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श्रीश्रीवल्लभीय-लघुकृति-समुच्चयः इस पद्य में कारयन्ति स्म' क्रियापद से स्पष्ट है कि सं० १५०६ के पूर्व ही इस मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण हो गया था। संभावना है कि कुछ अज्ञात कारणों से उस समय इसकी प्रतिष्ठा न हो सकी हो। प्राप्त मूर्तिलेखों से स्पष्ट है कि सं० १५१५ आषाढ वदि १ को जिनभद्रसूरि के पट्टधर जिनचन्दसूरि ने इसकी प्रतिष्ठा करवाई थी। यही तिमंजिला चौमुखा प्रासाद, वर्तमान समय में खरतरवसही के नाम से प्रसिद्ध है।
५. रैवतगिरि तीर्थ पर महावीर स्वामी के मन्दिर में देवकुली का निर्माण करवाया। (पद्य २८)
६. मण्डलिक, मालाक और महीपति तीनों भाई श्री जिनभद्रसूरि के उपदेशामृत का पान किया करते थे। (पद्य २७)
७. संघपति महीपति ने स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र की प्रति लिखवाई।
सं० आसराज और उनका परिवार किस प्रदेश का निवासी था इस पर प्रशस्ति या मूर्तिलेखों से कोई प्रकाश नहीं पड़ता है। अस्तु।
श्री जयसागरोपाध्याय उपकेशज्ञातीय दरडागोत्रीय' सा० आसिग (आसाक, आसराज) के पुत्र थे। इनकी माता का नाम सोखू था। आसराज के ८ पुत्र थे जिनमें इनका तीसरा स्थान था। इनका नाम था जिनदत्त। इन्होंने बाल्यावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी। दीक्षा नाम जयसागर था।
श्री जिनराजसूरि का स्वर्गवास सं० १४६१ में हो गया था। जयसागरजी जिनराजसूरि के ही शिष्य थे अतः इनका दीक्षाकाल १४६० के पूर्व ही मानना चाहिये। 'बाल्येऽप्यग्रहीद् व्रतम्' वाक्य से ही यह निश्चित है कि दीक्षा के समय इनकी अवस्था ८ से १२ के मध्य अवश्य होगी अतः इनका जन्म-समय १४४५-१४५० के मध्य में होना चाहिए।
जयसागरजी के दीक्षा गुरु थे जिनराजसूरि और विद्यागुरु थे जिनवर्द्धनसूरि। ' इन्होंने जिनवर्द्धनसूरि से ही लक्षण, साहित्यादि ग्रन्थों का अध्ययन किया था। इनको उपाध्याय पद २ श्री जिनभद्रसूरि ने प्रदान किया था। जिनराजसूरि के करकमलों से आचार्य पद प्राप्त सागरचन्द्रसूरि ने जिनराजसूरि के पट्टधर जिनवर्द्धनसूरि को, जिन पर देवी का प्रकोप हो गया था, गच्छ की उन्नति के निमित्त पट्ट से उतार कर वि० सं० १५७५ में जिनभद्रसूरि को स्थापित
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