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________________ भूमिका प्रस्तुत संग्रह में सौभरिकृत जो 'एकाक्षर नाममाला' मुद्रित हुई है उसके व्यक्षरकाण्ड में कण, काण, कणु, कणौ आदि अनेक ऐसे संयुक्ताक्षर वाले एकस्वरीय शब्दों का संग्रह किया है जो अन्य संग्रहों में खास करके नहीं मिलते। इसमें अनेकानेक ऐसे संयुक्ताक्षर-युक्त एकस्वरीय शब्द हैं जिनका उच्चारण भी कठिन और विलक्षण प्रतीत होता है। कुछ की ध्वनि में तो ह्रा, ही, भ्रा, भ्री, स्रा, स्त्री आदि मन्त्राक्षरों जैसा आभास होता है, परन्तु कोषकार ने इनको मन्त्राक्षरों के बीज रूप में नहीं लिखा है, विचित्र शब्दध्वनि वाले शब्दों के रूप में संकलित किया है। ग्रन्थों में ऐसे शब्दों का प्रयोग प्रायः नहीं-सा उपलब्ध होता है । तथापि कोषकार के इन शब्दों का अपने कोश में संकलन करने का कोई शास्त्राधार अवश्य रहा होगा और इसलिये उसने इन्हीं शब्दों को अपनी रचना में विशेष रूप से संगृहीत किया है। सौभरिकवि-संकलित इन विचित्र शब्दों का आधार लेकर उक्त श्रीवल्लभगणि ने संग्रहान्तर्गत अन्तिमकृति विद्वत्प्रबोध का गुम्फन किया है। इसमें उन्होंने सौभरि के संकलित क्वण, क्वाण आदि बहुत से विचित्र शब्दों का सार्थक उपयोग कर दिखाने की चेष्टा है। यद्यपि है यह केवल कुतूहल प्रदर्शक रचना, तथापि संस्कृत भाषा के शब्द-सामर्थ्य का इससे बोध होने जैसा है। यह रचना अर्थक्लिष्ट एवं शुष्क-पद्य-प्रबन्ध रूप है, इसलिये रचयिता ने स्वयं इसके क्लिष्ट शब्दों का अर्थ बोध कराने के लिये संक्षिप्त टिप्पण भी साथ में लगा दिये हैं।" इसी 'एकाक्षरनामकोष संग्रह' पुस्तक की भूमिका लिखते हुये जैन पण्डित पं. लालचन्द्र भगवान् गान्धी ने (पृ. २३) पर लिखा है: "यह एक अपूर्व विशिष्ट विद्वद्गम्य, अद्भुत संस्कृत काव्य है। इस एकाक्षरी कोशसंग्रह में इसका सुसम्बद्ध आवश्यक स्थान है। इस संग्रह में चतुर्थ क्रमाङ्क में सौभरिकृत व्यक्षरनाममाला प्रकाशित हुई है, उसमें प्रदर्शित विविध अर्थवाले संयुक्तवर्णों को प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण में प्रयुक्त कर इस चमत्कृतिकर रसिक काव्य की रचना कवि ने की है। संस्कृत साहित्य में यह अद्वितीय कहा जाय, ऐसा काव्य है। शायद ही इस पद्धति को अन्य काव्य विद्वानों ने देखा होगा।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004049
Book TitleVallabhiya Laghukruti Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2012
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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