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________________ भूमिका इन प्रशस्तियों के आधार पर यदि इनका वंशवृक्ष बनाया जाय तो इस प्रकार होगा: जिनराजसूरि जयसागरोपाध्याय रत्नचन्द्रोपाध्याय मेघराज' सोमकुञ्जर सत्यरूचि आदि सत्यरुचि आदि भक्तिलाभोपाध्याय चारित्रसारोपाध्याय भावसागरगणि चारुचन्द्रवाचक भानुमेरु उपाध्याय जीवकलश कनककलश ज्ञानविमलोपाध्याय तेजोरंग गणि श्रीवल्लभोपाध्याय जयवल्लभ ज्ञानसुन्दर श्रीवल्लभोपाध्याय खरतरगच्छ की सुविशाल परम्परा में श्रीजिनराजसूरि (प्रथम) के प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय जयसागर की परम्परा में हुए हैं । उपाध्याय जयसागरजी का समय १५वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १६वीं सदी का प्रारम्भ का है। ये जयसागरोपाध्याय चौमुखजी मन्दिर आबू के निर्माता मन्त्री मण्डलीक के भ्राता थे। अतः इस सम्बन्ध में जो ऐतिहासिक प्रशस्ति प्राप्त हुई है उसका यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है। यह स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र लेखन प्रशस्ति स्वयं जयसागरोपाध्याय द्वारा संवत् १५०६ में रचित है स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र-प्रशस्ति स्वस्ति सर्वास्तिमन्मुख्यः, ऊकेशः ज्ञातिमण्डनः । पद्मसिंहः पुरा जज्ञे, खीमसिंहस्ततः क्रमात् ।। १ ।। खीमणिर्दयिता तस्य हरिपालस्तदङ्गभूः। निविष्टं यन्मनः पूष्णि श्राद्धधर्ममयं महः ।। २ ।। दसाजकान्हड़ी भोज वीरभावासिगस्तथा। बड्याकश्च सर्वेऽपि षडमी हरिपालजाः ।।३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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