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भूमिका
किया था । जिनवर्द्धनसूरि से खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा का प्रादुर्भाव हुआ था। इनकी योग्यता को देख कर ही १४७५ या इसके आस - पास ही जिनभद्रसूरि ने इनको उपाध्याय पद दिया होगा। क्योंकि सं० १४७३ में कीर्तिराज साधु ने जैसलमेर के पार्श्वजिनालय के प्रशस्ति की रचना की थी, जिसका संशोधन श्री जयसागरजी ने किया था । ३ इस प्रशस्ति में इनके लिये 'वा० जयसागरगणिना' का प्रयोग मिलता है और जैसलमेर के ही शान्तिनाथ मन्दिर के प्रशस्ति की रचना सं० १४७३ चैत्र शुक्ल १४ को स्वयं जयसागरजी ने की थी। इसमें भी स्वयं के लिए 'वा० जयसागरगणिविरचिता प्रशस्तिरियं ' वाचनाचार्य का उल्लेख किया है तथा सं० १४७८ में स्वप्रणीत पर्वरत्नावली में अपने को उपाध्याय पद से व्यक्त किया है ।
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आचार्य जिनभद्रसूरि ने जो ग्रन्थोद्धार का महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ किया था उसमें इनका सहायक रूप से पूर्ण सहयोग था । इन्होंने भी अपने उपदेशों से बहुत से ग्रन्थ लिखवाये एवं शुद्ध किये, जो जैसलमेर, पाटण आदि भण्डारों में आज भी उपलब्ध हैं ।
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वि० सं० १५११ में लिखित 'श्रीजयसागरोपाध्याय रचित प्रशस्ति' ६ से इनके सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है, वह इस प्रकार है:
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"उज्जयन्तगिरि पर संघपति नरपाल ने 'लक्ष्मीतिलक' नामक मन्दिर बनवाना प्रारम्भ किया उस समय श्री अम्बिका देवी इनको प्रत्यक्ष हुई। सेरीषक ग्राम में, पार्श्वनाथ मन्दिर में शेषनाग पद्मावती सहित इनको प्रत्यक्ष हुआ था । मेदपाटदेशस्थ नागद्रह (नागदा ) के नवखण्डा पार्श्वनाथ चैत्य में सरस्वती देवी इन पर प्रसन्न हुई थी। श्री जिनकुशलसूरि आदि देवता भी इन पर प्रसन्न थे। श्री जयसागरोपाध्याय ने पूर्व में राजद्रह नगर, उद्दण्डविहारादि, उत्तरदिशा में नगरकोटादि स्थान, और पश्चिम दिशा में वलपाटक, नागद्रह आदि स्थानों की राजसभाओं में भट्टादि अनेक वादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजय प्राप्त की थी। ××××××××× इन्होंने अनेकों उपासकों को संघपति पद प्रदान किया था और उनके शिष्यों को पढ़ाकर विद्वान् बनाया था । "
खरतरगच्छ की परम्परानुसार ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध, वयोवृद्ध एवं गीतार्थ स्थविर को महोपाध्याय पद से अभिहित किया जाता था, जो अपने समय में
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