने के कारण इसका त्याग कर दिया। मराठी ल्ल कार का प्रयोग अवश्य ही अङ्कित है।
२. विद्वत्प्रबोधकाव्य स्वोपज्ञ टीका सह
श्रीवल्लभ ने विद्वत्प्रबोध की रचना बलभद्रपुर (संभव है उसे ही आजकल बालोतरा कहते हैं जो जोधपुर प्रदेश में पचपदरा के पास है) में बलभद्र नामक शासक की विशिष्ट विद्वत्सभा (गोष्ठी) में मेधावियों के अभिमान का मन्थन करने के लिये और विद्वानों की वैदुष्यवृद्धि के लिये रचना की है। लेखक ने स्वयं के लिये 'वाचनाचार्यधुर्यश्री-श्रीवल्लभगणीश्वरैः' विशेषणों का प्रयोग किया है। लेखक ने प्रशस्ति में रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है। फिर भी
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