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________________ 15 भूमिका जयसागर महोपाध्याय श्री जयसागरजी के लघुभ्राता (गृहस्थावस्था के) संघपति महीपति ने स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र लिखवाया था, उसकी २९ पद्यात्मक लेखन-प्रशस्ति की रचना वि०सं० १५०६१ में स्वयं जयसागरोपाध्याय ने की है। इस प्रशस्ति की प्रतिलिपि स्व० अनुयोगाचार्य श्री बुद्धिमुनिजी से श्री अगरचन्दजी नाहटा ने प्राप्तकर मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रन्थ में 'महोपाध्याय जयसागर' नामक निबन्ध में इस प्रशस्ति को प्रकाशित किया है। स्वरचित इन प्रशस्ति से उपाध्यायजी की पूर्वावस्था के पूर्वजों, भ्राताओं तथा उनके परिवार एवं सत्कृत्यों पर महत्त्वपूर्ण विशद प्रकाश पड़ता है। इस प्रशस्ति और आबू खरतरवसही (५३५-५५५ खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह) के लेखों के आधार से इनका वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है: उक्त प्रशस्ति में आधार से इस परिवार के सक्रियाकलापों का वर्णन निम्नांकित है: १. संघपति आसिग (आसराज), धर्मशाला, तीर्थयात्रा, उपाध्याय पद-स्थापन और स्वधर्मीवात्सल्यादि कृत्यों में द्रव्य व्यय कृतार्थ हुआ था। (पद्य १६) २. सं० १४८६ में बृहद्भ्राता जयसागरोपाध्याय की अध्यक्षता में मण्डलिक ने शत्रुञ्जय, गिरनार महातीर्थों की संघ सहित यात्रा की और संघपति पद प्राप्त किया। (प० १७) ___३. सं० १५०३ में पुन: जयसागरोपाध्याय के सान्निध्य में संघपति मण्डलिक ने शत्रुञ्जय और रैवतक तीर्थ की संघ सहित यात्रा की। मण्डलिक के साथ मालाक और महीपति ने भी संघपति पद प्राप्त किया। (प० १८-१९) ४. सं० मण्डलिक और उसकी भार्या रोहिणी, सं० माला और उसकी भाषा मांजू तथा सं० महीपति और उसकी भार्या मणकाई, अर्थात् सपत्नीक तीनों भाइयों ने मिलकर अर्बुदगिरि शिखर (आबू) पर चौमुखा प्रसाद का निमार्ण करवाया। (प० १९-२२) अर्बुदादिशिरस्युच्चस्ते प्रासादं चतुर्मुखम् । भ्रातरः कारयन्ति स्म त्रयो मण्डलिकादयः ।। २२ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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