Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदिर आ.श्री. कैलासागर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोला उत्तर भारत में जैनधर्म मूल लेखक चिमनलाल जैचंद शाह एम. ए. हिन्दी अनुवादक कस्तूरमल बांठिया सेठ श्री सरवारमलजी मुनोत रौंया वाला कुचामन सिटी (राजस्थान) के आर्थिक सहयोग से मुद्रित 1990 For Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर भारत में जैन धर्म ( ई. पू. 800 से ई. प. 526 ) अंग्रेजी में लेखक : चिमनलाल जैसिंह शाह, एम. ए., श्रामुख लेखक पादरी एच. हेरास, एस. जे. डाइरेक्टर, इण्डियन हिस्टोरिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, सेंट क्जेवियर्स कालेज, बम्बई हिन्दी अनुवादक : कस्तूरमल बांठिया यमुना नगर (पंजाब) तारीख 9-6-59 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक | सेवा मन्दिर रावटी जोधपुर, 342 024 संस्करण | प्रथम प्रवेश वर्ष | विक्रम संवत् 2047 वीर संवत् 2516 शक संवत् 1912, ईस्वी सन् 1990 प्रति | 1000 पृष्ठ 240 श्राकार | रॉयल आक्टेव (20 x 30 आठ पेजी) प्राधिक सौजन्य - श्री नौरत्नमलजी सरदारमलजी मुनोत रियांवाले रुपये 15000 मूल्य कागज (20 x 30 क्रीम वोब) 31 रीम छपाई व प्रूफ रीडिंग 30 फर्मे x 170 जिल्द बंधाई व भाड़ा इत्यादि अन्य व्यय 6200.00 5100.00 5700.00 कुल व्यय बाद अनुदान 17000.00 15000.00 लागत 2000.00 एक प्रति का विक्रय मूल्य 2.00 (पुस्तक विक्रेता अपना नफा खर्चा अतिरिक्त लेगा) बितरक | सत्साहित्य वितरण केन्द्र सेवा मन्दिर रावटी जोधपुर, 342 024 मुद्रक | श्याम प्रिन्टिग प्रेस त्रिपोलिया स्ट्रीट, धासमण्डी रोड, जोधपुर इस पुस्तक पर किसी भी प्रकार का अधिकार प्रकाशक ने स्वाधीन नहीं रखा है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्थिक सहयोगी सेठ श्री सरदारमलजी मुनोत रियांवाला कुचामन सिटी (राजस्थान) SAR -: संक्षिप्त परिचय : Presita-CA आपका जन्म राजस्थान के नागौर जिले के अन्तर्गत कुचामन सिटी मे 75 वर्ष पूर्व हुमा । आप श्रीमान् सेठ श्री तेजमलजी मुनोत के द्वितीय सुपुत्र हैं। आप बहुत ही सरल प्रकृति शान्त स्वभावी हंसमुख व्यक्ति हैं । सभी संत सतियों के प्रति आपकी गहरी श्रद्धा है। समाज के हर कार्य में आप व आपका परिवार हमेशा अग्रसर रहते हैं । आपके पांच सुपुत्र दो सुपुत्री एव दस पौत्रों का हराभरा सुखी परिवार है। आप एवं आपके परिवार के सदस्य कोई भी सामाजिक. शैक्षणिक, स्वास्थिक कार्य के प्रायोजन में हमेशा बड़ी दिलचस्पी से तन, मन व धन से पूरा करके ही बड़ा सन्तोष अनुभव करते हैं । आपका परिवार समाज की कई संस्थानों से जुड़ा हुआ है। आप अपने व्रत प्रत्याख्यान के पक्के दृढ़ श्रावक हैं। आपके पांचो सुपुत्र बम्बई में बिल्डिंग कन्स्ट्रकसन (भवन निर्माण) का व्यापार करते हैं। आप व आपके सुपुत्र अनेक समाज सेवी संस्थाओं को मुक्त हस्त से दान देते हैं। आप मारवाड़ के अढाई घरों में से एक घर कहलाने वाले रियां वाले सेठों के परिवार में जन्म लेने वाले एक पारिवारिक सदस्य हैं। इस परिवार ने जोधपुर एवं जयपुर राज घरानों की आर्थिक सहायता काफी मात्रा में की हैं और इसीलिए इस परिवार को सेठों की पदवी से सुशोभित किया था। और दरबार में हमेशा इस परिवार को सम्मान से देखा जाता था। भारत जैन महामण्डल का तीन वर्ष पूर्व बम्बई का अधिवेशन सफल बनाने में आपका पूर्ण योगदान रहा। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख श्री चिमनलाल जैसिंह शाह इण्डियन हिस्टोरिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट' के अग्रगण्य विद्यार्थियों में से एक हैं और उनका यह ग्रन्थ उनकी इस महान् संस्था की प्रतिष्ठा रूप ही सिद्ध होगा । श्री शाह धर्म से जैन हैं और उन्होंने अपनी गवेषणा का विषय जैन धर्म का प्राचीन इतिहास पसन्द किया जिसके अध्ययन के परिपाक रूप में इस ग्रन्थ की रचना हुई है। भारतवर्ष के सब महान् धर्मों के अवलोकन में जैन धर्म की अधिक उपेक्षा की गई है। इस ग्रन्थ में जैन धर्म के प्राचीन इतिहास में जो-जो ऐतिहासिक एवम् दंतकथा रूप में है वही सन्द्र नहीं दिखाया गया है, अपितु इस महान् धर्म के संस्थापक के सिद्धांत उनके शिष्यों के बीच हए मतभेद और उसके फलस्वरूप नए नए सम्प्रदायों के उद्भव, और उस बौद्ध-बंधूधर्म के साथ हए सतत संघर्ष का विवेचन भी इसमें किया गया है कि जिसके साथ इस देश में जन्म लेते हुए भी यह तो आज तक जीवित और टिका हा है और बौद्ध-धर्म का प्रायः नाम शेष ही हो गया है। श्री शाह के जैन धर्म के इस इतिहास में दो सीमाए देखने में आयेंगी--एक तो भौगोलिक और दूमरी कालक्रम की । दक्षिण-भारत में सर्वत्र जैन धर्म बहुत शीघ्र ही फैल गया था और वहां उसने ऐसे नए समाज की स्थापना कर ली थी कि जिसके न केवल गुरू ही दूसरे थे अपितु व्यवहार और विधि-विधान एवम् प्राचार-विचार भी भिन्न हो गए थे । संक्षेप में दक्षिण भारत के जैन धर्म का इतिहास उत्तर भारत के जैनधर्म के इतिहास में एक दम ही भिन्न है और वह अपनी भिन्न ऐतिहासिक इकाई बनाता है। इसीलिए श्री शाह ने अपने इस ग्रन्थ की भौगोलिक सीमा पार्यावर्त याने उत्तर भारत ही रखी है। श्री शाह की दूसरी सीमा काल सम्बन्धी है। उनका यह इतिहास ई. सन् 526 में समाप्त हो जाता है जब कि वल्लभी की सभा या परिषद में जैन धर्म के सिद्धांत का अन्तिम रूप निश्चय और स्थिर किया गया था। जैन धर्म के इतिहास में यह प्रसंग अत्यन्त महत्व का अवस्थान्तर निर्देशक था। इसके पूर्व जैनधर्म प्राथमिक मरल दशा में ही था। परन्तु वह दशा सिद्धान्त के संहिता-बद्ध किए जाने के पश्चात् एक दम ही विलय हो गई। इस काल के पश्चात् जैनधर्म नियत एवं स्थायी भाव धारण करता हा दीख पड़ता है और उसकी वास्तविकता एवम् सत्यप्रियता भी वह गुमाता जाता है। फिर भी श्री शाह ने गवेषणा के लिए प्राचीन समय ही पसन्द किया है क्योंकि वह इतिहास प्रति रोचक और संस्कृति की दृष्टि से बहत ही महत्व का है। प्राशा है कि इस ग्रन्थ की पद्धति के विषय में अत्यन्त सूक्ष्मदर्शी इतिहासवेत्ता को भी कुछ विशेष प्रापत्तिजनक बात मालूम नहीं होगी क्योंकि एक तो मनुष्य-कृति सम्पूर्णतया दोष रहित तो हो ही नहीं सकती है, और दूसरे श्री शाह की यह प्रथम रचना है. इन दोनों ही दृष्टि से यह सम्पूर्ण ग्रन्थ पाठकों और समालोचकों की उदारता का पर्याप्त पात्र होगा यह आशा है । फिर भी यह कहना आवश्यक है कि श्री शाह ने दूसरे विद्वानों का कहा अथवा प्रतिपादन किया हुआ देख कर ही संतोष नहीं कर लिया है क्योंकि तब तो वह स्वतन्त्र गवेषणा नहीं अपितु संग्रह मात्र ही हो या रह जाता । उन्होंने इस ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना करने में प्रत्येक मूल वस्तु का अध्ययन और मनन स्वयम् किया है, मतमतांतरों के गुण-दोषों का विवेचन किया है, मूल वस्तु की मूल वस्तु के साथ तुलना की है, और इस प्रकार अथक परिश्रम ले कर एक ऐतिहासिक की उचित निष्पक्ष दृष्टि से Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समालोचना करते हुए भारतवर्ष के इतिहास के एक अत्यन्त अन्धकाराविष्ट युग पर अत्यन्त सुन्दर रीति से प्रकाश डाला है। श्री शाह का यह ग्रन्थ 'इण्डियन हिस्टोरिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के भारतीय इतिहास का अभ्यास का छठा ग्रन्थ है। यह प्रकाशन उनके अनुगामियों संस्था के हाल के शोधस्नातकों को नवीन प्रोत्साहन देगा यही माशा की जाती है । भारतवर्ष के भूतकाल में अभी भी बहुत से अगम्य तत्व पड़े हैं जो कि भविष्य की प्रजा के कल्याण के लिए भारतवर्ष के भावी इतिहासकारों से अविरत परिश्रम की अपेक्षा रखते हैं इतिहासवेत्ता का कार्य सत्य की खोज करना ही है । यदि हम उसको एकाग्र, विशुद्ध और निष्पक्ष दृष्टि से अवलोकन या निरीक्षण करें तो सत्य स्वतः ही सदा प्रकट हो उठेगा और फिर वह सत्य स्वयम् हमारे प्रयासों की विजय-गाथा बन जाएगा । नारीख 15 जनवरी, 1931 एच. हेरास, एस. जे. डाईरेक्टर इण्डियन हिस्टोरिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, सेंट जेवियर्स कालेज बम्बई Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म से क्या अभिप्रेत है ? जैन धर्म का उद्भव अर्वाचीन खोजों की अपेक्षा अधिक प्राचीन होने के प्रमाण उत्तर भारत में जैन धर्म -: विषय सूची : पहला अध्याय - महावीर पूर्वोत्तर जैन धर्म पार्श्व और महावीर की ऐतिहासिकता पार्श्व की ऐतिहासिकता के प्रमाण बौद्ध साहित्य में जैन धर्म के प्रारम्भ के उल्लेख पार्श्व और महावीर के धर्म का संबंध हिन्दू साहित्य में जैन धर्म के उल्लेख जैन धर्म की प्रचीनता के संबंध में आधुनिक विद्वान पार्श्व के सम्बन्ध में अनेक विवरण पार्श्व के 250 वर्ष पश्चात् महावीर का श्रागमन भारत वर्ष में धर्म का महान प्रचार दूसरा अध्याय - महावीर और उनका समय (1) ब्राह्मणों का बढ़ता हुआ प्रभाव एवं जातिवाद के विशेष अधिकार महावीर और बुद्ध के प्राविर्भाव से धर्माधिकारी मण्डलों की सत्ता एवं कट्टर ज्ञातिवाद का अन्त सामान्य दृष्टि से जैन धर्म महावीर चरित्र भारत वर्ष की इस महान् क्रांति में ब्राह्मणों के प्रति तिरस्कार का प्रभाव जीवन-दृष्टि और भारतीय लोकमानस के इतिहास में सूक्ष्म परिवर्तन (2) -अपहरण या भ्रूण परिवर्तन 'महावीर के माता पिता पार्श्व के पूजक श्रौर श्रमणों के अनुयायी थे महावीर का साधु जीवन महावीर की नग्नावस्था और जैन शास्त्रों का अर्थ महावीर का दीर्घ विहार महावीर निर्वारण समय पृष्ठ 8 9 10 10 ENGL 11 12 13 14 16. ∞ ∞ 1 1 2 2 2 18 18 19 19 21 22. 22 2 2 2 2 2 2 2 23 24 25 27 28. 28 29 30 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) जैन धर्म की दृष्टि से सष्टि की उत्पत्ति जिन-जन धर्म के आध्यात्मिक नेता जीव, अजीव. पुण्य, पाप, प्राश्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष तीन रत्नों द्वारा मोक्ष सम्यग दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चरित्र मुक्त प्रात्मा-परमात्मा के सर्व लक्षगा अनुभव करती है तीर्थकर और केवली याने सामान्य सिद्ध तीर्थकर कौन ? अहिंसा का आदर्श सामायिक और प्रतिक्रमण दो प्रावश्यक क्रियाए स्याद्वाद या अनेकान्तवाद के सिद्धान्त जैन धर्म में पड़े हुए मुख्य भेद सात निण्हव-जामालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, छलुए और गोष्टा माहिल मंखलिपुत्त गोशाल-महावीर का मुख्य प्रतिस्पर्धी तत्कालीन भारतीय धार्मिक प्रवाह की महान तरंग में मंखलिपुत्त का स्थान डा. बरूया और गौशाल का प्राजीवक मत महावीर के संशोषित जैन धर्म पर गोशाल का प्रभाव गौशाल की मृत्यु तिथि ऐतिहासिक दृष्टि से भाजीविक जैन धर्म में अन्य महत्व के भेद जैन धर्म के श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय पंथभेद की विविध दंतकथाएं पंथभेद के समय के विषय में सामान्य एक्यता पंथभेद का मूल कारण : साधुता का आवश्यक लक्षण नग्नता है जैन और नग्नवाद दो प्रधान विषय जिनके विषय में दोनों एकमत नहीं हैं मथुरा के शिलालेख और यह महान पंथभेद ईसवी सन् के प्रारम्म तक ऐसे पंथभेद अस्तित्व में नहीं थे वल्लमी की परिषद के समय से हा अंतिम पंथभेद स्थानकवासी समाज और जैन धर्म के अन्य नाना मतभेद पंथभेदों का पागलपन जैनों की विशेषता जैन समाज आज भी क्यों जीवित है ? Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय राज्यवंशी कुटम्बों में जैन धम (ई.पू. 800 से ई.पू. 200 तक) पार्श्व का समय पावं के समय के लिए जैन साहित्य एकमात्र साधन पार्श्व के समय में राज्य प्राश्रय पार्श्व से नहावीर तक के समय का अज्ञान 250 वर्ष का अंधकार महावीर का समय उनका पिता सिद्धार्थ विदेह, लिच्छवियो, ज्ञात्रिको, वज्जि या लिच्छवी संघ के वज्जि मल्लकी जाति और काशीकोसल के गणराजानों के साथ उनके सम्बन्ध ये सब वंश एक या दूसरी रीति से महावीर के उपदेश के प्रभाव में पाए विदेही लिण्छवी ज्ञात्रिक वज्जि मल्लकी काशो कोसल के गणराज ) ( 2 जैन धर्म और सोलह महाजनपद मगध का साम्राज्य और जैन इतिहास में उसकी विशिष्टता मगध पर शासन करने वाले पृथक पृथक वंश और जैन धर्म शेशुनागवशं नन्दवंश मौर्य वंश 108 113 चौथा अध्याय-कलिग-देश में जैन धर्म 127 127 128 कलिंगदेश में जैन धर्म अर्थात् खारवेल के समय का जैन धर्म हाथी गुफा के शिलालेख ही खारवेल के एक ऐतिहासिक साधन हैं जैन इतिहास की दृष्टि से उड़ीसा का महत्व हाथीगुफा के शिलालेख के आस-पास के अवशेष उदयगिरि और खण्डगिरि के पर्वत ई.पू. दूसरी और तीसरी सदी की गुहाओं से व्याप्त है सत्धर, नवमुनि और अनन्त गुफा बारभुजा, त्रिशूल और लालटेण्डु-केशरी गुफा 129 130 130 131 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागी और गणेश गुफाएं जय विजय, स्वर्गपुरी सिंह और सर्प गुफाएं इन बिखरे इनेगिने खण्डहरों की ऐतिहासिक उपयोगिता पार्श्व को समर्पित श्राधिपत्य खण्ड गिरि की टेकरी पर का जैन मन्दिर हाथी गुफा का शिलालेख शिलालेख की आठवीं पंक्ति और खारवेल का समय शिलालेख की वस्तु खारवेल और कलिंगजिन कलिंग में जैन धर्म की प्राचीनता खारवेल और जैन धर्म पांचवां अध्याय - मथुरा के शिलालेख खारवेल के पश्चात् उज्जैन के विक्रमादित्य का समय विक्रम संवत और सिद्धसेन दिवाकर विक्रम के पूर्वज गर्दभिल्ल पौर कालिकाचार्य कालिकाचार्य और प्रतिष्ठानपुर का सातवाहन सिद्धसेन दिवाकर और उनका समय पादलिप्ताचार्य और इनके सम्बन्ध की दंतकथाएं जैन साहित्य की ऐतिहासिकता और विक्रम व उसके संवत् का अस्तित्व मथुरा के शिलालेख धीर जैन धर्म के विषय में उनकी उपयोगिता मथुरा के जैन लेखों का मूल कंकाली टीला मथुरा के क्षत्रपों सम्बन्धी शिलालेख संवत्वाले और संवत् रहित कुशान शिलालेख मथुरा के शिलालेख धौर जैन धर्म के इतिहास को दृष्टि से उनकी उपयोगिता छठा अध्याय - गुप्तकाल में जैन धर्म को स्थिति कुशान समय से गुप्तों के प्रागमन तक की ऐतिहासिक भूमिका गुप्त साम्राज्य का विस्तार गुप्त समय में धर्म की परिस्थिति जैनों के प्रति गुप्तों की सहानुभूति के शिलालेखी प्रमाण कुवलयमाला दंतकथा और गुप्तकालीन जैन इतिहास वल्लभयों का उदय धौर गुप्तों का प्रत वल्लभोवंश का चौथा राजा प्रवसेन के पूर्व का समय और जैन इतिहास के निर्दिष्ट समय का अंत 132 133 134 135 135 136 138 140 147 150 152 158 158 158 159 160 160 161 163 164 165 166 166 171 171 172 172 175 180 181 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 183 184 186 187 187 193 सातवां अध्याय-उत्तर का जैन साहित्य प्रास्ताविक विवेचन जैन सिद्धान्त 'श्वेताम्बर शास्त्रों के विषय में दिगम्बरों की मान्यता श्वेताम्बरों के लाभप्रद प्रतिपादन -चौदह पूर्व बारह मंग बारह उपांग दस पयन्ना या प्रकीर्णक छह छेदसूत्र चार मूलसूत्र दो चूलिका सूत्र जैन शास्त्रों की भाषा टीका साहित्य जो नियुक्ति नाम से परिचित है प्रयम टीकाकार भद्रबाहु महावीर के समकालीन धर्मदासगणि उमास्वामी और उनके ग्रन्थ सिद्धमेन दिवाकर और पादलिप्ताचार्य-जैन साहित्य के प्रभाविक ज्योतिर्थर 194 154 195 196 197 197 198 199 200 200 आठवां अध्याय-उत्तर में जैन कला 204 204 205 205 207 وا۔ स्थापत्य में जैन धर्म की विशिष्टता निदिष्ट युग के बाह्य के कितने ही स्थापत्य और चित्रकला के अवशेष निर्दिष्ट युग के अवशेष भारतीय कला की कितनी ही विशिष्टताएं उड़ीसा की गुफाएं-कला की दृष्टि से उनकी उपयोगिता जैनों में स्तूप-पूजा और मूर्तिपूजा मथुरा के अवशेष मथुरा के प्रायागपट देवों द्वारा निर्मित वोद्ध स्तूप मथुरा का तोरण स्थापत्य नेमेश की चातुर्यता दिखाने वाला सुशोभित शिल्प उपसंहार सामान्य ग्रन्थ सूची 210 211 213 214 215 217 218 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: मूलग्रन्थ की चित्र सूची :: 1. जैन धर्म के तेईसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ (13 वीं सदी की ताडपत्रीय हस्तलिखित कल्पसूत्र से) 2. समेत शिखर पर्वत पर श्री पार्श्वनाथ का निर्वाण ( वही3. जैनों के तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ (मथुरा) 4. नेगमेस द्वारा महावीर के गर्म का अपहरण बतानेवाली सुशोभित शिला (मथुरा) भगवान् महावीर तेरहवें वर्ष में शालवृक्ष के नीचे सर्व श्रेष्ठ केवल ज्ञान प्राप्त किया भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर 7. बराबर टेकरी की तोमश ऋषि की गुफा 8. गुरु हेमचन्द्राचार्य और उनका शिष्य राजा कुमारपाल 9. खण्डगिरि पर की जैन गुफा, उदयगिरि पर को रानी गुफा के उपरिभाग के केवाल का दृश्य 10. उदयगिरि पर की स्वर्गपुरी की गुफाएं 11. खण्डगिरि पर के जैन मन्दिर 12. महाराजा श्री हरिगुप्त का सिक्का 13. जुनागढ़ पर की बाबा प्यारामल की गुफाए 14. सचित्र जैन ग्रन्थ का हस्तलिखित उदाहरण 15. उदयगिरि पर की गणेश गुफा के उपरिभाग के केवाल का दृश्य. वहीं की राणी गुफा के छज्जे की एक किनार का भाग 16. ईटों का बना प्राचीन जैनस्तूप (मथुरा) 17. आयागपट अर्थात् पूजा की शिला (मथुरा) 18. शिवयशा द्वारा स्थापित पूजा की शिला (मथुरा) 19. जिन युक्त आयागपट-ई. पू. 1ली शती (मथुरा) 20. पामोहिनी द्वारा स्थापित पूजा की शिला (मथुरा) 21. मनुष्याकृतिवाले बाड़-स्थम्भ (मथुरा) 22. देव-निर्मित बौद्धस्तूप के कलाविधान का दृष्य 23. देवों और मनुष्यों द्वारा तीर्थकर को नमस्कार करना सूचित करते तोरण के दो पक्ष 24. तोरण का आगे और पीछे का भाग 23. नेमेस के चातुर्य से आनन्द प्रदर्शित करती नर्तिकाएं तथा संगीतकारों को दिखाती सुशोभित शिला 26. महावीर के गर्भ अपहरण दिखाती चार खण्डित मूर्तियां । 233 क्राउन चौपेजी पृष्ट इस मूल अंग्रेजी पुस्तक में हैं। फूटनोट 1275 हैं। बंबई विश्वविद्यालय का एम. ए. डिग्री के लिए दिये निबंध को परिवर्धित-संशोधित कर इसे 1932 ई. लांगमैन्स ग्रीन एण्ड कपम्नी ने छपवाया था। उसका गुजराती अनुवाद सन् 1937 में वहीं से प्रकाशित हया था। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: संकेत सूची: प्रांहिप्रार एरि प्रासई प्रासरि आसव्यइ इण्डि-एण्टी इण्डि हिक्वा एंसा. बि एपी. इण्डि. एपी. कर्णा. एंरिए. कैहिइ. काइ अप्रापत्रिका बएसो पत्रिका - बंशाएसो पत्रिका बिउप्रा पत्रिका जेडीएल जैग बंएसो कार्य पत्रिकाराएसो पत्रिका - जैसासं मैत्रास मवि अांध्र हिस्टोरिकल रिसर्च सोसाइटी । एशियाटिक रिसर्चेज । पाकियालोजिकल सर्वे आफ इण्डिया (एन्यूअल रिपोर्टस)। रिपोर्टस आफ दी आर्कियालोजिकल सर्वे आफ इण्डिया (कनिधम)। प्राकियालोजिकल सर्वे आफ व्यस्टर्न इण्डिया । इण्डियन एण्टीपवेरी। इण्डियन हिस्टोरीकल क्वार्टर्ली । एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका । एपीग्राफिका इण्डिका । एपीग्राफिका कर्णाटिका । एसाइक्लोपीडिया ग्राफ रिलीजन एण्ड एथिक्स । कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया । कारपस इंस्क्रिप्शनम इण्डिकारम । अमेरिकन ओरियंटल रिसर्च सोसाइटी पत्रिका । एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल, पत्रिका । रायल एशियाटिक सोसाइटी, बंबई शाखा, पत्रिका । बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी पत्रिका । जरनल आफ दी डिपार्टमेंट आफ स्पेटर्स । जैन गजट । जरनल एण्ड प्रोसीडिंग्ज आफ दी एशियाटिक सोसाइटी प्राफ बंगाल । जरनल आफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी । जैनसाहित्य संशोधक। मैसूर पाकियालोजिकल सर्वे रिपोर्ट । मराठी विश्वकोश (एंसाइक्लोपीडिया) सेक्रेड बुक्स आफ दी बुद्धीस्ट्स । सेक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट । सेक्रेड बुक्स आफ दी जैनाज । जैयटशिफट डेर डायशन मोरगनलाण्डिशन गैसेलशाफट । सेबुबु सेवुई सेबुज जेडडी एमजी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का प्राक्कथन यह दुर्भाग्य की ही बात है कि भारतीय पुरातत्व के अभ्यास से जैनधर्म के विषय में आज तक जितना भी कहा गया है वह उसकी तुलना में नगण्य है कि जो कहा जाने का शेष है। अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा सकता है कि यद्धपि जैनधर्म का समकालीन बंधुधर्म, बौद्धधर्म भारतवर्ष की सीमा में से लगभग अदृश्य हो गया था, फिर भी विद्वानों से उसको आवश्यक भ्याय प्राप्त हुआ है। परन्तु जैनधर्म को जो कि देश में श्राज तक भी टिका हुआ है और जिसने इस विशाल देश की संस्कृति एवं उसकी राजकीय और आर्थिक घटनाओं पर भी भारी प्रभाव डाला है, विद्वानों से श्रावश्यक न्याय प्राप्त नहीं हुआ और न आज भी प्राप्त हो रहा है, यह महा वेद की बात है। श्रीमती स्टीवन्सन लिखती है कि यद्यपि जैनधर्म किसी भी रीति से कहीं भी राजधर्म नहीं है फिर भी बाज जो प्रभाव उसका देखा जाता है वह भारी है। उसके साहूकारों और सराफों का धन-वैभव ऋणदाताओं व साहूकारों का सर्वोपरि महान् धर्म होने की उसकी स्थिति से इसका राजकाज पर प्रभाव, विशेष रूप से देशी राज्यों में, सदा ही रहा है। यदि कोई इसके इस प्रभाव में पशंका करता हो तो उसे देशी राज्यों की ओर से प्रकाशित जैनों के पवित्र धार्मिक दिवसों में जीवहिंसा बंद रखने संबंधी प्राज्ञापत्रों की संख्या भर देख लेना चाहिए। भारतवर्ष की जनसंख्या के जैन निःसंदेह एक महान् धौर जाहोजलाली एवं सत्ता की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपू भाग है। हर्टल निःसंदेह सत्य कहता है कि 'भारत की संस्कृति पर और विशेषतया भारत के धर्म और नीति, कला और विद्या, साहित्य और भाषा पर जैनों ने प्राचीन काल में जो प्रभाव डाला था और ग्राम भी जो वे डालते जा रहे हैं, उस सब को समझने और जैन धर्म की उपयोगिता को स्वीकार करने वाले पाश्चात्य विद्वान बहुत ही कम है।" श्री जैनी, श्री जायसवाल, श्री घोषाल आदि कतिपय प्रसिद्ध विद्वानों के सिवा किसी भारतीय विद्वान ने इस दिशा में संतोषप्रद कोई कार्य नहीं किया है । बौद्धधर्म के प्रति विद्वानों का पक्षपात प्रकारण नहीं है क्योंकि वह धर्म एक समय इतना विशाल व्याप्त था कि उसे एशिया महाद्वीप का धर्म कहना भी प्रतिशयोक्ति नहीं था पक्षान्तर में जैनधर्म यद्यपि मर्यादित क्षेत्र में ही रहा था फिर भी श्री नानालाल चि. मेहता के अनुसार 'चीनी तुकंस्तान के गुहा मंदिरों में उसके प्रासंगिक चित्र भी देखने को हमें मिल जाते हैं । 5 जैनधर्म के तुलनात्मक अभ्यास के लिए प्रामाणिक साधन नहीं मिलने एवं बौद्धधर्म के प्रति पक्षपात के कारण इसके विषय में भुलाये में डालने वाले अनुमान कितने ही पाश्वात्य प्रसिद्ध विद्वानों को करने पड़े थे क्योंकि इन दोनों बंधुपम का प्राचीन इतिहास एकसा ही उनके देखने में आया था। सौभाग्य से पिछले कुछ वर्षों में ये विचित्र धनुमान पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वानों द्वारा यद्यपि संशोधित हो गए हैं फिर भी इन भ्रामक और असत्य अनुमानों के कुछ उदाहरण यहां देना प्रप्रासंगिक नहीं होगा । श्री यू एस. लिले कहता है कि 'बौद्धधर्म अपनी जन्मभूमि में जैनधर्म के रूप में टिका हुआ है। यह निश्चित बात है कि जब भारतवर्ष से बुद्धधर्म परश्य हो गया, जैनधर्म दिखलाई पड़ा था। 18 श्री विल्सन कहता है कि 'सब 1. देखो जैनी, पाउटलाइन्स ग्रॉफ जैनीम, पु. 03 1 2. स्टीवन्सन श्रीमती दी हार्ट प्रॉफ जंगम, पू. 191 4 3. विल्सन ग्रन्थावली, भाग 1, पृ 347 4. हटल, ऑन दी लिटरेचर ऑफ दी श्वेताम्बराज श्रॉफ गुजरात, पृ. 1 5. मेहता स्टडीज इन इण्डियन पेंटिंग, पृ. 2 हेमचन्द्र घोर अन्य परम्परा के अनुसार भी जैनधर्म देखो हेमचन्द्र, परिशिष्ट पर्वन् याकोबी सम्पादित, पृ. 69, 282 में ही परिसीमित नहीं था। भाग 14, पृ. 144 1 6. जिले इस प्राय 1411 याज के भारतवर्ष की सीमा देखो मराठी विश्वकोश, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ] विश्वस्त प्रमारणों से भी यह अनुमान दूर नहीं किया जा सकता है कि जनजाति एक नवीन संस्था है और ऐसा लगता है कि वह सर्व प्रथम पाठवीं और नवीं सदी ईसवी में वैभव और सत्ता में आई थी। इससे पूर्व बौद्धधर्म की शाखा रूप में वह कदाचित् अस्तित्व में रही हो, और इस जाति की उन्नति उस धर्म के दब जाने के बाद से ही होने लगी हो कि जिसको स्वरूप देने में इसका भी हाथ था। श्री कोलबुक जैसे लेखकों ने गौतम बुद्ध को महावीर का शिष्य मान लेने की भूल की थी क्योंकि महावीर का एक शिष्य इन्द्रभूति भी गौतमस्वामी या गौतम कहलाता था। एड्वर्ड टामस कहता है कि 'महावीर के पश्चात् इसके धर्म में दो दल हो गए थे। बुद्ध के समानार्थी नामवाले इन्द्रभूति को पूज्य पुरुष का स्थान दिया गया क्योंकि बौद्ध और जैनशास्रानुसार 'जिन' और 'बुद्ध' का अर्थ एक ही होता है। परन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि 'जिन' का अर्थ 'जेता' और 'बुद्ध' का अर्थ 'ज्ञाता' होता है। रायल एशियाटिक सोसाईटी की सार्वजनिक सभा में पढ़े गए निबन्ध में कोलक ने कहा था कि 'जैसे डॉ. एमिल्टन और मेजर डीलामेने कहते हैं, जैनों और बौद्धों का गौतम एक ही व्यक्ति है और इससे एक दूसरा विचार भी उद्भवित होता है और वह यह कि ये दोनों धर्म एक ही वृक्ष की शाखाएं हों। जैनों के कथनानुसार महावीर के ग्यारह शिष्यों में से एक ने ही अपने पीछे आध्यात्मिक उत्तराधिकारी छोड़े थे; अर्थात् जैनाचार्यों का उत्तराधिकारी मात्र सुधर्मा स्वामी से ही चल रहा है। ग्यारह शिष्यों में से मात्र इन्द्रभूति और सुघर्मा दो ही महावीर के बाद विद्यमान रहे थे। पहला शिष्य गौतमस्वामी नाम से प्रसिद्ध था और उसका कोई भी उत्तराधिकारी नहीं था। इससे यथार्थ निष्कर्ष यह मालूम होता है कि इस जीवित शिष्य के कोई भी अनुयायी नहीं था ऐसा नहीं अपितु यह कि वे जैनधर्मी नहीं थे। इस गौतम के अनुयायियों का ही बौद्ध धर्म बना जिसके कि सिद्धान्त बहुतांश में जैनधर्म के जैसे ही हैं। पक्षान्तर में सुधर्मास्वामी के अनुयायी जैन हैं। तीर्थकरों का इतिहास, कथानक और पुराण दोनों ही के एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं।'' कितने ही नामों और नियमों की ऐसी पाकस्मिक समानता पर से रचित दोनों प्रोर के इन शीघ्र अनुमानों और प्रमाणों को जैसे किसी भी प्रकार से ऐतिहासिक नहीं कहा जा सकता है, वैसे ही उन्हें न्यायसंगत भी नहीं कहा जा सकता है। डॉ. याकोबी के शब्दों में यदि कहें तो ऐसी साम्यता फल्यूलेन के ऐसे न्याय सिद्धांत पर ही टिकी रह सकती है कि मैसीडोन में एक नदी है और मान्मथ (Monmourh) में भी एक नदी है। मान्मथ की नदी को वाई कहते हैं। परन्तु दूसरी नदी का वास्तविक नाम अब क्या है यह मुझे स्मरण नहीं है। परन्तु वह सब एक ही हैं। जैसे मेरी अंगुलियाँ एक दूसरे से मिलती हैं वैसी ही वे भी हैं और दोनों में ही सालमन जाति की मछलियां हैं।' डॉ. हापकिस जैसे सुप्रसिद्ध विद्वान ने भी 'मूर्तिपूजा, देवपूजा और मनुष्यपूजा' को महावीर के साथ एकान्त रूप से जोड दिया है। वह जैनधर्म के संबंध में कहता है कि भारत के सब महान् धर्मों में से नातपुत्त का धर्म ही न्यूनतम रोचक है और प्रत्यक्षत: जीवित रहने का वह न्यूनतम अधिकारी है। उसका इस सम्बन्ध का एक पक्षीय विचार अथवा उसका अज्ञान इतना गहरा जान पड़ता है कि अपने अंतिम निवेदन में भी इसी प्रकार के विचार वह दोहराए बिना नहीं रह सका था क्योंकि वह अन्त में लिखता है कि 'जो धर्म मुख्य सिद्धांत रूप से ईश्वर को नहीं मानना, मनुष्य पूजा करना और कीड़ी-मकोड़ी की रक्षा-पोषण करना सिखाता है, उमको वस्तुत: जीवित रहने का ही न तो अधिकार है और न उसका विचार-तत्वज्ञान के इतिहास में ही एक दर्शनरूप से कोई अधिक प्रभाव ही कभी रहा है ।। डा. हापकिंस के ये अनुमान इतने बहिर्मार्गी हैं कि उन्हें कपोलकल्पित और अपक्वनिर्णयों के रूप में निषेध करके ही हम सत्य के अधिक समीप पहुँच सकते हैं। क्योंकि 'अनेक पदाथों की ही भांति जिसे 1 विल्सन, वही, पृ 334 । 2. याकोबी, कल्पसूत्र पृ ।। 3. टामस (एडवर्ड), जीज्म और दी अर्ली फेथ ग्रॉफ प्रशोक, पृ. 6। 4. कोलबुक, मिसलेनियस एसेज, भाग 2, पृ. 315,3161 5. याकोबी, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 9, पृ. 162 । 6. हापकिस रिलीजन्स प्रॉफ इण्डिया, पृ. 296 । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 5 उसके कथनानुसार जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है, वह जैनधर्म दो हजार से अधिक वर्षों से भी जीवित है इतना ही नहीं अपितु उसने साधुषों एवं गृहस्थों में अनेक उत्तम कोटी के पुरुष भी उत्पन्न किए हैं और अत्यन्त श्रद्धालु और सत्य मार्ग शोधक अनेक उपासकों मोर भक्तों को मार्ग दर्शन कराकर वास्तविक शांति भी प्रदान की है।" । । परन्तु ऐसे विचार के व्यक्ति डॉ हास ही अकेले नहीं हैं परन्तु ऐसे दूसरे विद्वानों से हमें उसको पृथक करना ही होगा क्योंकि वह ऐसे बेबुनियाद अपने निष्कर्षो को भ्रम निवारण किए जाने पर विरेचन नहीं करने जैसा दुराग्रही और सत्यविमुख नहीं था । श्री विजयेन्द्रसूरिजी को एक पत्र में उसने लिखा था कि 'मुझे अब एकदम पता लग गया है कि जैनों का व्यवहारी धर्म प्रत्येक रीति से प्रशंसापत्र है तब से मैं निश्चय ही दुखी हूं कि लोगों के चरित्र और नैतिकता पर इस धर्म ने जो प्राश्चर्यजनक प्रभाव डाला उसकी प्रोर ध्यान दिए बिना ही ईश्वर को नहीं मानते, केवल मनुष्य पूजा करने और कीड़ी-मकोड़ी की रक्षा पोषण करने वाले के रूप में जैनधर्म की मैंने निंदा की। परन्तु जैसा कि बारंबार बना करता है, धर्म के साथ गाढ़ सम्बन्ध ही, न कि पुस्तकों द्वारा प्राप्त किए बाहरी ज्ञान, उसकी विशिष्टताओं का दिग्दर्शन कराता है और समष्टि में प्रत्यन्त अनुकूल वातावरण वही उत्पन्न करता है 12 आश्चर्य की बात बस इतनी ही है कि ऐसे पूर्ण अभ्यास के प्रत्यक्ष परिणामों से ही लम्बे समय तक जनधर्म पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में बौद्धधर्म की एक शाखा मात्र माना जाता रहा था। ऐसी खोटी धारणा से पुरातत्त्व की इस शाखा के अभ्यासी शोधकों का ध्यान जैनधर्म के सुन्दर तत्त्वों की ओर क्वचित् ही गया और ऐसे भ्रम कुछ काल तक अवश्य ही चलते रहे थे। परन्तु जैनधर्म एक स्वतंत्र धर्म रूप में सिद्ध हो चुका है इससे अब तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता है । निवारण के लिए डॉ. याकोबी और डॉ. व्हूलर जैसे विद्वान धन्यवाद के योग्य हैं । इस भ्रम , इन दो सुप्रसिद्ध विद्वानों के अविरत प्रयास के फल स्वरूप जैनधर्म विषयक प्रज्ञान अब दिनोदिन दूर होता जा रहा है । डॉ. याकोबी के 'श्री भद्रबाहु के कल्पसूत्र की प्रस्तावना' और 'श्रीमहावीर और उनके पुरोगामी अनुक्रम से ई.सन् 1879 ग्रोर 1880 में प्रकाशित विद्वत्तापूर्ण दो लेख और सन् 1887 में पढ़ा गया डॉ. उहूलर का 'जैनों की भारतीय शाला' लेख ही जैनधर्म के शास्त्रीय या बुद्धिगम्य पर विस्तृत विवरण देनेवाले सर्व प्रथम लेख थे। इन प्रसिद्ध विद्वानों को कीर्ति महान बुद्धिमत्ता और तात्विक सूक्ष्म दृष्टि से इस विषय की विवेचना ने इस प्रभु धर्म के प्रति योरोपीय विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया और जो कार्य उन्होंने प्रारम्भ किया था वह न केवल आज दिवस तक चलता ही रहा है अपितु उसके अनेक सुंदर परिणाम भी आए हैं । सद्भाग्य से प्राज जैनधर्म के प्रति दृष्टि में दर्शनीय अन्तर पड़ गया है और भूतकाल में ज्वलंत भाग लेने वाले पौर जगत की प्रगति, संस्कृति और सभ्यता की वृद्धि में जगत के अन्य धर्मों जितना ही अद्वितीय योगदान देनेवाले इस धर्म को जगत के धर्मो में इसका उपयुक्त स्थान प्राप्त होने लगा है । इसी सम्बन्ध में श्री स्मिथ कहता है कि यह शंकास्पद सत्य है कि किसी भी काल में समग्र भारत का प्रचलित धर्म बौद्धधर्म ही था।' इसलिए अनेक लेखकों द्वारा प्रयुक्त 'बौद्धधमं युग' नाम को झूठा और भ्रमास्पद कहते वह इसकी निंदा करता है क्यों कि उसका यह कहना है कि 'ब्राह्मणयुग के स्थान में भारत में जैन या बौद्ध युग इस दृष्टि से कभी भी नहीं रहा कि उसने ब्राह्मणीय हिन्दूध का स्थान ही ले लिया हो ।" वस्तु स्थिति जो भी हो, फिर भी इन दोनों धर्मो ने भारत वर्ष के इतिहास के पृष्ठों में अमिट छाप छोड़ी है और भारतीय विचार, जीवन, संस्कृति आदि में इन्होंने धनुपम योगदान दिया है इसको स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है। इस ग्रन्थ के निर्माण का मेरा उद्देश्य इसलिए सामान्य जैनधर्म, न कि उसके कोई सम्प्रदाय विशेष जैसे कि श्वेताम्बर, दिगम्बर प्रथवा स्थानकवासी, उत्तर भारत मे किस प्रमाण में फैला हुआ था, वह खोजने प्रौर उसकी हो वृद्धि एवम् विस्तार का इतिहास ही प्रालेखित करने का है। 1 बेलवलकर, ब्रह्मसूत्रज, पु. 120 121 1 देखो शाह, जैन जैन गजट, भाग 23, पृ. 105 1 इण्डि एण्टी, पुस्त, 9, पृ. 158 धादि स्मिथ ऑक्सफोर्ड हिस्टोग्रॉफ इण्डिया, प. 55 1 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 इस महान् धर्म के सिद्धान्त, इसकी संस्थानों के महान् विकास और उसके भाग्य का वर्णन करने या रूपरेखा देने का ही मेरा विचार नहीं है। यही क्यों, जैनधर्म का इतिहास, उसके विविध चित्र-विचित्र कथानक और पवित्र धार्मिक साहित्य के द्वैतरूप कि जो श्वेताम्बर या दिगम्बर मान्यता की मांग स्वरूप आज हमें प्राप्त है, प्रादि प्रश्नों की कदाचित् ही मैं चर्चा करूगा। मेरा प्रयत्न तो मात्र इतना ही होगा कि मैं उन साहसी और बलिष्ट, महान् और यशस्वी पूर्वजों के प्रयासों का जो उन्होंने अपने एवम् अपने धर्म के इतिहास निर्माण करने के किए थे, मैं अनुसरण करू' और चाहे वह प्रांशिक और परीक्षामूलक ही हो फिर भी उनके योगदान का और विशेषतया उत्तर भारत की प्रसन्न और फलप्रद सांस्कृतिक धारा में दिए योगदान का मूल्यांकन करू। इस प्रकार के ग्रन्थ निर्माण की तीव्र प्रावश्यकता के इसके सिवाय भी अनेक कारण हैं क्योंकि पिछले सवा सौ वर्षों में साहित्यिक कृतियों को देखते हए, विद्वानों ने पौर्वात्य अभ्यासों के विभिन्न विभागों की ओर अत्यन्त दुर्लक्ष किया है। पहला कारण यह है कि उत्तर-भारत का इतिहास तब तक सम्पूर्ण लिखा ही नहीं जा सकता है जब तक कि वह जैनधर्म के प्रकाश में नहीं लिखा जाए क्योंकि इस धर्म ने गृहस्थों और राजवंशों में अगणित परिवर्तन किए थे। दूसरा यह कि भारतीय तत्त्वज्ञान का अवलोकन भी जैनधर्म के तत्त्वज्ञानावलोकन के अभाव में अपूर्ण रह जाता है और यह विशेष रूप से विंध्यपर्वत के उत्तर प्रोर के क्षेत्र के लिए, जहां कि जैनधर्म का जन्म हुआ था, और भी अधिक लागू होता है। तीसरे यह कि यदि भारतीय क्रियाकाण्ड, रीतिरिवाज, दंतकथाएं, संस्थाएं, ललितकला और शिल्प आदि का सुसम्बन्धित और सूक्ष्म अवलोकन करना खोज का विषय हो तो उस उत्तर भारत में कि जहां बारंबार के विदेशी अभियानों के शिकार होने के कारण कोई भी संस्था या धर्भ सहीसलामत नहीं रहे, जैनधर्म के चित्रविचित्र इतिहास को स्वभावतः प्रमुख स्थान मिलना ही चाहिए। डॉ. हर्टल कहता है कि जनों की वर्णनात्मक कथाएं भारत की वर्णनात्मक कला की लाक्षणिक हैं । उनमें भारतीय प्रजा के जीवन और उसकी पृथक पृथक प्रकार की रीतभांति का वास्तविक और सुसंगठित रूप में वर्णन हमें मिलता है। इसलिए जैन कथा-साहित्य भारतीय साहित्य के विशाल क्षेत्र में लोकसाहित्य का (उसके विस्तृत अर्थ में लेते हुए) ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास का भी सबसे अधिक मूल्यवान मौलिक साधन है। अन्त में, राष्ट्र के मानस तथा सभ्यता को जानने का भूतकाल का सूक्ष्म और सावधानी पूर्वक अभ्यास के सिवाय दूसरा रामबाण उपाय कोई भी नहीं है। ऐसे अध्ययन से ही भूतकाल की प्रज्ञानजन्य और अन्धपूजा के स्थान में र.त्य और पुरुषोचित अभ्यर्थना स्थापित की जा सकती है। भारतीय साहित्य की निधि में जैनों ने जो योगदान दिया है उस सब का इतिहास दिया जाए तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ को ही रचना हो जाए। जनों ने प्राचीन भारतीय साहित्य में धर्म, नीति, विज्ञान तत्त्वज्ञान आदि विषयों द्वारा अपना सम्पूर्ण योगदान दिया है। भारतीय संस्कृति में जैनों के दिए योगदान का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करते हुए श्री बार्थं लिखता है कि 'भारतवर्ष के साहित्यिक और वैज्ञानिक जीवन में उन्होंने बहुत ही महत्वपूर्ण भाग लिया है। ज्योतिष शास्त्र, व्याकरण और रोमांचक साहित्य उनके प्रयत्नों का आभारी है। ललितकला के प्रदेश में उदयगिरी और खण्डगिरि के पर्वतों पर के निवासगृह और गुहा मंदिरो के कुशलतापूर्वक उत्कीरिणत वेष्टनियां (फ्रीजेज), मथुरा के सुशोभित पायागपट तथा तोरण, गिरनार और शत्रु जय की पर्वतमाला पर के स्वतत्र खड़े सुन्दर स्तम्भ और प्राबू एवं अन्य पर्वतों पर के जैन मंदिरों का अद्भुत शिल्पकाम आदि भारतीय इतिहास और संस्कृति के विद्यार्थी की रस प्रवृत्ति को जागृत करने के लिए पर्याप्त हैं। इसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भी महान् शंकराचार्य और ऋषि दयानन्द का पृष्ठबत जैन और बौद्ध प्रभाव के सदियों की प्रतिक्रिया के ज्ञान विना पूर्ण रूप से जाना ही नहीं जा सकता है। साहित्य, कला और धर्म की ये हलचलें महान् राज्यों को सुरक्षित छत्रछाया के बिना विजयी हो ही नहीं सकती थीं इसलिए हमास अभ्यास जैनधर्म की राजसत्ता की सुरक्षा में हुई प्रगति की खोज करने के काम से प्रारम्भ होना चाहिए क्योंकि अपनी क्रमोन्नति में वह कितने ही राज्यों का उस दृष्टि से राजधर्म बन जाता है कि कितने ही महान् राजा उसको स्वीकार क . 1. हटंल, प्रॉन दिलिटरेचर ग्रॉफ दिश्वेताम्बराज श्रॉफ गुजरात पृ. 81 - 2 बार्थ, दी रिलीजन्स प्रॉफ इण्डिया, प. 1441 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेते हैं. उसे प्रावश्यक उत्तेजन देते हैं और अपनी प्रजा को भी वे उसी धर्म की ओर झुका सकने में भी सफल होते हैं । " फिर भी हमारा कार्य कंटकाकीरणं हे सत्य तो यह है कि उत्तर भारत के जैन धर्म का सम्पूर्ण ऐतिहासिक अवलोकन पूरा-पूरा करा सके ऐसा एक भी उपयोगी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, तो भी भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए न तो वह क्षेत्र एकदम प्रद्धता ही है और न वह मात्र ऐतिहासिक व काल्पनिक नामों का धार्मिक दृष्टान्तों का. महाकाव्य अथवा धर्मग्रन्थों की पुराण कथाओंों का जैसा तैसा किया हुआ संग्रह ही है। क्योंकि यदि ऐसा ही होता तो हजारों प्राचीन जैन साधुयों और पण्डितों को इन बहुमतम्पादित रचनाओं की कि जिन्हें प्रति पोढ़ी स्मृति द्वारा ही कि जिसे बाज का युग एक चमत्कार ही मानता है, दिया जाना रहा था, सुरक्षित रखना ही निरर्थक हो जाता है । यही क्यों विगत डेढ़ सौ वर्ष का सुप्रसिद्ध भारतीय और विदेशीय पण्डितों और पुरातत्वविदों का किया हुआ काम भी अकारथ हो जाता है. यदि उनके खेलों के परिणाम स्वरूप आज हम ऐसा सुसम्बद्ध इतिहास कि जो साधारण पाठक की समझ का और प्रभ्याशियों के उपयोग का हो, नहीं लिख पाते हैं । जैन इतिहास के अनेक अंश यद्यपि आज भी अन्धकार में हैं, धार अनेक विवरण सम्बन्धी प्रश्न प्रभी स्थित हैं तो भी हमारा यह सद्भाग्य है कि जनयुग के सामान्य इतिहास की रचना का कार्य सव इतना भारी नहीं रह गया है। भारी है या नहीं, हम तो अपने लिए न तो निजी खोजों का और न पौर्वात्य विद्वत्ता एवम् खोज की सीमाओं को किसी प्रकार विस्तृत करने का ही श्रेय का अधिकारी समझते हैं। अन्त में उत्तर भारत" की व्याख्या स्पष्ट कर देना भी हमारे लिए पवश्यक है। कृष्णा मोर तुंगभद्रा नदी के दक्षिण और बाए हुए प्रदेशों को मर्यादित रूप में दक्षिण भारत" कहा जाता है। इन नदियों से उत्तरीय प्रदेशों को "दवखन" कहने की प्रथा है । परन्तु दक्षिण और उत्तर भारतवर्ष याने नर्बदा के दक्षिणी और महानदी के उत्तरी प्रदेश अपने में ही एक-एक इकाई हैं। इसी इकाई के अर्थ में "उत्तर-भारत" शब्द का यहां प्रयोग किया गया है। साप्ती नदी के दक्षिण भाग से ही दक्खन का उच्च प्रदेश याने प्लेटो निश्चय ही शुरू होता है। दक्षिण याने उपडीपी भारत (पेनिन्सर इण्डिया) से भारत को इस्तुतः पृथक करने वाली तो बंदा नदी ही है। इसी उत्तर-भारत प्रदेश में समस्त बारह लाख की जैनों की लगभग आधी संख्या याज भी बनती है । ये छह जितने जैन ऐतिहासिक सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से अपने आप में उसी प्रकार एक निश्चित इकाई हैं जैसे कि ये दन्तकथाएं, रीतिरिवाज पर मान्यता से स्पष्ट रूप में उत्तरीय है। वीदों की भांति उत्तर और दक्षिण के जैनों का यह विभजन मूलतः भौगोलिक होते हुए भी "सिद्धान्त, गावभाषा दलका और रीतिरिवाजों के समस्त शास्त्रभाषा, शरीर में ही अन्ततः स्याप्त हो गया है।"a 1. स्मिथ, वही, पृ. 55 3. वार्थ, वही, पृ. 145 2. श्रीनिवासचारी और सागर हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया, भाग 1. पृ. 3 । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81 पहला अध्याय महावीर पूर्वोत्तर जैन धर्म जैनधर्म से क्या अभिप्रेत है ? "प्राचीन भारत का इतिहास मानव संस्कृति और उसके विकास की तीस सदियों का इतिहास है । यह पृथक-पृथक कितने ही युगों में विभाजित है । कितनी ही अर्वाचीन प्रजा के समस्त इतिहास की तुलना में बहुत काल तक खड़ा रह सके ऐसा वह प्रत्येक युग है ।" 1 मानव संस्कृति और उसके विकास के इन तीन हजार वर्षो की कला, शिल्प, धर्म, नीति और तत्वज्ञान की अनेक विध प्रगति में जैनधर्म का योगदान द्वितीय है । परन्तु जैनधर्म की प्रमुख सिद्धि है "ग्रहिंसा" का आदर्श । जैन मानते हैं कि श्राज की दुनियां शनैः शनैः प्रदृश्य रीति से फिर भी उसी प्रादर्श की ओर प्रगति कर रही है । प्रत्येक उच्च व्यावहारिक और आत्मिक प्रवृत्ति का ध्येय ग्राहिसा ही माना जाता हो और भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों के निवास के कारण संस्कृति की उलझनभरी विशाल अभिवृद्धि में से परिणत हुई सब विभिन्नता के होते हुए भी अहिंसा ही एकता का चिह्न मानी जाती थी ? जैनधर्म मुख्य रूप से दर्शन के नैतिक अर्थ का सूचक है। जैसे बौद्ध ज्ञानी बुद्ध के अनुयायी हैं वैसे ही जैन वीतराग जिन के अनुयायी हैं । जैनों के सभी तीर्थकरों को "जिन" कहा जाता है । " जिन के पृथक-पृथक गुणों पर से उद्भूत अनेक नाम उनकी सफलता के प्रति भक्तों के भावों के प्रदर्शक हैं जैसे कि जगतप्रभु-याने जगत का स्वामी, सर्वज्ञ- याने सर्व पदार्थ का ज्ञाता, त्रिकालवित -याने भूत भविष्यत् श्रर वर्तमान तीनों ही काल को जानने वाला, क्षीरणकर्मा-याने सर्व दैहिक कर्मों को क्षीण याने नाश करने वाला, अधीश्वर - याने महान् ईश्वर, देवाधिदेव - याने देवों का भी देव । ऐसे और भी अनेक गुणवाचक नाम जिन के हैं । फिर कितने ही नाम अर्थसूचक भी हैं जैसे कि 'तीर्थंकर', या 'तीर्थकर', 'केवली' 'अहं' और 'जिन' । 'तीयंते प्रनेन' अर्थात् संसार रूपी समुद्र जिसकी सहायता से तेरा जा सके वह 'तीर्थंकर', प्रत्येक प्रकार के दोष से रहित अपूर्व प्राध्यात्मिक शक्ति जिसमें हो वह 'केवली,' देवों और मनुष्यों को जो मान्य हो वह 'प्रर्हत्' और राग एवं द्व ेष से परे ऐसा जितेन्द्रिय हो वह 'जिन' कहलाता है । 1. दत्त ( रमेशचन्द्र ). एन्सेंट इण्डिया, 1890 पृ. 1। 2. उन सब स्त्रियों और पुरुषों को भी यह लागू होता है कि जिन ने अपनी हीन वृत्तियों पर विजय पाली है और जो सब राग-द्व ेष को पूर्णतया जीत कर उच्चतम स्थिति पर पहुंच गए हैं। देखो राधाकृष्णन, इण्डियन फिलोसोफी, भाग 1, पृ. 286 1 3. ग्रस्य च जैन दर्शनस्य प्रकाशयिता परमात्मा रागद्वेषाद्यान्तररिपुजेतत्वादन्वर्थक जिनना मधेयः । जिनो र्हन् स्याद्वादी तीर्थंकर इति ज्ञानर्थान्तरम् । श्रतएव तत्प्रकाशित दर्शनमपि जनदर्शन महत्प्रवचन जैनशासनं स्याद्वाददृष्टिरनेकान्तवाद इत्यादय निवानैव्यं पदिपते । विजयधर्मसूरि भण्डारकर स्मृति ग्रन्थ, पू. 139 । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन का प्ररूपित धर्म ही 'जनधर्म' है। उसे 'जनदर्शन', 'जनशासन', 'स्याद्वाद', भादि भी कहते हैं । जैनधर्म पालने वाले गृहस्थों को बहधा श्रावक भी कहा जाता है ।। जनधर्म के प्रारम्भ की निश्चित तिथी बताना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव है । फिर भी जैनधर्म बौद्ध या ब्राह्मण धर्म की शाखा है इस प्राचीन मान्यता को हम अर्वाचीन खोजों के परिणाम स्वरूप निघड़क अज्ञानसूचक और भ्रमात्मक मिथ्यावर्णन घोषित कर सकते हैं। हमारे ज्ञान की प्रगति यहां तक हो चुकी हैं कि अब यह कहना एक ऐतिहासिक भ्रांति ही होगा कि जैनधर्म का प्रारम्भ भगवान महावीर से ही हुआ जब तक कि इसको समर्थन करने वाले कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत नहीं किए जाएं, क्योंकि जैनों के तेईसवें तीर्थकर श्री पाश्वनाथ अब एक ऐतिहासिक व्यक्ति पूर्णतया स्वीकृत किए जा चुके है और अन्य जिनों की भांति महवीर उनकी श्रेणी में एक सुधारक से अधिक कुछ भी नहीं थे यह भी स्वीकार किया जा चुका है। मनुष्य जाति जितना ही धर्म प्राचीन है, अथवा इसका उद्भव बाद में हुआ। यह अभी तक भी ऐतिहासिक अन्वेषकों की विवेचना का विषय उतना ही बना हुआ है जितना कि धर्म का प्रारम्भ और तत्वज्ञान और इसका कोई भी हल उन्हें नहीं मिला हैं । मानस-शास्त्र की दृष्टि से ही इस प्रश्न का उत्तर या जा सकता है । परन्तु यह प्रश्न निरा दार्शनिक ही है। जो किसी भी उच्चतर व्यक्ति या व्यक्तियों में विश्वास नहीं करती हो ऐसी कोई आदिम जाति या प्रजा अाज तक भी नहीं मिली है और यह धर्म के विशाल अर्थ में एक परम महत्व की बात है। जब हम किसी विशिष्ट धर्म का विचार करते हैं तो भी यह प्रश्न उपस्थित होता ही है कि वह धर्म मनुष्य जितना ही प्राचीन है अथवा मनुष्य जीवन में उसकी उत्पत्ति बाद में हुई थी। इस विषय में प्रत्येक धर्म का बहुतांश में यही दावा है कि जो स्पष्टतया परन्तु संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है:-"हमारा धर्म अनादि और सर्वव्यापक है और अन्य धर्म सब पाखण्ड हैं ।" अपने प्रनादित्व के इस दावे को सिद्ध और समर्थन करने के लिए प्रायः प्रत्येक धर्म में अनेक प्रकार का काल्पनिक या पौराणिक साहित्य है कि जो धार्मिक रूपकों और धर्मपुस्तकान्तर्गत पुराणकथाओं को आश्रय देते हैं । अस्तित्व रखता हुया कोई भी धर्म अनादि और सर्व-व्यापक होने का अपना दावा वस्तुत: सिद्ध कर सकता है अथवा मनुष्य की यह एक निर्बलता ही है, यह कहना हमारा कार्य नहीं है क्योंकि यह हमारे क्षेत्र के बाह्य विषय है। अधिक से अधिक हम जैन धर्म के इस विषय में कथन का ही यहां विचार कर सकते हैं। 1. हेमचन्द्र अभिधानचितामणि, अध्या. 1, श्लोक 24-25 । 2. इस अध्याय के अन्तिम अंश का समझना सरल हो जाए इसलिए यहां इस अवसर्पिणी काल के 24 तीर्थकरों के नाम दे दिए जाते हैं :- 1. ऋषभ, 2. अजित, 3. संभव, 4. अभिनंदन, 5. सुमति, 6. पद्मप्रभ, 7. सुपार्श्व, ४. चन्द्रप्रभ, 9. पुष्पदंत, अथवा सुविधनाथ, 10. शीतल 11. श्रेयांस, 12. वासुपूण्य, 13. विमल, 14. अनंत, 15. धर्म, 16. शांति, 17. कुन्थु, 18. पर 19. मल्लि, 20. मुनिसुव्रत, 21. नमि, 22. नेमि या अरिष्ठने मि, 23. पार्श्व या पार्श्वनाथ, और 24. वर्धमान जिसको महावीर आदि भी कहा जाता है। प्रत्येक तीर्थकर का परिचायक चिह्न याने लांछन भिन्न-भिन्न होता है और यह लांछन उनकी मूर्ति पर सदा ही पाया जाता है, जैसे पार्श्वनाथ का लांछन फरणीसर्प है और वर्धमान का सिंह । देखो एतस्या मवसपिण्यामषभो जितसंभवो...प्रादि-हेमचन्द्र, वही, श्लो. 26, 20.28 । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] जैन धर्म का उद्भव और प्रर्वाचीन खोजों की अपेक्षा अधिक प्राचीन होने के प्रमाण जैनों की मान्यतानुसार अनेक तीर्थकरों ने जगत के प्रत्येक युग में वारम्वार जैन धर्म का उद्योत किया था। वर्तमान युग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम दो पार्श्वनाथ एवम् महावीर थे। इन तीर्थंकारों के जीवन चरित्र जनसिद्धान्तपुस्तकान्तर्गत एवम् अनेक महान जैनाचार्यों द्वारा लिखित चरित विशेषों में सम्पूर्ण रूप से प्राप्त है । इन तीर्थकरों में ऋषभदेव का शरीर 500 धनुष्य का और प्रायु 84,00,000 वर्ष पूर्व की कही गई है जब कि अन्तिम दो याने पार्श्वनाथ और महावीर का आयु अनुक्रम से 100 और 72 वर्ष ही था और शरीर भी ग्राजकल के से मनुष्यों मा ही लम्बा था । इन तीर्थकरों की म्रायु और देह का तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हमें ज्ञात होता है कि ऋषभदेव से प्रायुष्य और देहमान बराबर उत्तरोत्तर घट ही प्रा रहे थे। पार्श्व के पूर्वज बाईसवे तीर्थंकर नेमिनाथ का आयुष्य 1000 वर्ष का ही कहा जाता है । 1 ग्रन्तिम दो तीर्थकरों के दिए गए बुद्धिगम्य आयुष्य और देह ने कितने ही विद्वानों को इस सम्भव परिणाम पर पहुंचने की प्रेरणा दी कि ये ही तीर्थ कर ऐतिहासिक पुरुष मानी जाना चाहिए ।" पाश्व और महावीर दोनों ऐतिहासिक हैं: पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में लेखन कहता है कि इस जिन का धायु उसके पुरोगामियों की भांति कोई भी मर्यादा उल्लंघन नहीं करता है, इसीलिए उसके ऐतिहासिक पुरुष होते की बात को इसरो विशेष समर्थन मिलता है ।" . यह यह सत्य है कि हम ऐसे तर्क के आधार पर किसी भी प्रकार का ऐतिहासिक अनुमान नहीं बांध सकते है, परन्तु भारतीय इतिहास के जिस समय का हम यहाँ विचार कर रहे हैं उसकी सामग्री इतनी अपूर्ण है कि हम उसके आधार पर प्रमाणित निर्णय कुछ नहीं कर सकते हैं। श्री दत्त कहते हैं कि महान् अलेक्जेण्डर के भारत आगमन के पहले के भारतीय इतिहास की निश्चत तिथियों का निर्णय करना लगभग असंभव है।" निःसन्देह एक रहस्य की ही बात है कि जहां महावीर के उद्भव के बाद की प्रत्येक वस्तु का व्यवस्थित लेखा रखा जा सका, वहां उनके पूर्व की किसी भी बात का प्रामाणिक लेखा हमें नहीं मिलता है । फिर भी जैनों के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिक तिथि निश्चित करना एक दम ही असंभव नहीं है। श्री महावीर और बुद्ध के समय का समकालिक साहित्य जैन इतिहास के इस महत्व के प्रश्न पर बहुत सुन्दर प्रकाश डालता है, यही नहीं पर हम यह भी देखते हैं कि जैन सूत्रों में प्रस्तुत किए तत्सम्बन्धी प्रमाण भी कुछ कम महत्व के नहीं हैं । - 1. हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ प्रतिवानचितामरिण में बीती उत्सर्पिणी के 24 तीर्थंकरों के और आगामी के 24 तीर्थंकरों के नाम दिए हैं । सत्सर्पिण्याविद् आदि और भाविन्यां तु ग्रादि । श्लो. 50-56 इस सूची की समाप्ति इस प्रकार की है एवं सर्वावसपियुत्सपणीषु जिनोत्तमाश्लो. 561 2. सूत्रों में से भद्रबाहु का कल्पसूत्र अथवा सुधर्मा का आवश्यक सूत्र आदि देखो; पृथक चरित्रों की सूची में इनका नाम निर्देश किया जा सकता है - हमविजयगरि का पार्श्वनाथचरित्रम् श्री मुनिभद्रसूरि का शांतिनाथ महाकाव्यम्; विनयचन्द्रसूरि का मल्लिनाथचरित्रम् हरिभद्रसूरि का मल्लिनाथ चरित्रम नेमिचन्द्रसूरि का महावीर स्वामी चरित्रम् ग्राबि आदि । 3. कल्पसूत्र, सूत्र 227, 168, 147 जैन के अनुसार एक पूर्व 7,05,60,00,00,00, 000 वर्ष का होता है । देखो संग्रहणीसूत्र, गाथा 262 4. कल्पसूत्र. सूत्र 182 1 5. स्टीवेन्सन । पादरी । कल्पसूत्र, प्रस्ता. पु. 12 6. लासेनब ई. एण्टी पुस्त. 2. 261 7. दत्त, वही, पृ. 11 1 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावं की ऐतिहासिकता के प्रमाण-खोज की दृष्टि से श्री पार्श्वनाथ का जब हम विचार करते हैं तो ऐसा देखते हैं कि शिलालेख या स्मारक रूप से प्रमाणिक कोई भी प्राधार हमें ऐसा नहीं मिलता है कि जिसका सीधा सम्बन्ध उनसे हो । परन्दु कितने ही शिलालेख और स्मारक ऐसे हैं कि जिनसे उनके सम्बन्ध में परोक्ष अनुमान निःसंकोच किया जा सकता है। __ मथुरा के जैन शिलालेखों की परीक्षा करने पर हम देखते हैं कि उनमें गृहस्थ-भक्तों द्वारा ऋषभदेव को अयं अपित किए जाने के उल्लेख हैं। इसके अतिरिक्त बहुत से शिलालेखों में न केवल एक अर्हत ही का अपितु अनेक अर्हतों का उल्लेख है । "उन लेखों में राजों के नाम हो या नहीं हों, फिर भी वे सब इण्डोसिदियन काल के हैं ऐसा स्पष्ट प्रकट होता है, और यदि कनिष्क एवं उसके वंशजों का काल शकयुग ही माना जाता हो तो वे सब लेख पहली और दूसरी सदी के मालूम देते हैं। यदि महावीर को जैनधर्म का संस्थापक माना जाए तो जिनको अर्पिण करने का उल्लेख ऊपर किया गया है उन लोगों के और महावीर के बीच में समय का बहुत बड़ा अन्तर नहीं होना चाहिए, ऐसा अवश्य ही कहा जा सकता है क्योंकि वह अन्तर निरा छह सदी का ही है और यह अन्तर ऐसा नहीं है कि जिसमें जैनधर्म की स्थापना विषयक प्रमुख बातों से ये लोग बहुत घनिष्ठ परिचय नहीं ग्व पाए हों । फिर यह भी दृष्टव्य है कि यह अयं एक से अधिक अर्हतों को पौर प्रमुख रूप से श्री ऋषभ को दिया गया है। यह बात स्पष्ट प्रमाणित करती है कि जैनधर्म का प्रारम्भ अति प्राचीन है और तब से अब तक में इसके अनेक तीर्थकर भी संभवतः हो चुके हैं। फिर हमें जैनों के एक महान् तीर्थ' का अक्षयकीर्तिस्तम्भ स्वरूप प्रमाण भी प्राप्त है और यह महान तीर्थ है हजारीबाग जिले का समेतशिखर का पहाड़ जिसको पार्श्वनाथ या पारसनाथ पहाड़ी ग्राज कहा जाता है । कल्पसूत्र में जो कि श्री भद्रबाहु की रचना मानी जा चुकी है और इसलिए वह ई. स. पूर्व 300 वर्ष का है, एवं अन्य जैन साहित्य-ग्रन्थों में पार्श्वनाथ के पूर्व वहां पहुंच जाने और उसी पर निर्वाण प्राप्त करने का प्रमाण भी हमें प्राप्त है। समकालिक साहित्य को जब हम देखते हैं तो उसमें अनेक ऐसे उल्लेख और घटनाएं मिल जाती हैं कि जो पार्श्वनाथ के ऐतिहासिक जीवन के विषय में जरा सी भी शंका रहने नहीं देती है । यहां उन सभी बातों की सत्यता की परीक्षा करने की यद्यपि हमें अावश्यकता नहीं है फिर भी उनमें से थोड़ी सी प्रमुख उपयोगी पौर अत्यन्त विश्वस्त बातों को यहां गिना जाता है। 1. प्रीयताम्भगवानुषमश्री: (भगवान् श्री ऋषभदेव, प्रसन्न हो)- एपी. इण्डि., पुस्तक 1, पृ. 386; लेख सं. 8 2. नमो प्ररहंत्ततानं (अर्हतों को नमस्कार), वही, पृ. 383, लेख सं. 3 ।। 3. वही, पृ. 371। 4. तीर्थ, जैन परिभाषा के अनुसार, पवित्र यात्रा स्थान को कहते हैं। 5. समेतशिम्बर, जिसे मेजर रेनाल के नक्शे में पारसनाथ कहा गया है, बंगाल और बिहार के बीच की पहाड़ियों में है। जनों की दृष्टि में यह महान् पावन और पूजनीय है। भारतवर्ष के दूर-दूर के प्रदेशों से यात्री लोग यहां प्रति वर्ष यात्रा के लिए प्राते हैं ऐसा कहा जाता है । कालबुक, वही, पुस्त. 2, पृ. 213। इस पहाड़ी पर पाश्वं का सुप्रसिद्ध मन्दिर है । 6. शार्पटियर, उत्तराध्ययनसत्र, प्रस्तावना, पृ. 1 3-14 । 7. देखो कल्पसूत्र, मूत्र 168; निर्वाणमासत्र संमेताद्रीययो प्रभुः । हेमचन्द, त्रिषष्ठि-शलाका, पर्व 9, श्लो. 316. प. 2191 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] बौद्ध साहित्य में जैनों का प्रथम उल्लेख--जैन शास्त्रों में जन साधू और साध्वी को 'निगंठ और निर्गठि' संस्कृत में 'निग्रन्थि और निग्रन्थिरणी' के नाम से जो कहा गया है इसका अर्थ 'बिना गांठ या प्रासक्ति' के होता है।' बौद्धशास्त्रों में भी इनका ऐसा ही उल्लेख है। वराहमिहिर और हेमचन्द्र भी उनको 'निग्रन्थि' ही कहते हैं । परन्तु अन्य लेखक उनके 'विवसन'", 'मुक्ताबर' जैसे एकार्थी शब्द का प्रयोग करते हैं । जैनों के धार्मिक पुरुषों के लिए 'निग्रन्थि' नाम अशोक शिलालेखों में 'निगंठ' रूप में प्रयुक्त हना है । बौद्धों के पिटकों में बुद्ध और उसके अनुयायियों के विरोधी के रूप में 'निगंठ' शब्द का बारम्बार उपयोग किया गया है । बौद्धशास्त्रों में जहां उस शब्द का उल्लेख है वहां मुख्य रूप में उनके मत का खण्डन करने और स्पष्ट रूप से भगवान बुद्ध की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ही उसका उपयोग हुअा है।' इससे दो बातें सिद्ध होती हैं । एक तो यह कि जैन साधू 'निगंठ' कहलाते थे और दूसरी यह कि बौद्ध साहित्य की दृष्टि से जैन और बौद्ध परस्पर महान् प्रतिस्पर्धी थे । भगवान महावीर का विचार करते हुए हम यह देखते हैं कि उनके पिता सिद्धार्थ काश्यप गोत्री थे कि जो जात क्षत्रियों का ही एक गोत्र माना जाता था। इसलिए भगवान महावीर अपनी जीवनावस्था में ज्ञातपुत्र के नाम से भी पहचाने जाते थे। पाली भाषा में ज्ञानी का समानार्थी शब्द नाय है और इसीलिए ज्ञातृपुत्र और नायपुत्त का अर्थ एक ही हैं और कल्पसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में महवीर के लिए प्रयुक्त "नायपुत्त" विरूद से इसका अधिक मेल बैठ जाता है। इस प्रकार निगंठनात निगंठनातपुत्त, या केवल नातपुत्त नामपद महावीर के अतिरिक्त प्रौर किप्ती का बोध नहीं कराता है । डॉ. व्हूलर कहता है कि जैनों के मुख्य स्थापक का सच्चा नाम खोज निकालने का यश डॉ. याकोबी और मुझ को है। ज्ञातृपुत्र शब्द जैन और उत्तरीय बौद्धशास्त्रों में प्रयुक्त हुआ है। पाली में यह शब्द नातपुत्त और जैन प्रकृत में नायपुत्त है । इत अथवा ज्ञाति उस राजपूत जाति का नाम ही मालम देता है कि जिसमें से निर्ग्रन्थ उद्भव हुए थे। 1. देखो उत्तराध्ययन, अध्या. 12, 163 16, 2; प्राचारांग स्कंध 2, अध्य 3, 2 और कल्पसूत्र सू. (130 पोर) 2 देवो दोधनिकाय, 1. प. 50; बुद्धीग्म इन ट्रांसलेशंस (हावर्ड प्रो. सिरीज), 3, प. 224, 342-43 469, पादि; महापरिनिवारण सुत्त, अध्या. 5,260 ग्रादि । उदाहरणार्थ देखो ह्रिस डेविड्स, से. बु. ई. पुस्त. 3, प. 166 । 3. शॉक्योपाध्यायात निर्ग्रन्थनिमित्त...यादि । -वराहमिहिर, वृहत्संहिता, अध्ययन 51, ग्लो. 21; वराहमिहिर (छठी सदी) की वृहत्संहिता, 60, 19 (सम्पा, कर्न), नग्न जैन यतिबों का धानिक वेष बताया गया है। वार्थ, वही, पृ. 1451 4. निर्ग्रन्थो भिक्षु...ग्रादि । -हेमचन्द अभिधानचितामणि, श्लो. 761 5. विवसनसमय...पादि। -पणशीकर, ब्रह्मसूत्र-माध्य, प. 252 (2य संस्करण) । 6. व्हलर, एपो, इण्डि., पुस्त. 2, पृ. 272 । 7. देखो अंगुत्तरनिकाय, 3, 74%; महावंग्ग, 6, 31 आदि । 8. अबौद्ध मान्यताओं की धर्म सम्प्रदायों में ही निग्रंथ या जैन हैं जिनकी वृद्धघोष विपक्षी रूप में ब्राह्मणों से भी अधिक कटुशब्दों में निंदा करता है। -नरीमान, संस्कृत बुद्धीज्म, 2 व संस्करण प. 199%; देखो मित्रा, दी संस्कृत बुद्धीस्टिक लिटरेचर हन नेपाल, प. || मी। 9. नाय कुलचंदे, उदाहरण के लिए देखो कल्पसूत्र, सूत्र 110; देखो, वही, सूत्र 20 ग्रादि मी: पाचारांगसूत्र, स्कंध 2 अध्य. 15, सूत्र 4 1 10. वही. स्कंध 1, अध्य. 7 सुत्र 12, और अध्य. 8 सूत्र 9 । ।।. याकोबी, कल्पसूत्र. प्रस्तावना प. 6 । 12. व्हलर, इग्डि. ऐण्टी., पु. 7 पृ. 143 टि.5। इस सुझाव के लिए हम प्रो. याकोबी के ग्राभारी हैं कि गुरु जिसको बौद्धधर्म ग्रन्थों में इस उपाधि से परिचय दिया गया है. महावीर ही है और यह सुझाव नि:सन्देह यथार्थ है। -के. हि. इं., भाग 1, पृ. 160 । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर बौद्धशास्त्रों को जब देखा जाता है तो सामंजफलमुत्त नाम के प्राचीन सिहली शास्त्र में निगठनातपुत्त की मृत्यु पावा में होने का उल्लेख हमें मिल जाता है। निगंठों के सिद्धांतों का बौद्धसूत्रों में विशेष रूप से वर्णन मिलने से जैनों धीर निमंठों की प्रभेद सिद्ध हो जाती है। निगठनातपुत सर्व वस्तु जानता है. पोर देवता है, संपूर्ण ज्ञान और दर्शन का वह दावा करता है, तपश्चर्या से कर्मों का नाश और क्रिया से नए कर्मों का अवरोध वह सिखाता है, जब कर्म समाप्त हो जाते हैं तब सब कुछ समाप्त हो जाता है । ऐसे ऐसे अनेक उल्लेख महावीर और उनके सिद्धांत के विषय में बौद्धों के प्राचीन ग्रन्थ में मिलते हैं परन्तु हम उन सब में से एक का ही अधिक विचार यहां करेंगे क्योंकि वह पार्श्वनाथ तक के इतिहास की खोज के लिए हमें अत्यन्त उपयोगी होने वाला है। 1 13 पार्श्व और महावीर के धर्म का सम्बन्ध - सामंजफलसुत्त में नातपुत्त के सिद्धांतों का उल्लेख इस प्रकार है चातुयाम सवर संतो इसको डा. याकोवो जैन पारिभाषिक शब्द 'चातुर्याम' सम्बन्धी उल्लेख मानते हैं। 'यह विद्वान कहता है कि ' महावीर के पुरोगामी पार्श्वनाथ के सिद्धांत के लिए इसी शब्द का उपयोग किया गया है। ताकि महावीर के सुधारे हुए सिद्धांत 'पंचयाम' धर्म से यह पृथक हो जाए ।" डा. याकोबी का यह मन्तव्य समझने के लिए हमें जानना श्रावश्यक हैं कि पार्श्वनाथ के मूल धर्म में उनके अनुयायियों के लिए चार महाव्रत नियत थे और वे इस प्रकार थेग्रहिसा, सत्य, अस्तेय (प्रवीर्य और अपरिग्रह (अनावश्यक सर्व वस्तुओं त्याग) सुधारक महावीर ने देखा कि जिस समाज में वे विचरते थे उसमें पार्श्वनाथ के अपरिग्रह व्रत से एक दम पृथक 'ब्रह्मचर्य याने शीलवत' को स्वतन्त्र व्रत रूप बढ़ाना परम आवश्यक है।* जैनधर्म में महावीर के लिए इस सुधार के सम्बन्ध में डॉ. याकोबी कहता है कि पाश्र्श्वनाथ घोर महावीर के अन्तराल समय में साधु संस्था में चारित्र्य की शिथिलता ग्रा गई हो ऐसी शास्त्र के तर्क से पूर्व सूचना मिलती है। और ऐसा तभी संभव है जब कि हम अन्तिम दो तीर्थंकरों के बीच में पर्याप्त समयान्तर मान लेते है, और पार्श्वनाथ के 250 वर्ष बाद महावीर हुए यह सामान्य दन्तकथा इस मान्यता से एक दम मेल खा जाती है । * इस प्रकार बौद्ध ग्रन्थों से ही हमें ऐसे ठोस प्रमाण प्राप्त होते हैं कि जो पार्श्वनाथ के जीवन की ऐतिहासिकता के निर्णय करने में हमारी सहायता करते हैं । फिर बोद्धशास्त्रों में नातपुत्त और उनके तत्वज्ञान के सम्बन्ध में वे सब उल्लेख प्राप्त होते देखकर हमें बड़ा ही विचित्र सा लगता है कि प्रतिस्पर्धी धर्म के लिए इतने अधिक खण्डन और उल्लेख होने पर भी जैनों ने अपने शास्त्रों में प्रतिपक्षियों की उपेक्षा की है। इससे यही समझा जाना चाहिए कि जहाँ बौद्ध निग्धों की सम्प्रदायको महत्व की मानते थे वहां निर्गन्ध बंदुधर्म बौद्ध को अपने निर्ग्रन्थों ग्रन्थों में उल्लेख योग्य महत्व का नहीं मानते थे। दोनों धर्मों के साहित्य की इन विचित्रतात्रों से बुद्ध और महावीर के बहुत वर्षों पूर्व से ही जैनधर्म अस्तित्व में था यह स्वतः सिद्ध होता है। डॉ. यकोबी कहता है कि निर्ग्रन्थों का उल्लेख बौद्ध ने अनेक बार, यहां तक कि पिटकों के प्राचीनतम भाग में भी किया है परन्तु बौद्धों के विजय में स्पष्ट उल्लेख अभी तक तो प्राचीनतम जैन सूत्रों में कही भी मेरे देखने में नहीं आया है. हालांकि उनमें जामाली, गौशाला और ग्रन्य पाखण्डी धर्माचार्यों के विषय में लम्बे-लम्बे कथानक 1. जेड. डी. एम. जी. संख्या 3. पृ. 749 | देखो व्हूलर, दी इन्डियन स्यैक्ट ग्राफ दो जैनाज, पृ. 34 2. अंगुत्तरनिकाय, 3, 74 देखो से सु. ई., पुस्त. 45, प्रस्ता. पू. 15 1 । 3. याकोबी, इण्डि एण्टी. पुस्त. 9 पू. 160 4 व्रतानि... पंचव्रतानि...यादि । 4. व्रतानि... पंचवानि... प्रादि । — देखो कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, प्. 3 । 5. याकोबी. से. ब्र. ई., पूत 45 प. 122 123 1 Page #25 --------------------------------------------------------------------------  Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 तीर्थकरों की बात को हम छोड़ दें तो भी हिन्दूधर्म के एक प्राचीनतम सूत्र में जैन तत्वज्ञान के सम्बन्ध में उल्लेख हमें मिल जाते हैं। ब्रह्मसूत्र जिसे तेलांग और अन्य पण्डितों ने ईसा पूर्व चौथीं सदी की प्राचीन रचना माना है, में स्याद्वाद और प्रात्म सम्बन्धी जैनधर्म की मान्यता का खण्डन किया गया है । इसके अतिरिक्त महाभारत, मनुस्मृति, शिवसहस्र, तेत्तरीय-पारण्यक, यजुर्वेदसंहिता और अन्य हिन्दूशास्त्रों में जैनधर्म सम्बन्धी अनेक उल्लेख हमें प्राप्त होते हैं। परन्तु यहां हमें उन पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है।" । अन्त में पार्श्वनाथ और उनके पुरोगामियों की ऐतिहासिकता के विषय में प्राचीन और पवित्र जैनसूत्र एवम् आधुनिक सुप्रसिद्ध विद्वान क्या कहते हैं उसका यहां विचार करलें । जैन साहित्य के किसी भी विभाग का सीधा विचार करने के पूर्व हम यह देख लें कि उस समय की रूपरेखा पर से इस विषय के सम्बन्ध में क्या बातें मिलती हैं । डॉ. जार्ल शार्पटियर कहता है कि तथ्यों के सामान्य विचार को दृष्टि से यह वक्तव्य कि शास्त्र का प्रमुख माग महावीर और उनके निकटस्थ अनुयायियों द्वारा उत्पन्न हुए थे, संभवतः विश्वस्त माना जा सकता है । परन्तु जैनी तो इससे भी एक कदम आगे जाते हैं। उनके अनुसार प्रथम तीर्थ कर ऋषभदेव के समय से चले पाते पूर्व ही प्राचीन में प्राचीन पवित्र जैन धर्मग्रन्थ हैं। इसके अतिरिक्त दूसरी अधिक विश्वस्त परम्परा भी एक है जिस पर डॉ. याकोबी उसको आंशिक सत्य मानते हुए ठीक ही भार देते हैं । यह परम्परा इस प्रकार है कि पूर्वो का उपदेश तो स्वयम् महावीर ने दिया था और ग्यारह अंगों की रचना बाद में उनके गजधरों ने की थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर और उनके उत्तराधिकारी गजधर पागम पाहित्य के कर्ता हैं । जब यह कहा जाता है कि महावीर कर्ता थे तो उसका यह अर्थ नहीं है कि ये शास्त्र उनके ही लिखे हुए हैं. अपितु यह कि जो कुछ लिखा गया उसका उपदेश उनने ही दिया था । "क्योंकि भारतवर्ष में कर्तव्य मुख्य रूप से वस्तु पर से माना जाता है । जब तक कि भाव वही हो तो शब्द किसके हैं यह बात अप्रासंगिक मानी जाती है।" फिर जैन साहित्य की कुछ विशिष्टतानों से ही हम देख सकते हैं कि धर्म की भांति, साहित्य में वर्धमान और उनके समय तक का भी उसमें अनुसंधान मिलता है । परन्तु यहां हमें उसकी एक भी लाक्षणिकता का निर्देश नहीं करना है क्योंकि "जैन साहित्य' शीर्षक के अध्याय में इसका सम्पूर्ण विचार किया जाने वाला है। जब कि पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में कर्मवेश अंश में जैनशास्त्रों में हमें सर्वमान्य प्रमाण मिलते हैं तो उनकी सप्रमागता में शंका करने का कोई भी कारण नहीं है। उदाहरणार्थ भद्रबाह के कल्पसूत्र को ही लीजिए। उसमें जनों के सब तीर्थकरों का वर्णन है। श्री पार्श्वनाथ महावीर के धर्मों के उसमें दिए उल्लेखों के विषय में बहत कुछ कहा ही जा चुका है । दूसरा शास्त्र भगवतीसूत्र का अत्यन्त उपयोगी भाग वह है कि जहाँ पार्श्वनाथ के अनुयायी कालासवेसियपुत्त और महावीर के किसी शिष्य में हुए संवाद-विवाद का वर्णन दिया गया है । इस वर्णन 1. से. बु. ई., पुस्तक 8, पृ. 32 । 'न्याय-दर्शन और ब्रह्मसूत्र (वेदान्त) की रचना ई. सन् 200 और 400 के बीच में कभी भी हुई थी।' याकोबी । देखो अमरीका प्रोरियन्टल सोसायटी पत्रिका, संख्या 31, पृ. 29 । 2. उदाहरण के लिए देखो, पंशीकर, वही, पृ. 252 । 3. हीरालाल हंसराज एशेंट हिस्ट्री आफ दी बैन रिलीजन, भाग, पृ. 85-89 । 4. शार्प-टियर, वही, पृ. 12। 5. याकोबी, से. बु. ई., पुस्तक 22, प्रस्ता. पृ. 45 । 6. याकोबी, कल्पसूत्र, पृ. 151 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] की समाप्ति उक्त कालाससियत के 'अनिवार्य प्रतिक्रमण सहित चार व्रतों के स्थान में पांच व्रत पहा कर साथ रहने की प्राशा मांगने में हुई है। शीलांक की प्राचारांग टीका में भी श्री पार्श्वनाथ के अनुयायियों के चतुर्याम और श्री महावीर के तीर्थ के पंचयाम धर्म में इतना हो अन्तर बताया गया है। 2 उत्तराध्ययनसूप में भी इसी बात की पुनरावृत्ति की गई है। दास गुप्ता के शब्दों में उत्तराध्ययन की यह कथा कि पार्श्वनाथ का एक शिष्य महावीर के एक शिष्य को मिला और दोनों ने महावीर प्रवर्तित धर्म पौर पार्श्वनाथ के प्राचीन धर्म का समन्वय किया, यह सूचित करती है कि पार्श्वनाथ सम्भवतः एक ऐतिहासिक पुरुष थे । '3 जैन धर्म की प्राचीनता और आधुनिक विद्वान: आधुनिक विद्वानों में भी, यदि हम पता लगाएं तो, पार्श्वनाथ के जीवन की ऐतिहासिकता के विषय में सर्वमान्य एकता है । संस्कृत के पुराने पाश्चात्य विद्वानों में से फोलबुक, स्टीवन्सन एडवर्ड टामस तो निश्चयपूर्वक मानते ही थे कि जैनधर्म नातपुत्त घोर शाक्यपुत से भी प्राचीन है कोलबुक कहता है कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के स्थापक थे। ऐसा मैं मानता हूं और महावीर एवं उनके शिष्य सुधर्मा ने उस जैनधर्म का पुनरुद्धार कर उसे सुता से सुव्यवस्थित किया था महावीर और उनके पुरोगामी पार्श्वनाथ दोनों को सुधर्मी या उसके अनुयायी तीर्थकर के रूप में पूजते थे और आज के जैन भी उसी प्रकार उन्हें पूजते हैं । जैसे कितने ही जरमन विद्वानों ने एच. एच. विल्सन 10. दूसरी पोर डा. स्वर" और डा. याकोबी लेखन आदि द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्कों का किया है। डा. याकोबी कहता है कि 'महावीर द्वारा सुधार किए पूर्वके जैनधर्म की कितनी ही बातें इतनी धिक स्पष्ट है कि वे विश्वस्त साधारों से ली गई हैं ऐसा माने सिवाय चल ही नहीं सकता है। इसलिए हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचना ही चाहिए कि महावीर के पूर्व निग्रन्थि अस्तित्व में थे । इस निष्कर्ष को आगे आनुषंगिक प्रमाणों से और भी स्पष्ट करूंगा 15 जो 1, अभी के समय का विचार करें तो डा. बेल्बेलकर डा. दासगुप्ता 14 और डॉ राधाकृष्णन ' कि भारतीय तत्वज्ञान के तीन महालेखक हैं और डा. शार्पेटियर 10 गेरीनोट मजुमदार, फेजर ", 1. एसे कालास वेसियपत्ते अणगारे मेरे भगवंतो बंद नमंसह 2 (ता) एवं वदासी- इच्छामि मंते । तुम...। देखो भगवतीसूत्र, सूत्र 76 शतक 1 देखो व्येवर केग्मेंट डेर भगवती, पृ. 185 1 1 2. स एव चतुर्यामभेदाच्चतुर्या प्रादि । देखो आचारांगसूत्र श्रुत स्कंध 2, गाया 12 - 13, पृ. 320 3. दासगुप्ता, हिस्ट्री ग्राफ इण्डियन फिलोसोफी भाग 1. पृ. 169 देखो तो केसि युवन्तं तु गोमो इरावी... ऋत उध्ययनसूत्र अध्ययन 23 गाया 25 4. कोलबुक, वही, पुस्त 2, पृ. 3171 5. स्टीवन्सन (पादरी), वही, और वही पृष्ठ | 6. टामस (एड्वर्ड), वही, पृ. 6 1 7. कोलबुक वही, और वही पृष्ठ । 12. art, gfog. yazt., gea 14. दासगुप्ता, वही, पृ. 173 1 16 शार्पेटियर, कै. हि. इं., भाग 18. मजुमदार वही पु. 292 आदि ।' 17 12 8. कूलर दी इंडियन स्पेक्ट ग्राफ दो जेनाज, पू. 32 व्हूलर, 10. विल्सन, वही. भाग 1. पृ. 334 1 11. लेसन, इण्डि एण्टी पुस्त 2. पू. 197 3 1 9, q. 160 1 पृ. 15. राधाकृष्णन, वही, पृ. 281 । 1, पृ. 153 9. याकोबी, से. बु.ई., पुस्त. 45 प्रस्ता. पृ. 2 1 13 वेल्वलकर, दी ब्रह्मसूत्राज पृ. 106 17. गेरीनोट, बिब्लीयोग्राफी जेना, प्रस्ता पृ. 8 । 19. केजर, लिट्टेरी हिस्ट्री आफ इंडिया, पृ. 128 1 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 17 ईलियट', पुसिन , आदि जो इतिहासवेत्ता और महान् पण्डित हैं, सब एक ही मत रखते हैं । डा. बेलवलकर लिखता है कि सांख्य, वेदान्त और बौद्ध जैसे अधिक विकसित आध्यात्मिक दर्शनों के उद्भव में समकालिक माने जाने वाले जैनधर्म को नीतिशास्त्र और आध्यात्म-विद्या की दृष्टि से योग्य न्याय नहीं दिया गया है बात यह है कि महावीर ने अपने दर्शन का अस्तित्व प्राचीन पुरुषों से वारसे में प्राप्त किया था और उसको उनने उसी परिवर्तित रूप में बाद की प्रजा को दे देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया था। .. उत्तराध्ययनसूत्र की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना में डॉ. शाटियर लिखता है कि हमें दोनों ही बातें स्मरण रखना चाहिए कि जैनधर्म महावीर से अवश्य ही प्राचीन है और उनके प्रसिद्ध पुरोगामी पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक पुरुष हो गए हैं और इसलिए मूल सिद्धांत की प्रमुख बातें महावीर के बहुत समय पूर्व से ही संहिताबद्ध हो गई होगी। अन्तिम परन्तु अति महत्व का उल्लेख डॉ. गेरीनोट का है जो इस प्रकार है कि पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति हो गए हैं इसमें शंका ही नहीं है । जैन मान्यतानुसार वे 100 वर्ष जीवित रहे और महावीर से 250 वर्ष पूर्व उनका निर्वाण हुग्रा। इससे उनका समय याने कार्यकाल ई. पु. आठवीं सदी का कहा जा सकता है। महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ के धर्म के अनुयायी थे ।' महावीर के पहले के तीर्थंकरों की विद्यमानता के सम्बन्ध में इतने, अगिरणत प्रमाणों के ऐतिहासिक भ्रमसंकुलता भय से रहित होकर ऐसा कह सकते हैं कि आधुनिक खोज पार्श्वनाथ के समय तक तो ठीक-ठीक पहुंच गई है। अन्य तीर्थंकरों के लिए डॉ. मजुमदार के अमप्राय का जो जैन कथानको को अवगणना की जोखम उठाकर भी कहते हैं कि जनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव बिठूर में वैराजवंश (ई. पू. 29 वीं सदी) के राजा थे । हम समर्थन नहीं कर सकते हैं कि हम डॉ. याकोबी के शब्दों में अन्त में यह कहेंगे कि 'जैनधर्म की प्राकऐतिहासिकता की समालोचना की कुछ झांकी देने के साथ ही हम हमारी खोज का कार्य यहां समाप्त कर देते हैं । अन्तिम दृष्टि बिन्दु जो कि हम देख सकते हैं वह पार्श्वनाथ हैं। उनके पूर्व का इतिहास सर्व कल्पित कथानको और मान्यताओं की सुध में खो गया, ऐसा लगता है।" 1. इलियट, हिन्दु इज्म एंड बुद्धीज्म, 1, पृ. 110। 2. पूसेन, दी वे टू निर्वाण, पृ. 67 । 3. वेल्वलकर, वही, पृ. 107 । 4. शटियर, उत्तराध्ययनसूत्र, प्रस्तावना पृ. 21 । 5. गेरीनोट, वही, और वही पृष्ठ । 6. मजुमदार, वही और वही पृष्ठ । 7. याकोबी, वही, पृ. 162 । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय महावीर और उनका समय पार्श्व के सम्बन्ध में अनेक बातें: पहले अध्याय में महावीर के पुरोगामी पार्श्वनाथ, के सम्बन्ध में विचार किया गया था। जैनसूत्रों के अतिरिक्त अन्य साहित्य उनके विषय में सूचना कुछ भी दे सके ऐसा नहीं है । बौद्धसाहित्य में पार्श्वनाथ के चतुर्याम धर्म सम्बन्धी कुछ सूचनाएं मिली थी। परन्तु उसके सिवा उनके सम्बन्ध में जो भी हम जानते हैं, सब जैनसूत्रों से ही जानते हैं और वे ही सुत्र उस सबका जो कि उनके विषय में इतिहासवेत्ताओं और अन्य विद्वानों ने कहा है, भूल आधार है। पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में जैन जो कुछ भी कहते हैं उस सबको यहां कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इन अन्तिम दोनों तीर्थकरों के बीच के समय का इतिहास भी लिखा जाना सम्भव नहीं है। इसके दो कारण है । पहला तो यह कि उनके विषय में जो भी हम जानते है वह सब परम्परा और दन्तकथा पर ही आधारित है । दूसरा यह कि उसमें भी कितनी ही परस्पर विरोधी है। फिर भी इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि पार्श्वनाथ वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे और उनकी माता का नाम वामादेवी था। इसके सिवा जैन मान्यतानुसार उनके 16,000 साधु, 38,000 साध्वियां, 1,64,000 श्रावक और 3,27,000 श्राविकाएं थी। वे 100 वर्ष जीवित रहे थे और इसमें से उनके 70 वर्ष निर्वाण प्राप्ति के लिए ही बिताए यह भी कहा जाता है। [पार्श्वनाथ के 250 वर्ष पश्चात् महावीर का प्रादुर्भाव हुआ] ___ महावीर, जैन मान्यतानुसार, उनके पुरोगामी के लगभग 250 वर्ष बाद में हुए थे ।' महावीर का जन्म और अस्तित्व का समय भारतीय इतिहास का बुद्धिवादी युग कहा जाता है । इस युग की अवधि के सम्बन्ध में विदवान यद्यपि एक मत नहीं हैं, फिर भी सामान्य दृष्टि से ई. पूर्व 1000 से ई. पूर्व 200 इस युग की ग्रादि और अन्त सीमाएं मानी जा सकती हैं। भारतीय वीरगाथा-युग बीत चुका था । गंगा-घाटी के कोरब, पांचाल 1. कल्पसूत्र, सूत्र 150; और भी देखो अवतारद्वामास्वामिन्या उदरे...आदि । हेमचन्द्र, त्रिषष्टि-शैलाका, पर्व 9, श्लो. 2 3, पृ. 196; शाटियर, के. हि. इं., भाग 1, पृ. 154।। 2. कल्पसूत्र, सूत्र 161-164; दिगम्बर मान्यतानुसार इन संख्यायों में अन्तर है। 3. वही, सूत्र 168; और देखो सप्ततिव्रतपालनें । इत्यायुर्वत्सरशतं...आदि । हेमचन्द, वही, श्लोक 318, पृ. 219; मजुमदार, वही, पृ. 551। 4. श्री पार्श्वविर्वाणात पंचाशदधिकवर्षशतद्वयेन श्री वीरनिर्वाणं । कल्पसूत्र, सुबोधिका---टीका, पृ. 132 । क्योंकि महावीर निर्वाण के 250 वर्ष पूर्व उनका निर्वाण होना कहा जाता है, इसलिए वे ई. पू. 8वीं शती में सम्भवतः हुए होगे । कै. हि. ई., भाग 1, पृ. 153 । 5. देखो दत्त, वही, विषय सूची; मजुमदार, वही,विषय सूची। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 19 कौसल, और विदेह भी सब अस्तित्व में नहीं थे। इसी काल में आर्य गंगा घाटी से बाहर निकल पाए थे प्रोर भारत के धुर दक्षिण प्रदेशों तक में उनने हिन्दू राज्यों की स्थापना कर ली थी और अपने इन नए राज्यों में ज्वलंत सायं संस्कृति का प्रचार भी कर दिया था। ब्राह्मणों का बढ़ता प्रभाव और जातिवाद के विशेषाधिकार: यही समय भारत में धर्मो के उत्कर्ष के लिए भी प्रसिद्ध है। चौदह सदियों से जिस प्राचीन धर्म का आर्य लोग पालन और प्रचार करते आ रहे थे, वह विविध रूपों में विकृत हो गया था । एक भारी परिवर्तन का प्रारम्भ अब भारत को देखना बचा था। देश को हिन्दू धर्म में, चाहे वह भले के लिए हो अथवा बुरे के लिए ही पर, भारी क्रांति का सामना करना पड़ा। धर्म के सच्चे स्वरूप का स्थान दिखावे लोकिकता ने ले लिया था। उत्कृष्टतम सामाजिक और नैतिक नियम अस्वास्थ्यकर जातिभेद, ब्राह्मण एकाति अधिकार और शूद्रों के प्रति क्रूर विधान से कलंकित कर दिए गए थे परन्तु ऐसे एकाधिकृत प्रत्याधिकारों ने भी ब्राह्मणों का सुधार करने में सहयाता नहीं की । एक जाति रूप में वे इतने लोभी, इतने लालची, इतने अज्ञान और इतने दम्भी बन गए थे कि स्वयम् ग्राह्मण सूत्रकारों तक को भी प्रति कठोर शब्दों में उनकी इस बुराई की निंदा करना आवश्यक हो पड़ा था । 2 हिन्दुओं में गुरू संस्था का प्रवेश पीछे से हुआ है यह तो निर्विवाद हैं। ऋग्वेद' में जो कि प्रार्य-संस्कृति का प्राचीनतम ग्रन्थ है, ब्राह्मण शब्द यद्यपि प्रयुक्त तो हुआ है परन्तु 'धार्मिक गीतों का गाने वाला' के अर्थ में ही वह प्रयोग है। पर अब वे धार्मिक क्रियाकाण्ड कराने वाले पुरोहित के रूप में परिचय पाने लगे थे, और जैसे समय बीतता गया वैसे ही इस कार्य का अधिकार वंश परम्परागत होता गया एवं ब्रह्मण शनैः शनैः उच्च से उच्चतम मान प्राप्त करते गए फल यह हुआ कि ब्राह्मणों का दम्भ खूब ही बढ़ गया । इनकी जाति फिर भी एकाधिकृत नहीं बन पाई थी । ईरानियों से पृथक होने के समय से उस सिंधु नदी के मुहाने के निकटस्थ सप्त नदियों के प्रदेश से जहां कि आर्यगण प्रारम्भ में बसे थे, आगे बढ़ने के समय तक तो आर्यों की स्थिति यही थी। " परन्तु इस सप्तनदियों के प्रदेश से दक्षिण-पूर्व के प्रदेशों की ओर प्रयाग और गंगा-यमुना नदियों के तटीय प्रदेशों में हिन्दू-प्रार्यो के बस जाने से वैदिक धर्म ने ब्राह्मण धर्म या ब्राह्मणों के धर्माधीशतंत्र को जन्म दे ही दिया । 7 1. दत्त, वही, पृ. 340 2. वही, पृ. 341; और देखो - (ब्राह्मण) जो न तो वेद और न यज्ञाग्नि ही रखते हैं, वे शुद्र समान हैं। विशिष्ठ अध्या. 3, श्लो. 1 gear. 14, q. 16 1 पुस्त. पृ. 3. ग्रिफिथ दी हिम्स ग्राफ दी ऋग्वेद भाग 2. पु. 96 आदि (2व संस्करण) । 4. देखो टीले, आउटलाइन्स ग्राफ दी हिस्ट्री आफ रिलीजन पृ. 115 | 5. कालान्तर में पुरोहित का राजा के साथ सम्बन्ध स्थायी होता जाने लगा और संभवतया वह पैत्रिक हो गया देखो लाहान नाथ, एंजेंट इण्डियन पोलिटी, पृ. 44 1 6. ब्रह्मर्षि देश और सप्तनद की भूमि में ग्रार्यों के आदि संस्थानों के सम्बन्धों का निर्णय करना इतना सहज नहीं है । के. हि. ई, भाग 1, पृ. 51 7. देखो टीले, वही, पृ. 112, 117 ऋग्वेद की भाषा, वैदिक संस्कृति का प्राचीनतम रूप सप्तनद देश की है । ब्राह्मणों की और उपरि यमुना और गंगा के देश (ब्रह्मविदेश) की उत्तरकालीन वैदिक साहित्य की भाषा संक्रमण काल की है। के. हि. ई. भाग 1, पृ.57 " पढते और पढ़ाते हैं देखो कूलर से.. ई. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] इस ब्राह्मणधर्म के साथ ही वर्ण-व्यवस्था याने जातिवाद की सजड़ता का जन्म हुआ जो कि 'वीरगाथा (महाभारत) काल में फिर भी लचीली संस्था ही थी । परन्तु बुद्धिवादी युग में इस जाति प्रथा के नियम अधिक कड़क और अनमनशील हो गए यहां तक कि निम्न जाति के लोगों का धर्माधिकारिता की सीमा में प्रवेश करना तक भी असम्भव हो गया था ।" इस स्थिति का परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण परिश्रम करने से बिलकुल विमुख हो गए और अन्य वर्गों को उनके परिश्रम का कुछ भी एवज दिए बिना ही उन परिश्रमी वर्गों की सम्पत्ति पर ही निर्वाह करने वाले होते गए । 2 धीरे-धीरे वे यहां तक निष्कर्मा बन गए कि परिश्रम से मुक्ति प्राप्ति की योग्यता के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने से भी वे हिचकिचाने लगे। वशिष्ठ को ब्राह्मणों की यह बुराई और अन्याय बहुत ही प्रसह्य हो उठा था धौर इसलिए उसने ऐसे निष्कर्माओं को प्राथव अथवा पोषण देने का ऐसी उग्र भाषा में घोर विरोध किया कि जैसी जीती-जागती प्रजा का हिन्दू धर्म हो तभी प्रयोग की जा सकती थी ।" 4 वर्णाश्रम के अधिकारों से उत्पन्न इस अपव्यवहार को लेखनला के सर्वधा प्रभाव अथवा साहित्य लेखन में उसके सामान्यतया प्रयोग ने ब्राह्मणवर्ग के प्रवर्धमान वर्चस्व को और भी बढ़ाने में पूरी-पूरी सहायता की। 1 राजों और उमरावों की प्रजा और घाषित रहते रहते ही उनके कृपापात्र बनने और वह प्रतिपादन करने कि ब्राह्मण के रक्षण और स्वातन्त्र्य की रक्षा करना ही उनका धर्म है, का प्रयत्न करते रहे। धीरे धीरे इन राजों और उमरावों के उपदेष्टा होने के कारण ये लोग एकाधिकारी उपदेष्टा होने का दावा करते हुए श्रुति और स्मृति के रक्षक और विवरणकार ही बन बैठे । " शुरू शुरू में धर्म की अनेक पुस्तकें यज्ञयागादि अनुष्ठानों के उद्देश से ही रची गई थीं।" उन्हीं का चार वेदों में जिनका प्रत्येक का भिन्न भिन्न ब्राह्मण है, समावेश होता है । इन ब्राह्मणों में मुख्य रूप से संकुचित क्रियाकाण्ड, शिशुजनोचित प्राध्यात्मवाद और अनेक नगण्य बातों के विषय में कुसंस्कार सम्पन्न वार्ताएं जैसी कि अपरिमित धार्मिक सत्ताप्राप्त शक्तिशाली और पांडित्यप्रदर्शी गुरुयों से प्राशा की जा सकती है, भरी हुई हैं।"" यज्ञक्रिया इस प्रकार योजित और संगठित हुई थी कि धीरे धीरे वह बहुकष्टसाध्य और जंजाल युक्त होती गई और इसके लिए इनके करानेवालों की संख्या में अधिक वृद्धि होती गई । और ये यज्ञ करानेवाले अनिवार्यतः ब्राह्मण ही होते थे। किसी किसी समय ये यज्ञकरानेवाले यहां तक बढ़ जाते थे कि देवों के प्रति मान भी न्यून ली. एच. भाग 2 पु. 493 I I 1. दत्त, वही, पृ. 264 देखों कुक, एम. 2. देखो मैडल ऍशेट इण्डिया. पु. 209 मैक्क्रिडल, 3. 'राजा उस ग्राम को दण्ड देगा जिसमें ब्रह्म अपने पवित्र धर्म और वेद ज्ञान से रहित हो, भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करेंगे क्योंकि वे लुटेरों को भरण-पोषण देते हैं।' वशिष्ठ, 3, 4 1 देखो व्हूलर से. बु. ई. f. gr. 14, q. 17 1 4. देखो टीले, वही, पृ. 121 5. 'इसी वर्ग में भविष्यकथन विद्या मी एकान्तरूपेण परिसीमित थी और इनके सिवा कोई भी यह व्यवसाय यह " कला नहीं कर सकता है।' मेक्ॠिण्डेल, वही और वही पृष्ठ । 6. राजसूययज्ञ, पण्वमेवयज्ञ, पुरुषमेपयश, अपराधी मनुष्यों की बलि दी जाती थी यद्यपि इसे सर्वानुमति से उठाया नहीं गया 7. टीले, वही, पृ. 123 सर्वमेवयज्ञ ही प्रमुख यज्ञ थे। इन चारों यज्ञों में प्राचीन काल में परन्तु जैसे जैसे सदाचार विनम्र होता गया, यह प्रण भी उठती गई। था, फिर भी इसका व्यवहार एक दिन उठ ही गया । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 21 लगता था क्योंकि वे अपने को ही इन देवों की कोटि में रख देते थे । यज्ञक्रिया के पीछे ऐसी लोकमान्यता थी कि विधिविधान और यज्ञसामग्री के उचित संमिश्रण में ही इच्छित परिणाम उत्पन्न करने की चमत्कारिक शक्ति है जैसे कि वर्षांवरसाना, पुत्र जन्म होना, मत्रु सेना का सम्पूर्ण पराजय यादि यादि मे यज्ञादि नैतिक उन्नति के लिए इतने नहीं अपितु व्यवहारिक सम्पन्नता के साधनों को प्राप्त करने के लिए ही किए जाते थे।" 1 इस प्रकार ब्राह्मणों का सामाजिक लक्ष्य धर्माधिकारी की अमर्यादित सत्ता और ज्ञातियों का एकान्त पृथककरण था। ऐसी स्थितिचुस्त समाज में कितने ही उपयोगी धन्ये पाप रूप गिने जाने लगे थे और लोगों को उन लज्जायुक्त धन्धों से जो उन्हें पापस्वरूप जन्म में प्राप्त हुए थे, पीछे हटते भी रोका जाता था। ऊंचे से ऊंचे अधिकार ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित रहते और प्रत्यन्त सीमातिक्रांत स्वत्वों के भी वे ही पात्र होते थे। यह सब यहां तक चलता रहा था कि राजा की अमर्यादित सत्ता भी उनकी सेवा के लिए ही मानी जाने लगी थी। प्राचीन भारतीयों का धार्मिक झुकाव ही ऐसा था कि प्रत्यन्त प्राचीन काल से जिसका कि हमें कुछ भी पता है, राज्य के धर्माधिकारी प्रमुख व्यक्ति माने जाने लद गए थे। सामाजिक व्यवस्था में स्त्री की स्थिति नगण्य हो गई थी और शूद्र तो एकदम तुच्छ व तिरस्कृत ही माने जाते थे । ' " महावीर और बौद्ध के आविर्भाव से धर्माधिकारी मंडलों की सत्ता और कट्टर जातिवाद का प्रन्तःस्वाभाविक ही था कि समाज की यह परिस्थिति लम्बी अवधि तक निभ नहीं सकती थी । और इस स्थिति का एक और महावीर एवं दूसरी पोर शाक्यपुत्र बुद्ध के धागमन से प्रन्त था ही गया 'फ्रांस का विप्लव' दत्त र 1 लिखता है कि मुख्यतः दो कारणों से हुआ था याने राजाओं के प्रत्याचारों मे वेत्ताओं की बौद्धिक प्रक्रिया से भारत का बौद्ध विप्लव इससे भी स्पष्ट परन्तु ऐ के प्रत्याचारों से लोग विप्लव के उन्मुक्त कर दिया।" -- पठारहवीं सदी के तत्वकारणों से या ब्राह्मणधर्म लिए श्रातुर तो थे ही, और तत्ववेत्ताओं के कार्यों ने ऐसे विप्लव का मार्ग एकदम डा. हास किस तो कुछ धागे भी बढ़ जाता है और जिन लोगों ने ऐसे विचारों को सर्वप्रथम उत्पन्न किया उनके मानस को ही इसका श्रेय देता है वह कहता है कि "बहुतांश में जैन और बौद्धधर्म की विजय तात्कालिक राजकीय प्रवृत्ति की ही प्रभारी है। पूर्वदेश के राजा पश्चिमी धर्म से प्रसन्तुष्ठ थे वे उसे फेंक देने में प्रसन्न थे... पूर्व की अपेक्षा पश्चिम अधिक रूढ़िग्रस्त था। वह अपने मान्य ग्राचारों का केन्द्र था और पूर्व मात्र उनका पालक पिता था।" 1. उनको ही 'देवी और सम्मान का सर्वोच् स्थान प्राप्त था। देखो मेक्रिष्टल, वही और वही स्थान | 2. दासगुप्ता, वही, पृ. 208 देखो नाहा, न. ना. वही, पृ. 39 3. राष्ट्र के निर्देशक और राज्य के सलाहकार वे देव द्वारा नियुक्त हुए थे, परन्तु वे स्वयं राजा नहीं बन सकते थे । लाहान. ना., वही पृ: 45 4. पुरोहित भी कहे जाते थे जिसका व्युत्पत्तिक अर्थ है 'आगे धरा हुआ, नियुक्त' । 5. टीले, वही, पृ, 129-30 | 'यत्र किया जाने पर भी मनु ने स्त्रियों को दोनों के लिए ही समान रूप से उसने और अध्या. 4 श्लो, 80 । दत्ते. वही, नार्यस्तु पण्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' । पंक्ति का उद्धरण बहुधा प्रस्तुत संस्कार क्रिया का निषेध ही किया है। यह निषेध स्त्रियों और शूद्रों किया है । देखो मनुस्मृति अध्या. 5 श्लो. 155; अध्या. 9 श्लो, 18 ; पृ. 255 1 6. हापकिस, वही, पृ. 282 1 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 ] ब्राह्मणों के प्रति तिरस्कार का प्रभाव ---- परन्तु इस महान् भारतीय क्रांति के स्पष्टीकरण में हम ब्राह्मण विरोधी किसी प्रकार की वृत्ति की खोज करने को प्रातुर नहीं हैं । यह तो 'वीरगाथा-युग की प्रारम्भ में व्याप्त विचारों के सामान्य उभार का ही परिणाम था।। हमें उसे 'ब्राह्मणों के जातिभेद के प्रति क्षत्रियों के विरोध का परिणाम मात्र नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि 'ब्राह्मणधर्म के सनातन गढ़ के बाहर नवीन विश्वासों और सिद्धांतों की वृद्धि के लिए भूमि अच्छी तरह तैयार हो गई थी। इसके सिवा विकास का मूल जिस पर किसी भी धर्म का इतिहास विस्तार पाता है, ऐसे सिद्धांत पर टिका रहता है कि धर्म में होने वाले सब परिवर्तन और नवरूप चाहे वे विषय दृष्टि से उसकी उन्नति या अवनीति रूप ही दिखते हों, स्वाभाविक विकास के परिणाम ही होते हैं और उन्हीं से उनका समाधान भी मिल जाता है। अपने निर्दिष्ट समय की ओर आने पर हम देखते हैं कि इस परिस्थिति को भारतीय विचारों के इतिहास और भारतीय जीवन के इकाव में हुए शांत परिवर्तन से पुष्टि मिली थी। श्री कुन्ते कहते हैं कि 'गौतमबुद्ध वेद की सामाजिक, राजकीय और धार्मिक प्रवृत्तियों का व्यवस्थित विरोध करने में सफल हए उससे बहुत पूर्व से ही वेद की सत्ता में शंका उत्पन्न करने की वृत्ति देखने में पाती थी। इस प्रकार की मान्यता प्रान्य विद्वानों की भी है । 'बौद्ध और जैन धर्म को' डा. याकोबी कहता है कि 'बाह्मणधर्म की धार्मिक क्रियानों से उद्भुत परिणाम ही माना जाना चाहिए कि जो प्राकस्मिक सुधारों से नहीं परन्तु लम्बे समय से चली आती धार्मिक प्रवृत्तियों से प्रेरित हुए थे। यदि हम ऐसा कहें तो अनुचित नहीं होगा कि भविष्य में होने वाले ऐसे परिवर्तन की गूज उपनिषदों में कि जिनमें सब दिशानों से नवीन प्रणाली का पूर्व सूचन है, स्पष्ट सुनाई पड़ती है।' इस नवीन पद्धति के अग्रदूतों ने 'डा. दासगुप्ता कहता है कि, बहुत करके उपनिषदों से और याज्ञिक धर्म से ही प्रेरणा लेकर अपनी स्वतन्त्र बुद्धि के जोर से अपनी प्रणालियां निर्मित की थी। लोगों के मन में चल रहे ऐसे परिवर्तन का समय श्री दत्त ई. पू. ग्यारहवीं सदी अर्थात् हम जिस समय का यहां विचार कर रहे हैं उससे पांच सदी पूर्व जितना प्राचीन मानते हैं। उनके अनुसार 'उत्साही और विचारकर हिन्दुनों ने ब्राह्माणों के जंजाल भरे क्रिया काण्डों से आगे जाने का साहस किया और प्रात्मा तथा उसके निर्माता के गढ़ रहस्यों की पूछताछ या खोज करने लगे थे। तब हिन्दूधर्म की यह स्थिति थी। इसलिए स्वाभाविकतया जैनधर्म भी उसके बुरे प्रभावों से बचा रह नहीं सकता था । हमने देख ही लिया है कि महावीर को उनके पुरागामी द्वारा प्रस्तुत किए गए चार व्रतों में कितना ही फेरफार करना पड़ा था और इसके फल स्वरूप उनके उपदिष्ट पांचव्रतों का प्रारम्भ हुआ था । समाज की परिस्थिति तब ऐसी थी कि लोग स्वतंत्र और स्वच्छंदी जीवन के लिए मिल सकने वाली थोड़ी सी छूट का भी लाभ लेने से क्वचित ही चूकते और इसलिए महावीर को पार्श्वनाथ के धर्म की प्रत्येक दिशा का विशदीकरण क्यों करना पड़ा था यह स्पष्ट विदित हो जाता है। 1. राधाकृष्णन, वही, भाग 1, पृ. 293 । 2. श्रीनिवासाचारी और प्रायंगर, वही, पृ. 48। 3. फ्रेजर, वही, पृ. 117 । 4. कण्टे, वही, पृ. 407, 408 1 5. याकोबी, से. बु. ई., पुस्तक 22, प्रस्तावना पृ. 32 । 6. दासगुप्ता, वही, भाग 1, प. 210। 7. दत्त,. वही, पृ. 340 । 7. ...250 वर्ष में जो कि उनके निर्वाण और महावीर के अवतरण में बीते, विकार इतना अधिक फैल गया था..., आदि । स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, प. 491 8. देखो कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पृ. 3; याकोबी से. बु. ई., पुस्तक 45, पृ. 122, 113 । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 23 सामान्य दृष्टि से जैनधर्म: ऐसे बदलते हुए विचार-प्रवाह में महावीर हुए और जगत के रहस्य का आकलन करने के लिये उनने अपना ऐसा मार्ग खोजा कि जिसमें इहलोक और परलोक के सुख का भविष्य मनुष्य के निजी हाथों में ही रहा और जिसने प्रजा को स्वाश्रयी बनाया। जब उनने उपदेश देना प्रारम्भ किया तब प्रजा तो तैयार थी ही उनका प्राध्यात्मवाद प्रजा को समझ में आता था इसलिय वह प्रजा को मान्य भी हो गया था। शनैः शनैः ब्राह्मण भी उन्हें एक महान् गुरू मानने लग गए थे। बुद्धिमान ब्राह्मण भी समय समय पर जैन और बौद्धधर्म में अपनी श्रद्धा से और अपनी प्रतिष्ठा के लिए आने लगे और इनने जैनधर्म की साहित्यिक प्रतिष्ठा कायम रखने में अपना पूरा योगदान दिया था ।" जैनधर्म शनैः शनैः गरीब और पतित वर्गों में भी फैला क्योंकि जाति के विशेष स्वत्वों का वह प्रखर विरोध करता था। जैनधर्म मनुष्य की समानता का धर्म था । महावीर की सत्य शील प्रात्मा ने मनुष्य-मनुष्य के अघटित भेदों के विरुद्ध क्रांति जगाई और उनका दयालु हृदय दुःखी, गरीब और असहाय लोगों की सहायता करने को तत्पर बना। पवित्र जीवन और निर्दोष परोपकारी चरित्र की सुन्दरता में ही मनुष्य की सम्पूर्णता है और ऐसी व्यक्ति को पृथ्वी स्वर्गतुल्य है ऐसा उनके मनोमन्दिर में प्रकाशहुया और एक पैगम्बर एवम् सुधारक की भांति सम्पूर्ण आत्म विश्वास के साथ उनने धर्म के तत्वरूप में ये बातें सर्व साधारगा के सामने रखीं। उनकी विश्वविस्तीर्ण दया ने दुःखी हो रहे जगत को आत्मसुधार और पवित्र जीवन का सन्देश पहुंचाने की प्रेरणा की और उनने गरीब तथा पतित जातियों में विश्वबंधुत्व की भावना अनुशीलन करने और उसके द्वारा उनके दुःखों का अन्त लाने को आकर्षित किया । ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, उच्च हो अथवा नीच, सभी उनकी दृष्टि में समान थे । पवित्र जीवन से प्रत्येक जीव अपना मोक्ष समान रीति से साध सकता है और इसलिए अपना सर्वमान्य प्रेमधर्म स्वीकार करने को उनने सबको आमंत्रित किया। पूर्व समय में योरोप में जैसे ईसाई धर्म फैला था वैसे ही धीरे-धीरे भारतवर्ष में जैनधर्म भी प्रचार पाने लगा और वह भी यहां तक कि श्रेरिणक, कुरिणक, चन्द्रगुप्त, सम्प्रति, खारवेल और अन्य अनेक राजौ आदि ने भारतवर्ष के हिन्दूराज्य की प्रारम्भिक विख्यात शक्तियों में जैनधर्म को स्वीकार किया। ब्रहमणधर्म की भांति ही जैनधर्म का प्राधार भी पुनर्जन्म का सिद्धांत ही है और पुनर्जन्म की अनंत परम्परा समक्ति प्राप्ति ही उसका ध्येय है। परन्त इस मुक्ति या मोक्ष के लिए ब्राह्मणधर्म के तप और त्याग ही वह पर्याप्त नहीं मानता है। इसका ध्येय ब्रह्म के साथ एकता साधना नहीं अपितु निर्वाण याने समस्त शारीरिक प्राकारो और क्रियानों से भी एकदम मूक्ति यानि छूटना है। 1. प्रभू: अपापापूर्यो...जगाम, तत्र...बहबो ब्राह्मणाः मिलिताः...चतुश्चत्वारिंशब्छतानि द्विजा प्रवजिताः । कल्पसूत्र. सुबोधिका टीका, पृ. 112, 118। 2. वैद्य चि वि., हिस्ट्री ग्राफ मेडीवल हिन्द इण्डिया, भाग 3, प. 4061 3. सबसत्वानां हितमुखायास्तु (सर्व प्राणियों को सुख और हित के लिए हो) ब्हलर, एपी. इण्डि., पुस्तक 2, प. 203, 204, शिलालेख सं 18 । 4. 'वह जिसके लिए इस संसार में किसी भी प्रकार का कोई बन्धन नहीं है...ग्रादि, जन्म लेने का मार्ग उसने छोड़ दिया है।' याकोबी, से. बु. ई., पुस्त. 22, पृ. 213 । 5. प्राचीन भारत में संसार सम्बन्धी प्रमुख दो सिद्धांत थे । एक तो वह जो वेदान्त के रूप में प्रसिद्ध हुआ और जो यह सिखाता है कि ब्रह्म और आत्म एक ही है और बाह्य जगत एक माया है । इलियट, वही, 1 पृ. 10 । 6. प्रात्यन्तिको वियोगस्तु देहादेर्मोक्ष उच्यते...हरिभद्र, षड्दर्शनसमुच्चय, श्लो. 52 । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 } देवों का अस्तित्व, कम से कम पहले पहले तो,अस्वीकार किए बिना ही जैनधर्म प्रत्येक जिन को उनसे उच्च मानता है और उनको परिपूर्ण संत की अपेक्षा न्यून कोटि का गिनता है। जैसे प्राथमिक ईसाईधर्म भी यहदीधर्म से पृथक था वैसे ही जैनधर्म भी ब्राह्मणधर्म से यह अस्वीकार करने में शास्त्रज्ञान एवम् बाह्य प्राचार ही पवित्रता का सूचक हैं और यह मानने में कि नम्रता, हृदय और जीवन की पवित्रता, दया, प्रत्येक जीव के प्रति नि:स्वार्थ प्रेम प्रावश्यक है, जुदा पड़ता है। परन्तु सर्वतोपरि अन्तर इसका जातिभेद सम्बन्धी विचार है । महावीर न तो जातिभेद का विरोध करते हैं और न सब जातियों को एक समान करने का ही वे प्रयत्न करते हैं। पक्षान्तर में वे तो यह प्रतिपादन करते हैं कि पूर्वजन्मकृत सुकृत्यों अथवा पापों के परिणाम स्वरूप उच्च अथवा नीच जाति या कुल में जीव जन्म लेता है, और साथ यह भी कि पवित्र और प्रेममय जीवन से, आध्यात्मिकता प्राप्त करने से प्रत्येक जीव सर्वोच्च मोक्ष भी एक दम प्राप्त कर सकता है । इस मोक्षप्राप्ति में जाति उन्हें कोई बाधक नहीं लगती है । वे तो चाण्डाल में भी समान ही आत्मा देखते हैं। जीदन के सुख-दुःख सब को समान ही भुगतने पड़ते हैं। उनका धर्म सब जीवों के प्रति दया का धर्म है । इसलिए महावीर ने जो अनन्यतम क्षेमंकर परिवर्तन किया वह या जातिभेद को अवस्थाधीन और अप्रधान सिद्ध करना एवम् यह बताना कि प्राध्यात्मिक व्यक्ति के लिए शांति प्रथा का बन्धन तोड़ना बिल्कुल सहज है । महावीर का जीवन: जैनधर्म का सामान्य स्वरूप यही है । उसका यह स्वरूप लक्षण रूप में एकदम रुचिकर है। प्राज्ञा की अपेक्षा उपदेश को ही वह अपना साधन मानता हैं । महावीर का विचार करने पर हम देखते हैं कि बुद्ध की भांति वें भी एक अभिजात्य क्षत्रियवश में जन्मे थे। सच तो यह है कि जैन मान्यता हो ऐसी रही है कि जिन याने तीर्थकर क्षत्रिय अथवा उस जैसे कुल में ही सदा जन्म लेते हैं। परन्तु महावीर के सम्बन्ध में ऐसा हुआ कि विगत जन्मों के कितने ही कर्मों के कारण वे ऋषभदत्त ब्राह्मण की भार्या देवानन्दा ब्राह्मणी की कोख में भरण 1. देवाधिदेवं सर्वज्ञ श्री वीरं प्ररिणदध्महे ... हेमचन्द्र, परिशिष्टपर्वन्, सर्ग 1, श्लो. 2; ...जिनेन्द्रे सुरासुरेन्द्रसंपूज्य:...हरिभद्र, वही, श्लो. 45-46 । 2. केशलु धन से ही कोई श्रमण नहीं हो जाता है, ॐ के पवित्र उच्चारण से ही न कोई ब्राह्मण हो जाता है और न वन निवास से हो कोई मुनि, कुशधास और वल्कल पहनने से कोई तपस्वी । याकोबी सेबूई, 40 । 3. सोवागकुलसंमूग्रो...हरि एसबलो...आदि । उत्तराध्ययन, अध्या. 12 शाथा । । हरि 140 । केशीबल श्वपच । (चाण्डाल) कुल में जन्मा था वह गुग्गी और भिक्षु था ।...ग्रादि । याकोबी, वही, पृ. 50। 4. न तो ऐसा कभी हुआ है, न होता है, नहीं ऐसा होना सम्भव है कि प्रहन्...दरिद्रकुल...भिक्ष कुल या ब्राह्मण कुल में जन्म लेते हैं किन्तु अर्हत्...राजन्यकुल...ईक्ष्वाकुकुल...वा अन्य ऐसे ही उत्तम कुल, दोनों ही अोर से विशुद्ध जाति या वंश में जन्म लेते हैं । याकोबी से बुई, पुस्त. 22, पृ. 225। 5. जैनों की मान्यतानुसार हम इस जन्म में जो भी हैं, वह सब पूर्व जन्मों में किएको के अन्तिम परिणाम स्वरूप है कर्म सब सामान्यतया अविनाशी, अवर्णनीय, प्रमा होते हैं जब तक कि भोग लिये नहीं जावे । महावीर ने नाम और गोत्र कर्म अपने पर्व के दृश्य 27 भवों में से किसी एक में बांधे थे। उन्होंने अन्तिम तीर्थकर भव में जन्म लेने के पूर्व में बिताए थे। उसी कर्म के कारण उन्हें पहले ब्राह्मणवंश में जन्म लेना पड़ा तन्च नीचर्गोत्र भगवता स्थलसप्तविंशतिभवापक्षेया तृतीयभवे बद्ध। कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पृ. 26 । देखो याकोबी बही, पृ. 190-191। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 25 रूप में पहले प्राए । सब पैगाम्बरों के जीवन की भांति महावीर के जीवन के सम्बन्ध में भी यह लोककथा प्रिय कथा कही जाती है कि ज्योंही राजा और देवों के स्वामी इन्द्र (शक) ने यह बात जानी तो उसने महावीर के भ्र गण को देवानन्दा की कोख से ज्ञातृ क्षत्रियवंशी काश्यप गोत्रीय क्षत्री राजसिद्धार्थ की पत्नि त्रिशला क्षत्रियाणी की कोख में बदल देने की योजना की। इस प्रकार यद्यपि यह एक अजीब सी ही बात है फिर भी महावीर चाहे वह चमत्कार के कारण ही हो, शेष में क्षत्रियवंश के ही थे यही हमें कहना होगा। भ्रूण परिवर्तनः पाश्चर्य की बात तो यह है कि इस दन्तकथा को शिल्प में भी उत्कीगित कर दिया गया है । मथुरा के जनशिल्प के कुछ नमूनों में इसकी तादृश साक्षी प्राप्त है और यह निश्चय ही आश्चर्यजनक है । परन्तु साथ ही यह भी सिद्ध करता है कि यह दन्तकथा इसवी युग के प्रारम्भिक समय की ऐतिहासिक तो अवश्य ही है और इसलिए ऐसा भी कहने में कोई आपत्ति नहीं कि महावीर के जीवन के साथ अथवा उस समय की किसी न किसी सामाजिक परिस्थिति के साथ इसका कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए। हमें कल्पसूत्र से मालम होता है कि इन्द्र ने अपनी प्राज्ञा के परिपालनार्थ हरिणगमेशी को भेजा था। इस हरिणग मेशी को सामान्यतः "हरि को नेगमेशी' याने इन्द्र का सेवक कहा जाता है। डॉ. बहूलर कहता है कि "वह जैन शिल्प जिसमें नेगमेश, एक छोटे रूप में तीर्थकर, और एक छोटे शिशु सहित एक स्त्री दिखाए गए हैं, देवानन्दा और त्रिशला के भ्र ण-परिवर्तन सम्बन्धी उस प्रसिद्ध दन्तकथा का ही सूचन करता हा माना जा सकता है कि जिसमें इस देव ने प्रमुख भाग लिया था।" प्रत्यक्षत: यह दन्तकथा विचित्र ही मालूम होती है । परन्तु इतना तो हमें स्वीकार करना ही होगा कि अन्य धर्मों में अपने देवों के विषय में इससे भी अधिक विचित्र और काल्पनिक कथाएं कही गई हैं । हमें अभिभूत करने वाली जो बात इसमें है वह इसका रूप नहीं अपितु इसके पीछे रही हुई भावना है। जैनों के इस मानसिक भाव का यह अभिप्राय हो सकता है कि उनका साधूधर्म मूलतः क्षत्रियों के लिए हो योजित था । परन्तु ऐसा भाव दीख तो नहीं पड़ता है क्योंकि महावीर के समय से लेकर आज तक के इतिहास को टटोलने पर हम देखते हैं धर्म की बड़ी से बड़ी और सुप्रसिद्ध व्यक्तियों में से कुछ ब्राह्मण भी थीं। महावीर के गणधरों में इन्द्रभूति से लेकर अन्तिम ग्यारहवें गणधर तक सभी ब्राह्मण थे। उनके बाद के जैन इतिहास में होने वाले सिद्धसेन, हरिभद्रसूरि प्रादि प्रसिद्ध जैनाचार्य और विद्वान भी ब्राह्मण थे । 1. 82 दिवस पश्चात् गर्भ को हटाया गया था । समगे भगवं महावीरे...वासीह...गन्भत्ताए साहरिए... कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पृ. 35, 36 1 2. याकोबी, वही पृ. 223 आदि। 3. व्हलर, वही. पृ. 316 । 4. वही, पृ. 317 ! देखो मथुरा स्कल्पचर्स प्लेट 2; आ. स. रि., सं. 20, प्लेट 4 चित्र 2-5 । 5. इन्द्रभूति के सम्बन्ध में ऐसी दन्तकथा है कि अपने गुरु के प्रति उसका असीम प्रेम था । महावीर के निर्वाण समय में वह वहां उपस्थिति नहीं था। लौटने पर अपने गुरु के अकस्मात् निर्वाण की बात सुनकर वह शोकाभिषूत हो गया । उसे ज्ञान हुआ कि अन्तिम शेष वंधन जिसके कारण वह संसार से बंधा हुआ था वह राग था जो कि गुरु के प्रति वह अब भी दिख रहा है । इसलिए उसने उस बन्धन को काट दिया और "छिण्णपियबंधने" होते ही वह केवल ज्ञान की स्थिति को पहुंच गया । महावीर के निर्वाण के एक महीने बाद ही उसकी भी मृत्यु हो गई थी। याकोबी, कल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 1। 6. पिद्धसेन दिवाकर, ब्राह्मण मंत्री का पुत्र...हरिभद्र पूर्व में विद्वान ब्राह्मण था...स्टीवन्स न (श्रीमती वही, पृ76, 80 । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] ऐसा संभव हो कि बुद्धिवाद के युग के प्रारम्भ में जब ब्राह्मण अपनी प्रतिष्ठा के प्रायः शिखर पर थे और जब अन्य जातियों में ब्राह्मण दासता के विरुद्ध अधिकाधिक जागृति हो रही थी तभी जैनों की इस मान्यता ने भी निश्चित स्पष्ट रुप लिया होगा। बौद्धों में भी ऐसे ही कुछ विचार थे जैसा कि उनके भिक्षुसंघ में दिए क्षत्रियों के से प्रतीत होता है। वाराणसी के एक प्रवचन में बुद्ध स्वयम् कहते हैं कि "धर्म के लिए कुलीन युवक प्रधानस्व संसार का सर्वथा त्याग कर देते हैं प्रौर गृह रहिन जीवनावस्था वे स्त्रीकार करते हैं ।" 1 ऐसा होते हुए भी स्मरण रखना चाहिए कि जैनों को इस बात से कोई भी एतराज नहीं था कि ब्राह्मण लोग जैन गुरू बन कर जैनसंघ में उच्च पद प्राप्त नहीं करें। परन्तु उनने उनके विषय में इतना ही भेद किया और कहा है कि ब्राह्मण जन्म केवली बन मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है, परन्तु तीर्थंकर याने धर्मप्रवर्तक वह कभी नहीं बन सकता है । कदाचित् यह भेद उस समय के लोगों की इस सामान्य मान्यता को कि सब आध्यात्मिक कार्यों में ब्राह्मण ही सर्वोपरि होने के अधिकारी हो सकते हैं, मिटा देने के लिए ही कियागया हो । सप्रमाण साक्षियों से हमें ज्ञात हैं कि पूर्व काल में धर्म और अनुष्ठानिक मामलों में ब्राह्मण ही एकाधिकारी रहें या सर्वसत्ता भोगें, ऐसा कुछ भी नहीं । हीनकुल लोगों के अपने ज्ञान और सद्गुणों से पुरोहिताई में वस्तुतः प्रविष्टि होने के अनेक उदाहरण भी उद्घृत किए गए हैं । धार्मिक ज्ञान का इजारा केवल ब्राह्मणों का ही नहीं था इतना ही नहीं अपितु बहुत बार शास्त्रज्ञान प्राप्त करने के लिए क्षत्रिय राजों के नम्र शिष्य भी बने ऐसे भी उदाहरण हैं । 2 श्री टीले कहता है कि 'उनने अपनी पृथक जाति अभी तक नहीं बनाई वो क्योंकि राजा और राजा का पुत्र भी पवित्र गायक रूप में प्रसिद्ध थे और धार्मिक क्रियाएं वे करते थे यद्यपि अनेक प्रतिष्ठित लोगों की भांति वे भी बहुत करके पुरोहित भी रखते थे । t स्थिति जैसी भी हो परन्तु जैसा कि हम पहले ही कह ग्राए हैं, उत्तरकालीन इतिहास में इगिते प्रथवा आडम्बरे, ब्राह्मण लोग समाज के यथार्थ हितेषी और प्राध्यात्मिक गुरू माने जाने लग गए थे, हालांकि 'किसी भी अवस्था में प्राचीन ऋचाओं में तो ब्राह्मण और ब्राह्मणपुत्र का फिर भी कभी कभी उल्लेख मिल जाता है, परन्तु बाद की ऋचाओं में तो इनका उल्लेख बहुत है ।" इसलिए ब्राह्मणों को अपनी स्वम्भू सर्वोपरि सत्ता के शिखर से गिराने और उनके कितने ही अधिकार छीन लेने के लिए क्षत्रिय एवं अन्य जातियां निःसंदेह उकसित हो गई होंगी ।' महावीर के जीवन के इस प्रसंग विशेष की व्याख्या करने में डा. याकोबी ने कुछ कष्टकल्पित अनुमान लगाए हैं। वे इस परिकल्पना पर चलते हैं कि सिद्धार्थ महावीर के पिता के दो रानियां थी एक क्षत्रियाणी त्रिशला मौर दूसरी ब्राह्मणी देवानन्दा। फिर वे मान लेते हैं कि महावीर वास्तव में देवानन्दा की कोल से ही जन्मे थे, 1 1. हिम डेविड्स और बोल्डनवर्ग से. बु. ई., पुस्तक 13, पृ. 931 3 2. द वही . 264 1 दत्त, 3. टीले, वही, पृ. 116 जातियों के उद्‌भव के पूर्व और उस अन्तरिम काल में भी जब तक कि कार्यकलाप अचल प्रतिष्ठित नहीं हो गए थे, राजा स्वयम् के और अपनी प्रजा के हितार्थ अन्य की सहायता बिना ही यज्ञ कर सकता था । ला, न. ना. वही. पृ. 41 1 4 'उन्हें राजों से कड़ा विरोध का सामना बहुत वार करना पड़ा था । परन्तु सामान्यतया वे अपने लक्ष्य में प्रौपरव एवम् अधिकार से अथवा चालाकी मे सफल हो ही जाते थे।' टीले, वही, पृ. 121 5. वही, पृ. 115 I Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 ] सन्तु उसकी माता की ओर से राज्य सम्बन्धी लाभ और महत्ता प्राप्त कराने और अपने क्षत्रिय सम्बन्धियों का उन्हें प्राश्रय प्राप्त कराने के लालच से उन्हें त्रिशला की कोख से जन्मा प्रसिद्ध कर दिया गया था। एक महान बर्मवीर के जीवन के ऐसे प्रसंगों पर से काल्पनिक अनुमान घड़ निकालने में हमें कोई भी सार्थकता नहीं दीखती हैं। फिर भी उस काल का विचार करते हुए जैनसूत्रों के इस वर्णन का इतना अर्थ तो हो ही सकता है कि तोर्थकर के अतिरिक्त ब्याह्मण सभी कुछ हो सकता है। इस प्रकार पटना के उत्तर लगभग 20 मील पर स्थित वैशाली के पास के गांव में त्रिशला माता से महावीर का जन्म हुआ कहा जाता है। इनके पिता कुण्डग्राम गांव के परदार थे ऐसा कहा गया है और उनकी माता त्रिशला विदेह की राजधानी वैशाली के सरदार की भगिनी एवम् मंगध के राजा बिवमार की संबंधी थी। नन्दिवर्धन उनका बड़ा भाई और सुदर्शना उनकी बड़ी बहन थी। उनका विवाह यशोदा नाम की कोडिन्य गोत्र की कन्या से हुआ था। इ. यशोदा से उन्हें एक पुत्री उत्पन्न हुई थी जिमका नाम अरणोज्जा था और उसे प्रियदर्शना भी कहा जाता था। उसका विवाह उनके भानेज राजपुत्र जामाली के साथ किया गया था कि जो अपने श्वसुर का शिष्य और जैनधर्म में प्रथम मतभेद प्रवर्तक याने निन्हब हुना था । महावीर तीस वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे थे और माता-पिता का देहान्त पश्चात् अपने बड़े भाई की अनुमति से उनने गृहत्याग कर अध्यात्मिक जीवन में प्रवेश किया था। "यह जीवन पश्चिमी देशों की भांति ही भारत में भी महत्वाकांक्षी लघुपुत्रों के लिए सुन्दर माना गया होना चाहिए।" महावीर के पिता माता पार्श्व पत्य थे: जैन मान्यतानुसार महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ के पूजक और श्रमणों के अनुयायी थे। महावीर के सिद्धान्तों को जैनसूत्रों में उनके निज के सिद्धान्त नहीं कहा गया है । परन्तु "पण्णत्ता' अर्थात् स्थापित सनातन 1. देखो याकोबी, सेबुई, पुस्तक 22. प्रस्तावना पृ. 31 । 2. मुजफ्फरपुर जिले के हाजीपुर उपविभाग स्थित अाधुनिक वसाद को ही वैशाली कहा जाता है । 3. वैशाली के ठीक बाहर ही कुण्डग्राम का उपपुर था जो अाज का कदाचित् वसुकुण्ड गांव ही हो, और यहां ज्ञात्रिक क्षत्रियों के वंश का सिद्धार्थ नाम का धनिक नायक रहता था। कै. हि. ई. भाग 1, पृ. 150 । 4. देखो फ्रेजर, वही. प. 128-131 । जैनसूत्रों के अनुसार त्रिशला को विदेहदत्ता और प्रियकारिणी भी कहा जाता था और यही कारण है कि महावीर भी विदेहदत्ता के पुत्र कहे जाते थे। देखो याकोबी, वही, पृ. 193, 194, 256 । 5. राजा समरवीरो थे यशोदां कन्यका निजाम् । प्रदातं वर्धमानाय... षतु यशोदाया मजायत ।...दुहिता प्रियदर्शना ।। हेमचन्द्र, त्रिषष्ठि-श्लाका, पर्व 10, श्लो. 125, 154, पृ 16 । 6. शाटियर, कै. हि. ई., भाग 1 पृ. 158 । राजपुत्रो...। जमालिः ...प्रियदर्शनाम् ॥ हेमचन्द्र, वही, श्लोक 155, पृ. 17। 7. समा भगवं महावीरे...तीसं वासाइं कट्ट ...विदेहसि मुडे भवित्ता, आदि । कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, पृ. 89, 96। 8. राधाकृष्णन, वही, भाग । पृ. 287।। 9. महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिग्जा...अादि । प्राचारांग, श्रत स्कंध 2, सत्र 187 प. 422 । देखो याकोबी, वही, पृ. 194 । उसके माता-पिता परम्परा के अनुसार जो कि विश्वस्त ही प्रतीत होती है, पूर्व तीर्थकर पार्श्व के ही अनुयायी थे। जैसा कि पहले ही निर्देश किया जा चुका है महावीर का सिद्धान्त पार्श्व के सिद्धान्त का पुनर्नवीकृत या संशोधित संस्करण के सिवा और कुछ भी नहीं था । शापें टेयर, वही, पृ. 160 । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] सत्य रूप बताया गया है। यदि बुद्ध की भांति ही वे अपने धर्म के मूल संस्थापक होते तो यह सब अशक्य हो जाता । परन्तु यह तो कोई भी मान सके ऐसे एक सूधारक के जीवन और कथन का ही उल्लेख है। उनका गुणगान देवों और मनुष्यों ने इन शब्दों में किया कहा जाता है-जिनों द्वारा प्ररूपित अस्खलित मार्ग से सर्वोच्च पद अर्थात् पोक्ष-निर्वाण प्राप्त करो।" महावीर का तपस्वी जीवन: गृह त्याग कर महावीर साधू की सामान्य जीवनचर्या में रहे । बारह वर्ष से कुछ अधिक काल तक वर्षावास के अतिरिक्त वे भ्रमण करते रहे थे। प्रारम्भ के लगभग तेरह महीने तक 'पूज्य तपस्वी महावीर ने वस्त्र धारण किया था। बाद में वे प्रत्येक प्रकार के वस्त्र का त्याग कर नग्न ही भ्रमण करते रहे थे । अबाधित ध्यान, अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा खानपानादि नियमों का सूक्ष्म पालन करते हुए उनने अपनी इन्द्रियों को सम्पूर्णतया वश किया । बारह वर्ष तक देह-ममत्व की वे उपेक्षा करते रहे थे और कहीं से भी आते तमाम उपसर्गों को समभाव से सहन करने, उनका सामना करने और उन्हें भुगतने के लिए वे कटिबद्ध रहे थे । यह स्वाभाविक ही था कि ऐसी विस्मृतावस्था में महावीर सवस्त्र थे या नग्न इसका उन्हें बिलकुल ही भान नहीं था। ऐसी कोई भी स्पष्ट उनकी प्रवृत्ति नहीं थी कि जिससे वे नग्न ही भ्रमण करते रहें। जो वस्त्र उनने पदयात्रा में रखा था, उसे उनके पिता के एक ब्राह्मण मित्र सोम ने दो बार में टुकड़े-टुकड़े करके ले लिया था । उनकी थोड़ी बहुत विस्मृतावस्था में जो कुछ भी उनके जीवन में हुआ, वह उनके अनुयायियों द्वारा शब्दानुशब्द अनुकरणीय होने के अभिप्राय से नहीं था। जैनशास्त्रों में ऐसी कठोर आज्ञा कहीं भी देखने में नहीं पाती है। उत्तराध्ययन में सुधर्मा मुख में नीचे लिखे शब्द रख दिए हैं कि 'मेरे वस्त्र फट जाने के पश्चात् में (तुरन्त ही) नग्न विचरूगा अथवा नया वस्त्र लूगा, ऐसे विचार साधू को नहीं रखने चाहिए।' एक समय उसको कोई भी वस्त्र नहीं होगा, दूसरे समय उसके पास कुछ होगा। इस नियम को हितावह समझ कर बुद्धिमान (मुनि) को इस सम्बन्ध में कोई भी शिकायत नहीं करना चाहिए। संक्षेप में इसका अर्थ यह है कि ऐसी सब उपाधियों से साधू को अनासक्त रहना चाहिए। फिर भी सारे समुदाय के अनुशासन की दृष्टि 1. याकोबी, इण्डि. एण्टी., पुस्तक 9, पृ. 16 । 2. योकोबी, से. बु. ई., पुस्तक 22 1 258| उनने तीर्थकरों के सर्वोच्च सिद्धान्त का उपदेश दिया था । वही, पुस्तक 45, पृ. 288 । 3. “जब वर्षाऋतु आ जाती है और वर्षा हो रही है तो अनेक जीवों की उत्पत्ति हो जाती है और अनेक बीजों के अंकुर फुट जाते हैं । ...यह जान कर मुनि को ग्रामानुग्राम भ्रमण करना नहीं चाहिए नापितु एक ही स्थान में वर्षाऋतु में वासावास करना चाहिए।"-याकोबी, सेबुई, पुस्तक 22, पृ. 1361 4. समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं चीवरधारी हत्था तेप्रां परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए। कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, सूत्र 117, पृ. 98। देखो सेबुई, पुस्तक 22, पृ. 259, 261 । 5. देखो वही, पृ. 200। 6. ततः पितुमित्रेण बाह्म गेन गृहीतं । कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, पृ. 98। देखो हेमचन्द्र, वही, श्लो. 2, पृ. 19। 7. याकोबी, सेबुई, पुस्तक 45, पृ. 11। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 29 से सामान्य नियम यह हुआ कि साधू को एक वस्त्र से काम चला लेने का प्रयत्न करना चाहिए और उससे न चले सकने पर वह दो वस्तु भी रख सकता है । ' इस प्रकार स्वतः स्वीकृत तप और ध्यान में बिताए बारह वर्ष उनके निष्फल नहीं गए थे ... एक प्राचीन मन्दिर के अनति दूरे... शालवृक्ष के नीचे गूढ़ ध्यानस्थ महावीर को सर्व श्रेष्ठ अनन्त, सर्वोत्तम, अबाधित, प्राविच्छिन्न, परिपूर्ण और समग्र है, प्राप्त हो गया । " 2 महावीर का दीर्घ बिहार: इस प्रकार प्राथमिक आत्म-पीड़न के बारह वर्षों में महावीर बहुत से स्थानों में जाते रहे थे जिनमें से अनेक पहचानना धाज अत्यन्त कठिन है। जंगली जातियों से बसे देशों में भ्रमण करते, कहीं रात्रि के विश्राम के लिए स्थान भी कभी-कभी ही पाते और लाढ़ नामक जंगली लोगों से बसे प्रदेश में भी भ्रमता करते उन्हें निर्दय वर्णर लोगों द्वारा बहुत ही दुःखद और भयानक परिषह सहन करने पड़े थे । परन्तु इस घोर साधनावस्था की समाप्ति के बाद वे सर्वज्ञ, सर्व विषय-ज्ञाता, केवली और इस जगत में जिसके जानने का कोई भी गुप्त नहीं हो ऐसे अर्हत् रूप में प्रसिद्ध और मान्य हुए 14 इस समय उनकी आयु 42 वर्ष की हो चुकी थी और जीवन के शेष 30 वर्ष उनने अपनी धर्म प्रणाली को सिखाने, साधुधों को संघ में व्यवस्थित करने पर भ्रमण द्वारा अपने सिद्धान्तों के 3 चार एवम् स्वधर्ममार्गा बनाने में बिताएं थे । मगध और अंग देश के के लगभग सभी नगरों में उनने भ्रमण किया था। परन्तु प्रमुखतया वे नेक चतुर्मास उनकी जन्मभूमि वंशाली मगध की प्राचीन राजधानी "तेहरवें वर्ष में केवलज्ञान जो कि राज्यों में आए हुए उत्तर और दक्षिण बिहार मगध और अंग राज्यों में ही रहे थे । उनके राजगृह, प्राचीन अंग की राजधानी चंपा, 1. याकोबी, सेबुई, पुस्तक 22, पृ. 157 "जैनों के वस्त्र सम्बन्धी ग्राचार इतने सरल नहीं है क्योंकि साधु का प्रवेल या एक दो और तीन वस्त्र तक रखने की भी प्राज्ञा दी गई है। परन्तु युवक सशक्त साधू को नियमतः एक वस्त्र हो रखना चाहिए। महावीर नग्न ही रहे थे और वैसे ही जिनकल्पिक भी या वे जो महावीर का cereaय धनुकरण करने के प्रयत्नशील थे नग्न रहते थे परन्तु उन्हें भी अपनी नग्नता को प्राच्छादित करने की प्राज्ञा थी वही प्रस्तावना पू. 26 1 " ―― 2. वही, पृ. 263 देखो वही पृ. 201 1 3. देखो शार्पेटियर, वही, पृ. 158; राधाकृष्णन, वही, पृ. 280 "महावीर बारह वर्ष से कुछ अधिक काल तक लाड़, वजभूमि और शुभभूमि में और बंगाल में आज के राढ़ प्रदेश में भ्रमण करते रहे थे। दे, दी ज्योग्रॉफिकल डिक्षनेरी प्राफ एसेंट एण्ड मैडीवल इण्डिया. पृ. 108 डॉ. व्हूलर के प्रनुसार बंगाल में आज का राढ़ प्रदेश | देखो व्हूलर, इण्डियन स्यैक्ट ग्राफ दी जैनाज | पू 261 4. देखो याकोबी, वही, पृ. 263 264 5. कुण्डग्राम के नाम से बंगाली नगर शीश जैन तीर्थंकर महावीर की जन्मभूमि कहा जाता है और इसी से वे साली अर्थात् वैशाली के निवासी भी कहे जाते थे। दे, वही, पृ. 107 1 6. चंपा जैनों का एक पवित्र स्थान है । इसमें महावीर ने अपने भ्रमण काल में तीन वर्षाऋतुओं से वासावास किया था । फिर यह नगर जैनों के बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपुण्य की जन्म और निर्वाण भूमि भी कही जाती है । देखो, वही, पृ. 44 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] विदेह की राजधानी मिथिला और आवस्ती उनका भ्रमण बहुत ही विस्तृत क्षेत्र में हुआ था ऐसा प्रतीत होता है । प्रसंगवश वे मगध की राजधानी राजगृह घोर अन्य नगरों में पधारते थे जहां उनको पूर्व मान मिला करता था । " फिर उनके ही समय में जैनों में मतभेद हो जाने पर भी, जैनों की मान्यतानुसार, उनके अनुयायियों की संख्या उनकी प्रतिष्ठा को जरा भी ठेस पहुंचाने वाली नहीं थी । उनके संघ में 14000 श्रमण, 36000 श्रमणियां, 159000 श्रावक प्रौर 318000 श्राविकाएं थी। इसके अतिरिक्त 5400 अन्य शिष्य थे जो या तो श्रुतकेवली चौदहपूत्रों के माता थे या केवली. मनः पर्याय ज्ञानी प्रवधिज्ञानी यादि-आदि थे। 8 1 में हुए थे। । महावीर निर्वाण समय: । पारसनाथ पहाड़ी के निकट की ऋजुपालिका नदी पर के शूमिका गांव में बयालीस वर्ष की उम्र में केवली होने और जैनधर्म के सुधारक के रूप में 30 वर्ष तक भ्रमण करने के पश्चात् महवीर राजगृह निकटस्थ में हस्तिलाल राजा की रज्जुवशाला में 72 वर्ष की आयु में निर्वाण प्राप्त हुए आज भी जैन यात्री हजारों की संख्या में उस स्थान की यात्रा करते हैं जैन काल गणनानुसार यह प्रसंग ई. पूर्ण 527 में अथवा सिंहल गणनानुसार बौद्ध निर्वारण यदि ई. पूर्ण 5437 मानें तो उससे सोलहवें वर्ष में बना माना जाता है । यह संवत् अनेक कालगणना पुस्तकों और टीकाग्रन्थों में पुनरावर्तित तीन गाथानों पर ही अवलम्बित है । ' । इन गाथाओं 1. 'धावस्ती जिसको सहेत महेत भी कहते हैं जैनों की चन्द्रिकापुरी या चन्द्रपुर है। यहां तीसरे तीर्थकर संभवनाथ जी का धौर आठवें श्री चन्द्रप्रभुजी का जन्म हुआ कहा जाता है।' वही पू. 190 | उस काल में, उस समय में श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम चातुर्मास अस्थिकग्राम में तीन चातुर्मास चंपा और पृष्ठचंपा में, बारह वैशाली और वाणिज्यग्राम में चीदह राजगृह और नालंदा के उपनगर में... एक धावस्ती में और एक पावानगरी में राजा हस्तिपाल की रज्जुगशाला ( लेखकशाला ) में किया था।' याकोबी, वही, पृ. 264 " T 2. शार्पेटियर, वही और वही पृष्ठ अंग राज्यों याने आधुनिक प्रवध एवम् हुग्रा है ।' व्हूलर, वही, पृ. 20 । 'उनक प्रभावक्षेत्र का विस्तार बावस्ती या कोसल, विदेह मगध मौर पश्चिमी बंगाल के बिहार और तिरहुत प्रदेशों की परिसीमाओं से मिलता 3. याकोबी, वही, पु. 267-268 4. इसे जृमिक या मिला भी कहते हैं । - स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 38 5. महावीर 30 वर्ष तक गृहवासी, 2 वर्ष से कुछ अधिक छद्मस्थ और कुछ न्यून 30 वर्ष केवली याने 42 वर्ष साधू रूप में रहे थे।'वाकोवी, वही, पृ. 269 6. पापा-पावापुरी, बिहारनगर के दक्षिण-पूर्व में लगभग 7 मील गिरियेक के उत्तर में दो मील पर है।' स्टीवन्सन पादरी के कल्पसूत्रानुसार, महावीर का निर्वारण यहां पर उस समय हुआ जबकि पापा के राजा हस्तिपाल के महल में वे पपरता व्यतीत कर रहे थे। उनके निर्वाण स्थली पर एक बाड़े में चार सुन्दर जैन मन्दिर हैं। दीवाली (दीपावली) का वार्षिक पर्व महावीर के निर्धारण की स्मृति में ही प्रचलित हुआ था। देखो दे, वही. पृ. 148 ! 7. देखो याकोबी, कल्पसूत्र, प्रस्तावना पृ. 8 । 8. जिनमें ये घोषणाएं मिलती हैं, वे प्रमाण कोई भी हेमचन्द्र का है जिसका देहांत ई. 1172 में हुआ था। । 12 वीं सदी ईसवी से प्राचीन नहीं हैं। पूर्वतम प्रमाण व्हूलर, वही, पृ. 23 1 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 31 का मूल यद्यपि किसी भी स्थान में स्पष्ट रूप से नहीं मिलता है, परन्तु फिर भी ये अनेक टीका ग्रन्थों और प्राचीन जैन कालगणना ग्रन्थों में उद्धत हई देखी जाती हैं। इनमें वीर और विक्रम संवत के बीच का अन्तर बताया गया है और प्राचीन जैन कालगणना के लिए इन्हें आधारभूत माना गया है। मेरुतुग की विचार श्रेणी इन्ही गाथानों पर आधारित है। इनमें वीर निर्वाण और विक्रमादित्य के राज्यारोहगा के बीच में 470 वर्ष का अन्तर कहा गया है। इन तीन गाथानों का भाषान्तर इस प्रकार है'-(1) जिस रात्रि में तीर्थंकर महावीर देव ने निर्वाण प्राप्त किया, उसी रात्रि में अवंति के राजा पालक का राज्याभिषेक हुमा। (2) राजा पालक के 60 (वर्ष), नंदों के 155 (वर्ष), मौर्यों के 108 और पुष्पमित्र (पुष्यमित्र) के 30; (3) बलमित्र और भानुमित्र ने 60 (वर्ष) राज्य किया, नमोवाहन ने 40 और उसी प्रकार गर्द मिल्ल का राज्यकाल 13 वर्ष चला और 4 शक का वर्ण है। इस प्रकार मेरुतुग की गणनानुसार विक्रमादित्य के युग और महावीर के समय में 470 वर्ष का अन्तर है और इसलिए निर्वाण ई. पूर्व 527 के अनुसार है । मेरुतुग की गणनानुसार यह अन्तर 470 वर्ष मान लें तो विक्रम संवत् के प्रारम्भ और मौर्यों के राज्य में 255 वर्ष का अन्तर पाता है और इससे चन्द्रगुप्त के अभिषेक का मान्यतानुसार, ई. पूर्ण 312 (255+57) आता है । क्योंकि वि. सं. ई. पूर्व. 57 में शुरू हुआ था 18 अब 470 में से 255 घटावें तो चन्द्रगुप्त का समय और निर्वाण का अन्तर 215 प्राता है । इन 215 वर्षों के विषय में सब एक मत नहीं हैं क्योंकि हेगचन्द्राचार्य अपने परिशिष्टपर्ण में लिखता है कि "और इस प्रकार महावीर के निर्वाण के 155 वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त राजा हया था। इसवी सन पूर्व 312 में 155 वर्ष जोड़ने पर महावीर निर्वाण की तिथि ई. पूर्व 460 पाती है। यह सही है कि मेरुतुग भी हेमचन्द्राचार्य के इस कथन का उल्लेख करता है, परन्तु साथ ही कहता है कि ग्रन्थों में इसका विरोध किया गया है इससे अधिक वह कुछ भी नहीं कहता है।' डा. याकोबी और डा. शापंटियर दोनों जैन विद्वानों ने महावीर की निर्वाण तिथि इन दोनों जैनाचार्यों के दिए प्रमाणों के आधार से निश्चित की है । दोनों ने इतनीप्रधिक सूक्ष्मता और ऐतिहासिक सत्यता से अपने अनुमानों को प्रस्तुत किया है कि उनके अभिप्राय को फिर से सिद्ध करने के लिए उस विवरण में फिर से 1. व्हलर, इण्डि. एण्टी., पुस्तक 2, पृ. 363 । 2. 'मेरुतं ग, सुप्रसिद्ध जैन ग्रन्थकार, ने वि. सं. 1361-ई.1304 में अपना ग्रन्थ 'प्रबन्ध-चितामणि' और उसके दो वर्ष पश्चात् अपना 'विचारश्रेणी' ग्रंथ रचा था...।' -शाटियर, इण्डि. एण्टी., पुस्तक 4, पृ. 119 1 3. 'ये गाथाएँ मेरुतं ग द्वारा ही अथवा उसके किसी समकालिक द्वारा ही नहीं रची गई थी, यह सुनिश्चित है क्योंकि उस समय तक जैन लेखक बहुत पहले से ही प्राकृत में रचना करना त्याग चुके थे।' -शार्पेटियर, वही, पृ 120 । 4. जरयरिंग कालगनो...सगस्सचक...। विचारश्रेणी, प. 1, हस्तपोथी. भा. प्रा. म. पुस्तकालय, सूची 18711872 सं. 378 15. विक्रम संवत् और ईसाई युग के प्रारम्भ के बीच में 57 वर्ष बीत चुके थे। 6. एवं च श्री महावीर...चन्द्रगुप्तो भवन्नपः । याकोबी, परिशिष्टपर्वन, मर्ग 8 श्लो. 339 । 7. तच्चिन्त्यम् यत एवं 60 वर्षाणि तुट्यन्ति ।। अन्य ग्रन्थः सहविरोधः । विचारश्रेणी, वही, पृ. 1। 8. याकोबी कल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 6-10 । . .9. शाऐंटियर, वही, पृ. 118-123, 125-133, 167-178 । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] जाना आवश्यक नहीं है । हेचमन्द्र के प्रस्तुत किए प्रमाण को स्वीकार कर लेने की वे शिफारिश करते हुए इस अनिबार्य निर्णय पर पाते हैं कि इस युग की तिथि ई. पूर्व 460 के लगभग ही होना चाहिए ।। 'मैंने यह बताने का प्रयत्न किया है' डा. शार्पटियर कहता है कि 'कलागणना की टीप जिस पर जैनों ने विक्रम संवत् के प्रारम्भ और महावीर निर्वाण के बीच का अन्तर 400 वर्ष होने की कल्पना की है, वह एक दम अर्थहीन है। समय की पूर्ति के लिए जो राजवंशालियां बनाई गई हैं वे एकदम इतिहास विरुद्ध और किसी भी प्रकार से मानी जा सके ऐसी नहीं हैं।..." जैन कथन के एकदम काल्पनिक आधार को एक ओर रख कर इन प्रसिद्ध विद्वानों जो अन्य प्रमाण प्रस्तुत किए हैं वे हैं बुद्ध और महावीर दोनों की समकालिक अस्तित्व और हेमचन्द्र द्वारा प्रस्तुत अधिक विश्वस्त ऐतिहासिक तथ्य । दोनों महापुरुष समकालिक और प्रतिस्पर्धा साधू-समुदायों के स्थापक थे। यह अब एक सिद्ध तथ्य है। परन्तु यदि हम जैन दंतकथा को सत्य मान लें जो कि कहती है कि महावीर का निर्वाण विक्रम पूर्व 470 वर्षे यानि ई. पूर्व 527 में हुआ था तो हमें ऐसी शंका होती है कि ऐसा सम्भव है भी या नहीं क्योंकि बुद्ध का निर्वाण, जिसकी तिथि पहले ही मेरी दृष्टि में ठीक ही, जनरल कनिधम और प्रो. मैक्षमूलर निर्णय ने की थी, ई. पूर्व 477 में हुमा। और सब प्राधार यह कहने में एक मत हैं कि बुद्ध उस समय 80 वर्ष के थे, तो फिर उनका जन्म ई. पूर्व 557 में होना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि महावीर का निर्वाण ई. पूर्व 527 में हुअा हो तो बुद्ध उस समय 30 वर्ष के थे और उन्हें 36 वर्ष की आयु में याने ई. पूर्व 521 पहले न तो बुद्धत्व प्राप्त हुआ था और न उनने कोई शिष्य ही बनाए थे इसलिए यह एक दम असम्भव बात है कि बुद्ध महावीर से कभी मिले ही नहीं हों। फिर दोनों ही अजातशत्रु जो बुद्ध निर्वाण के 8 वर्ष पूर्व ही राजा हुआ था और जिसने 32वर्ष राज्य किया था, के राज्यकाल में थे, यह भी प्रमाणित है। इसलिए ऊपर कही गई तिथियां मानना और असम्भव हो जाता है। हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में दिए प्रमाणों का विचार करते हए डा. णाटियर कहता है कि 'हेमचन्द्र के विक्रम संवत् और चन्द्रगुप्त के राज्यकाल में बताए गए 255 वर्ष के अन्तर को हम डा. याकोबी के साथ ठीक 1. नि:संदेह अन्य विद्वान भी हैं जो इससे विरोधी मतवाले हैं, परन्तु उनके विचारों की याकोबी और शार्पोटयर के विवेचनों ने कालव्यतीत कर दिया है। इसलिए यहां पर फिर से उनका विचार करना अनुपयोगी है। इन विद्वानों में से कुछ के नामों का संकेतमात्र कर देना ही पर्याप्त है:- बयेस, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 2, पृ. 140; राइस, त्यइस, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 3 पृ. 157; टामस (एड्वर्ड), इण्डि. एण्टी., पुस्त. 8, पृ. 30, पाठक, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 12, प. 21%; हरनोले; 'इण्डि. एण्टी., पूस्त. 20, प. 360%; गेरीनोट, बिब्लोग्राफी जैना, प्रस्ता . प. 7 । टियर. वही.प. 1251 न केवल वर्ष की संख्या 155 जो गाथा में नन्दों का राज्यकाल की दी गई है, अत्यधिक हैं अपितु अवंती के राजा पालक के राज्यकाल का, मगध राजाओं के राज्यकाल में, वर्णन ही इस काल गणना को बहुत संशयास्पद कर देता है।' याकोबी, वही, प. 8। 3. शार्पटियर, वही, प. 131-1321' निर्वाण तिथि के हमारे विवेचन को फिर से विचार तो स्पष्ट है कि ई. पूर्व 467 जो हमने हेमचन्द्र उल्लिखित कालगणना के आधार पर निर्णय किया है, अधिक अशुद्ध नहीं लगता है क्योंकि यह बुद्ध निर्वाण की संशोधित तिथि ई. पूर्व से समकालिकता दृष्टि से इतनी अच्छी तरह मेल खा जाती है कि जो हम पूर्व शोधों द्वारा मावश्यक प्रमाणित कर चुके हैं।' याकोबी, वही. पृ. 9। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 33 मान सकते हैं। इससे महावीर निर्वाण और विक्रम के राज्यारोहण में 2551-155 वर्ष मिल कर कुल 410 वर्ष का अन्तर हो जाता है और इससे महावीर निर्वाण ई. पूर्व 467 में होना ही निश्चित होता है और यह साल मेरे अभिप्रायानुसार उसके साथ सम्बन्धित सब प्रसंगों से अनेक प्रकार से ठीक बैठ जाता है और इसलिए इसे ही सत्य स्वीकार किया जा सकता है।'1 .इनसे अतिरिक्त और भी अनेक कारण हैं कि जो एक या दूसरी प्रकार से महावीर निर्वाण की इस तिथि के निर्णय किए जाने से हमारी सहायता करते हैं। उन सब की चर्चा में उतरने के स्थान में उनको यहां कह देना मात्र उचित होगा। भद्रबाहु के निर्वाण की तिथि और उनका चन्द्रगुप्त के साथ सम्बन्ध', जैनधर्म में हए तीसरे पंथभेद की तिथि और उसके साथ मौर्य राजा बलभद्र का सम्बन्ध', देवधिगरिण द्वारा निश्चित की हुई भद्रबाह के कल्पसूत्र में दी गई तिथि और ध्र वसेन के राज्यारोहण वर्ष में वल्लभी में एकत्रित महासभा की तिथि का सम्बन्ध और अन्त में स्थूलभद्र के शिष्य सहस्ति की तिथि एवम् उसका अशोक के पौत्र और उत्तराधिकार सम्प्रति के साथ सम्बन्ध । हमारे सामने इन सब ऐतिहासिक तथ्यों के होने से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जि । निर्णय पर हम ऊपर पहुंचे हैं उस विचारणीय तिथि से सम्बन्धित अनेक तथ्यों के साथ पूरी पूरी संगति बैठ जाती है। फिर भी ई. पूर्व 467 की तिथि यद्यपि बहुत अशुद्ध तो नहीं है, तो भी महावीर निर्वाण की तियि यथार्थ रूप से नहीं स्वीकार की जा सकती हैं क्योंकि यह मानने का भी कोई कारण नहीं है कि हेमचन्द्र ने विक्रम संवत् और चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण में 255 वर्ष का अन्तर होने का और इससे जिस निर्णय पर पहुंचने का कि जैन कालगणनानुसार चन्द्रगुप्त का राजवंश ई. पूर्व 312 में प्रारम्भ हया था, सत्य स्वीकार कर लिया था इसमें तो कोई भी संदेह नहीं है कि चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की निश्चित तिथि निकालना आज तक की उपलब्ध साक्षियों द्वारा असम्भव है। परन्तु फिर भी, इतनी अधिक अनिश्चितता की बात पर अधिक उहापोह न करते हुए, यह कहा जा सकता है कि प्राचीन तिथि अधिक उचित और तात्कालिक ऐतिहासिक वातावरण एवम् चन्द्रगुप्त के जीवन के 1. शार्पटियर, वही, पृ. 175। 2. भद्रबाहु के देहान्त की यह तिथि वीरात् 170 है जो परम्परागत वीर निर्वाण तिथी के हिसाब से ई. पूर्व 357 और याकोबी एवम् शाऐंटियर निर्णीत तिथि के अनुसार ई. पूर्व 290 पाती है । भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध की दृष्टि से ई. पूर्व 357 सर्वेथा त्याय॑ है। 3. यह पंथभेद वीरात् 214 में हुआ था और मेरुतुग के अनुसार मौर्य राज्य का प्रारम्भ वीरात् 215 है। इसलिए हेमचन्द्र की गणना जो कि मौर्य राज्य का प्रारम्भ वीरात 155 कहता है, अधिक ठीक लगती है।। 4. यह तिथि वीरात् 980 या या 993 है। यदि बीर निर्वाण तिथि ई. पूर्व 467 लें तो ई. 526 के अनुकूल यह पाती है और वल्लभी पर ध्र बसेन के राज्यरोहण वर्ष से एक दम मेल खा जाती है। 5. मेरुतुग के अनुसार यह तिथि वीरात् 245 है और यह हेमचन्द्र की कालगणना के बहुत कुछ अनुरूप है जिसके अनुसार चन्द्रगुप्त वीरात् 155 में राज्य करना प्रारम्भ करता है क्योंकि अशोक की मृत्यु चन्द्रगुप्त से बाद 94 वें वर्ष में हुई थी और इससे सम्प्रति की राज्यारोहण तिथि वीरात् 249 पाती है। 6. देखो शाऐंटियर वही, पृ. 175-76; याकोबी, वही, पृ. 9, 10।। 7. काल निरुपण का हमारा दोषी ज्ञान, उस विश्वस्त सूचना से एक दम विपरीत है कि जो हमें देश और शासन के सम्बन्ध में प्राप्त है।' टामस (एफ. डब्ल्यू.),के. हि. ई., भाग 1, पृ. 731 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] अनेक प्रसंगों के अधिक अनुकूल ही लगती है । डा. टामस ', श्री स्मिथ आदि विद्वानों ने चन्द्रगुप्त के राज्यारोहा का काल ई. पूर्व 325 से 321 अथवा उसके पास पास रखने को सम्मत हैं।" यदि इस बात को हम अपना ग्राधार बनाएं तो हमें महावीर निर्वाण की तिथि ई. पूर्व लगभग 480-467 के बीच पाती लगती है और बुद्ध की ई. पूर्व 477 की ठीक की हुई निर्वारण तिथि से भी संगत हो जाती है जो कि 'लगभग सही प्रमाणित हो चुकी है ।'' इसका कारण यह है कि स्पष्ट रूप से इन दोनों महापुरुषों के निर्वाण में बहुत ही थोड़े वर्षों का अन्तर होना चाहिए ।" फिर वर्धमाग के निर्वाण की स्वीकृत वह तिथि उन किसी भी प्रमाणों और तर्कों के विरूद्ध नहीं है जो कि ऊपर गिनाए जा चुके हैं । थे कि खारवेल का शिलालेख मौर्य 300 वर्ष पूर्व याने ई. पूर्व 470 में फिर भी महावीर के किए जैनधर्म में सुधार का विचार करने के पूर्व श्री जायसवाल, बेतरती और धन्य विद्वानों द्वारा प्रस्तुत यथायें माने जाते धनुमानों से कालगणना में उत्पन्न हो रही भ्रमणा के सम्बन्ध में भी यहां कुछ कह देना उचित है। जैसा कि हम 'कलिंग देश में जैनधर्म' शीर्षक अध्याय में धागे देखेंगे कि अभी तक श्री विसेट स्मिथ और अन्य विद्वानों की भांति ये विद्वान भी ऐसा मानते युग के 165 वें वर्ष का है राज मुस्रिय-काले याने ई. पूर्व 170 का कलिंग में किसी नन्द राजा के नहर खुदवाने का इसमें उल्लेख माता है।" महत्व बढ़ जाता है । नौंवा शिशुनाग राजा नन्दिवर्धन जिसकी तिथि पहले इस नन्दराजा को मिला देने से स्मिथ सारी शिशुनाग वंशावली को पलट देने की सीमा तक पहुंच गए थे और अजातशत्रु को पहले के ई. पूर्व 491 के स्थान में ई. पूर्व 554 विंवसार को ई. पूर्व 519 के स्थान में 582 में उनने रख दिया T 19 बुद्ध और महावीर दोनों की समकालीन वंशावली में यह फेरफार देख कर और नंदराज इस बात से यह ऐतिहासिक तिथि का ई. पूर्व 418 स्वीकृत हुई थी, के साथ 1. वही, पृ. 471, 472 2. स्मिथ भर्ती हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया (4था संस्करण), पृ. 2061 3. प्रो. कनं चन्द्रगुप्त की राज्यारोहण तिथि ई. पूर्व 321 और 322 निश्चित की है। तदनुसार निर्वाण तिथि ई. पूर्व 477 और 475 के बीच में कुछ कुछ पड़ती है जो कि कुछ वर्षों के हेरफेर सहित सत्य ही प्रतीत होती है क्योंकि बुद्ध की संशोधित निर्वाण तिथि ई. पूर्व 477 से यह मेल खाती है । याकोबी, परिशिष्ट पर्वन् प्रस्तावना, पृ.61 4. याकोबी, वही और वही पृष्ठ । 5. देखो दासगुप्ता, वही भाग 1, पृ. 173 · 6. जायसवाल, वि. उ. प्रा. पत्रिका, सं. 3, पृ. 425-472; और सं. 4 पृ. 364 आदि बेनरजी (रा. दा), वि. उ. प्रा. पत्रिका, सं. 3, पृ. 486 आदि । 7. स्मिथ, रा. ए. सो. पत्रिका, 1918, पृ. 543-547 8. वही, पृ. 5461 9. अपने ग्रन्थ' अर्ली हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया के तृतीय संस्करण में मैंने नन्दिवर्धन का राज्यारोहण समय सशंक ई. पूर्व लगभग 418 में रखा था। अब वह ई. पूर्व लगभग 470 में रखा जाना चाहिए या इससे भी कुछ पूर्व । उस शोध से प्रजातशत्रु या कणिक ( शिशुनाग 5 वां ) को कम से कम ई. पूर्व लगभग 554 में और उसके पिता बिसार याने बेसिक को (शिशुनाग 4 था) कम से कम ई. पूर्व लगभग 582 में रखना होगा।' स्मिथ, वही, पृ. 546-547 | अपने प्रथम 1904 के संस्करण में स्मिथ ने नन्दिवर्धन को समय ई. पूर्व 401 रखा था, पृ. 33; देखो वही, 41; वही. पृ. 51 (4था संस्करण) । 3 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 35 से अपहृत प्रतिभा का उल्लेख शिलालेख के मुख्य भाग में होने से स्मिथ और जायसवाल इस निर्णय पर पहुंचे थे कि खारवेल के शिलालेख के अनुसार महावीर का निर्वाण ई. पूर्व 527 में और बुद्ध का निर्वाण ई. पूर्व 543 में हआ था । और यह प्राचीन परम्परा का ही समर्थन करता है। हम आगे देखेंगे कि खारवेल के शिलालेख पर आधारित ये अनुमान श्री जायसवाल द्वारा सूचित अन्तिम आकलन का विचार करते हुए कुछ भी उपयोगी नहीं हैं। उसमें निर्देशित समय का मौर्यकाल से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । फिर यह तथ्य भो कुछ महत्व का नहीं है क्योंकि महान् इण्डो-ग्रीक राजा डिमोट्रियस के उल्लेख का विचार करने पर हम शिलालेख की इस तिथि पर प्रायः पहुंच जाते हैं। इससे अति महत्व का फेरफार जो हुआ वह यह है कि उल्लिखित नहर नंदवंश के 103 वें वर्ष में खुदाई गई थी न कि 300 वर्ष पूर्व । इस प्रकार वह मूल आधार कि जिसके कारण श्री स्मिथ ने शिशुनागों की सारा वंशावली 50 वर्ष पीछे हटाने का झटपट साहस कर लिया था, भूपतित हो जाता है। यह महान् इतिहासवेत्ता कहता है कि 'नवीन प्रमाणों से मैं इतना अधिक प्रभावित हुआ हूं कि मेरी अब छप रही और प्रकाशित होने वाली “आक्सफर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया" में शिशुनागों और नंदों का पूर्व समय में होना माना । परन्तु जिस विद्वान को श्री स्मिथने इस सीमातक उचित ही विश्वास किया था और जो अपने दृढ़ विश्वास पर डटे रहने के महान सम्मान का पात्र भी है, उसने ही अधिक लम्बे समय के अभ्यास और खोज के पश्चात् शिलालेख के पूर्व आकलन को एकदम ही बदल दिया है।। अब देखिए कि श्री जयसवाल कहते हैं कि “इससे यह भी सिद्ध होता है कि ई. पूर्व 450 के लगभग या उससे कुछ पूर्व भी जैन प्रतिमा का हो। यह बताता है कि महावीर के निर्वाण की तिथि वही होना चाहिए कि जो हम पृथक पृथक जैन कालगणना को पू. में और पाली ग्रन्थों के साथ-साथ आकलन करने पर प्राप्त करते हैं और जो सब के आधार से ई. पूर्व 245 निश्चित होती है।... यह कुछ विचित्र सा अवश्य ही लगता है क्योंकि जिस नन्दराज का यहां उल्लेख हुअा है उसे शिशुनागवंशी नन्दिवर्धन जिसका समय अलबरूनी और अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से श्री जायसवाल ने उपर्युक्त नन्द का ही माना है, के साथ विशेष रूप से क्यों जोड़ा जाता है, यह कुछ भी समझ में नहीं पाता है। यह राजानन्द जैसा कि हम दूसरे अध्याय में प्रागे देखेंगे, डॉ. शार्पटियर के अनुसार, नव नन्दों में के एक से ठीक-ठीक मिलता प्राता है कि जिनमें का पहला 'हेमचन्द्र द्वारा बहुत अननुकूल वरिणत मालूम नहीं देता है।" 1. 'पाली कथानकों के अनुसार महावीर का निर्वाण बुद्ध से पूर्व हो गया था। परन्तु अन्य प्रमाण ई. पूर्व 467 का समर्थन करते हैं जिसकी कि डा. शाटियर अनुरोध करता हैं और यह तिथि भद्रबाह की परम्परागत तिथि से भी मेल खा जाती है जो कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालिक थे। ई. पूर्व 527 (528-7), जो कि अत्यधिक प्रमाण में महावीर की निर्वाण तिथि कही जाती है, उन अनेक तिथियों में से एक है। परन्तु इसका समर्थन खारवेल के शिलालेख से होता है।' वही, पृ. 49 । 2. जायसवाल, वि. उ. प्रा. प्रत्रिका, सं. 13,प. 246। 3. वही, पृ. 221 आदि । 4. स्मिय, रा. ए. सो. पत्रिका, 1918, पृ. 547। 5. जायसवाल, वही, पृ. 246। जायसवाल की यह तिथि उन कालक्रमानुसारी तथ्यों पर आधारित है कि जिनको उनने पाली, पुराण और धर्मी परम्परानों के परिशीलन से निकाला है। देखो वही सं. 1, पृ. 114 । 6. जायसवाल, वही, सं. 13, पृ. 240-241 । 7. शापटियर, वही, पृ. 171-172 । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] यदि दोनों की यह समानता स्वीकृत हो तो जैन प्रतिमा के स्तित्व का ऐतिहासिक काल ई. पूर्व चौथी सदी का लगभग प्रारम्भ ही होना चाहिए । फिर यह भी माना जाए कि राजा नन्द कि तिथि श्री जायसवाल के अनुसार ई. पूर्व 457 के लगभग हैं, वही नन्दिवर्धन है तो ऐसा कहने में कि जैन प्रतिमाएं ई. पूर्वं 450 के लगभग या उससे भी कुछ पहले थी, ऐतिहासिक भूल अथवा जैन दन्तकथा से कोई विरोध नहीं मालूम देता है । ऐसा कहने में केवल इसी कारण से ऐतराज नहीं हो सकता है कि महावीर का निर्वारण ई. पूर्व लगभग 467 के नहीं हो सकता है और ई. पूर्व 545 तक दूर जाना आवश्यक है क्योंकि सत्य या श्रसत्य परन्तु अनेक दन्तकथाओं के अनुसार मूर्तिपूजा जैनधर्म में कोई नहीं है ।" जैन कालगणना में अजातशत्रु और चन्द्रगुप्त के बीच का अन्तर उदायिन और नव-नन्दों से सम्पूर्ण किया गया है, और मेरुतुरंग जैसा लेखक कहता है कि नन्दों का राज्य 155 वर्ष चला था । पक्षान्तर में हेमचन्द्र ने शश नन्दों को केवल 95 वर्ष ही दिए हैं और वह वस्तुतः इसमें नवों-नन्दों को ही लेता है । फिर भी ई. पूर्व 480 467 का काल जिसे महावीर निर्वाण काल हमने माना है. सम्भव परिकल्पना की सीमा बांधने के प्रयत्न के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं जैसा कि ग्राज तक उपलब्ध कतिपय प्रमाणों से भारतीय प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण के हमारे प्रयत्नों में होना बहुधा अनिवार्य है । इससे अधिक सत्य निर्णय के लिए हमें उस समय की प्रतीक्षा करनी ही होगी कि जब पुरातत्व खोजों से हमें और पर्याप्त साधन प्राप्त नहीं हो जाएं । जैनधर्म की दृष्टि से सृष्टि की उत्पत्ति: महावीर के संस्कारित जैनसम्प्रदाय या तथाकथित जैनधर्म का जब विचार करते हैं तो हम देखते हैं कि किसी के भी सम्बन्ध में विस्तार से विचार करना हमारे लिए सम्भव नहीं है। इस पुस्तक के मर्यादित क्षेत्र में हमारे लिए इतना ही सम्भव है कि हम उसके मुख्य लक्षरण और मनुष्य के श्राध्यात्मिक जीवन सम्बन्धी सामान्य समस्याओं प्रश्नों और उलझनों के विषय में उसके विश्वासों का विचार मात्र यहां कर लें तत्वज्ञान की जीवित ज्योति चितन है। प्राथमिक तत्व चितन जगत की उत्पत्ति की खोज में रहा था और कर्म सिद्धान्त को स्वरूप देने का उसने प्रयास किया था । इस विषय में जैनधर्म को नास्तिक यदि किसी शाश्वत सर्वोपरि ईश्वर को सव वस्तुओं का कर्ता और स्वामी नहीं मानना ही नास्तिकता हो तो, कहा जा सकता है। "देवी सर्जकात्मा के अस्तित्व का निषेध ही जैनधर्म की नास्तिकता का अर्थ है ।"" जैनी ऐसे सर्व शक्तिमान ईश्वर को नहीं मानते हैं। परन्तु वे शाश्वत अस्तित्व, सर्वव्यापी जीवन, कर्मसिद्धान्त की अटलता और मोक्ष के लिए सर्वज्ञता की आवश्यकता को स्वीकार करता है । जैनों को विश्व उत्पत्ति के आदि कारण के प्रश्न के आकलन की ग्रावश्यकता प्रतीत नहीं होती |" बे बुद्धिगम्य यादि कारण के अस्तित्व को नहीं मानते हैं। घोर शून्य में से अथवा अकस्मात उद्भूत सर्जन सिद्धान्त 1. तए सा दोबई रायवर कसा... जेणेव जिलधरे... यजिखपटिमाणं... परणामं करेई... ज्ञाता सूत्र 119 T. 210 1 2. देखो रेप्सन. के. हि... भाग 1, पृ. 313 । 3. हापर्किस, वही, पृ. 285 286 "उनके यथार्थ देव उनके जिन या तीर्थंकर ही हैं जिनकी मूर्ति की पूजा उनके मन्दिरों में की जाती है ।" वही । 4. कर्तास्ति कश्चिद् जगतः स चैकः, स सर्वगः स स्ववश स नित्यः । इमा: कुहेवाकविडम्बना: स्युस्तेषां न येषामनुशासकत्वम् ||9|| हेमचन्द्र, स्याद्वादमंजरी (मोतीलाल लधाजी सम्पादित), पृ. 24; वही, पृ. 14 आदि । 5. राधाकृष्णन, वही भाग 1 पृ.299 देखो विजयधर्मसूरि भण्डारकर स्मृतिग्रन्थ पृ ( 14 आदि) 150-151 7 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 ] की भी वे उपेक्षा करते हैं। एक जैन विचारक की दृष्टि में प्रकृति के सिद्धान्त का व्यवस्थित संचालन किसी अकस्मात अथवा प्रारब्ध का फल नहीं हो सकता है। जैनों की कल्पना में यह प्रो ही नहीं सकता है कि असर्जक ईश्वर एका-एक सर्जक कैसे बन सकता है। प्राचार्य जिनसेन प्रश्न करता है कि "यदि ईश्वर ने विश्व को रचा है तो इसकी रचना के पूर्व वह ईश्वर कहां था ? यदि वह पाकाश में नहीं था तो उसने विश्व का स्थान निर्देश कैसे किया ? अरूपी और अमूर्त ईश्वर मूर्त द्रव्य रूप जगत को कैसे बना सकता है ? यदि द्रव्य का पहले से अस्तित्व मान लेते हैं तो फिर क्यों न जगत को ही अनादि और अनुत्पन्न ही मान लें? यदि जगत को कर्ता ईश्वर का कर्ता कोई नहीं है तो जगत को स्वयम् उत्पन्न हुआ मानने में ही क्या दोष है ? “वै और भी कहते हैं कि" क्या ईश्वर स्वयम् पूर्ण है ? यदि ऐसा है तो उसको जगत उत्पन्न करने का कोई भी कारण नहीं है । यदि वह स्वयम् सम्पूर्ण नहीं है तो साधारण कुम्हार की भांति वह यह कार्य करने के लिए अशक्त माना जाना चाहिए क्योंकि पूर्व सिद्धान्त से तो सम्पूर्ण जगत ही वह बना सकता है। यदि ईश्वर ने अपनी इच्छा से ही जगत को खिलौने के रूप में बनाया है तो वह ईश्वर बालक ही होना चाहिए। यदि ईश्वर दयालु है और उसने कृपा करके ही यह जगत बनाया है तो उसको सुख और दुःख दोनों ही नहीं बनाना चाहिए था।"] यदि हम यह कहें कि जो कुछ भी अस्तित्व में है उसका कोई कर्ता होना ही चाहिए तो कर्ता का भी कोई कर्ता होना आवश्यक है । इस प्रकार हम एक वर्तुल में पड़ जाएंगे और उसमें से बचने का मार्ग प्रत्येक वस्तु के कर्ता का स्यम् अस्तित्व मानने में ही रहेगा । यहां फिर यह प्रश्न उठता है कि यदि एक व्यक्ति के लिए स्वयम् अस्तित्व और शाश्वतता शक्य है तो वह अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों के लिए संभव क्यों नहीं? ऐसी परिस्थिति में जैन दृष्टि अनेक द्रव्यों की परिकल्पना करती है और सभी द्रव्यों की परिकल्पना करती है और सभी द्रव्यों को स्वयम्-प्रकट होने के सिद्धान्त द्वारा इस विश्व की व्याख्या की जाती है।" जीव और अजीव मय यह विश्व अनादि से चला आ रहा है और उसमें किसी बाह्य देवसत्ता के दखल बिना ही प्राकृतिक नियमानुसार असंख्य परिवर्तन होते ही रहते हैं। विश्व की विविधता का मूल पांच समवाय याने काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ में ही समाया हुआ है।" इतना सब होते हुए भी जैनों के इस विश्वास ने उन्हें अविकास प्राप्त जड़वादी कि जिसे 'भौतिकवाद' कहा जाता है अथवा चार्वाक कि जिसका सिद्धान्त 'यावज्जीवेत सूखंजीवेत' है और जो 'भष्म हा शरीर फिर से जन्म नहीं लेता' मानता है, नहीं बनाया । श्री वास्त ने अपनी 'जैनीज्म' नामक पुस्तिका में जैनदर्शन और अन्य दर्शनों के विचारभेद को सुन्दर रीति से नीचे लिखे शब्दों में व्यक्त किया है । 'विश्व नियंता सर्वशक्तिमान ईश्वर के सिद्धांत का एक विकल्प' वह विद्वान कहता है कि 'आत्महीन जड़वादी नास्तिकवाद का सिद्धांत है जो प्रतिपादन करता है कि जीव और चेतन भौतिक अणूत्रों की गति और स्कंध का परिणाम है जो कि मृत्यु समय में विचूर्णित हो जाते हैं। परन्तु जिन्हें इस प्रकार के किसी भी सिद्धांत से सन्तोष नहीं होता है उनके लिए पुस्तक में एक स्थूल रूपरेखा दी गई है कि जो न तो प्रात्मा के अस्तित्व का ही निषेध करता है और न शष्टिकर्ता की मान्यता को मान कर ही चलता है। परन्तु वह प्रत्येक व्यक्ति को अपने भाग्य का आप विधाता बनाता है, प्रत्येक चेतन प्रात्मा के लिए मोक्ष का ध्येय बनाता है और उस शाश्वत सुख के प्रावश्यक साधन रूप अात्मविकास की सर्वोत्कृष्ट भूमिका में पहुंचने तक के समय के लिए सर्वोच्च त्याग आवश्यक कहता है। 1. लाठे, इन्ट्रोडक्शनटू जैनिज्म, पृ. 85-87; जिनसेन. प्रादिपुराण, अध्या. 3 । देखो भण्डारकर, रिपोर्ट शान संस्कृत मैन्यूस्क्रिप्ट, 1883-1884, पृ. 118 । 2. राधाकृष्णन, वही, पृ. 330। 3. वारेन, जैनीज्म, पृ. 2 । 'हे मानव ! तू ही अपना मित्र है, फिर क्यों प्रपनेसे बाहर किसी मित्र की खोज करता है।' याकोबी, सेबुई, पुस्त. 22, पृ. 33 । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि ईश्वर जैसी कोई वस्तु प्रयवा व्यक्ति जैनी स्वीकार नहीं करते हैं तो वे किस सत्ता को मानते हैं और उस सत्ता के लक्षण क्या है लक्षणों द्वारा पहचाने बिना किसी भी व्यक्ति के आदेश स्वीकार करने में मनुत्तरदायी और धाततायी सत्ताधीश की आज्ञा स्वीकार करने का आरोप धाता है। सत्ताधीश चाहे जैसा सच्चा हो फिर भी उसके उपदेश की पहली भूमिका सत्यज्ञान है। धर्म के मूल तत्व या जड़का विचार करने पर हम देखते हैं कि मनुष्य और ईश्वरी सत्ता का पारस्परिक सम्बन्ध ही धर्म की तात्विक व्याख्या नहीं है और यह व्याख्या जैनधर्म के अनुकूल नहीं है । ऐसी व्याख्या धर्म के गूढ़ रहस्य का आकलन करती ही नहीं है । 'दुख के अस्तित्व के कारण जानने की, उनको निर्मूल करने की, फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले शाश्वत सुख के लिए मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा ही धर्म का लक्षण है। उपर्युक्त शक्तियों को इच्छापूर्वक ही इन्द्रियातील नहीं कहा गया है, ताकि रश्य देवी शक्ति इस प्रकार अस्वीकार हो जाएं और फिर ये शक्तियां वास्तविक रूप में नहीं अपितु पूजकों की दृष्टि में लौकिक है। * तथ्य जो भी हो, यह ऐसी निर्बलता है कि जो किसी न किसी रूप में सार्वभौमिक है, धौर इस दृष्टि से, प्रकृतथा जैन भी इससे विमुक्त नहीं रह पाए है। इस विचारसरणी । को यहीं छोड़ दें तो जैसा कि हम पहले ही देख आए हैं जैनधर्म, यह कहा जा सकता है कि, एक ऐसा स्वच्छ और परिपूर्ण प्रकाश है जिसे उन महान आत्माओं ने कि जिनने अपने सब विकारों और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर it at र जो सब प्रकार के कर्मों से इसलिए विमुक्त हो गए थे. इस संसार को दिया था । जिन - जैनधर्म के प्राध्यात्मिक नेता: जैनधर्म के मौलिक सिद्धांतों को प्रस्तुत करनेवाले सब शास्त्र पृथ्वी पर मनुष्य रूप में विचरते पार्श्वनाथ और महावीर जैसे महान् श्राध्यात्मिक गुरुश्रों के उपदेशामृत हैं । ये उपदेश सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा जिन भगवान् के शिष्य गणधरों को सर्व प्रथम उनके द्वारा दिए गए थे और उन गणधरों ने आज तक चली आती गुरु परम्परा को वारसे में वे दिए । इस प्रकार हम जो कुछ भी जैनधर्म के विषय में अब कहेंगे उस सब का मूल ये जिन भगवंत ही हैं । इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि मूल सिद्धांत की दृष्टि से उनके आधार सब अपेक्षाकृत परवर्ती कालीन हैं। परन्तु मूल और रूपान्तर को पृथक करना जरा भी कठिन नहीं है क्योंकि डा. शापेंटियर ठीक ही कहता है कि 'मूल सिद्धांतों को दृढ़ता से चिपके रहने में छोटी सी जैन जाति की अनमनशील अनुदारता' ही उसका सुदृढ़ रक्षक रही है। इसी धनुदारता के कारण अनेक भयंकर विपत्तियो के आने पर भी जैनी लोग अपने शास्त्रों को लयभग अबाधित रूप में सुरक्षित रख पाए हैं। ईसकी पहली और दूसरी सदी के उद्भिदों (वास रिलीफ) में उनकी 1. वारेन, वही, पृ. 1 1 2. टी, वही, पृ. 21 3. जिनेन्द्रो... रागद्वेषविवर्जितः... कृत्स्नकर्मक्षयं कृत्वा संप्रान्तः परमपदम् । हरिभद्र, षड्दर्शनसमुच्चय श्लो. 45, 46 | 'जैनधर्म का यह खयाल है कि वही ज्ञान यथार्थ है जो क्रोध, मान, घृणा आदि विकारों से रहित है वही जो सर्वज्ञ है. वहीं ग्रार्जव के मार्ग का उपदेश कर सकता है कि जिससे जीवन का अनंत सुख प्राप्त हो सकता है और वह सर्वज्ञता उसमें असम्भव है जिसमें प्रमादी तत्व पाए जाते हैं।' धारेन वही, पृ. 3: 4. इन्द्रभूति से प्रारम्भ कर प्रभवस्वामी में समाप्त होने वाले महावीर के ग्यारह गणधर थे। 5. प्रक्रान्तशास्त्रस्य चीर जिनवरेन्द्रापेक्षया र्थतः ग्रात्मागमत्वं तच्छिध्यं तु पंचमरणधरं सुधर्म ... तच्छिध्यं च जंबू ... परम्परागत प्रतिपिपादयिपु. सूत्रकारः... आह... शाता, टीका, पृ. 1 6. शापेंटियर केहि.., माग 1, पृ. 1691 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 ] प्रात्मा को जन्म और पुनर्जन्म सहित इस संसार चक्र के सब अनुभव करने पड़ते है बस इसी में हमारे सब दु:खों का मूल है और इसलिए जीव और अजीव दोनों तत्वों और उनके पारस्परिक सम्बन्ध को स्थूल रूप में समझाने के लिए जैनशास्त्रकारों ने नव तत्व का विधान प्रस्तुत किया है और ये नौ तत्व इस प्रकार हैं:-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, पाश्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष ।' इन सब तत्वों का जैन अध्यात्मशास्त्र में बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया गया है, परन्तु हमें यहां इन सबका इतनी सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यता नहीं है । इन तत्वों में जिसमें चेतन हो वह जीव और जो चेतनरहित हो वह अजीव है। जैसा कि पहले ही कह पाए हैं, इस सांसारिक अस्तित्व में जीव याने प्रात्मा और अजीव दोनों साथ साथ रहते हैं। इसलिए इस शरीर से सम्बद्ध आत्मा अच्छे और बुरे सब कर्मों का कर्ता बनती है। अपने शुद्ध स्वरूप में प्रात्मा अनतदर्शन, अन्नतज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य की स्वामिनी है। वह सम्पूर्ण है । आत्मा जब अपने सत्य, शाश्वत स्वरूप में होती है तब इन चार अनन्त सिद्धियों का वह अनुभव करती है ।" सामान्य दृष्टि से केवल मुक्तजीवों को छोड़ कर सब संसारी जीवो की शक्ति और स्वच्छता अनन्त समय से चले आते कर्मों के पुद्गलों रूपी सूक्ष्म प्रावरणों से ढकी होती है। प्रात्मा के स्वामाविक गुण कमोबेश प्रमाण में इस प्रकार प्राच्छादित रहते हैं और इसलिए पुण्य और पाप की विविध परिस्थितियां अनुभव की जाती हैं । जीव और अजीव के बाद के दो विभाग पुण्य और पाप के विचार की ओर हम इस प्रकार पहुंच जाते हैं । आत्मा को जो पुद्गल अच्छे और परोपकारी कार्यों के परिणाम स्वरूप चिपटते हैं, उनका समावेश पुण्य में होता है। इससे विपरीत स्थिति में जो चिपटते हैं वही पाप है।' पुण्यशील कर्म पुण्य और पापमय कर्म पाप है । जब प्रात्मा शुभाशुभ कर्म की सत्ता के अधीन इस प्रकार प्रयत्नशील होती है तो मन, वचन और काया की प्रवृत्तियां उसके इन प्रयत्नों में सहायक होती हैं। इससे धार्मिक पुद्गलों के आगमन को अवसर मिलता है और प्रात्मा उन पुद्गलों के साथ बंध जाती है अथवा उनके चिपटने में वह रुकावट डालती है । इस प्रकार प्राश्रव, संवर और बंध अस्तित्व में आते हैं। 1. "पुद्गल चेतनाहीन है, प्रात्म चेतन है। पुद्गल में इच्छा नहीं है परन्तु आत्मा द्वारा उसका ढांचा बनता है । प्रात्मा और पुद्गल का संबंध भौतिक हैं, और वह आत्मा की प्रवृत्तियों से प्रभावित होता है । बंधन को कर्म कहते हैं क्योंकि वह आत्मा का कार्य याने कर्म है । यह पौद्गालिक है और अति सूक्ष्म कार्मिक पुद्गलों का यह ऐसा सूक्ष्म बन्धन है कि वहात्मा को ऊर्ध्वगमन कर अनंतज्ञान, अनंतसुख और अव्याबाध शांति के स्थान मोक्ष में नहीं जाने देता है। "जैनी, वही, पृ. 26; कर्ता शुभाशुभं कर्मभोक्ता कर्मफलस्य च...हरिभद्र, वही, श्लो. 48 । 2. जीवा-जीवो तथा पुण्यं पापमांश्रवसंवरी। बन्धश्च निर्जरामोक्षो नव तत्वानि तन्मते ।। हरिभद्र, वही, श्लो. 47 । देखो कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकायसार, गाथा 108 भी। 3. देखो स्टीवेन्सन (श्रीमती), वहीं, पृ. 299-311 । 4. चैतन्य लक्षणो जीवे, यश्चैतद्व परीत्यवान् । अजीवः स...। हरिभद्र, वही, पृ. 49 । 5. दर्शन और ज्ञान में जैन विभेद करते हैं। पदार्थों के सामान्य ज्ञान को वेद दर्शन कहते हैं जैसे में पट देखता हं । पदार्थ कि विशिष्टता का जानना ज्ञान है जैसे मैं न केवल पट ही देखता हूं अपितु यह भी जानता हूं कि वह किसका है, किस जाति का है, कहां का बना है आदि आदि । परिचय करते सबसे पहले दर्शन होता है जिसके पश्चात् ज्ञान । शुद्ध प्रात्मा अनंतदर्शन और अनंतज्ञान पूर्ण विशिष्टता सहित होता है-दासगुप्ता, वही. भाग 1, पृ. 129 1 6. जैनी, वही पृ. 1। 7. पूण्यं सत्कर्म पुद्गलाः । हरिभद्र, वही, श्लो. 49। पापं तद्विपरीतं तु...वही श्लो. 501 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 41 अधिक स्पष्टता से कहें तो मन, वचन और काया के व्यापार जो प्रात्मा का कर्म पुद्गलों के साथ सम्बन्ध कराते हैं यह साव है, और जिन व्यापारों से कर्म पुद्गलों का सागमन रुक जाता है वह संबर है। कर्म पुद्गलों का प्रात्मा के साथ तन्मय सम्बन्ध हो जाना ही बंध है । " इस प्रकार जैनमतानुसार हम स्वयम् अपनी स्थिति के लिए सर्वथा उत्तरदायी हैं। 'अज्ञानी, रोगी, दुःखी, दयाहीन, घातकी अथवा निर्बल चाहे जैसा भी कोई क्यों न हो उसका कारण इस जन्म से ही नहीं ग्रपितु अनंत काल (भूतकाल ) के जन्मों से हम जो दृश्य सूक्ष्म परन्तु सत्य पुदगलों को ग्रहण करते पा रहे हैं, और यही आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान, मानन्द, प्रेम, दया और शक्ति धादि का अवरोध करते हैं और हमें अपकृत्य करने की प्रेरणा देते हैं । 2 f कर्म रूपी इन सब बन्धनों से हमारी प्राध्यात्मिक उन्नति रुक जाएगी ऐसा विचार कर रािश होने का कोई भी कारण नहीं है । यद्यपि मनुष्य के कर्म बहुत कुछ उसको बनाते हैं, फिर भी सत्कार्य के लिए उसमें अनंतशक्ति और अनंतवीर्य है जिससे समय समय पर कर्म के प्रभाव का दबाव होते हुए भी ये शक्तियां कर्म द्वारा किसी भी समय निःसत्व नहीं की जा सकती हैं। जैनशास्त्र कहता है कि पूर्ण धार्मिक जीवन और तप से इन सब कर्मों का नाश किया जा सकता है और आत्मा अपनी स्वाभाविक उच्च दशा को जो कि मोक्ष है, प्राप्त कर सकता है । डा. व्हलर कहता है कि नातपुत्त प्रारब्धवादी थे यह दोष प्रतिपक्षी के प्रति घृणा और उसकी अपकीति करने की दृष्टि से उत्पन्न की हुई कल्पना और परिणाम मात्र ही समझना चाहिए।" कर्म को भाड़ कर फेंक देने अथवा उसे क्षय कर देने को निर्जरा कहते हैं और सब कर्म का सर्वथा नाश याने कार्मिक पुद्गलों के ग्रात्मा की सम्पूर्ण मुक्ति ही मोक्ष है । 1 ग्रात्मा के परिणामों में फेरफार होने से, उस पर चिपके हुए कर्म भोग लेने से अथवा परिपाक पूर्व ही तपस्या से उनकी निर्जरा की जा सकती है। जब सब कर्मों का जय हो जाता है तभी मोक्ष या मुक्ति मिलनी है।" इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ के लक्षणों से यह बात स्पष्ट है कि जब तक जीव अच्छे या बुरे कर्मों से सम्पूर्ण आत्मशुद्धि द्वारा अन्तिम छुटकारा प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक एक या दूसरी रीति से ये कर्म आत्मा से चिपके । । 1. ... मिथ्यात्वाद्यास्तुहेतवः यस्तेवन्धः स विशेष याश्रवो जिनशासने संवरस्तनिरोधत बन्धोजीवस्य अर्पणः । अन्धोन्यानुगमात्कर्म मम्बन्धो यो द्वयोरपि ।। हरिभद्र, वही, श्लोक 50-511 2. वारेन, वही, पृ. 5 'शुद्ध आत्मा की स्वाभाविक पूर्णता भिन्न भिन्न प्रकार के कर्म पुद्गलों से श्राच्छादित रहती है । जो उसके सम्यज्ञान को आच्छादित करते हैं उन्हें ज्ञानावरणीय, जो उसके सम्यक्दर्शन को श्राच्छादित करते हैं जैसे कि निद्रा में बाधक आदि, उन्हें दर्शनावरणीय, जो आत्मा को अनंतसुख प्रकृति को ढकें रख कर उसे सुखदुःख का अनुभव कराते हैं वे वेदनीय और जो सम्यक्चरित्र के प्रति ग्रात्मा की सम्पद्धा को रोकते हैं, वे मोहनीय कर्म हैं' दासगुप्ता, वही भाग 1 . 190-191 इन चार कर्मों के अतिरिक्त मी चार प्रकार के कर्म और हैं जिन्हें आयु कर्म नाम कर्म, गोत्र कर्म और मंतराय कर्म कहते हैं। इनसे क्रमश: आयु की स्थिति, वैयक्तिक स्वभाव, कुल अथवा जाति और आत्मा की सफलता या उन्नति की अवरोधक निसर्गज शक्ति का निर्णय होता है । 3 7 , 3. व्हलर वही, पृ. 32 देखो याकोबी, इण्डि एण्टी.. पुस्त. 9, पृ. 159 160 1 1 4. अस्य कर्मणः शाटोयस्तु सा निर्जरा मता प्रात्यन्तिको वियोगस्तु देहातेमेत्रि उच्यते ॥ हरिभद्र वही श्लोक 521 5. विपाकात्तपसा वा कर्मपरीशाटो कर्मात्मसंयोगध्वंसः निर्जराः कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणः मोक्षः ... उमास्वातिवाचक, तत्वार्थाधिगम सूत्र (मोतीलाल लभाजी सम्पादित), पृ. 7, टिप्पण | Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ] हुए ही रहते हैं और इसलिए इस जगत में कार्मिक वर्गणायुक्त जीव प्रज्ञान, दुःख, दरिद्रता, वैभव प्रादि द्वारा बाह्य सुखदु:ख अनुभव करता है। जीव के ऐसे विलक्षण परिभ्रमण को ही संसार कहा जाता है उससे मुक्ति प्राप्त करना ही मोक्ष या अन्तिम छुटकारा है। इसमें जीव को बाहर से कुछ भी नहीं प्राप्त करना है परन्तु कार्मिक बन्धनों के पाश में से छूट कर अपनी स्वाभाविक स्थिति मात्र ही पाना है । ' संक्षेप में सब कर्म बन्धनों से म्रात्मा की मुक्ति ही मोक्ष दशा है शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म श्रात्मा को बादलों की भांति आवरणरूप हैं । जब बादल हट जाते हैं तो जैसे झल-झलाट चमकता हुआ सूर्य प्रकाशमान हो जाता है, वैसे ही कर्मरूपी आवरण के दूर हो जाने पर भ्रात्मा के सकल गुण प्रकट हो जाते हैं। इसमें एक वस्तु दूसरे का स्थान ले लेती हो वैसी कोई भी बात नहीं है । सिर्फ विघ्नकर्ता वस्तु का ही नाश इसमें होता है । जब कोई पक्षी पिंजरे में से मुक्त होता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि पक्षी पिंजरे को छोड़ कर दूसरी वस्तु ग्रहण कर रहा है। परन्तु यही अर्थ है कि परतंत्रता रूप पिंजरे को ही वह त्याग कर रहा है। इसी प्रकार मात्मा जब मोक्ष प्राप्त करता है तब सब पुण्य एवं पाप कर्मों का सर्वथा नाश कर वह कोई नई वस्तु ग्रहण नहीं करता है अपितु वह शुद्ध श्रात्मस्वरूप का तब अनुभव करता है । इस प्रकार जब श्रात्मा को मोक्ष मिल जाता है तब वह पवित्र और मुक्त आत्मा भौतिक शरीर और उसके अंतराय से मुक्त होकर अपनी स्वाभाविक दशा को प्राप्त कर लेता है । तात्पर्य इतना ही है कि मुक्त आत्मा अपनी उज्जवलता, श्रानंद, ज्ञान और शक्ति सहित पूर्ण रूप में प्रकट हो जाता है। तीन रत्नों द्वारा मोक्ष: सुख दुःख की सब परिस्थितियों के मूल को इस प्रकार समझने पर ही मोक्ष प्राप्त कैसे किया जाए यह प्रश्न उपस्थिति होता है । श्रौत्तर-बाह्य तपश्चर्या से जीवन के दुखों में से बाहर निकलने का मार्ग जैनधर्म बताता है । जिन भगवान ने बताया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्वरित्र इन तीन रत्नों द्वारा मोक्ष मिल सकता है । " प्रथम रष्टि में पृथक-पृथक दिखते हुए भी ये तीनों बौद्धधर्म के त्रिरत्न बुद्ध, नियम और संघ से मिलते हुए ही हैं।" यह “रत्नत्रय" जिसका परिणाम, जैनों के अनुसार, आत्मा की मुक्ति है, उस जैन योग का मूल आधार है जिसे हेमचन्द्र मोक्ष का कारण कहते हैं । * इनमें से पहला रत्न कहता है कि जिन प्ररूपित तत्वों में श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। 5 इसका अस्वीकार एक प्रकार का संशयवाद है कि जो सब प्रकार के गंभीर विचार में स्कापट करता है । इस सम्यग्दर्शन का एक मात्र लक्ष्य यह है कि "शुष्क न्याय और कुतर्क वितण्डा से नष्ट होने अथवा 1.... आत्मनः स्वभावसभावस्थानंम् वही... स्वभावजं सोस्थम् हेमचन्द्र, योगशास्त्र, प्रकाश 11 श्लोक 61, पृ. 1 हस्तप्रति भण्डारकर प्रा. मं. पुस्तकालय सूची 1886-1892 सं. 1315 | " 2. सम्यग् दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । उमास्वातिवाचक, वही अध्या. 1 सूत्र 1 देखो हरिभद्र, वही, श्लो. 53 । 3. वार्थ, वही, पृ 147। “बुद्ध, नियम और संघ, इन बौद्ध त्रिरत्नों से जैन इन त्रिरत्नों की तुलना करना अवश्य ही मनोरंजक है। मुसलमानी त्रिपुटी, खेर मेर और बंदगी और पारसी त्रिवर्ग याने पवित्र मन, पवित्र वाचा और पवित्र वर्तन भी तुलनीय है ।" स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 247 । 1 4. चतुर्वर्गे प्रीमो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं च म हेमचन्द्र वही, प्रकाश 1, श्लो. 15, 15 तत्वार्थद्धानं सम्यग्दर्शनम् । उमास्वातिवाचक, वही, प्रध्या 1. सूत्र 2 यहां जिन तत्वों का निर्देश किया गया है वे उपर्युक्त नव-तत्व ही हैं। हरिभद्र, वही, पृ. 531 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [43 संशयवाद के खार से खाई जाने के स्थान में इसकी ज्ञान के वृक्ष रूप में वृद्धि हो और यह चरित्र के सर्वमंगलमय फल में फलित हो ।" इस प्रकार इन त्रिरत्नों में अनन्यतम महत्व का रत्न तो सम्यग्दर्शन ही है क्योंकि संशयवाद की प्रात्म-प्रवंचना और जटिल व्यर्थता से हमारी रक्षा यही करता है। पक्षान्तर में सम्यग्ज्ञान हमें उन सब बातों की सूक्ष्म परीक्षा करने की योग्यता देता है कि जो हमारे मानस पर श्रद्धा द्वारा अंकित होती हैं। संक्षेप में सम्यग्ज्ञान हमें उपर्युक्त तत्वों की यथार्थ और स्पष्ट अभिव्यक्ति कराता है। वस्तुतः सम्यग्ज्ञान जिनों द्वारा प्ररूपित जैनधर्म और उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही है । संक्षेप में श्रद्धायुक्त ज्ञान ही हमें अन्तिम ध्येयरूप सम्यक्चारित्र की ओर ले जाता है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन दोनों ही यदि सम्यकचारित्र रहित हों तो व्यर्थ हैं । जिन द्वारा प्ररूपित सर्व नियमों के पालन में ही सम्क्यचारित्रक का समावेश होता है और उसी के द्वारा मोक्ष प्राप्त हो सकता है। हमारा अन्तिम ध्येय मोक्ष ही होने से स्वभावतः सम्यक्चारित्र ऐसा होना चाहिए कि जो शरीर का महत्व घटाए और प्रात्मा को उन्नत करे। मन, वचन और काया से पापरूप व्यापार का त्याग ही, संक्षेप में कहें तो सम्यकचारित्र है। ___ व्यवहारिक जीवन में चारित्र के दो भाग किए गए हैं:-1. साधू-चारित्र अर्थात् साधू की चर्या, और 2. गृहस्थ-चरित्र अर्थात् गृहस्थी की चर्या । परन्तु यहां इनके विवरण में जाना आवश्यक नहीं है । इतना ही कह देना यहां पर्याप्त होगा कि गृहस्थ-चरित्र की अपेक्षा साधू चरित्र के नियम स्वाभाविकतः ही कड़े होते हैं क्योंकि कठिनतम होते हुए भी निर्वाण का निकटतम मार्ग वही है। गृहस्थ-जीवन का ध्येय भी निर्वाण प्राप्ति ही है परन्तु यह मार्ग लम्वा और धीग है। जैनधर्म स्वीकार के पूर्व वह प्रत्येक मनुष्य से नियमन की तीव्रता, दृढ़-इच्छा शक्ति और शुद्ध चारित्र की अपेक्षा रखता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच महाव्रतों से प्रारम्भ कर मन, वचन और काया का संयम पोषण करते हुए मनुष्य प्राध्यात्मिक जीवन की पराकाष्ठा को पहुंच जाता है कि जहां जीवन-मरण की आकांक्षा नहीं है और अन्त में अनशनव्रती या अनाहारी रह कर मृत्यु का स्वागत किया जाता है। जैन आचारशास्त्र इतना सूक्ष्म और विचारपूर्वक रचा हुआ है कि यह स्वयम् अभ्यास रूप है। हमने जीवन 1. जैनी, वही, पृ. 34। 2. ...तत्वानां... ...अवबोधस्तमत्राहः सम्यग्ज्ञानं...।। -हेमचन्द्र वही, प्रकाश 1, 6. प. 1। जैन पांच प्रकार के ज्ञान मानते हैं और बहुत ही सक्षमता से सर्वज्ञता तक पहुंचाने वाले ज्ञान की इन पांचों श्रेणियों का विवेचन करते हैं, वे पांच ज्ञान हैं -मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्यायज्ञान और केवलज्ञान । इनको अंगरेजी में क्रमशः कहा जा सकता है:-सेन्स नालेज (Sense Knowledge), टेस्टीमनी (Testimony), नालेज आफ दी रिमोट (Knowledge of the remote), थाटरीडिंग (Thought reading) और प्रोम्नीसीएन्स (Omniscience)। 3. सनसावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते । -वही, प्रकाश 1, श्लो. 18, पृ. 2 । 4. अहिंसासत्यमस्तेयव्रह्मचर्यापरिग्रहाः ।...विमुक्तये ।। -हेमचन्द्र, वही, प्रकाश 1, श्लो. 19, पृ. 2 । 5. मरणकाल य प्रणसणा । -उत्तराध्ययनसूत्र, अध्या. 30 गाथा 9 । 6. "जैनदर्शन का मूल्य इसमें ही नहीं है कि इसने, हिन्दुधर्म के असमान, दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ नैतिक शिक्षा भी जोड़ दी है अपितु इसमें भी है कि इसने मानवी प्रकृति का अद्भुत ज्ञान भी अपनी नीति के प्रदर्शन में बताया है।"-स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 123 1 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ] और मोक्ष के जैन दृष्टि कोण का जो अब तक विचार किया है उसका उपसंहार कर जैनधर्म की अन्य प्रमुखता का विचार करेंगे। प्राचार्य कुदकुद के शब्दों में इस प्रकार संवरण करेंगे :--- "अात्मा ही अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता है वह अज्ञानरूप पडल से अंध बना हुमा संसार में परिभ्रमण कर कर रहा है। यह संसार श्रद्धालु के लिए मर्यादित और अश्रद्धालू के लिए अमर्यादित है।" "यह अज्ञान का पड़दा समझ और इच्छाशक्ति को घेरे हुए हैं। इसको जड़मूल से चीर कर, रत्नत्रय से सुसज्जित हो, जिस निर्भय-यात्री ने परिस्थिति द्वारा उत्पन्न सुख दुःख को जीत लिया है और प्रात्मज्ञान के आदर्श में से प्रकाश प्राप्त करते हुए विकट मार्ग में जो चल रहा है वही पूर्णता के देवी मन्दिर में पहुंचता है।" इस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों से घिरा हुआ और अच्छे बुरे कर्मों के कारण अपनी स्वाभाविक स्थिति से बलात्कार दूर हुआ आत्मा जब इन सब विघातक और बाह्य प्रावरणों को दूर फेंक देता है तभी वह ईश्वर या परमात्मा के सब गुणों को धारण कर लेता है ऐसा कहा जाता है। कर्म रहित होने के पश्चात् सर्वज्ञ बना हुअा यह आत्मा प्रशांत अविकारी और शाश्वत सुख प्राप्त करता है। सच तो यह है कि ऐमा आत्मा ही जैनधर्म में ईश्वर का आदर्श प्रस्तुत करता है और एक समय सर्वोत्तम पद पर पहुंच कर फिर उसका वहां से पतन संभव ही नहीं है। श्री उमास्वातिवाचक कहते हैं कि दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रातुभर्वति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ।। अर्थात् भूमि में के बीज जल जाने पर फिर से अंकुरित नहीं होते उसी प्रकार कर्म रूप बीज जल जाने पर उनमें से संसार रूप अकुर नहीं फुट सकते हैं।" इस प्रकार ईश्वर शब्द से यद्यपि किसी व्यक्ति विशेष का निर्देश नहीं है तो भी सर्व मान्य गुण जब मनुष्य में पूर्ण विकसित हो जाते हैं तब वह ईश्वरत्व प्राप्त कर लेता है। ईश्वर मनुष्य की आत्मा में छुपी शक्तियों का सर्वोत्तम, महान् और सम्पूर्ण प्रकाश या विकास मात्र है ।' तीर्थ कर और केवली: यहां इतनी सूचना कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि ऐसी सर्वज्ञ प्रात्मानों में बुद्धि ही नाम कर्म के 1. कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकायसार, सेबुजे, पुस्त. 3, पृ. 75-76 ।। 2. “संक्षेप में शष्टिकर्तृव्य सिद्धान्त के मानने वाले ईश्वर को एक मानव ही बना देते हैं और उसे आवश्यकता और अपूर्णता की सतह तक नीचा खींच लाते हैं। पक्षान्तर में जैनधर्म मनुष्य को ईश्वरत्व में ऊंचा उठाता है और उसे दृढ़ श्रद्धा, सम्यकचारित्र और सम्यग्ज्ञान और ष्किलंक जीवन द्वारा यथा संभव ईश्वरत्व के निकटतम पहुंचने की पूरी-पूरी प्रेरणा देता है ।" -जैनी वही, पृ. 6 । 3. कुन्दकुन्दाचार्य वही, गाथा 151 (जैनी, वही, पृ 77 अंगरेजी अनुवाद)। 4. कर्मक्षयस्स करणेन भवतीश्वरो न पूननित्यमुक्तः कश्चिदेकः सनातन ईश्वरः । विजयधर्मसूरि, वही, प 150। 5. उमास्वातिवाचक, वही, अध्या. 10, सूत्र 8, पृ. 20।। अकर्मकीमतः परमात्मा न पुन: कर्मवानहीत भवितुम् मुक्ति प्राप्य न पुनरोधो वतारंः...-विजयधर्मसूरि, वही और वही स्थान । 6. राधाकृष्णन, वही, भाग 1, पृ. 331 । 4. जैसे गोत्र नामकर्म महावीर के क्षत्रियाणी के गर्म में ध्यवन में बाधक हना था वैसे ही यह नामकर्म है । तीर्थंकरनामसं ज्ञं न यस्य कर्मास्ति... -हेमचन्द्र, वही, प्रकाश 11, श्लो. 48 पृ. 30 । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 45 फलस्वरूप तीर्थंकर कहलाती हैं। तीर्थकर का खास लक्षण है कि उन्हें किसी के उपदेश बिना ही आत्मा की स्वयं जागृति होती है और वे अपने उस शरीर से सत्यधर्म का उपदेश और प्रचार करते हैं । अन्य सर्वज्ञ आत्माएं सामान्य केवली कही जाती हैं। तीर्थकर अपनी अद्वितीय प्रभुता, प्रगब्म देवत् और असाधारण एवम् आलौकिक सुन्दरता, शक्ति, प्रतिमा और प्रकाश से जगत पर चिर स्मरणीय छाप छोड़ जाते हैं। तीर्थंकर कौन? तीर्थंकर जैनों का एक विशिष्ट परिभाषिक शब्द है। इसका बहुधा साधू, साध्वी, श्रावक और श्राविका के चतुर्विध संघ का स्थापक अर्थ भी किया जाता है, परन्तु यथार्थ अर्थ तो यही है कि इस विचित्र संसार रूप समुद्र में से पार उतारने के लिए और अध्यात्मिक सुख के शिखर पर पहुंचने के लिए आत्मिक प्रकाश चहुं ओर जो फैलाता है, वही तीर्थकर कहलाता है। क्योंकि उस प्रकाश द्वारा ही आत्मिक सुख की उच्चता को पहुंचा जा सकता है। ये तीर्थकर धर्म को नव जीवन, नया प्रकाश और पुनर्जागृति देकर जगत का कल्याण करते हैं और सर्व पूर्व कालों से जगत को आगे ला देते हैं। यह स्वाभाविक है कि आत्मा को चिपके हुए अच्छे-बुरे सभी कर्मों का सर्वथा नाश करने वाले ही उस उच्चतम दशा को प्राप्त कर सकते हैं और अपनी महान् विजय के चिह्न स्वरूप सभी तीर्थकर जिन या विजयी कहे जाते हैं। प्राचार्य योगेन्द्र कहते हैं कि "जिस आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य है वही पूर्ण सन्त है और स्वयं प्रकाशी होने के कारण वह जिनदेव या आत्मविजयी कहा जाता है। ये सब सर्वज्ञ जीवात्मा इस जगत पर की निश्चित प्रायु पूर्ण कर अन्तिम स्थान याने मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार जैनों का यह निर्वाण या मोक्ष गुण और सम्बन्ध विहीन एवम् पुनर्जन्म से विमुक्त स्थिति । बुद्ध द्वारा प्ररूपित मोक्ष की भांति यह शून्य में विलीन हो जाना नहीं है। उसमें देह से छुटकारा है परन्तु अत्मा के अस्तित्व का नाश नहीं है। "जैनों की दृष्टि में अस्तित्व तो अनिष्ट है नहीं, सिर्फ जीवन अनिष्ट है ।" शरीर जब प्रात्मा से पृथक हो जाता है तो चेतन अात्मा जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त हो जाती है, और इस प्रकार उसका निर्वाण, आत्मा का नाश नहीं अपितू, अनन्त प्रानन्द को स्थिति में प्रवेश मात्र है ।" (मुक्त) आत्मा न तो लम्बा है और न ठिंगना...; न श्याम है और न श्वेत...; न कटु है और न तिक्त...; वह अशरीरी, पुनर्जन्मरहित, पुद्गल के सम्बन्ध रहित, स्त्री-पुरुष-नपुंसक वेद रहित है । वह दृष्टा और ज्ञाता है, परन्तु उसकी कोई उपमा नहीं है (जिसके द्वारा मुक्त प्रात्मा की प्रकृति समझी जा सके)। वह अरूपी सत्ता है, वह शब्दातीत है इसलिए उसका कोई शब्द नहीं है।' 1. देखों जैनी, वही पृ. 2 । 2. “जब नया तीर्थकर धर्म प्रवर्ताता है तो पूर्व तीर्थंकर के अनुयायी इस नए तीर्थंकर का अनुसरण करने लगते हैं जैसा कि पार्श्वनाथ के अनुयायी महावीर का अनुसरण करने लगे थे।" स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, प. 2411 3. देखो जैनी वही, पृ. 78 । 4. कुछ विशदता के लिए हम यहां कह दें कि जैनों का दिगम्बर सम्प्रदाय बौद्धों से इस बात में सहमत हैं कि कोई भी स्त्री निर्वाण प्राप्ति की योग्यता नहीं रखती है। दिगम्बरों की मान्यतानुसार मोक्ष प्राप्ति के पूर्व स्त्री को पुरुष रुप में एक जन्म फिर से लेना आवश्यक होता है। पक्षान्तर में श्वेताम्बर मोक्ष का मार्ग स्त्री-पुरुष सभी के लिए समान रूप से मुक्त मानते हैं । अस्ति स्त्रीनिवागणं प्रवत, श्री शाकटायनाचार्य ने अपने 'स्त्री-मुक्तिकेवलिमुक्तिप्रकरणयुग्मम्' में स्पष्ट कहा है। देखो जैसासं, भाग 2, अक 3-4, परिशिष्ट 2 श्लो. 2 । 5. 'बौद्धलोग...निर्वाण शब्द का प्रयोग तृष्णा के विलेपन में ही नहीं जिससे जैन भी सहमत होंगे, अपितु प्रात्मा के विलोपन के अयं में भी करते हैं. परन्तु इसको जैन प्रखरता से अस्वीकार करते हैं।' स्टीवन्सन (श्रीमती). वही, पृ. 172। 6. वार्थ वही, पृ. 147 7. याकोबो, सेबुई. पुस्तक 22, पृ. 52 । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 461 अहिंसा का आदश:...जैनधर्म के मुख्यतानों का विचार करने पर सबसे अधिक ध्यान प्राकर्षित करने वाली बात उसका अहिंसा का प्रादर्श है । प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि "जीव चेतन, अरूपी, उपयोग वाला, कर्म से जकड़ा हमा, कर्म का कर्ता और भोक्ता, सूक्षम-स्थूल शरीर धारण करने वाला, और कर्म बन्धन से छूट कर लोक के अग्र भाग तक उर्ध्व गमन करने वाला है।"। जैनों के अनुसार जीव शाश्वत है और कार्य-कारण के अबाधित नियमाधीन है। मनुष्य में जीव होता है इतना ही नहीं, अपितु वनस्पति, पशु, पक्षी, जीव जन्तु, पृथ्वी, अग्नि, पानी, हवा आदि के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अदृश्य अणुमों में भी जीव होता है। याकोबी कहता है कि “यह जड़चेतनवाद सिद्धान्त जैनों की प्रमुख विशेषता है और “उनकी सम्पूर्ण दार्शनिक पद्धति और सदाचार सहिंता में वह अोतप्रोत है।"" पाषाण वृक्ष और बहते झरणों आदि में भूतास्तित्व की मान्यता से यह सिद्धान्त एक दम भिन्न है । इस भूततत्व को अपर रूप अमूल्य प्राणियों के नाश द्वारा रक्त बलि देकर सन्तुष्ट करना होता था। परन्तु जैनों की दृष्टि में जीव मात्र, चाहे किसी भी रूप में वह हो, पवित्र है और सब एक ही ध्येय के लिए उच्च दशा में जाने वाले होते हैं इसलिए उन्हें किसी भी प्रकार के बल प्रयोग द्वारा दुःखी प्राणविहीन नहीं किया जाना चाहिए । जैनधर्म में प्रमुखतम प्रभुत्वशील लक्षण अर्थात् अहिंसा सिद्धान्त की सही युक्ति या मनस्तत्व की पृष्ठभूमि है । अहिंसा की परिभाषा प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस प्रकार की है: न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् । वसनां स्थावराणां च तदहिंसावतं मतम् ।। "प्रमादवश पंचेन्द्रिय, चतुरेंद्रिय, वेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय किसी भी जीव का हनन नहीं करने में अहिंसाव्रत का पालन माना जाता है।" प्राचार्य श्री हेमचन्द्र इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए “योगशास्त्र" में जो दृष्टांत देते हैं बैसा अत्यन्त्र कहीं भी मिलना सम्भव नहीं है। वह दृष्टांत इस प्रकार है। श्रेणिक राजा के काल में अपनी क्रूरता के लिए प्रख्यात ऐसा काल सौरिक नाम का एक कसाई धा। उसे सुलसा नाम का एक पुत्र था जो कि महावीर का पूर्ण भक्त था और इसलिए धर्म भावना से वह श्रेणिक राजा के पुत्र अभयकुमार का मित्र था। इस कसाई का मानस इतना ऋर और क्षुद्र था कि उसे जैनों की अहिंसा के प्रतिकूल भुकाना एकदम ही असम्भव था । श्रेणिक महावीर का परम भक्त था। इसलिए वह इस बात से खूब दुःखी होता था और इस कसाई को उसने उच्च बुद्धि से प्रेरित हो कर इस प्रकार कहा।...... '... सूनां विमुच यत् । दास्ये हमर्थमर्थस्य लेमस्त्वमसि सैनिकः ।। 1. कुन्दकुन्दाचार्य सेबुज, पुस्त. 3, पृ. 27; देखो द्रव्यसंग्रह, सेबुज, पुस्त. 1, पृ. 6-7 । 2. याकोबी, वही, प्रस्तावना प. 33 । 3. सर्वजीवतत्व की भावना कि प्रायः सभी पदार्थों में प्रात्मा है, सिद्ध करती हैं कि जैनधर्म महावीर भीर बुद्ध से भी पहले का है। इस विश्वास का उद्भव अति प्राचीन काल में ही हो गया होगा जब कि धार्मिक विश्वासों का उच्चतम रूप सामान्य रूप से भारतीय मानस पर अधिकार नहीं जमा पाया होगा। देखो याकोबी, वही. . पुस्त. 45, प्रस्तावना, पृ. 33। 4. देखो स्मिथ, प्राक्सफर्ड हिस्ट्री प्राफ इण्डिया, पृ. 53।। 5. हेमचन्द्र, वही, प्रकाश 1, श्लो. 20, पृ. 2 । (अनुवाद के लिए देखो स्टीवन्सन, श्रीमती, वही, पृ. 234)। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 47 अर्थात् जो तू अपना यह कसाई का धन्धा छोड़ दे तो मैं तुझ को धन दूंगा क्योंकि तू धन के लिए ही लोभ से कमाई है। राजा की इस प्रार्थना का कसाई पर कुछ मी प्रभाव नहीं हया और उसने निडर होकर राजा को उत्तर दिया कि सूनायां मन को दोयो यया जीवन्ति मानवा: । तां न जातु त्याजामीति...... अर्थात् जिससे मनुष्यों का निर्वाह होता है उस कसाईपन से क्या हानि है ? मैं तो इसे कदापि छोड़ने वाला नहीं हूं।... इस प्रकार राजा ने जब देखा कि कसाईपन से निवृत करने का अन्य मार्ग नहीं है, तो उसने उसे एक अंधेरे कुए में कैद कर दिया परन्तु सारी रात उसमें लटकाए हुए रखा । परन्तु वहां भी उस कसाई की दुर्बुद्धि ने उसे कुए की भींत पर पशुओं की प्राकृतियां खींचने और उन्हें वहां की वहां मिटा देने की प्रेरणा दी और इस प्रकार वह अपनी वृत्ति सन्तुष्ट करता ही रहा । अन्त में वह किसी भयंकर व्याधि में ग्रसित होकर मरा एवम् नरक में गया । पिता की मृत्यु के पश्चात् सुलस के सगे-सम्बन्धी सब तुरन्त ही एकत्र हुए और उसको कुल-व्यवसाय चलाते रहने को समझाया । उत्तर में उसने उनसे कहा कि “जैसे मुझे मेरा जीव प्रिय है वैसे ही वह सब जीवों-प्राणियों को प्रिय है, और यह सब जानते हुए भी कौन मूढ़ हिंसा के व्यवसाय द्वारा जीवन निर्वाह करना पसन्द कर सकता है ?" परन्तु सुलस के सगे-सम्बन्धियों पर इस तर्क का प्रभाव कुछ भी नहीं हमा, यही नहीं उनने उसके कर्मो के फल में साझी बनने की पूरी-पूरी तत्परता दिखाई। फिर सुलस ने एक भैंसे को मारने का ढोंग करते हुए, अपने पिता की कुल्हाड़ी को अपने ही पैर पर मारकर एक भारी घाव कर लिया जिससे मूछित होकर वह भूमि पर गिर पड़ा। जब वह संचेत हुआ तो उन सम्बन्धियों से यों कहने लगा...बन्धवो यूयं विमण्य मम वेदनाम् ।'...हे भाइयों। अब ग्राप मेरे इस दु:ख में साझी बनिए याने इसमें का कुछ ग्राप ले लीजिए। सिवा शाब्दिक सांत्वना देने के वे कोई भी कुछ नहीं कर सके । तब उसने अपने पूर्व वचनों का स्मरण कराते हुए उनसे कहा कि "...व्यथामियतीमपि । न मे ग्रहीतुमीशिध्वे तत्कथं नरकव्यथाम् ।। अर्थात् पाप जब इतनी सी मेरी व्यथा भी नहीं बंटा सकते हैं तो फिर नरक में मुझे मिलने वाला दुःख प्राप कैसे ले सकेंगे? इस प्रकार सुलस ने सब सम्बन्धियों को अपनी मान्यता की पोर झुका लिया और जैन श्रावक के बारहवत अंगीकार कर मृत्योपरान्त वह स्वर्ग में गया ।। इस कथा का सार एक दम स्पष्ट है । यह कर्म-सिद्धान्त जितनी ही अहिंसा-सिद्धांत के प्रति जैनों के प्रत्यताग्रह की घोषणा करता है। यज्ञ के लिए पशु-हिंसा की जा सकती है ऐसे मनु के वाक्य उद्धृत करते हुए 'योगशास्त्र' में कहा गया है कि 'नास्तिकों की अपेक्षा भी वे लोग अत्यन्त पापी हैं कि जो हिंसा की शिक्षा देनेवाले शास्त्र बनाते हैं।" 1. हेमचन्द्र, योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्तिसहित, अध्या. 2, श्लो. 30, पृ, 91-95 । बहुधा स्वर्ग को ही मोक्ष मान लिया जाता है परन्तु यह ठीक नहीं है। जैनों की दृष्टि से मोक्ष वह स्थिति है कि जहां से प्रात्मा कभी भी नहीं लोटती है। परन्तु स्वर्ग में जीव की प्रायु की सीमा है। परन्तु प्रात्मा जब मोक्ष पा लेती है तो सदा सर्वदा के लिए वह अनंतसुख की भोक्ता हो जाती है । कभी प्रायु समाप्त नहीं होती है । 2. हापकिंस, वही, पृ. 288 । ह स्थिति है कि जहां से प्रात्मा को मोक्ष मात Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ] व्यावहारिक जीवन में भी जैनों का जीवों के प्रवि, दयाभाव आश्चर्य जनक है जब .. सा. ५.० ५। संघर्ष दिनों दिन बढ़ रहा है। ग्राज के जैनों की वर्तगणी की..टीका करना किसी अपेक्षा से उचित भी हो फिर भी जैनों की अहिमा का महान प्रादर्श अर्थात् प्रागी मात्र पर प्रेम और उसके प्रति मित्रता अद्भुत है । इस समझने के लिए संक्षेप में कुछ कहना यहां उचित है। जैन माधु के लिए, किसी भी जाति की हिंसा उममे न हो, इसलिए, यह नियम है कि वह सदा तीन वस्तुएं अपने पास रखे ही एक पीने का पानी छानने के लिए बम्त. दूसरा रजोहरण और तीसरा सुक्ष्म जीवों की जाने-अनजाने हो जानेवाली हिंसा को बचाने के लिए महपनी। 'इस नियम के परिपालनार्थ ही केशों का लोच, पूर्ण काट कर होते हए भी, किया जाता है. कि जो दीक्षा लेने के समय ही, प्राचीन प्रथानुसार, उतारे जाते हैं। केशलौंच की यह प्रथा जैनों की विशिष्ट प्रथा है और भारत के अन्य किमी तपस्वी समाज में यह नहीं पाई जाती है ।'' इसी प्रकार हिमावत का भंग नहीं हो जाए इस दृष्टि मे. एक गृहस्थ जैनी भी दैनिक जीवन में बहुत मावधान रहता है। इसमें भी एक विशिष्टता है और वह यह कि वे रात में याने सूर्यास्त के पश्चात् इसलिए नहीं खाते और सम्भव होते पानी भी नहीं पीते हैं कि अनजान में भी कहीं जीव-जन्तु उनके खानेपीने में नहीं पा जाए। इसीलिए हेमचन्द्र कहते हैं कि 'जिस रात्रि के अन्धकार में मनुष्य भोजनादि में पड़नेवाले जीवजन्तु को देग्य नहीं सकता है, उस रात्रि में भोजन करना ही कोन चाहेगा ?'2.. इन सब प्रथानों का विचार करते हुए यही कहा जा सकता है कि किसी हिन्दुधर्म ने अहिमा याने जीव मात्र की रक्षा के लिए इतने मान और त्याग भाव को महत्त्व नहीं दिया है।' व्यावहारिक जीवन में नियमों की इन सब कठोरताओं से एक क्षण के लिए भी किसी को यह नहीं मान लेना चाहिए कि उपरोक्त नियमों के पालने से जैनधर्म जगत में खड़ा रही नहीं सकता है क्योंकि उससे राष्ट्र में गुलामी, अकर्मण्यता गौर दरिद्रता फैल जाएगी। 'जैनधर्म के विषय में ऐसी खोटी समझ का कारण है कि इसकी अपूर्ण जानकारी और पूर्वग्रह । अपना कर्तव्य करते रहो । जितनी भी सहृदयता से वह कर सको करने रहो। 'यही संक्षेप में जैनधर्म की प्रमुख प्रौर सर्वप्रथम शिक्षा है । अहिंसा किसी भी मनुष्य के कर्तव्य निर्वहन में बाधक नहीं है ।' जनों को अहिंसा दुर्बलों की अहिंसा तो है ही नहीं। वह तो एक वीर प्रात्मा का प्रात्मबल है कि जो जगत के सब अनिष्ट बलों से उच्च है अथवा उच्च होने की अभिलाषा रखता है। हेमचन्द्र ने इसे इस मूत्र पर अाधारित ठीक ही कहा है कि 'पात्मवत् सर्वभूतेषुः । गरीब से गरीब, नीच से नीच और मान भूले हुए के प्रति एक जैन का भाव कैसा होता है इसका उत्तराध्ययन सूत्र में एक बड़ा अच्छा दृष्टान्त दिया है जो इस प्रकार है: हरिकेश एक श्वपच याने चाण्डाल था। वह इन्द्रियों का दमन कर उच्चतम गुण प्राप्त एक महान् साधू हो गया था । एक समय गोचरी (मिक्षाचरी) के लिए भटकते हुए वह ब्राह्मणों के यज्ञ के एक बाड़े के पास प्रा पहुंचा। उसने वहां कहा : "हे.ब्राह्मणों ! आप किस लिए यह अग्नि जला, पानी.द्वारा बाह्य पवित्रता प्राप्त करने हो ? मुज पुरुषों का तो यह कथन है कि जो बाह्य पवित्रता तुम खोज रहे हो, वह यथार्थ वस्तु नहीं है.।" हलर, वही, पृ.15 1. 2... हेमचन्द्र, वही. हस्तूपोथी, प्रकाश 3, श्लो. 49, पृ. 8 3. बार्थ, वही, पृ. 145 1 4. जबी, वही, पृ. 72-1 5. प्रात्मवत् सर्वभूतेषु...हेमचन्द्र, वही, प्रकाश 2, श्लो. 20, पृ. 3 । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तुम कुशघास, यज्ञ-यूप, काष्ठ श्रौर तृरण को व्यवहार करते हो। प्रातः सायं पानी का श्राचमन करते हो और जीवित जन्तुनों का तुम नाश करते हो। इस प्रकार तुम अपने अज्ञान के कारण बारंबार पाप करते हो ।" धर्म ही मेरा सरोवर है, ब्रह्मचयं मेरा स्नानागार है जो मलिन नहीं है. परन्तु प्रात्मायें प्रति विशुद्ध है। तप ज्योति है, धर्म व्यापार मेरे यज्ञ का चाटू है, शरीर मुदा है. कम मेरी समिधा लकड़ियां है, संयम मेरा यथार्थ पुरुषार्थ है और शांति बलिदान है। इनकी साधुपुरुषों ने प्रशंसा की है और वहीं मैं बलि देता हूं।" यह तनिक भी धाश्चर्य की बात नहीं है कि उत्तराध्ययन] पुकार-पुकार कर कहता है कि "तपश्चर्या का फल दीख पड़ रहा है। जन्म का कोई महत्व नहीं है। श्वपच के पुत्र हरिकेश पवित्रात्मा को देखो उसकी शक्ति अनन्त है ।"1 उपरोक्त दृष्टान्त जैनों के ग्राह्य उन नैतिक गुणों का स्पष्ट दिग्दर्शन करता है कि जिन्हें की प्राचीन काल के जैन पुनः पुनः उपदेश द्वारा शिक्षा दिया करते थे वस्तुता यह है कि इस धर्म का विशिष्ठ लक्षण इसकी सर्वव्यापकता ही है । और उसकी पृष्ठ भूमि में उसकी महान आदर्श अहिंसा है जो केवल मोक्षार्थी जैन साधू का ही प्रादर्श नहीं अपितु उन सभी संघ के सदस्य साधुओं का प्रादर्श है जो दूसरों को भी पार लगाना चाहते हैं । "यह... मात्र कुलीनों पार्यों को ही नहीं, अपितु नीचकुल शूद्रों और भारत में प्रत्यन्त निरस्कृत माने जाते परदेशियों और म्लेच्छों तक को पाने मनुष्य मात्र को मुक्ति की चोर का उनके लिए अपना द्वार मुक्त करने का महान् उद्देश घोषित करता है ।" " 49 किसी भी वर्ग के व्यक्ति को अपने धर्म में स्वीकार करने की स्वतन्त्रता जंयी सार्वभौमिक भावना और इस प्रकार सहयोगिता के सिवा भी दूसरे धर्मों के दिनों की रखी गई उदार भावना भी कम प्रशंसनीय नहीं है । वह बताता है कि दूसरे के मात्रों को ऐस नहीं पहुंचे इस विषय में जैनधर्म किस सीमा तक सतर्क था । श्रीमती स्टीवन्सन को भी यह स्वीकार करना पड़ा है कि जैनधर्म की पद्वितीय प्रतिष्ठा यह है कि वह अपना ध्येय सिद्ध करने के लिए परयमियों की योग्यता को भी स्वीकार करता है जबकि भारत के अनेक धर्म यह बात लिए बहुमान रखने की यह प्रशस्त भावना जैनधर्म की सर्वोत्तम दर्शनसमुच्चय के जैनधर्म विभाग के प्रारम्भ में ही प्राचार्य स्वीकार नहीं करते हैं ।" " दूसरे धर्मो के प्रभावशाली अनेक विभूतियों का प्रमुख लक्षण है हरिभद्रसूरी कहते हैं कि पक्षपातो न में वीरान द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। 1. याकोबी, सेबुई, पुस्त. 45, पृ. 50-561 | 2. ब्लर, वही, पृ. 3 "जैनसंघ पति और श्रावक ऐसे दो विभागों में विभक्त है। यदि भारत के किसी भी.... भाग में, जैन जातिभेद को व्यावहारिक रूप में मानते हैं तो वह ठीक वैसा ही है कि जैसे कि दक्षिण भारत के ईसाईयों और मुसलमानों मानते हैं । यही क्यों सिंहलद्वीप के बौद्ध मानते हैं । इसका धर्म से जरा भी सम्बन्ध नहीं है। यह तो सामाजिक उच्चता की मान्यता ही कारण है कि जो भारतियों के मस्तिष्क में खूब गहरी ठसी हुई और जिसे धर्मसुधारकों के वचन ही मिटा सकते हैं ।" - याकोबी, कल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 4 । 3. "कैपिशी में निर्ग्रन्थों याने दिगम्बरों के देखे जाने पर ह्य् एनत्सांग ( बील की सी-य-की, भा. 1, पृ. 55 ) का टिप्पण प्रत्यक्ष रूप से यह तथ्य बताता है कि उनसे कम से कम उत्तरे- पश्चिम में तो भारत की परिसीमाम्रों से परे अपना धर्म का प्रचार किया था। "स्लर, यही पू. 4 4. स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 243 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 अर्थात् 'मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि के प्रति ही कोई द्रुप है । जिसका कथन युक्तियुक्त हो उसको स्वीकार करने में मेरा कोई भी पूर्वग्रह नहीं है।" सामायिक और प्रतिक्रमण की दो अावश्यक क्रियाए: जैनों की जहां एक ओर ऐसी उदार भावना है वहीं दूसरी ओर उनके अहिंसा के अादर्श ने उन्हें अपने दोष या पाप-स्वीकरण को भी जनसघ में पोषण और पर्याप्त प्रमुखता देने को बाध्य किया है। मनुष्य जीवन में हिंसा कुछ अंशों में अनिवार्य सी ही है और इसलिए सारे दिन होने वाले पापों और स्खलनामों का दिन प्रति दिन ध्यान रहना और उनका दैनिक स्वीकरण अन्तिम ध्येय सिद्ध करने के लिए आवश्यक है। इसे जैनधर्म का अद्वितीय लक्षण नहीं माना जा सके तो भी जैनधर्म में दोष-स्वीकरण को जो महत्व दिया गया है वह अवश्य ही अद्वितीय है। इस दोष-स्वीकरण के तत्व में से ही फलित होने वाले दो विधान याने सामयिक और प्रतिक्रमण साधू और श्रावक दोनों के ही जीवन में महत्व के हैं। सुधर्मास्वामी का प्रावश्यक सूत्र तो यहां तक कहता है कि 'मामायिक से प्रारम्भ और विदुसार नामक चौदहवें पूर्व में समाप्त होने वाला ज्ञान ही सत्य याने सम्यग्ज्ञान है । उसका पतिणाम सत् या सम्यकचारित्र है और ऐसे चारित्र से निर्वाण प्राप्त होता है।" सामायिक व्रत जिससे कि प्रात्मा स्वभाव की शिक्षा प्राप्त करता है, का विधान है कि दिन में कम से कम 48 मिनट. अर्थात दो घड़ी तो ध्यान में बिताए ही जाएं। इस व्रत का अनिवार्यतम अश 'करेमियते' का पाठ है जिसका अर्थ इस प्रकार है: हे भगवत ! मैं मामायिक करता हूं । मैं सब प्रकार पापमय व्यापारों से निवृत्त होता हूं । जब तक मैं जीवित रहं, मन-वचन और काया से न तो मैं ही पाप करूगा, और न किसी दूसरे से ही पाप कराऊंगा । हे भगवंत ! मैं किए पापों को भी वोसिराता याने छोड़ता हूं। गुरू और प्रात्मा की साक्षी से मैं पाप का मिच्छामि दुक्कड़ देता हूं। और पापमय कार्यों से मेरी आत्मा को मुक्त रखने के लिए मैं यह सामायिक व्रत स्वीकार करता हूं। महावीर ने संसार का त्याग कर साधू की दीक्षा ली उस समय उनने उपरोक्त शब्द प्रतिज्ञा रूप से उच्चारण किए थे। हरिभद्रसूरि ने ग्रावश्यकसूत्र की टीका में इस सामायिक की नीचे लिखी व्याख्या की है: जिसने सवभाव प्राप्त कर लिया है और जो सब प्राणियों में अपनी ही प्रात्मा को देखता है उसीने यथार्थत: सामायिकव्रत पालन किया है। जहां तक आत्मा राग-द्वेष का त्याग नहीं करती है वहां तक किसी भी प्रकार का तप लाभकारक नहीं है जब जीव प्राणी मात्र के प्रति समभाव से देख सकता है तमी राग और द्वेष पर विजय प्राप्त उसने कर ली ऐसा कहा जाता है।' 1. हरिभद्र, वही, पृ. 39; देखो यह भी भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णूर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मे ।। हेमचन्द्र, महावीरस्तोत्र श्लो. 44 । 2. सामाइयमाईयं...। ...निवारणं ।। प्रावश्यकसूत्र, गाथा 93, पृ. 69। 3. देखो स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 21514. करोमिमंते...वोसिरामि । आवश्यकसूत्र 4541. चो भगवान्...करेमिसामाइमं...उच्चरति । कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका पृ. 96 1 देखो पावश्यकसूत्र, पृ. 2815 6. यः समः' मध्यस्थः, मात्मानभिव परं..., 'सर्वभूतेषु'..., तस्य सामायिक भवति । प्रावश्यकसूत्र, पृ. 329 1 7. देखो दासगुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 2011 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 51 अब पडिक्रमणम् अर्थात् प्रतिक्रमण का विचार करें। इसमें पापों का मुक्त स्वीकरण और उनके लिए सच्चाई से क्षमा मांगी जाती है। संक्षेप में कहें तो प्रात्मा को लगे हुए दोषों या पापों का यह प्रायश्चित्त है। "प्रतिक्रमगा में किसी भी इन्द्रिय वाले जीव के प्रति किए हुए अपराव का स्मरण कर जैनी क्षमा मांगते हैं । इसके सिवा ग्रारोग्य के नियमों के विरूद्ध किसी भी जीव-जन्तु की उत्पत्ति उनके द्वारा हो गई हो तो उसका भी इस समय विचार और प्रायश्चित किया जाता है।"। अहिंसा के सिद्धान्त में से उत्पन्न विश्व-बन्धुत्व के गुणों का विकास ही इस शिक्षा का स्वाभाविक परिणाम है और व्यावहारिक दृष्टि से मुक्ति के लिए हा-हा करती हुई मनुष्य जाति की सहायता करने का अर्थ इसमें से उद्भूत होता है। फिर जैनों का सामाजिक संगठन इस प्रकार का है कि उसमें उपरोक्त प्रादर्श व्यवहार में लाए जा सकते हैं। स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का सिद्धान्त :--- अब हम जैन तत्वज्ञान के एक विशिष्ट लक्षण का विचार करें कि जो भारतीय न्यायशास्त्र को जैन दर्शन का विशिष्ट योगदान माना जाता है । कम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाश और प्रचार ही सब धो का हेतु होता है । प्रत्येक धर्म मनुष्य को जगत-प्रपंचों से परे जाने या देखने की शिक्षा देने का प्रयास करता है। जैनधर्म का भी यही प्रयत्न है परन्तु इसके कथन में उनसे इतना ही भेद है कि वह किसी भी वस्तु को एकान्त स्वरूप याने मर्यादित बिन्दु से नहीं देखता है। सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैनधर्म के पास अपना ही तत्वज्ञान है जिसे स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का सिद्धान्त कहा जाता है । "नय का (दष्टि बिन्दु का) सिद्धान्त जैन न्याय का विशिष्ट लक्षण है ।" हम ने देख ही लिया है कि जैन अध्यात्मशास्त्र जगत को दो पकार याने जीव ओर अजीव में विभक्त मानता है और प्रत्येक में उत्पत्ति-उत्पाद, व्यय-नाश और धुवत्व-नित्यत्व के गुण स्वीकार करता है। यहां उत्पत्ति या उत्पाद का अर्थ नया सर्जन नहीं है क्योंकि जैन दृष्टि से सारा विश्व शाश्वत याने नित्य अनादि ही है। यहां इसका प्रयोग इस अर्थ में हना है कि इस शाश्वत जगत में पदार्थों का निरन्तर रूपान्तर होता ही रहता है। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ सहज-स्वाभाविक गुणों की अपेक्षा से सत्-धुव-नित्य है। परन्तु दूसरे पदार्थ के गुणधर्म की अपेक्षा से वह सत् नहीं होने से, असत् है यह स्वतः सिद्ध हो जाता है । "अनुभव से ऐसा भी मालूम होता है कि शाश्वत तत्व प्रत्येक क्षण कितने ही गुणों को त्याग नए गुण ग्रहण करता जाता है। इसी को संक्षेप में अनेकान्तवाद कहा जाता है। "बौद्धों के नानात्ववाद और उपनिषदों के ब्रह्मवाद के स्थान में ही जनों का यह अनेकान्तवाद है ।" इसी पर जैनों के स्याद्वादसिद्धान्त की रचना हुई है। इन परिस्थितियों में यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत पदार्थ को पृथक-पृथक दृष्टि बिन्दु से देखने पर नाना प्रकार के विरूद्ध दिखने वाले धर्म भी उसमें देखे जा सकते हैं।" प्रत्येक पदार्थ अनंतधर्म गुण रहे हुए हैं जो सब एक ही समय में व्यक्त नहीं हो सकते हैं । फिर भी पधकःपथक अपेक्षा से ये सब धर्म उसमें सिद्ध किए जा सकते हैं। प्रत्येक पदार्थ का भिन्न-भिन्न चार दृष्टियों से विचार 1. स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 10।। 2. राधाकृष्णन, वही, भाग 1, पृ. 298 । 3. वस्तुत्त्वं चोत्पाद्रव्ययधोव्यात्मकम् ... -हेमचन्द्र स्याद्वादमंजरी, पृ. 168 । देखो वही, श्लो. 21-22 । येनोत्पादव्ययधाव्ययुक्त यत्सत्तदिव्यते । अनन्तधर्मकं वस्तु तनोक्त मानगोवरः ।। -हरिभद्र, वही, श्लोक 57 । 4. देखो वारेन, वही, पृ. 22-23 1 5. दासगुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 175 1 . 6. तत्वं...जीवाजीवलक्षणम्, अनन्तधर्मात्मकमेव... -हेमचन्द्र, वही, पृ. 170 । 7. दासगुप्ता, वही, भाग,1,.. 174%; नंकानि मानानि...अनेकामान इति । -विशेषावश्यकमाष्यम्, माया 2186, पृ. 8951 8. वेत्वनकर, वही, पृ. 112 । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] किया जा सकता है यान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से । इस प्रकार 'स्याद्वाद का सिद्धांत यह प्रतिपादन करता है कि प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मी होने के कारण चाहे जिस एक दृष्टि बिन्दु से निश्चित किया उसका विधान एकदम सत्य नहीं माना जो सकता है। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में भिन्न भिन्न अपेक्षा से नाना प्रकार के विरूद्ध धर्मों का स्वीकार करना ही स्याद्वाद है।' पदार्थ को संयोगात्मक रीति से समझने की ही यह पद्धति है।' __ इस स्याद्वाद के सिद्धांत को बहधा संशयवाद कह दिया जाता है। परन्तु अधिक सत्य तो यह है कि उसको वैकल्पिक शक्यता का सिद्धांत मानना ही उचित है। सुप्रसिद्ध विद्वान प्रानन्द शंकर ध्रव कहते हैं कि 'स्याद्वाद का सिद्धांत संशयवाद तो नहीं ही है । वह मनुष्य को विशाल और उदार दृष्टि से पदार्थ को देखने को प्रेरित करता है और विश्व के पदार्थ किस प्रकार देखे जाए यह सिखाता है। यह वस्तु का एकान्त अस्तित्व नहीं स्वीकार करता है और न वह उस प्रकार के स्वीकरण को एकदम अस्वीकार ही करता है। परन्तु वह कहता है कि वस्तु है, अथवा नहीं है अर्थात् अनेक दृष्टि बिन्दु में की एक दृष्टि से उसका विधान हुआ है यह वह म्पष्ट स्वीकार करता है । वास्तविकता का सच्चा और सचोट प्रतिपादन तो मात्र प्रापेक्षिक और तुलनात्मक ही हो सकता है और उस प्रतिपादन की शक्यता वह स्वीकार करता है। प्रत्येक सिद्धांत सत्य होता है परन्तु कुछ निश्चित संयोगों में ही याने परिकल्पना में ही । अनेकधर्मी होने के कारण कोई भी बात निश्चय रूप में नहीं कही जा सकती है। वस्तु के विविध धर्मों को बताने के लिए विधि-निषेध सम्बन्धी शब्द प्रयोग सात प्रकार के होते हैं, यही इस सिद्धांत का वक्तव्य है। इन सात प्रश्नों उत्तर देने की पद्धति को ही सप्तभंगी नय अथवा सात-वचनप्रयोग भी कहते हैं । यह तात्विक सिद्धांत अत्यन्त गहन और रहस्यपूर्ण है, इतना ही नहीं अपितु वह विशिष्ट परिभाषिक भी है। यह स्पष्ट करने के लिए नीचे के वह सरल और सुन्दर विवरण से अधिक स्पष्ट कुछ नहीं हो सकता है । 'अद्वेत वादियों का कहना है कि यथार्थ अस्तित्व तत्व एक ही है याने प्रात्मा । अन्य कुछ भी नहीं है। एकमेवाद्वितीयम् और वह नित्य है । इसके अतिरिक्त सब असत् होने सोयिक है। इस प्रकार प्रात्मवाद, एकवाद या नित्यवाद इसको कहा जाता है। इन अद्वतावादियों का मात्र यही तर्क था कि जैसे प्याला. तश्तरी जैसी कोई वस्तु ही नहीं है, वह तो पृथक पृथक नामों से कही जाती मिट्टी मात्र ही है वैसे ही भिन्न भिन्न नामों से पहचाने जाते विश्व के पदार्थ एक प्रात्म-तत्व के ही पक्षक भेद मात्र हैं। दूसरी पोर बौद्ध कहते हैं कि मनुष्य को नित्य ग्रात्मा जैसे किसी तत्व का सच्चा ज्ञान ही नहीं है । वह तो मात्र अटकल है क्योंकि मनुष्य का ज्ञान उत्पत्ति, 1. दासगुप्ता. वहीं, भाग I, पृ. 109। 2. वारेन, वही, पृ. 20 । 3. देखो हुन्टज, एपी. इण्डि., पुस्त. 7, पृ. ।। 3 । 'शून्यवादी बौद्ध मान्यता के स्थान में जनों ने संशयवादी पक्ष स्वीकार किया है और इसलिए उन्हें कथंचित् दार्शनिक' याने स्याद्वादिन कहा जाता है हापकिंस, वही, प. 29।। 4. देखो फलीट. इण्डि. एण्टी., पुस्त. 7, प. 107 | "इस दृष्टि को स्याद्वाद दृष्टि कहा जाता है क्योंकि इसमें ज्ञान संभावित ही माना जाता है। प्रत्यक स्थिति हमें केवल कदाचित्, स्यात् हो ऐसा ही कहती है। हम न तो किसी पदार्थ का पूर्णतया समर्थन हो कर सकते हैं और न इन्कार ही। कुछ भी निश्चित नहीं है क्योंकि वस्तुएं अनन्त भदात्मक हैं।' राधाकृष्णन, वही. भाग |, प. 302 ) 5. कन्नोमल, सप्तभंगी न्याय, प्रस्तावना प. 8। । 6. उपाधिभेदोपहित विरुद्ध नाथेष्वसत्वं सदावाच्यते । च हेमचन्द्र, वही, श्लो. 24, पृ. 194 । 7. राधाकृष्णन्, वही. भाग I. 4. 302; स्याद्वादो हि सापेक्षस्तथैकस्मिन् ...सदसत्वनित्यानित्यत्वाद्यनेकधर्मान्युपगमः । विजयधर्मसूरि, वही, पृ. 151 । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [53 विनाश और लय पा कर बदलते हुए पदार्थों में परिमित हो जाता है। उनका यह सिद्धान्त इसीलिए अनित्यवाद कहा जाता है। मृत्तिका पदार्थ रूप से नित्य हो, परन्तु घटरूप में वह अनित्य है यान अस्तित्व में पा कर वह नाश प्राप्त हो जाती है। प्रस्तित्व, जैसा कि अद्वैतवादी कहते है, उतना सरल नहीं है परन्तु जटिल है और इसके लिए उसके विषय का हर विधान सत्य का अंश मात्र है। वस्तु के प्रत्येक धर्म का विधान तथा निषेध सम्बन्ध शब्द प्रयोग से सात प्रकार के हो सकते हैं जिसको जैन सप्तमंगी कहते हैं। यह विधान स्यात्' शब्द के उपयोग महिन 'अस्ति'. 'नास्ति' और 'प्रवक्तव्य' शब्दों के उल्लेख से व्यक्त किया जाता है । वस्तु के स्वपर्याय पर मार दिया जाए तो 'स्यादस्ति', परपर्याय सम्बन्धी उसके भेद पर मार दें तो 'स्यानास्ति', और जब उसके 'सत्' एवम् 'असत्' दोनों ही पर्यायों पर समान भार दिया जाए तो 'म्यादस्तिनास्ति' ही कहा जा सकता है। परन्तु किसी एक पर भी भार दिए बिना वह पदार्थ वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है यह बताने के लिए 'स्यादवक्तव्य' का व्यवहार किया जाता है । इसी प्रकार अमुक अपेक्षा से वह नित्य होते हए भी प्रवक्तव्य है यह बनाने के लिए 'स्यानास्तिग्रवक्तव्य' का व्यवहार होता है। इसके सिवा अमुक अपेक्षा से वस्तु नित्य और अनित्य होने के साथ ही अवक्तव्य है यह बताने के लिए 'स्यादस्तिनास्ति प्रवक्तव्य' ऐसा कहा जाता है। इन मात प्रकारों से समझने का इतना ही है कि सब समय सब प्रकार से और सब रूप में वस्तु अस्तित्व में है ऐसा विचारा ही नहीं जा सकता है । परन्तु वह एक ही स्थान में अस्तित्व रख सकती है और दूसरे स्थान में नहीं, एक ही समय में अस्तित्व रख सकती है और दूसरे समय में नहीं।" "जैनधर्म का यह स्पष्टीकरण वेदान्ती और बौद्धों के दो प्रतिकेक का समन्वय है और वह बुद्धिग्राह्य अनुभव पर रचा हुअा है।" याकोबी और बेल्वलकर संजयवेलाठिपुत्र के अजेयवाद के विरोधात्मक द्धिान्त रूप इसको मानते हैं । "जब संजय कहता है कि" वह है यह में नहीं कह सकता हूं और वह नहीं है यह भी मैं नहीं कह सकता हूं। "तब महावीर कहते है कि" मैं कहता हूं कि एक दृष्टि से वस्तु है और विशेष में मैं यह भी कह सकता हूं कि अमुक दूसरी दृष्टि से वह वस्तु नहीं है।'' संक्षेप में स्याद्वाद जैन तत्वज्ञान का अद्वितीय लक्षण है। जैन बुद्धिमत्ता का इससे अधिक सुन्दर, शुद्ध और विस्तीर्ण दृष्टान्त दिया ही नहीं जा सकता है। जैन सिद्धान्त की इस खोज का श्रेय महावीर को ही है ।' दासगुप्ता के अभिप्रायानुसार इस विषय का जैन शास्त्रों में सब से प्रथम उल्लेख भद्रबाह की सूत्र कृतांग नियुक्ति (ई. पूर्व 433-350) की टीका में है। यह उस विद्वान ने स्व. डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण के आधार से लिखा है। और उनने प्रमाण में नियुक्ति से नीचे लिखी गाथा उद्धृत को है : असियमयं किरियाणं अक्किरियाणं च होई चुलसीती। अन्नारिणय सत्तट्टी वेरण इयारणं च बत्तीसा ।। अर्थात् 'क्रियावाद के 180, प्रक्रियावाद के 84, अज्ञानवाद के 60 और वैनेयिकवाद के 32 भेद । इमसे 1. देखो भण्डारकर, रिपोर्ट प्रान संस्कृत मैन्यूस्क्रिप्ट्स, 1883-1884, पृ. 95-96; राइस (ई.पी.) कैनेरीज लिटरेचर, पृ. 23-24 1 2. दासगुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 1751 . 3. बेल्वलकर, वही, पृ. 114 । देखो सेबुई, भाग 45, प्रस्तावना पृ. 27; बेल्वलकर और रानाडे, वहीं, पृ. 433 टिप्पण, 454 प्रादि। 4. बेल्वलकर, वही, पृ. 114।। 5. दासगुप्ता, वही, माग 1, . 181 टिप्पण ।। 6. विद्याभूषण, हिस्ट्री ऑफ दी मैडीवल स्कूल प्रॉफ इण्डियन लोजिक, पृ. 8; हिस्ट्री प्रॉफ इण्डियन लोजिक पृ. 167 । 7. सूत्रकृतांग, प्रागमोदय समिति, गाथा 119, पृ. 209 । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] स्पष्ट है कि स्व. डा. ऐसे खोटे खयाल में थे कि नियुक्ति की उपरोक्त गाथा में सप्तभंगी नय का उल्लेख है । जना को मान्य चार नास्तिक मतों के 363 भेद ही यहां तो प्राप्त होते हैं। निश्चय ही हमारा अभिप्राय यह है कि जैनों का स्याद्वाद सिद्धांत और सात नयों का उल्लेख स्थानांग, भगवती और अन्य जनशास्त्रों में प्राप्तव्य है। अन्त में लाला कन्नोमल के शब्दों में कहें तो 'इस ज्ञान के तत्वैज्ञा ने सत्य स्वरूप और उसकी खूबियों को समझाने के लिए अनेक महान् ग्रन्थ रचे हैं जो भारत में प्रचलित परस्पर विरोधी दीखती धार्मिक प्रवृत्तियों को जो कि बहुधा विचारभेद बढ़ा देती हैं, समझने के लिए इस विचार पद्धति का उपयोग किया जाए तो समाधान की पोर प्रत्यक्ष झुकाव होना सम्भव है।' इस प्रकार यदि अहिंसा को जैनधर्म का मुख्य नैतिकगुण-विशेष माना जाए तो स्याद्वाद जैन प्राध्यात्मवाद का मुख्य और अद्वितीय लक्षण माना जाना चाहिए, और शाश्वत जगतकर्ता सम्पूर्ण ईश्वर का स्पष्ट निषेध करनेवाले जैनधर्म का यह सन्देश है कि 'हे मनुष्य ! तू ही अपना मित्र है उसके विधिविधानों का केन्द्रबिन्दु कहा जाना चाहिए । अहिंसा के प्रादर्श के साथ उपरोक्त सब बातें हमें सिखाती हैं कि He prayeth well who loveth well Both man and bird and best, He prayeth best who loveth least all things both great and small; -कोलोरिज (Coleridge) अर्थात् जो मनुष्य अथवा पशु-पक्षी को प्रेम से चाहता है, वही ठीक प्रार्थना भी कर सकता है जो छोटे बड़े सब पदार्थों को उच्च भाव से चाहता है वही उत्तम प्रकार की प्रार्थना करता है । वही कारण है कि जैन सदा ही कहते हैं कि खामेमि सव्वजीवे, सब्वे जीवा खमंतु में। मेत्ती में सब्वभूएसु, वेरं मझ न केराई ।। अर्थात् मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं। सब जीव मुझे क्षमा करें। सब जीवों के साथ मेरी मैत्री है । मेरा क्रिमी के साथ वैर नहीं है। इन सिद्धान्तों के एक भी लक्षण के विषय में गलतफहमी खड़ी करना अथवा विपरीत रीती से उन्हें समझना जैनधर्म के सत्य स्वरूप के प्रति ही अन्याय करना है। हमें खुले मन से स्वीकार करना चाहिए कि महावीर के उद्देश उच्च और पवित्र थे और मनुष्य जाति एवम् सर्व जीवात्मा की समानता का उनका सन्देश भारत के यज्ञयागादि से त्रासित और जाति भेद से क्षुभित लोगों के लिए उदार और महान् पाशीर्वाद रूप थे । 1. देखो याकोबी, वही, प्रस्तावना पृ. 26; वही, पृ. 315 प्रादि । 2. स्थानांग (नागमोदय समिति), पृ. 390, सूत्र 552; भगवती (ग्रागमोदय समिति) सूत्र 469, पृ. 592 । अन्य सन्दर्भो के लिए देखो सुख लाल और वे चरदास. सिद्धसेन का सम्मतितर्क, भाग 3, पृ. 441 टिप्पण 10। 3. कन्नोमल, वही, प्रस्तावना पृ. 7 । 4. दासगुप्ता, वहीं, पृ. 200 । 5. आवश्यक सूत्र पृ. 763 । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [55 जैनधर्म में पड़े हुए मुख्य भेद___महावीर द्वारा संस्कारित जैनधर्म विषयक विचार करने के पश्चात् रब हमें उसमें हए प्रमुख मतभेदों का भी संक्षेप में विचार कर लेना चाहिए। महावीर के संघ में हए इन मतभेदों को जैन समाज कसे पचा सका उसका भी साथ साथ थोड़ा विचार हमें करना होगा। सभी पैगम्बरों और धर्मसूधारकों के सम्बन्ध वैसा हना करता है ऐसा ही महावीर को दुर्भाग्य से अपने जीवित काल में और उनके धर्म को पीछे भी पाखण्डी धर्मगुरुयों का सामना करना पड़ा था। ऐसे पाखण्डियों में ही जैनों में सुप्रसिद्ध सात निण्हवों (निन्हवों)।। अर्थात् जिन प्ररूपित धर्म के विरूद्ध मत प्रचारकों का भी समावेश हो जाता है।' जमाली, तीसगुत्त, आषाद, अश्वमित्र, गंग, छलुए और गोष्ठा माहिल' ये सात निन्हव हैं । परन्तु विरोधियों में सबसे विख्यात और महावीर का प्रचण्ड प्रतिद्ववन्द्ववी गोशाल मंखलिपुत्त था जो कि पाली सूत्रों में उल्लिखित बुद्ध के छह पाखण्डी प्रतिस्पधियों में के एक मंसलि गोशाल के साथ बराबर ठीक उतरता है । उसका और उसके आजीवक संघ का हमें नगण्य परिचय ही मिलता हैं। अभी तक अस्तित्व में रहने वाले जैन और बौद्ध दोनों ही महान संघों की एक समय संख्या और महत्व में प्रतिद्ववन्द्ववता करने वाले इस सम्प्रदाय के सिद्धांत और क्रियाकाण्ड के सम्बन्ध में हम वास्तविकतया अन्धकार में ही हैं।'' गोशाल के बाद हम महावीर के जामाता जामाली, जैन संघ के एक पवित्र साधू तीसगुत्त आदि अन्य मतभेदकारकों का नाम ले सकते हैं। मंखलीपुत्र गोशाल: गोशाल पहले पहल महावीर को राजगृह में मिला था और वहां वह उनका तुरन्त ही शिष्य हो गया। वह गोशाला में जन्मा था इसलिए गोशाल कहलाता था। उसका पिता एक भिक्षुक था । ये सब संयोग प्राजीवक कहे जाने वाले भिक्षुओं की धर्म-सम्प्रदाय के संस्थापक की हीनता उत्पत्ति बनाने के लिए पर्याप्त हैं।'' सातवें अंगशास्त्र ने सद्दालपुत्र में गोशाल का प्राजीवक सम्प्रदाय स्वीकार किया था ऐसा कहा गया है। फिर पांचवें 1. बहुरय...। सत्तेएगिण्हगा...वद्धमारणस्स । आवश्यकसूत्र, गाथा 778, पृ. 31। 1; प्रथ सप्त निन्हवस्वरूपं ...लिख्यते । मेरुतुग, विचारश्रेणी, जैसासं भा. 2, सं. 3-4, परिशिष्टि, 4 11-12 । 2. भगवतीसूत्र, प्रागमोदय समिति, भाग 2, 4410-430 । 3. याकोबी, कल्पसूत्र, प्रस्तावना पृ. 1। 4. हरनोली उवासगदशाओं, भाग 2, प्रस्तावना पृ. 12 । देखो व्हलर, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 20, पृ. 362 । 5 महावीर के केवलज्ञानी तीर्थ कर होने के पश्चात् चौदहवें वर्ष में उनके भानजे और जवाई जामाली ने उनके विरोध का नेतृत्व किया और इसी प्रकार इसके दो वर्ष पश्चात् ही संघ में से एक साधू तीसगुप्त ने उनका विरोध किया था। ये दोनों ही विरोध नगण्य बात के सम्बन्ध में थे...जमाली अपन विरोध में अपने जीवन पर्यत दृढ़ रहा था।' शाटियर, केहि, भाग 1, पृ. 163 1 6. कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पृ. 102 । 'गोशाला, भिक्षुजीवि मंखली और उसकी भार्या भद्रा का पुत्र था। उसने मावत्थी के धनिक ब्राह्मण गोबहुल की गोशाला में सर्व प्रथम दिन का प्रकाश देखा था याने वह जन्मा था । शास्त्री (बेन रजी), बिउप्रा पत्रिका, सं. 12, पृ. 55 । 7. 'पाजीवक' नाम ऐसा लगता है कि मूल में गोशालक और उसके सम्प्रदाय को व्यवसायी भिक्षु कह कर निन्दा करने का ही सूचक था, हालांकि बाद में जब यह साधुनों की एक सम्प्रदाय विशेष का नाम ही हो गया तो इसका फिर वह निंदापरक अर्थ नहीं रहा। हरनेली, एंरिए, भाग 1, प्र.259 । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ] अंगशास्त्र भगवतीसूत्र में उस सम्प्रदाय के मुखी गोशाल का हमें पूरा वृत्तांत मिलता है । बुद्ध के उपालम्भ के चुने हए छह भिक्षुसंघों के नेताओं में का एक नेता रूप में गोशाल मंखलिपुत्र का उल्लेख बौद्ध धर्मग्रन्थों में अनेक गार मिलता है। फिर भी स्पष्ट रीति से उनमें कहीं भी उसका आजीवक सम्प्रदाय के साथ सम्बन्धित होने के रूप में उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु जैन और बौद्ध दोनों ही स्वतन्त्र इच्छाशक्ति और नैतिक उत्तरदायिता के निषेध के तात्विक सिद्धांत याने नियतिवाद के प्रचारक के रूप में उसे स्वीकार करते हैं। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्परा की इस विषय के समान मान्यता स्पष्टतः है ।। जिस समय का यहां विचार किया जा रहा है वह प्राचीन भारत के धार्मिक-जीवन का संक्राति-काल अर्थात् देश के इतिहास में बुद्धिवाद का युग था । वह एक उत्थान का युग था जब कि गोशाला मंखलित्त, संजय वेल द्विपत्त और अन्य तत्ववेत्ता उत्पन्न हुए थे । सच तो यह है कि भारतवर्ष तब ऐसी धार्मिक जागृति में से गुजर रहा था कि...हमें यह जोरों के साथ कहना चाहिए कि उस समय में तत्वज्ञान का जीवन और व्यवहार को तलाक देकर मात्र विद्वत्ता या क्रियाकाण्ड के लिए शोभारूप माना जाना बंद हो गया था ।...इसने दृढ़ और ससारत्यागी व्यक्तियों को विकसित कर दिया था और अनेक प्रकार के अद्भुत तप और आचरण का प्रवेश भी जीवन में पा गए थे ।...इन अवैदिक स्वतन्त्र विचारकों को ही इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उनने तत्वज्ञान की विवेचना का द्वार मुक्त कर दिया और उसे जन साधारण के दैनिक जीवन और व्यवहार की समस्यामों का समन्वय करने को बाध्य कर दिया था। इसी लिए मंखलि गोशाल के आजीवक सम्प्रदाय के विषय में हम यह पढ़ते हैं कि सब "ये प्रकार के वस्त्रों का तिरस्कार करते हैं, सभी शिष्टाचारी स्वभाव का उनने त्याग कर दिया है, अपने हथेलियों में लेकर ही ये भोजन चाट जाते हैं ।...वे मछली और मांस नहीं खाते हैं, मदिरा अथवा मादक पदार्थ का सेवन नहीं करते हैं। कितने ही एक घर से और एक ही ग्रास भिक्षा लाते हैं, अन्य दो अथवा सात घरों में भिक्षा की याचना करते हैं। कितने ही एक बार ही भोजन करते हैं, कितने दो दिन में एक वार, सात दिन में मथवा एक पखवाड़े में एक दिन ही भोजन करते हैं ।" और यह कोई अपवाद रूप ही नहीं था। ऐसा लगता है कि मानो विचार मौलिकता और सुप्रकटता एवम् व्यवहार स्वातंत्र्य और उत्केन्द्रता का तब बहुमूल्य हो मया था। यह तो स्पष्ट ही है कि गोशाल महावीर के संघ को पुष्ट करने के स्थान में प्रारम्भ से ही उनके संस्कारित जैनधर्म की प्रगति में बाधारूप हो गया था । उसने बौद्धों की सत्ता सुदृढ़ होने देने और महावीर की बढ़ती प्रतिष्ठा को भारी चोट पहुंचाने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया था। इस दृष्टि से निरीक्षण करते हुए महावीर और गोशाल के प्राथमिक संयोग के परिणाम गुरु और शिष्य दोनों के लिए निश्चय ही भयावह थे। “चारित्र और स्वभाव से दोनों ही इतने अधिक भिन्न थे कि छह वर्ष के सहवास बाद गोशाल की धूर्तता और अविश्वास से दोनों का सम्बन्ध ट ही गया और वे अलग-अलग हो ही गए।"4 1. वही। 2. वेल्वलकर और रानाडे, हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलोसोफी, भाग 2, पृ. 460-461 ।। 3. विवाद का मुख्य विषय पुनर्जीवन का सिद्धान्त था जिसको गोशाल ने वनस्पतिक-जीवों के मौसमी पूनर्जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर किया था और इसको उसने यहाँ तक साधरणीकरण कर दिया था कि वह यह सिद्धान्त प्रत्येक प्रकार के जीवों पर ही लागू करता था।" -बरुग्रा, जेडी एल, सं. 2, पृ. 8 । देखो शास्त्री (बेनरजी), वही, पृ. 56 भी। 4. हरनोली, वही, पृ. 259। "तेजोलेश्या अर्थात् दाहक शक्ति प्रक्षेप की विद्या कैसे प्राप्त की जाती है यह महावीर से जानकर, और पार्श्वनाथ के कुछ शिष्यों से पाठ अंगों का महानिमित्ता पढ़कर, गोशाल ने अपने आपको जिन घोषित कर दिया और अपने गुरु से वह पृथक हो गया ।" -विलसन, वही, भाग 1, पृ. 295-296 । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [57 अपने गुरू से पृथक होने के पश्चात् गोशाल ने श्रावस्ती में एक कुभारण के घर में अपना मुख्य स्थान बना कर बहुत प्रभाव जमा लिया था।' महावीर से पृथक होकर तुरन्त ही उसने अपनी साधुता की सर्वश्रेष्ठ दशा अर्थात् जिन पद प्राप्त होने की घोषणा कर दी थी। "महावीर ने स्वयम् केवलज्ञान प्राप्त किया उसके दो वर्ष पूर्व ही गोशाल ने अपना यह दावा प्रस्तुत कर दिया था।" जैन दन्तकथानुमार महावीर ने गोशाल को फिर कभी प्रत्यक्ष में नहीं देखा । उनके केवल ज्ञानी हुए पश्चात् चौदहवें वर्ष में कदाचित् पहली बार हो वे श्रावस्ती पहुंचे मालूम होते हैं और वहीं उसके जीवन के अन्तिम दिनों में उनने उसको देखा हो ऐसा लगता है । ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि यहां गोशाल का द्वैध और अस्थिर स्वभाव बहुत प्रखर हो गया था और अपने गुरू' के प्रति अशिष्ट वर्तन का उसे अन्त समय में पश्चात्ताप हुअा था । इतना होते हुए भी एक बात हमें नहीं भूल जाना चाहिए कि महावीर और गोशाल का सम्बन्ध या यों कहिए कि भारत के धार्मिक उत्थान की महान लहर में मंखलिपुत्त का स्थान कुछ अधिक स्पष्टता से विचारे जाने की अपेक्षा रखता है। डॉ. बरुया कुछ भ्रांति पूर्वक कहता है कि "इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जैन अथवा बौद्ध आधारों से मिलने वाली सूचनामों से यह प्रमाणित नहीं होता है कि गोशाल महावीर के दो ढोंगी शिष्यों में से, जैसा कि जैन मानते हैं एक था। उन प्रमाणों से तो इससे विपरीत बात ही सिद्ध होती है अर्थात् मैं यह कहना चाहता हूं कि इस विवादग्रस्त प्रश्न पर निश्चित अभिप्राय देने का इतिहासवेत्ता यदि प्रयत्न करेंगे तो उन्हें यह कहना ही पड़ेगा कि इसके लिए यदि कोई भी ऋणि हो तो निःसंदेह वह गुरू है न कि जैनों का मान लिया हुअा ढोंगी शिष्य । इस विद्वान को यह भ्रांति हो गई है कि महावीर पहले-पहल पार्श्वनाथ की धर्म-सम्प्रदाय में थे, परन्तु साल भर पश्चात् जब वे नग्न रहने लगे, आजीवक सम्प्रदाय में वे जा मिले। यह मान्यता प्रमाणिक जैन आधारों और दन्तकथानों की उपेक्षा करती है इतना ही नहीं अपितु गोशाल के अनुयायी पाजीवक क्यों कहलाए इस तथ्य का अज्ञान भी प्रकट करती है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि पार्श्व और महावीर के धर्म-सिद्धान्तों में भेद महावीर की विचार प्रगति का ही था और आजीवक शब्द उस जाति के प्रति घृणा प्रदर्शित करने के लिए ही था कि जिसे जैन एवम् अन्य लोग आजीवक सम्प्रदाय की मूल स्थिति व्यक्त करने को प्रयोग किया करते थे ।' इस प्रकार यह असम्भव था कि महावीर प्राजीवकों की मम्प्रदाय में जा मिलते । फिर इस नाम का कोई सम्प्रदाय गोशाल के अपने गुरू से विद्रोह करने के पूर्व कोई था ही नहीं क्योंकि गोशाल स्वयम् ही इस सम्प्रदाय का मूल संस्थापक था। 1. स्वामिनः पार्वात्स्फिटित: श्रावस्त्यां तेजोविसर्गमातापयति...) -अावश्यक सूत्र पृ. 214 । 2. शार्पटियर, कैहिई, भाग 1, पृ. 159 । 3. "कुछ जैनों का यह विश्वास है कि मृत्यु से पहले इतना घोर पश्चात्ताप करने के कारण वह नरक में नहीं, अपितु किसी एक देवलोक में ही ही गया होगा।" -स्टीवन्सन, श्रीमती, वही, पृ. 60 । 4. देखो, वही । "उसका अन्तिम कार्य था अपने शिष्यों के समक्ष महावीर के अपने सम्बन्ध के वक्तव्य की सत्यता का स्वीकार करना और उन्हें अपनी लज्जा की प्रकट घोषणा करने एवम् हर प्रकार की अवज्ञा पूर्वक अपना अन्तिम संस्कार करने का आदेश दिया था ।" -हरनोली, वही, पृ. 260 । 5. बरुपा वही, पृ. 17-18। 6. वही। 7. “यह स्पष्ट हैं कि प्राजीवक शब्द बौद्धों में भी वृणासूचक ही था और वह मस्करिन या एक दण्डिन जैसे हीन लोगों के लिए ही प्रयोग किया जाता था ।" -हरनोली, वही, पृ. 260। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] यह स्पष्ट तथ्य है कि गोशाल और उसके अनुयायियों के विषय में जो भी हम जानते हैं उपका आधार जैन और बौद्ध ग्रन्थ ही हैं । "इनका वर्णन अवश्य ही हमें मावधानी से स्वीकार करना होगा। परन्तु अावश्यक तथ्यों में दोनों प्राधारश्रोत एक मत हैं। इसलिए वह वर्णन विश्वस्त होना चाहिए । दो स्वतंत्र प्राधारों से उनकी प्राप्ति उन्हें और भी विश्वस्त कर देती है। चाहे जहां से छुटपुट दो चार बातें संग्रह कर लेने से ऐसा सप्रभारण साधन नहीं मिल जाता है कि जिससे हम यह कहने को प्रेरित हों कि "ऋणि कोई हो तो वह निश्चय ही गुरु है न कि जैनों का माना हुआ ढ़ोंगी शिष्य।" ऐसा कहने का खास कारण तो यह है कि जिन साधनों मे उपरोक्त व्यापक अनुमान किया गया है, वे ही उसके विरूद्ध जाते हैं । एक या दूसरा निर्णय करने के पूर्व विद्वान पण्डित पालोचकों को यह विचारने की कहते हैं कि "महावीर के पूर्व गोशाल के जिनपद प्राप्ति की बात भगवती में दिए मंखलिपुत्त के इतिहास से निशंक सिद्ध होती है और उसमें की प्रमुख प्रमुख घटनाएं कल्पसूत्र में दिए महावीर चरित्र से भी समर्थित होती हैं। अच्छा तो यही होता कि विद्वान पालोचक को उक्त तथ्य का विचार करने की बात ही नहीं कहता । ऐसा लगता है कि विद्वान जानबूझ कर समस्त घटना के विषय में गंभीर भ्रम उत्पन्न करना चाहता है। सूत्र में कोई भी स्थान पर या समस्त जैन साहित्य में कही भी गोणाल के जिनपद प्राप्ति का उल्लेख नहीं है । वहां इतना ही कहा गया है कि गोशाल स्वतः अपने आप जिन अथवा तीर्थंकर बन बैठा था। बुद्ध ने उसके प्रति अब्रह्मचर्य का दोष लगाया है। फिर महावीर भी उसके प्रति ऐसा दोष लगाते हैं इतना ही नहीं अपितु वे इस विषय में इतने ही जोरदार शब्द भी प्रयोग करते हैं। सूत्रकृतांग में महावीर के शिष्य आर्द्रक और गोशाल में हुए संवाद में गोशाल कहता गया है कि हमारे नियमानुसार कोई भी साधू...कुछ भी पाप नहीं करता है...स्त्री के साथ संभोग करता है। वह अपने अनुयायियों की 'स्त्रियों के दास' का दोष लगाता है और कहता है कि 'वे सयमी जीवन नहीं बिता रहे हैं। ऐसे नैतिक-नियम-विरुद्ध सिद्धान्तों के प्रचार से कुख्यात व्यक्ति जिनपद, प्राप्ति योग्य और प्राप्त कसे कहा जा सकता है ? यह तो सुनने में ही अद्भुत लगता है कि जब कि यह कहा जाता है कि उसके जिनपद प्राप्ति का समर्थन जनसूत्र ही करते हैं। एक अन्य स्थान पर विद्वान लेखक भगवतीसूत्र में बताए गोशाल के छह पूर्व जन्मों का विशिष्ट ममयों की बात कहता है और यह निष्कर्ष निकालता है कि 'गोशाल के छह पूर्व जन्मों का भगवती का उल्लेख चाहे विचित्र या काल्पनिक ही लगता हो परन्तु प्राजीवक पंथ के इतिहास को गोशाल से 117 वर्ष पूर्व खींच ले जाने की इतिहासकार को सहायता करता है ।...'' इस पर से प्रकट है कि महावीर के सत्ताईस भवों की कथा यहां भूला दी गई है । 'आजीवक पंथ का प्राकमखलि इतिहास' रचने के लिए लेखक किस प्रकार प्रेरित हुग्रा है यही समझा नहीं जा सकता है।' इस प्रकार डा. बरुपा ने समीक्षक के विचार के लिए अनेक बातें प्रस्तुत की हैं, परन्तु प्रत्येक बात के लिए उसने स्वयम् यह भी कहा है कि यह कल्पना का महा प्रयोग है।' आजीवक के प्रति बुद्धिगम्य सहानुभूति पर ___ 1. वही, पृ. 261। . बरुपा, वही, पृ. 18 । --3. अजि जिरणप्पलावी...अकेवली केवलिप्पलावी...विहरह । भगवतीसूत्र, अगमोदय समिति, शतक 15, प. 659 । देखो प्रावश्यकसूत्र, 4 214; शार्पटियर, वही, पृ. 159 । 4. देखो हरनोली, वही, पृ. 261। 5. याकोबी, सेबुई, पुस्त, 45, पृ. 411। 6. वही, पृ. 245,270 । विजयराजेन्द्रसूरि, अभिधान राजेन्द्र, भाग 2, पृ. 103। 7. बरुया, वही, पृ. 5। 8. बरुमा, वही, पृ. 7। 9. वही, पृ. 22 । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [59 रचित अनुमानों को स्थायी करने को प्रस्तुत किए गए सभी तर्कों का एक एक करके बुद्धिपूर्वक विचार किया जाए तो गोशाल पर एक छोटा सा निबन्ध ही लिखना होगा। फिर भी इतना तो कह देना अावश्यक है कि विद्वान डाक्टर ने जैन और बौद्ध दंतकथानों को बहुतांश में असत्य सिद्ध करने का ही इसके द्वारा प्रयत्न किया है जब कि. डा. याकोबी कहता है कि 'खास प्रमाणों की अनुपस्थिति में इन दंतकथानों को अवश्य ही हमें विशेष ध्यान मे देखना चाहिए।' फिर भी इतना तो अवश्य ही सत्य है कि 'गोशाल का तत्वज्ञान इस देश में एकदम ही नवीन नहीं था। यह निश्चित है कि अनेक विरोधी सिद्धांतों और परस्पर असंगत मान्यताओं घनिष्ट वातावरण में महावीर ने जैनसंघ की जितनी भी सफलता प्राप्त की वह नि:संदेह भारतीय विचार के पद्धति पूर्वक विकास के अनुरूप ही थी। फिर डा. याकोबी के अनुसार मर्यादित रीति से यह कहने में भी कोई विरोध नहीं है कि 'महावीर के सिद्धांत पर अधिक से अधिक प्रभाव मखलि के पुत्र गोशाल का पड़ा है। क्योंकि गोशाल के व्यावहारिक और अव्यावहारिक जीवन का निश्चित रूप से स्थायी प्रभाव महावीर के मानस पर सम्भवतया पड़ा था । एक बात और भी कही जा सकती है और वह यह कि विचार दृष्टि से गोशाल प्रारब्धवादी था ] वह यह मानता था कि 'उद्यम, परिश्रम या प्रारुप अथवा मनुष्यबल जैसी कोई भी वस्तु नहीं हैं। सब कुछ अपरिवर्तनीय रूप में निश्चित है।' व्यवहारिक जीवन में वह अब्रह्मचारी ही था। इसलिए स्वभावतया उसके जीवन के पापमय और निर्लज्ज व्यवहारों ने साधू समाज के लिए खूब कठोर नियमों का बनाना उन्हें अनिवार्य प्रतीत हुप्रा और नितान्त प्रारब्धवाद का उसका सिद्धान्त चरित्रहीन अनैतिक जीवन में परिणत होता भी लगने लगा। जैनधर्म ऐसे प्रारब्धवाद को स्वीकार नहीं करता है क्योंकि उसकी तो यह शिक्षा है कि यद्यपि कर्म ही सब बात का निर्णायक हैं, फिर भी हम पूर्व कर्मों पर अपने वर्तमान जीवन द्वारा प्रभाव डाल सकते हैं ।"7 इस प्रकार महावीर के जीवन पर और उनके संस्कारित धर्म पर गोशाल का कुछ भी प्रभाव पड़ा है तो बम इतना ही पड़ सकता है न कि इससे कुछ भी अधिक । फिर यह भी हम एक बार और कह दें कि जैनसंघ के इन अनिष्ट मतभेदों के कारण "भारत भर में एक धर्मचक्र स्थापन करने की महावीर की प्रवृत्ति अत्यन्त संकटापन हो गई थी।" 1. वही। 2. याकोबी, वही, प्रस्ता. पु. 331 3. वरुपा, वही, पृ. 27 । 4. 'जब कि संजय के तर्क सब नकारात्मक हैं, गोशाल ने अपने 'तेरासिय' याने त्रिभंगी न्याय कि कदाचित हो, कदाचित् न हो, और कदाचित हो और न हो द्वारा महावीर के सप्तभंगी न्याय का याने स्याद्वाद का मार्ग पहले से ही प्रशस्त कर दिया था। बेल्वलकर और रानाडे, वही, प. 456-7 । देखो, हरनोली, वही, पृ. 262 । 5. याकोबी, वही, प्रस्तावना प. 29 । 6. हरनोली, उवासगदसामो, भाग 1, पृ. 97, 115, 116 । देखो वही, भाग 2, पृ. 109-110, 132 । 7. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 60 । “गोशाल के चरित्र के कारण ही कदाचित् महावीर को पार्श्वनाथ के चतुर्याम धर्म में ब्रह्मचर्य का पांचवां व्रत बढ़ाना पड़ा हो।" -वही, पृ. 59। देखो वही, पृ. 185%; हरनोली, वही, पृ. 264 । 8. शास्त्री-बैनरजी, वही, पृ. 561 "ई. पूर्व छठी से तीसरी सदी में बौद्धधर्म एक नायक के नेतृत्व में सारे भारतवर्ष में और उससे परे के देशों में भी फैल गया था। परन्तु मतभेद ने जैनों की प्रारम्भ से ही रीढ़ तोड़ दी थी, फिर भी जैनों को यही जानकर सन्तोष होता है कि एक समय के शक्तिशाली आजीवक तो आज केवल स्मरण में ही अवशेष हैं।" -वही, पृ. 58 । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] गोशाल के लिए इतना ही कहना पर्याप्त है। हम देख पाए हैं कि महावीर के केवली जीवन के चौदहवें वर्ष में गोशाल को मत्यू हई थी। यह घटना स्वभावतया इस बात से मेल खा जाती है कि उसकी मृत्यु महावीर निर्वाण के 16 वर्ष पूर्व हुई कि जो महावीर के कुल 30 वर्ष के केवली जीवन में से 14 वर्ष घटाने से बच रहते हैं । महावीर निर्वाण की तिथि जो हमने ई. पूर्व 480-467 के बीच में होना माना है, से गोशाल को मृत्यु ई. पूर्व 486-483 के बीच में कभी भी हुई कही जा सकती है। भगवतीसूत्र के अनुसार गोशाल की इस मृत्यु तिथि का इस बात से भी समर्थन होता है कि उसकी मृत्यु और राजा कुरिणया (अजातशत्रु) व वैशाली के राजा चेड़ग के बीच में अद्वितीय सचेनक हाथी के स्वामित्व के कारण हुए युद्ध की घटना समकालिक है। यह हाथी कुरिणय के पिता बिबसार ने चेडग राजा की पुत्री चेल्लणा नाम की अपनी पत्नि से उत्पन्न कनिष्ठ पुत्र विहल्ल को दिया था । राज्यगादी पर बलात् अधिकार कर अजातशत्रु ने अपने कनिष्ठ भाई के पास यह हाथी प्राप्त करने की चेष्टा की। परन्तु विहल्ल उस हाथी को लेकर अपने नाना वैशाली में भाग गया। जब कुरिणय शांति से उसे लौटा लाने में सफल नहीं हुआ तो उसने चेडग से युद्ध प्रारम्भ कर दिया।" इस प्रकार यह युद्ध कुरिणय ने राजसत्ता प्राप्ति की उसी समय में ही किया ऐसा संभव लगता है और इसे ई. पूर्व. 496 में रख सकते हैं। आजीवक सम्प्रदाय का ऐतिहासिक दृष्टि से यदि विचार करें तो हम देखते हैं कि वह उसके प्रवर्तक के साथ ही समाप्त नहीं हो गया था ! बौद्धों के साथ के उसके सम्बन्ध का विचार करने पर मालूम होता है कि बौद्धों को "जैन अथवा आजीवक किसी के साथ भी खास वैर रखने का कोई कारण नहीं था ।" अशोक और दशरथ जैसे बौद्ध राजों ने आजीवकों को नागार्जुनी और बराबर पहाड़ी पर की गुफाएं इसी भाव से अर्पित की थी कि जिस भाव से उनने अन्य स्थलों पर बौद्ध स्तूप का निर्माण कराया था और ब्राह्मणों को दक्षिणा दी थी । बौद्धों का वैरभाव पाजीवकों अथवा जैनों पर नहीं उतरा था । परन्तु बाद में जाकर ब्राह्मणों पर उनकी वैर बुद्धि हो गई थी। आजीवकों का सबसे पहला उल्लेख अशोक के तेरहवें वर्ष अर्थात् ई. पूर्व 257 में गया के पास की बराबर की टेकरी की चट्टान में खोदकर बनाई गई दो गृहानों की दीवालों पर खुदे संक्षिप्त शिलालेख में मिलता 1. हरनोली, वही, परिशिष्ट 1 प. 7। एगहत्थिरणापि णं पम् कणिए राया पराजिणित्तए । भगवती, पागमोदय समिति, प. 316, सुत्र 300 । देखो हेमचन्द्र, त्रिषष्टि--शलाका, पर्व 10, श्लो. 205-206 । 2. हरनोली, वही और वही स्थान । देखो टानी, कथाकोश, प 178-9 भी ।...न दद्यास्तदायुद्धसज्जो मवैमीति :--अावश्यक सूत्र, पृ. 684 । 3. डॉ. हरनोली, महावीर निर्वाण ई. पूर्व 484 में मनाते हुए, गोशाल की मृत्यु और अजातशत्रु एवं उसके नाना के बीच युद्ध की तिथि ई. पूर्व लगभग 500 बताते हैं । देखो हरनोली, एंरिए, भाग 1, पृ. 26।। 4. शास्त्री-बैनरजी, वही, पृ. 55 । 5. अशोक का राज्याभिषेक ई. पूर्व 270-269 में मान कर ही । देखो स्मिथ, अशोक, 3 य संस्क., पृ. 73%; मुकर्जी, राधाकुमुद, अशोक पृ. 37 । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [61 है जो कि इस प्रकार है-"राजा प्रियदर्शी ने अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में यह गुफा प्राजीवकों को दी है।'' दूसरा उल्लेख अशोक के सुविख्यात स्तंभ-प्राज्ञापत्रों में मिलता है जहां राजा अशोक अपने धर्माधिकारियों को कर्तव्यों को गिनाते हुए प्राजीवकों की सम्हाल रखने का कार्य भी उनको सौंपता है । फिर "राज्यारोहण के बीसवें वर्ष में अर्थात् ई. पूर्व 250 में उस राजा ने एक तीसरी मूल्यवान गुफा प्राजीविकों के निवास के लिए दी है ।" इसके अतिरिक्त एक उल्लेख उसके अनुगामी दशरथ के राज्य के प्रथम वर्ष याने ई. पूर्व 230 का नागार्जुनी टेकरी पर चट्टान से खोदी तीन गुहागों की भीतों पर उत्कीरिणत छोटे से लेख में मिलता है । यह लेख इस प्रकार हैं । “यह गुफा महाराजा दशरथ ने अपने राज्या रोहण के तुरन्त बाद ही सामान्य आजीवकों को चन्द्र-सूर्य तपे वहां तक निवास स्थान रूप से उपयोग करने को दी है।" इस प्रकार "सात गुफागों में की याने दो बराबर टेकरी की और तीन नागार्जुनी टेकरियों की गुफाएं आजीवकों को (प्राजीवकेहि) देने का उल्लेख है । 'प्राजीबकेहि' शब्द तीन स्थानों पर से जानबूझ कर कुतर कर निकाल दिया गया सा लगता है जब कि अन्य प्रत्येक शब्द जैसे के तैसे देखे जाते हैं। यह कुकृत्य किसने किया होगा यह कहना कठिन है। परन्तु इतना तो स्पष्ट दीखता है कि राजा दशरथ के बाद बराबर टेकरियां जैन राजा खारवेल के हाथ में प्रा गई थी। उसके राज्य के 8वें वर्ष में अर्थात् अशोक-दशरथ काल के बाद ही वह गोरठगिरि में था। शिल्प के नियमानुसार लोमसऋषि गुफा पर से भी यह निश्चय किया जा सके ऐसा है । एक पवित्र श्रद्धावान जैन होने से खारवेल ने "ढोंगी गोशाल के ग्राजीवक अनुयायियों का तिरस्कृत नाम घिस कर मिटा देने और उनके चिन्ह तक का नाश कर देने का प्रयत्न किया होगा ।" 1. हरनोली, वही, पृ. 266 । देखो इण्डि. एण्टी., पुस्त. 20, पृ. 361 प्रादि । स्मिथ, अशोक, 1 म संस्क., पृ. 144 । प्राजीवकों के प्रति झुकाव अशोक की, बहुत सम्भव है कि, उसके मातापिता से ही वारसे में मिला था । 'यदि हम दंतकथा में विश्वास करें। विहांवंशटीका (पृ. 126) में जैसा कि पहले ही संकेत किया जा चुका है, उसकी माता के गुरू का उल्लेख है जिसका नाम जनसान का (देविमा कुलूपगो जनसानो नाम एको आजीवक) जिसको राजा बिंदुसार ने रानी के स्वप्नों का मर्म बताने के लिए बुलाया था अशोक के जन्म पूर्व । फिर दिव्यावदान (अध्या. 26) में बिन्दुसार ने स्वयम् प्राजीवक संत पिंगलवत्स को अपने समस्त्र पुत्रों की परीक्षा लेकर उनमें से कौन उसका राज्य-उत्तराधिकारी होने योग्य है यह बताने को बुलाया, लिखा है । मुकर्जी राधाकुमुद, वही, पृ. 64-65। '...आजीवक संत पिंगलवत्स ने, राजा के बुलाए जाने पर, उसके पुत्रों में से अशोक को ही उत्कृष्ट उत्तराधिकारी बताया था।' वही, पृ. 3 । 2 स्मिथ, वही, पृ. 155; एपी. इण्डि., पुस्तक 2. पृ. 270, 272, 274। 3. स्मिथ, वही, तीसरा संस्करण, प्र. 54। 4. हरनोली, वही, पृ.266 । देखो इण्डि. एण्टी. 7, पुस्तक20, पृ. 361 आदि; स्मिथ, वही, 1 म संस्क. पृ. 145। 5. शास्त्री-बेनरजी, वही, पृ. 59 ।। 6. वही प. 60 । देखो यह भी, 'दोनों स्थानों की तुलना कोई भी संदेह नहीं रहने देती है किगारधगिरि का हर्म्यमुख और लेख उदयगिरि (खारवेल) के लेखों और हर्म्यमुखों से बहुत निकट सम्बन्धित हैं और दोनों ही जैनों के बनवाए हुए हैं जिसने 'माजिबकेहि' शब्द को भ्रश कर अपना धर्मराग दिखा दिया है । वही, पृ. 6।। 7. वही पृ. 60 । 'उसने (खारवेल ने) प्रकृतया प्राजीवकों को इनमें से निकाल भगाया, उनका नाम भी खुरच दिया और कलिंगसेना को इन बराबर गुफाओं में ठहरा दिया था। अपूर्ण लोमसऋषि गुहा भी उसे बहुत सुविधायक हुई होगी। तथ्य जो भी हो, ऐसा लगता है कि, खारवेल ने मौर्य-काल पश्चात् के कारीगरों द्वारा इनकी भीतों को ठीक करने में लगाया था।' शास्त्री-बेनरजी, बिउप्रा पत्रिका, सं. 12, पृ. 310 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 ] शिल्पशास्त्र के प्रदेशों में इस जैन ग्राजीवक वैमनस्य पर लिखते हुए श्री मुखर्जी लिखते हैं कि "यहां की बराबर की गुफाओं के अन्तिम दो अशोक के शिलालेख और दशरथ के नागार्जुनी गुहाम्रों के तीन शिलालेख प्रजीवकों को उन गुफाओं के दिए जाने का उल्लेख करते हैं । परन्तु इनमें के तीन शिलालेखों में "आजीवकेहि " शब्द घिस देने का प्रयत्न किया गया दीखता है। ऐसा लगता है कि इस सम्प्रदाय का नाम किसी को सहन नहीं हुआ हो और उसी ने इसको मिटा देने का यह प्रयत्न किया हो। परन्तु यह कौन होगा ? डुल्ट्ज की धारला है कि वह मंखरि अवंतिवर्मन होना चाहिए जिसने कि बराबर गुफाओं में एक गुफा कृष्ण को और नागार्जुनी की दो गुफाएं शिव और पार्वती को अर्पित की हैं और उसका कट्टर हिन्दु-मानस ग्राजीवकों को सहन नहीं कर सका होगा। डॉ. बैनरजी शास्त्री ने इससे अधिक विचारशील बात कही है। वह खारवेल पर इस अपकृत्य का दोष मंढ़ता है कि जो कट्टर जैन था और ग्राजीवकों के प्रति जैनों का विरोध परम्परा प्रसिद्ध था । यह कार्य खरि के समय से बहुत पूर्व जब कि अशोक की ब्रह्मी लिपि भूली जा रहीं थी, तब ही हो जाना चाहिए। 2 इस प्रकार व्यवहारिक दृष्टि से प्राजीवक सम्प्रदाय भारतवर्ष में से ई. पूर्व दूसरी सदी के अन्त में नष्ट हो गया था. 2 यद्यपि बाद के साहित्य में अर्थात् वराहमिहिर शीलांक की सूत्रकृतांग टीका, हलायुद्ध की प्रमिधान रत्नमाला और विरंचिपुरम् निकटस्थ पोयगेई के पेरुमल मन्दिर की भीतों पर के शिलालेख प्रादि बाद के साहित्य में उनका उल्लेख अवश्य ही मिलता है । परन्तु इन उल्लेखों का आजीवकों से सीधा सम्बन्ध नहीं है और न वे प्रजीवकों सम्बन्धी ही हैं। अनेक स्थलों पर तो श्राजीवक शब्द जैनों के दिगम्बर सम्प्रदाय के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।" जैनों के पहले पंथभेद के विषय में इतना कहने के पश्चात् अब हम जैनों के श्वेताम्बर दिगम्बर भेद का विचार करेंगे । वस्तुतः इस सम्प्रदाय-भेद का मूल कहां है यह कहना अत्यन्त ही कठिन है दिगम्बर और श्वेताम्बर दन्तकथाएं इसके सम्बन्ध में जो कुछ भी कहती हैं, वह कहीं-कहीं तो निर्बोध और बहुतांश में बिलकुल नैतिहासिक है । फिर भी इतना तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि इस मतभेद ने जैन जाति की सर्व साधारण प्रगति र उन्नति में बहुत ही हानि पहुंचाई है। जैन साहित्य और इतिहास में मिलने वाली विरूद्ध दन्तकथाओं के कारण दोनों ही सम्प्रदायों को बहुत ही सहन करना पड़ा है । पारस्परिक विद्वेष और कभी-कभी तो इससे 1. मुकर्जी, राधाकुमुद, बही. पू 206 हुल्ट्ज का मत ग्राह्य है- 1. वह प्रमाण दिए बिना ही यह मान लेता है कि अनंतवर्मन छठी सातवीं सदी में अशोक की ई. पूर्व तीसरी सदी की ब्राह्मी लिपि का ज्ञाता और परिचित था ।... शास्त्री - बेनरजी, वही, पृ. 57। 'विद्वान पण्डित द्वारा दूसरा कारण यह कहा गया है कि अनंतवर्मन जो कि हिन्दू था को प्राजीवकों के प्रति यद्यपि कोई खास वैमनस्य नहीं था, परन्तु वह लोगों में विष्णु या कृष्ण भक्त प्रसिद्ध था । वही । यह बात कर्न के कथन पर ग्राधारित है ( इण्डि एण्टी, पुस्त 20, पृ. 361 आदि) परन्तु जैन सिद्धांत ग्रन्थ अथवा अन्य साहित्य से इसका समर्थन कुछ भी नहीं मिलता है। फिर भी, यह बिना किसी जोखम के कहा जा सकता है कि यह अपकृत्य हिन्दुओं या बौद्धों का कभी नहीं हो सकता है, बस, जो विकल्प शेष रहता है वह जैनों का है लगभग विश्वस्त बना देता है ।' इंस्क्रिपशनम् इण्डिकारम् पुस्त. 1 'ऐतिहासिक दृष्टि से भी जैन धावक विशेष इसे शास्त्री - बेनरजी, वही, पृ. 60 । हुल्ट्ज के वक्तव्य के लिए देखो कोरपस प्रस्ता. पु. 28 नया सरक 1925 का 2. शास्त्री - बैनरजी, वही, पृ. 53 । 3. हरनोली, वही. 266, 267 1 4. " इसमें कोई भी सन्देह नहीं रहता है कि छठी सदी ईसवीं में जब कि वराहमिहिर ने इस शब्द का प्रयोग किया, उसका लक्ष्य जैनों का दिगम्बर सम्प्रदाय ही रहा था" वही पृ. 266 " Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 63 भीषिका से से एक दूसरे को देखते रहे हैं । ' महावीर के धर्म के मूल अनुयायी कहलाने के उत्साह में दोनों में से एक भी अपनी उत्पत्ति के विषय में कुछ नहीं कहता है, परन्तु दोनों ही प्रतिस्पर्धी सम्प्रदाय की उत्पत्ति और कतिपय मान्यताओं की व्यंगपूर्ण और कभी-कभी अपमानजनक ठीका करते हैं। पहले दिगम्बर दन्तकथाओं का ही विचार करें। उनके अनुसार हम देखते हैं कि दिगम्बर स्वयम् जैनसंघ में हुए इस सम्प्रदाय भेद के विषय में एक मत नहीं हैं। धाचार्य देवसेन अपने ग्रन्थ 'दर्शनवार' में कहते हैं कि ''श्वेताम्बर संघ का प्रारम्भ विक्रम राजा की मृत्यु के पश्चात् 136 वर्ष में सौराष्ट्र के वल्लभीपुर में हुआ था ।' इस विद्वान आचार्य के अनुसार श्वेताम्बरों की उत्पत्ति का कारण पूण्य "भद्रवाह" के शिष्य प्राचार्य शांतिसूर के शिव्य जिनचन्द्रा दुष्ट पौर व्यभिचारी जीवन था । " 112 किस भद्रबाहु का यहां उल्लेख किया गया है यह स्पष्ट नहीं है यदि वह चन्द्रगुप्त मौर्य कालीन भद्रबाहु ही हैं तो मतभेद का उक्त समय ठीक नहीं हो सकता है । परन्तु दिगम्बर दन्तकथानुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पड़े महा दुष्काल के कारण भद्रबाहु और उनके शिष्यगण उत्तर से दक्षिण देश में चले गए थे और उसके परिणाम स्वरूप श्वेताम्बर और दिगम्बर दो सम्प्रदायों में जनसंघ के विभक्त हो जाने का अनुमान सत्य हो तो यह निर्विवाद हैं कि वह भद्रबाहु वही होना चाहिए ग्रम्य नहीं याने भद्रबाहु भुतकेवली । देवसेनसूरि ने यही बात 'भावसंग्रह' में भी कही है, परन्तु उसमें भद्रबाहु के जीवन से सम्बन्धित दुष्कान के विषय में भी वह कुछ कह देता हूँ वहां भी जिनचन्द्र को उसी पृथ्य रूप में चित्रित किया है पर अधिक में यह कहा गया है कि उत्सूत्र मार्ग पर चलने के लिए उपालम्भ दिए जाने पर उसने अपने गुरू शांतिसूरि का वध ही कर दिया था। ग्रभिभूत करने वाली बात तो यह है कि यहां भी इस सम्प्रदाय भेद की तिथि वही कही गई है । " इस प्रकार दोनों दन्तकथानों में निर्दिष्ट भद्रबाहु के सम्बन्ध में स्पष्ट ही कुछ भ्रम या अपूर्णता है । हो सकता है कि इनमें किसी दूसरे भद्रबाहु का उल्लेख किया गया हो, अथवा ऐतिहासिक घटना के सम्बन्ध में कालक्रम का विचार किए बिना ही दन्तकथा बना दी गई हो। ये दोनों ही दन्तकथाएं निर्दोष हों इसलिए भट्टारक राजनंदी ने भद्रबाहुचरित में यह अधिक कह दिया है कि भद्रबाहु के समय में अर्धफालक (अर्ध-वस्त्र परिधान किए ) के नाम से मतभेद प्रारम्भ हुआ और स्थूलभद्र ने जब इस परिवर्तन करनेवाले का विरोध किया तो उसको मार डाला गया। इसके बहुत समय पश्चात् वल्लभीपुर में राजा की रानी उज्जाविनी के राजा की पुत्री चन्द्रलेखा के कारण अन्त में दो अलग सम्प्रदाय बन ही गए ।" 1. इस उम्पत्ती कहिया, सेवइयाणं च भग्गमद्वाणं प्रादिदेवसेनसूरि भावसंग्रह (सोनीसम्पादित), गाया 160, पू. 39 देखो प्रेमी, दर्शनासार, पु. 57 मिच्छामि मो... यदि आवश्यक सूत्र पु. 324 1 2. छत्तीने वरिवसए... सोर... उपरणो सेवडो संघो प्रेमी, दर्शनसार गाथा 11 पृ. 7 3. वही, गाथा 12-15 । 4. सीसे सीसेगा दोहदंडेण । प्रेमी. वही, पृ. 561 गाथा 137, पृ. 351 देखो प्रेमी वही, पृ. 35 1 6. प्रेमी, नही. पू. 60 दिगम्बरों के अनुसार 'भद्रबाहु महावीर के पश्चात् धावें धर के समय में अर्थ फालक नाम का एक शिथिलाचारी सम्प्रदाय हुआ जिनमे श्वेताम्बरों का वर्तमान सम्प्रदाय विकसित हुमा है।' दासगुप्ता, वही भाग पृ. 170 · थविरो धाएण मुझे... आदि । देवसेनसूरि, वही, गाथा 153, पृ. 38 | देखो 5. छत्तीस वरिससए... सोरट्टे उप्पण्णों सेवडसंघो...यादि । देवसेनसूरि, वही, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] इसके विपरीत में एक अन्य दन्तकथा यह कहती है कि स्थूलभद्र का ही दिगम्बरों के नग्नतत्व के प्रति घोर विरोध था और उसके पश्चात् उसके शिष्य महागिरि ने 'नग्नता के प्रादर्श को पुनरुज्जीवित किया। वह मच्चा साधू था और यह मानता था कि स्थूलभद्र के शासन में धर्म में बहुत शिथिलता प्रवेश कर गई थी। उनके इस प्रचार कार्य का सुहस्ति ने विरोध किया। यह मुहस्ति महागिरि के नीचे अनेक जैनसंघ नेताओं में से एक था। पक्षान्तर में श्वेताम्बर मान्यतानुसार इस पंथभेद का मूल नीचे लिखी बातों में दीखता है । रहवीर गांव में शिवभूति अथवा सहसमल्ल नाम का एक व्यक्ति रहता था । एक समय उसकी माता उससे अप्रसन्न हो गई इससे वह घर छोड़ कर चला गया और जैन साधू बन गया। साधू की दीक्षा लेने के बाद राजा ने उसे एक मूल्यवान कम्बल भेंट किया और वह उससे अभिमानी हो गया। उसके गुरू ने इसकी अोर उसका ध्यान दिलाया तो वह तब से ही नग्न रहने लगा। और उसने फिर दिगम्बर सम्प्रदाय चला दिया। उसकी बहन उत्तरा ने भी अपने भाई का अनुकरण करने का प्रयत्न किया । परन्तु स्त्रियां नग्न रहें यह उचित नहीं लगने से शिवभूति ने उससे कह दिया कि 'स्त्री मुक्ति की अधिकारिगी नहीं होती है। इस पंथ भेद की तिथि श्वेताम्बर महावीर के पश्चात् 609 वर्ष कहते हैं। महावीर निर्वाण और विक्रम के बीच 470 वर्ष के अन्तर के अनुसार यह घटना वि. सं. 139 में पड़ती है। इस प्रकार तिथि के विषय में दोनों ही प्रायः सम्मत हैं क्योंकि दिगम्बर विक्रम पश्चात 136 वर्ष में और श्वेताम्बर वि, सं. 139 में पंथभेद हग्रा कहते हैं । समय के विषय में इस प्रकार ऐक्य होते हुए भी कारणों के विषय में दोनों में तनिक भी ऐक्य नहीं है। जिनचन्द्र और शिवभूति ऐतिहासिक की अपेक्षा काल्पनिक व्यक्ति ही लगते हैं क्योंकि दोनों सम्प्रदायों की पट्टावलियों में ऐसे किसी व्यक्ति का नाम नहीं हैं । इसी से दिगम्बर विद्वान श्री नाथूराम प्रेमी कहते हैं कि इस पर से हम यह अनुमान कर कते हैं कि दोनों में से कोई भी सम्प्रदाय भेद की उत्पत्ति नहीं जानता है। कुछ न कुछ लिखना या कहना चाहिए इस दृष्टि से बाद में जो जिसके मस्तिष्क में पाया उसने वैसा ही लिख दिया है । कुछ कटु होते हुए भी कहना होगा कि दोनों सम्प्रदाय महावीर के समय जम्बू तक जो कि महावीर के निर्वागा के पश्चात् 64 वें वर्ष याने ई. पूर्व 403 में निर्वाण हए थे, के गुरुनों की वंशावली स्वीकार करते हैं ।" जम्बू के पश्चात् दोनों पक्ष अपने गुरुपों की भिन्न-भिन्न वंशावलियों देते हैं। परन्तु चन्द्रगुप्त के समय में हुए भद्रबाहु को दोनों ही स्वीकार करते हैं।' सत्य तो यह है कि इन सब परस्पर विरोधी दन्तकथानों में से सत्य बात का पता लग नहीं सकता है और इ-लिए जैन समाज के इस महान् सम्प्रदाय-भेद की निश्चित तिथि बताना एक दम ही कठिन है। 1. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 73 । 2. वही, . 74 । 'मेरे विचार से ये भेद प्रार्य महागिरि और पार्यसुहस्ति के समय से स्पष्ट रूप से व्यक्त हुए हैं।' झवेरी, निर्वाणकलिका, प्रस्तावना. पृ. 7। 3. उपाध्याय धर्म मागर की प्रवचनपरीक्षा में यह कथा दी गई है । देखो हीरालाल हंसराज, वही, भाग 2, पृ. 15 । बोडियसिवइउत्तराहि इमंय ।...रहवीरपुरे समुप्पणं । आवश्यकसूत्र, पृ. 324 । 4. छवाससयाई नवुत्तराई तभया सिद्धि गयस्स वीरस्स । तो कोडियारण दिट्टी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥ वही, पृ. 328 | "दिगम्बरों की उत्पत्ति शिवभूति से कही जाती है (ई. सन् 83) श्वेताम्बरों द्वारा और उसका कारण प्राचीन श्वेताम्बरों में भेद पड़ जाना कारण बताया जाता है।'...दास गुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 17 1 5. प्रेम, वही, पृ. 30 । 6. देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ 69 ! 7. देखो प्रेमी वही और वही स्थान। .. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इस कठिनाई के साथ-साथ दो बातें और हमें विशेष रूप से लक्ष में रखने की हैं। पहली यह कि दोनों का विरोध जैन साधू नग्न रहें अथवा अपने शरीर को ढकने के लिए एक या अधिक वस्त्र रखें इस प्रश्न पर है । दूसरी यह कि दोनों में सम्प्रदायभेद के समय के विषय में सर्वं साधारण एक मान्यता है । दोनों सम्प्रदायों के नाम ही उनके अर्थ का सूचन करते हैं। दिशा रूप वस्त्र है जिनका ऐसे दिगम्बरों की यह मान्यता है कि साधु के लिए एक दम नग्नता आवश्यक है। दूसरी सम्प्रदाय का श्वेत वस्त्र पहनने वाले यह अर्थ होता है। महावीर नग्न रहते थे इसे श्वेताम्बर भी स्वीकार करते हैं। फिर भी वे कहते हैं कि वस्त्र के उपयोग मात्र से ही उच्चतम मोक्ष पद रुक नहीं सकता है । " यदि यह निर्णय सत्य हो तो जैनधर्म के मूल में कौन सम्प्रदाय होना चाहिए इस विषय में दोनों को ही वादविवाद करना आवश्यक नहीं है क्योंकि उनकी मान्यतानुसार तो जैनधर्म आदि और अन्त रहित है । ऐतिहासिक गौर साहित्यिक दृष्टि से हम इतना ही कह सकते हैं कि श्वेताम्बर महावीर की अपेक्षा पार्श्वनाथ का अधिक अनुसरण कर रहे हैं। पक्षान्तर में दिगम्बर पार्श्वनाथ की अपेक्षा महावीर के अधिक निकट हैं क्योंकि महावीर ने अपना साधु जीवन नग्नावस्था में ही बिताया था और पार्श्वनाथ एवम् उनके अनुयायी सवस्त्र जीवन बिताते थे । इसके सिवा यदि श्वेताम्बरों के शास्त्रीय प्रमाण स्वीकार किए जाए तो एक कदम धागे बढ़ कर यह भी कहा जा सकता है कि दिगम्बरों ने महवीर के वचनों का जहां प्रक्षरश: पालन किया है वहां श्वेताम्बरों ने किसी भी नियम का उल्लंघन नहीं किया है क्योंकि महावीर ने अपनी निर्विकल्प ध्यानस्थ अवस्था में जो अनुभव किया उसे चाहे जिस पाध्यात्मिक दशा में उनके अनुयायी चिपके रहें, ऐसी उनकी धारणा नहीं थी । 65 इतना होने पर भी जैनधर्म के मूल में दोनों में से कौन है यह प्रश्न ही चर्चा का विषय नहीं है क्योंकि जनसंघ में जैनधर्म का प्रावि धनुयायी कोन है अथवा कौन हो सकता है इसका निर्णय करना ही कठिन है। इतिहास के अभ्यासियों का यह विषय नहीं है। उनकी खोज का विषय यदि कुछ है तो यही कि जैनसंघ में यह पंथभेद किस समय हुआ था? जो तथ्य हमें प्राप्त हैं उसको विचार पूर्वक समीक्षा करना भी हमारे लिए सम्भव नहीं है। हम कुछ कर सकते हैं तो इतना ही कि महावीर के समय में मंगलिपुत्त जब अपने मनस्वी मत की प्ररूपणा की । तब ही इस सम्प्रदाय भेद का कीड़ा जनसंघ को लग गया था उसकी मृत्यु के बाद ग्राजीवकों का बल भी बहुत घट गया था फिर भी कुछ निगंठ ऐसे थे कि जो नग्नता, कमण्डलु की अनावश्यकता, जीवन विषयक उपेक्षा, दण्ड का विशेष चिन्ह और अन्य अनेक बातों में थाजीवकों के साथ सहानुभूति रखते थे ।" यह सहानुभूति बहुत सम्भव है कि भद्रबाहु के समय में ही बताई गई होगी जब कि दिगम्बरों की मान्यतानुसार पंथभेद का श्रीगणेश 1. तपस्वियों में नग्नता महावीर काल में 'प्रवेक सम्प्रदायों में व्यवहार में थी, परन्तु बौद्ध एवम् अन्य अनेक जो कि इसको जंगली मोर प्रशोभन मानते थे, उनमें यह निदित गहिन भी थी।" इलियट, वही, पृ. 112 । 2. देखो याकोबी, सेबुई पुस्त. 119-129 "संभावना यह लगती है कि सदा से संघ में दो मत या पक्ष रहे थे । वृद्ध और निर्बल जो कि वस्त्र पहनते थे और जो पार्श्वनाथ के समय से चले आ रहे थे और जो स्थविकल्पी कहे जाते थे । श्वेताम्बरों के प्राध्यात्मिक गुरू ये ही हैं। दूसरा पक्ष था जिनकल्लियों का जो महावीर की भांति ही नियम का अक्षरश: पालन करते थे और ये ही दिगम्बरों के अग्रदूत है।" श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 79 1 3. हरनोली, वही, पृ. 267 आदि । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 661 पहले पहल हुआ था । ' परन्तु तब तो यह भेद स्पष्ट प्रकाश में नहीं आया होगा। फिर जब हम स्थूलभद्र और आर्य महागिरि की दन्तकथाओंों का विचार करते हैं और ई. सन् की पहली सदी के अन्त तक पहुंचने हैं तो हमें जैनसंघ में श्वेताम्बर और दिगम्बर भेद की मान्यताएं स्पष्ट रूप से दिखलाई देती हैं ।" यद्यपि दोनों सम्प्रदायों द्वारा प्रस्तुत की गई दन्तकथाएं प्रतिरंजित और निर्बोध दिखलाई देती हैं फिर भी एक बात उनसे स्पष्ट हो जाती है कि जैन इतिहास के इस विशेष समय में कोई ऐसी विचित्र या साधारण घटना घटित हुई होगी कि जो इन सब साहित्यिक दन्तकथाओं के लिए कारणभूत कही जा सकती हैं। फिर भी हम ऐसा नहीं कह सकते हैं कि दोनों सम्प्रदायों का मतभेद यहीं से वस्तुतः है क्योंकि मथुरा के शिलालेखों में हमें कितने ही ऐसे तथ्य मिलते हैं कि जो यह प्रकट करते हैं कि दोनों सम्प्रदायों में उस समय भी अनेक वस्तुएं एक थी जो कि परवर्ती काल में दोनों में चर्चा का विषय हो गई। : वस्तुस्थिति को और भी स्पष्ट करने के लिए हम ऐसा भी कह सकते हैं कि जो मुख्य तथ्य दोनों सम्प्रदायों में मतभेद के विषय हैं ये हैं महावीर के गर्भ का अपहरण, स्त्रीमुक्ति और केवलीमुक्ति जिनको दिगम्बर अमान्य करते हैं और श्वेताम्बर मान्य फिर जैनों का प्राचीन धागम साहित्य नाम हो गया वह भी दिगम्बर कहते हैं ।" कितने ही विधिविधानों और सामान्य बातों को छोड़ दें तो ये ही मुख्य तथ्य दोनों सम्प्रदायों के मतभेद के हैं ।! 1 मथुरा की शिल्पकला का विचार करते हुए पता लगता है कि महावीर के गर्भापहार के शिल्प में महावीर को नग्न दिखाया गया है । शिल्प में नेमेस के वाम घुटने के पास एक छोटे ग्राकार का साधू खड़ा दिखाया है वह महावीर ही है । शिल्पशास्त्री ने उस प्रसंग को प्रदर्शित करने के उद्देश से साधू के उपकरण भी दिखाए हैं। और महावीर के तब तक जन्म नहीं लेने एवम् प्रर्हत्पद प्राप्त नहीं करने के कारण ही उन्हें इतने लघु आकार में बताया गया है । " इस प्रकार मथुरा के एक ही शिल्प में दिगम्बरों की नग्नता की मान्यता और श्वेताम्बरों के गर्भापहार की मान्यता दोनों ही ग्रा जाती हैं। इससे यह देखा जा सकता है कि ई. सन् की पहली सदी तक तो दोनों सम्प्रदायों का पंच-भेय निश्चय ही उत्पन्न नहीं हुआ था। फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि जैनमूर्ति शास्त्र प्रारम्भ में जैन तीर्थ करों को नग्न ही बनाना है और अधिक नहीं तो कम से कम सन् की दूसरी सदी तक तो ऐसा ही मनमोहन चक्रवती उदयगिरी और डर 1. इससे ऐसा लगता है कि जैनसंघ का दिगम्बर और श्वेताम्बर में विभाजन, जैनधर्म के प्रारम्भ में ही पाया जाता है । इसका एक मात्र कारण महावीर और गोशाल, दो सहयोगी नेताओं का पारस्परिक विरोध है जो कि दो विरोधी सम्प्रदायों का नेतृत्व करते थे। हरनोली वही, पृ. 268 E 2. निर्वाणकलिका की प्रस्तावना में श्री झवेरी लिखते हैं कि 'इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ऐसा मालूम देना है कि विक्रम की पहली शती में दिगम्बर और श्वेताम्बर नाम से दो सम्प्रदाय जैनसंघ में अस्तित्व में थे । सिद्धसेन दिवाकर की स्तुतियों की प्रशस्ति से भी प्राचीनकाल में ऐसे सम्प्रदायों के अस्तित्व का समर्थन होता है ।' प्रस्तावना पृ. 7। 3. तेरा कियं मरणमेवं इत्थीयां प्रत्थि तन्मने मोक्खो । केवलराणीण पुणो ग्रहक्खाणं तहा रोश्रो ॥ अंबरसह विजई सिज्झइ वीरस्स गव्मचारतं । प्रेमी, वही, गाथा 13-14, पृ. 81 4. उसके (नेमेस के) वाम घुटने के पास एक छोटा नग्न पुरुष खड़ा है जिसके बाएं हाथ में साधु की भांति वस्त्र है और दायां हाथ ऊंचा उठा हुआ है।' व्हूलर, एपी. इण्डि., पुस्त. 2, पृ. 316 5. वही, पृ. 317 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 67 के स्मारकों के विषय में लिखते हुए कहते हैं कि 'मात्र तीर्थ कर ही नग्नावस्था में देखे जाते हैं। किसी किसी स्थान में वे भी वस्त्र पहने दिखाए जाते हैं जहां कि उनके मानवी जीवन के दृश्य या प्रसंग बताए गए हैं, स्त्रियों, राजारों देवों, अर्हतों, गंधवों और परिचारकों को बहुधा वस्त्र सहित बताया गया है। मथुरा शिल्प में नर्तकियां, अश्वासुर और कुछ तापस दिगम्बर याने नग्न बताए गए हैं। कभी-कभी स्त्रियां भी नग्न बताई गई हैं, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उनमें वस्त्र की सूक्षम रेखाएं दिखलाई पड़ती हैं कि जिसमें से शरीर की मरोड़ पारपार दीव पाती है।' परवर्ती इतिहास में वराहमिहिर ने अपने वृहत्संहिता ग्रन्थ में जैन तीर्थंकरों का वर्णन इन शब्दों में किया है- "जनों के देव नग्न, युवान, स्वरूपवान, शांत मुख मुद्रा वाले और घुटनों तक लम्बे हाथों वाले चित्रित किए जाते हैं। इस प्रकार ईसवी सन् के प्रारम्भ तक जैनसंघ में दो पृथक सम्प्रदाय जैभा कुछ भी यद्यपि नहीं देखा जाता है, फिर भी इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि महान दुष्काल के समय की भद्रबाहु की और ईसवी सन् 50 की जिनचन्द्र और शिवभूति की कथाएं उस महान पंथभेद के इतिहास की सुस्पष्टय वस्थाएं हैं, जिसने कि, लेखक के मतानुसार, ईसवी पूर्व 250 में महावीर निर्वाण मानते हुए देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की प्रमुखता में ईसवी 5वीं सदी में जब दूसरी परिषद मिली तब दो स्पष्ट सम्प्रदायों में अन्तिम रूप से पृथक-पृथक कर दिया था। परन्तु ऐसा भी हो सकता है कि ऐसे स्पष्ट सम्प्रदाय इस समय से कुछ पूर्व ही हो गए हों और समग्र जैन सिद्धान्त के अन्तिम स्थिरिकरण एवम् उम रूप में लेखन ने, कुछ सिद्धान्तों और कूछ विश्वासों की विभिन्नता के साथ इन्हें जैनसंघ के समक्ष दो स्पष्ट विभागों में अन्ततः प्रस्तुत कर दिया हो। इसे ऐसे युग का जब कि सब बातें लिख-लिखाकर संहिताबद्ध की जा रही थी स्वाभाविक समनुपात भी निरापदे कहा जा सकता है। पश्चिम भारत की गुफाओं के अध्ययन के आधार पर श्री जेम्स बर्ड यही समय इस महान् सम्प्रदाय भेद का स्वीकार करता है और इस निर्णय पर पहुंचता है कि "दिगम्बर जैनों की उत्पत्ति ई. सन् 436 के आसपास होना इन गुफाओं की तिथि से भी मेल खा जाता है। काठियावाड़ में स्थित पालीतारणा के जैन मन्दिरों की कथा "शत्रुजयमाहात्म्य भी दिगम्बरों की उत्पत्ति का समय यही निश्चित करती है । इस पंथभेद के इतिहास का उपसंहार, संक्षेप में, सर चार्ल्स ईलियट के शब्दों में इस प्रकार किया जाता है कि "संभवतया दिगम्बर और श्वेताम्बर भेद जैनधर्म की शैशवावस्था से ही चले पाते हों और श्वेताम्बर ही वह प्राचीन सम्प्रदाय हो जिसको महावीर ने संस्कारित अथवा गरुतर किया हो। हमें यह कहा गया है कि "वर्धमान के नियम वस्त्र का निषेध करते हैं, परन्तु पुरसादानी मार्श्व के नियम एक अधो और एक उपरि इस प्रकार दो वस्त्रों की आज्ञा देते हैं परन्तु यह पंथ भेद बहत वर्षों बाद निश्चित रूप में उस समय प्रकट हो ही गया कि जब दोनों के शास्त्रों का पृथक-पृथक निर्माण हुा ।" 1. मनमोहन चक्रवर्ती, नोट्स प्रान दी रिमेन्स प्रान धौली एण्ड इन दी केन्ज आफ उदयगिरि एण्ड खंडगिरि, 2. वृहत्संहिता, अध्या. 59, राएसो पत्रिका, नयी माला सं. 4 पृ. 328 में कर्न का अनुवाद । देखो (पृ. ।। चक्रवर्ती, मनमोहन, वही और वही स्थान। 3. देखो प्रेमी, वही, पृ. 3।। 4. यह निश्चित लगता है कि ई. सन् 454 में सब शास्त्र लिख लिये गए थे और उनकी प्रतियां भी अनेक इमलिए कराई गई कि कोई भी प्रमुख उपाश्रय उनके बिना नहीं रह जाए। -"श्रीमती स्टीवन्सन, वहीं, प. 15। 5. बर्ड, हिस्टोरिकल रिसर्चेज, पु. 72 । 6. ईलियट, वही, पृ. 112 । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 1 जैनसंघ के इस पंथभेद का पूर्व इतिहास इतना अधिक गुफित होते हए भी यह कहा जा सकता है कि दोनों मम्प्रदायों में वास्तविक भेद बहुत ही अल्प है। कितने ही सिद्धान्तिक और विधिविधान की बातों में दोनों में मतभेद बड़ा अवश्य है फिर भी अनेक विरोधात्मक तथ्य अनावश्यक और परोक्ष हैं । आधुनिक युग के अत्यन्त सम्मान्य और अत्यन्त धर्मिष्ठ श्री रायचन्द्रजी के विचार बहुत कुछ ऐसे ही हैं। वे एक महान् तत्वज्ञ और आध्यात्मिक व्यक्ति थे और उनके विचार प्राज भी अनेक व्यक्तियों को स्वीकार्य हैं। - "दिगम्बरों ने, "डॉ. दासगुप्ता कहता है कि, श्वेताम्बरों से बहुत प्राचीन काल में ही पृथक होकर अपने. विशेप धार्मिक क्रिया काण्ड रच लिये और अपना पथक धार्मिक और साहित्यक इतिहास भी बना लिया हालांकि प्रमुख सिद्धान्त के विषय में दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं दीखता है ।" तात्विक दृष्टि से दोनों सम्प्रदाएं इस प्रकार परस्पर विशेष भिन्न नहीं है । जो भी अन्तर उनमें हैं वह सब व्यापारिक बातों का हैं और विल्सन ठीक ही कहता है कि “उनका पारस्परिक विद्वष जमा कि सामान्यतः होता है, उसकी उत्पत्ति के मूल की अपेक्षा तीव्रता में प्रति ही असन्तुलित है।"3 जैनसंघ के इस दुसरे पंथभेद को यही समाप्त कर अब हम श्वेताम्बर जैनों के प्रमूर्ति पूजक भेद का भी विचार कर लें जिन्हें आज कल दिया अथवा स्थानकवासी कहा जाता है। जैनधर्म के इतिहास में यह पंथभेद बहुत ही पीछे से हमा और यह कहने में भी कुछ आपत्ति नहीं है कि भारतवर्ष के धार्मिक मानस पर मुसलमा की सीधा प्रभाव ही वह कहा जा सकता है। श्रीमती स्टीवन्सन कहती हैं कि "मुसलमान विजय का एक अोर तो यह प्रभाव हुआ कि मूर्तिमंजकों के विरोध में अनेक जैन अपने मूर्तिपूजक जैन साथियों के अत्यन्त निकट प्रा गए तो दूसरी ओर यह भी हुआ कि उसने कुछ को मूर्तिपूजा से बिलकुल चलित भी कर दिया। कोई भी पोर्वात्य अपने पौर्वीय बन्धु द्वारा मूर्तिपूजा विरोधी प्रचार का चीत्कार इसको औचित्य का मन में संदेह जगाए बिना सुन ही नहीं सकता है। यह स्वाभाविक ही था कि गुजरात के प्रमुख नगर अहमदाबाद में जो कि उस समय मुसलमानी प्रभाव में अत्याधिक था, ही इस शंका के पहले पहल चिन्ह हमें दिखलाई दिए । लगभग ई. 1452 में प्रमूर्तिपूजक प्रथम जैन सम्प्रदाय याने लौका सम्प्रदाय का उद्भव हुग्रा और ई. 1653 में फिर दिया या स्थानकवासी सम्प्रदाय अस्तित्व में आया । यह एक आश्चर्य की ही बात है कि भारत की यह प्रवृत्ति योरप की ल्यूथर और पवित्रपंथी ईसाई सम्प्रदायों की ही समकालिक है।"4 - जैनसंघ के इस सम्प्रदाय के विषय में अधिक कहने की यहां अावश्यकता नहीं है क्योंकि यह हमारे निर्दिष्ट काल से बहुत ही बाद का है। परन्तु जैनसंघ में आज पाए जाने वाले भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि दिगम्बर सम्प्रदाय चार उपसम्प्रदायों में आज विभक्त है और श्वेताम्बर मूर्तिपूजक 84 गच्छों में एबम् स्थानकवासी 11 टोलों में। ईसवी दसवीं सदी के पूर्व इनमें से किसी भी विभाग का जन्म 1. विवादसबंन्धीनि वहनि स्थलानि तु अप्रयोजनायमानान्येव तयोः । -रायचन्दजी, भगवतीसूत्र, जिनागम प्रकाश सभा, प्रस्तावना, पृ. 6 । 2. दासगुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 170 । 3. विल्सन, वही, भाग 1, पृ. 340 4. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 19 । 5. दिगम्बरः पुनर्यान्यलिंगा: पाणिपात्राश्च । ते चतुर्धा, काष्ठासंध ___-मूलसंघ-माथुरसंघ-गोप्यसंघमेदात-प्रेमी, वही, पृ. 44 । 6. देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 13 । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 69 नहीं हुआ था और स्थानकवासी जैनों को छोड़कर अनेक भेद तो आज लोप भी हो गए हैं। यदि आज भी कुछ अस्तित्व में होंगे तो उनमें श्वेताम्बर दिगम्बर विरोध जैसा परस्पर स्पष्ट तिरस्कार या कटुता कदाचित होगी। 每 यहां यह कह देना भी आवश्यक है कि महावीर के समय से कहो या उसके पहले से ही मतभेद का यह स्वर या पागलपन जैनधर्म की यह विशेषता ही प्रतीत होती है। भारतवर्ष के अन्य धर्मों में ऐसा पागलपन है या नहीं कुछ भी नहीं कह सकता हूँ परन्तु इतना तो स्पष्ट ही मालूम होता है कि उनमें मनभेद जैनों की जितनी सीमा तक कभी नहीं पहुंचा होगा। 2000 वर्ष से अधिक के इस अन्तर काल में जनसंघ के जीवन में जो मत भेद उत्पन्न हुए वे अधिकांश निम्न कारणों से ही उद्भूत हुए लगते हैं। इनमें से कितने ही तो महावीर के कथन की गैरसमझ या विसंवाद से हुए हैं। दूसरे इस कारण से कि जैनधर्म ग्रहण करनेवाले जिम देश और जाति में उत्पन्न हुए थे वे इनकी विशिष्ट परिस्थितियों और सयांगों को नहीं छोड़ पाए थे, धौर तीसरे इससे कि जैन साधुयों के मुखी या खास खास माचायों की मान्यता पृथक पृथक होती जा रही थी एवम् जैन माधुसंघों का पारस्परिक मन भेद के कारण बढ गया था । 2 में खड़ा है यही 'जैनधर्म ग्राज पर्यन्त जीवित धर्म रूप भारतवर्ष से अदृश्य ही हो गया है ।" इन सब मतभेदों और सम्प्रदायों के होते हुए भी, एक विलक्षण बात है. जब कि बौद्धधर्म अपनी जन्मभूमि सरसरी दृष्टि से देखने पर यह एक विचित्र सा ही भासता है. किन्तु श्री ईलियट कहता है कि 'इसकी शक्ति और जीवित रहना उसके गृहस्थ धनुयायों की प्रीति सम्पादन करने और उन्हें एक रूप में संगठित करने की शक्ति के केन्द्रित है। पक्षान्तर में बौद्धों में भिक्षुसंघ ही वस्तुतः बौद्धधर्म माना जाने लगा था और जन समुदाय (जैसा की चीन और जापान में वस्तुतः हुआ हैं वैसे ही ) अन्य धार्मिक संस् के समान इस भिक्षुसंघ को अपने से बाहर की वस्तु मान भिक्षुओं को पूज्य पुरुषों की भांति पूजने लग गया था। मठों और विहारों में गन्दगी फैलने लगी या उनका नाश किया गया तो जिवित बौद्धधर्म जैसा कुछ भी शेष नहीं रहा । परन्तु जैनों के परिभ्रमण करने वाले साधुत्रों ने धर्म की सारी सत्ता अपने में इतनी केन्द्रित नहीं की थी और उनके अनुशासन की कठोरता से उनकी संख्या भी रुदा ही परिमित रही थी । गृहस्थ धनवान थे और एक संघ बना कर रहते थे और अत्याचार उन्हें सदा उत्साहवर्धक रहता था । परिणाम यह हुआ कि जैन जाति यहूदियों, पारसियों, क्वेकरों आदि T फिर जब बौद्धधर्म 1. इन सब के उदाहरण स्वरूप हम पहला सात निन्हवों और दिगम्बर श्वेताम्बर भेद को स्थान देंगे जिनका कि विचार हम कर ही चुके हैं। दूसरा उदाहरण हम प्रोसवाल, श्रीमाल का भेद का देंगे जिसमें कि श्रीमाल, श्रीमाल या भिल्लमाल (आधुनिक भीमल, मारवाड़ के धुर दक्षिण का) गांव के नाम से पाते हैं ।' (एपी. इण्डि., पुस्त. 2, पृ. 41), और तीसरा उदाहरण हैं श्वेताम्बरो के 84 गच्छ भेद जिनमें से उपा खरतर और अंचल गच्छ ही विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें से खरतरगच्छ जिन परिस्थितियों में उद्भव हुआ वे इस प्रकार कही जाती है जिनदत्त एक अभिमानी व्यक्ति थे। उनका यह अभिमान उनके दिए तुटक उत्तरों में स्पष्ट दीखता है जिनका कि सुमतिगरि ने उल्लेख किया है। इसीलिए वह वरतर कहलाने लगे थे व्यंग को सम्मानसूचक समझ खुशी से स्वीकार कर लिया हीरालाल हंसराज, वही भाग 2, 2. ईलियट वही, पृ. 122 1 परन्तु उनने इस पं. 19-20 3. डा. हरनोनी निःसंदेह यह ठीक ही कहते हैं कि जैन श्रावकों यह उत्तम संगठन जैनसंघ के बड़े महत्व का रहा होगा, यही नहीं अपितु भारतवर्ष में जैनधर्म के अपनी स्थिति बनाए कारण मी रहा होगा जब कि इसको अत्यन्त प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी बौद्धधमं ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया बिलकुल झाड़पुंछ ही गया था। शापेंटियर केहि मा. 1. पृ. 168 169 1 समस्त जीवन में रखने का प्रधान द्वारा देश से Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 701 जातियों की ही भांति हो गई कि जिनमें गृहस्थों का श्रीमंतपन, थोड़ा या बहत क्रियाकाण्डपन और अत्याचारसहनशीलता आदि समान लक्षरण हैं।'' दूसरे विद्वानों की भी ऐसी ही मान्यता है । परन्तु जब हम जैनधर्म को टिकाए रखने वाली सब परिस्थितियों का विचार करते हैं तो अनेक अन्य कारणों की उपेक्षा भी हम नहीं कर सकते हैं। यदि साधारण समुदाय के लिए जैनधर्म मुक्त करने से यह टिक मका हो तो साथ ही हमें यह भी कहना होगा कि बौद्धधर्म की अपेक्षा संकुचित प्रचार कार्य और पूजा के मुख्य केन्द्रों के लिए चुने गए एकांत स्थान भी इस स्थायित्व के कारण हैं। इससे मुसलमान अत्याचारों और ब्राह्मणों के पुनरुत्थान के दबाब में भी जैनधर्म सही सलामत टिका रह सका था जब कि बौद्ध धर्म हिन्दूधर्म के दबाव के नीचे भारतवर्ष में बिलकूल ही दब गया था। "जैनों को नास्तिक मानते हुए भी ब्राह्मणों ने उनके प्रति दिखाई सहिष्णुता से उस समय अनेक बोद्धों ने जैनसम्प्रदाय में पाश्रय ले लिया ।" इस प्रकार जहां तक मुसलमानों की सत्ता ने "राष्ट्र की धार्मिक, राजसिक, और सामाजिक सत्ता को तोड़ नहीं दिया और छोटी-छोटी जातियों, समाजों तथा धर्मों के लिए सर्वत्र अनुदारता दिखाई वहां तक जैनों ने अपनी हस्ति टिकाए ही रखी थी। डॉ. शार्पटियर और डॉ. यकोबी के अनुसार भारत में बहत से सम्प्रदाय नष्ट हो गए थे तब जैनधर्म के टिके रहने का कारण महावीर के समय से चले पाते सिद्धान्तों से दृढ़ता के साथ चिपके रहने की उत्कट लग्न या 1. ईलियट, वही, पृ. 122 । बौद्धों में भी उपासकों और भिक्षुत्रों का संगठन ऐसा ही था, परन्तु जैसा कि स्मिथ कहता है, उपासकों के संघ की अपेक्षा उनने अधिकांशतया उपसम्पदा प्राप्त भिक्षु-संघ पर भरोसा किया था। देखो स्मिथ, पाक्सफर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, १.52 । जैनों में दोनों पक्षों के सम्बन्धी अधिक संतुलित थे और इसलिए उनका सामाजिक संतुलन स्थिर था । देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 67; मैकडोन्येल, इण्डियाज पास्ट, पृ. 70। 2. डॉ. हरनोली का इस विषय पर बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी में 1898 में दिए म भापति-पद के भाषण में विवेचन अद्वितीय रूप से प्रकाशवान था क्योंकि उसमें जैनों के संगठन में श्रावकों को प्रारम्भ से ही उपादान मूलक भाग का स्थान प्राप्त, इस बात पर उनने पूरा-पूरा बल दिया है । बौद्धसंघ में, पक्षान्तर में, उपासकवर्ग को कोई भी प्रौपचारिक मान्यता नहीं थी। इस प्रकार "जैन साधारण के सांसारिक जीवन में विस्तृत स्तर के साथ सम्बन्ध के अभाव में बौद्धधर्म बारहवीं और तेरहवीं सदी में हुए उनके भिक्षु-बिहारों पर के मुसलमानों के घोर अाक्रमणों के सामने टिके रहने में अशक्त ही नहीं रहा, अपितु देश की भूमि से लोप ही हो गया ।" श्रीमती स्टीवन्सन, वही. प्रस्ता. प. 12 । देखो शाटियर, वही, भाग 1, पृ. 168-169; हरनोली, बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, विवरण-पत्रिका, 1898, पृ. 53 । 3. "...बौद्धों की अपेक्षा न्यून साहसी परन्तु अधिक परिचितनशील होने और उसकी भी प्रारम्भिक अवस्था की सी मक्रिय प्रचारवृत्ति नहीं रख कर जैनधर्म ने अपेक्षाकृत तंग परिसीमों में शांत जीवन बिताने में सन्तुष्ठ रहा और इसीलिए आज भी पश्चिमी और दक्षिणी भारत न केवल सम्पन्न मुनि सस्था ही उसकी दीख रही है अपितु श्रावक भी संख्या में कम होते हुए भी प्रभावशाली धनी हैं । श्रीमती स्टीवन्सन, वही, प्रस्तावना पृ.12 । 'अप्रतिरोधक शिखर पर नहीं पहुंच कर. परन्तु साथ ही प्रतिस्पर्धी बौद्ध धर्म की भांति अपनी जन्मभूमि मे से सम्पूर्णतया विलोप भी नहीं हया है । शाटियर. वही, पृ. 169-170 । 4. देखो कुक, एंरिए, भाग 2, पृ. 496। 5. टीले. वही, पृ. 141। 6. बार्थ, वही, पृ. 152 । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्परता ही मालूम होती है। “छोटी सी जनजाति की अपने मूल सिद्धान्तों और संस्थानों को चिपके रहने की ग्राग्रहपूर्ण अनुदारता ही बहुत करके घोर अत्याचारों के सामने उसे टिकाए रखने का मुख्य कारण है क्योंकि बहुत समय पूर्व, जैसा कि डॉ. याकोबी कहता है, याने ई. पूर्व लगभग 300 में भद्रबाहु के समय में प्रथम पंथभेद हुआ तब से ही जैनधर्म के मुख्य सिद्धान्त बहुत कुछ अपवर्तित ही रहे हैं । इसके सिवा यद्यपि साधुग्रों और गृहस्थों के लिए कितने ही सामान्य अनुशासन नियम जो कि शास्त्र में देखने में पाते हैं, अनुपयोगी और विस्मृत हो गए हों फिर भी ऐना निशंक कहा जा सकता है कि दो हजार वर्ष पूर्व जो धार्मिक जीवन था लगभग वहीं ग्राज भी वैसा ही दीख पड़ता है । यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि फेरफारों का एकदम अस्वीकार ही जैनधर्म के सुदृढ़ अस्तित्व का कारण हो गया है।"। वह अनुदार स्वभाव जैन समाज के लिए जैसी कि आज भी उसकी स्थिति है, लाभदायक है या नहीं, यह भारी शंकास्पद बात है । अाज के समकालिक धर्मों के अध्येता को वह विपरीत ही लगता होगा । स्थिति स्थापकता में असहिष्णुता, अस्थिरता और धार्मिक दंभ के चिन्ह ही उसे दीख पड़ेंगे । उत्सर्ग-लेखों और अन्य प्रमारणों से सर चार्ल्स ईलियट कहता है कि "इन उल्लेखों से हम जानते हैं कि जैन जाति बहुत से उपविभागों पौर सम्प्रदायों की बनी है. पर इससे हमें यह विचार कर लेना नहीं चाहिए कि भिन्न-भिन्न गुरू एक दूसरे के प्रति वैमस्य रखते थे । परन्तु उनका अस्तित्व यह प्रमाणित करता है कि उनकी प्रवृत्ति और व्याख्या की स्वतन्त्रता ही ग्राज के अनेक उपसम्प्रदायों का कारण होंगी।" परन्तु एक बात बिलकुल स्पष्ट है और वह यह कि मारी जैन समाज के मामान्य हित का विचार किए बिना ये सब भिन्न भिन्न गुरू अपनी ही हांकते रहे थे । कर्नल टाड कहता है कि 'तपागच्छ और खरतरगच्छ ने प्राचीन कितनी ही पुस्तकों को नाश करके मुसलमानों से भी अधिक हानि पहुंचाई है।' यही बात जैनों के श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के विषय में भी कही जा सकती है । भूत काल में ही नहीं अपितु अाज भी इनकी एक दूसरे के प्रति प्रवृत्तियां महावीर के अनुयायी को शोभा दे ऐसी नहीं हैं । स्थिति यह है कि कोई भी जाति के प्रति गैरसमझ उत्पन्न किए बिना यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि इस प्रकार का विरोधी वातावरण और पारस्परिक विवाद जैन समाज में कुछ अधिक काल तक चलता रहेगा तो एक समय ऐसा पा जाएगा कि जब जन जाति अपने बन्धु बौद्धधर्म की भांति इस देश से नाश हो जाएगी। 1. शार्पटियर, वही, पृ. 169 । देखो याकोबी, जेडडीएमजी, संख्या 38, पृ. 17 अादि । 2. ईलियट, वही, पृ. ।।3। 3. टाड, ट्रेवल्स इन व्यस्टर्न इण्डिया, पृ. 284 । कर्नल टाड की यह बात मानी जा सके ऐमी नहीं है क्योंकि इसके लिए न तो उतने ही कोई प्रमाण दिया है और न ऐसा प्रमाण कहीं कोई उपलब्ध ही है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय राजवंशों मे जैनधर्म ई. पूर्व 800--200 पिछले अध्याय में हमने जैनधर्म के विषय में विचार किया था। पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक पुरुप थे श्रीर महावीर का अपने समय के कितने ही प्रमुख राज-कुटुम्बों के साथ रक्त-सम्बन्ध था, ये दोनों ही बात अत्यन्त महत्व की हैं क्योंकि हमें अब यह देखना है कि किन संयोगों में 'जनधर्म अमुक राज्यों का राज्यधर्म वना कितने राजानों ने उसे अपनाया या उसे उत्तेजन दिया एवम् अपनी प्रजा को भी अपने ही माय जैनधर्मी बना दिया।। हमारा यह प्रयत्न सिवा इ वे और कुछ भी नहीं है कि हम उत्तर-भारत के जैनों का इतिहास को देश के उस विमाग का सब वैध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सहित प्रारोप करें। या यों कहिए कि इस अध्याय का ना उस काल के राजवंशों का उत्तर-भारत के जैनों के साथ क्या सम्बन्ध रहा था उसका तादृश चित्र खींचना है। पहले पार्श्वनाथ के समय का विचार करते हुए हम देखते हैं कि ऐसा एक भी उपयोगी साधन उपलब्ध नहीं है कि जिस पर हम कुछ भरोसा कर सकते हैं। 'उनके नाम के साथ यद्यपि साहित्य का बहुत अधिक भाग संबद्ध है, फिर भी पार्श्वनाथ के जीवन और धर्मकथन सम्बन्धी हमारी जानकारी बहुत ही परिमित है। जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, उस सब साहित्य में ऐतिहासिक वस्तु यदि कुछ है तो बस इतनी ही कि वे ईठाकु वंश के वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे और बंगाल (माजकल बिहार) में स्थित समेत शिखर पहाड़ी पर निर्वाग पाप्त हुए थे। उनका सांसारिक सम्बन्ध राजा प्रसेनजित के राजकुल के साथ हुआ था जिसका पिता पृथ्वीपति रवमन था और जो कुशस्थल में राज्य करता था एवम् जीवन के अन्तिम दिनों में जैन साधु बन गया था। पभावती नामक उसकी पुत्री के साथ पार्श्वनाथ का विवाह हुअा था।' 1. स्मिथ, वही, पृ. 55 1 2. शापेंटियर, वही, पृ. 154 । 3. ...अनुगंगं नगर्यस्ति वाराणस्यभिधानतः ।। तस्यामिद्वाकुवंशो भूदश्वसेनो महीपतिः ।। हेमचन्द्र, त्रिपष्ठि-इलाका, पर्व 9, श्लो. 8, 14, पृ. 195। 4. पुरं कुशस्थलं नाम...। तित्रासीनरवर्मेति...... पृथिवीपतिः ।। जैनधर्मरतो नित्यं...। उपादत्त परिव्रज्या सुसाधुगुरुसन्निधौ ।।...राज्य भून्न रवर्मणः। सूनुः प्रसेनजिन्नाम...।। तस्य प्रभावती नाम । ...कन्यका ।।... पावो.......उदुवाह प्रभावतीम् ।। हेमचन्द्र, वही, पर्व 9, श्लो. 58,59,61. 62, 68, 69, 210.प. 198, 2031 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [73 ये तथ्य ऐतिहासिक रष्टि से सत्य तत्व-माने जा सकते हैं या नहीं, यह कहना कठिन है। दुर्भाग्य यह है कि इस सब के लिए हम उन साधनों का ही प्राधार ले सकते हैं कि जिन्हें जैन प्रस्तुत करते हैं। उनके समर्थन के अन्य । कोई ऐतिहासिक साधन या उल्लेख ऐसे मिलते ही नहीं हैं कि जिनका विचार किया जा सके । परन्तु यह कठिनाई तो महान् अलेक्जेण्डर के पूर्व के ही नहीं, अपितु उस के परवर्ती समय के मारत के मारे ही इतिहास के लिए भी है । मौभाग्य से , जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ईसवीयुग पूर्व को जैनधर्म शास्त्रीय और अन्य जैन साहित्य को हमारे युग के प्रमुख पण्डितों और ऐतिहासज्ञों ने जो प्रतिष्ठा दी और उसका साहित्यक मूल्यांकन किया है, उससे यह कहना जरा भी अतिश्योक्तिक नहीं है कि बौद्ध एवं हिन्दू इतिवृत्तों की भांति ही जैन इतिवृत्त भी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं और इसलिए उन्हें भी यथोचित विचार या आदर मिलना चाहिए। डॉ. याकोबी के शब्दों में कहें तो "जैनधर्म की उत्पति और विकास के विषय में ग्राज भी कितने ही विद्वान सशंकित सावधानी रखना ही सुरक्षित देखते हैं, हालांकि समस्त प्रश्न की वर्तमान स्थिति की दृष्टि से इसका समुचित कारण नहीं है, क्योंकि प्रचुर और प्राचीन साहित्य हमें उपलब्ध हो गया जो जैनधर्म के प्राचीन इतिहास की प्रचुर सामग्री उन लोगों को प्रदान करता है कि जो उनसे लाभ उठाने के इच्छुक हैं। इतना ही नहीं अपितु यह सामग्री ऐसी भी नहीं है कि हम उसे अविश्वास्त कहें। हम जानते हैं कि जनों के पवित्र धर्मग्रन्थ प्राचीन हैं, स्पष्टतः उस संस्कृत साहित्य से भी प्राचीन जिसे ग्रार्ष कहने के अभ्यस्त हो गए हैं। प्राचीनता में ये धर्मग्रन्य उत्तय-बौद्धों के प्राचीनतम धर्मग्रन्थों से भी तुलनीय हैं । जब कि ये बौद्धधर्म ग्रन्थ बुद्ध और बौद्धों के इतिहास की सामग्री के रूप में वारंवार प्रयुक्त किए जा चुके हैं, हम कोई भी कारण नहीं देखते कि फिर जैनों के ये पवित्र ग्रन्थ उनके इतिहास के संकलन की प्रमाणपूर्ण सामग्री के रूप में अविश्वस्त माने जाएं। यदि वे विरोधी वर्णनों से भरे हैं अथवा उनमें दी गई तिथियां परस्पर विरोधी परिणामों पर हमें पहुंचाती हैं, तो वैसी सामग्री पर आधारित सब सिद्धान्तों को शंका से देखना हमारे लिए उचित कहा जा सकता है । परन्तु जैन साहित्य इस विषय में बौद्ध साहित्य से, विशेषतया उत्तरीय बौद्धसाहित्य से कुछ भी भिन्न नहीं हैं।" इस प्रकार हमारे पास जो साधन है उनसे काशी अथवा वाराणसी के राजा अश्वसेन और कुशस्थल का राजा प्रसेनजित अथवा उसका पिता नरवर्मन को ऐतिहासिक व्यक्ति रूप मानना हमारे लिए यद्यपि कठिस है फिर भी अन्य अनेक ऐतिहासिक एवम् भौगोलिक घटनाएं ऐसी हैं कि जिनसे हम ऐसे अनेक अनुमान निक! त सकते हैं फिर जिनके पीछे कुछ ऐतिहासिक महत्व निहित हो सकता है । 1. याकोबी, सेवुई. पुस्त. 22, प्रस्ता. पृ. 9 । "हम भावो शोधकों के लिए इसका विवरण खोजने का काम छोड़ दें. परन्तु मैने उस सन्देह को अवश्य ही निर्मल कर दिया होगा कि जो कुछ पण्डितों को है कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र धर्म नहीं है और उसके धर्मशास्त्र उसके प्राचीन इतिहाप के प्रगटीकरण में विश्वस्त अभिलेख नहीं हैं।" -वही, प्रस्ता. पृ. 47 । देखो शाटियर, उत्तराध्ययनसूत्र, प्रस्ता.. पृ. 25 । 2. "अश्वसेन नाम के किसी भी व्यक्ति के होने का ब्राह्मगा उल्लेखों नहीं जाना जाता है । इस नाम का एक मात्र व्यक्ति जिसका वीरगाथा में उल्लेख है, नाग राजा था और उसे हम कि पी भी प्रकार से जैन तीर्थकर पार्व के पिता में सम्बन्धित नहीं कर सकते हैं।" -शाटियर, कहिइं, भाग 1, पृ. 154 । प्रसंगवश, यहां यह भी कह दें कि पार्श्वनाथ का सम्बन्ध जीवन भर नागों से रहा था और ग्राज भी इस सन्त का लांछन या चिन्ह नाग का फरण-छत्र है। देखो श्रीमती स्टीवन्सनं, वही, पृ. 48-49 । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] 3 हेमचन्द्र के कोश के आधार सेना ने कुशस्थल और कनौज याने कान्यकुब्ज को एक ही बताय है । " इसका समर्थन धन्य विद्वान भी करते हैं।" फिर डॉ. राय चौधरी कहते हैं कि प्रसिद्ध नगर कान्यकु अथवा कन्नौज की स्थापना" के साथ पांचाल भी सम्बन्धित हैं । फिर पांचाल और कासी के राज्य पास-पास ही ये इसको जैन और बौद्ध साहित्य भी समर्थन करता है बौद्ध संगुत्तरनिकाय से घोर जैन भगवतीसूत्र से मालूम होता है कि इस समय प्रर्थात ई. पूर्व 8वीं सदी में सौलह महाजनपद कहे जाने वाले बहुत विस्तीर्गा और शक्ति सम्पन्न सौलह राज्य थे। और उनमें कासी का उल्लेख यद्यपि दोनों में ही समान रूप से हैं परन्तु पांचाल का उल्लेख तो सिर्फ पहले में ही है ।" पांचाल के इतिहास का विचार करने पर हम देखते हैं कि यह स्थूल रूप से रोहिलखण खण्ड और मध्य दोघाव के कुछ अंग से मिलता जुलता है। "महाभारत, जातक, धौर दिव्यावदान में इस राज्य को उत्तरी और दक्षिणी ऐसे दो विभागों में विभक्त बताया है। भागीरथी (गंगा) इन्हें विभक्त करती हो गई है। महाकाव्यानुसार उत्तर-पांचाल की राजधानी पहिन्छन या छत्रावती बरेली प्रान्त के एमोनाला निकटस्थ हाल का रामनगर) थी जब कि दक्षिण - पांचाल की कौपिव्य श्री श्रीर गंगा से चम्बल तक उसका विस्तार माना जाता था ।" पांचाल के इस इतिह को सूचना के लिए जब जंनसूत्रों को सोजते हैं तो हमें एक या दूसरी प्रकार से सम्बन्ध का पता लगता है । उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मदत्त नाम के पांचाल के राजा का उल्लेख आता है। इसका कांपिल्य में लगी की कोख से जन्म हुया था ब्रह्मदत्त सार्वमोम याने चक्रवती राजा था। पूर्व जन्म के अपने भाई पिस से वह मिलता है जो इस जन्म में जैन धमण हो गया था ब्रह्मदत्त भोगविलाम में इतना तल्लीन हो गया था कि उसके भाई श्रमरत वित्त का उपदेश उसे कुछ भी प्रभावित नहीं कर सका और अन्त में वह नरक में गया । " 1. दे, वही, पृ. 88, 111 । 4. कान्यकुब्ज को गाधिपुर, महोदय बौर कुणस्थल भी कहा जाता था ।' कनियम, एंजेंट ज्योग्राफी ग्राफ इण्डिया (मजुमदार सम्पादित ) पु. 707 1 2. राय चौधरी पोलिटिकल हिस्ट्री ग्रॉफ एंसेंट इण्डिया पृ. 86 थी।" स्मिथ, अली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, पृ. 391 । कनोज... पांचाल राज्य की राजधानी यतः मुख्यतः 3. राय चौधरी, वही, पृ. 59.60 4. राय चौधरी, वही, पृ 60 6. रायचौधरी, वही, पृ. 85 । देखो स्मिथ, वही, पृ. 391-392; दे, वही, पृ. 145 भी । देलो हिप डेविड्स केहि भाग 1, पृ. 172 1 5. वही पृ. 85 । देखो स्मिथ, वही, पृ. 391, 392; दे, वही, पृ. 145 1 7. कांपिल्य के पूर्व इतिहास के विषय में कुछ भी जानकारी नहीं है । कदाचित् यह कांपिल्य फर्रुकाबाद जिले का प्राधुनिक कंपिल ही हो। स्मिथ वही, पृ. 392 | | ।... 8. चुलगीए वम्मदत्तो...।। कम्पिल्ले सम्मूझो चित्तो...... वम्मं सोऊरण पव्वइओ || पंचालराया विय बम्मदत्तो ...तस्य वयणं प्रकाउ म नरए पविट्टो उत्तराध्ययनसूत्र अध्याय 13, गाथा 1, 2, 34 देखो याकोबी, सेबुई, पुस्त. 45, पृ. 59-61। त्रि । चित्त) और सम्मत ( ब्रह्मदत्त) की कथा और जो जो उन पर बीती, उसका ब्राह्मण, जैन और बौद्धों में समान रूप से वर्णन है। रायचौधरी वही, पृ. 86 शार्पेटियर, उत्तराध्ययनसूत्र, भाग 2, पृ. 328-331 1 पर्न जन्मों में Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [75 उसी सत्र में काापल्य सम्बन्धा दूसरा उल्लख भा हम प्राप्त होता है यार यह कापिल्य के राजा संजय का है जिमने 'राज्य त्याग कर पूज्य माधू गर्दभिल्ल में जैनदीक्षा स्वीकार कर ली थी। इससे मा सम्भव लगता है कि अति विस्तीर्ग और प्रभावशाली मालह राज्यों में के दो' कामी और पांचाल विवाह सम्बन्ध से जुड़ गए थे । फिर जब हम पार्जीटर की तैयार की राजबंशावलियों में दक्षिण-पंचाल के राजा रूप मे किमी मनजिन का नाम पाते हैं तो वह बात नि संशय मत्य हो लगती है और नाम में थोड़ा मा सूक्ष्म फेर होने से इस मेनस्ति को हम ऐतिहामिक दृष्टि में प्रसेनजित विना किमी कठिनाई के स्वीकार कर' सकते हैं । एक मात्र और अति उपयोगी अनुमान जो इस पर से निकाला जा सकता है वह यह है कि जैनधर्ममहावीरकाल की अपेक्षा पार्श्वनाथ-काल में कम राज्यायय प्राप्त नहीं था। उसके अनुगामी की अपेक्षा उनके प्रभाव का विस्तार-क्षेत्र किचिन्मात्र न्युन नहीं था । पार्श्वनाथ काशी के राजवंश के पुरुष और पंचाल राजा के जमाता " और उनका निर्वाण बिहार की पारमनाथ पहाड़ी पर हुया था।" ऐसे राजवंशों का पृउबल प्राप्त होने के कारण यह स्वाभाविक है कि उनका समकालिक राज्यवंशा और अपने ही राज्य की प्रजा पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा होगा। मुत्रकृतांग एवम् अन्य जैनागमों से हम जान सकते हैं कि महावीर के समय में भी मगध के पास पास में पाश्र्वानुयायो थे। जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, स्वयम् महावोर का अपना कुटुम्ब भी पाश्र्वनाथ का धर्म पालता 1. कम्पिले नयरे राया...। नामेण संजये...।। संजो चइउ र निक्वन्ता जिगासासणे । गद्धमालिस्स भगवग्रो अगागारस्स अन्ति ए। उत्तराध्ययनम्त्र, अध्याय 18, गाया ।, 19। देखो याकोबी. वही, पृ. 80, 82; रायचौधरी, वही और वही स्थान । 2. 'जैन भी कामी की महानता की साक्षी देते हैं और वाराणसी के राजा अश्वसेन को उन पार्श्वनाथ का पिता लिखते हैं कि जिनका निर्वाण महावीर से 250 वर्ष पूर्व हया कहा जाता है अर्थात् ई. पूर्व 777 में वही. प्र. 61 । महावीर का निर्वाण ई. पूर्व 480-467 मानें तो पार्श्व के निर्वाण की तिथि ई. पूर्व 730-717 ग्राती है। 3. देखो पार्जीटय, शेंट इग्धियन हिस्टोरिकल ट्रेडीशन, पृ. 146; प्रधान, क्रोनोलोजी ग्राफ, जेंट इंडिया प. 10314. 'दुसरे सम्बन्धों में पहला अश छोड़ दिया गया है...भागवत में प्रमजन को अयोध्या का मेनजित कहा है ।' पार्जीटर, वही, पृ. 127 । 5. मजुमदार यहां किसी भ्रम में पड़े हए लगते हैं। उनके मत से पावं उपलब्ध के राजा प्रमेन जिन के जामना थे और इसप्रकार वे दो राजवंश याने कामी पोर कौशल को रक्तसम्बन्ध में जोड़ देते हैं। परन्तु मेरी सम्मति म उनने महावीर-कालीन प्रसेनजित के माथ इस प्रमेनजित को मिला दिया है जो कि जैनधर्म के महान् गशुनागवंशीय नपति बिंबसार का श्वसुर था। हमने यह पहले ही देख लिया है कि महावीर 72 वर्ष जीवित रहे, थे और पार्श्वनाथ 100 वर्ष तक । देखो मजुमदार, वही, पृ. 495, 551, 552; श्रीमती स्टीवन्सन भी कने ही भ्रम में पड़ी हुई प्रतीत होती है क्योंकि वह कहती है पार्श्वनाथ का विवाह प्रभावती, अयोध्या के राजा प्रमेनजित की पुत्री से हुअा था। श्रीमती स्टीवन्मन, वही, पृ. 48 । 6....उनका निर्वाण बिहार के समेतशिखर पहाड़ पर हुअा था और तभी से वह पारसनाथ पहाड़ी भी कहलाने लगी -वही, पृ. 49 । 7. राजगृह के बाहर, उत्तर-पूर्व दिशा में, नालन्दा नाम का उपनगर था...और यहां किसी घर में पूज्य गोतम स्वामी ठहरे हुए थे। पूज्य संत जिस उद्यान में ठहरे थे, उसी में पेढाल का पुत्र उदक 'निग्रंथ और पापित्य ठहरा हुमा ।... "याकोबी, वही, पृ. 419-420; जि । पासि...तस्स...के कुमार समो...सावत्यि पुरसागए...उत्तराध्ययनसूत्र, अध्या, 23, गाथा 1-3 । देखो याकोबी, वही, प. 118-120 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ] था। यही नहीं अपितु उनके समय के ही पार्श्वनुयायियों के जैनागमों में उल्लेखों से यह प्रमाणित होता है कि उत्तर भारत के बहुत बड़े भाग में तब जैनधर्म खूब ही प्रचार में था हालांकि इसको निश्चित भौगोलिक सीमाएं आज नहीं सींची जा सकती है । ' यह भी पहले कहा जा चुका है कि पार्श्वनाथ के 16000 साधू, 38000 साध्वियां 164000 श्रावक और 327000 श्राविकाओं के अतिरिक्त कितने ही हजार व्रतधारी स्त्रीपुरुष भी अनुयायी थे । * पार्श्वनाथ से महावीर के समय तक के ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान कोई भी तथ्य नहीं मिलते हैं । जैन इतिहास में 250 वर्ष का यह काल एकदम कोरा ही कहा जा सकता है क्योंकि उस काल के न तो कोई ऐतिहासिक अभिलेख और न स्मारक ही ऐसे प्राप्त होते हैं जिन पर इतिहास संकलन के लिए विश्वास किया जा सके। फिर भी इतना तो निश्चित है ही कि इन दोनों तीर्थंकरों के ग्रन्तरिम काल का ऐतिहासिक ग्रवच्छेद भरा जाना सम्भव नहीं होने पर भी बिना किसी शेखम के यह कहा जा सकता है कि इस नमस्त अन्तरिम काल में भी जैनधर्म एक जीवित धर्म रहा था ।" हम यह भी देख आए हैं कि पार्श्व के शिष्यों ने अपना धर्मप्रचार कार्य यथावत चालू रखा था और महावीर एवम् उनके शिष्यों ने ई. पूर्व छठी शती में संस्कारित जैनधर्म के प्रति ग्राकर्षित करने और उस वर्ग के अनेक प्रतिनिधियों का ग्रपने मत में लाने के लिए मिलते रहना पड़ा था । महावीर काल का विचार करते समय ऐसा अनुमान होना स्वाभाविक है कि कुछ स्थिति बच्छी होगी । परन्तु यहां भी जैन और बुद्ध धर्मशास्त्रों को एवम् कुछ ग्रन्य दन्तकथाओंों को छोड़कर ऐसा कुछ भी नहीं मिलता है जिस पर हम विश्वास कर सकें। " यह हमारा सौभाग्य ही है कि जैनशास्त्रों में सत्य तथ्य और घटनाएं सुरक्षित मिलती हैं जो छुटीछवाई और प्रशांश में होते हुए भी इस काल के जैन इतिहास का सजीव चित्र हमारे नेत्रों के समक्ष प्रस्तुत करने को पर्याप्त हैं। पार्श्व की भांति ही महावीर भी उस काल के राजवंशों से रक्त सम्बन्ध सम्बन्धित थे। उनके पिता सिद्धार्थ स्वयम् बड़े उमराव के घर ज्ञातृ क्षत्रिय वंश के थे। उनका मुख्य निवास स्थान कुण्ठपुर या कुण्डग्राम (कुण्डगाम * या पर जैनशास्त्रों में जैसा वर्शन उनका किया हुआ मिलता है। | 1. हम नहीं कह सकते कि मजुमदार किन ग्राधारों से पार्श्व के समय के जैनधर्म की सीमाओं की भौगोलिकता निश्चित की है। उसका जैनधर्म" विद्वान लेखक कहता है कि बंगाल मे गुजरात तक फैला हुआ था। मालदह और बोगड़ा जिला उसके धर्म के मुख्य केन्द्र थे उसके धर्म में पाने वाले अधिकांशतया हिन्दुयों के निम्न वर्ग और बनाये लोग थे... राजपूताने में उसके धनुयायी बड़े शक्तिशाली थे..." - मजुमदार वही और वही स्थान । 2. देखो याकोबी, संबुई, पुस्त. 22, पृ. 274 । एवं विहरतो भर्तुः सहस्राः पोडशपंयः । अष्टाविण साध्यानां तु महात्मानाम् ॥... आवका लक्ष्मेक चतुः पण्ठिहस्रयुक । धाविका 315, पृ. 219 | देखो कल्पसूत्र, त्रिलक्षी सहस्र सप्तविंशतिः ।... - हेमचन्द्र. वही, श्लो. 312, 314 सुवोधिका टीकासू 161-164 पू. 130-131 1 3. देखी हरनोली उसदस्य भाग 2, पृ. 6 टिपण 8 1 4 भारत का प्राचीन इतिहास याज भी हमारे पुरखों के उन नक्शों के समान ही है जिनमें 'भगोलवेत्तानगरों के देते थे... हालांकि जैनों ने अपनी दृष्टि ही से ऐतिहासिक श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 7 1 प्रभाव के कारण पथहीन बनों में हाथी चित्रित कर के ज्ञात का तथ्यों से मेल बैठाना बड़ा ही कठिन है 5. मुजफ्फरपुर ( तिरहुत) जिले की वैशाली (याधुनिक वसा का ही यह दूसरा नाम है। वस्तुतः (कुण्डग्राम) जिसे आज कल वसुकुण्ड कहते हैं, प्राचीन वैशाली नगर का जो कि तीन भाग याने वैशाली(वसाढ़) कुण्डपुर (वसुकुण्ड ) पोरगा (वाणिया का था, एक भाग था देखो, वही, पृ. 107 वाणियगाम ! I Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [77 उससे लगता है कि वह अपने कुल का नायक और किसी राज्य का चाहे वह छोटा हो या बड़ा, राजा था ।" जैसा कि हम आगे देखेंगे वह एक ऐसे प्रजासत्ताक राज्य का अधिकारी ही होगा कि जिसका मुख्य स्थान कुण्डपुर होगा । परन्तु तात्कालिक समाज में जो स्थान उसे प्राप्त था वह एक स्वतन्त्र राज्य के सामान्य अधिकारी की अपेक्षा विशिष्ट अर्थात् स्वतन्त्र राज्यकर्ता के रूप में ही वह जीवन विताता होगा ।" सोलह महाजनपदों का विचार करते हुए हमें ज्ञात होता है कि वज्जियों का राज्य जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म को मानता था। डा. रायचीयरी कहता है कि प्रो. हिस डेविस और कनियम के आधार पर परिजवी का राज्य ग्राठ सहकारी जातियों या कुलों का बना था जिसमें विदेही, लिच्चवी, ज्ञानुक और वज्जि विशेष महत्व के अन्य कुलों को ठीक से पहचाना नहीं जा सका है, और भी इतना तो उल्लेखनीय हो कि कृतांग के एक वाक्य ने उम्र. भोग, एश और फौरन जानियों का ज्ञात पीर लिच्छवी जातियों के साथ ही राज्य की प्र एक ही सभा के राज्यों के रूप में उल्लेख किया गया है । ' पक्षान्तर में बौद्धों के विशिष्ट प्रमाणों के ग्राधार पर डा. प्रधान इस सहायकारी मण्डल में एक और जाति का भी समावेश करते हुए कहता है कि वह नी जातियों का बना हुआ संघ था। उनमें को कितनी ही जानिय हैं लिच्छवी, वृज्जि याने वज्जी, ज्ञातृक और विदेह । ये महायकारी मण्डल लिच्छिवी ग्रथवा वृज्जिक मण्डल के रूप में ही पहचाने जाते थे क्योंकि उन नौ जातियों में लिच्छिवी और वृज्जि ही महत्व की थी । नो लिच्छिवी जातियां नय मल्लिक जाति और कासी कोसल के अठारह गण रात्रों के साथ सम्बन्धित हो गई थी।" विद्वान पण्डित के इस कथन का समर्थन जैनसूत्र भी करते हैं । * डा. याकोबी कहता है कि राय चेटक ने कि जिस पर चम्बा के राजा कुणिक ने भारी सेना के साथ बाबा 1. कल्पसूत्र में महावीर की माता जिला के स्वप्नों का पर्व बनानेवाले का 'सिद्धार्थ के रत्न समान प्रत्यन्त सुन्दर महल के मुख्य द्वार' तक आना कहा गया है । याकोबी, वही, पृ. 245। उसी सूत्र में एक अन्य स्थान पर सिद्धार्थ का महावीर जन्मोत्सव मनाने का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उनने अपने दण्डनायकों को कुण्ठपुर नगर के ब बन्दियों को मुक्त कर देने माप और तोल को बड़ा कर देने ग्रादि यादि की प्राज्ञाएं दी ।..देखो वही पृ. 252 हेमचन्द्र वही पर्व 10 श्लो. 128, 132 16 1 " 2. बारपेट अन्तमदसाधो धौर धनुत्तरोववाइयोदनाथ प्रस्ता. पू. 61 डा. याकोवी जैनों की इस मुद मान्यता का कि 'कुण्डग्राम एक बड़ा नगर था और सिद्धार्थ एक शक्तिशाली राजा भण्डाफोड़ करने के लिए एक दूसरी प्रन्त्य कल्पना कर डाली है कि 'इस सबसे यह स्पष्ट होता है कि सिद्धार्थ कोई राजा नहीं था वह अपने कधी का नायक भी नहीं था, परन्तु बहुत सम्भव है कि वह ऐसे धन्यकारों का प्रयोक्ता मात्र हो, कि जोकी पूर्व के देशों में भूस्वामियों और विशेषकर देश के मान्य सचिवंशों के भूस्वामियों को सामान्यतः प्राप्त हो जाते हैं ।' - याकोबी, वही, प्रस्तावना पृ. 12 ' 3. रायचौधरी, वही पु 73-74 उम्र और भोग जनों की मान्यतानुसार उ उनके वंशज थे जिन्हें ऋषभदेव, प्रथम तीर्थकर ने नगर कोतवाल रूप ने नियुक्त किया था और भोग उनके वंशज थे कि जिन्हें उन सम्मान के अधिकारी रूप से माना था' पाकोत्री सेखुई परिशिष्ट 3, पृ. 581 3. प्रधान, वही, पृ. 215 पुस्त. 45. 71 टि. 2 देखो होनी ही | पृ 4. नव मल्लइ नव लच्छद कासीको सलगा घटठारसरि गणरायाणो... भगवती सूत्र 300, पृ. 316 देखो हेमचन्द्र, बही, पू. 165 , , Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 781 बोला था, कासी, कोमल लिच्छवी और मल्लिक यादि मठारह सहायकारी की मांगों को वे स्वीकार करना चाहते हैं अथवा उसके विरूद्ध युद्ध करेंगे में उपर्युक्त अठारह राजों ने प्रसंगोचित उत्सव किया था।" इन सब बातों से स्पष्ट है कि उन सब सहायकारी मण्डलों का एक लक्षण यह था कि वे इनमें से अधिकांश महावीर और उनके उपदेश के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव में आ गए थे। वे सब धर्म से जैन थे या नहीं यह कहना तो कठिन है. परन्तु इतना तो निश्चय है कि ये सब शाब्दिक सहानुभूति की अपेक्षा उनको कुछ अधिक गहरी सहायता करते थे । राजों को बुलाकर पूछा था कि कुलिक इसके सिवा महावीर के निर्वाण प्रसंग 1 पहले मण्डल विदेह का विचार करने पर जाना जाता है कि 'उसकी राजधानी मिथिला थी जिसको कितने ही नेपाल की सीमा में ग्राया 'जनकपुर' नामक छोटे से गांव के स्थान पर होना कहते हैं परन्तु इन विदेहों का एक विभाग माली में आकर बन गया होना चाहिए महावीर की माता राजकुमारी त्रिशला जो विदेहदत्ता भी कही जाती है. प्रायः इसी विभाग की थी। जैसा कि पहले कहा जा चुका है. जैनसूत्रों में महावीर के विदेहों से सम्बन्ध के विषय में यहां वहां छुटपुट उल्लेख मिलते हैं । ग्राचारांगसूत्र में नीचे का उल्लेख है : महावीर की माता के तीन नाम थे शिलाविदत्ता और प्रियकारिणी।" 4 "उस समय में, उस काल में श्रमण भगवान् महावीर, ज्ञातृ क्षत्रिय, ज्ञातृपुत्र, विदेहवासी, विदेह का राजकुमार. विदेहे नाम से तीस वर्ष तक रहे थे ।" " " कल्पसूत्र में लिखा है कि" श्रमरण - भगवान् महावीर..., ज्ञातृ क्षत्रिय, ज्ञातृ क्षत्रि के पुत्र, ज्ञातृवंश के चन्द्रमरिण विदेह विदेहदत्ता का पुत्र, विदेह निवासी, विदेह का राजकुमार - विदेह में जब कि उनके माता पिता का देहान्त हुआ तब तक तीन वर्ष रह चुके थे। फिर जैनसूत्रों से नीचे लिखे तथ्य भी समर्थित होते हैं- 1. विदेहों का एक कुल विदेह की राजधानी वैशाली में ग्राकर बस गया था । 2. त्रिशला देवी इसी विदेह कुल की थी और महावीर विदेहों के साथ गाढ़ मम्बन्ध से जुड़े हुए थे | इतना होने पर भी पहले तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट करना आवश्यक है । जैसे महावीर विदेही थे. वैसे ही वे. याकोवी के अनुसार, वैसालिक भी थे याने वैशाली - निवासी भी । इस प्रकार राजा सिद्धार्थ 1. याकोबी, मंबुई पुस्त. 22 प्रस्ता. पृ. 12 देखो वहीं पू. 266; लाहा, वि. च. समक्षत्रिया ट्राइस ग्राफ एंजेंट एण्डिया. पृ. 1; रायचौधरी, वही, पृ 128 भगवती, सूत्र 300, पृ. 316: हेमचन्द्र, वही, वही स्थान: कसूत्र सुवोधिक टीका. सूत्र 128. पृ. 121 प्रधान वही, पृ. 128 129 हरनोली, वही भाग 2. परि 2, 59-601 , 2. रायचौधरी वही. पू. 74 समग्स गां भगवो महावीरस्स माया...तिसलाइवा विदेहदिन्ना इवा पीइकारिणी इवा... | सुबोधिका टीका सूत्र 109. 89 । कल्पसूत्र. 3. याकोबी, वही, पृ. 193 5. वही, पृ. 256 । 4. वही, पृ. 194 T 6. वही. प्रस्तावना पृ. ।। । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 79 की कुण्डपुर या कुण्डग्री में विदेह के राजवंश की राजधानी वैशाली के मुख्य भाग के निवा और कुछ भी नहीं हो मकता है । महावीर और विदेहों के बीच उपस्थित प्रगाढ सम्बन्ध के इन सब उल्लेखों के अतिरिक्त भी जैन शास्त्रों की अन्य अनेक वातें इसका समर्थन करती हैं कि विदेही जैनधम में अच्छा रस लेते थे राज ज्योतिषी नाम के विषय में उत्तराध्ययनसूत्र कहता है कि नमी नमेई अप्पारणं सक्खं सक्केण चोहयो। चइऊण गेहं च वेदेहि सामण्णे पज्जुवटियो ।। अर्थात् नमि ने अपने को नम्र बना लिया, शक द्वारा प्रत्यक्ष में प्रार्थना किए जाने पर विदेह के इस राजा ने गृह का त्याग कर दिया और श्रमणत्व स्वीकार कर लिया ।" . फिर कल्पसूत्र से भी हम जानते है कि विदेह की राजधानी मिथिला में महावीर ने छह चतुर्मास किए थे। यह बात प्रकट करती है कि महावीर का विदेहों के साथ गाढ़ मम्बन्ध था। संक्षेप में उनके विषय में जो कुछ भी हम जान पाए हैं इससे यह स्पष्ट है कि मारे ही नहीं तो विदेहियों का अमुक अंश तो जैनधर्म अवश्य ही पालता होगा। लिच्छवियों का विचार करने पर हम देखते हैं कि ई. पूर्व छठी सदी में पूर्व भारत में वह एक महान् और शक्ति म्पन्न जाति थी। फिर यह भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि ज्ञातको के साथ वे भी महावीर के उपदेश के प्रभाव में अवश्य ही पाना चाहिए थे । उनकी माता त्रिशला क्षत्रियों की लिच्छवी जाति के वैशाली के राजा चेटक की बहन थी और पिता की अोर से महावीर स्वयम् ज्ञातृक थे। यहां एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यदि त्रिशला लिच्छवी जाति की राजकुमारी थी तो उसको विदेहदत्ता नाम दिया जाना कुछ समझ में नहीं पाता है। इसका समाधान कदाचित यह हो सकता है कि विदेह के नाम से पहले से सुप्रसिद्ध प्रदेश को होने के कारण ही वह विदेह दिन्ना कही जाती होगी और जैसा कि हमने अभी देखा कि विदेह की राजधानी वैशाली थी। डॉ. रायचौधरी के शब्दों में कहें तो 'विदेह राजवंश के प्रधः पतन के "इसलिग कुण्डग्रामविदेह की राजधानी वैशाली का एक उपनगर ही कदाचित था। यह कल्पना महावीर को वैमालिए ग वैमालिक नाम जो कि सूत्रकृतांग 1, 3 में उन्हें दिया गया है का समर्थन करता है। टीकाकार ने इस पाठ को दो प्रकार से समझाया है और एक अन्य स्थल पर इसकी तीसरी भी व्याख्या या अर्थ किया है ।...वैशालिक का सामान्यतः अर्थ वैशाली का निवासी ही होता है. और महावीर सच्चे अर्थ में वैसा कहा जा सकता था जब कि कुण्डग्राम वैशाली का ही एक उपनगर था। जैसा कि टनहम ग्रीन का निवासी नंदनी कहा जा सकती है ।" -याकोबी, वही और वही स्थान । 2. उत्तराध्ययन सूच, अध्या. 9. गाथा 61 । देखो वही, गाथा 62; अध्या, 18, गाथा 45 (याकोबी का अनुवाद, सेबुई, पुस्त: 45, पृ. 41, 87)। नमि की दन्तकथा के पूर्ण विवरण के लिए देवो मेयर, जे.जे., हिन्दू टेल्स, प 147-169 । 3. याकोबी, कल्पसूत्र पृ. 113 1. 4. अनेक पण्डितों के अनुसार चेटक लिच्छवी था। परन्तु उसकी मांगनी के अन्य नाम (विदेहदता) और पुत्री (वेदही) संभवत: संकेत करते हैं कि वह वैसाली का निवासी हो जाने के कारण-विदेही था।' -रायचौधरी. वही, पृ. 78 टि. 2 । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] के स्पष्ट पश्चात् जियों का संगठन हुआ होगा। इस प्रकार भारत की उत्क्रांति प्रीरा के प्राचीन नगरों की उत्क्रांति नुरूप ही हुई दीखती है जहां कि वीर युग की राजसत्ताएं प्रजासत्ताक के रूप में परिवर्तित हो गई थीं।' एक दूसरी दत्तस्था पर से भी यह कल्पना हो सकती है कि विदेह के यथः पतन के पश्चात् उसमें एक विभागलिच्छवी कहलाता हो । " इस प्रकार त्रिशला राजकुमारी होते हुए भी विदेहदत्ता कही जाती हो तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविकता नहीं है। इस विशाल सम्बन्ध सिद्धार्थ के साथ हुआ था जो कि जैन मान्यतानुसार महावीर के पुरोगामी पा नाथ का धनुधायी था इसमे स्वाभाविक ही यह अनुमान हो सकता है कि या तो सिडी का राजवंश जैनधर्म पालना था प्रथवा मामाजिक परिस्थिति ऐसी थी की वह प्रपनी कन्या दूसरे जनवंश में दे सकता वा विशेष प्रसंग से यही फलित होता है कि लिच्छवियों को जैनों के लिए विशेष मान था परन्तु जैनों की साहित्य और ऐतिहासिक दन्तकथाएं ऐसे एक ही प्रसंग में समाप्त नहीं हो जाती हैं क्योंकि हम ग्रागे चलकर देखेंगे ही की राजा चेटक की सात कम्यायों में से सबसे छोटी पुत्री लगा जो वैदेही भी कहलाती थी मगध के महान " नाग विसारको व्याही जी धीर वे दोनों ही जैन थे। बेल्ला के प्रतिरिक्त नेटक के छह पुत्रियां और थीं जिनमें से एक साध्वी बन गई थी और पांच भारत के एक या दूसरे राजवंश में स्पाही गई थीं। यह सध्य कितने प्रण में ऐतिहासिक माना जा सकता है हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं। परन्तु आधुनिक खोजों के परिणाम स्वरूप लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध रखनेवाले सब राजवंश सम्पूर्ण रूप से पहचाने जा सकें, ऐसे हैं। इन लिच्छवी राजकन्याओं के नाम इस प्रकार है:- प्रभावती, पद्मावती, मृगावती, शिवा. ज्येष्ठा, सुज्येष्ठा और वेल्लरणा । इनमें सब से बड़ी प्रभावती वीतमय नगर के राजा उदयन को व्याही थी जिसका उल्लेख जैन साहित्य में सिन्धु सोवीर देश की राजधानी रूप से किया गया है।" देश के किस भाग के लिए ये साहित्यिक उल्लेख हुए हैं 1. वही, पृ. 76 2. बौद्ध के समय में ही नहीं परन्तु उसके बाद भी कई सदियों तक वैशाली निवासी लिच्छवी कहलाते रहे थे और त्रिकांडकोश में लिच्छवी. विदेही श्रौर तिरमुक्ति पर्यायवाची हो कहे गए हैं। कनिघम, वही, पृ. 509 | 3. वेसालियो वेडग्रो... सत्त धूयाओ... ग्रावश्यक सूत्र, पृ. 676 । का 4. बिसार के एक पुत्र का नाम पाली धर्मग्रन्थों में वंदेहीपुत्त प्रजातशत्रु और जैनागमों में कुणिक कहा गया है। बाद की दस्तकाओं में बौद्ध उसे कोसल देवी का पुत्र बताया गया है जबकि जैन दलकथा उसे पुत्र कहती है जिसका प्राचीन बौद्ध धर्मग्रन्थ विदेह राजकुमारी का पुत्र वेदेहीपुल कहते समर्थन करते हैं सि डेविड्स, केहि भाग 1, पृ. 183 1 देव्याख्या सामपराग्यदा नृपः । वीरं समवसरणस्थितं वन्दितु मन्यागात् । वन्दित्वा श्रीमदन्तं वलितो तो च दंपति । हेमचन्द्र, बही, ग्लो. 11-12.पु. 86 1 हेमचन्द्र, वही, श्लो. 187 पृ. 77 । नगरे... उदायणे नामं राया...तस 5, आवश्यक सूत्र, पृ. 676; 6. सिसोवीरे... बीतीमए प्रभावती नाम देवी भगवती सूत्र 491. पृ. 618 | देखो धावश्यकसूत्र, पृ. 676; हेमचन्द्र, वही, श्लो. 190, पृ. 77; सिन्धुसोवीरदेशे म्ति पूरं बीमाध्यम् वही, श्लो. 327, पृ. 147; मेवेर, जे. जे. वही, पु. 97 1 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [81 निर्देश नहीं किया जा सकता है क्योंकि भिन्न भिन्न प्रमाणों के साधार पर भारत के उत्तर पश्चिम प्रथवा पश्चिमी प्रदेशों में इसका होना माना गया है । कनिंघम उसे 'खंभात की खाड़ी के ऊपर का ईडर या बदरी प्रान्त' होना कहता है ।" डा. सि डेविड्स नियम का कुछ कुछ समर्थन करता है और सोवीर को अपने नक्शे में काठियावाड़ के उत्तर में कच्छ की खाड़ी की ओर बताता है। एलबरूनी उसे मुलतान और झालावाड़ कहता है और श्री दे इस मत को स्वीकार करता है । " पक्षान्तर में जैन दन्तकथाए इसके विषय में ऐसा कहती हैं:- श्री अभयदेवसूरि भगवतीसूत्र की पनी टीका में इसकी व्याख्या यो करते हैं-मिथुनद्या प्रामन्नाः सोचीराः जनपदविशेषाः सिधुमोवीरस्तेपु ... विगता ईतयोमयानि च यतस्तद्वीतिमयं विदर्भीत केचित् । * उत्तराध्ययनसूत्र में से श्री मेयर की अनूदित्त उदायन की कथा में वीतमय के लिए इस प्रकार लिखा है"सिंधु और मौवीर के प्रदेशों में को वीतमय नगर में उदायन नाम का राजा था... 1 "शत्रु'जय माहात्म्य उसको सिंधु या सिंध में बताता है ।" " इन सब अनुमानों से ऐसा लगता है कि वह प्रदेश मालवा की उत्तर-पश्चिम के राजपूताना और सिंधु नदी के पूर्व-तट पर आए निघ के विभाग से बहुत कुछ मिलता हुआ होगा । यह इससे भी सबूत होता है कि प्रवन्ती के राजा के विरुद्ध किए युद्ध में उदायन मारवाड़ और राजपूताना के रगों में होकर ही गया था जहां कि उसकी सेना प्यास से भरने लगी थी इन सब अनुमानों के अतिरिक्त भी हमें वराहमिहिर के दिए भारतवर्ष के विभागों में सिधु-सौवीर-देश के विजय में यह बात मिलती है कि जिन ती विभागों में देश तब बंटा हुआ था उनमें से ही यह एक था" इससे प्राप्त होने वाली ऐतिहासिक और भौगोलिक विशेषता कितने ही अंश में जैन ग्राधारों को प्रमाणिक ठहराती हैं कि जो यह कहती है कि वीतमय सहित उदायन अन्य 363 गांवों का राजा था।" फिर ई. 12 वीं सदी में होने 1. कनिंघम वही, पृ. 569 1 2. हिंग डेविड्ग, वृद्धीस्ट इण्डिया. पृ. 320 के सामने का नक्शा । 3. सजाउ, ग्रत्बनीज इण्डिया, भाग 1 पृ. 302 देखो दे, वही, पृ. 183 1 4. भगवती सूत्र 492, पृ. 326-321 1 5. मेयर, जे. जे. वही, पृ. 97। उत्तराध्ययन के कथानक के लिए देखी लक्ष्मीवल्लभ की दीपिका (सिह संस्करण ), पृ. 552-561 । 6. देखो दे, वही, पृ. 183 I है 7. उत्तरतां च म स्कन्धावारस्तूया ममारव्यावश्यक सूत्र पृ. 299 देखो मेसेर जे. जे. वही, पृ. 109 1 यहां यह भी कह देना चाहिए कि बौद्ध दन्तकथाओं के अनुसार, सौवीर की राजधानी रोरुक थी । देखो कैहिई. भाग 1, पृ. 173; दे, वही, पृ. 170 । कनिधम के अनुसार, रोहक सिंध का प्राचीन नगर प्रालोर ही भवतया था।" नियम वही पु. 700 -कनिंघम, 8. वराहमिहिर प्रत्येक खण्डको वर्ग कहता नो खण्डों में विभाजित हो गया है। 298-302; कनियम वहाँ पू. 6 परन्तु वराहमिहिर के इस वर्णन और उसकी पश्चिम में धान के साथ रखा गया है।" 9. बीतमयादिन रितुपतिप्रभुः हेमचन्द्र वही श्लो. 328, पृ. 147 "यह राजा उदावन सिधु-सौवीर को लेकर 16 देशों पर वीतमनगर को लेकर 363 नगरों का अधिपति था" मेयेर वही, पृ. 97 उसका कथन है कि उनसे (वर्गों से भारतवर्ष याने साधा संसार, केन्द्रवर्ग, पूर्वी वर्ग यादि आदि सवाउ, वही, पृ. 297 देखो वहीं, "इस योजनानुसार... सिंधु सौवीर को पश्चिम का प्रमुख जिला धा... विगत में कुछ अन्तर है क्योंकि विगत में सिंधु मोवीर को दक्षिण वही, पृ. 71 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 821 वाले कुमारपाल राजा के चरित्र पर से हमें पता लगता है कि उसके कार्यकाल में वह एक जैन प्रतिमा। पाटण में लाया था कि जो " हुई थी।" अब उसके शासक सिंधु-गांधीर देश और उसके समय नगर के विषय में इतना ही कहना उदाय के विषय में ऐतिहासिक अनुमानों का विचार करें हालांकि वे बहुत ही कम है। डॉ. रावचोरी कहते हैं कि "लौकिक दन्तकथयों के जाल में ने ऐतिहासिक तत्व का निकाल पाना कठिन है ।" " फिर भी यह स्वीक. र करना ही उचित है कि बहुत थोड़े तथ्य ही ऐसे हैं कि जो जैन माहित्य में से मिल जाते है और जिनका इतिहासवेत्ताओं को ध्यान में लाना कुछ ग्रंश में उचित है। जैन साहित्य के अनुसार सौवीर देश के उदायन ने अपने पति पवती के चण्डप्रयोत राजा को लड़ाई में हराया था।" यह चण्डप्रद्योत एक ऐतिहासिक पुरुष है और इसके विषय में हम चेटक की चौथी पुत्री शिव के पति कि हैसियत से विस्तार के साथ पाने विचार करेंगे। फिर हम यह भी जानते हैं कि उदायन के पश्चात् उसका भान्जा केसी राजा हुआ था जिसके काल में वीनमय का सर्वश्रा नाश हो गया था ।" यह कहना कठिन है कि यह सब कपोलकल्पित ही है अथवा इसका यही कारण है कि हमें देश के इस महा भू-भाग के इतिहास का पता कोई भी नहीं लग रहा है हालांकि हम विश्वस्त प्रमाणों से यह जानते ही हैं कि एक समय वह भारतवर्ष के नव-वर्गों में का एक था । हां में चार्य के कथनानुसार उदायन के समय से वीतमय के खण्डहरों में पड़ी उदयन और उसकी रानी प्रभावती के जनधर्म के प्रति मुकाव के विषय में हमारे सामने विश्वरन जैन सिद्धांत शास्त्रों के प्रत्यक्ष और परोक्ष, सभी प्रकार के प्रमाण हैं जिन पर हम अपनी धारणा बांध सकते हैं। एक केसीकुमारेाए नगर पर की वर्षा गराई 1. अनहिल पट्टा, वीरावलपट्टण जिसे गुजरात में उत्तर का बड़ोदा कहा जाता है, वल्लभी के विनाश के बाद सं 802 - ई. 746 में वनराज या वंशराज द्वारा बसाया गया था। नगर के ग्रनहिज पाटण इसलिए कहा गया कि इसका स्थान एक गोवाल याने ग्रहोर द्वारा बताया गया था... हेमचन्द्र सुप्रसिद्ध वैयाकरण और कोशकार. अहिलवाड़ के राजा कुमारपाल (ई. 1142-1173) के दरबार में चमका था और उसका धर्मगुरु था। 84 वर्ष की आयु पाकर इसका देहान्त ई. 1172 में हुआ था कि जिस वर्ष कुमारपाल ने जैनधर्म स्वीकार किया था । परन्तु अन्य प्रमाणों से यदु धर्म परिवर्तन ई. 1159 में हुआ था। 8वीं सदी में वल्लभी के पतन पश्चात् अनहिलवाडपाटण गुजरात का मुख्यनगर हुआ और वह 15वीं सदी के ग्रन्त तक यह स्थान भोगता रहा था... - दे, वही, पू. 6 1 2. जयसिंहसूरि, कुमारपाल भूपाल चरित महाकाव्य, सर्ग 9, श्लो. 261, 265, 2661 3. उद्राने शिवते... तदेव प्रतिमा... मविष्यति भूगता राज कुमार वस्य... पुष्पेन... व 83, पृ. 158, 1601 संधु प्रतिमाविमंविध्यति । हेमचन्द वही क्लो. 20. 22, 1. . जब पज्जोय सामने श्राया तो चौधरी, वही, पृ. 123 | दन्तकथानुसार दोनों में यह युद्ध इसलिए हुआ था कि चण्डप्रद्योत उसकी एक दामी और एक जिनप्रतिमा सपहरण कर लाया था "इसलिए उसने पज्जोय के पास दूत भेज कर कहलाया कि "मुझे दासी की परवाह नहीं हैं, परन्तु वह मूर्ति उने बीटा दे।" परन्तु प्रयोत ने ऐसा नहीं किया...। उदायन ने तुरन्त दस राजायों को साथ लेकर उस पर प्राचा बोल दिया। उद्रायन ने उसे बंदी बना लिया ।" - मेयेर जे. जे. वही, पृ. 109, 5. उदायनो राजा...गत उज्जयिनों... प्रद्योतो...बद्धो । - वही. पृ. 298-299 619 "जब वह उड़ायन मरा तो र दबा पड़ा है। सेबर जे.जे. वही. पू. 118-1161 सूत्र 491 110 देखो प्रावश्यकसूत्र, पृ. 299 भी । देखो हेमचन्द्र वही, क्लो. 508, पृ. 1561 देवते Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 83 स्थान पर तो लिच्छवी राजकुमारी प्रभावती, जनप्रातमा का पूजन करने के पश्चात् कहती है कि ,राग. ढेप और भ्रम रहिन, सर्वज्ञ, अष्टमिद्धियुक्त, देवाधिदेव महत भगवान मुझे अपने दिव्य दर्शन देने की कृपा करें। इससे प्रकट है कि सोवीर की राजगहिषी जैनधर्म के प्रति कितना अधिक सम्मान रखती थी। फिर उत्तराध्ययन एवं अन्य मुत्रग्रन्थों में हमें पता लगता है कि राजा भी जैनधर्म का कुछ कम भक्त नहीं था। हालांकि मूलतः वह ब्राह्मग तापनों का भक्त था।' इतना ही नहीं परन्तु वह संसार त्याग करने की सीमा तक पहुंच गया था।' और जब उसके पुत्र ग्राभी के राज्याभिषेक का प्रश्न उसके समक्ष उपस्थित दया तो उसने विचार किया कि 'यदि मैं राजकूमार पाभी को राज्यासन दे कर संसार त्याग करूगा तो ग्रामी राजसत्ता और राज्यमोह से : में लुब्ध रहेगा और अनादि अनंत संसारचक्र में वह परिभ्रमगा करेगा। इमो नो मैं अपनी बहन के पुत्र के सी को राजपाट दे कर संसार त्याग करू तो अधिक माछा रहेगा।'' उपरोक्त दृष्टान्त से उदायन के अंत:करण का पलटा देवा जा सकता है। इसी उसका संसारत्याग जैनों के लिा लोकोक्ति हो गया है। अंतगामामुत्र में उदाधान के विषय में इस प्रकार का उलेख है कि 'फिर राजा अलक्खे ने...उसी प्रकार संसार का त्याग किया जैसा कि उदायन ने किया था। अपवाद इतना मात्र था कि इसने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य कारबार मौंपा था। यहां यह कह देना प्रावश्यक है कि इम पर टिप्पगा करते हए डा. वारन्येट ने भूल से यह देखा है कि वैशाली के राजा चेडग की पुत्री मृगावती से उत्पन्न हुए शतानीक के पुत्र, कौमाम्बी के राजा उदयन का उक्त मंदर्भ में निर्देश है । इसके सिवा, युद्धवन्ती चण्डप्रयोत के प्रति उदायन का किया वत्रि भी उसकी जैनधर्म में अनन्य श्रद्धा प्रमागित करता है क्योंकि उसने 'पषणापर्व में घोरातिघोर वैरभाव त्याग कर क्षमा करने की जैनधर्म की शिक्षा' का तत्परता से पालन किया था। यह घटना इस प्रकार है। पy परणापर्व में उदायन को एक दिन उपवास था । परन्तु चण्डप्रद्योत को उसकी इच्छानुसार भोजन देने की उसने उचित व्यवस्था कर दी थी। जब भोजन चण्डप्रद्योत को दिया गया तो उसने विप के भय से उसके ही लिए बनाया गया भोजन करने से यह कह कर इन्कार कर दिया कि उसे भी जैन होने के कारगा उदायन की ही भांति उपवाम है। जब उदायन को सूचना 1. वही, पृ. 1051 2. प्रभावत्या...अन्तःपुरे चैत्यगृहं कारितं...भक्तप्रत्यास्थानेन मृता देवलोकंगता । ग्रावश्यक मुत्र, पृ. 298 । देखो मेयेर जे. जे., वही, वही स्थान; हेमचन्द्र, वही, जलो. 404, पृ. 1501 3. मेयेर, वही, पृ. 103 । स च तापम भक्तः अावश्यकसूत्र, पृ. 298; हेमचन्द्र, वही, श्लो. 388, पृ. 14.) । 4. तएणं से उदायरणे राया...समरणम्म भगवो जाव पव्वइए। भगवती, सूत्र 492, पृ. 620; मयेर वही.. पृ. 114 1.5. सौवीर के राजों में वृषभ समान राजा उदायन ने संसार त्याग कर भगवती दीक्षा ले ली और यह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया।' याकोबी, सेवई. पुस्त. 45, पृ. 87 । इसी स्थान पर के एक टिप्पण में डा. याकोबी लिखता है कि 'वह महावीर का समकालिक था।' वही । 6. वही, पृ. 113-114 । एवं खलु अभीयोकूमारे...काममोगेषु मुच्छिए...भाइणेज केमि कुमारं रज्जे ठावेना... भगवती, सूत्र. 491, पृ 6191 7. वारन्येट, वही, पृ. 96 1 8. वही, पृ. 96, टिप्पण । . 9, भण्डारकर, ई. 1883-1884 को प्रतिवेदन, पृ. 142; पज़्जसण या पर्युषणा, जनवर्षान्त पर मनाया जाने .... वाला धार्मिक समारोह । देखो श्रीमती. स्टीवन्सन, वही, पृ. 76; पज्जासवियाणं...खमियव्वंसमावियव्वं... कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, सूत्र 59, पृ. 191-192 । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 ] दी गई तो उसने कहा कि मैं जानता हूं कि वह धूर्त है परन्तु जहां तक वह मेरा बन्दी हैं, वहां तक मेरी पयूंपण भी पवित्र और मंगलकारी नहीं कही जा सकती है 1" अब पद्मावती के विषय में विचार करें। इसका विवाह जैनधर्म के एक समय के केन्द्र स्थान रूप से प्रसिद्ध नम्यानगरी के राजा दधिवाहन से हुवा था ।" ग्रावश्यकसूत्र की टीका में हरिभद्रसूरि स्पष्ट ही कहते हैं कि राजा दधिवाहन और रानी पद्मावती दोनों ही जैनधर्म के महान् उपासक थे। जैन इतिवृत्तों में चम्पा को जितना ऐतिहासिक महत्व दिया गया है उसको देखते हुए यह मानना प्रनुचित नहीं है कि दधिवाहन का सारा ही कुटुम्ब जैनधर्म के सिद्धान्तों में सक्रिय रस लेता था । " " जैन दन्तकथानुसार इसका समय ई. पूर्व छठी सदी है। उसकी पुत्री चन्दना ग्रथवा चन्दनबाला ने महावीर के केवलज्ञान प्राप्ति के बाद ही स्त्रियों में सबसे पहले जैन दीक्षा उनसे स्वीकार की थी ।"" जैन वर्णनात्मक और अन्य साहित्य महावीर की इस सर्व प्रथम साध्वी की कथा से भरा हुआ है । वर्धमान के समय की स्त्री साध्वियों पर धाविकाओं की प्रणी यही थी उसकी जीवनी से जुड़ी हुई राजनीति बात इस प्रकार है। । " जब कोसाम्बी के राजा शतानीक ने दधिवाहन की राजधानी चम्पा पर धावा बोला, चन्दना एक लुटेरे के हाथ पड़ गई परन्तु वह निरन्तर अपने व्रत का पालन करती ही रही थी ।"" रायचौधरी का यह वक्तव्य जैन कथानकों पर ही अवम्बित है और चन्दना की पूरी कथा संक्षेप में इस प्रकार है उनके पिता और राजा शतानीक में हुए युद्ध के समय में वह दुश्मन के किसी सैनिक के हाथ पहले पड़ गई। इसने उसे कोसाम्बी के सेठ धनावाह को बेच दिया पीर सेठ ने उसका नाम चन्दना रख दिया हालांकि पिता का रखा हुआ उसका नाम वसुमति था। कुछ ही दिनों बाद इस धनावह सेठ की पत्नि मुला उसमें डाह करने लगी और इसलिए उसने उसके केश काट 1. देखी भण्डारकर वहीं पर वही स्थान: मेरी पृ. 110-111 कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका. 50. 192 प्रजापतिः स भरतिग्रहमणुपोषितः ममापि माता-पितरी संपतो, यदि धावश्यक पु. 300 पायो दधिवाहनाय 2. दत्ता वहीं पृ. 676 677 देखो जे. जे. वही, पृ. 1221 3. देखो दे, वही, पृ. 44 दे. बंगाल एशियाटिक सोसाइटी पत्रिका, नई माला. सं. 10, 1914, पृ. 334 1 4. हरिभद्र कहते हैं कि राज्य का भार अपने पुत्र करकण्ड को सौंप. राजा और रानी दोनों ही ने जैनधर्म दीक्षा ले ले ली थी। पद्मावतीदेवी... दन्तपुरे प्रायरिणा मूले प्रत्रजिता, ग्रणि राज्यं दधिवाहनस्तस्मै दत्वा प्रव्रजितः, करकर्महालासना जात... - यावश्यक सूत्र पृ. 716, 717, 718 वही भी कहा जाता है कि कारकण्ड ने भी अपने पिता की तरह ही, ग्रन्न में दीक्षा ले ली थी। देखो वही, पृ. 719 । करकण्ड और उसके माता पितायों के सम्बन्ध की अधिक जानकारी के लिए मेवेर जे. जे. वही, पृ. 122-136 [त्याचार्य उत्तराध्ययनत्र शिवहिता. पू. 300-303, लक्ष्मीविलास उत्तराध्ययनदीषिका पु. 254-58 5. यी वही. पू. 69 देख दे, वही. पू. 321 रायचौधरी | 1 6. समरणस्स भगवो महावीरस्स ग्रज्जचंदाना मुक्खायां छत्तीस ग्रज्जिया साहसीग्रो... हुत्या । - कल्पसूत्र, सुवोधिका - टीका, सूत्र 133, पृ. 123 देखो दे, वही बी । 7. रारी वही पु. 69 देखो वहीं, पु. 84 "विवसार के राज्य में मिला लेने के कुछ वर्ष पूर्व ही पा को कोसाम्बी के राजा शतनीक राय ने अधिकार में लेकर नष्ट किया था ।" -प्रधान वही प. 214 1 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 कर एक कोटड़ी में बन्द कर दिया। इसी बंदी अवस्था में एक बार उसने महावीर को अपने ग्राहार में से हो ग्राहार दिया था और अन्त में वह उनकी साध्वी बन गई थी।' चेटक की तीसरी पुत्री मृगावती थी। परन्तु इसका विचार करने के पूर्व जैन इतिहास की दृष्टि में चम्पा के विषय में कुछ कहना अप्रासंगिर नहीं होगा। अभी यह नगर भागलपुर के निकट थोड़ी ही दूर पर है और इसका उल्लख चंग पूरी, चंपानगर, मालिनी और चंपामालिनी ग्रादि नामों से मिलता है। जैन इतिहास में इसकी उपयोगिता स्वयम् सिद्ध है क्योंकि हमें पता है कि महावीर ने अंग की राजधानी चंपा और उसके उपनगर पृष्ठ चंपा में चतुर्मास बिताए थे फिर जनों के बारहवें तीर्थंकर श्रीवासु पुज्य की जन्म और निर्वाण भूमि भी यही कही जाती है। चंदना और उसके पिता के मुख्य नगर पौर जैनधर्म के प्रमुख केन्द्र के रूप में भी यह जैनों में प्रख्यान है। यहां दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के वासुपूज्य एवम् अन्य तीर्थंकरों की मुल मूर्ति सहित प्राचीन और अर्वाचीन मंदिर वहां देखे जाते हैं। उवामगदमानो और अंतगडदसानो में उल्लेख है कि महावीर के निर्वाण पश्चात् उनके ग्यारह गणधरों में से एक मुधर्म के समय में चम्पा में पूर्णभद्र नाम का एक चैत्य था।' 'जैन सम्प्रदाय के युगप्रधानाचार्य श्री सुधर्मास्वामी, कुणिक प्रजातशत्रु के समय में चम्पा में ग्राए थे तब नगर के बाहर उनके निवास स्थान पर दर्शन करने के लिए कुगिणक नंगे पांव पहुंचा था। सुधर्मा के अनुगामी जम्बू और उनके अनुगामी प्रभा, उनके अनुगामी शयंभव भी इस नगर में रहे थे और इमी में भयंभव ने पवित्र जैनमिद्धानों का सार रूप दस-अध्ययनवाला दशवकालिकसूत्र रचा था । 'बिवमार के मृत्योपरान्त, रिणक-ग्रजातशत्र ने चम्पा को ही अपनी राजधानी बना लिया था। परन्तु उसकी मृत्योपरान्त उसके पूत्र उदायी ने अपनी राजधानी पाटलीपूत्र में बदल ली थी।" चंपक-श्रेष्ठि-कथा नाम के जैन ग्रन्थ से मालूम होता है कि यह नगर बहुत ही समृद्ध था। इसकी प्रारम्भ की पंक्तियों में यहां की जानियों और धन्धों के नाम पाते हैं । यहां सुगन्धी द्रव्य विक्रक, मसाले-विक्रक, शक्कर विक्रक जौहरी, चर्मकार (कमानेवाले), हार बनानेवाले, सुतार, बुनकर और धोबी थे।' ।. देखो कल्पसूत्र, सुवोधिका-टीका, मूत्र 118, पृ. 106-107 । देखो अावश्यकमुत्र, 22 3-225%; हेमचन्द्र . वहीं, पृ. 59-62; चन्दना के विशेष विवरण के लिए देखो बारन्यैट, वही, पृ. 98-100, 102, 106 । 2. देखो दे, दी ज्योग्राफिकल डिक्षनेरी प्रॉफ एजेंट एण्ड मंडोवल इण्डिया, पृ. 44: कनिधम, वही, पृ. 546-5 722-723 । आज भागलपुर के पास, गंगा नदी पर का चंपापुर का गांव ही यह है । प्राचीन काल में प्राधुनिक भागलपुर जिला जिसे कहते हैं उसी को अंग देश कहा जाता था और यह चंपा उम देश की राजधानी थी। 3. दे वही, पृ. 44-45 । 'अजमेर के किसी प्राचीन जैन मन्दिर के पडोस से उत्खनित कुछ जैन मूर्तियों के लवान यह पता लगता है कि ये मूर्तियां वासुपूज्य. मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ गौर वर्धमान की 13 वीं सदी ईमवी ने प्रतिष्ठित हुई थी याने वि सं, 1239 से 1247 तक में ।' वही, प. 45; देखो बगाल एशियाटिक मोमाइटी पत्रिका, भाग 7, पृ. 52 । 4. हरनोली, वही, भाग 2, पृ. 2 टिप्पण । 'नि:संदेह, जम्बू उन दिनों में...चम्पा नामक एक नगर था...पूर्णभद्र चैत्य...वारन्यैट, वही, पृ. 97-98, 100 । देखो वही और वही स्थान । 5. दे, वही और वही स्थान । अन्यदाश्रीगणधर: सुधर्मा...। जगाम चंपा...॥ तदा...करिणकः...त्यक्तपादुको...। सषमस्वामिनं दृष्टवादरादपि नमो करोडा हेमचन्द्र. परिशिष्टपर्वन, सर्ग 4. श्लो. 1. 9. 33, 351 6. वही सर्ग 6, श्लो. 21 प्रादि। 7. दे, वही और वही स्थान । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 1 अब मगावती की बात कहें। चेटक की तीसरी इस पूत्री का विवाह कोसाम्बी 'के राजा शतानीक से हुया था और वह विदेह की राजकुमारी के नाम से प्रख्यात थी। ' विनयविजयगणि कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका में कहते हैं कि 'जब महावीर कोमाम्बी पाए तो उस देश में शतानीक राजा मगोवती और रानी'थी। राजा और रानी दोनों ही महावीर के अनन्य भक्त थे यह भी जैन साहित्य से प्रमाणित होता है । जिस कुटुम्ब के वातावरण में उसका पोषण व वर्धन हया था उसको देखते हुए मृगावती से स्वाभाविक ही ऐसी आशा रखी जा सकती थी। इतना ही नहीं अपितु जैन दन्तकथा स्पष्ट ही कहती है कि राजा का प्रात्मात्य और उसकी पत्नि भी जैनधर्मी थे।" दधिवाहन और शतानीक में हुए युद्ध का वर्णन किया ही जा चुका है। ऐतिहासिक महत्व की दूसरी बात जैन साहित्य से यह मिलती है कि "उसका पुत्र और अनुगामी विबमार का समकालिक उदायन था।"' डॉ. प्रधान कहता है कि "उदायन के पितामह का सहस्रणीक नाम मास ने सहस्रानीक और पुराणों में वसुदामन दिया है । यह सहस्रानीक बिवसार का समसमयी था और महावीर का धर्मोपदेश उसने सुना था। जैन उसे सानीक कहते हैं जो सहस्रानीक का ही संक्षेप रूप है और संस्कृत सहस्राणीक का प्राकृत रूप । ससानीक ही पुराणों का वसुदामन है और उसे शतानीक 2 य का नाम का एक पुत्र था। उदागन इमी शतानीक 2 य पुत्र था।" जनों के पांचवें अंगसूत्र भगवती का पूरा-पूरा समर्थन इस बात में विद्वान डॉक्टर को मिलता है।' हम यह भी उसमे जानते हैं कि शतानीक की बहन जयन्ति भी महावीर की दृढ़ अनुयायिनी थी ।। उदायन, उसके श्वसुर शतानीक ही परंतप भी कहा जाता था । देखो हिस डेविड्स, वही, पृ. 3। 2. 'कोसाम्बी, कोमाम्बीनगर अथवा कोसम, जमना के वाम तटस्थित प्राचीन गाव जो कि इलाहाबाद से पश्चिम में लगभग 30 मील दूर पर स्थित है।' दे, वही, पृ. 961 3. 'शतानीक...ने विदेह की राजकुमारी से विवाह किया था क्योंकि उसका पुत्र वैदेहीपुत्र कहा जाता था।' राय चौधरी, वही, पृ. 84 । देखो लाहा. वि. च., वही, पृ. 136 । 4. प्रधान, वही, पृ. 250 । ततः क्रमेण कौशम्व्यां गतस्तत्र शतानीको राजा मृगावती देवी । कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, सूत्र । ४, पृ. 106 । 5. महावीर केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व भ्रमण करते हुए एक बार कोसाम्बी पहुंचे थे। उस समय ऐसी घटना घटी कि किमी अभिग्रह के कारगा भगवान् महावीर को कई दिनों तक वहां ग्राहार नहीं मिला और इसलिए मृगावतीपि...महता दुःखेनामितता...तेन (राज्ञा) ग्राश्वासिता तथा करिष्यामि यथा कल्प लभते...यावश्यकसूत्र, पृ. 223 । देग्यो स्टीवन्सन, श्रीमती, वही, पृ. 40 । 6. सुगुप्तो, मात्यो. नन्दा तम्य भार्या, मा च श्रमणोपासिका. सा च श्राद्धीति मगवत्या वयस्या,... ग्रामात्यौपि सपत्निक अागत: स्वामिनं वदन्ते,....अावश्यकत्र, पृ. 222, 225 । देखो कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, सूत्र । 18, प. 1061 7. रायचौधरी, वही और वही स्थान । देखो वारन्यैट वही, प. 96, टिप्परग 2 । 8. प्रधान. वही और वही स्थान । "कथासरित्सागर" कहता है कि शतानीक का पुत्र सहसानीक उदायन का पिता था । इस प्रकार कथासरित्सागर ने भूल से क्रम को उलटा दिया है।" देवो टानी (पंजर संस्करण), कथासरित्सागर, भाग I, .95-96 | रायचौधरी, वही, वही स्थान । 9. सहस्सारणीयस्स रन्नो पोत्ते सयाणीयस्स रनो पुत्ते ने डगम्म रन्नो नतुए मिगावीता देवीए अत्तए जयंतिए समगोवामियाए मत्तिज्जए उदायणे नाम राया होत्था. आदि। -भगवती मूत्र 441, 4.556 । " 10. ताग मा जयंती समणोवासिया...पव्वइया जाव सव्वदुक्युप्पहीणा ।...-वहीं, सूत्र 443, पृ. 5581 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 87 चण्डप्रद्योत एवम् उसके अनुयायी आदि के विषय में प्रागे हम विस्तार से कहेंगे। यहां इसलिए इतना ही कह देना उचित होगा कि जैन उस के जैन होने का ही दावा नहीं करते हैं अपितु यह भी मानते हैं कि "वह एक महान् राजा था जिसने कितने ही युद्ध विजय किए थे और अवन्ती. अंग तथा मगध के रान-कुदम्बों के साथ वैवाहिक सम्बन्धों से भी वह जुड़ा हुआ था।" चेटक की चौथी पुत्री शिवा अवन्ती या प्राचीन मालवा की राजधानी उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत को व्याही थी। यह चण्डप्रद्योत महासेन-भयंकर प्रद्योत, महान् सेना का अधिपति' और वंस अथवा वत्स देश की राजधानी कोसाम्बी के राजा उदायन के श्वसुर रूप से प्रसिद्ध है। डॉ. हिम डेविड्स कहता है कि "बुद्ध के समय में अवन्ती का राजा भयंकर प्रद्योत था जो कि उज्जैन में राज्य करता था। उसके सम्बन्धी दन्तकथा कहती है कि वह और उसका पड़ौसी कोसाम्बी का राजा उदेन समकालिक थे। वे वैवाहिक सम्बन्ध से भी जुड़े हुए थे और युद्ध भी दोनों ही ने किया था ।"" यह दंतकथा जैन माहित्य से सम्पूर्ण मिलती है। इन्हीं प्राधारों से हम जानते हैं कि वत्स राजा उदायन का विवाह वासवदत्त , अवन्ती के प्रद्योत की पुत्री से हुआ था । ग्राचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि चण्डप्रद्योत ने शतानीक से मगावती को उसके पास भेज देने का कहलाया था और उमके इन्कार करने पर उसने उसके ऊपर धावा बोल दिया था, इसी अरसे में शतानीक की मृत्यु हो गई और जब महावीर कोसाम्बी में पाए थे तव चण्डप्रद्योत ने उनकी प्रतिभा चौंधिया कर वैरवृत्ति छोड़, उदायन को कौसाम्बी का राजा बना देने का वचनबद्ध होकर, मृगावती को जैन साध्वी हो जाने की प्राज्ञा दे दी थी। "वत्ल का राजा यह उदायन प्रेम और साहसिक अनेक संस्कृत कथानों का महान चक्र का केन्द्र व्यक्ति है । उनमें अनुपम सुन्दरी वासवदत्ता के पिता उपजैन के राजा प्रद्योतना भी कुछ कम भाग नहीं है।" 10 जैसा कि अभी ऊपर कहा गया है उसने अवन्ती, अंग और मगध के राज-कुटम्बों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध बांध लिया था । सम्पूर्णतः विश्वस्त यदि नहीं भी हों तो भी भिन्न-भिन्न प्रमाणों से हमें पता लगता है कि अवन्ती के राजा प्रद्योत की काया वासुलदत्ता हाथवा वासवदत्ता और मगध के राजा दर्शक की बहन पद्मावती एवम् अंग देश के राजा हर वर्मा की पुत्री उसकी रानियाँ थी। इनमें से वासवदत्ता उदायन की पटनी थी। बौद्ध एवं जैन दोनों ही 1. प्रधान, वही. प्र. 123 1 2. देखो अावश्यकसुत्र प्र. 677 ।। 3. देखो दे, वही, पृ. 209 । 4. देखो प्रधान, वही. प. 230 । 5. देवो रायचौधरी. वही, पृ. 83 । कौशाम्बी नगर या कोसम...उदायन के राज्य वंशदेश या वत्स देश की राजधानी थी। -दे, वही, प. 96। देखो वही, प. 28 1. 6. हिस डेविड्स, कैहिई, भाग I. 4. 185 । 7. देखो आवश्यकसूत्र पृ. 674: हेमचन्द्र, त्रिषष्टि-शलाका. पर्व 10, पृ. 142-145 ।। 8. 'अवन्ती मोटे तौर पर आधुनिक मालवा, नीमाड़ और मध्यप्रदेश के प्रास-पास के स्थानों तक फैला देश था । प्रो. भण्डारकर कहते हैं कि वह जनपद दो भागों में विभक्त था । उत्तरी भाग की राजधानी उज्जयिनी थी और दक्षिणी भाग को अवंती दक्षिणी पथ भी कहा जाता था, की राजधानी महासत्ती या महिष्यती थी जो कि नर्बदा नदी पर का ग्राधुनिक मान्धाता है।" -राय चौधरी, वही, प. 92 । 9. हेमचन्द्र. वही, श्लो 332, 4. 107 । 10. रेप्सन, कैहिई, भाग !, पृ. 3।।। देखो रायचौधरी, वही, पृ. 122; फर्जीटर, एशेंट हिस्टोरिकल ट्रेडीशन, पृ. 285 । 11.देखो राय चौधरी, वही और वहीं स्थान; प्रधान, वही, पृ. 211. 246 । "दन्तकथानों में उदन और उसकी तीनों रानियों के साहसों की लम्बी कहानी सुरक्षित हैं।" -ह्रिस डेविड्स, वही पृ. 187 । प्रधान. वही, पृ. 21 : 246 तकशों Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 ] साहित्यों में अवन्ती के प्रद्योत की कन्या वासूलदत्ता कौसाम्बी के राजा उदेन की रानी अथवा उसकी तीन रानियों में से एक कैसे बनी इसकी अद्भुत और लम्बी कथा दी गई है।"1 धर्म के प्रति उनकी मनोवृत्ति के विषय में तो उसकी माता. बिंबमार, चेल्लगा एवं उसके अन्य सम्बन्धी जो उस समय जैनधर्म में अग्रणी थे, उमके ग्रादर्श थे। स्वभावतः ही इमलिए उसके मन में जैनधर्म के प्रति सम्मान और महानुभूति उत्पन्न हुए बिना रह नहीं सकती थी। प्रवन्ति के प्रद्योत और उसकी पत्नि शिवा के जैन धर्म के प्रति ग्रादर के सम्बन्ध में ग्रा. हेमचन्द्र कहते हैं कि प्रद्योत को जैनधर्म के प्रति बहुत मान था और उसकी प्राज्ञा मिलने पर ही अंगारवती ग्रादि उसकी पाठ रानियां को साम्बी की मगावती के साथ जैन साध्वियां हो गई थी। सौवीर के उदायन के वर्णन में जैसा कि हम देख पाए है, प्रद्योत ने स्वयम् ही जाहिर किया था कि वह जैन है । यद्यपि बौद्ध और जैन दोनों ही इस अवंतीपति के अत्याचारों और धूर्तता से परिचित हैं. फिर भी इस विशेष प्रसंग में उसने अपने आपको किसी कारण विशेष से जैन असत्य ही कहा हो। ऐमा कुछ समझ में नहीं पाता है। यदि उसे भोजन के विषय में शंका थी तो किसी दूसरे बहाने से भी वह भोजन नहीं करने का कह सकता था। तथ्य जो भी हो फिर भी इतना तो स्पष्ट ही है कि इस विशेष प्रसंग का लक्ष्य इस या उस राजा के बुरे स्वभाव की छाप पटकने की अपेक्षा दुमरा ही है । मुख्य लक्ष्य यह मालूम देता है कि प्रद्योत का घोर शत्रु होने पर भी उदायन पयूषणा जैसे धार्मिक पवित्र दिनों में किसी को भी चाहे कोई जैन हो या अजैन, बंदी रूप में देखना नहीं चाहता था।' इस प्रकार चेटक की सात पुत्रियों में से प्रभावती, पद्यावती, मगावती, शिवा और चेल्लगा अनुक्रम से सौवीर, अंग, वत्स (वंस), अवंती और मगध के राजों के साथ व्याही थीं। इनमें के अन्तिम चार देशों के नाम सोलह महाजनपदों की बौद्ध और जैन सूचियों में पाए हैं। परन्तु मौवीर देश के विषय में अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । चेटक की शेष दो पुत्रियों में से ज्येष्ठा तो महावीर के बड़े भाई नन्दीवर्धन के साथ ब्याही थी। परन्तु सुज्येष्ठा महावीर की शिष्या जैन माध्वी हो गई थी। यह सब स्पष्ट ही बताना है कि वर्धमान का प्रभाव उसकी माता लिच्छवी राजकन्या त्रिशला के कारण ही फैला । इससे यह भी स्पष्ट है कि महावीर-काल में लिच्छवी क्षत्रिय हो माने जाते थे और उन्हें अपने उच्च कुल का अभिमान था और उनसे पूर्वी भारत के उच्च कालीन राजा लोग वैवाहिक संबंध जोड़ना अपने लिए गौरवान्वित मानते थे । 1. देखो ह्रिस डेविड्स, बुद्धीस्ट इण्डिया, पृ. 4; अावश्यक सूत्र पृ. 674; हेमचन्द्र, वही, पृ. 142-145 । 2. मामी समोसळे...। तएणं से उदाय गे या...पंज्जुवासए । प्रादि-भगवती, सू. 442, पृ. 556 । महागृहलन्मगावत्या प्रवज्यां स्वामिसन्निधों। अष्टावंगारवत्याद्याः प्रद्योतनपतेः प्रियाः ।। -हेमचन्द्र, वही, श्लो. 233, पृ. 107 । 4 देखो ह्रिस डेविड्स, वही और वही स्थान;...सो घुत्तो... पावश्यकसूत्र, पृ. 300; भण्डारकर, वही और वही __ स्थान;...-कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, सूत्र 59, पृ. 192 । 5. देखो अावश्यकसूत्र, पृ. 300; मेयेयर जे. जे., वही, पृ. 110-111, कल्पसूत्र, सुबोधिका-टिका, सूत्र 59, पृ. 192। 6. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 59-60 । 7. देखो प्रावश्यकसूत्र, पृ. 677; हेमचन्द्र वही; श्लो. 192, पृ. 77 । 8. देखो आवश्यकसूत्र, पृ. 685; हेमचन्द्र, वही, श्लो. 266, पृ. 80 । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 इस सब का सार यह है कि महावीर के संस्कारित जैनधर्म को लिच्छवियों एव वशालो के राज्यकर्ता-वंश द्वारा प्रारम्भिक दिनों में सभी अोर से अच्छा और सुदृढ़ आश्रयाप्राप्त हया था। इनके द्वारा ही- महावीर का धर्मवीर, अग, वत्स, अवंती, विदेह और मगध में प्रचार पाया था और ये सभी उस काल के अत्यन्त शक्तिशाली राज्य थे। यही कारण है कि बौद्धग्रन्थों में वैशाली के राजा चेटक का कुछ भी वर्णन नहीं मिलता है हालांकि उनमें वैशाली के संवेधानिक शासन का अच्छा वर्णन दिया हझा है।' डा. याकोबी के शब्दों में कहें तो 'बुद्धों ने उसका कुछ भी उल्लेख इसलिए नहीं किया कि उसका प्रभाव...प्रतिद्वन्द्वी धर्म के लाभ में प्रयोग हो रहा था। परन्तु जैनों ने अपने तीर्थकर के मामा और ग्राश्रयदाता की स्मृति सजीव रखी कि जिसके प्रभाव के कारण ही वैशाली जैनधर्म का गढ़ बन गई थी जब कि बौद्धों द्वारा वही पाखण्डियों और नास्तिकों के अड्डे के रूप में चित्रित की गई है। इनके सिवा भी जो जनसूत्रों में लिच्छवियों के सम्बन्ध में यत्रतत्र उल्लेख मिलते हैं, उनसे यह प्रमाणित होता है कि वे जैनी ही थे । सूत्रकृतांग को ही पहले लें जहां कि जैनों द्वारा उन्हें बहुत सम्मान प्राप्त बताया गया है। उसका कथन है कि 'जन्म से ब्राह्मण या क्षत्रिय उग्र कुल का वंशधर अथवा लिच्छवी जो कि साधू होकर दूसरों से प्राप्त भिक्षा से निर्वाह करता है, अपने प्रख्यात गोत्र को भी गर्व नहीं करता है।'' कल्पसूत्र का लेख भी देखिए 'जिस रात्रि में भगवान महावीर सब कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त हए थे उस रात्रि में कासी, कोसल के अठारह राजों, नव मल्लिकों, नव लिच्छवी राजों ने अमावस्या के दिन, दीप जलाए पोपण पर जो कि उपवास का दिन था। उनने ऐसा कहा कि ज्ञान का दीपक क्योंकि पाज अस्त हो गया है, हम द्रव्य दीएक का प्रकाश करें। जैनसूत्रों के इन दो उल्लेखों के सिवा उवासगदसायों में जितशतु राजा का उल्लेख है जो कि हरनोली के अनुसार जैन और लिच्छवी राजा चेटक के सम्बन्ध में परीक्षण में अत्यन्त महत्व का है। जैनों के इस सातवें अग के दस अध्ययनों में से पहले अध्ययन में सुधर्मा जम्बू से कहते हैं कि 'निश्चय ही हे जम्बू ! उस समय में उस काल में वारिणयागाम नाम का नगर था...वारिणयागाम के बाहर ईशान कोण में एक द्विपलाम नाम का चैत्य था। उस समय में वारिणयागाम का राजा जितशत्रु था ।...उस समय में उस गांव में ग्रानन्द नाम का गृहस्थ रहता था जो परम समृद्ध और सर्वश्रेष्ठ था। ___ उस समय में उस काल में श्रमण भगवान् महावीर वहां पधारे । लोक समूह उपदेश सुनने को वहां पाया था राजा कुरिणय ने जैसा एक प्रसंग में किया था वैसे ही राजा जितशत्रु भी उनका उपदेश सुनने बाहर आया था और इस प्रकार...वह उनकी सेवा में रहा था। 1. देखो दे, नोट्स प्रान एंजेंट अग, पृ. 322; व्हूलर, इण्डियन स्यैक्ट ग्राफ दी जनाज, पृ. 27 । 2. देखो याकोबी, संबई, पूस्त. 22, प्रस्ता. प. 12 । देखो टरनर, बंएसो, पत्रिका, सं. 7, पृ. 992 । 3. याकोबी, वही. प्रस्ता. प. 13। 4. याकोबी, से बुई, पुस्त. 45, 43211 5. 'कार्तिक महीने की प्रमावस्या की रात्रि को दिये जलाकर जैन महावीर निर्वागा का उत्सव मनाते हैं । वहीं, पुस्त. 22, पृ. 266। 6. याकोबी, मेबुई, पुस्त. 22, पृ. 266 । 7. '...महावीर के ।। गणधरों में से एक, जो उनके बाद युगप्रधान हा था. उसका उत्तराधिकारी अन्तिम - केवली जम्बू था।' हरनोली, वही, पृ. 2, टिप्पण 5 । 8. ग्रानन्द अणुवती श्रावक का जैनों में उत्कृष्ट उदाहरण हैं। देखो हेमचन्द्र. योगशास्त्र, प्रकाश 3 श्लो. 151, हरनोली. वही. प. 7 ग्रादि। 9. बद्री प. 3-7 9। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 ] है, उसे डा. हरनोली और डा. वान्यंटा' जिस जित का यह ने उचित ही महावीर का मामा चेघग या चेटक बताया है क्योंकि जितशत्रु का वाणियगाम, जैसा कि ग्रागे देखेंगे, वैशाली का ही दूसरा नाम था अथवा इस नाम मे प्रसिद्ध उनका कोई भाग था, डा. हरनोली के शब्दों में कहें तो 'सूर्यप्रज्ञप्ति में जिला को विदेह की राजधानी मिथिलाका राजा कहा है... यहां उसको वारिगाम प्रवासासी का राजा कहा है। फिर महावीर के मामा बेडग को नाली और विदेह का राजा होना भी कहा गया है।... इससे लगता है कि जिस और डग एक ही व्यक्ति हैं।" फिर राजा कुग्गिय जिसके साथ जितशत्रु की तुलना की गई है. अन्य कोई नहीं अपितु मगध के राजा बिसार का पुत्र और ग्रनुगामी गतशतु हो है । जब हम यह जानते हैं कि कुणिय उसके पिता जैसा महान् जैन था तो यह तुलना बिलकुल हो उचित लगती है। यह परिस्थिति उसके जीवन्त पर्यटकी रही थी या नहीं यह तो पीछे विचार करेंगे, परन्तु इतना तो निश्चित कहा जा सकता है कि उसको जैनधर्म के प्रति विशेष सहानुभूति थी" और वह महावीर के संसर्ग में एक से अधिक बार प्राया था । हमने पहले ही देख लिया है कि इस कुणिय या कुणिक का उसके नाना चेटक के साथ उस हाथी को ले कर युद्ध हुआ था जिसको ले कर उसका छोटा भाई वैसाली पलायन कर गया था। इससे ऐसा लगता है कि अजातशतु की प्रतिद्वन्द्वता में चेटक जितशत्रु कहलाया होगा। एक बार फिर डा. हरनोली का प्रमाण देते हैं कि मगध का राम प्रजातशत्रु एक समय महावीर का अनुयायी था और बाद में वह बुद्ध का अनुयायी बन गया होगा जैसा कि सूचित किया गया है जिस (जितन) नाम अजातशत्रु के प्रतिइन्द्री की दृष्टि से उसे दे दिया गया होगा। जैनों में अजातशत्रु कुरणीय नाम मे ही परिचित है और इसी नाम में यहां और अन्यत्र भी जितशत्रु से उसकी तुलना की गई है ।' इन सब दन्तकथात्रों पर से लिच्छवी क्षत्रियों के विषय में ऐसा लगता है कि वे भी विदेह की जैसे ही जैन थे 15 यदि यह स्वीकार कर लिया जाए तो महान् और शक्तिशाली लिच्छवी वंश महावीर के संस्कारित धर्म के लिए वास्तव में ही शक्ति का मूल्यवान श्रोत सिद्ध हो जाता है। उनकी राजधानी ही महावीर काल में जैन समाज की प्रमुख नगरी थी। जैन साहित्य से भी हम जानते हैं कि महावीर लिच्छवियों की राजनगरी ने प्रत्यन्त निकट संपर्क में थे । जैनों के इस अन्तिम तीर्थंकर को वैशाली अपना ही नागरिक घोषित करती है । सूत्रकृतांग में महावीर के विषय में कहा है कि " पूज्य प्रर्हत् ज्ञातृपुत्र, वैशाली के प्रसिद्ध निवामी, सर्वज्ञ, सम्यग्ज्ञान और दर्शन युक्त इस प्रकार बोले।" जैनसून उत्तराध्ययन में भी यही बात कुछ हेरफेर के साथ मिल जाती है ।" महावीर वेसालिए अथवा वैशालिक या वैशाली निवासी कहलाते हैं । फिर अभयदेवसूरि भगवती टीका में (21-12, 2) वंशालिक को महावीर ही बताते हैं और वैशाली को महावीर की जननी या माता कहते हैं " 1. वारन्ट, वही, प्रस्ता. पु. 6 नियम सम्बन्धी जैनों के 8 और 9 वे भांग के संदर्भों के लिए देखो, वही, पृ. 62, 113 1 2. हरनोली, वही, पृ. 6 टि. 9 1 3. तएां से कुणियं राया...समणं भगवं महावीरं... वंदतिगमनति... पपातिकसूत्र 32, पृ. 7 4. हरनोली वही धौर वही स्थान 1 5. जैनधर्म की वैशाली में प्रधानता के अधिक तथ्यों के लिए देखो लाहा, वि. प., वही पु. 72-75 याकोबी वही, पृ. 194 6. arstát, àgé., gear. 45, q. 261 1 देखो 8. लाहा. बि. च. वही. प. 31-321 राष्ययन सूत्र अध्ययन 6 गाया 17; याकोबी, वही. पू. 27 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 91 इसके भिवा कल्पसूत्र से भी मालूम होता है कि महावीर अपने साधू-जीवन में अपनी मातृभूमि को भूल नहीं गा थे और इसीलिए 42 चौमासों में से लगभग 12 उनने वैशाली में किए। फिर भी जैनों के अन्तिम तीर्थंकर और लिच्छवियों के इस निकट सम्बन्ध का महत्व इस बात से और भी बढ़ जाता है जब कि हम विभिन्न प्राधारों मे यह जानते हैं कि वैशाली, लिन्छवी राजनगर, शक्तिशाली, राजवंश के अधिकार में थी कि जो अपने काल के राजनैतिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों में बहुत ही प्रभावशाली था । "वैशाली", डॉ. लाहा कहते हैं, "महानगरी, सर्व श्रेष्ट, भारतीय इतिहास में लिच्छवी राजों की राजधानी रूप में और महान् एवं शक्तिशाली वज्जि जाति के केन्द्र रूप में प्रख्यात है। यह महानगरी जैन और बौद्ध धर्म दोनों ही के प्राचीन इतिहास के साथ निकट का सम्बन्ध रखती है इतना ही नहीं अपितु ईसबो यूगारम्भ के 500 वर्ष पूर्व में भारत के ईशान कोण में उत्पन्न और विकसित दो महान धर्मो के संस्थापकों की पवित्र मतियों भी उसके साथ लगी हुई हैं।" एक बात और विचार करने की रह जाती है और वह यह कि वैशाली और कुण्डग्राम में क्या सम्बन्ध था। ईसवी युगारम्भ के 500 वर्ष पूर्व में भारतवर्ष के नगरों में वैशाली अनन्यतम समृद्ध नगर था इसको दृष्टि से रखते हुए एक बात निश्चित लगती है कि कुण्डग्राम, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वैशाली का ही विभाग होना चाहिए । जैन और बुद्ध दोनों ही की दन्तकथाओं के आधार पर, डॉ. हरनोली', राकहिल', ग्रादि विद्वान इससे सहमत हैं कि वैशाली तीन विभागों में विभाजित था । "एक तो वैशाली खान, दूभरा कुण्डग्राम और नीमग वारिणयगाम जो सारे नगर के क्षेत्रफल में अनुक्रम मे नैऋत्य, ईशान और पश्चिम में अवस्थित थे। फिर ये तीनों ही खण्ड वैशाली से निकट सम्बन्धित थे क्योंकि महावीर कुण्डग्राम में जन्मे होने पर भी वैशाली-निवामी 1. वही, पृ. 3।। यह लिच्छवीकुल की राजधानी थी, कि जो मगध के राजों के सा विवाह सम्बन्ध से पहले ने हो घनिष्टतम जुड़ी हुई थी...वह बज्जि शक्तिशाली जनपद का प्रमुख स्थान थी...। उन स्वतन्त्र वंशा के समस्त राज्यों में कि जो ई. पूर्व छटी सदी के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में प्रमुख स्थान रखते थे, एक यही महानगरी थी। वह प्रति सम्पन्न नगरी होना चाहिए।" हिस डेविडस, वही, १. 40. शपेंटियर, कैहिई, भाग 1, पृ. 157। 2. कुण्डग्राम नाम से वैशाली नगर जैन तीर्थंकर महावीर की जन्मभूमि कही गई है जो कि वेसालिए भी कहलाते थे । बौद्धों का कोटिगाम भी यही है।" -दे दी ज्योग्राफिकल डिक्षनेरी प्रॉफ एजेंट एंड मैडीवल इण्डिया, पृ. 107 । 3. हरनाल:, वही, 1.3-7 । राकहिल, दी लाइफ ग्राफ बुद्ध, पृ. 62-63 1 5 हरनोली. वही, पृ. 4 । देखा लाहा वि. च., वही, पृ. 33; दे, वही, पृ. 17। यहां यह कह देना उचित है कि उवास गदसानों में वारिणयगाम के सम्बन्ध में निम्न प्राशय का उल्लेख मिलता है : वारिणयगामे नयरे उच्चनीयमज्झिमाड़ कुलाई (वारिंगयगाम नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में) ! हरनोली, वही, भाग 1, पृ. 36 । प्राश्चर्य की ही यह बात है किमदल्व में दिए वैशाली के वर्णन से यह मिलता हया है। -राकहिल, वही, पृ. 62 । वैशाली के तीन भाग हैं : एक भाग में स्वर्ग शिखर वाले 7000 भवन थे, मध्य भाग में रौप्य शिखर के 14000 भवन थे और अन्तिम भाग में 220000 ताम्र शिखर के घर थे । इनमें उच्च, मध्य और निम्न वर्ग के लोग अपनी-अपनी स्थित्यानुसार रहत थे।" देखो हरनोली, वही, भाग 2, पृ. 6 टि. ४ | श्री दे ने इन तीनों विभागों को इस प्रकार माना है : वैशाली खास (वसाढ), कुण्डपुर (बसुकुण्ड), और वारिणयगाम (बानिया) जिनमें क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य रहते थे। -दे, वही, पृ. 176 । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 921 कहलाते थे और जो बारह चौमासे उनने वैशाली में बिताए उनके विषय में कल्पसूत्र में उल्लेख "शाली और वायग्राम में बारह "" कह कर किया गया है। डॉ. हरनोली और नन्दलाल दे इससे एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि ये तो वैशाली ही थे क्योंकि वैशाली का प्राचीन नगर कुण्ठपुर या वाणिजग्राम भी कहलाता या धोर अन्त में वे यह स्वीकार कर लेते हैं कि लिच्छवियों की रियासत वैशाली के ये पृथक विभाग थे। * इस प्रकार इतना तो स्पष्ट है ही कि कुण्डग्राम वैशाली के तीन प्रमुख विभागों में से एक था और इस वैशाली का शासन ग्रीक नगर राज्यों के शासन से मिलता जुलता सा मालूम होता है। इस काल की विचित्र राज्य अवस्था स्वतन्त्र नियमादि संस्थाएं रीति-रिवाज और धार्मिक मान्यताएं एवम् व्यवहार सब भारत के उस संक्रमण काल की झांकी हमें कराते हैं जब कि प्राचीन वैदिक संस्कृति नव विकास साध रही थी और उस कल्पनाशील प्रवृत्ति में प्रभावित होकर सद्भूत परिवर्तन पा रही थी कि जिसमें नई सामाजिक-धार्मिक स्थिति का परिस्फुटन हुआ। डा. हरनोली कहता है कि 'वह एक अल्पजनमत्ताक (ओलीगार्गिक रिपब्लिक) राज्य था; उसकी सत्ता उसके निवासी वंशों के नायकों के बने हुए मण्डल में वेष्टित रहती थी। राजा का नाम धारण करनेवाला थिकारी उस मण्डल का सभापतित्व करता था और उसको एक प्रधान और एक सेनाध्यक्ष सहायता करते थे। ऐसे प्रजासत्ताक राज्यों में वैशाली के वज्जि और कुशीनारा (कुसीनगर) एवम् पावा के मल्ल राज्य महत्व के थे । रोम के जैसे ही विदेह में राजसत्ता के नष्ट हो जाने पर वज्जियों का प्रजासत्ता स्थापित हुई थी । " इस प्रकार पुरानी राजसत्ता के स्थान में कुण्डग्राम और अन्य स्थलों को क्षत्रिय जातियों को प्रमुखता में वैशाली जैसे प्रजासलाक महाराज्य स्थापित हुए थे। यद्यपि देश के राजकीय वातावरण में पसरी हुई मंशुनाग की महान सत्ता का विचार करते हुए ऐसे प्रजासत्ताक राज्य ग्रल्पसमयी ही थे, फिर भी उस काल में इनका प्रस्तित्व और प्रभाव तो स्वीकार किए बिना चल ही नहीं सकता है । डा. लाहा कहता है कि 'मौयों की सार्वभौम राजनीति की वृद्धि और विकास के पूर्व उत्तर भारत में बसती भिन्न भिन्न आर्य प्रजा में प्रचलित राजकीय संस्थानों की प्राचीन प्रजासत्ताक राजनीति का खयाल पाली भाषा के 1. याकोबी, वहीं पृ. 264 2. "वारिण्यगाम (संस्कृ. वाणिज्यग्राग) लिच्छवी देश की राजधानी वैसाली (संस्कृ. वैशाली) के मुख्याल नगर का दूसरा नाम... | कल्पसूत्र में... इसको अलग बताया गया है, परन्तु वैशाली के बहुत निकट में । बात यह है कि, जिसे वैसाली साधारणतः कहा जाता है वह नगर बहुत व्यापक क्षेत्र में फैला हुआ था जिसकी परिधि में सालोलास (धाज का बसाढ़) के सिया... अनेक और भी स्थान थे। इन अन्य स्थानों में ही वाणियगाम और कुण्डगाम या कुण्डपुर से प्राज भी वाणिया और वसुकुण्ड नाम के ग्राम रूप में ये विद्यमान हैं इसलिए संयुक्त नगर को जैसा अवसर हो, उसके किसी भी ग्रवयवांश के नाम से परिचय कराया जाता है।" - हरनोली वही, भाग 2, पू. 3-4 बारियागाम वैशाली या (वसाद), मुजफ्फरपुर ( तिरहुत) जिले में वस्तुत: वालियागामा वैशाली के प्राचीन नगर का एक अंश ही था... कुण्डगाम मुजफ्फरपुर ( तिरहुत) जिले के वैशाली आधुनिक बसाद) का यह दूसरा नाम है वस्तुतः कुण्डगाम (कुण्डग्राम) जिसे अब बकुण्ड कहते हैं, वैशाली के प्राचीन नगर के उपनगर का ही एक भाग था ।" दे, वही, पृ. 23,107 1 3. देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 22 रायचौधरी वही, पृ. 75-761 4. वही. पृ. 52. 116 | देखो टामस, एफ. डब्ल्यू., कैहिड, भाग 1, पृ. 491 । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धों में दिए वनों से ठीक ठीक होता है और उसका समर्थन मोठं साम्राज्य की स्थापना के लिए उत्तरदायी राजनीतिज्ञ महान् ब्राह्मण' कौटिल्य भी करता है । हमारे अभिप्राय के लिए इसलिए इतना ही कहना पर्याप्त है कि नाय या नात जाति के मुख्य पुरुष सिद्धार्थ ने राज्य और राज्यमण्डल में उच्चपद प्राप्त किया ही होगा कि जिसके फलस्वरूप वह एक प्रजासत्ताक राजा की बहन त्रिशला से विवाह कर सका था । " अवज्ञानिकों का विचार करने पर हम देखते हैं कि उनने भारतवर्ष को एक सर्वोत्तम धार्मिक सुधारक दिया था और जैसा कि हम कार देख ही चुके हैं, जब वया लिच्छवी राजमण्डलों की मुख्य जातियां में भी इनका स्थान था, तब क्षत्रिय जाति के रूप में उसका महत्व स्वतः सिद्ध हो जाता है क्योंकि यह वृता लिच्छवी मैत्री संघ' के प्रमुख कुलों में से एक थी। सिद्धार्थ और उनके पुत्र तीर्थ कर महावीर की यही ज्ञात्रिक कुल था। इनका प्रमुख नगर कुण्डपुर या कुण्डग्राम और कोल्लाग, वैशाली के उपनगर थे। फिर भी ये सालिए अथवा वैशाली निवासी कहे जाते थे। 4 राजा सिद्धार्थ और रानी का पुत्र महावीर निःसंदेह ज्ञातृक कुल का एक नर रन था इस अद्वितीय व्यक्ति का महान् प्रभाव अपने जाति भाइयों पर कितना था. इस विषय में इनके घोर विरोधी दौड़ों के धर्मशास्त्रीय साहित्य में ही इस प्रकार उल्लेख मिलता है वह संघका पुरुष महान गुरु महान श लोकमान्य महान अनुभवी दीर्घ तपस्वी वयोवृद्ध और परिपत्र या का है।" 1 93 " हम देख ही पाए हैं कि महावीर और उनके मातापिता श्री पार्श्वनाथ के धर्म के अनुयायी थे और इसलिए नाय क्षत्रियों की सारी जाति ही उसी धर्म की अनुयायिनी हो यह बहुत सम्भव है। ऐसा मालूम होता है कि यह नावजाति महावीर के पुरोगामी पार्श्व के अनुयायी साधू-समुदाय का पोषण करती थी और जब महावीर ने धर्मप्रवर्तन किया, तब उनकी जाति के सदस्य उन्हीं धर्म के श्रद्धाशील अनुयायी हो गए। सूत्रकृतांग में कथन है कि जिनने महावीर प्ररूपित धर्म का अनुसरण किया वे 'सदाचारी और प्रामाणिक' हैं और वे 'परस्पर एक दूसरे को धर्म में दृढ़ करते हैं ।" इस प्रकार महावीर की ही ज्ञाति के होने के कारण ज्ञात्रिकों पर नाम के सिद्धांत का स्वभावाया अत्यधिक प्रभाव पड़ा जैनसूत्र शात्रिकों का पादर्श चिप प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि वे पाप और पापमय 1. लाहा, वि.च, वही, पृ. 1-21 2. देखो श्रीमती स्टीयन्सन, वही, पृ. 22; याकोबी, वही, प्रस्ना पृ. 121 3. कुल का नाम नाय या नाथ ही दिया गया है। देखो लाहा. वि. च. वही, पृ. 121 हरनोली वही, पृ. 4 टिप्पण | 4. उवासगदसाप्रो में कोल्लाग के विषय में इस प्रकार कहा गया है 'वारिणयागाम नगर के बाहर, उत्तर-पूर्वी दिशा में कोल्ला नाम का एक उपनगर था जो विस्तृत, गुर... महलोवाला प्रादि-पादि था। 'हरनोली वही, पृ. 8 देखो वही पु. 4 टिप्पण मुजफ्फरपुर (तिरहुत) जिले के वैशाली (साह) का उप नगर, जिसमें नायकुल क्षत्रिय रहते थे जैन तीर्थकर महावीर इसी क्षत्रिय जाति के थे' दे, वही, पृ. 102 1 1 5. रायचौधरी, वही, पृ. 74 | देखो वारन्यैट, वही, प्रस्ता. पृ. 6; हरनोली, वही और वही स्थान । 6. नाहा. वि. च., वही पू. 124 125 1 7. देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 31 लाहा, बि. च.. वही. पू. 123 1 8. देखो पाकोबी, सेमुई, पुस्त. 45, पृ. 2561 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 ] व्यापार से दूर रहते थे। उदाहरणार्थ सूत्रकृतांग कहता है कि 'प्राणि मात्र की अनुकंपा करने के लिए इप्टा, ज्ञातृपुत्रगण, सब पापमय प्रवृत्तियों से दूर रहते हैं। इसी भय से वे खास उसके लिए बनाया हुआ भोजन भी स्वीकार नहीं करते हैं । जीवित प्राणियों को पीड़ा पहुंचने के डर से वे दुष्ट कामों से दूर रहते हैं, किसी जीव को दुख या पीड़ा नहीं करते हैं, इसीलिए वे ऐसा पाहार भी नहीं करते हैं। हमारे धर्म के साधुनों यही का प्राचार है।' उवासगदसानो से हम यह जानते हैं कि ज्ञानिकों का अपनी राजधानी कोल्लाग की बाहर द्विपलास नाम का चैत्य था।' डा. हरनोली चैत्य शब्द का अर्थ 'जैन मन्दिर अथवा पवित्र स्थान ' करते हैं, परन्तु सामान्यतया इससे वह समस्त बड़ा ही समझा जाता है कि जिसमें उद्यान, वनसंड या वनखण्ड, मन्दिर और उसके पुजारी की कुटि ग्रादि सब होते हैं।'' जब हम यह जानते हैं कि शिष्यों सहित महावीर के कुण्डपुर या वैशाली में समय समय पर प्रागमन के समय ठहरने को स्थान रखना पार्श्वनाथ के अनुयायी होने से ज्ञातृकों को प्रावश्यक था तो चैत्य का उपयुक्त व्यापक अर्थ एकदम समीचीन ही लगता है। और इस अर्थ के समीचीन होने का इससे भी समर्थन हो जाता है कि दीक्षित होने के पश्चात् महावीर अपनी जन्मभूमि में जब भी ग्राए, उनने इसी चैत्य में निवास किया था। ज्ञातृकों और उनके कुल वि. रीट महावीर प्ररूपित धर्म के प्रति उनके बहुमान के विषय में इतना ही कहना पर्याप्त होगा । फिर भी हम यह बता देना चाहते हैं.' डा. लाहा कहता है कि, 'वे महावीर ही थे जिनने ज्ञातृकों का पूर्वी-भारत की पड़ोसी जातियों से निकटतम संसर्ग कराया था और ऐसे धर्म का विकास किया था कि जो आज भी लाखों भारतीय मानते पालते हैं । इसी ज्ञातृक जाति का दूसरा नर-रत्न आनन्द था जो कि महावीर का एक निष्ठ अनुयायी था । जैन गसूत्र उवासगदसायों में कहा गया है कि उसके पास चार करोड़ मौनयों की निधी थी। फिर यह भी कहा गया है कि वह ऐसा महान् था कि अनेक राजा. महाराजा और उनके अधिकारी से लेकर व्यापारी तक भी उससे अनक बातों की सलाह किया और लिया करते थे । उसके शिवनन्दा नाम की पतिव्रता भार्या थी। अव वज्जियों का हम विचार करें। हम देखते हैं कि लिच्छवियों और वज्जियों के बीच में भेद करना अत्यन्त ही कठिन है । वे भी 'वैशाली के साथ जो कि लिच्छवियों को राजधानी में ही नहीं थी, अपितु समस्त धनपद की महानगरी भी थी, बहन सम्पर्क में थे। डा. लाहा के अनुसार लिच्छवी और अधिक व्यापक अर्थ में कहें तो वज्जि दृढ़ धार्मिक भावना और गहरी भक्ति से प्रेरित मालूम होते हैं। मगध देश और वज्जि भूमि में 1. लाहा, बि. च., वही. पृ. 1 22 । 2. याकोबी, वही, पृ. 416 । डा. याकोबी ने यहां टिप्पण दिया है कि ज्ञातृपुत्र शब्द यहां जैनों के लिए पर्यायवाची रूप से प्रयुक्त हुया है । देखो वही । 3. देखा हरनोली, वही, भाग I, पृ. 2। 4. हरनोलो. वही, भाग 2, पृ. 2 टिप्पण + । 5. देखो वही, भाग ।, प. 6; भाग 2.प. 9। कल्पसत्र में हमें दुइपलास चेइय का नाम नहीं मिलता है यद्यपि नायकूल के साण्डवन उद्यान का नाम वहां मिलता है। कल्पसूत्र, सूबोधिका टीका सुत्र |15, प. 95 । देखो योकोबी, सेबुई, पुस्त. 22. प. 257; हरनोली. वही, पृ. 4-5; श्रीमती स्टीवन्सन वही, पृ. 31 । 6. लाहा. बि. च., वही, पृ. 125 । देखो हरनोली, वही. पु. 7-9 । 7. रायचौधरी, वही, पृ. 74-75 । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 95 महावीर के अपने धर्म-सिद्धान्त का विकास साध कर सर्व जीवों के प्रति असीम दयाधर्म का प्रचार करने के पश्चात् उनके अनुयायियों में लिच्छवी ही बहुत बड़ी संख्या में थे और बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार वैशाली के उच्चपदस्थ व्यक्तियों में से भी कुछ उन अनुयायियों में थे ।"] इस प्रकार विदेही, लिच्छवी, वज्जि, और ज्ञातृक जैनधर्म के साथ कैसे सम्बन्ध थे यह हमने संक्षेप में देखा । ऐसा मालूम होता है कि वज्जि अथवा लिच्छवी का राज-मण्डल महावीर के संस्कारित धर्म को शक्तिप्रद था। मल्लिकों का विचार करने पर मालम होता है कि उनकी भी महान तीर्थंकर महावीर और उनके सिद्धान्त के प्रति अपूर्व लग्न थी और बहुत मान था। मल्लों का देश सोलह महाजनपदों-महान देशों में का एक कहा जाता है । और यह बौद्ध एवम् जैन दोनों ही स्वीकार करते हैं। महावीर के समय में मल्ल दो भागों में विभक्त दीखते हैं। एक की राजधानी पावा और दूसरे की कुसीनारा थी। दोनों राजधानियां एक दूसरे से थोड़ी सी दूरी पर ही थीं और वे जैनों एवम् बौद्धों के तीर्थरूप में आज तक प्रसिद्ध हैं क्योंकि दोनों के धर्म संस्थापकों का निर्धारण वहां हुआ था। हम देख ही आए हैं कि महावीर का पावा में निर्वाण जब हा वे "हस्तिपाल राजा की लेखनशाला (रज्जुगशाला) में ठहरे हुए थे। और पादरी स्टीवन्सन के कल्पसूत्रानुसार जब कि वे पावा के राजा हस्तिपाल के महल में प!षणा बिता रहे थे । आज वहां उनके निर्वाण-स्मारक रूप में चार सुन्दर मन्दिर बने हुए हैं।"। मल्लों का जैनों के साथ सम्बन्ध यद्यपि लिच्छवियों जितना निकट का नहीं कहा जा सकता है फिर भी वह इतना तो गहरा मालम होता ही है कि जिससे उन्हें अपने धर्म-प्रचार में उनसे सहाय्यता प्राप्त होती रही थी। डॉ. लाहा के अनुसार इस बात के प्रचुर प्रमाण हमें बौद्ध साहित्य से प्राप्त हैं । वह कहता है कि "पूर्व-भारत की अन्य जातियां जैसे कि मल्ल जाति में भी जैनधर्म के अनेक अनुयायी मिलते हैं । महावीर के निर्वाण पश्चात् जैनसंघ में पड़ी फट के विषय में बौद्ध साहित्य में वरिणत बातें इसको प्रमाणित करती हैं । महान् तीर्थकर के निर्वाण के पश्चात् पावा में निगंठ नातपुत्त के अनुयायी पृथक हो गए थे। इन अनुयायियों में साधू व नातपुत्त अनुयायी श्रावक दोनों ही थे क्योंकि हमें लिखा मिलता है कि" साधुषों की इस फूट के कारण, । श्वेतवस्त्र धारियों के गृहस्थ अनुयायियों को भी निगंठों के प्रति तिरस्कार, क्रोध और विराग हुआ था। ये गृहस्थ-उपासक, उक्त अवतरण से पता लगता है कि, उसी प्रकार के श्वेत-वस्त्रधारी थे जैसे कि आज के श्वेताम्बर साधू हैं। बुद्ध और उनके प्रमुख शिष्य सारिपुत्त ने महावीर के निर्वाण पश्चात् उनके अन्यायियों में हुई इस फूट का अपने धर्म प्रचार 1. लाहा, बि. च., वही, पृ. 67, 73 । 2. देखो रायचौधरी, वही, प. 59-601 3. देखो लाहा, वि. च., वही, पृ. 147; रायचौधरी, वही, पृ. 79; ह्रिस डेविड्स कैहिई, भा. 1, पृ. 175 "कनिघम ने मनसे आधुनिक थडराना को पावा या पापा कह दिया है जहां कि बुद्ध ने चुण्ड के घर भोजन किया था। प्राचीन पापा या अपापापुरी का आधुनिक नाम पावापुरी है और यह बिहार नगर के पूर्व में सात मील पर है । यहां महावीर का निर्वाण हुअा था।" -दे, वही, पृ. 148, 155 । कुसीनारा या कुसीनगर वह स्थान है जहां बुद्ध का निर्वाण ई. पूर्व 477 में हुअा था। प्रो. विल्सन और अन्य विद्वानों ने आधुनिक गांव कासिया को ही जो कि गोरखपुर जिले के पूर्व में है, कुसीनारा बताया है। इसको प्राचीन काल में कूशवती भी कहते थे । देखो रायचौधरी वही और वही स्थान लाहा, बि. च., वही, पृ. 147-148: दे, वही, पृ. 111। 4. वही, पृ. 148 । देखो व्हूलर, वही, पृ. 27, पादरी स्टीवन्सन, कल्पसूत्र, प, 9।। 5. देखो ब्लर, वही और वही स्थान । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 के लिए लाभ उठाया दीखता है पासादिक मृत्तान्त में कहा गया है कि पावा आने वाले चुण्ड ने ही मल्ल देश के सामगाम के प्रानन्द को तीर्थंकर महावीर के निर्वाण होने का समाचार दिया था और इस प्रानन्द को इस समाचार का महत्व तुरन्त ही समझ में आ गया और इसलिए उसने कहा, "हे मित्र चुण्ड । इस महत्वपूर्ण संवाद को भगवान् बुद्ध के पास ले जाने की ग्रावश्यकता है। इसलिए चलो हम ही यह समाचार उन्हें जा सुनाएं । वे शीघ्र ही बुद्ध के पास पहुंच गा। जिनने उन्हें तब एक लम्बा प्रवचन दिया।" फिर जैन साहित्य से भो हम जानते हैं कि जैनों के अन्तिम तीर्थकर महावीर के प्रति मल्ल लोगों की परम श्रद्धा-भक्ति थी। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है। कल्पसूत्र के अनुसार महान तीर्थ कर के निर्वाण दिवस का उत्सव मनाने के लिए नौ लिच्छवियों के साथ नौ मल्लिक सरदार भी थे । इन सब ने उस दिन उपवास व्रत किया था और जब 'ज्ञान का दीपक बुझ गया है तब द्रव्य दीपकों का प्रकाश करें' ऐसा कहते सब ने दीपोत्सव किया था । फिर जैनों के आठवे अगग्रन्थ 'अ तगडदसायो' में उग्र, भोग, क्षत्रिय, और लिच्छवियों के साथ महिलकों का भी उल्लेख किया गया है। जैनों के बाईसवें तीर्थंकर अरिट्रनेमि अथवा अरिष्टनेमि बारवाई (द्वारका) शहर में गए तब मल्लि भी उपयूक सब लोगों के साथ उनका स्वागत और दर्शन करने गए थे। अब कासी-कोमल के अठारह गगा राज्यों का विचार करें । यहां हम देखते हैं कि वे भी लिच्छवियों और मल्लकों की भांति ही महावीर के भक्त थे । इनने भी महावीर के निर्वाण दिवस पर उपवास किया हया था और दीपोत्सव भी किया था। फिर यह भी हम देख चुके हैं कि जैन साहित्य में ऐसा भी उल्लेख है कि राजा कृगिक ने जब उनके विरूद्ध युद्ध घोषित किया तब राजा चेटक ने मल्ल सरदारों के साथ अठारह कासी-कोमल के गगाराजों को भी अपनी सहायता के लिए निमंत्रित किया था। कासी कोसल जनपद का विचार करने पर हम देखते हैं कि कासी की प्रजा विदेह और कोसल की प्रजा के साथ शत्रु और मित्र दोनों ही प्रकार के सम्पर्क में प्रायी थी ।" 'सोलह महाजनपदों में से का ी प्रथमतया सम्भवतः अत्यन्त समृद्ध था, और यह बात बौद्ध एवम् जैन दोनों ही स्वीकार करते हैं। पार्श्वनाथ के काल में जैन इतिहास में इसकी महत्ता का विचार पहले ही किया जा चुका है। फिर महावीर भी साधू जीवन में कासी गए थे।' यहां यह भी सूचन कर देना उचित है कि प्रतगडदसानों में वाराणपी के एक राजा अलक्खे का उल्लेख किया गया है कि जिसने भगवती दीक्षा ली थी। अन्त में हम कोसल का विचार करें। कासी की भांति ही यह भी सोलह व्यापक एवं समृद्ध जनपदों में का एक था और जैन एवं बौद्ध दोनों ही साहित्य में इसका वर्णन है।' भौगोलिक दृष्टि से कोसल आज के अवध प्रान्त से मिलता है और उममें अयोत्या, साकेत और सावत्थी या श्रावस्ती नाम के तीन बड़े नगर होने को कहा गया है।10 इसमें के 'कौसल की राजधानी।। श्रावस्ती में महावीर एक से अधिक वार गए थे और वहां उनका 1. लाहा, बि. च , वही, प. 153-154 । देखो डायलोग्स आफ दी बुद्धा, भाग 3, प. 203 आदि, 203, 212 । 2. याकोधी, वही, पृ. 206 । 3. वारन्यैट, वही, पृ. 36 । 4. देखो कल्पसूत्र, सुबोध टीका. सूत्र 128. पृ. 121। 5. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 44 । 6. वही, पृ. 59-60। 7. देखो आवश्यकसूत्र, पृ221 ; कल्पसूत्र, सुबोध टीका सू. 106 । 8. वारन्यैट, वही, पृ. 96 9. रायचौधरी, वही और वही स्थान । 10. वही, पृ. 62-63 । 11. प्रभान, वही, पृ. 214 । 'सावत्थी राप्ती नदी के दक्षिणी तट पर एक बड़ा विध्वंस नगर है जो नाजकल सहे थ-महेथ कहलाता है और उत्तर-प्रदेश के बेहराइव और गोंडा जिले की सीमानों पर स्थित है।' देखो राय चौधरी, वही, पृ. 63 । देखो दे, वही, पृ. 189--190 । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 97 भारी सम्मान हुआ था । " दन्तकथा के अनुसार श्रावस्ती अथवा चन्द्रपुरीया चन्द्रिकापुरी जैनों के तीसरे तीर्थकर श्री सम्भवनाथ और आठवें श्री चन्द्रप्रभु की जन्मभूमि कही जाती हैं। प्राज भी वहां शोभानाथ का एक मन्दिर है जो संभवनाथ का अपभ्रंश नाम ही मालूम देता है।" भिन्न भिन्न प्रमाणों से हमें मालूम होता है कि कोसल और शिशुनाग वैवाहिक सम्बन्ध से जुड़े हुए थे। महाकोमल की पुत्री कोमलदेवी महावीर के मुख्य श्राविका चेल्लणा की साथ श्रेणिक की पत्नियों में से एक थी । " फिर कितनी ही बुद्ध दन्तकथाओं से हमें यह सूचना मिलती है कि महाकोसल का पुत्र गिगर या मृगधर सावत्थी के प्रसेनजित का मुख्य श्रमात्य था और वह नास्तिक और निग्रन्थि साधुनों का एक निष्य भक्त था । 2 उपरोक्त सारा विवेचन यह सिद्ध कर देता है कि प्रायः सभी प्रमुख सोलह महाजनपद एक या दूसरी रीति से जैनधर्म के प्रभाव में आ गए थे ।" सोलह महाशक्तियों में से मगध के विषय में अभी तक हमने कुछ भी नहीं विचार किया है। इसका कारण यह नहीं था कि मगध का विचार अन्य महाशक्तियों के साथ ही साथ नहीं किया जा मकता था, परन्तु यह कि प्राचीन भारत का यह प्राक्नार्मन वैस्यैक्स परवर्ती जैन ऐतिहासिक चर्चा का केन्द्र होने का था । डॉ रायचौधरी कहता है कि" सोलह महाजनपदों में से प्रत्येक का समृद्धि समय ई. पूर्व छठी सदी में या उसके लगभग समाप्त हो जाता है । उसके परवर्ती काल का इतिहास इन छोटे जनपदों के अनेक शक्तिशाली साम्राज्यों द्वारा निगल जाने एवम् अन्त में उन साम्राज्यों के भी मगध के महासाम्राज्य में समा जाने का ही है ।" हमें इस विवरण में सीधे उतरने की आवश्यकता नहीं है कि प्राचीन भारत के इस एक महासाम्राज्य" ने ग्राधुनिक जरमनी के इतिहास में प्रशिया जैसा भाग कैसे अदा किया था। हमारा इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि इस साम्राज्य पर जिन भिन्न-भिन्न राज्यवंशों ने राज्य किया वे सब जैनधर्म के साथ कैसा सम्बन्ध रखते थे । शैशुनाग, नंद और मौर्यों से प्रारम्भ कर हम खारवेल के समय तक पहुंचेंगे और देखेंगे कि उत्तरीय जैनों के इतिहास की विशिष्ट मर्यादा बांधने का अद्वितीय मान प्रशोक की भांति ही महामेघवाहन खारवेल के हिस्से में आता है । कल्पसूत्र, सुबोधिका 1. भगवं... सावस्थी...लोगो... वदे । आवश्यकसूत्र, पृ. 221 टीका, पृ. 103, 105, 106 वारन्ट, वही, पृ. 93 2. दे. वही, पृ. 109 | श्रावस्ती ही बौद्धों का सावत्थी या नही. पू. 189 देखो वही, पृ. 204, 214 याकोबी, वही, पृ. 2641 सावत्यीपुर और जैनों चन्द्रपुर या चन्द्रिकापुर है ।' 3. देखो प्रधान, वही, पृ. 213; रायचौधरी, वही, पृ. 99 । परिशिष्ट 3, पृ. 56-57; एक हिल, वही पु. 70-71 प्रधान, वही, पृ. 215 । 4. देखो हरनोली वही टेल्स, सं. 7. पू. 110 7, 7 5. सोलह महाजनपदों के नाम बौद्ध परम्परा के अनुसार इस प्रकार है-हासी, कोसल, संग, मगध, बज्जि, मल्ल, चेतिय (चेटि), वंश ( वत्स ), कुरु, पांचाल, मच्छ (मत्स्य), सूरसेन, प्रास्सक, प्रावंती, गंधार, और कंबोज । जैनों के भगवतीसूत्र में इनकी सूची इस प्रकार दी है, बंग, मगह (मगध), मलय, मालव, अच्छ, वच्छ (वत्स), कोच्द्र ( कच्छ ? ), पाढ ( पाण्ड्य), लाढ (रात), बज्जि ( वज्जि), मोली, कासी, कोसल, प्रवह, सम्भुत्तर (सम्भोर ?) डॉ. रायचौधरी ने इस सूचियों पर इस प्रकार टिप्पण किया है यह देख पड़ता है कि अंग वत्स, वज्जि, । मगध स व कासी धार कोसल दोनों सूचियों में समान रूप से है भगवती का मानव कदाचित् अंगुत्तर का प्रवन्ती ही है। मौली संभवतया मल्लों का अपभ्रन्श है। - "रायचौधरी, बहीं, 59-60 1 वही, पृ. 97-98 देखो लाहा, बि. च., वही पु. 161 । राज्यटन, शीफनर्सटिवेटन Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 ] मगध के सत्तावाही विशेष राज्यवंशों का विचार करने के पूर्व जैन इतिहास की दृष्टि से मगध की ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्ता के सम्बन्ध में कुछ कहना यहां अप्रासंगिक नहीं होगा । आज के बिहार प्रान्त के पटना और गया जिलों के ही लगभग समान वह मगध था । उसकी प्राचीन राजधानी गया के पास की राजगिर टेकरियों में भाई गिरिव्रज प्रथा प्राचीन राजगृह श्री यह राजधानी पांच टेकरियों से सुरक्षित होने के कारण अजेय गिनी जाती थी । "उसकी उत्तर में वैमारगिरी और विपुलगिरी (पहली पश्चिम, और दूसरी पूर्व प्रोर), पूर्व में विपुलगिरी और रत्नगिरि या रत्नकूट पश्चिम में वैमारगिरि का चक्र नामक विभाग और रस्ताचल और दक्षिण में उदयगिरि सोनगिरि और गिरिवजगिरि धाए हुए हैं।"" ये सब टेकरियां घाज भी जैन इतिहास में महत्व की हैं। बेमार, विपुल, उदय और सोनगिरी पर महावीर पाखं और धन्य तीर्थकरों के मन्दिर हैं ।" ग्राश्रय आगे हम देखेंगे कि महावीर केवल स्वतन्त्र उपदेशक ही नहीं थे, परन्तु अपने महान् धर्मप्रचार के लिए राज्य का प्रत्यक्ष याय और सहानुभूति पा कर राजगृह और उसके मोहल्ले नालन्दा में उनने चौदह चतुर्मास बिताए थे । * कल्पसूत्र का यह उल्लेख मगध के साथ महावीर के वैयक्तिक सम्यका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । फिर उसमें दी गई स्थविरावली में हम जानते हैं कि उनके ग्यारह गाधर भी अनशन की लम्बी और महान् तपश्चर्या के पश्चात् यहां ही निर्वाण प्राप्त हुए थे।" राज्यवंशों का हम विचार करें। इसका प्रारम्भ हम शैशुनाग पूर्व उस कड़ी की खोज करना भी प्रावश्यक है कि महावीर के सम्बन्ध था या नहीं 'जैन लेखकों ने समुद्रविजय और उसके अब मगध पर राज्य करनेवाले भिन्न भिन्न वंशीय बिसार से ही करेंगे। परन्तु ऐसा करने के पुरोगामी के युग के जैनधर्म और मगध में भी कोई पुत्र जय का राज के गजों के रूप में दर्शन किया है ।" इन में से जय जो कि ग्यारहवां चक्रवती कहा गया है, ने उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार हजारों अन्य राजों के साथ ससार त्याग कर संयम आराधना की थी और अन्त में वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया था।" जैन इतिवृत्तों की ऐसी ग्रहदिकृत बातों को एक प्रोर रखकर हम ज्ञात ऐतिहासिक एवं अन्य तथ्यों की ही यहां जैन उल्लेखों के साथ परीक्षा करेंगे। शैशुनाग वंशी विवसार के विषय में हम देखते हैं कि जैन ग्रन्थों में इस 1. यह किन्हीं अन्य नामों से भी प्रख्यात हैं। जैसे कि "दी लाइक ग्राफ हुएनसांग में लिखा है कि "राजगृह का प्राचीन नगर वह है जो कि उ-शे-की-ला पोलो (कुशाग्रपुर) कहलाता है। यह नगर मगध के केन्द्र में है और प्राचीन काल में अनेक राजा और महाराजा उसमें निवास करते थे ।" -बील, लाइफ ग्रॉफ हुएनत्मांग, पृ. 113 | देखो कविघम, वही, पृ. 529 भारतीय बौद्ध लेखकों ने इसका एक और भी नाम विसारपुरी' भी दिया है । देखो लाहा, बि. च, बुद्धघोष, पृ. 87, टि. 1; रायचौधरी वही, पृ. 70 | 2. दे, वही. पू. 66 | देखो कनिंघम, वही, पृ. 530 3. वही, पृ. 530-532 4. नालन्दा आज का बारगांव ही था जो कि पटना जिले में राजगिर के उत्तर-पश्चिम में सात मील पर है। इसमें महावीर का एक रमणीय मन्दिर भी है और इसी मन्दिर के स्थान पर ही सम्भवतया महावीर नालन्दा में ग्राकर रहे थे। पक्षान्तर में बुद्ध पावरिका आम्रकुंज में ठहरे थे। दे. वही. पू. 137 1 5 देखो याकोबी, वही पोर वही स्थान 6. वही, पृ. 287 1 7. रायचौधरी, वही, पृ. 72 देखो याकोबी सेबुई पुस्त, 45, पृ. 86 1 8. अनि रायसहस्सेहि सुपरिनचई दमं नरे। जयनामो जिलाक्लायं पत्तो गमणुत्तर। गाथा 43 देखो याकोबी, वही, पृ. 85-87; रायचौधरी, वही और वही स्थान । उत्तराध्ययन, प्रध्ययन 18, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 99 'रायसिंह'1 के इतने अधिक उल्लेख हैं कि उनको देखते हए इससे इन्कार किया ही नहीं जा सकता है कि वह नातपुत्त और उनके धर्म का अनन्य और नैष्ठिक अनुयायी था। फिर भी उसमें की अनेक बातों की सूक्ष्म परीक्षा करने के पूर्व अन्य प्राधारों से यह पता लगाना आवश्यक और उपयोगी होगा कि शैशुनाग-काल में मगध साम्राज का बल कितना था क्योंकि धर्म की उन्नति, अन्ततः तो, जनता और राज्याश्रय पर ही बहुत कुछ प्राधार रखती है। इसके लिए हमें मगध साम्राज्य के विस्तार के लिए शैशुनाग राजों के किए युद्धों और राजनैतिक दावपेचों के विवरण में जाना जरा भी आवश्यक नहीं है। हमें तो कौन महाजनपद स्पष्ट रूप से हार गए थे अथवा किनन परोक्षत: मगध का अधिपत्य स्वीकार कर लिया था, इतना ही जानना उपयोगी है। प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में बिबसार के समय की भारतवर्ष की राजकीय परिस्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। डॉ. ह्रिस डेविड्स लिखता है कि छोटे-छोटे अनेक वच रहे आभिजातिक गणतन्त्रों के अतिरिक्त चार अधिक व्यापक और सत्ता सम्पन्न गणतन्त्र थे।" इनके पिता भी छोटे-छोटे ग्रीक गणन्तत्र और कुछ अनार्य राज्य भी थे। हम यह तो पहले ही देख पाए है कि स्वतन्त्र गणतन्त्रों में वैशाली के वज्जि और कुसीनारा एवम् पावा के मल्ल अति महत्व के थे। फिर भी उस समय के राजकीय इतिहास में न तो ये गणतन्त्र और न अन्य राज्य इतने अधिक महत्व के थे जितने कि प्रसेनजित, उदायन, प्रद्योत और बिंबमार शासित क्रमश: कोसल, वत्म, अवन्ती और मगध के चार बड़े राज्य थे। इनमें के मगध साम्राज्य के वास्तविक संस्थापक बिंबसार अथवा श्रेणिक ने प्रभावशाली पड़ोसी राज्यों से लग्न सम्बन्ध जोड़कर अपनी सत्ता खूब ही दृढ़ कर ली थी। उसमें का एक सम्बन्ध तो उसने वैशाली के प्रभाविक लिच्छवियों के साथ और दूसरा कोसल राजवंश के साथ जोड़ा था। कोसल की रानी के दहेज में उसे कासी जिले का एक लाख की प्राय का एक गांव स्नान-सिंगार व्यय के लिए ही दिया गया था । इन दोनों लग्न सम्बन्धों का उल्लेख पहले किया ही जा चुका है, फिर भी यहां इतना और कहना आवश्यक है कि ये दोनों ही राजकीय दृष्टि से महत्व के थे क्योंकि उनके द्वारा मगध के उत्तर और पश्चिम में विस्तार का मार्ग उन्मुक्त हो गया था। इस दीर्घदर्शी राजनीति से उत्तर पश्चिम के राज्यों का वर दूर कर बिंबसार को अग देश की राजधानी चपा को जीतने का अपना लक्ष अबायित रूप से बनाने का अवसर मिल गया कि जिसे जैसा कि हम देख पाए हैं, कुछ वर्ष पूर्व ही कोसाम्बी के राजा शतानीक ने जीत कर ध्वंस कर दिया था। अंग को विजय कर बिंबसार ने खालसा कर दिया याने अपने राज्य में ही उसे मिला लिया। अग के मगध में मिला लिये जाने के दिन से ही मगध की महत्ता और भव्यता प्रारम्भ होती है। जैन साहित्य भी इसका समर्थन करता है क्योंकि वह सुचित करता है कि अंग का शासन पृथक प्रदेश रूप में किया जाता था और उसका शासक था मगध का राजकुमार कुरिणक और उसकी राजधानी थी चम्पा ।' डॉ. रायचौधरी कहता है कि “इस प्रकार बिबसार ने अंग और कासी का एक भाग अपने साम्राज्य में जोड़ 1....रायसिहो...-उत्तराध्ययन, अध्ययन 20 गाथा 58 । 2. ह्रिस डेविड्स, बुद्धीस्ट इण्डिया, पृ. 1 । 3. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 116, 120 । 4. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 124, प्रधान, वही, पृ. 214 । 5. देखो स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ. 33 । 6. चम्पायी कूणिका राजा वभूव...भगवती, सूत्र 300, पृ. 16 । देखो दे, बएसो, पत्रिका 1914, पृ. 322; हेमचन्द्र, परिशिष्टपर्वन्, सर्ग 4, श्लो. 7,9; रायचौधरी, वही, पृ. 125%; प्रौपपातिकसूत्र, सूत्र 6। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 ] कर विजय और उत्कर्ष द्वारा उसका याने मगध का विस्तार इतना बढ़ाया कि वह अशोक के कलिंग विजय कर अपनी तलवार म्यान में रखने पर ही रुका था। महावग्ग में कहा गया है कि बिबसार का साम्राज्य 80,000 नगरों का था जहां के गामिका याने रक्षक लोग एक महासभा में मिला करते थे।"" श्रेणिक के अनुगामी प्रजातशत्रु याने कुलिके के काल में साम्राज्य की मत्तः उन्नति के शिखर पर पहुंच गई थी। उसने कोसल को भी नमा लिया था और कासी को अपने साम्राज्य में मिला लिया था. इतना ही नहीं अपितु जैनों के अनुसार, उसने वैशाली के राज्य को भी मगध के साम्राज्य में जोड़ लिया था। कोमल के साथ हुए युद्ध के फल स्वरूप, अपने पिता की ही भांति अजातशत्रु को भी कोसन की राजकन्या. प्रसेनजित की पुत्री वजिरा से विवाह हो गया था और उसके दहेज में कासी जिले का शेष भाग भी मिल गया था। इस प्रकार उसने अपने पड़ोसी कोसल राज्य में सम्भवतया वास्तविक प्रभावकता प्राप्त कर ली थी। चूंकि स्वतन्त्र सत्ता से रूप में इस कोसल का परवर्ती काल में वर्णन नहीं मिलता है इससे यह निश्वयसा ही है कि वह मगध साम्राज्य का ही एक संपूरक बन गया होगा ।" कुछ भी हो, वैशाली और मनकी यदि उसके मित्र राज्यों पर की कुशिक की विजयों कि जिसमें कासी कोसल भी छा गए थे. मगध साम्राज्य के विस्तार की दृष्टि से पूर्ण निर्णयात्मक और अत्यन्त फलप्रद रही थी। 4 बेटी रूप स्वाभाविक सीमा तक बीच का समग्र देश कमोवेश अंश डॉ. स्मिथ कहता है कि "यह माना जा सकता है कि विजेता ने पर्वत की अपना हाथ लम्बा फैला दिया होगा। और फलस्वरूप गंगा और हिमालय के में मगध की सीधी सत्ता के नीचे ग्रा गया होगा ।"" पहले से ही उनको मगध साम्राज्य के विस्तार में रुकावट डालने वाले लिच्छवी प्रतीत हुए होंगे और इसी लिए हम उसे यह दढ़ निश्चय करता हुआ देखते हैं कि "में इन वज्जियों को चाहे जितने ही बली ये क्यों न हों फिर भी जड़मूल से उखाड़ दूंगा । मैं इन वज्जियों को नष्ट करूंगा । मैं इन बक्जियों का सर्वनाश करूंगा। इस प्रकार कोसल, लिच्छवी और वज्जियों के साथ के 1. रायचौधरी, वही, पृ. वही । देखो प्रधान, वही, पृ. 213-214 | 2. वज्जी विदेहपुत्ते वहत्था, नवमल्लई नवलेच्छई कासीकोसलगा श्रद्धारसवि गणरायाणो पराजहत्था || भगवती, सूत्र 300, पृ. 315 | देखो ग्रावश्यकसूत्र, पृ. 684; हेमचन्द्र, त्रिषष्टि- शलाका, पर्व 10, श्लो 29 पृ. 168; रायचीधरी वही पू. 126 127 3. देखो स्मिथ, वही, पृ. 37; रायचौधरी, वही, पृ. 67; प्रधान, वही, पु. 215 1 4. भगवती में उल्लेख हैं कि वैशाली के युद्ध में प्रजातज्ञज्ञ ने महाशिलारकंटक और रथमुशल का प्रयोग किया था। पहला मन्त्रचालित प्रक्षेपणास्त्र था और वह बड़ी-बड़ी पाषाण खण्ड शत्रुओं पर फेंकता था। दूसरा रक्षास्त्र था जिसमें मुशल लगा रहता था और ब रथ इधर से उधर दौड़ता तो वह मुशल योद्धा सैनिकों को धराशायी कर देता था । इनके विस्तृत विवरण के लिए देखो भगवती, सूत्र 300, 301, पृ. 316, 319 | देखो हरनोली, वही परिशिष्ट 2. पृ. 5960: राजचौधरी, वही. पृ. 129; टानी कथाकोश, पृ. 1791 5. स्मिथ, वही और वही पृष्ठ कृणिक प्रजातशत्रु ने लिच्छवियों, मल्लकियों और कामी कोमल के अठारह महाजनपदों से सोलह पर्वतक चलते रहनेवालों से युद्ध करता रहा था और प्रांत में वह इनका नाश करने में में सफल हो गया था जैसा कि उसने निश्चय किया था हालांकि उसका युद्धोद्देश प्रवरूद्ध था' प्रधान, वही, पू. 215-216 देखो हरनोली वहीं परिशिष्ट पु. 71 う 6. सेबुई, पुस्त. 11, पृ. 1, 2 देखो लाहा, बि. च, सम क्षत्रिय ट्राइब्स ग्रॉफ एशेंट इण्डिया, पृ. 111 मगध और वैशाली के वैमनस्य के विस्तृत विवरण के लिए देखो, वही, पृ. 11-16 1 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके युद्ध 1 कस्मिक नहीं अपितु वे मगध साम्राज्य के विस्तार की सामान्य योजना के ही परिणाम थे इन युद्धों के फलस्वरूप वैशाली, विदेह, कासी और अन्य राज्यों को मिला कर मगध के महत्वाकांक्षी राजा को उतने ही महत्वाकांक्षी प्रवंती के राजा प्रद्योत के विरुद्ध होना पड़ा था। हम जानते ही है कि अवन्ती का सिंहासन इस समय चण्ड प्रद्योत महासेन सुशोभित कर रहा था। पड़ोसी राज्य उससे भयाक्रान्त इका मज्झमनिकाय के एक वक्तव्य से भी होता है, जो कहता है कि अजातशत्रु ने राजगृह में मोर्चाबन्दी इसलिए कराई श्री कि उसे प्रद्योत द्वारा अपने साम्राज्य पर आक्रमण का भय था । यह अशक्य भी नहीं था क्योंकि अंग एवम् वैशाली के पतन और कोसल के पराभव के पश्चात् ग्रवन्ती ही मगध का प्रमुख प्रतिद्वन्दी रह गया था । इस प्रकार कुणिक के समय में पूर्व भारत के प्रायः सब गणतन्त्र और राज्य मगध में मिला लिये गए थे । उसके पुत्र और प्रनुगामी उदायिन के काल में, जैन कथानकों के अनुसार मगध और प्रति परस्पर विरोध में ग्रामने सामने आ गए थे।" स्थविरावली चरिन और अन्य जैन राज्यों से हमें मालूम होता है कि उदायिन भी एक अच्छा शक्तिशाली राजा था। उसने एक राज्य के राजा को बुद्ध में मार और हरा दिया था और इस राजा का पुत्र उज्जयिनी चला गया था और वहां उसने अपनी दुःखद गाथा कह सुनाई एवं राजा की सेवा भी स्वीकार करली | ग्रन्त में इन प्रदभ्रष्ट कुमार ने अवन्तीपति की कृपा प्राप्त कर ही ली यही नहीं पर उसकी सहायता प्राप्त कर, जैन साधु के वेश में, उसने उदायिन की जब कि वह सोया हुआ था एक दिन हत्या कर ही दी । यह दन्तकथा, अधिक नहीं तो इतना तोप्रकाश डालती ही है कि प्रवंती और मगध के बीच में प्रतिद्वन्द्वता के भाव सजग थे और दोनों ही उत्तर भारत में सार्वभौम सत्ता प्राप्त करने के पूर्ण अभिलाषी थे । फिर अवंतीपती की समान अाक्रामक नीति ने भी यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में कलह का कारण उत्तर भारत की सार्वभोमता ही था कथासरिनागर और अन्य जैन दन्तकथाओं से मालूम होता है कि इस समय कोसाम्बी राज्य भी प्रद्योत के पुत्र प्रवन्तीपती पालक 1 के राज्य में मिला लिया गया था । इस प्रकार अजातशत्रु के समय में प्रारंभ हुआ अवन्ती-मगध का यह कलह उदायिन के राज्य में भी चल रहा था कलह का अन्त शुनाग के नेतृत्व में मगध के लाभ में हुआ कि जिसने पुराणों के अनुसार, प्रचोत के उत्तराधिकारी वंशजों के प्रभाव और प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया था, ' अवन्ती का बराबर पराजय ही होता रहा था । " इम 1 16 हालांकि जैन कथानकों के अनुसार उदायिन के हा यहां एक समस्या यह खड़ी हो जाती है कि मगध में उदायिन का उत्तराधिकारी कौन हुआ था । परन्तु हमें भारतीय इतिहास के इन विवादास्पद और अब तक भी अनिर्णीत तथ्यों को विवेचना में जाने की जरा भो आवश्यकता नहीं है। हमारे लिए तो इतना ही पुनरावर्तन कर देना पर्याप्त है कि पीर भवंतो का यह पू. 609 1 देखो प्रधान, वही, पृ. 217 । 3. देखो हेमचन्द्र वही श्लो. 189-190 208 आवश्यकसूत्र वही और वही स्थान 1 [ 101 " 1. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 123; प्रधान, वही, पृ. 216 1 2. प्रदसन नियमवन्तीशोप्पुदायिनः हेमचन्द्र परिशिष्टपन सर्ग 6 श्लो. 191 देखो व 1 7 4. देखो रायचौधरी, वही, पृ 131 1 5. उज्जयिन्यां प्रयोतसुतौ द्वौ भ्रातरो पालको, यदि आवश्यकसूत्र, पू. 699 6. प्रधान, वही, पृ. 217 | देखो रायचौधरी, वही, पृ. 132 1 7. उज्जयिनी... राजा... बहुशः परिभूयते उदायिता श्रावश्यकसूत्र. 690 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 ] कलह अन्तत: मगध के लाभ में किसी शैशुनाग के नेतृत्व में समाप्त हो गया था कि जो शिशुनाग या नन्दिवर्धन नाम से प्रख्यात था अथवा उसका पूरा नाम, जैसा कि प्रधान कहता है, नन्दिवर्धन-शिशुनाग था। शैशुनागों के काल में मगध साम्राज्य के विस्तार व उत्कर्ष का परिचय प्राप्त कर लेने पर हम संक्षेप में उसका जैनधर्म के साथ सम्बन्ध अब देखें। यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि जो भी अब तक कहा गया है और आगे जो कुछ भी कहा जाने वाला है उन राजों और राजवंशों को जहां जनी जैन और जैनधर्म के आश्रयदाता एव सहायक कहते हैं. उन्हें बौद्ध भी अपने और अपने धर्म के लिए वैसे ही मानते हैं । भारतीय इतिहास की इस परिस्थिति के अनेक कारण हैं जिनमें विस्तार से जाना हमारे लिए यावश्यक नहीं है क्योंकि ऐसा कर हम किसी ऐसे मानदण्ड का निर्णय नहीं कर सकते हैं कि हम निश्चित रूप से कह सकें कि अमुख-अमुक राजा बौद्ध धर्म मानता था और अमुक-अमुक जैनधर्म । शिलालेख और अन्य प्रमाणिक ऐतिहासिक अभिलेखों की माक्षी के बिना कोई भी वस्तु ऐतिहासिक तथ्य रूप से प्रस्तुत नहीं की जा सकती हैं और जहां धर्मशास्त्र और साहित्यक एवम् लोकिक दन्तकथाएं ही आधार रूप हैं वहां तो शुद्ध सत्य का पता लगाना थोड़ा भी सहज नहीं हैं ! पहले बिसार अथवा जैनों के श्रेणिक को ही लीजिए। उसके विषय में बौद्धों का चाहे जो भी कहना हो, फिर भी जैनों द्वारा प्रस्तुत प्रमाण उसे महावीर का भक्त सिद्ध करने को पर्याप्त हैं। उनके और उसके उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में जैनों ने इतना अधिक लिखा है कि जैनधर्म के साथ उनका सम्बन्ध बताने के लिए उनके कार्यकाल की बातों के विषय में बहुत कुछ कहना आवश्यक है। उत्तराध्ययनसूत्र कहता है कि एक समय श्रेणिक ने महावीर को यह पूछा कि “यद्यपि आप युवान है, फिर भी आपने दीक्षा ले ली है; जो अवस्था भोग विलास की है उसमें आप श्रमण हो कर कठोर जीवन बिता रहे हैं। हे महान् तपस्वी। मैं इस विषय में आपका स्पष्टीकरण सुनने को उत्सुक हूं।" यह सुनकर नातपुन ने एक लम्बा स्पष्टीकरण किया और राजा को उसे सुनकर इतना सन्तोष हुआ कि उसने अपने हार्दिक भाव इन शब्दों में व्यक्त किए "आपने मनुष्य जन्म का उत्तमोत्तम उपयोग किया है । आप एक सच्चे जैन बन गए हैं। हे महासंयमी आप मनुष्य मात्र के और अपने स्वजनों के संरक्षक हैं क्योंकि आपने जिनों का सर्वोत्तम मार्ग ग्रहण कर लिया है। आप सब अनाथों के नाथ हैं, हे महा तपस्विन् । मैं आपकी क्षमा का प्रार्थी हं; मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे सत्य मार्ग पर झुकाएं। आपसे यह सब प्रश्न कर मैंने आपके ध्यान में खलल पहंचाया है और मैंने आपको भोग भोगने का आमंत्रण दिया है, इस सब की मैं आपसे क्षमा मांगता हूं. आप मुझे क्षमा करें।"" अन्त में उत्तराध्ययन ठीक ही संवरण करता है कि "जब रायसिंह ने इस प्रकार परम परम भक्ति से उस श्रमणसिंह की स्तुति की और तब से ही वह विशुद्ध चित्त होकर अपने अन्तः पुर की सब रानियों, दाम्दासियों, स्वजनों एवम् सकल कुटुम्बी जनों सहित जैनधर्मानुयायी बन गया था ।" 1. देखो प्रधान, वही, पृ. 217, 220; रायचौधरी, वही, पृ. 1 33-1 34 । 2. देखो प्रधान, वही, पृ. 220; रायचौधरी, वही, पृ. 1 32-133 । 3. याकोबी, सेबुई, पुस्त. 45, पृ. 101 । 4. वही, पृ. 107 ! 5. एवं युरिणत्ताण स रायसीहो अरणगारसीह परमाइ भातिए । उत्तराध्ययनरण अध्या. 20, गाथा 58 देखो याकोबी, वही और वही स्थान । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 103 हम देख ही प्राए हैं कि बिंबसार का विवाह वर्धमान के मामा चेटक की पुत्री चेल्लपा से हुमा था । अपनी साध्वी हई कुछ भगिनियों और अपनी मुना, तीर्थकर की माता, त्रिशला के सम्बन्ध के कारण चेल्लणा बिंबसार के परिवार में सर्वाधिक महावीर से प्रभावित हुई थी। उसका यह झुकाव तब और भी दृष्टव्य हो जाता है जब हम जानते है कि बिंबसार के उत्तराधिकारी अजातशत्रु के माता के रूप में, वह मगधपति की पटरानी या अग्रमहिपी भी होना चाहिए । यही कारण है कि दिव्यावदान में एक स्थान पर अजातशतु को वेदेहीपुत्र और दूसरे स्थान पर 'राजगृह में राजा बिंबसार राज्य करता है' लिखा पाते हैं । वेदेही उसकी महादेवी याने पटरानी है और अजातशतु उसका पुत्र और राजकुमार ।" फिर चेल्लणा को सामान्यत: बौद्धग्रन्थों में 'वेदेही' कहा गया है और उसके कारण ही प्रजातशतु बहुधा वेदेहीपुत्तो अथवा विदेही राजकुमारी का पुत्र कहा गया है। इतने पर भी 'कुछ टीकाग्रन्थ-उदाहरणार्थ थूस और तच्छशूकर जातकों में कहा गया है कि अजातशतु की माता कोमल के राजा की भगिनी थी। परन्तु यहां टीकाकार बिंवसार की दो रानियों के बीच कुछ भ्रम में पड़ गए दीखते हैं। जैनों की इस मान्यता में सन्देह करने का कोई भी कारण नहीं है कि कूणिक चेल्लणा के अनेक पुत्रों में से एक और ज्येष्ठ पुत्र था और वह भी, महावीर की भांति ही, वेदेहीपुत्तो उचित ही कहा जाता था ।' चेल्लणा और कोसलदेवी के सिवा भी बिबसार के अनेक और रानिया थी इसका जैन एवं बौद्ध दोनों ही अाधारों से समर्थन होता है ।" तदनुसार कुरिणक, हल्ल. विहल्ल इन तीन चेल्लगा के पुत्रों के अतिरिक्त भी उसके अनेक पुत्र थे जिन सबके नाम दोनों ही इतिवृत्तों में मिलते हैं चाहे वे नाम प्रापप में मिलते हुए हों या नहीं यह बात दूसरी है। श्रेरिणके के इन पुत्रों और रानियों के विषय में जैनों का कहना है कि अधिकांश ने महावीर भगवान् से दीक्षा ले ली थी और सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए थे । जैनों का यह दावा, कुछ अपवादों को छोड़, I. एकदा च प्रवृत्त शिशिर भयंकरः ।...तदा...।। देव्या चेल्लण्या सार्चन् ...नृपः । वीर'...। वन्दितमान्यणात् ।। हमचन्द्र, त्रिषष्टि-शलाका, पर्व 10, श्लो. 6, 10, 11, पृ. 86 । एकदा जब कि 'देश में मंयकर शीत पड़ रहा था राजा चेल्लरणा सहित महावीर को वंदन करने गया। टानीयवाही पृ. 175। इस विषय से अविक संदर्भो के लिए देखो वही, पृ. 239 | 2. राजगृहे राजा बिबिसारो...तस्य वैदेही महादेवी अजातशत्रुः पुत्रः, कोव्येल और नील, दिव्यावदानष पृ. 5451 देखो वही, पृ. 55; लाहा, बि. च , वही, पृ. 107 । 3. लाहा, बि.च., वही. प. 106। संयुत्तनिकाय, भाग 2, पृ; 268; रायचौधरी, वही, पृ. 124; हिस डेविड्स, कहिइ, भाग 1, पृ. 1831 4. लाहा, बि. च., वही, प. वही । देखो फासबूल, जातक, भाग 3, पृ. 121, और भा. 4, पृ. 342; रायचौधरी, वही और वही स्थान: ह्रिस डेविडस, वही, पृ. 183; श्रीमती हिम डेविड्स. दी बुक ग्राफ दी किण्डूयड सेइंग्ज भाग I, पृ. 109, टिप्पण । ! 5. कोरिणक:...चेल्लणाया उदरे उत्पन्न; आवश्यकसूत्र, पृ. 678...विदेहपुत्ते जइत्था। भगवती, सूत्र 300, पृ. 315; विदेहपुत्तेति कोणिक,...वही, सूत्र 301, पृ. 317 । देखो ह्रिस डेविड्स, बुद्धीस्ट इण्डिया, पृ. 3; प्रधान वही, पृ. 212 । 6. देखो भगवतीसत्र, सत्र 6, पृ. 11 । अनगडदसापा, सूत्र 16, 17, प. 25%; वारन्यट, वही, प. 97 7. देखो अावश्यकसूत्र, पृ. 679; रायचौधरी, वही, पृ. 126 | "बिबिसार ने अनेक राज्यों के राजों से विवाह मम्बन्ध जोड़ कर संधिया कर ली थीं । ऐसा करना प्राचीन भारतवर्ष में एक सामान्य बात थी, यह निश्चय ही कहा जा सकता है।' बेरणीप्रसाद, दी स्टेट इन एशेट इण्डिया, पृ. 163 । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 ] एकदम असत्य आधार पर नहीं है। इसमें अविश्वास अथवा आश्चर्य की कोई भी बात नहीं है कि महावीर के ही सगे सम्बन्धियों ने त्रस्त मानवों के समक्ष प्रस्तुत किए हए उनके महान् सन्देह में सजीव रूचि दिखाई हो। महावीर और उनके राजा अनुयायियों के इस निकट सम्बन्ध की बात को छोड़ दे तो भी श्रेणिक सम्बन्धी जनों की साहित्यिक और काल्पनिक दन्तकथाएं इतनी विभिन्न और इतनी अमिलिखित हैं कि वे महान् प्राश्रयदाता राजों के असीम सम्मान की दूरी पूरी साक्षी देती हैं कि जिन की ऐतिहासिकता, यह सौभाग्य की ही बात है कि, शंका से दूर है। अब हम कूरिगक का विचार करें। यहां हम देखते हैं कि उसके पिता धेणिक जितने वे इसके विषय में वाग्मी नहीं है हालांकि उसके जीवन से सम्बन्धित प्रायःसभी घटनाओं पर प्रकाश डालने वाला प्रचुर माहित्य हमें उपलब्ध है। इस बात को बाजू रख देने पर भी उसकी जीवनी की जो वात अत्यधिक स्पष्ट है वह है इस महान सम्राट का बौद्धों और जैनों दोनों के प्रति ही रूख । यह प्रसंग मगध के सिंहासन से संबंधित है । बौद्ध यह निश्चित रूप से कहते हैं कि जब बिबिसार को उसका पुत्र अजातशत्रु खंजर द्वारा मारनेवाला ही था, उसने शासन का भार उसे सौप दिया यद्यपि राज्याधिकारियों ने उसे याने श्रेणिक को बचा लिया था फिर भी अजातशत्रु ने उसे भूखा रख कर मार ही दिया और उसकी मृत्यु को पश्चात् अपनी इस पाप का प्रायश्चित उसने बुद्ध के सामने पश्चात्ताप कर किया।'' पक्षान्तर में जैन इसी घटना का वर्णन एकदम दूसरी ही प्रकार करते हैं । उनके अनुसार बौद्धों के पितृघाती अजातशत्रु न अपने पिता को यद्यपि बन्दी अवश्य ही कर लिया था और उसे कारावास में दुःख भी दिया था, फिर भी श्रेणिक का निधन ऐसी परिस्थितियों में हुआ कहा गया है कि जो पिता और पुत्र दोनों के ही प्रति घृणा को अपेक्षा हमारी समवेदना व सहानुभूति ही जगाती है, पिता के प्रति उसकी असामयिक मृत्यु के शरण और पुत्र के प्रति उसके शुभसंकल्प को पिता द्वारा गलत समझ लिए जाने के कारण । 1. देखो अावश्यकसूत्र, पृ. 679; अनुत्तरोववाइयदसाम्रो, सूत्र 1, 2, पृ. 1-2; वारन्यैट, वही, पृ. 110-112; रायचौधरी, वही, पृ. वही; प्रधान, वही, पृ. 2131 2. सेरिणयमज्जाग...सिद्धा । अंतगडदसायो, सुत्र 16-26, पृ. 25-32। देखो वारन्यैट, वही, पृ. 97-107; अावश्यकसूत्र, पृ. 687; हेमचन्द्र, वही, श्लो. 406, पृ. 171 । श्रेणिक के पुत्रों में से हल्ल, विहल्ल, अभय, नंदिषेण, मेघकुमार आदि ने महावीर के साधूसंघ के साधू हो गए थे, देखो अनुत्तरो बवाइयदसायो, मूत्र 1, पृ. । । वही, सूत्र 2, पृ. 2; वारन्यैट, वही, पृ. 110-112; अावश्यकसूत्र, पृ. 682, 685। 3. श्रेणिक के महावीर प्रति भक्ति के लिए देखो सेरिणय राया, चेल्लगा देवी ।।...परिसा निग्गया, धम्मो कहियो। भगवती. मत्र 4. 6. प. 6. 10; मेहस्स कमारस्स अम्मापियरो...समणं भगवं महावीरं...वंदंति नमंसति एवं वदासी...अम्हे णं देवाणप्पियाण सिस्सभिक्खं दलयामो । ज्ञातसूत्र, सूत्र 25, पृ. 60 । देखो कल्पसूत्र, बोधिका-टीका, पृ. 20 । (श्रेणिक;) राजा भणति अहं युष्मासु नाथेषु कथं नरक गमिष्यामि ?.अावश्यकसूत्र, पृ. 681 । इस प्रकार के और भी अनेक संदर्भ श्रेणिक सम्बन्धी जैन आगमों में से संकलित किए जा सकते हैं. परन्तु हमारे लिए इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि जैन श्रेणिक का अनागत चौवीसी के प्रथम तीर्थ कर के रूप में बहुत पूजते हैं। श्रेरिणकराइजीव पद्मनामो जिनेश्वरः । हेमचन्द्र, वही, श्लोक 189 । देखो टानी, वही, पृ.1781 4. जनों का पहला उपांग, प्रौपपातिक सूत्र सारा का सारा प्रजातशत्रु सम्बन्धी ही है। इसके सिवा इसके संदर्भ भगवती, उवामगदाओ, ,अंतगडदयारो और अन्य अनेक स्थानों में मिलते हैं । कूणिक पर जनों ने पूरे विस्तार - के साथ लिखा है। 5. प्रधान, वही, पृ. 214 | देखो राकहिल, वही, पृ. 95 आदि; ह्रिस डेविड्स डायलोग्स प्राफ दी बुद्धा, भाग 1, पृ. 94; रायचौधरी, वही, पृ 126-127; श्रीमती ह्रिस डेविडस, वही, पृ. 109-110। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 107 आपनं सत्य ही कहा है ;सत्यधर्म का मार्ग प्रापने दिखाया है। मोक्ष और शांति का आपका मार्ग अद्विवतीय है।...'' कूरिणक के उत्तराधिकारी उदय अथवा उदायिन के विषय में जैन एवं बौद्ध अनेक दन्तकथाएं प्रस्तुत करते हैं । इन दन्तकथाओं को निर्देश करते हुए डा. रायचौधरी कहते हैं कि 'पुराणों के अनुसार प्रजातशत्रु का उत्तराधिकारी दर्शक था । प्रो. गीगर अजातशत के पश्चात् दर्शक के नाम का प्रवेश मूल मानता है क्योंकि पाली शास्त्रों में असंदिग्ध रूप से उल्लेख है कि उदायीभद्र अजातशतु का पुत्र था और सम्भवत या उसका उत्तराधिकारी भी।' यद्यपि मगधराज के रूप में दर्शक के अस्तित्व की वास्तविकता मास के स्वप्न-वासवदत्ता के अविष्कार से प्रमामिण हो जाती है फिर भी बौद्ध एवम् जैन साक्षियों के समक्ष यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता है कि अजातशत्रु का निकटस्थ उत्तराधिकारी था।" जिस जन साक्षी का विद्वान डॉक्टर ने निर्देश किया है वह हरिभद्रसूरि की आवश्यकटीका और हेमचन्द्र के त्रिषष्टि-शलाका एवम् परिशिष्ट पर्वन, और टानी का कथाकोश' है। इन ग्रन्धों में अभिलिखित दन्तकथाएं पाली धर्मशास्त्रों की दन्तकथायों से मेल नहीं खाती हैं। डॉ. प्रधान के शब्दों में 'महावंश के अनुसार अजातशत्र की उसके पुत्र उदायीभद्र ने हत्या कर दी थी।" पर स्थविरावली चरित्र में कहा गया है कि उदायिन को पिता अजातशत्र की मृत्यु पर इतना अधिक शोक और दुःख हया कि वह चंपा से उठाकर राजधानी ही पाटलीपुत्र ले गया था । ____ इस जैन दन्तकथा को वायुपुराण भी समर्थन करता है क्योंकि उसके अनुसार उदायी ने अपने राज्यकाल के चौथे वर्ष में।" कुसुमपुर (पाटलीपुत्र) का नगर बसाया था और इसलिए यह निश्चित सा ही है कि उदायिन 1.तए णं कुरिण ए राया...महावीर...वंदति...एवं वयासी ..-सुप्रक्खारते मंते, आदि-प्रोपपातिक, सूत्त 36. प.831 2. देखो पार्जीट र, डाइनेस्टीज आफ दी कलि एज, 21, 69; प्रधान, वही, पृ. 210 । 3. देखो गीगर, महावंश, परिच्छेदो 4, गाथा 1-2 । 4. रायचौधरी, वही, प. 1301 "विष्णपुराण का राजवंशक्रम कि जिसमें अजातशत्रु और उदयाश्व के बीच में दर्शक का नाम आता है, की हमें उपेक्षा कर देना होगी...।' प्रधान वही और वही स्थान । बिबिसार के उनके पुत्रों में से ही दर्शक हो जिसने अपने पिता के जीवन काल में ही राजकाज में भाग लिया हो। देखो वही, पृ. 212। 5. कोरिणक: ... मृतः...तदा राजान उदायिनं स्थापयन्ति...यावश्यकसूप, पृ. 687 । 6. हेमचन्द्र, वही, श्लो. 22 । देखो निषष्टि-शलाका, पर्व 10, लो. 426, पृ. 172 । 7. देखो टानी, वही, पृ. 17718. देखो गीगर. वही, गाथा ।। 9. प्रधान, वही, पृ. 216 । देखो वही, पृ. 219 । सिंहली इतिवृत्तकार कहते हैं कि अजातशत्रु से लेकर पर सारे राजा पितृघाती थे।' रायचौधरी, वही, पृ. 133; हेमचन्द्र, परिशिष्टपर्वन, मर्ग 6. श्लो. 32-180। देखो आवश्यक सूत्र, पृ. 687,6891 10. 'पाटलीपुत्र की पसन्दगी उसके साम्राज्य के केन्द्र में स्थित होने के कारण हुई थी कि जो आज के उत्तर-विहार को भी पमाविष्ट करता था। फिर उसका गंगा एवं सोन नदियों के संगम पर स्थित होना भी व्यापारिक और सैनिक दृष्टि से महत्व का था। इस सम्बन्ध में यह उल्लेख भी मनोरंजक होगा कि कौटिल्य साम्राज्य की राज घानी के लिए नदियों का संगम-स्थल की ही सिफारिस करता है '...रायचौधरी वही. पृ. 13।। 11. देखो पार्जीटर, वही, प. 991 प्रधान, वही, प. 2163; रायचौधरी. वही और वही स्थान ... Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] पिता की मृत्यु घटना के लिए उत्तरदायी नहीं था । यह नहीं कहा जा सकता है कि बौद्धों ने उसका उसके पिता जैसा ही चित्रण क्यों किया है कि उसका सत्ता और स्थिति का लोभ अपने ही पिता के प्राणों के प्रति स्वाभाविक सहज प्रेम पर इस अधिकता से हावी हो गया था। यदि बौद्धों की महावंश में दी हुई दन्तकथा किसी भी प्राचार पर होती तो जैन लेखक इसका भी उसी भांति निर्देश अवश्य कर देते जैसा कि उनने कुणिक के विषय में उसके पिता की मृत्यु सम्बन्धी घटना का निर्देश किया है। पक्षान्तर में जैन कहते हैं कि उदायिन एक निष्ठ जैन या उसकी धाज्ञा से उसकी नई राजधानी पाटलीपुत्र के केन्द्र में एक भव्य जैन मन्दिर बनवाया गया था । ' फिर जैन साधू भी उसके पास बिना रोक-टोक प्राते जाते थे यह भी इस बात से प्रमाणित होता है कि उसका वध किमी साधु-वेशी राजकुमार द्वारा कि जिसके पिता को उसने राज्यच्युत कर दिया था, जैसा कि पहले कहा जा चुका हैं, किया गया था । इसी प्रसंग से यह अनुमान किया जा सकता है कि एक चुस्त जैन की भांति वह जैनों के मामिक पर्व नियम पूर्वक पालता था क्योंकि पौषध के दिन ही एक जैनाचार्य, अपने नए शिष्य के साथ कि जिसने अस्त्र छुया रखा था, राजमहल में गए थे और राजा को उनने धर्म सुनाया था । " अथवा जिनकी सत्ता में मगध साम्राज्य ने निश्चित स्वरूप प्राप्त किया था, के विषय में संक्षेप में, जैनों का इतना ही कहना है। यहां यह भी स्पष्ट कर देना उचित है कि जैनधर्म के साथ उन वंशों के सम्बन्ध का विचार करते हुए हम सूक्ष्म विवरण में यद्यपि नहीं उतरे हैं और हम ऐसा इस अध्याय में विवक्षित किसी भी राजवंश के विवरण में नहीं उतरना चाहते हैं परन्तु इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि वे सूक्ष्म बातें अर्थहीन हैं, परन्तु इतना ही कि उत्तर-भारत के जैनों के इस साधारण ऐतिहासिक सर्वेक्षण में उन सूक्ष्मविवरणों . में उतरना न तो शक्य ही है और न इष्ट । अब उदादिन के उत्तराधिकारी का हम विचार करें। बौद्ध दन्तकथा के अनुसार तो उसके उत्तराधिकारी थे प्रनिरुद्ध, मुण्ड और नागदासक उन दन्तकथाओंों में यह भी कहा गया है कि ये सब पितृता थे और इसलिए "जनमत उनसे रुष्ट हो गया एवम् इस राजवंश का उच्छेद कर उसके धामात्य शुशुनाग (शिशुनाग ) को उनने राजा बना दिया । "" परन्तु जैन और पौराणिक दन्तकथाएं अनिरुद्ध और ग्रन्य निर्बल निर्वीयों का प्रवगणना कर देती है अथवा उन्हें भुला देती है और बौद्धों के उदायीभद्र के उत्तराधिकारी रूप में किसी नन्द या नन्दिवर्धन को ला बैठाती हैं ।" जैनी कहते हैं कि उदायिन की मृत्यु पर उसके बिना उत्तराधिकारी के मर जाने से अमात्यों ने पांच राजचिन्हों याने हाथी, घोड़ा, छत्र, चामर और कलश सजा कर पूजा कर नगर वीथियों में घुमाए। इनकी शोभायात्रा मार्ग में नाई से उत्पन्न वेश्या पुष नन्द के विवाह की शोभायात्रा से जब जा मिला तो इन पांचों 1. नगरनामा पोदानि गृह कारितं... आवश्यकसूत्र. पू. 689 देखो हेमचन्द्र वही श्लो. 181 2. स राजाष्टमी चतुर्दश्योः पौषधं करोति धावश्यकसूत्र, पृ. 690 देखो हेमचन्द्र वही, श्लो. 186, वही लोक 186-230; शापेंटियर केहि भाग 1 पू. 164 1 3. रायचौधरी, वही, पृ. 133 देखो गीगर, वही गाया 2-6 प्रधान, वही, पृ. 218-219 स्मिथ, वही, , पृ. 36; रेप्सन केहि भाग 1, पृ. 312-313 1 4. देखावश्यक " पु. 690 बादि हेमचन्द्र वही, श्लो. 242: पाटर. वही, पृ. 22,691 1 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 109 राजचिन्हों ने उस नन्द का मगध के राजा के रूप में अभिषेक किया। इसलिए उसे प्रधानुसार राजा स्वीकार कर लिया गया और इस प्रकार महावीर निर्वाण के साठ वर्ष पश्चात् नन्द मगध का राजा हुआ। महावीर निर्वाण तिथि का विचार करते हुए हमने देखा था कि उसके 155 वर्ष बाद मौर्य मगध की राजगद्दी पर पाए थे। इस प्रकार नन्द और उसके वंशजों का राज्यकाल 95 वर्ष रहता है। डॉ. प्रधान कहता है कि "यह पौराणिक दन्तकथा से बिलकुल मेल खा जाता है कि जिसके अनुसार नन्द वंश लगभग 100 वर्ष राज करना पाया जाता है। इससे ऐसा लगता है कि पुराणों ने प्राचीन जैन मान्यता को ही प्रायः स्वीकार कर लिया था।" यह विद्वान यह भी कहता है कि "नाम-साम्य के कारण हेमचन्द्र नन्दि-(अवर्धन और नन्द (= महापद्म) दोनों को एक ही समझ लेते हैं इतना ही नहीं अपितु इस भ्रामक दन्तकथा का भी समर्थन कर देना है कि नन्द (== महापद्य) ने लगभग 100 वर्ष (स्थविरावनी चरित के अनुसार 95 वर्ष) राज्य किया था। परन्तु हेमचन्द्र ने नाम का घोटाला ऊपर कहे अनुसार कभी किया ही नहीं था क्योंकि हरिभद्र और हमचन्द्र दोनों ही ने नवनन्दों का विचार किया है जिनमें से प्रथम नन्द को दोनों ही ने वस्तुतः हीनोत्पन्न ही बताया है। ऐसा कहना उचित नहीं है कि "हेमचन्द्र नन्दि-(प्र)-वर्धन और (= महापद्म) नन्द दोनों में भ्रमित हो गए हैं "क्योंकि नन्दिवर्धन या नन्दवर्धन का नामसाम्य यदि स्वीकार किया ही जाता है तो उसे शैशुनाग के वंशज रूप से ही मानना होगा कि जो उदायिन का उत्तराधिकारी हुआ था। यह बात प्राचीन और अर्वाचीन सभी प्रमारणों से समथित होती है। डॉ. रायचौधरी कहता है कि "पुराणों पोर सिंहली पण्डितों ने सिर्फ एक ही नन्दवंश का अस्तित्व स्वीकार किया है। उनमें नन्दिवर्धन को शैशुनागवंशी राजा बताया है और यह वंश नन्दवंश से एकदम भिन्न है।" इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैनकथा में जरा भी असंदिग्धता नहीं है क्योंकि उदायिन् का उत्तराधिकारी नहीं था और मगध का राज्य उसके बाद नन्दों के हाथ में हो गया था। शेशुनाग का स्थान नन्दों ने कैसे लिया उन घटनाओं में जाने की हमें कोई भी प्रावश्यकता नहीं है । ऐसा हुअा हो कि उदायिन के परवर्ती राजा निर्वीर्य हुए हों और उस वंश के अन्तिम महानन्दिन को जैसा कि स्मिथ कहते हैं, शूद्रा या हीनवर्णा दासी से उत्पन्न महापद्म नन्द नाम का पुत्र था जिसने राज्यसिंहासन हड़प किया और इस प्रकार नन्दवंश की स्थापना की। विद्वान ऐतिहासज्ञ का यह कथन इस जैन दन्त कथा के पाय कि नन्द नाई से उत्पन्न वैश्या का पुत्र था, मिलता हरा है। इसका समर्थन पुराग्गों और प्रत्यक्जैण्डर के मगधी समकालिक के पिता विषयक यावनी ग्रिीक) वृत्तों से भी होता है। पुराणों में इसे शूद्र-गर्भ-उद्भव याने शूद्र माता से उत्पन्न कहा है।' इस प्रकार इन पार्ष वृत्तों से जैनकथा का अद्भुत रीति से समर्थन हो जाता है हालांकि उनके अनुपार नन्दों ने सीर्फ पीढ़ियों तक ही 1. नापितदास...राजा जातः । -ग्रावश्यकसूत्र, पृ. 690 1 देखो हेमचन्द्र, वही, श्लो. 231-243 । 2. प्रधान, वही, पृ. 218 । देखो पार्जीटर. वही, पृ. 26, 69 । 3. प्रधान, वही, पृ. 220 । देखो वही. पृ. 225 । 4. ...नवमे नन्दे...। -प्रावश्यकसूत्र. पृ. 693 । देखो हेमचन्द्र वही सर्ग 7, श्लो. 3 ।। 5. रायचौधरी, वही, पृ. 138 । देखो पार्जीटर. वही, पृ. 23, 24 69; स्मिथ. वही, पृ. 5।। 6. वही, पृ41। 7. देखो पार्जीटर वही पृ. 25, 69; रायचौधरी. वही, पृ. 140; प्रधान, वही, पृ. 226; स्मिथ, वही, पृ. 43; रेप्सन, वही, पृ. 3।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1101 राज्य किया था और यह राज्य काल के 55 वर्ष का ही था। कर्टियस कहता है कि 'उसका पिता (याने अग्राम्मे अथवा जण्डर में का पिता याने प्रथम नन्द अर्थात् महापद्म नन्द) निश्चय ही नाई था जो कि बड़ी कठिनाई से आजीविका चलाता था । परन्तु वह रूप का सुन्दर था इसलिए रानी की मासक्ति उसमें हो गई और उसी रानी के कारण उसकी पहुंच राजा के पास हो गई और वह राजा का विश्वास पात्र भी बन गया। बाद में उसने धोके में राजा की हत्या कर दी और तदनन्तर बाल-कुमारों के संरक्षक स्वरूप काम करने का ढोंग करते हुए ही उसने सारी राजसत्ता अपने हाथ में ले ली और फिर राजकुमारों को मार कर अपने ही पुत्र को राजगद्दी पर बैठा दिया । इसने भी व्यवस्थित रूप से राजकाज चलाने के एवज अपने पिता की ही नकल की जिसके फलस्वरूप प्रजा से बह घृण्य हो गया और वह अपदार्थ माना जाने लगा।' नन्दों की अक्षत्रियोत्पत्ति के विषय में जैन और अन्य उल्लेखों को साम्यता के सिवा कालक्रम में भी स्मिथ के अनुसार यदि यह घटना ई. पूर्व 413 या उसके ग्रासपास रखी जा सकती है। तो जैनों की दन्तकथा और भी समर्थित हो जाती है। क्योंकि जैसा कि हम देख पाए हैं मगध की सार्वभौम सत्ता शैशुनागों के हाथ से नन्दों के हाथ में महावीर निर्वगात 60 में ग्राई थी जिस निर्वाण की तिथि हमने ई. पूर्व 480-467 मानी हैं। पूनभक्ति का पालम्भ लेकर भी यह कहना उचित होगा कि जनों द्वारा सूचित नन्दों का समय 95 वर्ष पौराणिक दन्तकथा से भी मिलता है । मेरुतुग और अन्य लोगों के प्रमारणों का विचार करते हुए विसेंट स्मिथ कहता है कि बुद्धिभ्रश से जैनों ने उस वंश के 155 वर्ष गिन लिये हैं ।'' परन्तु हमारी स्वीकृत काल गणना के अनुसार महान इतिहासवेत्ता द्वारा सुचित 155 वर्ष नन्दवंश के नहीं अपितु महावीर निर्वाण और चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का अन्तरसूचक काल है। इसलिए हमारा काल उन्हें भी स्वीकृत मालम देता है क्योंकि 91 वर्ष का काल 'निश्चित कालक्रम योजना' में उचित माना है।। इस प्रकार नीच कुलोत्पत्ति, राज्यारोहगा तिथि और नन्दों का राज्यकाल सम्बन्धी जैन दन्तकथा की पुष्टि अन्य ग्राधारों से भी हो जाती है। इस राज्यवंश का जैनधर्म के साथ सम्बन्धी कैसा था इस विवरगण में उतरने के पूर्व नादों के समय में भारतवर्ष में मगध का प्राधान्य टिका रहा था या नहीं यह भी हम संक्षेप में देखें । भिन्न-भिन्न उल्लेखों से मालम होता है कि उस समय भी मगध एक अखण्ड साम्राज्य के रूप में टिका हुया था, इतना ही नहीं अपितु उसकी सीमा इतनी दूर तक फैली हुई थी कि महान अल्येक्जेण्डर और उसके सत्रपों के अधीन रहा हा उत्तरीय-पश्चिमी विभाग चन्द्रगुप्त को और कलिंग देश ही अशोक को फिर से मगध साम्राज्य में मिलाना मेष रहा था। पुराणों में महापद्म अथवा नन्द । म को क्षत्रिय जाति का संहारक दूसरा परशुराम कहा गया है और उसे पृथ्वी का एक छत्र राजा भी माना जाता है।' नन्द शासन में मारत के अधिकांश भाग के एकीकरण का यह पुराणों का वर्णन सर्वोत्कृष्ट इतिहास लेखक भी स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि अल्यैक्जेण्डर के समय में एक ही राजसत्ता के नीचे अनेक शक्ति सम्पन्न पुरुष समुद्र पार रहते थे। उनकी राजधानी पालीमोत्र या पाटलीपुत्र थी। 1. देखो मैकक्रिण्डले, दी इनवेजन प्राफ इण्डिया बाई अल्यैक्जैण्डर दी ग्रेट, 409। 2. वही, पृ. 222। देखो वही, प. 282; राय चौधरी, वही. प. वही; प्रधान वही और वहीं प., स्मिथ, वही, - प. 42-43; जायसवाल, बि. उ. प्राच्य मन्दिर पत्रिका सं. 1, पृ. 88 । 3. स्मिथ, वही, पृ. 431 4. वही, पृ. 42 ।। 5. वही, पृ4।। 6. देखो पार्जीटर, वही, पृ. 25, 69 । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 111 कटियस हमें कहता है कि "गंजादाई और प्रास्सी का राजा अग्राम्मे ने" अपने राज्य संरक्षण के उच्च प्राकारों में 20,000 हयदल, 2,00,000 पैदल, 2,000 चार घोड़ों के रथ, और इसके अतिरिक्त सबसे भयंकर गजसेना भी रखी थी और इसकी संख्या 3,000 तक पहुंच गई थी। इसके सिवा, नन्द साम्राज्य में कोसल का समाविष्ट हो जाना कथासरित्सागर के इस कथन से समथित होता है जहां राजा नन्द को अयोध्या में पड़ाव का उल्लेख किया गया है।' खारवेल का हाथीगुफा का शिलालेख इसका विशेष प्रावश्यक प्रमाण है जो कि, जैसा कि हम पहले देख ही पाए हैं, कलिंग की नहर के सम्बन्ध में नन्दराज का उल्लेख करता है। इस सब का स्वाभाविक अर्थ यह होता है कि नन्दराजा ने कलिंग पर भी अधिकार कर लिया था। डॉ. रायचौधरी के शब्दों में कहें तो "नन्द का कलिंग पर अधिकार देखते हुए, उसकी सुदूर दक्षिण क्षेत्रों की विजय भी एक दम असम्भव सी नहीं मालूम देती है । गोदावरी पर के नगर नांदेड याने नौ-नंद-देहरा' का अस्तित्व भी सूचित करता है कि नन्द के साम्राज्य में दक्खण का भी अधिकांश भाग था।" फिर हम अगले अध्याय में देखेंगे कि शिलालेख का दूसरा वाक्य कलिंग की जिनप्रतिमा और अन्य कोश जो कि नन्द विजय-चिन्ह स्वरूप मगध में ले गया था का उल्लेख करता है। खारवेल के इस शिलालेख से नन्दों का जैनधर्म के साथ सम्बन्ध चर्चा का विषय हो जाता है । इस और अन्य नन्दराज के उल्लेख वाले वाक्यों के सम्बन्ध में जो कठिनाई उपस्थित होती है, वह नन्दराज के बराबर पहचाने जाने की ही है। महावीर के निर्वाण की चर्चा में हमने देखा था कि जायसवाल, बेनरजी, स्मिथ और अन्य जैसा कहते हैं याने नन्दराज को नन्दिवर्धन ही मान लिया जाए ऐसा कोई भी कारण नहीं है। फिर शाटियर के आधार के सिवा जिसका कि पहले विचार किया जा चुका है, और जैसा कि उसके विषय में श्री चन्दा कहते हैं, 'नन्दीवर्धन की सूचना करने वाले एक मात्र हमारे अाधार पुराणों में ऐसी कोई भी बात नहीं है कि जिससे हम कह सकें कि उसको कलिंग में कभी भी कुछ काम पड़ा था । पक्षान्तर में हमें स्पष्ट ही पुराण कहते हैं कि जब मगध में शैशुनाग राज्यवंश और उसके पूर्वज राज कर रहे थे, बत्तीस कलिंग राजा कलिंग पर क्रमश: एक के बाद एक रान करते रहे थे। नन्दिवर्धन नहीं अपितु वह महापद्म नन्द था कि जिसने 'सब को अपनी सत्ता के अधीन किया, था' और सब क्षत्रियों को निर्मूल कर दिया था' याने प्राचीन राजवंशों को मिटा दिया था। इस लिए हाथीगुफा शिलालेख का नन्दराज कि जिसने कलिंग पर अपनी सत्ता जमाई थी, या तो स्वयं महापद्म नन्द माना जाना चाहिए या उसके पुत्रों में से कोई एक ।। संक्षेप में खारवेल के शिलालेख का नन्दराज जैनों का प्रथम नन्द अथवा पुराणों का महापद्म नन्द के सिवा दुसरा कोई नहीं है क्योंकि परवर्ती नन्दों के विषय में जैन और पुराण दन्तकथा दोनों ही ऐसा कुछ भी नहीं कहती हैं कि जिससे उनमें से किसी के लिए भी प्रथम नन्द जैसा विजयी जीवन का दावा किया जा सकता है । यहां 1. मैक्क्रिण्डले, वही, पृ. 221-222 । देखो वही, पृ. 281-282; स्मिथ, वही, पृ. 42; रायचौधरी, वही, पृ.141 । 2. देखो टानी (पंजर संस्करण) कथासरित्सागर, भाग 1, पृ. 27; रायचौधरी, वही और वही स्थान । 3. देखो रेप्सन, वही, पृ. 315। 4. देखो मैकोलिफ, दी सिक्ख रिलीजन, भाग 5, पृ. 236 । 5. रायचौधरी, वही, पृ. 142 ।। 6. देखो पार्जीटर, वही, पृ. 24, 62 । 7. चन्दा, मैमायर्स ग्राफ दी आकियालोजिकल सर्वे ग्राफ इण्डि., पृ. 50 । संख्या 1, पृ. 11-12 । देखो रायचौधरी वही, पृ. 1381 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] इतना कह देना और आवश्यक है यद्यपि पुराण और जैन दन्तकथा परस्पर बहतांश में एक दूसरे का समर्थन करती हैं, फिर भी खारवेल का शिलालेख जैनकथा का ही इस नन्द राजा को पुराणों के महापद्म नन्द के एवज नन्दराज कह कर समर्थन करता है। जैनों और नंदों के सम्बन्ध में हाथीगुफा का शिलालेख कहता है कि राजा नन्द विजय-चिन्ह रूपसे वहां से एक जन प्रतिमा ले गया था, और यह, जायसवालजी के अनुसार जैसा कि हम आगे के अध्याय में देखेंगे, द्धि करता है कि वैन्दराज जैन था और उडीमा में जैनधर्म बहुत समय पूर्व ही प्रवेश कर गया था। उन्हीं के अनुसार ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि 'विजय-चिन्ह स्वरूप पूजा की कोई मूर्ति उठा ले जाना और उसमें की किसी मूर्ति विशेष के प्रति सम्मान दिखाना परवर्ती इतिहास में एक सुप्रसिद्ध बात देखी जाती है। स्मिथ और शाटियर जैसे विद्वान भी इसका समर्थन करते हैं। स्मिथ के शब्दों में कहें तो 'नंदवंश ने कलिंग पर एक लम्बे समय तक राज्य किया था। नन्दों और खारवेल के समय में कलिंग में जैन धर्म सर्व प्रधान नहीं रहा हो जैसा कि होना चाहिए था, तो भी निश्चय ही वह अति सम्मान का स्थान भोगता था। मैं यह कह दु कि नन्द जैन थे. इस अभिप्राय पर मैं स्वतन्त्र रीति से ही पहुंचा था।' नन्दों की ब्राह्मण-विरोधी उत्पत्ति का विचार करते हुए वे जैन हो इसमें कुछ भी पाश्चर्य की बात नहीं है।" उनके उद्गम के सिवा बौद्धों की भांति ही जैनों को नन्दों के विरूद्ध कहने का कुछ भी नहीं है । डा. शाटियर के अनुसार 'यह बात ऐसा सूचित करती है कि नन्द जैनधर्म के विरूद्ध या प्रतिकूल झुकाव नहीं रखते थे। जैन दन्तकथाएं भी इसका समर्थन इसका समर्थन करती हैं क्योंकि न..वंश के श्रेणीबद्ध अमात्य जैन ही थे जिनमें से पहले अमात्य कल्पक को वह पद स्वीकार करने को बाध्य किया गया था। इस अमात्य की सहायता से राजा नन्द सब क्षत्रिय राजवंशों को निमल कर सका था। जैन यह भी कहते हैं कि अमात्यों की परम्परा उसी वंश में चलती रही थी। नौवें नन्द का अमात्य शकटाल था। उसके दो पुत्र थे, बड़ा स्थूलभद्र और छोटा श्रीयक । शकटाल की मृत्यु के बाद नन्द ने बड़े पुत्र स्थूलभद्र को मंत्री पद स्वीकार करने को कहा । परन्तु उसने संसार की असारता का विचार कर मंत्रीपद लेने से इन्कार कर दिया और जैनधर्म के छठे युगप्रधान सम्मूत 1, 'कलिंग सर्वजीव-धर्म, ब्राह्मणधर्म, बौद्धधर्म और जैनधर्म की मिलीजुली मिश्र संस्कृति थी । यह आश्चर्य की ही बात है कि कोई भी कभी बिलकुल ही लुप्त नहीं हुई थी।' सुब्रह्मनियन, प्रांध्र हिरिसो, पत्रिका सं. ।। 2. जायसवाल, बही, सं 13, पृ. 2450 3. शाटियर, वही, पृ. 164 । 4. स्मिथ, राएसो पत्रिका, 1918, पृ. 5461 5. 'कोई हमें यह समझाने का प्रयत्न करेंगे कि कलिंग जैनी था क्योंकि वह चिर काल तक ब्राह्मण द्वेष नन्दों के अधिकार में रहा था कि जिनके जैन अवशेष आज भी जैपुर जिले के नन्दपुर में पाए जाते हैं...। सुब्रह्मनियन, वही और वही स्थान । .. 6. शाऐंटियर, वही, पृ. 174 । 7. पावश्यकसूत्र, पृ. 692; हेमचन्द्र, वही, श्लो. 73-74, 80 । 8. देखो आवश्यकसूत्र, पृ. 691-692; हेमचन्द्र वही, श्लो. 1-74 । 9. दर्शितः सन् कल्पक इति ते ! राजनः) मीताः...नष्टाः। -अावश्यकसूत्र, पृ. 693; हेमचन्द्र, वही, शलो. 84, - 105-137 । देखो प्रधानवही पृ. 226 । 10. कल्पकस्य वशो नन्दिवंशेन सममनुवर्तते,...-प्रावश्यकसूत्र, 6933; हेमचन्द्र, वही, सर्ग 8, श्लो. 2। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय' के पास जा कर जैन दीक्षा ले ली । " ही राजा नन्द की सेवा में था । उ 3 [113 अन्त में मंत्रीपद उनके छोटे भाई धीयक को दिया कि जो पहले जैनों और नन्दों का पारस्परिक सम्बन्ध इस प्रकार है । नन्दों के समय में जैन प्रभावशाली थे यह बात संस्कृत नाटक 'मुद्राराक्षस" से भी स्पष्ट होती है कि जिसने चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का प्रसंग नाटक रूप में चित्रित किया गया है। इसमें कहा गया है कि उस काल में जैनी प्रधानपद भोग रहे थे ।" और चाणक्य "कांति का मुख्य प्रणेता भी मुख्य दूत स्वरूप में एक जैन को ही रखना है।"" नन्दों की राजसत्ता पर शैशुनाग वंश का सा प्रकाश जैन ग्रन्थों में कुछ भी नहीं मिलता है । बिलकुल स्पष्ट रूप में वे यही सूचित करते हैं कि जैन अमात्य कल्पक की सहायता से राजा नन्द ने अनेक राजों को वश कर लिया था और जैसा कि आगे कहा जाएगा, अन्तिम नन्द को चारणक्य के शरण में जाना पड़ा था कि जिसने उसके दरबार में हुए अपने अपमान के कारण उसकी सत्ता नाश करने और उसे पदभ्रष्ट करने की प्रतिज्ञा कर ली थी । फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि नन्दवंश की राजसत्ता के विषय में यह स्पष्टता केवल जैन इतिवृत्तों में ही नहीं है। जैसा कि डॉ. शापेंटियर कहते हैं, "प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक अंधकारमय युगों में से यह नन्दों का राज्य एक प्रति अन्धकार का काल है ।"" यह नन्दों के बाद मौर्य पाते हैं। इन नन्दों का स्थान मोपों ने कैसे और क्यों लिया वह कुछ भी स्पष्ट प्रतीत नहीं होता है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि भारतीय इतिहास के इसी परिवर्तन काल में "कदाचित जगत का नहीं तो कम से कम भारत का तो अवश्य ही प्रथम अर्थशास्त्री" चारणक्य प्रकाश में आता है ।" विस्मय की बात ही है कि इस राजवंश क्रांति का ब्यौरेवार विवरण उपलब्ध नहीं है, फिर भी प्राचीन साहित्यिक वनों से यह मालूम होता है कि अन्तिम नन्द "उसके प्रजाजनों द्वारा तिरस्कृत और अपदार्थ माना जाता था ।" फिर इन वनों में दरात नन्दों की विशाल स्थायी सेना एवम् उनका प्रतुल धन स्वभावतः सूचित करता है कि उस समय इनकी ओर से बहुत कुछ प्रार्थिक निष्कर्षरण चल रहा होगा । इतना होने पर नन्दों की जैन ऐसी कोई शिकायत नहीं करते हैं। 1. शकटालमन्त्रिपुत्रः श्री स्थूलभद्रो... पितरि मृते नन्दराजेनाकार्य मन्त्रमुद्रादानायाम्यथितः सन् पितृमृत्यु स्वचित्रेत विचिन्त्य दीक्षामादत्त । कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पृ. 162 । देखो श्रावश्यकसूत्र, पृ. 435-436, 693-695 हेमचन्द्र वही, श्लो. 3-82 स्मिथ ने भ्रम से उसे 'नवे नन्द का मन्त्री' लिख दिया है । स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया, पृ. 49, टि. 2 1 2. प्रथम प्रधान सुधर्मा भगवान् के निर्वाण के 20 वर्ष बाद निर्माण हुए थे उनने जम्बू को युगप्रधानत्व । दिया था जो कि इस पद पर 44 वर्ष रहे थे और नन्दों के राज्यासीन होने के समय के लगभग ही निर्वाण प्राप्त हुए । उनके बाद तीन युगप्रधानों की पीढ़ियां हुई और अन्तिम नन्द के समय जनसंघ में दो युगप्रधान थे सम्मूतविजय धौर भद्रबाहु ..." शापेंटियर, वही, पृ. 164 याकोबी, सेबुई पुस्त. 22, पृ. 287 3... भीयकः स्थापितः, आवश्यकसूत्र, पृ. 436 हेमचन्द्र वहीं 1 10 83.84 " 1 4. देखी नरसिंहाचार, एपी. कर्ना., पुस्त. 2 प्रस्ता. पृ. 41 राइस इन माइसोर एण्ड कुर्ग, पृ. 8; स्मिथ, आक्सफर्ड हिन्दी ग्राफ इण्डिया, पृ. 75 5. शपेंटियर, वही और वही स्थान । 6. सम्मदार, दी ग्लोरीज ग्राफ मगध पू. 2 7. महाग में अन्तिम नन्द की जब धन नाम द्वारा निंदा की गई है, तो यह मालूम होता है कि प्रथम नन्द के प्रति प्रति लोभ का दोष मंदा जा रहा है; और चीनी पर्यटक ह्य ुएनत्सांग भी नन्द राज को अतुल धन का प्रख्यात स्वामी कह कर उल्लेख करता है।" स्मिथ घर्ती हिस्ट्री ग्रॉफ इण्डिया पु. 42 देखो रायचौधरी, वही, पृ. 143 1 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] जैन दन्तकथा इस विषय में, संक्षेप में, इस प्रकार है। एक निष्ठ ब्राह्मण चरिणन की पत्नि चणेश्वरी का पुत्र चाणक्य, यह सुनकर कि प्रसिद्ध ब्राह्मणों को नंद उदारता से दक्षिणा देता है, कि दक्षिणा प्राप्ति के लिए पाटलीपुत्र गया। वहां राजदरबार में उसका अपमान किया गया है, उसे ऐसी प्रतीति हुई और तभी से वह अन्तिम नन्द का विरोधी वैरी हो गया। वहां से वह हिमवत्कूट गया और वहां के राजा पर्वत के साथ इस शर्त की मैत्री कि यदि नन्द को पराजित एवम् वश करने में वह उसकी सहायता करेगा तो वह उसको नन्द का प्राधा राज्य दे देगा बस उनने आसपास के प्रदेशों पर अधिकार कर उसके विरूद्ध अभियान प्रारम्भ कर दिया और अन्त में देश का तहस-नहस कर, उन मित्रों ने पाटलीपुत्र पर घेरा डाल दिया और बेरी को समपर्ण होने को बाध्य किया । नन्द ने चाणक्य से दया भिक्षा मांगी, इसलिए उसको जितना भी धन एक रथ में वह ले जा सके उतना ले राज्य छोड़ चले जाने की आज्ञा दे दी गई । नन्द अपनी दो पत्नियों एवं एक पुत्री के साथ कितना ही धन ले रथ में बैठा जब जा रहा था, तो मार्ग में चन्द्रगुप्त मिला जिसे देखते ही नन्द की पुत्री उसके प्रेम में पड़ गई । पिता की सम्मति से उसने स्वयम्बर रीत्यानुसार उसको पति वरण कर लिया। पिता के रथ में से उतर कर जब वह चन्द्रगुप्त के रथ में चढ़ने लगी तब उसके पहिए के नौ पारे टूट गए । इससे चन्द्रगुप्त ने उसे निकाल ही दिया होता, यदि चाणक्य यह कह कर उसे नहीं रोकता कि नया राजवंश नौ पीढ़ी तक फलेगा। नन्दों के पतन और मौर्यो के उत्थान के विषय में जैन इतना ही कहते हैं । हिमवत्कूट का दुर्भागी राजा पर्वतक अकस्मात मर गया और इस प्रकार नन्द एवम् पर्वतक दोनों ही के राज्य का स्वामी चन्द्रगुप्त ही हो गया। जैसा कि कहा जा चुका है यह घटना महावीर के निर्वाण के 150 वर्ष पश्च यहां दो प्रश्न उठते हैं। एक तो यह कि जैन एवम् अन्य उल्लेखों के प्र, र नन्दों के पतन में चाणक्य अकेले ही का हाथ हो तो इस चन्द्रगुप्त की कुल परम्परा क्या थी? और दूसरा यह कि मगध साम्राज्य का स्वामी चाणक्य स्वयम् क्यों नहीं बना? इन दो समस्याओं में से चन्द्रगुप्त की कुल परम्परा की समस्या का हल नही किया जा सकता है। जैन दन्तकथा उसे राजा के मयूर-पोषकों के गांव के मुखिया की पुत्री का पुत्र बताती है। स्मिथ कहता है कि चन्द्रगुप्त ने अपनी माता अथवा नानी (माता मही) मुरा के नाम से अपना वंश स्थापित किया होगा।" हिन्दू इन मौर्यों को नन्दों के साथ जोड़ देते हैं। कथासरित्सागर चन्द्रगुप्त को नन्द का 1. गतो मिवत्कुट, पार्वतिको राजा तेन समं मेत्री जाता। -यावश्यकसूत्र पृ 434; हेमचन्द्र, वही, श्लो. 298 । परिशिष्टपर्वन के संस्करण में याकोबी इस विषय में एक टिप्पण देता है जो इस प्रकार है। नेपाल राजवंशावली में, बौद्ध पार्वतीय वंशावली के अनुसार, तीसरे वंश का ग्यारवां राजा, किरातों का राजा कोई पर्व था जो प्रत्यक्षतः हमारा पर्वत हो; क्योंकि सातवें राजा के राज्यकाल में याने जितेदास्ती के समय में बुद्ध का नेपाल गमन बताया गया है, और चौदहवें राजा स्थुक के काल में अशोक का वहां जाना कहा है । -याकोबी, परिशिष्टपवन्, पृ. 58 । देखो भगवानलाल इन्द्रजी, ई.एण्टी., पुस्त. 13, पृ. 412 । 2. देखो आवश्यकसूत्र, पृ. 433, 434, 435%; याकोबी, वही, पृ. 55-59 । 3. द्वे अपि राज्ये तस्य जाते। -प्रावश्यकसूत्र, प. 4351 देखो हेमचन्द्र, वही, प्रलो. 338 । 4. "कौटिल्य अर्थशास्त्र, कामन्दक नीतिशास्त्र, पुराण, महावंश और मुद्राराक्षस से हमें मालम होता हैं कि नंदवंश का उच्छेद चन्द्रगुप्त के माहमात्य कौटिल्य द्वारा ही हया था।" -रायचौधरी, वही और वही स्थान । "कौटिल्य नाम का एक ब्राह्मण उनका उन्मूलन करेगा। 100 वर्ष तक इस पृथ्वी का राज भोग कर, यह राज्य मौर्यो को चला जाएगा।" -पार्जीटर वही पृ. 69। 5. देखो पावश्यकसूत्र पृ. 433-4 34. हेमचन्द्र, वही, श्लोक 240 । 6. देखो मिथ. वही, पृ. 123 । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 115 पुत्र कहता है। पहावंश उसका मोरीयवंश बताता है । दिब्यावदान में चन्द्रगुप्त का पुत्र बिंदुसार अपने मूर्धामिषिक्त क्षत्रिय होने का दावा करता है। उसी ग्रन्थ में बिंदुसार का पुत्र अशोक अपने को क्षत्रिय कहता है । महापरिनिव्वाणगुत्त में मोरियों को क्षत्रिय जाति के और पिष्फालीवन का राजवंशी कहा गया है । इन मब बातों का विचार करते हए, डा रायचौधरी कहता है कि 'इतना तो निश्चित है ही कि चन्द्रगुप्त क्षत्रिय जाति याने मोरिया (मौर्य) वंश का था। ई. पूर्व छठी सदी में पिप्फलीवन के छोटे से प्रजासत्ताक पर राज्य करने वाले यह मोरिया जाति थी। पूर्व भारत के अन्य राजाओं के साथ वह भी मगध साम्राज्य में मिल गई होगी। अग्रमेस के अयशस्वी राज्य में जब उसकी प्रजा को वह अप्रिय हो गया तो बहुत करके ये मोरिया चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में फिर प्रकट हो गए होंगे । तक्षशिला के बाह्मण के पुत्र कौटिल्य या चाणक्य अथवा विष्णुगुप्त की सहायता से उसने दुष्ट नन्द को पदभ्रष्ट कर दिया। चन्द्रगुप्त की वंश-परम्परा के विषय में इतना ही कहा जा सकता है। अब इसका विचार करें कि चाणक्य ही मगध का राजा क्यों नहीं बना ? इस विषय में डा. रायचौधरी का उपरोक्त वक्तव्य कुछ स्पष्टीकरण अवश्य ही करता है। यह बहुत ही सम्भव दीखता है कि चन्द्रगुप्त स्वयम् ही, जैसा कि ग्रीकी कहते हैं,' महान् भाग्य के प्रमुख चिन्ह देखकर राज्य प्राप्त करने को प्रेरित हया था। जैन इतिहास के अन्य प्राधारों की भांति ही ग्रीक साहित्य भी वास्तविक इतिहास पर कुछ प्रकाश नहीं डालते हैं। चन्द्रगुप्त के विषय में वे इतना ही कहते हैं कि नन्द राजा द्वारा मृत्युदण्ड दिए जाने पर वह वहां से भाग निकला था, जब वह सोया हया था तो उसके शरीर में से निकल रहे पसीने को एक सिंह चाटता रहा था, इस अद्भुत पुरुष को चाणक्य ने राजपिहासन प्राप्त करने को उकमाया था और उसके सामने एक वनगज एकदा नतमस्तक हो गया था। जब ऐसी दन्तकथाएं सालक साक्षीभूत आधार भी चन्द्रगुप्त के विषय में कहें तो यह कोई भी प्राश्चर्य नहीं है कि जैन दन्तकथा इस समस्या की व्याख्या इस प्रकार करे कि 'चाणक्य जब जन्मा था तब उसके मह में सारे ही दांत थे । इस आश्चर्यजनक घटना के फलाफल के विषय में जब साधुनों को पूछा गया तो उनने भविष्यकथन किया कि यह शिशु राजा होगा। परन्तु उसका पिता धार्मिक वृत्ति का था एवम् पूत्र को प्रात्मा की राजपद की भयंकरता से वह बचाना चाहता था। इसलिए उस राजचिन्ह को दूर करने के लिए उसने शिशु के दांत तोड़ दिए । फिर भी मुनियों ने कहा कि अब चाणक्य किसी प्रतिनिधि द्वारा राज चलाएगा। नन्दों की पराजय पश्चात्, यह दन्तकथा कहती हैं कि, नन्द की धन सम्पदा सब चन्द्र गुन्त और पर्वत दोनों ने आपस में बांट ली ।। 1. देखो टानी (पेंजर संस्क.) वही, भाग 1, पृ. 57 । 2. 'मोरियानाम खत्तियानं वंसे प्रादि...'-गीगर, वही, प. 30 । 3. अहं राजा क्षत्रियो मुक्तिा ...'-कव्येल और नील, दिव्यावदान, पृ. 360 । 4. ह्रिस डेविड्स, सेबुई, पुस्त. 11, पृ. 134-1351 5. जनों के अनुसार चाणक्य चणक का निवासी था जो कि गोल्ला जिले में एक गांव है। देखो याकोबी वही, पृ. 55%; आवश्यकसूत्र, पृ. 433। 6. रायचौधरी. वही, पृ. 165-166। 7. मैक क्रिण्डले, वही, पृ. 320। 8 वही, प. 327-328 । देवो स्मिथ, वही, पृ. 123, टिप्पण 1। 9. चाणक्य की जीवन की इस घटना के विषय में याकोबी इस प्रकार टिप्पण करते हैं : 'यही बात रिचर्ड 3य के विषय में कही जाती है : 'टीथ हैडस्ट दाऊ इन दाई हयेड व्येन दाऊ वास्ट बार्न-याकोबी, वही और वही स्थान । टू सिग्नीफाई दाऊ कम्येस्ट टू बाइट दी वर्ल्ड ।' 10. देखो प्रावश्यकसूत्र, पृ. 435%; हेमचन्द्र वही. श्लो. 3 7। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 भारतीय इतिहास की इन प्रसिद्ध बातों को यही छोड़ कर अब हम यह देखें कि मगध साम्राज्य का परिबल मौर्य-काल में कितना था। मगध की सत्ता और राज्य-विस्तार अशोक के समय में उच्चतम कक्षा को पहुंच गया था। परन्तु यथार्थ विजय और राज्य-विस्तार तो अशोक के समय में नहीं अपितु चन्द्रगुप्त के समय में ही प्रारम्भ होकर समाप्त हो गया था। राजनीति की दृष्टि से अशोक एक क्वकर याने धार्मिक-वृत्ति का और वह राजा की अपेक्षा धर्मगुरू पद के अधिक योग्य था। उसने तो मात्र कलिंग पर मगध की सत्ता पुनः स्थापित की थी। महामान्य हेरास के शब्दों में "हिन्दु-युग के हिन्दुस्थान का महानतम सम्राट चन्द्रगुप्त था । उसके पौत्र अशोक की कीति तो उसके बौद्धिक कामों पर खड़ी है। वह शासक राजा की अपेक्षा एक दार्शनिकचिंतक था; वह शासक की अपेक्षा नीति का उपदेशक या शिक्षक था।"। तथ्य जो भी हो, परंतु महान् मौर्य साम्राज्य के मगध का विस्तार व्यापक था। पंजाब, सिंध और उत्तरीय राजपूताना के सिवा प्रायः सारा ही उत्तर-भारत नन्दों के अधिकार में हो गया था । उस विशाल साम्राज्य में पंजाब, सिंध, बलोचिस्थान, अफगानिस्थान और सम्भवतः, जैसा कि हमने हिमवत्कूट के पर्वत के टिप्पण में देख लिया है, नेपाल और काश्मीर भी चन्द्रगुप्त काल में मिला लिए गए थे। उत्तर की घटनाएं ही इतनी सघन थी कि उसे दक्षिण की ओर दृष्टि फैकने का अवकाश ही नहीं मिल सकता था। जैसा कि स्मिथ कहता है." यह विश्वास करना ही कठिन है कि अप्रसिद्धी में से पूर्ण प्रभावक एवम् शक्तिशाली बन जाने, मैसीडोनी सेना को देश से निकाल मगाने, सेल्यूकस के आक्रमण को विफल करने, क्रांति कर पाटलीपुत्र में अपना राजवंश स्थापने, अरियान का अधिकांश भाग साम्राज्य में मिला लेने और बंगाल की खाड़ी से अरबसमुद्र तक अपना साम्राज्य विस्तार कर लेने से अधिक सनय उसे कदाचित् ही मिल सकता था।" दक्षिण की विजय चन्द्रगुप्त के पुत्र और उत्तराधिकारी बिंदुसार द्वारा सम्पन्न हुई थी इसका अनेक आधारों से समर्थन होता है। उसे भी उसके पिता के मंत्री चाणक्य का निर्देशन प्राप्त था । दक्खन अथवा भारतीय द्वीपकल्प लगभग नेलोर के अक्षांश तक प्रत्यक्षतया बिंदुसार द्वारा जीन लिया गया होगा क्योंकि अशोक को यह सब उत्तराधिकार में उसी से प्राप्त हया था और उसका एक मात्र युद्ध अभिलेख कलिंग-विजय का ही था । परवर्ती मौर्यों ने साम्राज्य के विस्तार में कुछ भी योगदान नहीं दिया था। वस्तुतः अशोक के राज्यकाल के समाप्त होते ही मौर्य सत्ता क्षीण होने लग गई थी और बृहद्रथ से जिसकी जैसा कि हम आगे के अध्याय में देखेंगे, उसके ही महासेनाधिपति पुण्यमित्र द्वारा हत्या कर दी गई थी, और जिसने शुगवंश का नया राजवंश स्थापन किया था, मौर्य सत्ता बिलकुल ही तिरोहित हो गई। मौर्यो की अधीनता में मगध साम्राज्य के विस्तार का श्रृंखला बद्ध इतिहास जान लेने के पश्चात् अब हम उनका जैनधर्म के साथ के सम्बन्ध का विचार करेंगे। जैन दन्तकथा कहती है कि मौर्यवंश संस्थापक और यवनों का विजेता और भारत का प्रसिद्ध सम्राट चन्द्रगुप्त जैन था। इसकी दन्तकथा संक्षेप में इस प्रकार है : 1. हेरास, मिथीकल सोसाइटी त्रैमासिक, सं. 17, पृ. 276 । देखो जायसवाल, बिउप्रा प्रत्रि, 2, पृ. 83 । 2. देखो वही, पृ. 81। 3. स्मिथ, वही, पृ. 156 । देखो जायसवाल, वही, वही स्थान । 4. आवश्यकसूत्र, पृ. 184 । 5. देखो जायसवाल, वही, पृ. 82-83; शीफनगर, वही, पृ. 89 । 6. देखो स्मिथ, वही, पृ. 204 । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब उत्तर-भारत में (उज्जैन मे या पाटलीपुत्र से) चन्द्रगुप्त राज्य कर रहा था, श्रुतकेवली भद्रबाहु ने कि जो उस समय जैनों के एक युग प्रधान आचार्य द्ववादशवर्षी भीषण दुष्काल की भविष्यवाणी की थी। इस भविष्य कथन के परिणामस्वरूप जैनों का एक बड़ा समूह (संख्या में लगभग 12000), दक्षिण को प्रस्थान कर गया जहां उनमें से भद्रबाहु सहित अनेक संलेखना व्रत लेकर काल कर गए। यह घटना मैसूर राज्य के श्रवणवेल्गोल में घटी। चन्द्रगुप्त जो कि संघ के साथ ही उधर गया था सब कुछ त्याग कर वारह वर्ष तक अपने देवलोक प्राप्त गुरूभद्रबाहु की चरणचिन्हों की पूजा करता हुआ बेल्गोल में ही टिका रहा (?) और अन्त में वह भी संलेखना करके दिवंगत हुआ। उक्त सार में कोष्ठक एवम् प्रश्न चिन्हांकित वाक्य एक ही दन्तकथा की भिन्न भिन्न प्रावृत्तियों का संकेत करते हैं कि जो मूलतः साम्य रखती है परन्तु अप्रमुख विवरण में भिन्न भिन्न है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के आविर्भाव के साथ इस कथा का सम्बन्ध यह हम पहले ही देख चुके हैं। श्वेताम्बर इसे स्वीकार नहीं करते हैं यद्यपि बारहवर्षी दुःकाल की बात स्वीकार करते हुए ही वे कहते हैं कि चन्द्रगुप्त की राजधानी में रहते हुए प्राचार्य सुस्थित को अपने गण को अन्य प्रदेश में भेजने की अवश्य ही आवश्यकता हुई थी। इस दन्तकथा में हमारी दिलचस्पी इतनी है कि इससे प्रकट होता कि चन्द्रगुप्त जैन था । इसको सूक्ष्म निरीक्षा दणिण-भारत में जैनधर्म के विद्यार्थी का ही काम है न कि हमारा । फिर भी यहाँ यह कह देना उचित होगा कि इसकी विवेचना मैसूर-निवासी नरसिंहाचार, फ्लीट प्रादि विद्वानों ने विस्तार के साथ की हैं । इस दन्तकथा का प्रथम साहित्यक रूप हरिषेण की वहत्कथाकोश जो कि ई. पन् ) 31 लगभग का है, में मिलता है। श्रवणबेल्गोल का शिलालेख जिसका समय अनुमानतः ई. सन् 600 अबका गया है, वही इस सारी दन्तकथा का मूल आधार है। अनेक प्रतिष्ठित और प्रमाणभूत आधुनिक विद्वान इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि इस दन्तकथा के आधार पर चन्द्रगुप्त जैन तो बिना किसी जोखम के ही जा सकता है। 'जैनशास्त्र (ई. पूर्वी सदी) और परवर्ती जैन शिलालेख', डा. जायसवाल कहते हैं कि, 'चन्द्रगुप्त को जैन राजर्षि रूप में उल्लेख करते हैं । मेरा अध्ययन जैनग्रन्थों के ऐतिहासिक तथ्यों का सम्मान करने को बाध्य करता है, और मैं ऐसा कोई कारण नहीं देखता कि हम जैनों के इस दावे को क्यों स्वीकार नहीं कर ले कि चन्द्रगुप्त ने अपने राज्य के अन्तिम दिनों में जैनधर्म स्वीकार कर लिया था और राजपाट त्याग दिया था और जैन मुनि की रूप में ही दिवंगत हुआ था । ___ डा. स्मिथ कि जिनने अन्ततः इसी विचार को मान्य किया है, कहते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य का घटनापूर्ण राज्यकाल किस प्रकार से समाप्त हुग्रा उस की सीधी और एक मात्र साक्षी जैन दन्तकथा ही है । जैनी इस महान् सम्राट को बिंबसार जैसा ही जैन मानते हैं और इस मान्यता में अविश्वास करने का कोई भी पर्याप्त कारण नहीं 1. देखो हेमचन्द्र, वही, श्लो. 377-378 । स्थविरों की सूची में सुस्थित का नाम स्थूलभद्र के बाद आता है जो कि जनसंघ के आठवें युगप्रधानाचार्य थे। देखो याकोबी, सेबुई., पुस्त. 22, पृ. 287-288 । 2. नरसिंहाचार, वही, प्रस्ता. प. 36-42; फ्लीट, इण्डि., एण्टी., पुस्त. 2-1, पृ. 156-160।3....वृहत्कथाकोश, ई. 931 की हरिषेण की संस्कृत रचना, कहता हैं कि भद्रबाहु, अन्तिम श्रुतकेली, का शिष्य राजा चन्द्रगुप्त था ।' नरसिंहाचार, वही, प्रस्ता. १. 37 । देखो राइस, ल्यूइस, वही. पृ. 4। । 4. देखो नरसिंहाचार, वही, प्रस्ता. पृ. 39; वही, अनुवाद, पृ. 1-2; राइस, ल्यूइस, वही, पृ. 3-4 । 5. जांयसलवाल, बिउप्रा पत्रिका, सं. 1, पृ. 452 । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 ] हैं। परवर्ती शैशुनागों, नन्दों और मौयों के काल में जैनधर्म नि:संदेह मगध में अत्यन्त प्रभावशाली रहा था। यह बात कि चन्द्रगुप्त ने एक ब्राह्मण विद्वान की युक्ति से राज्य पाया था, इस धारण से कदापि असंगत नहीं है कि जैनधर्म तब राजधर्म था। जैनगहस्थानुष्ठानों में ब्राह्मणों से काम लेते हैं, यह एक सामान्य प्रथा ही है और मुद्राराक्षस नाटक में जिसको हमने ऊपर उद्धृत किया है, मंत्री राक्षस का विशिष्ट मित्र एक जैन साधू ही बताया गया है, जिसने कि पहले नन्द की और बाद में चन्द्रगुप्त की मंत्री रूप से सेवा बजाई थी। यदि यह तथ्य कि चन्द्रगुप्त जैन था अथवा जैन हो गया था, एक बार स्वीकृत हो जाता है तो उसके राज्य त्यागने एवम् अन्त में जैनधर्म मान्य संलेखना व्रत द्वारा मृत्यु का पाव्हान करने की दन्तकया भी सहज विश्वासनीय हो जाती है। यह बात तो निश्चित है कि ई. पूर्व 322 अथवा उसकी प्रासपास चन्द्रगुप्त गद्दी पर जब आया था तब वह एक दम युवान और अनुभवहीन था। 24 वर्ष पश्चात् जब उसके राज्यकाल का अन्त हुअा, तब वह 50 वर्ष से कम ही आयु का होना चाहिए। राज्यत्याग सिवा इतनी कम आयु में उससे दूर भाग जाने का और कोई भी कारण समझ में नहीं पाते है। राजवंशियों के ऐसे संसार त्याग के अनेक दृष्टांत उपस्थि वर्ष का दुष्काल भी स्वीकृत किया जाता है। संक्षेप में जैन दन्तकथा जहां एक ओर स्वस्थान की रक्षा करती है, वहां दूसरा और कोई भी विकल्प हमारे सामने नही है । इन दोनों विद्वानों के सिवा भी और विद्वान हैं जो इसी प्रकार का समर्थन करते हैं। श्रवणबेल्गोल के जैन शिलालेखों के प्रखर अभ्यासी राइस और नरसिंहाचार भी इसी का समर्थन करते हैं। प्राचीन विद्वानों में श्री एडवर्ड टामस भी कि जिसने ग्रीक साहित्य का इस विषय में विचार किया है इसी को स्वीकार करता हैं । फिर याकोबी कहता है कि "हेमचन्द्राचार्य से ले कर आधुनिक सब विद्वान भद्रबाहु की निर्वाण तिथि वीरात् 170 मानते हैं।"4 अपनी गणना के अनुसार ई. पूर्व 297 के लगभग यह तिथि पड़ती है, महान् प्राचार्य के स्वर्गवास की यह तिथि चन्द्रगुप्त के राज्यकाल ई. पूर्व 321-297 से बराबर मिल जाती है। जैन साहित्य में इस दन्तकथा के उपरान्त अन्य उल्लेख भी मिलते हैं और वे सब बताते हैं कि चन्द्रगुप्त जैन ही था अथवा बाद में वह जैन हो गया था। परन्तु हमें इस साहित्यिक मीमांसा में उतरने की यहां आवश्यकता 1. स्मिथ, ग्राक्सफर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, 75-76 । “मैं यह विश्वास करने को तैयार हूं कि...चन्द्रगुप्त ने वास्तव में ही राज्य त्याग दिया था और वह जैन साधू हो गया था।" -स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया पृ. 154 । हेमचन्द्र कहता है कि चन्द्रगुप्त समाधिमरणं प्राप्य दिवं ययौ... -हेमचन्द्र, वही, श्लो. 444 । 2. राइस ल्यूइस, वही, पृ. 3.9 । "हमारा यह मान लेना इसलिए निराधार नहीं है कि चन्द्रगुप्त धर्म से जैन था।" -वही पृ. 8 । “उपर्युक्त तथ्यों का निष्पक्ष विचार इस परिणाम पर पहुंचाता है कि जैन दन्तकथा को खड़ा रहने का कुछ प्राधार अवश्य ही प्राप्त है।" -नरसिंहाचार्य, वही, प्रस्तावना पृ. 42।। 3. "चन्द्रगुप्त जैनसंघ का एक सदस्य था, यह बात जैन लेखक बिलकुल उदासीन भाव से लेते है और इसे बात मानकर उसे सिद्ध करने के तर्कादि में पड़ने की आवश्यकता ही नहीं समझते हैं । ...मैगस्थानीज की साक्षी इसी तरह मान लेती है कि चन्द्रगुप्त श्रमणों की भक्ति और उपदेशों का मानने वाला था न कि ब्राह्मणों के धर्म सिद्धान्त का।" -टामस एडवर्ड, वही, पृ. 23 । यवन वर्णनों में जैनों के उल्लेख के लिए देखो राइस, त्यूइस, वही, पृ. 8 । 4. याकोबी, कल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 13 । दिगम्बरों के अनुसार उनकी मृत्यु वीरात __162 में हुई थी। देखो नरसिंहाचार्य, वही, प्रस्ता. प. 40। 5. देखो राइस, ल्यूइस, वही, पृ, 7; स्थिम, वही, पृ. 206; नरसिंहाचार्य, वही, प्रस्ता. पृ. 41 । 6. देखो याकोबी, परिशिष्टपर्वन्, पृ. 61-62 । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 119 नहीं है। चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारियों का विचार करने के पूर्व जैनों के दक्षिण प्रयाण की उपयोगिता और चाणक्य के धर्म सम्बन्ध में भी कुछ यहां कह दें। यह प्रयाण दक्षिण के जैन इतिहास में एक निश्चित भूमिका हमें प्रदान करता है। इसके सिवा दक्षिण के इतिहास की दृष्टि से भी इसकी उपयोगिता कुछ कम नहीं है क्योंकि दक्षिण-भारत के इतिहास में इतने ही महत्व का प्राचीन प्रसंग और कोई हो ऐसा मालूम नहीं है । इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य का युग जो स्मिथ की दृष्टि से इतिहासवेत्ता को 'अन्धकार से प्रकाश' में उत्तर भारत में ले जाता है, दक्षिण भारत के इतिहास में भी वैसा ही है, याने नया युग प्रवर्तक है। यह बात भी कम महत्व की नहीं है कि जिस धर्म ने दक्षिण भारत को प्राचीनतम, यदि सर्वोत्तम नहीं तो, साहित्य प्रदान किया, उसी धर्म ने उसको अपनी सर्व प्रथम विश्वस्त ऐतिहासिक परम्परा भी प्रदान की है। अब चाणक्य के धर्म का भी संक्षेप में विचार कर लें। जैनों के अनुसार चाणक्य जैनधर्मी था । वह जैन गुरूत्रों को मान-सम्मान देता था और अपनी वृद्धावस्था में एक नैष्ठिक जैन साधु की ही भांति अनशन कर दिवंगत होने का उसने प्रयत्न किया था। दन्तकथा है कि दुष्ट मन्त्री अपने कर्मों का प्रायश्चित्त करने के लिए नर्बदा के तट-स्थित 'शुक्ल तीर्थ' में चला गया और वहीं उसकी मृत्यु हुई थी। चन्द्रगुप्त भी उसके साथ वहां आया था ऐसा कहा जाता है। 'शुक्ल तीर्थ' कन्नड़ शब्द 'बेल्गोल' जिसका अर्थ 'धवल सरोवर' है, का ही ठीक पर्याय शब्द है । शिलालेख में उसे धवल सरस् कहा गया है जिसका अर्थ धवल सरोवर होता है। चाहे वह आकस्मिक ही हो, फिर भी यह साम्य अति महत्व का है । सूक्ष्म बातों को छोड़ दें तो श्री ह्रिस डेविड्स की इस बात से इसका मेल खा जाता है कि उपलब्ध भाषा सम्बन्धी और शिलालेखी साक्षियों से जैनों में प्रचलित किम्बदन्ती की सामान्य सत्यता का समर्थन होता है। 'उसने यह भी कहा है कि' यह निश्चित है कि 'उपलम्य याजकीय साहित्य में लगभग दस शताब्दियों तक चन्द्रगुप्त बिल्कुल उपेक्षित ही रहा था।' यह सम्भव लगता है कि ब्राह्मण लेखकों की चुप्पी या उपेक्षा का यही कारण हो कि चन्द्रगुप्त मौर्य सम्राट ने अपने सांसारिक जीवन के अन्तिम दिनों में जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। अन्त में हम चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारियों का भी विचार कर लें। जैन दन्तकथानुसार ये थे विन्दूसार, अशोक, कुणाल और सम्प्रति । शैशुनागों और नन्दों की ही भांति, मौर्यों की वंशानुक्रम सूची में भी बहुत कुछ मतांतर और विभिन्नता है। परन्तु जहां तक अशोक की बात है, उसमें कोई भी मत भेद नहीं हैं। सभी स्वीकार करते हैं कि चन्द्रगुप्त के बाद में उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी बिन्दूमार ही था और इस बिन्दुसार का अनुगामी उसका पुत्र अशोक । इन दोनों मौर्यों के जैनों के साथ सम्बन्ध के विषय में इतना तो स्पष्ट ही है कि जैनों की साहित्यिक दन्तकथाएं इनके विषय में इतनी प्रखर नहीं है जितनी कि इनके पूर्वज चन्द्रगुप्त और इनके अनुगामी सम्प्रति के विषय में हैं। फिर भी ये दोनों ही जैनधर्म के प्रति अनुकूल थे, ऐसा मानने के स्पष्ट कारण हैं । अशोक 1. देखो स्मिथ, आक्सफर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ, 72 । 2. देखो याकोबी, वही, पृ. 62; जोली, अर्थशास्त्र आफ कोटिल्य, प्रस्तावना पृ. 10-11। अर्थशास्त्र और जैन साहित्य के पम्बन्ध के विषय में देखिए वही, पृ. 10 । हम देख ही पाए हैं कि चाणक्य का पिता ब्राह्मण होते हा भी पक्का जैन था, ऐसी जैन दन्तकथा हैं । अाजकल के ब्राह्मण ईसाइयों जैसी ही यह बात लगती है, फिर भी इसका अर्थ यह तो है ही कि चाणक्य का कुल जन्म से ब्राह्मण और धर्म से जैनी था । एड्वर्ड टामस के अनुसार 'यद्यपि हमारा राजा-निर्माता ब्राह्मण था, परन्तु प्राधुनिक ब्राह्मण अर्थ में वह ब्राह्मण नहीं था।' टामस, एडवर्ड, वही, पृ. 25-26 1 3. देखो स्मिथ, वही, प.75, टि. 1। 4. देखो नरसिंहाचार्य, वही, प्रस्ता. पृ. 1। 5. ह्रिस डेविड्स, बुद्धीस्ट इण्डिया, 164, 270 । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] के पूर्वज बिन्दुसार के विषय में हम इतना ही जानते हैं कि उसने एण्टीग्रोकोस सोटर के पास दूत भेज कर किसी ग्रीक दार्शनिक के भेजने का सन्देशा पहुंचाया था। और यह भी कि उसने साम्राज्य का विस्तार, उसकी विजयों और उसके पिता के साम्राज्य को दृष्टि में रखते हुए, कम से कम मैसूर के कुछ भागों तक अवश्य ही फैला लिया था। ये दोनों ही तथ्य निरुपयोगी नहीं हैं क्योंकि पहला बिन्दुसार के दार्शनिक प्रेम का दिग्दर्शन कराता है और दूसरा दक्षिण भारत में अशोक के स्तम्भों के प्रचार पर प्रकाश डालता है। ऐसा भी हो सकता है कि मात्र विजय की स्वाभाविक क्षत्रियोचित महा इच्छा के अतिरिक्त अपने पिता चन्द्रगुप्त के अन्तिम दिनों से पवित्र हई भूमि मैसूर को जीतने के वह पितृप्रेम से प्रेरित हुया हो । पिहल की दंतकथाएं तो यह कहती हैं कि बिंदुसार ब्राह्मण धर्म पालता था। महावंश में अशोक के पिता के विषय में लिखा है कि वह ब्राह्मण धर्म का मानने वाला होने से 60,000 ब्राह्मणों को पालता था । परन्तु एड्वर्ड टामस कहता है कि "अन्य देशों और अन्य समयों के विषय में उनकी साक्षी का कोई ऐसा महत्व नहीं हो सकता है। फिर यह भी एक खास प्रश्न है कि वे ब्राह्मणधर्म के विषय में कितना जानते थे, और यह कि ब्राह्मण शब्द का उपयोग उनकी दृष्टि में, अबौद्ध अथवा बौद्धों का विरोधी कोई भी धर्म अर्थ में ही तो नहीं है। हम वर्तमान दृष्टि से यही कह सकते हैं कि बिंदुसार अपने पिता के धर्म का ही पालन करता था और उसो धर्म में वह चाहे जो भी प्रमाणित हो-अशोक ने भी बचपन में शिक्षा पाई थी। इससे अधिक बिदूसार के धर्म विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। हम देख ही पाए हैं कि वह अपने पिता की ही भांति चाणक्य के प्रभाव में था । जैन दंतकथा कहती है कि उसके समय में यह ब्राह्मण मंत्री स्वयम् राजा को अप्रिय हो गया था जिसने उसके स्थान में किसी सुबन्धु को मंत्री नियुक्त कर दिया था । उसके पुत्र और उत्तराधिकारी अशोक के विषय में यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं है कि उसका जीवन उसके पिता की भांति अप्रसिद्ध नहीं था। निर्ग्रन्थ मम्प्रदाय के साथ उसका सम्बन्ध कैसा था यह बताने के पर्याप्त साधन हैं । अशोक ने अपने राज्यकाल में किस धर्म का पालन किया था यह एक विवादास्पद विषय है, फिर भी उसका जैनधर्म के प्रति रूख कैसा था यह जानने की यहां आवश्यकता है। परम्परागत सागरमाही वत्ति की थोड़ी देर के लिए उपेक्षा कर दें तो भी हम यह कहने का साहस कर सकते हैं कि उसके दादा का धर्म होने के कारण उसका उस पर कोई कम प्रभाव नहीं पड़ा होगा, हालांकि महावंश तो यही कहता है कि उसके पिता की ही भांति, अशोक भी ब्राह्मणों को तीन वर्ष दान-दक्षिणादि देता रहा था। उसकी आज्ञाएं बहुत ही उदात्त हैं और वे समभाव को स्पष्ट सचना देती हैं। फिर भी इस मनोवृत्ति का मूल कदाचित् वही हो जैसा कि सूचित किया गया है। अशोक बचपन से ही अपने पितामह चन्द्रगुप्त के धर्म से प्राकर्षित था इस बात को एडवर्ड टामस की यह बात ममर्थन करती है कि "अकबर के कुशल मंत्री अबुलफज्ल ने आईन-ए-अकबरी में काश्मीर के राज्य के लिए तीन आवश्यक तथ्य कहे हैं जिसमें से पहला यह है कि "अशोक ने स्वयम् कश्मीर में जैनधर्म का प्रचार किया 1. स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ. 155-56। 2. पिता सट्ठिसहस्सानि ब्रह्मने ब्रह्मपक्खिके मोजेसि । -गीगर, वही, परिच्छेदो 5, गाथा 34 । 3. टामस, एड्वर्ड, वही, पृ29। 4. चाणक्य अपने राजा की अप्रसन्नता का भाजन किस कारण से हरा इसके लिए देखो हेमचन्द्र, वही, श्लोक 436-459 । 5. ...सो पीते येवा नि वस्सानि भोजयई। -गीगर, वही और वही स्थान । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 121 था।"1 यह प्रस्तुत करते हुए उक्त विद्वान कहता है कि "अशोक के काश्मीर में जैनधर्म प्रचार की बात मुसलमान ग्रन्थकार ही केवल नहीं कहते हैं अपितु राजतरंगिणी में भी यह स्पष्ट स्वीकार करने में पाई है । यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से यद्यपि ई. सन् 1148 का रचित माना जाता है। फिर भी उसके ऐतिहासिक विभाग का अाधार पद्ममिहिर और श्री छविल्लाकार के अधिक प्राचीन उल्लेख ही हैं।"2 इतना होने पर भी विद्वान पण्डित स्वीकार करता है कि अपने सारे राज्यकाल में अशोक आजीवन जैन नहीं रहा था। ऐसा होता तो जैन अवश्य ही उसको अपना प्रतिभाशाली धर्म-संरक्षक न्यायतः घोषित किए बिना कदापि नहीं रहते। एडवर्ड टामस के अनुसार धीरे धीरे वह बदलता ही गया और अन्त में वह बुद्धधर्म की पोर पूर्णतया झक ही गया । फिर भी अशोक की बौद्धधर्म स्वीकार कर लेने की बात सहज में मानी जा सके ऐसी तो नहीं ही है जो कुछ भी कहा जा सकता है वह इतना ही कि समय बीतते अशोक बुद्ध के उपदेश से प्राकषित होता गया था। परन्तु साम्प्रदायिक बाड़े में नहीं रहते हुए वह सर्वदर्शन मान्य नैतिक नियमों का और सिद्धांत रूप धर्म का प्रजा में प्रचार करने लगा। यद्यपि महामान्य हेरास ठीक ही कहते हैं कि 'पवित्रता और जीवन की शाश्वता के जैन सिद्धांतों का उस पर खास प्रभाव तो पड़ा ही था । अशोक बौद्धधर्मी नहीं था यह कोई नई बात ही नहीं कही जा रही है । विल्सन", मैक्फेल' फ्लीट: मेनाहन", और पादरी हेरास10 तो हम से पूर्व ही यह कह चुके हैं । डा. कन भी कहता है कि 'कुछ अपवादों 1. देखो टामस, एडवर्ड, वही, पृ. 30-11 | "जब कनक के काका के पुत्र अशोक को उत्तराधिकार मिला, उसने ब्राह्मगधर्म को उठा दिया और जैनधर्म को प्रतिष्ठापित कर दिया।" -ज्य रेट, पाइन-ए-अकबरी, भाग 2, पृ. 382; विल्सन, एशियाटिक रिसर्चेज, सं. 15, पृ. 10।। 2. टामस, ऐड्वर्ड, वही, पृ. 32 । देखो विलफोर्ड, एशियाटिक चिज, सं. 9, पृ. 96-97 । 3. टामस, एडवर्ड, वही, पृ. 24 4. वही। 5. हेरास, वही, पृ. 272 । देखो राक एडिक्टस (1, बी)।, (3, डी), (4, सी), (9, सी), प्रादि; हल्टज, कारपस ___ इंस्क्रिप्शनम इण्डिकारम, पुस्त 1, पृ. 215,18, 19, आदि (नया संस्करण)। 6. प्रथमतया तो, शिलालेखों के तथाकथित मुख्य लक्ष्य याने बौद्धधर्म में परिवर्तन के विषय में यह शंका करना अकारण नहीं होगा कि वे इस प्रकार के किसी लक्ष्य विशेष से ही प्रसिद्ध किए गए थे, और यह कि उनका बौद्धधर्म से कुछ भी सम्बन्ध है ।' विल्सन, राए पो पत्रिका, सं. 12, पृ. 236, देखो वही, पृ. 250 । 7. देखो मैकफेल, शोक, पृ. 48 । धर्म शब्द चलित अर्थ में ही यही प्रयुक्त है । प्राज्ञामों में वौद्धधर्म का पर्यायवाची नहीं है, परन्तु सामान्य दया का ही कि जो अशोक अपनी सब प्रजा को चाहे वह कोई भी धर्म मानती हो, पालन कराना चाहता था।' वही। 8. देखो फलीट, राएसो, पत्रिका, 1908, पृ. 491-492 । 'पहाड़ों और स्तम्भों दोनों ही प्राज्ञालेखों का प्रत्यक्ष लक्ष्य बौद्ध या किसी धर्म विशेष का प्रचार करना नहीं था, अपितु अशोक का निश्चय घोषित करना था कि शासन नीति और प्रम से एक धर्मराजा के कर्तव्यानुसार चलाया जाए और सभी धर्मों के विश्वास का सम्मान करते हुए चलाया जाए ।...' आदि । वही, पृ. 492 । 9. अशोक के अधिकांश पहाड़ों और स्तम्भों के प्राज्ञालेखों के सिद्धान्त एकान्त बौद्धधर्म ही नहीं कहे जा सकते हैं। ग्रादि । मेनाहन, अर्ली हिस्ट्री प्राफ बेंगाल, पृ. 214।। 10. चौथी, पांचवीं और छठी सदी के बौद्ध इतिवृत्तों ने अनेक विद्वानों को भ्रमित कर दिया है...। उनमें बौद्धों के गहन सिद्धांतों का जरा भी उल्लेख नहीं है । हेरास, वही, पृ. 255, 271 । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] कुछ 2 के सिवाय उसके शिलालेखों में बौद्धों का खास कुछ भी नहीं है।" 'धर्म में जो केवल बौद्धों को ही लागू हो ऐसा भी नहीं होता है' ऐसा कहते हुए सेनार्ट भी इस प्रकार कहता है कि 'मेरी राय में हमारे स्मारक (अशोक के लेख) बौद्धधर्म की उस स्थिति के साक्षी हैं कि जो परवतीं काल में विकास प्राप्त [ धर्म से भावप्रवणरूपे भिन्न है ।' यह आधार विहीन कल्पना ही है । परन्तु ऐसा ही विरोध हुल्ट्ज ने भी बताया है। वह कहता है कि उसकी सब नैतिक घोषणाएं 'उसे बौद्ध सुधारक के रूप में बताती ही नहीं हैं; फिर भी 'यदि हम जिसे वह अपना धर्म कहता है इसकी परीक्षा करने का मन करे तो मालूम होता है कि उसका धर्म उस बौद्ध नैतिकता के चित्र से एक दम मिलता हुआ है कि जो धम्मपद के सुन्दर संग्रह में सुरक्षित है । ' उन्हीं वक्तव्यों के अनुरूप उद्भव हुए हैं कि जिनके करनेवाले प्रशोक को बौद्धधर्म का प्रचारक कहते हैं ।' 73 सेनार्ट और हुल्ट्ज दोनों ही के ये वक्तव्य भिन्न भिन्न विद्वानों की दृष्टि से अशोक के प्राशा-स्तम्भों और शिलालेखों को देखते हुए भी कहा जा सकता है कि तथ्यों की दृष्टि से वे यह कुछ भी नहीं कहते हैं कि अशोक वौद्ध ही था अथवा हो गया था। अब हम उसके लेखे ही की निरीक्षा इस दृष्टि से करेंगे कि उस पर निर्ग्रन्थ सिद्धांत का कहां तक प्रभाव पड़ा था। कोई भी ऐसा देश नहीं है, प्रशोक कहता है, कि 'जहां दो वर्ग याने ब्राह्मण और श्रमण नहीं हों। योनस देश ही इसका अपवाद 1'5 परन्तु ये 'भ्रमण' कौन थे ? उन्हें बौद्ध भिक्षु कहता है हालांकि इसका कोई भी कारण नहीं है कि इसका इतना संकुचित धर्म लगाया जाए या व्याख्या की जाए। 'श्रमण' का सामान्य अर्थ तपस्वी या भिक्षु है । इस शब्द को जैन बौद्धों के पूर्व से ही प्रयोग करते आए हैं । ग्रीक ग्रन्थों में भी यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । और इसका समर्थन अन्य विद्वानों द्वारा भी, जैसा कि पहले ही दिखाया जा चुका है, किया गया हैं। जैनों की एक प्राचीन प्रतिज्ञा या व्रत इस प्रकार का है : "मैं बारहवें अतिथि संविभाग व्रत की प्रतिज्ञा स्वीकार करता हूं जिससे में भ्रमण या निर्ग्रन्थ को उन्हें कल्प्य चौदह निर्दोष वस्तुएं देने की प्रतिज्ञा करता हूं।" यदि आदि । कल्पसूत्र भी इसी प्रकार 'आधुनिक निर्ग्रन्थ श्रमण' का ही वर्णन करता है ।" दक्षिण के प्रथम दिगम्बर ग्रंथकर्ता कुन्दकुन्दाचार्य भी अपनी सम्प्रदाय के साधुओं के लिए इसी शब्द का प्रयोग करते हैं। परन्तु सबसे विशिष्ट बात तो यह है कि बौद्ध स्वयम् निर्ग्रन्दों को 'श्रमण' शब्द से वर्णन करते हैं क्योंकि अंगुत्तरनिकाय में लिखा है कि "अरे विशाख... । एक श्रमणों का वर्ग है कि जो निर्ग्रन्थ कहा जाता है ।" बौद्धों से पूर्व का ही यह जैनों का प्रचलित शब्द है यह इस बात से भी निश्चय पूर्वक प्रमाणित हो जाता है कि बौद्ध अपने को 'शाक्यपुत्रीय समरण' कहते हुए अपने को 'निग्गंठ समरणों' से जो कि पहले से ही चले आ रहे थे, अलग घोषित करते थे । 10 24 अशोक बौद्धों के ही विषय में जब कहता है तो संघ शब्द का ही वह उपयोग करता है । स्तम्भ प्राशा 7वीं में वह कहता है कि “कितने ही महामन्त्रों को संघ के काम की व्यवस्था के लिए में आज्ञा देता हूं, अन्य कितनों 1. कर्न, मैन्युअल आफ इण्डियन बुद्धीध्म, पृ. 112 1 2. सेनार्ट इण्डि एण्टी, पुस्त. 20, पृ. 260, 264-2651 3. हुल्ट्ज, वही, प्रस्तावना प. 49 । 4. देखो हेरास वही, पृ. 201 , 5. हुल्ट्ज, वही, पृ. 47 (जे) । 7. देखो राइस, ल्यूइस, वही. पृ. 9. याकोबी, सेबुई पुस्त. 22, पृ. ' 11. देखो याकोबी, सेबुई, पुस्त. 45, प्रस्ता. पृ. 17। कामता प्रसाद जैन का “दी जैन रेफरेंसेज इन बुद्धीस्ट लिटरेचर" लेख जो इंहिस्टोरिकल त्रैमासिक अंक 2, पृ. 698-709 में प्रकाशित भी देखो । 6. हुल्ट्ज, वही, प्रस्तावना पृ. 1 । 8. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 218 । 297 1 10. देवो भण्डारकर वही, पृ. 99 100 1 8 I 12. देखो हिस डेविस, वही पू. 143 1 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 123 ही को ब्राह्मण तथा प्राजीवकों के काम की व्यवस्था का काम देता हं, अन्य को निर्ग्रन्थों के काम की व्यवस्था के लिए आज्ञा देता हं और शेष को...अन्य दार्शनिकों की व्यवस्था के लिए सूचना करता हूं।" __ ब्राह्मण, आजीवक, निर्ग्रन्थ आदि सब का इस प्रकार स्वतन्त्र उल्लेख यही बताता है कि ये सब संघ की में एकदम भिन्न थे। अन्य स्थलों पर श्रमणों के ब्राह्मणों के साथ ही गिना दिया गया है। उपयुक्त आज्ञा में श्रमरणों का प्रयोग इसी प्रकार समझाया जा सकता है कि यहां प्राजीवक और निर्ग्रन्थ शब्द प्रयुक्त हुए हैं कि जो दोनों ही, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, संघ से पृथक हैं। वस्तुत: जैन और अन्य धर्मों के प्रति अशोक का झकाव इन शब्दों से स्पष्टतया जाना जा सकता है कि “सब मनुष्य मेरे बालक हैं। जैसा में अपने निजी बालकों के लिए चाहता हूं कि उन्हें इहलोक और परलोक दोनों ही का कल्याण प्राप्त हो, वैसे ही में पर्व मनुष्यों को वह प्राप्त हो, ऐसा चाहता हूं । इसी प्रकार और भी स्पष्ट शब्दों में वह कहता है कि "मैं उसी रीति से सब वर्षों और वर्गों का ध्यान रखता हूं। और सभी धर्म-सम्प्रदाय मुझ से अनेक प्रकार का मान-सम्मान प्राप्त कर चुके हैं।" उत्तर और दक्षिण में "बौद्धों, ब्राह्मणों, आजीवकों और निर्ग्रन्थों एवम् अन्यों की सार-सम्हाल के लिए" अशोक धर्म-महामात्रों की नियुक्तियां की थी। उसकी असम्प्रदायिक नीति निम्न शब्दों में स्पष्ट रूप से प्रकट होती है :-- __ महाराज कहते हैं कि “जो कोई अपनी सम्प्रदाय के लिए अन्धश्रद्धा से अभिमान करता है और दूसरे की सम्प्रदाय की निंदा करता है वह अपनी सम्प्रदाय की निंदा करता है वह अपनी सम्प्रदाय की बड़ी से बड़ हानि करता है।" बराबर की गुफा के शिलालेखों की विवेचना करते हुए स्मिथ कहता है कि "ये सब लेख महत्व के हैं और वे स्पष्ट सिद्ध करते हैं कि अशोक की हादिक इच्छा और आज्ञा सब सम्प्रदायों को मान देने की थी। उसके अन्य शिलालेखों के लिए भी यही कहा जा सकता है। हालांकि उसके उदार शासन काल में उत्तर-भारत में जैनधर्म की स्थिति की कोई सीधी साक्षी उपलब्ध नहीं है फिर भी उपरोक्त वक्तव्य और अवलोकन चन्द्रगुप्त के महान् उत्तराधिकारी का उस धर्म के प्रति जिसे उसने, पहले नहीं तो भी गौरवशील राज्य के सायंकाल में स्वीकार कर लिया था, रूख प्रदर्शित करने को पर्याप्त है। इस दन्तकथा की परंपरागत असर का अनुमान अशोक के पौत्र सम्प्रति के आर्य सूहस्तिन द्वारा जैनी बनाए जाने की बात से समर्थित होता है। सम्प्रति की जैनधर्म के प्रति भक्ति और श्रद्धा का विचार करने के 1. दिल्ली-तोपड़ा स्तम्भ आज्ञा लेख 7; हुल्ट्ज, वही, पृ 136 (जैड) । 2. देखो पर्वत-प्राज्ञालेख, (3,डी), (4, सी), (9 जी), (11, सी), (13, जी), और स्तम्भ प्राज्ञालेख 7 (एच एच); देखो हल्टज, वही, प्रस्ता. पृ. 1 । 3. भिन्न-भिन्न पहाड़ी आज्ञापत्र-जूनागढ़, 1 (एफ. जी.), 2 (ए. एफ); देखो हुल्ट्ज , वही, पृ. 114-7 । 4. दिल्ली-टोपड़ा स्तम्भ आज्ञालेख 6 (डी. ई.), देखो हल्टज. वही, प. 129; प्रस्ता. प. 48 । 5. वही, प्रस्तावना पृ. 40 । 6 गिरनार पर्वत आज्ञालेख, 12 (एच); देखो हल्ट्ज, वही, पृ. 21 । 7. स्मिथ, वही, पृ. 177 । देखो हुल्टज, वही, प्रस्तावना पृ. 48 । 8. देखो याकोबी, परिशिष्टपर्वन् , 4 69; भण्डारकर, वही, पृ. 135 । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 ] पूर्व अशोक का सीधा उत्तराधिकारी कौन था, यह विचार करना हमें आवश्यक है । दुर्भाग्य से जैसा कि डॉ. रायचौधरी कहते हैं किसी कौटिल्य या मैगस्थनीज ने परवर्ती मौर्यों के विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। एक या दो शिलालेख तथा कुछ ब्राह्मण, जैन और बौद्ध ग्रन्थों के सामान्य तथ्यों से अशोक के उत्तराधिकारी का सविस्तृत इतिहास संकलन करना असम्भव है।'' पुराण भी एक मत नही है कि अशोक का उत्तराधिकारी कौन था। भिन्न-भिन्न प्रमाणों के विरोधी कथनों का समामिलन करना सरल काम नहीं है। फिर भी अशोक के पुत्र कुनाल की वास्तविकता सभी स्वीकार करते हैं। उसके परिवर्तियों की दन्तकथाएं भिन्न-भिन्न हैं। कुनाल किन विचित्र संयोगों में अन्धा हो गया था और "राज-व्यवस्था के लिए स्वयम् अशक्त होने पर उसने अपने प्रिय पूत्र सम्प्रति याने जैन अशोक को उसके लिए नियुक्त कराया, इसका रोचक वर्णन हेमचन्द्र से हमें मिलता है। इस सम्प्रति को जैन और बौद्ध दोनों ही लेखक अशोक का अनन्तर उत्तराधिकारी मानते हैं।" अशोक का उत्तराधिकारी सम्प्रति को मान लेने में बस एक ही कठिनाई हमारे सामने उपस्थिति होती है और वह है दशरथ की यथार्थता कि जिसने, जैसा कि हम पहले ही देख पाए हैं, नागार्जुनी पहाड़ी की गुफा आजीविकों को भेट की थी। इस कठिनाई का एक सम्भव स्पष्टीकरण यही दीखता है कि अशोक के पौत्रों के रूप में दोनों ही ने एक ही समय में राज्य किया होगा। हालांकि सम्प्रति अशोक का सीधा ही उत्तराधिकारी था अथवा यह कि बौद्ध एवम् जैन दोनों ही ने दशरथ की उपेक्षा कर दी है। इन दोनों सम्भावनामों में पहली बहुतांश में वास्तविक लगती है क्योंकि सम्प्रति का नाम मगध की राजवंशावली में सर्वानमति से सम्मिलित हुअा है। इस प्रकार इस बात में जरा भी सन्देह नहीं है कि सम्प्रति मौर्य सम्राटों में इतना महान् था कि सब ने उसका नाम मगध राजवंशावली में गिनाया है। उसके जैनधर्म के प्रति उत्साह के विषय में नि:संकोच यह कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के जैन इतिहास में देदीप्यमान नक्षत्रों में से वह भी एक है । जैनधर्म प्रसार के विषय में जैन उल्लेखों में सम्प्रति का उतना ही ऊचा नाम है जितना कि बौद्ध उल्लेखों में अशोक का है । स्मिथ कहता है कि सम्प्रति जैनधर्म का प्रचार करने में उतना ही उत्साही था जितना कि अशोक गौतम के बुद्धधर्म प्रचार में था। 1. रायचौधरी, वही, पृ. 220 ।। 2. देखो पार्जीटर, वही, प. 28, 70; कोव्यल एण्ड नील, वही, पृ. 430%; कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, सूत्त 163; रायचौधरी, वही १. 221। 3. देखो याकोबी, वही, प. 63-64; कोव्यल एण्ड नील, वही, पृ. 433; रायचौधरी, वही, वही, पृ; भण्डारकर, वही, वही पृ. । 4. सम्प्रति के विषय की बौद्ध और जैन दन्तकथानों का निर्देश पिछले टिप्पण में किया जा चुका है । परा दन्तकथा के लिए देखो पार्जीटर, वही, पृ. 28,70। देखो रायचौधरी, वही, पृ. 220 1 "संभव है कि दशरथ और सम्प्रति दोनों ही में साम्राज्य बांट दिया गया हो।" -स्मिथ, वही, पृ. 230 । 5. स्मिथ, आक्सफार्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ. 117 और टि. 1 । देखो भण्डारकर, वही, वही स्थान; संप्रति... पिता महदत्तराज्यो रथयात्राप्रवृत्त श्री आर्यसुहस्तिनदर्शनाज्जातजातिस्मृतिः...जिनालय सपादकोटि...अकरोत । कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, सूत्र 6 पृ. 163 ।' प्रायः सारे प्राचीन जैन मन्दिर या अज्ञात-मूल स्मारक सभी एक स्वर से सम्प्रति निर्मित कहे जाते हैं कि जो वास्तव में जैन अशोक के समान ही माना जाता है।'-स्मिथ, ग्री हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ. 202 । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 125 सम्प्रति के जैनधर्म के प्रति उत्साह के विषय में बाचार्य हेमचन्द्र संक्षेप में इस प्रकार कहते हैं, 'सारे जम्बूद्वीप में जैन मन्दिर उसने कराए । उज्जयिनी में प्रार्य सुहस्तिन की स्थिरता के समय उनके नेतृत्व में धार्मिक पर्व के निमित्त से अर्हतु की रथयात्रा का उत्सव मनाया गया था। उस प्रसंग में राजा और प्रजा दोनों ने ही बड़ी श्रद्धा और भक्ति बताई थी। सम्प्रति के आदेश प्रोर कार्य से उसके प्रधीन राजों ने भी जैनधर्म स्वीकार करने पोर उसे उत्तेजन देने में उत्साहित हुए थे। इससे अपने राज्य के अतिरिक्त आसपास के देशों में भी साधू अपना धर्म पालन कर सकते थे । " हमारे जाने की इस सम्बन्ध में प्रति महत्व की बात तो यह है कि सम्पति ने जैनधर्म के प्रचारक दक्षिण भारत में भी भेजे थे और जो ऐसे प्रचारक उधर गए वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही थे । हेमचन्द्र को ही उद्धृत करें तो 'असभ्य असंस्कृत देशों में उन प्रचारकों के कार्य को व्यापक बनाने के लिए सम्प्रति ने जैन साधु के वेश में दूतों को भेजा था। उनने लोगों को साधुओं के कल्प्य आहार, पानी आदि अन्य आवश्यकताओं की पूरी पूरी समझ दी और तहसीलदार को दिए जानेवाले सामान्य कर के एवज साधुयों को ये वस्तुएं दान देने की, जब भी वे वहां पहुंचे, आज्ञा दी। इस प्रकार मार्ग तैयार करके उसने प्राचार्य श्री को साधुधों को अन्य देशों में भेजने की प्रार्थना और प्रेरणा की क्योंकि उनके यहां रहन में किसी भी प्रकार की असुविधा अब नहीं रह गई थी। इस प्रकार ग्रा और द्रमिल देश में उसने धर्म प्रचारक साधू भिजवाए और उन्हें राजा की आज्ञानुसार सब सुविधाएं मिली। इस प्रकार अनार्थ प्रजा जैनधर्मी बनी प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार सम्प्रति के अनार्य देशों में भेजे हुए जैनधर्म प्रचारकों का महत्व यह है कि दक्षिण में श्वेताम्बर संघ सम्बन्धी सबसे प्रथम उल्लेख हमें यहीं मिलता है । इसलिए पूर्वं प्रकरण में कहे गए महान् विदेश गमन जितना ही महत्व का यह भी प्रसंग है । सुहस्तिन श्वेताम्बर जैन थे यह इसी से सिद्ध है कि दिगम्बर पट्टा - वालियों अथवा गुरुयों की वंशावलियों में इनका कोई नाम नहीं है।' इस धर्म प्रचारकों को खाम श्वेताम्बर कहने का कारण यह है कि जैन धर्म में दिगम्बर- श्वेताम्बर पंथभेद महान् विदेशगमन और सुहस्तिन - महागिरि दन्तकथा दोनों ही से सम्बन्धित है। हमें यह भी उल्लेख मिलता हैं कि प्रार्य सुहस्तिन के उपदेश से सम्प्रति ने जैनधर्म अंगीकार किया था और जब पार्थमहागिरि ने यह जाना तो वे दशार्णभद्र के वन में चले गए क्योंकि 'उनकी साधुयों को कठिन साध्वाचार पालन की ओर उन्मुख करने की सारी यात्राओं पर पानी इससे फिर गया था । इस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय सम्प्रति के राज दरबार में विजयी हो गया । 115 जैन इतिहास की दृष्टि से मगध की महत्ता का यहां अंत हो जाता है। मौर्योों के अन्त एवं शुगों की विजय के साथ कलिंग देश इस इतिहास का केन्द्र बन जाता है। मगध की सर्वोपरि सत्ता के पतन से कलिंग किसी अंश में वह स्थान प्राप्त करने में विजयी हो जाता है । खारवेल के समय में शक्तिशाली कलिंग मगध को भारी हो गया 1. याकोबी, वही, पृ. 69 2. देखो भण्डारकर, वही और वही स्थान । इसके सम्बन्ध में जिन प्रभसूरि के पाटलीपुत्रकल्प में लिखा है : पाटली पुत्र में महान सम्राट सम्प्रति, कुणाल का पुत्र, तीन खण्ड का अधिपति, महान् अर्हत् जिसने अनार्य देशों में भी श्रमणों के लिए बिहार बनवाए थे, राज्य करता था । ' - देखो रायचौधरी, वही, पृ. 222 3. देखो याकोबी, वही और वही स्थान । 4. देखो हरनोली, इण्डि एण्टी, पुस्त. 21, पृ. 57-58; और क्लाट, वही, पुस्त. 11, पृ. 251 । 5. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 74 देखो बड़ोदिया, हिस्ट्री एण्ड लिटरेचर ग्रॉफ जैनीज्म, पू. 55 1 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] था और सद्भाग्य से थोड़े समय के लिए जैन इतिहास में उसने उतना ही महत्व का कार्य भी किया था। सम्प्रति के बाद मौर्यवंश अधिक दिन टिका नहीं रहा था यह निश्चित है । जो भी राजा उसके बाद हुए होंगे वे निर्बल ही होंगे क्योंकि जैसा हम देख आए हैं और आगे भी देखेंगे. मौर्य सेनापति ने अन्तिम मौर्य राजा को निर्दयता से मार कर मगध का सिंहासन हड़प लिया था । फिर भी प्रतिभासम्पन्न मौर्यवंश के पतन के कारणों में उतरना हमारे लिए प्रावश्यक नहीं है। इतना भर कह देना ही पर्याप्त है कि मौर्य अशोक की कलिंग विजय भारत और मगध के इतिहास में एक महान् लाक्षणिक प्रसंग था। इससे मगध साम्राज्य तमिल को छोड़ सारे भारत भर फैल गया था। बिबसार ने विजय कर अंग देश खालसा कर विक्रय यात्रा प्रारम्भ की और उस साम्राज्य का उत्कर्ष काल अब यहां अंत हो गया। एक नए युग को उसने जन्म दिया शांति, सामाजिक उन्नति और धार्मिक प्रचार का एक नया युग यद्यपि प्रारम्भ हुआ, परन्तु राजकीय जीवन की मंदता और कदाचित् सैनिक प्रदक्षता का भी ऐसा युग प्रारम्भ हो गया कि जिसमें मगध साम्राज्य की सारी वीरता या वीर वृत्ति अभ्यास के अभाव के कारण मर गई। दिग्विजय का युग समाप्त हो गया था । धर्म विजय का युग प्रारम्भ हो गया था और इसके फल स्वरूप मगध साम्राज्य पर से मौर्य सार्वभोम सत्ता का लोप और अन्त हुआ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्याय कलिंग - देश में जैनधर्म "कलिंग देश में जैनधर्म" से यहां प्रमुख रूप से खारवेल के राज्यकाल में जैनधर्म का इतिहास ही प्रभिप्रेत है । परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि खारवेल से पूर्व कलिंग - देश में जैनधर्म के कोई चिन्ह ही नहीं थे । ऐसा कहने से तो हाथीगुफा के शिलालेख, ई. पूर्व पांचवीं और चौथी शती के स्मारकों से वहां के स्थापत्य और शिल्प की सभ्यता एवम् जैनगमों में अत्यन्त पूज्य ग्रन्थ में से निकलने वाले निष्कर्षो से ही इन्कार करना हो जाएगा। फिर भी यह तो स्वीकार करना ही चाहिए कि खारवेल के हाथीगुफा के और उसी की रानी के स्वर्गपुरी के शिलालेख के अतिरिक्त कोई भी अन्य साधन हमें उपलब्ध नहीं है कि जिसके निश्चित आधार पर हम इन देश के जैन इतिहास के अपने अनुमान खड़े कर सकते हैं। [ 127 यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि महावीर के बाद होने वाले शैशुनाग, नन्द, मौर्य और अन्य राज्यवंशों के अनेक राजों, जैन दन्तकथाओं और इतिहास के अनुसार, अपने-अपने समय में जैनधर्म का या तो धनुषायी से या उसके सहायक। इसमें सन्देह नहीं कि ये दन्तकथाएं और इतिहास अनेक जैन और प्रर्जन लेखकों द्वारा समर्थित हैं. फिर भी विशुद्ध ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से सिवा एक चन्द्रगुप्त के धौर कोई भी राजा उस महान् जेदी' सम्राट खारवेल से तुलनीय नहीं है कि जो उसके ही एक शिलालेखानुसार, जैनधर्मी था । यह सम्राट खारवेल कब, कहां और कितने समय तक राज करता रहा था और वह जैन था या नहीं, इसका प्रमुख ऐतिहासिक प्रमाण तत्कालीन हाथीगुफा का वह शिलालेख ही है। वह कलिंग का एक महान सम्राट था इस तथ्य को यद्यपि अस्वीकार नहीं किया जा सकता है फिर भी उस कलिंग देश की सीमाएं क्या थी यह ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता है । मौर्य साम्राज्य के पतन पर कलिंग ने उसके नेतृत्व में विप्लव किया और स्वतन्त्र हो गया था। तिलंगाना के उत्तर बंगाल की खाड़ी के किनारे-किनारे लगा था और पूर्वीघाट के बीच के क्षेत्र को कलिंग की सीमा कहना उचित नहीं मालूम होता है । " भूमि को वह पट्टी जो बंगाल की खाड़ी के सहारे 1. प्रारम्भ से ही यह स्पष्ट समझ लेने की बात है कि कलिंग में जैनधर्म की कालक्रमानुसार उन्नति की खोज करना व्यवहारतया असम्भव है और वस्तुतः यह वांछनीय भी हमारे उद्देश के लिए नहीं है। हमारे लिए तो इतना ही आवश्यक है कि आज उपलब्ध प्राचीन व अर्वाचीन, ऐतिहासिक स्मारकों को लेकर उस युग के समकालिक ऐतिहासिक वातावरण को यथा संभव ध्यान में रखते हुए ही उनसे अपने निष्कर्ष हम निकालें । 2. चेदियों के सम्बन्ध में हम जानते हैं कि वैदिक और प्रार्थ काल में वह एक सुप्रसिद्ध राजवंश था जो कि महाकोसल से जहां कि वे परवर्ती इतिहास में भी पाए जाते हैं उड़ीसा में पाया था। "यह सुनिश्चित है कि इन चेदियों की एक गादी अति प्राचीन काल में उड़ीसा के ग्रास पास कहीं थी ।" - बिना पत्रिका, सं. 1 पृ. 223 3. केहि भाग 1 पु. 601 1. 1 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] सहारे और उत्तर में गोदावरी से ऊपर फैली हुई है, प्राचीन काल में कलिंग कहलाती थी। स्थूल रूप में भारत का वह भाग जिसे प्राजकल उड़ीसा पोर गंजम प्रदेश कहा जाता है, इसके अन्तर्गत माना जा सकता है। खारवेल का यह मिलावेल 'भारत के प्राचीन स्मारकों में से एक महान विशिष्ट स्मारक होते हुए भी अत्यन्त जटिल है ।' भगवान् महावीर के अनुयायी प्राचीनतम राजों में से किसी भी राजा का शिलालेख में मिलने वाला नाम एक सम्राट खारवेल का ही है । मौर्य समय के बाद के राजों और उस समय के जैनधर्म के प्रताप की दृष्टि से खारवेल का यह शिलालेख देश में उपलब्ध एक महत्व का ही नहीं अपितु एक मात्र लेख है। जैन इतिहास की दृष्टि से तो यह अनुपम है, परन्तु भारतीय राजसिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसकी श्रगत्यता पूर्व है । श्री आसुतोष मुकर्जी के शब्दों में ऐतिहासिक शोधखोज के साधन रूप लिपिशास्त्र के क्षेत्र में जो भूली हुई अद्भुत लिपि में लिखे लेस खोज निकाले गए हैं और उनसे भूतकाल का द्वार जो उन्मुक्त हुआ है उनमें सम्राट खारवेल का हाथीगुफा का शिलालेख हमारा बहुत ही ध्यान आकर्षित करता है। ई. पूर्व दूसरी सदी के लिखे इस लेख में उड़ीसा के इस सम्राट की बाल्यावस्था से 30 वर्ष अर्थात् उसके राज्यकाल के तेरहवें वर्ष तक का वृत्तांत है । यह लेख एक चट्टान पर उत्कीरिंगत है और ई. 1825 में श्री स्टलिंग की प्राथमिक खोज के बाद सौ वर्ष से बराबर ज्ञात है और तब से अध्येताओं द्वारा यह अध्ययन भी किया जाता रहा है। उसके द्वारा जो ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हुई है वह विशेष महत्व की है क्योंकि उसमें उस समय के मगध के राजा, मथुरा के ग्रीक राजा, गोरथ गिरि (बराबर की टेकरियां) और राजगृह का गढ़, पाटलीपुत्र के गांगेय स्थान पर दक्खन के राजा सातकर्णी का उल्लेख है । ब्राह्मी लिपि में लिखे अशोक के शिलालेखों से दूसरे नम्बर के, और ई. चौथी सदी के समुद्रगुप्त के शिलालेखों की समान श्रेणी के इस शिलालेख की खोज से अनेक और फलप्रद अभ्यसनीय परिणाम निकले है । "है भारत में बनारस और पुरी दो अत्यन्त महत्व के ऐतिहासिक घटनाओं और पावनता दोनों ही दृष्टि से ही प्रगट हुई है और यहां ही प्रजा की बुद्धि और हाद तीर्थधाम हैं जो प्रजा की अविस्मरणीय स्मृति में संगृहित प्रसिद्ध हैं । प्रजा की आंतरिक भक्ति अनेक प्रकार से यहां का समानान्तर रीति से विकास हुआ है। 3 हमारे यह मानने के अनेक कारण हैं कि उड़ीसा कि जो अब हिन्दूधर्म का उद्यान उसके जगन्नाथ रूपी यरूशलम के कारण है तीसरी सदी ई. पूर्व से ई. पश्चात् पाठवीं या नवीं सदी तक बौद्ध और जैनों का प्रभावशाली केन्द्र रहा था। बौद्धधर्म ने महान् मीयंराज प्रशोक की कलिंग विजय के समय याने ई. पूर्व 262 से यहां अपना प्रभाव जमाना प्रारम्भ किया था परन्तु उसके मरते ही मौर्य सम्राज्य शीघ्रता से क्षीण होने लगा और मीयों के राजपुरोहित एवं ब्राह्मण प्रतिक्रियावादियों के महान् संवल पुष्यमित्र ने राजगद्दी हड़प कर बौद्धधर्म को भारतवर्ष में बहुत भारी धक्का दिया ।" परन्तु वह भी साम्राज्य का आनन्द निष्कंटक नहीं भोग सका । दक्षिण में महान वंश के साथ साथ मौर्य साम्राज्य के पश्चात् जो दूसरा राजवंश उठा वह था महामेघवाहन खारवेल 1. वही, पृ. 534 2. विउप्रा पत्रिका स. 10. पृ. 9-101 सं. 4. गंगूली, उड़ीसा एण्ड हा रिमेंस एसेंट एण्ड मैडीवल, पृ. 17 5. मजुमदार, हिन्दू हिस्ट्री 2य संस्करण, पृ. 636 1 3. एसो पत्रिका भाग 28 सं. 1 से 5 (1859) पृ. 186 | Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 129 के नेतृत्व में सुप्रख्यात चेदि वंश जिसका पूर्वी समुद्रतट का समतल प्रदेश निवास स्थान था। यह चेदिवंश उत्तर के ब्राह्मण-प्रतिक्रियावादियों को अच्छा प्रत्याघाती सिद्ध हुआ ।। __ इस प्रकार ई. पूर्व दूसरी सदी में ब्राह्मण, जैन और बौद्ध तीनों ही धर्म कलिंग में चल रहे थे परन्तु जैनधर्म को राजधर्म होने का सौभाग्य प्राप्त था । चीनी-पर्यटक ह्य एनत्सांग जिसने कि ई. 629 से 645 तक कलिंग का भ्रमण किया था, जैनों की तब वहां बड़ी संख्या बताते हुए उसे जैनधर्म का गढ़ कहा है । वह कहता है कि 'वहां अनेक प्रकार के नास्तिक थे परन्तु उनमें अधिक संख्या निर्ग्रन्थों (नी-किन के अनुयायी) की थी।" मातृभूमि मगध में से दक्षिण-पूर्व की ओर कलिंग तक हुई जैनधर्म की यह स्पष्ट प्रगति है । उड़ीसा के सम्राट खारषेल और उसकी सम्राजी के खण्डगिरि पर के दो शिलालेख जैनों की इस प्रगति को प्रमाणित करते हैं और इस ऐतिहासिक सत्य को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। यह सम्राट ई. पूर्व दूसरी शती के मध्य में याने ई. पूर्व 18 3 से 152 में भारतवर्ष के पूर्वी तट पर राज्य करता था । उदयगिरि और खण्डगिरि पर की अन्य गुफाएं एवं मन्दिरों के ध्वंसावशेषों से भी इसका समर्थन होता है । यह दोनों टेकरियां भुवनेश्वर के उत्तर पश्चिम में पांच मील की दूरी पर हैं और दोनों ही उस गिरिवर्त्म द्वारा पृथक पृथक कर दी गई हैं कि जो भुवनेश्वर से वहां पहुंचने के मार्ग की सलगता में है। फिर उन टेकरियों में रहनेवाली अनेक जातियों के नाम जो कि निम्न जातियों में भी निम्न प्राज मानी जाती हैं, जैनों के प्राचीन ग्रंथ अंग और उपांग में मिलते हैं और वहां इन जातियों की भाषा को म्लेच्छ भाषा बताया है। उपरोक्त अभिलेखों में प्रथम और सब से बड़ा खारवेल का शिलालेख है और उसका प्रारम्भ जैन पद्धत्यानुसार मंगलाचरण से हमा है। उड़ीसा में जैनधर्म प्रवेश होकर अन्तिम तीर्थकर महावीर के निर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् ही जैनधर्म वहां का राजधर्म भी बन गया था यह सब इस शिलालेख से प्रमाणित होता है । स्वर्गपुरी का दूसरा लेख यह प्रमाणित करता है कि खारवेल की प्रधान महिषी ने कलिंग में श्रमरणों के लिए एक मन्दिर और गुफा बंधवाई थी। हाथीगुफा शिलालेख का सूक्ष्म विचार करने के पूर्व पास-पास के खण्डरों से हमें क्या सूचना मिलती है उसका हम विचार कर लें। जिला गजेटीयर याने विवरणिका के अनुसार यह निश्चित बात है कि मौर्य सम्राट अशोक के समय में अनेक जैन यहां बस गए थे क्योंकि उदयगिरि और खण्डगिरी की रेतिया पत्थर की टेकरियां उनके तपस्वियों के विश्रामस्थान रूप अनेक गुफाओं से घिरी हुई हैं जिनमें से कुछ में मौर्य युग की ब्राझी अक्षरों में शिलालेख हैं। ये सब गुफाएं जैनों के धार्मिक उपयोग के लिए ही बनाई गई मालूम होती हैं क्योंकि अनेक सदियों तक जैन साधुओं ने उनका उपयोग किया था ऐसा लगता है। यहां यह कह दें कि उड़ीसा में बौद्ध और जैन काल की स्थपित प्रगति में गुफा मन्दिर एक प्रमुखता थी। हम बौद्ध और जैन दोनों की बात इसलिए करते हैं कि खण्ड गिरि की कुछ गुफाओं जैसे कि रानीगुफा और अनंत 1. कहिई, भाग 1, पृ. 518, 53412. बील, सी-यू-को, भाग 2, पृ. 208 । 3. बिउप्रा, पत्रिका, सं. 13, पृ. 244 । 4. मिलनी के सूपारो और प्टोलमे के सबराई रूप में इनकी पहचान की गई है। जैन साहित्य सन्दर्भ के लिए देखो ___ व्यंवर, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 19, पृ. 65, 69; पु. 20, पृ. 25, 368, 374 । 5. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पुरी, पृ. 24। 6. गंगूली, वही, पृ. 31 । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 गुफा में बो-वृक्ष, बौद्ध त्रिशूल, उत्सर्गित स्तूप, विशिष्ट स्वस्तिक चिन्ह आदि आदि बौद्ध प्रतीक बहुत ही स्पष्ट दील पड़ते हैं।' यह प्रभाव ई. पूर्व 5वीं सदी से लेकर ई पश्चात् 5वीं या 6ठी सदी तक बराबर देखा जाता है। इसका समर्थन इस तथ्य से भी होता है कि दोनों खण्डगिरी धौर उदयगिरि पहाड़ियां जो कि खण्डगिरि नाम से हो प्रसिद्ध हैं, गुफाओं या कोटड़ियों से परिपूर्ण हैं जिनमें से 44 उदयगिरि में 19 खण्डगिरि में और 3 निलगिरि में हैं। उनकी संख्या, ग्रायु और तक्षशिल्प उन्हें पूर्वी भारत के प्रमुख दर्शनीय स्थान बना देते हैं । प्राचीन काल में इनमें बौद्ध और जैन भिक्षु या भ्रमण रहते थे और उनमें से कई प्रत्नलिपिविद्या लक्षणों से ई. पूर्व दूसरी या तीसरी सदी की खोदी हुई लगती है। जैसा कि श्री गंगूली कहते हैं, 'हाथीगुफा के लेख के काल के पूर्व याने ई. पूर्व चौथी या पांचवीं सदी में इन गुफाओंों में से कुछ को अस्तित्व में श्राई कहने में हम सत्य से अधिक दूर नहीं रहेंगे क्योंकि जिस स्थान में ये खोदी गई थी वह सम धार्मिकों की दृष्टि में कुछ पहले से पवित्र माना जाने लग गया होगा । * इन गुफाओं के निर्माण की तिथि निश्चित रूप से निर्णय करना लगभग असम्भव है और इनमें बौद्ध और जैन प्रभावों के संमिश्रण हो जाने से यह काम और भी कठिन हो गया है। कोटरियों की भीतों पर सामान्य उमसी बौद्ध दन्तकथाएं एवम् जैन तीर्थकरों की प्राकृतियां खुदी दीख पड़ती हैं। खण्डगिरि की जैन गुफा में भव्य स्तम्भ हैं । लगभग सभी गुफाओं की विशिष्टता यह है कि उनके सामने के वरण्डा याने प्रोसारी के तीनों ओर एक से डेढ़ फुट चौड़ी चबूतरी बनी है बरण्डा की दो मीतें शीर्ष में इस प्रकार खोखली कर दी गई हैं कि वे अलमारी मी दीखती हैं। जैन या बौद्ध भिक्षु इनकों अपने जीवनोपयोगी जो भी थोड़े से उपकरण उनके पास हों, रखने के उपयोग में लेते होंगे। "उत्तर भारत की जैन ललित कला 'शीर्षक अध्याय में इसका कला की दृष्टि से आगे विचार किया जाएगा। अभी तो श्री गंगुली की इनकी टीका यहाँ उद्धृत कर देते है कि ये गुफाएं देखने में सादी होते हुए भी भव्य हैं और भूतकाल के इनके रहवासियों के जीवन के ही अनुरूप है।" 6 लण्डगिरि गुफाओं में सतचर या सतबद्ध नवमुनि और अनन्त ये तीन गुफाएं अति महत्व की हैं। इनमें से पहले दो पर स्पष्ट जैन प्रभाव हैं और तीसरी पर बौद्ध प्रभाव" क्योंकि इसकी पीठ की भींत पर स्वास्तिक और तीखा त्रिशूल खुदी हुआ हैं । यद्यपि पहले स्वस्तिक के नीचे एक छोटी खड़ी मूर्ति है जो कि अब बहुत घिसी हुई है. परन्तु जिला विवरणिका के अनुसार, वह सम्भवतया जैनों के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है।" फिर इस गुफा का चौमींता उत्तरी अंश के ऊंचे भाग को समतल कर के बनाया हुआ है और इसमें जैन तीर्थंकरों और देवताओं की मूर्तियां हैं कोरणी की प्रत्येक महराव सर्प की दो प्ररणों में है जो कि पार्श्वनाथ का लांछन है । महरावों और पक्ष की भीतों के बीच का स्थान हाथों में अर्ध्य लिये जाते हुए विद्याधरों से भर दिया गया है। सतघर गुफा लांछन सहित तीर्थंकरों की प्राकृतियों के लिए जो कि उसके दक्षिणी भाग के भीतरी खण्ड की भीतों पर खुदी है. प्रसिद्ध है।" पक्षान्तर में नवमुनि प्रत् नौ सन्तों की गुफा एक साधारण गुफा है जिनमें दो " 1. वही, पृ. 40,57 3. गंगुली, वही, पृ. 22 4. वही, पृ. 34 5. देखो चक्रवर्ती, मनमोहन, नोट्स बान दी रिमेन्स इन घौली एण्ड इदवी केज ग्राफ उदयगिरी एण्ड खण्डगिरि पृ. 8 । 6. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटीयर, पुरी, पृ. 263 । 2. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पुरी, पृ. 251 1 7. अपने शासन देव देवियों सहित तीर्थकरों की ही ये सब प्राकृतियां हैं और ये बौद्ध की प्राकृति से मिलती-जुलती नहीं है जैसा कि प्राकियालोजिकल सर्वे रिपोर्ट ( 13, पृ. 81) के सम्पादक का कहना है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 131 भवन और एक सलंग प्रौसारी या वरण्डा है। इसमें दस तीर्थंकरों की लगभग एक फुट ऊँची साधारण उभरी आकृतियां पादपीठ में शासन देवी या देव की प्राकृतियां सहित हैं। पार्श्वनाथ जो कि उनके नागफणी छत्र लांछन के कारण सहज ही पहचान में आ जाते हैं, अधिकतम पूज्य हैं क्योंकि उनकी प्राकृति दो बार खोदी हुई है। इसके अतिरिक्त यह गुफा उसके दो शिलालेखों के कारण भी प्रसिद्ध और महत्व की है । इनमें से एक नो "महामहिम उद्योतकेसरीदेव के प्रगतिमान और विजयी राज्यकाल के 18वें वर्ष का है। परन्तु दोनों ही में' आर्य संघ', ग्रह कुल, देशीगण के प्राचार्य प्रख्यात कुलचन्द्र के शिष्य जैन श्रमण शुभचन्द्र "का उल्लेख है । दोनों शिलालेख एक ही तिथि के याने लगभग 10 वीं सदी ईसवीं के हों ऐसा लगता है।" इस गुफा से प्रागे बारभुजी अथवा बारह हाथ वाली गुफा है। इसको यह नाम इमलिए मिला कि इसकी प्रोसारी याने वरण्डा की वाम भींत पर बारहभुजा वाली देवी की आकृति खुदी है। नवमुनि गुफा की ही भांति यहां भी साधारण उभरी हुई शासन देव-देवी सहिन जैन तीर्थंकरों की पद्मासन में बैठी प्राकृतियां हैं । पीठ की भीत पर पार्श्वनाथ की खड़ी प्राकृति सतफो नागछत्र सहित परन्तु देवी प्राकृति रहित, है। तीर्थंकर और उनकी स्त्रियां लांछनों सहित यहां बताई गई हैं। ये सब एक ही मापकी याने 8 से 9।। इंच ऊंची हैं । परन्तु पार्श्व की मूर्ति 2 फुट 71 इंच ऊंची है जिससे यह मालूम होता है कि उन्हें यह विशेष मान दिया गया था। इसी के पड़ोस में दक्षिण और त्रिशूल गुहा है । इसे यह नाम इसलिए प्राप्त हुप्रा कि इसकी प्रोसारी की भीत पर सामान्य कोरणी के भीतरी भाग की बैठक अद्वितीय है। इन बैठकों के ऊपर पार्श्व सहित चौबीस तीर्थंकरों की आकृतियां खुदी हुई हैं । पार्श्व की आकृति पर सप्तफणी नाग छत्र है और अन्तिम प्राकृति महावीर की है । इस मूर्ति समूह में भी पार्श्व की प्राकृति महावीर के पूर्व ही तेईसवें तीर्थंकर की मांति नहीं रखी जा कर, पीठ की भींत पर केन्द्र में खोदी गई है और इस प्रकार उसे विशेष महत्व दे दिया गया है। पन्द्रहवें तीर्थंकर की प्राकृति का नीचे का भाग प्रांगन से उठते हुए बैठक या कुरती में ढका गया है जिस पर कि घिए-पत्थर (सोपस्टोन) पर सुन्दर उत्कीणित तीन आदिनाथ की मूर्तियां हैं। इस समूह की मूर्तियों की सामान्य रचना पास की गुहा की मूर्ति-रचना से कुछ सूक्ष्म और अच्छी है। नवमुनि गुहा की ही तिथि का एक शिलालेख लालतेन्द्र-केसरी या सिंहद्वार गुहा में उद्योत केसरी का ही है । जिला विवरणिका के अनुसार यह दु-मंजिली गुहा राजा लालतेन्दु-केसरी के नाम पर बनी है और पहली मंजिल के भवनों में जैन तीर्थंकरों की कुछ आकृतियां उत्कीरिणत हैं। इनमें भी पार्श्वनाथ सब से प्रमुख है।' यह गुहा की पीठ की भींत पर उसकी तल भूमि से 30 या 40 फुट की ऊंचाई और दिगम्बर सम्प्रदाय की मूर्तियों के समूह के ऊपर खुदी है।" 1. एपी. इण्डि., पुस्त. 13, पृ. 166 1 2. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजैटियर, पुरी, पृ. 26 3 । 3. एपी. इण्डि., पुस्त. 13, पृ. 166 । 4. गंगूली, वही, पृ. 60 । 5. बंगाल डिस्ट्रिट गजैटियर, पुरी, प. 262। 6. वही। 7. वही, देखो चक्रवर्ती, मनमोहन, वही, प. 19 । 8. कदाचित ऐसा हो कि खारवेल के समय में महान् मतभेद कि जिपने बाद में जैनों को दिगम्बर और श्वेताम्बर ऐसे दो सम्प्रदायों में विभक्त कर दिया, म्पष्ट रूप से प्रकाश में नहीं आया था। परन्तु जैसा कि हम पहले ही देख पाए हैं, बाद के इतिहास में दिगम्बर दक्षिण में ग्रोमुख हो गए थे। इलेरा, बदामी और ऐसे ही अन्य स्थानों की जैन गुफाओं से यह स्पष्ट है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] शिलालेख अच्छी दशा में नहीं है और इसलिए उसकी अन्तिम पंक्ति के कुछ शब्द भुस गए हैं । जैसा भी वह है उससे हमें यह पता लगता ही है कि " प्रख्यात उद्योतकेसरी के विजयी राज्य के पांचवें वर्ष में प्रख्यात कुमार पहाड़ी पर 1 जीर्णशीर्ण ताल और जीर्णशीर्ण मन्दिरों का फिर से पुनरुद्धार कराया गया (और) उस स्थान पर चौबीस तीर्थकरों की मूर्तियां स्थापित की गई प्रतिष्ठा के अवसर पर... जसनन्दी... प्ररूपात ( पारस्पनाथ ) (पार्श्वनाथ) के स्थान (मन्दिर) में 2 इस लेख में जो कुछ भी लिखा गया है उससे स्पष्ट है कि उद्योतकेसरी या तो जैनी था या वह जैनधर्म का बड़ा संरक्षक और सहायक था । हमें ऐसा कोई निश्चित ग्राधार प्राप्त नहीं है कि हम इस लेख के उद्योतकेसरी का किसी ऐतिहासिक व्यक्ति विशेष से मिलान कर सकें। फिर भी इतना तो निर्जीवम कहा ही जा सकता है कि उड़ीसा का इतिहास ई. 200 याने बांधों के समय से लेकर ई 7वीं सदी के ग्रन्धकाराविष्ट है । प्रारम्भ तक बहुतांश में परन्तु जगन्नाथ मन्दिर के ताड़पत्रीय वृत्त. मादला पांजी के अनुसार, उड़ीसा 7 वीं से 12वीं सदी ईसवी तक केमरी याने सिंह राजवंश के अधिकार में था। इस केसरीवंश का विवरण खोजना निःसंदही हमारे प्रतिपाद्य युग से बाहर जाना होगा। फिर भी भुवनेश्वर और अन्य स्थानों पर उपलब्ध उनके भव्य प्रवशेष उस राज्य वंश की सम्पन्नता एवं उच्च संस्कृति की प्रत्यक्ष साक्षी देते हैं। ये भव्य मन्दिर बताते हैं कि उस समय हिन्दूधर्म का प्रभाव उड़ीसा पर पूरा पूरा छा गया था और बौद्धों का कोई भी अवशेष जो कुछ ही सदियों पूर्व दन्तकथाओं के अनुसार वहां प्रवेश पाया था, प्राप्त नहीं होता है । परन्तु उस समय में जैनधर्म का प्रजा में प्रभाव और प्रेम चलता रहा था अथवा पुनरुज्जीवित हो गया मालूम पड़ता है क्योंकि खण्डगिरि उदयगिरि की गुहाओं में शिलालेख और शिलोकगित जैन तीर्थंकरों या देवीदेवताओं की उसी युग की तिथि की मूर्तियां पाई जाती हैं। उदयगिरि पर की गुफाओंों का विचार करने पर हम देखते हैं कि ललितकला और शिल्प की दृष्टि से ये सब उड़ीसा में बड़े महत्व की हैं । इनमें से भी रानीगुफा या रानी नूर से विशिष्ट है क्योंकि मनुष्य की विविध क्रियाओं के दृश्य उसकी भव्य वेष्टनी की कोरणी में खुदे हैं। इसमें भी तीन वेष्टनियां और नीचे के मन्जिल के भवनों की कोरणी विशेष ध्यान चारित करती है। जिला विवरणिका के अनुसार 'रश्य यद्यपि बहुत से प्रशित हो गए हैं फिर भी, किसी धार्मिक प्रसंग में नगर में निकलती किसी साधु-पुरुष की सवारी का प्रदर्शन करते हैं जिसको लोग अपने घरों में से ही देख रहे हैं ताकि एक दृष्टि तो उन्हें भी प्राप्त हो जाए । घोड़े आगे प्रागे चल रहे हैं, हाथी पर सवारिया की जा रही हैं, रक्षक पहरा दे रहे हैं और प्रजाजन, पुरुष एवं स्त्रियां, हाथ में हाथ मिला कर संतों के पीछे पीछे चल रहे हैं और स्त्रियां खड़ी रह कर या बैठ कर थाल में फल और प्रहार अर्ध्य रूप में लिए आशीर्वाद मांगती हैं ।' 4 ऊपर की मुख्य पार्श्व की वेष्टनी जो कि लगभग 60 फुट लम्बी है, अत्यन्त मनोरंजक है सत्य तो यह है कि भारतीय गुफाओं की कोई भी वेष्ठनी पुरातत्वज्ञों में चर्चा का ऐसा विषय नहीं बनी है। इसके रयों की जो कि 1. शिलालेख की दूसरी पंक्ति से हमें पता लगता है कि खण्डगिरि का प्राचीन नाम कुमारी पर्वत था । खारवेल का हाथीगुफा का शिलालेख उदयगिरि का प्राचीन नाम कुमार पर्वत बताता है ये जुड़वा दोनों पर्वत 7वीं वा 11वीं सदी ईसवी तक कुमारी पर्वत ही कदाचित् कही जाती रही होंगी । । 4. वही, पृ. 254 2. एपा. इण्डि, पुस्तक 13, पृ. 167 3. देखो बंगाल सिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पुरी, पृ. 25 1 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [133 शगुफा में भी संक्षेप में पुनरावर्तित हुए हैं अनेक व्याख्याएं की गई हैं। जिला विवरणिका का सम्पादक का विश्वास है कि इसमें पार्श्वनाथ ही तीर्थंकरों में से महान् सम्मानित दिखाया गया है । भावदेवसूरि के पार्श्वनाथचरित, कल्पसूत्र और स्थविरावली जैसे प्रमाणों में उल्लिखित पार्श्व के जीवन प्रसंगों को संक्षिप्त सर्वेक्षण करने पर यह अनुमान निकाला जा सकता है कि मध्यकालीन जैन दन्तकथाएं तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का कलिंग सहित पूर्वीय भारत से सम्बन्ध जोड़ती हैं और इसलिए यह सूचित करना अनुचित नहीं है कि हाथी काय पार्श्वनाथ की भावी पनि प्रभावती को उनके सम्बन्धियों एवं परिचारकों सहित प्रस्तुत करता है, धोर उसके बाद का दृश्य कलिंग राजा द्वारा उसके अपहरण का है, चौथा दृश्य प्राखेट के समय वन में पार्श्वनाथ द्वारा उनकी विमुक्ति का है, उसके बाद का दृश्य लग्नोत्सव समय के भोजन का सातवा लग्नक्रिया का और आठवां नीचे की पार्श्व में पार्श्वनाथ के तीर्थकर रूप में भ्रमण और उन्हें दिए गए मान-सम्मान का प्रदर्शन करता है । * 3 इस पर से अनुमान किया जा सकता है कि ये सब दृश्य पार्श्वनाथ या उनके किसी विनयी शिष्य के जीवन घटनाओं सम्बन्धी ही हैं हालांकि ऐसा अनुमान दी रिमेन्स ग्राफ उड़ीसा, एंशेंट एण्ड मेडीवल ग्रन्थ " के विद्वान लेखक का बहुत खींचतान से निकाला हुआ ही लगता है क्योंकि यह प्रमुखतया बौद्ध गुहा है कि जिसके सम्बन्ध में पहले ही कहा जा चुका है । ऐसा ही भ्रम गणेश गुफा के विषय में भी उठता है क्योंकि रानी नूर की भांति ही इस गुफा के वेष्टीनीशिल्प में घाघरावाले सैनिक हैं, इसलिए जिला विवरणिका का सम्पादक इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि यह दृश्य कलिंग के यवन राजा द्वारा प्रभावती के हरण की मध्यकालिक कथा और फिर जैनों के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा उसकी मुक्ति का निर्देश करता है।" जब हम पेरदार घाघरा पहनाव वाले सिपाहियों को परदेशी रूप में पहचानते हैं तो उपयुक्त परिणाम का समर्थन भी हो जाता है कि पार्श्वनाथ ने यवन राजा के पाश से प्रभावती को जैसा कि जैन दन्तकथा कहती है, मुक्ति दिलाई हो फिर भी गंगुली विवरणिका के विद्वान सम्पादक से सहमत नहीं है क्योंकि वह इस गुफा को बौद्ध गुफा ही मानते हैं। उनके अनुसार यह मूर्तिशिल्प बोद्धमूल का निर्भ्रान्त है ।' इस सब विवेचना से यह स्वाभाविक ही है कि जैन श्रमरणों ने अपने परम पूज्य तीर्थंकर की जीवन घटनाओं को अपनी निवास गुहाम्रों या कोटड़ियों में खोद दिया हो । स्थापत्य की दृष्टि से दूगरे नम्बर की महत्व की गुफाएं हैं जयविजय स्वर्गपुरी सिंह और सर्व गुफाएं स्वगपुरी गुफा के अतिरिक्त अन्य कोई भी इनमें बड़े ऐतिहासिक महत्व की नहीं है । पर हि गुफा में एक बौद्ध लेख है और यह कि डॉ. फर्ग्युसन और बरग्स के अनुसार " सिंह और पं गुफाएं इस टेकरी पर की मूर्तिशिल्प की प्राचीनतम गुफाए 9 हैं प्रसंग वश यह भी कह देना चाहिए कि सर्प गुफा जो कि हाथीगुंफा के पश्चिम में हैं, कि प्रोसारी इम 1. वही । देखो चक्रवर्ती, मनमोहन, वही, पृ. 9-10 । 2. देवो हेमचन्द्र त्रिपष्टि शलाका पर्व 9 पू. 197-201 मी । 3. तत्राशासीत् कलिगादिदेशानामेकनायकः 4. बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर पुरी, पु. 256 5. गंगुली, वही, पृ. 39 । 6 यवनो नाम दुर्दान्तः हेमचन्द्र वही और वही स्थान । 7 बंगाल डिस्ट्रिक्ट गर्जेटियर पुरी, वही और वही स्थान "यह दृश्यावली वेष्ठनी उस कथा की पूर्व कथा लगती है कि जो रानी गुंफा की ऊपर की मंजिल में विकास पाई हैं।" चक्रवर्ती, मनमोहन वही. पू. 16 8. मंगूली वही. पु. 43 9. फग्यूसन एण्ड बम्पेर्स, केव टेयेम्युल्स ग्रॉफ इंडिया 68 " वही, श्लो. 95, पु. 199 1 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] प्रकार उत्कोसित है कि पार्श्वनाथ के लांछन सर्प के तीन फस जैसी वह दीखती है।" स्वर्गपुरी गुफा में तीन शिलालेख हैं जिसमें का पहला कलिंग सम्राट खारवेल की पटरानी का है । इस पर से मालूम होता है कि जैन सम्प्रदाय की सेवा करने के सुकार्य में वह अपनी पटरानी को भी साथ रखता था। उदार और धार्मिक वृत्ति की इस स्त्री, जो कि लालाक की पुत्री थी, की स्मृति उसकी निर्मित गुफा और जैन मन्दिर का उल्लेख करने वाले छोटे शिलालेख वाली गुफा के साथ जुड़ी हुई है जिसका कि हम आगे विचार करने वाले हैं । बंगाल जिला विवरणिका के पुरी खण्ड में मुद्रित नक्शे के अनुसार डॉ. बैनरजी इसे मंचपुरी गुहा कहते हैं परन्तु कुछ समय पहले यह स्वर्गपुर कहा जाता था । " प्रिन्स्प प्रिन्स्येय ने इसे वैकुण्ठ गुंफा, और मित्रा 4 ने बैकुण्ठपुर कहा था। इसके भिन्न-भिन्न नामों के विषय में श्री नरजी कहते हैं कि "इन गुफाओं के स्थानीय नाम प्रत्येक पीढ़ी में बदलते रहे हैं। जब एक नाम विस्मृत हो जाता है तो दूसरा तुरन्त घड़ लिया जाता है । वस्तुतः यह गुफा दो मंजिली और पार्श्व पक्षवाली गुफा की ही उपरी मंजिल है, परन्तु स्थानिक लोग बहुधा भागों को भी पृथक नाम दे देते हैं। 5 प्रथम लेख सामने के दूसरे और तीसरे द्वार के बीच के उपसे हुए स्थान पर खुदा हुआ और तीन पंक्तियों का है और वह कहता है कि 'कलिंग के श्रमणों के लिए एक गुफा और एक अर्हतों का मन्दिर हस्तिसाहस (हस्तिसाह) के पौत्र लालाक की पुत्री, खारवेल की पटरानी ने बनाया है ।' 6 7 8 दूसरा और तीसरा उल्लेख दो गुफाओं सम्बन्धी ही है जिसमें की एक गुफा 'कलिंग का नियंता राजा कूडे सीरी और दूसरी युवराज बहुल" इस प्रकार के दो नामों की है। सामने की भींत पर पहली और नीचे की मन्जिल की बाजू की भींत पर दूसरी लेख खुदी हुयी है । बेनरजी के अनुसार इन तीनों शिलालेखों की लिपि' खारवेल के हाथीगुफा के शिलालेख के थोड़े ही समय बाद की है।" ये सब साधन कलिंग पर प्रभावशाली जैन राजवंश की हस्ति को प्रमाणित करते हैं। यह वंश कब तक चलता रहा था और उसके बाद कौनसा वंश याया इसकी जानकारी नहीं है परन्तु जिला विवरणिका कहती है कि उड़ीमा घोर कलिंग ई. दूसरी सदी में प्रधवंश की प्रधीनता में था जिसके कि राज्यकाल में वहां बुद्धधर्म का प्रवेश होना कहा जा सकता है । तिब्बती वृत्तान्तों में एक कथा सुरक्षित है और वह यह है कि ग्रांध्र दरबार में ई. 200 में होने वाले नागार्जुन ने श्रोटिशाके राजा को श्रपने 1000 प्रजाजनों सहित बुद्धधर्म में दीक्षित किया था । प्रजाजनों का यह धर्म परिवर्तन राजा के उदाहरण से सहल बन गया होगा ऐना लगता है । 10 - इन ऐतिहासिक प्रमाणों के हमारे सामने होते हुए सम्राज्ञी के पिता के सगे-सम्बन्धी भी जैन हों, यह अनुमान करना जरा भी प्रतिशयोक्तिक नहीं है। हम ग्रागे देखेंगे कि उनका भी एक ऐसा महान् राजवंश होना चाहिए कि जिसके साथ खारवेल जैसे महान सम्राट ने अपना वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ना उचित समझा था । 1. अँडिग पुरी. पु. 260 2. g. sfos., gea. 13, q. 159 | " 3. एसो पत्रिका, सं. 6, पृ. 10741 4. मित्रा एंटीस्विटीज ग्राफ उड़ीसा, भाग 2, 7 5. एपी. इण्डि., पुस्त. 13, वही और वही स्थान । 6. परत पमादाय कालियानं समनानं लेणं... सिरि खारवेलस प्रयमहिसिना कारितम् । वही । 7. एपी. इण्डि., 13 पृ. 16 1 8. वही, पृ. 161 1 14-15 I 9. वही, पृ. 159 1 10. fang, 251 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 135 अब तक जो कुछ हमने देखा और जाना उस पर से इन पहाड़ियों की एक लाक्षणिकता बहुत ही स्पष्ट होती है और उसकी घोर ध्यान आकर्षित करना यहां मावश्यक है। जिला विवरणिका के अनुसार खण्डगिरि की प्रक गुफाओं में जैन तीर्थकरों की प्रतिमाए हैं जो, गुफाओंों से परवर्ती काल की हो तो भी, मध्यकालीन जैन भक्तमाल (hagiology) के उदाहरण रूप से रोचक हैं और यदि ये मूर्तियां गुरुाम्रों जितनी ही प्राचीन हैं तो वे तीर्थकरों और उनके परिवारों के प्राचीनतम उपलब्ध नमुने हैं मूर्तियों में पार्श्वनाथ या उनके लांछन फंकार के प्रयोग की प्रमुखता एक विचित्र बात है क्योंकि अन्य उपलब्ध अवशेषों में महावीर को ही सब तीर्थंकरों से प्रमुखता दी गई है। पार्श्वनाथ की प्रमुखता इन अवशेषों की प्राचीनता को ही सिद्ध करती है और यदि ठीक हो तो ये जैन मूर्तिशिल्प के द्वितीय उदाहरण है। महावीर के 200 वर्ष पूर्व अर्थात् ई. पूर्व लगभग 750 में हुए पार्श्वनाथ के विषय में हमें बहुत ही कम जानकारी है कि जिसने चार व्रतों का धर्म ही उपदेश दिया था और दो वस्त्रों, याने एक अयो मोर एक उपरि के प्रयोग की ही आज्ञा दी थी। इस रष्टि से इन गुफाओं में प्राप्त मूर्ति रूपी अभिलेख, चाहे वे बहुत सामान्य ही हों फिर भी पुरातत्वज्ञों द्वारा स्वागत योग्य ही हैं ।" और 'मर्वगुण सम्पन्न पवित्र पुरुषों और 'मवंगुण सम्पन्न पवित्र पुरुषों 'स्वर्ग और मोक्ष के दाता' का स्थान माने जाने वाले इस देश के पवित्र अवशेषों से इतने ही परिणाम निकाले जा सकते हैं। यहीं ईसवी युग से बहुत ही पहले, बौद्ध एवम् जैनधर्म प्रधान हो चुके थे और उनने हिन्दूधर्म जिसका उचित नाम ब्रह्मणधर्म है, को बहुत ही प्रभावित किया था। ऋषियों को इसी में कभी जैन तो कभी बौद्ध प्रभुत्व अनुभव किया जाता रहा था, और इसलिए कुछ प्रतीकों अथवा स्थपित कल्पनाओं के लक्षणों के तुच्छ आधारों पर निश्चित रूप से इन गुफाओं को बौद्ध या जैन मूल की बताना या कहना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव सा लगता है। हमारी यह कठिनाई तब और भी अधिक हो जाती है जब कि उन दिनों में दोनों ही धर्मों में स्वस्तिक, वृक्ष प्रादि यादि समान प्रतीकों का प्रयोग एक साधारण बात थी। ऐसे ऐतिहासिक तथ्य चाहे जैसे भी हों, फिर भी यह निश्चित है कि विचार, कला, कलाविधान, मूर्तिशिल्प, स्थापत्य के प्रत्येक विभाग में हो रहे महा परिवर्तन जैन और बौद्धधर्म के साथ ब्राह्मण धर्म के संमिलन से प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सके थे। इस प्रारम्भिक विचारों के पश्चात् अब हम हाथीगुफा के शिलालेख का विस्तार से विचार करेंगे । परन्तु इसके भी पूर्व खण्डगिरी टेकरी बेरशिलर पर मरहटों द्वारा बनाए गए जैन मन्दिर का सरसरी दृष्टि से विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। यह मन्दिर लगभग एक सदी ही का प्राचीन और अठारहवीं सदी की समाप्ति के आसपास का बना हुआ है।" जैन मन्दिरों की सामान्य प्रधानुसार यह बड़े भव्य स्थान पर बना हुआ है और वहां से बड़ा ही सुन्दर दृश्य दीखता है। इस छोटे से मन्दिर के विषय में 'दी एण्टीक्विटीज ग्राफ उड़ीसा ' ग्रन्थ के लेखक का कहना है कि " इस मन्दिर में श्याम पाषाण की महावीर की खड़ी प्रतिमा है और वह एक कष्ठ सिंहासन पर रखी है। यह मन्दिर दिगम्बर सम्प्रदाय के कटक निवासी जैन व्यापारी मंजु चौधरी और उसके भतीजे भवानी दादू ने बनाया था ।" इसके मूल गभारे में ही एक चिना हुआ चबुतरा है जिसके पीछे की भींत कुछ ऊपर उठी हुई है और इसमें पांच जैन तीर्थकरों की मूर्तियां जड़ी हुई हैं। मन्दिर के पीछे कुछ ही निचाई पर एक झरोखा है जिस पर इधर उधर बिखरे हुए अनेक उत्सर्गित स्तूप हैं जो कि प्राचीन मन्दिर के अस्तित्व का संकेत करते हैं । " 1. वही, पृ. 2661 4. fuar, at, g. 351 मित्रा, वही, पृ. 2. वनपर्व खण्ड 114 मने 4.5 , 5. वही 1 6. बंजिंग, पुरी, पृ. 264 3. ब्रह्मपुराण अध्याय 26 । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] हाथीगुफा का विचार करें। यह एक प्राकृतिक गुफा है जिसे कलाविधान ने न तो कुछ विस्तृत हो किया है और न सुधारा ही है । यह गुफा उदयगिरी टेकरी के दक्षिणी मुंह पर है जो स्वयम् उड़ीसा के पुरी जिले में भुवनेश्वर से लगभग तीन मील की दूरी पर खण्ड गिरि नाम की पहाड़ियों की निम्न श्रेणी का उत्तरीय श्रंश है । कला और स्थापत्य की दृष्टि से महत्व की नहीं होते हुए भी उस बस्ती की गुफा में सर्व प्रमुख यह इसलिए है कि कलिंग के सम्राट की आत्मजीवनी का उस "गुफा के शिखर" पर एक बड़ा शिलालेख है ।" यह लेख कुछ तो अगले भाग पर और कुछ गुफा की छत पर खोदा हुआ है। ई. पूर्व 2 री सदी के भारतवर्ष के उस इतिहास पर इससे बहुत ही प्रकाश पड़ता है "जब कि चन्द्रगुप्त और अशोक का साम्राज्य विनाश हो चुका था, और राज्य अपहर्ता पुष्यमित्र मौर्य साम्राज्य के श्रंश पर राज्य कर रहा था एवम् दक्षिण भारत के प्रांध्र शक्ति संचय कर उत्तर की ओर बढ़ श्राए थे यहां तक कि मालवा को मी कदाचित् उनने विजय कर लिया था ।" " अभिलेख जैन शैली से महंतों और सिद्धों की प्रार्थना से प्रारम्भ होता है।" फ्लीट के विश्वासानुसार', यह प्रभिलेख खारवेल द्वारा जैनधर्म के उत्कर्ष के लिए की गई प्रवृत्तियों के वर्णन का नहीं है परन्तु इसमें उस सम्राट के अपने 37 वर्ष अर्थात् उसके राज्यकाल के 13वें वर्ष तक का इतिवृत्ति और उसी में उसकी विविध प्रवृत्तियों का उल्लेख किया गया है। उस शिलालेख का जैना भी वह है, मनुसरण करते हुए हम देखते हैं कि उसकी जिसमें अर्ध मगधी और जैन प्राकृत के भी छींटे हैं। यह शिलालेख खारवेल के राज्य के गया था । उसके राज्यकाल का यह तेरहवां वर्ष उसके जीवन के सैंतीसवें वर्ष के अनुरूप है क्योंकि पन्द्रह वर्ष का होने पर खारवेल युवराज हुआ था और उसका वेदोक्तविधि से महाराज्याभिषेक 24वां वर्ष समाप्त होते ही हुआ था । खारवेल का यह श्रभिषेक बताता है कि जैनधर्म ने सनातन शैली की राष्ट्रीय प्रथानों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था । " सारवेल और उसके राजनयिक जीवन की प्रमुख घटनाओं की सूचना ठीक ठीक देने के प्रतिरिक्त इस शिला लेख से हमें इस महान सम्राट की तिथि के प्राय ठीक ठीक निर्णय का भी प्राधार प्राप्त हो जाता है। इस शिलालेख के सिवा और कोई भी ऐतिहासिक या अनैतिहासिक मूल्य का साधन हमें प्राप्त नहीं है कि जो भारतवर्ष के इतिहास के इस कालक्रम पर इतना अच्छा प्रकाश डाल सकता है । जैसा कि नीचे दिए टिप्पण से ज्ञात होगा, अभी अभी तक फ्लीट और अन्य विद्वानों के विपक्ष में कुछ भाषा अपभ्रंश प्राकृत है तेरहवें वर्ष में खुदवाया 1 1. migeft, at. g. 47 1 2. बिउप्रा पत्रिका सं. 3, पृ. 488 । 3. नमो अहंतानं नमो सवसिथानं... आदि 4. राएसो पत्रिका, 1910 825 पृ. 1 5. बिउप्रा, पत्रिका, सं. 3, पृ. 431, 438 । 6. इस टिप्पण में प्राय: कालक्रमानुसार उन विद्वानों के नाम दिए गए हैं कि जिनने इस शिलालेख को एक या दूसरी दृष्टि से विचार किया है। श्री ए. स्टलिंग ने इसकी सर्व प्रथम खोज की थी और कर्नल मैकेंजी की सहायता से इस दिलचस्प प्रमिलेल की सन् 1820 ई. में छाप ली और उसे बिना अनुवाद या प्रतिलिपि के सन् 1825 में अपने अत्यन्त मूल्यवान लेख 'एन अकाउंट, ज्योग्राफिकल स्टेटिस्टिकल एण्ड हिस्टोरिकल आफ उरीसा प्रापर प्रार कटक' (ग्राकियालोजिकल रिव्यु, भाग 15, पृ. 313 आदि, और फलक) सहित प्रकाशित किया था। फिर जेम्स प्रिन्सेप ने सन् 1837 मे पहली ही वार लेप्टेनेट किट्टो की शुद्ध प्रतिलिपि के प्राधार पर प्रकाशित किया और उसके धनुसार यह लेख ई. पूर्व 200 से पहले का नहीं हो सकता है (बंगाल एशियाटिक सोसाइटी पत्रिका, पुस्त. 6, पु. 1075 यादि एवं फलक 58 वही सं. 4, पृ 397, और सं. 13, पृ. 222 1 " Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 137 विद्वान पण्डितों का यही विश्वास था कि इस लेख की 16वीं पंक्ति में मौर्य युग का उल्लेख था और वही कलिंग इतिहास के इस महत्व के युग की तिथि निर्णय का एक मात्र आधार भी । श्री जायसवाल ने जो कि इस सिद्धांत इस लेख का लिथोग्राफ कनिधम का किया हुअा हम फिर कारपस इंस्क्रिप्शन इण्डिकारम् पुस्त 1 (1877), प. 27 आदि, 88-101, 132 आदि और फलक 17 में देखते हैं। परन्तु ऐसा लगता है कि प्रिस्येप के विवेचन ने पूर्व विद्याविदों का ध्यान इसकी उपयोगिता और ऐतिहासिक मूल्य की ओर आकर्षित किया। राजेन्द्र लाल मित्र ने उसके अनुवाद और प्रतिलिपि की नकल की और संशोधित रूप में उसे अपने महान् ग्रन्थ "दी एण्टीक्विटीज प्राफ उरीसा" के प. 16 प्रादि में सन् 18880 में हुबहु प्रतिलिपि के साथ प्रकाशित किया । उसके अनुसार इस शिलालेख की तिथि ई. पूर्व 416-316 के बीच में कहीं भी होना चाहिए । डा. मित्र के कुछ ही वर्षों के बाद स्व. पं. भगवानलाल इन्द्रजी ने इस महत्वपूर्ण शिलालेख का सबसे पहला कामचलाऊ संस्करण छटी इन्टरनेशनल कांग्रेस प्राफ मोरियन्टलिस्ट की विवरण-पत्रिका में जो कि लीडन (हालेण्ड) में सन् 1885 में हुई थी, प्रकाशित किया था और उसके भनुमार इसकी तिथि मौयं सम्वत् 165 अर्थात् ई. पूर्व 157 निश्चित हुई । (Actes Sia. Conar. Dr. aleide, pt. iii, sec. ii pp. 152-177 and date. इसके पश्चात् ब्हलर ने सन् 1895 और 1898 में अपने ग्रन्थ 'इण्डियन स्टडीज' संख्या 3, पृ. 13 और ग्रंथ 'मान दी प्रोरिजन ग्राफ दी इण्डियन ब्राह्मी एल्फाबैट' पृ. 13 आदि में क्रमश: विचार किया था, परन्तु उसने कुछ अशुद्धियों की शुद्धि का ही उसमें प्रस्ताव किया था। स्वर्गी पण्डित जी की तिथि-निर्णय, लेख की 16वीं पंक्ति के किसी मौर्यसम्बत् के उल्लेख मात्र से किया हमा, विसेंट स्मिथ, काशीप्रसाद जायसवाल, राखालदास बैनरजी और अन्य पुरातत्वज्ञों की आधुनिक सम्प्रदायवादियों द्वारा प्रभी तक ते स्वीकृत ही था। परन्तु फ्लीट और उसके बाद कुछ अन्य विद्वानों ने उक्त पंक्ति के इस प्रकार वाचन का विरोध किया हालांकि फ्लीट ने यह भी स्वीकार किया कि स्व. पं. भगवानलाल इन्द्रजी के वाचन के विरुद्ध एक भी आवाज तब तक नहीं उठी थी। (देखो स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया, 4 था संस्करण, पृ. 44 टिप्पण 2 और राएसो, पत्रिका, 1918, पृ. 544 प्रादि; जायसवाल, बिउप्रा पत्रिका, सं. 1 पृ. 80 टिप्पण 55, सं. 3, पृ. 425-485, सं. 4, पृ. 364 प्रादि; बैनरजी, रा. दा., बिउप्रा पत्रिका सं. 3, पृ. 486; डुब्यूइल, ऐशेंट हिस्ट्री ग्राफ दी ड्यकन पृ. 12; जिनविजय, प्राचीन जैन लेख संग्रह, भाग 1, जो सारा ही खारवेल के विषय में विचार करता है और जयसवाल सम्प्रदाय से सहमत है । और कोनोव, पाकियालोजीकल सर्वे आफ इण्डिया, 1905-1906, पृ. 166 । इसके अनुसार लेख में मौर्य-युग की ही तिथि है।) इस ग्रन्थ की समीक्षा करते हुए राएसो पत्रिका, 1910, पृ. 242 प्रादि वाले अपने प्रथम टिप्पण में डा. फ्लीट कहता है कि डॉ. कोनोव अपनी कैफियत में खारवेल के हाथीगुफा के शिलालेख का उल्लेख करता है और प्रसंगवश कहता है कि इसकी तिथि मौर्य सम्वत् 165 है । "हम इस अवसर पर यह कह देना चाहते हैं कि यह गलत बात है और इसका 16वीं पंक्ति के भगवानलाल इन्द्रजी के वाचन के सिवा कोई भी आधार नहीं है।" अब हम श्री फ्लीट एवम् उन्हीं के मत के अन्य विद्वानों का विचार करें। ई. 1910 में प्रो. एच. ल्यूडर्स ने एपीग्राफिका इण्डिका, सं. 10 में ल्यडर्स सूची सं. 1345 के पृ. 160 में इस शिलालेख का संक्षेप प्रकाशित किया और कहा कि इसमें कोई भी तिथि नहीं है । इसके पश्चात् स्व. डॉ. फ्लीट ने राएसो पत्रिका. 1910 पृ. 242 प्रादि में एक टिप्पण और पृ. 824 आदि में दूसरा टिप्पर लिख प्रकाशित किया । जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं डॉ. फ्लीट को इस शिलालेख में मौर्य सम्वत् की कोई तिथि होने के विषय में सन्देह था । ही उनने इन टिप्पणों में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि लेख की 16वीं पंक्ति को अंश में इस प्रकार की कोई भी तिथि नहीं है। परन्तु पक्षान्तर में वह जैनागमों के किसी एक पाठ का ही उल्लेख करता है कि जो मौर्यकाल Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] के सर्व प्रमुख समर्थक थे पनी नवीन खोजों के आधार पर एक सच्चे विद्वान की परम उदारता के साथ फ्लीट और अन्य पण्डितों में सहमति स्वीकार कर दी है कि निर्दिष्ट पंक्ति में ही नहीं अपितु समुचे लेख में अन्यत्र मी कहीं इस प्रकार के संवत का कोई भी उल्लेख नहीं है । " इसमें सदेह नहीं कि लेख की छठी पंक्ति में नन्द-युग का उल्लेख है, परन्तु इस उल्लेख से खारवेल का समय निश्चित करने में हमें तनिक भी सहायता नहीं मिलती है। 8 इस शिलालेख और वेदिवंश के इस महान सम्राट का दोनों ही समय निर्णय करने के लिए इस शिलालेख में उल्लिखित अन्य तथ्यों को ध्यान में लेना अत्यन्त ही आवश्यक है। इन तथ्यों को उन समकालिक ऐतिहासिक घटनाओंों को प्रकाश में जो भी प्राप्त हो, व्याख्या करना और समझना होगा, और तभी हम इस शिलालेख की तिथि बहुत कुछ ठीक ठीक निर्धारित कर सकते हैं या कर सकेंगे । श्री जयसवाल के नए वाचन और व्याख्या के अनुसार इस शिलालेख की आठवीं पंक्ति द्वेश का यह अंश जिसमें कि सम्राट खारवेल के राज्यकाल के 8वें वर्ष का विवरण दिया गया है, इस प्रकार है :-- "घातापयिता राजगृहं उपपीडापयति एतिना च कम्मापदान संनादेन संबडत सेन वाहनो विपमुचितु मधुरां अपयातो यवन राज- डिमिट यच्छति विपलव ७ और इसका अर्थ यह है कि "(राजगृह के परे और गोरथनिरि के गढ़ के हस्तगत करने कि जिसके विषय में हम आगे विचार करेंगे शौर्य कार्यों से उत्पन्न अफवाहों के कारण, ग्रीकराजा दिमिट (रीयास), अपनी सेना और परिवहन पीछा खींच, अथवा अपनी सेना और रथों से अपने को सुरक्षित कर मथुरा का घेरा उठा कर खिसक गया ।"10 1 में अव्यवहार्य हो गया था। देखो रमेशचन्द्र मजुमदार भी (इण्डि. एण्टी, पुस्त. 47, 1918, पृ. 223 प्रादि, और पुस्त. 48 1919, पृ. 187 आदि। फ्लीट के अनुसार यह 16वीं पंक्ति अस्पष्ट और अनिश्चित है और उसने जयसवाल एवम् बैनरजी रामप्रसाद चन्दा के अनेक निष्कर्षो का विरोध किया है ( रा एसो पत्रिका 1919, पृ. 395 श्रादि) । वह फ्लीट और ल्यूडर्स से हाथीगुंफा लेख में किसी तिथि के अस्तित्व की अनुपस्थिति के विषय में सहमति दिखाता है। पर अब यह सन्तोष की बात है कि श्री जयसवाल एवम् उनकी सम्प्रदाय के अन्य विद्वान भी विरोधी सम्प्रदाय के मत से इस महत्व की बात में सहमत हो गए हैं और इसलिए लेख की 16वीं पंक्ति का वाचन जो कि इस स्थापना की मुख्य चावी है प्रायः सभी विद्वानों द्वारा पूर्ण स्वीकार कर लिया गया है (देखो जायसवाल, बिउमा पत्रिका सं. 13, पृ. 221 आदि और सं. 14. पृ. 127 128 और 150-151) इन खोजों के सिवा भी गंगूली, फरग्यूसन एवम् वरस और प्रो. के. हघुव के मन्तव्य भी हमें सब प्राप्त हैं। श्री मनोमोहन गंगूली इस लेख को स्थापत्य एवम् शिल्पी धारणाओं से ई. पूर्व तीसरी सदी के अन्त के लगभग का होना मानते हैं याने मौर्य सिहासन पर शोक के पाने के पूर्व वा (देखो गगुली, पृ. 48-50) डॉ. फरग्यूसन एवम् वरयंस के अनुसार “ई. पूर्व 300 या उसके पास-पास की तिथि इस लेख की होना प्रत्यन्त सम्भव है।" ये लेखक यह भी कहते हैं कि "अशोक के राज्यकाल से टेकरियों को खोद कर गुहाएं बनाने की प्रथा का प्रारम्भ हुआ था और वह इस काल से लेकर लगभग 1000 वर्ष धागे तक उत्तरोत्तर सौष्ठव एवम् उत्कर्ष के साथ चलती रही थी।" (फरग्यूसन एवं बरन्स वही पृ. 67-68) प्रो. ध्रुव ने अपने गुजरात नाटक 'संच स्वप्न' - भास के संस्कृत नाटक 'स्वप्नवासवदत्ता' का गुजराती अनुवाद की प्रस्तावना में तात्कालिक राजवंशों और पुष्यमित्र सुरंग से जैनों के सम्बन्ध की प्राचीनता और खारवेल का विचार किया है । 7. विउमा पत्रिका सं. 13, पृ. 236 बिउप्रा, 1 प्रादि वही, सं. 4, पृ. 399 8. नंदराज-ति-वस-त-योपाटितं 10. वही, पृ. 229 1 9. वही और सं. 13, पृ. 227 I Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 139 यह वाचन और व्याख्या जायसवाल की 'तम खोज के अनुसार है और इसे श्री बैनरजी एवम् डा. कोनोव ने भी प्रामाणिक स्वीकार कर लिया है ।। अत्यन्त प्राधुनिकतम ऐतिहासिक खोजों से हम इतना ही जान सके हैं इसलिए इसे खारवेल के राज्यकाल की एक मात्र की मानकर, हम स्पष्टतया कह सकते हैं कि यवन राजा ने मथुरा पर अधिकार कर लिया था और पूर्व की ओर सम्भवत; साकेत तक भी वह बढ आया था। इसका समर्थन गार्गी-संहिता की सूचना से भी होता है जहाँ यह कहा गया है कि साकेत, पांचाल और मथुरा को जीत कर यवन-राज मौर्य-युग के समाप्ति समय में कुसुम-ध्वज (पाटलीपुत्र) की मोर बढ़ रहा था।" इसी ओर ध्यान आकर्षित करते हुए डा. जायसवाल कहते हैं कि 'जब पतंजलि संस्क्रत व्याकरण पर अपना भाग्य लिख रहा था. मगधराज (पुष्यमित्र) ने एक लम्बा यज्ञ प्रारम्भ किया हुप्रा था और तब तक वह सम्पूर्ण नहीं हुआ था । अयोध्या के नए प्राप्त शिलालेखों के अनुसार उस मगधराज ने दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे। जब अश्वमेघ यज्ञ चल रहा था तभी का पातंजलि का यह उल्लेख है कि यवनराजा ने साकेत और मध्यमिका का घेरा डाला था। कालीदास भी जब कि पुष्यमित्र का अश्वमेव-यज्ञ चल रहा था। उस नदी के निकट की राजा की विजय का उल्लेख करता है जो मध्यमिका राज्य के निकट से होती हुई बहती है। इस प्रकार हमें स्पष्ट साक्षियां प्राप्त हैं कि पुष्यमित्र के राज्यकाल में यवनों का असफल आक्रमण हुआ था। खारवेल के इस लेख में ऐसे ही समसामयिक यवन-पाक्रामक का उल्लेख है कि जिसको न केवल पीछा हट जाना ही पड़ा था अपितु मथुरा भी छोड़ देना पड़ा था। यह घटना वहस्पतिमित्र के राज्यकाल में हुई थी कि जो जातियों की साक्षियों से अग्निमित्र का पूर्वज प्रमाणित होता है । इसलिए आपततः यह परिणाम निकलता है कि उक्त आक्रमण वही था जिसका गार्गीसंहिता और पतंजलि दोनों ही ने वर्णन किया है।" परन्तु इस सम्बन्ध में एक दूसरी कठिनाई यह है कि वह ग्रीक राजा डिमेट्रियस या मिनेण्डर ? गार्डनर के अनुसार, मिनेण्डर का समय ई. पूर्व दूसरी सदी का प्रारम्भ, और विसेंट स्मिथ के अनुसार, ई. पूर्व 155 है। फिर मिनेण्डर के इसमोस (यमुना) के लांघने की बात ही नहीं कही जाती है । वह हिपनिस याने व्यास नदी पार कर कुछ आगे तक बढ़ा था इतना ही कहा जाता है। फिर साहित्य का जो अंश डिमोट्रियस और मिनेण्डर दोनों ही को लागू होता है, उसे विद्वानों ने डिमोट्रियस की व्यापक विजयों का संकेतक माना है। इन सब के अतिरिक्त जो हमें यथार्थ व्यक्ति के पहचानने में सहायता करती है। वह है अपने प्रतिस्पर्धी युक्रेटाइडन को दबा देने के लिए डिमेट्रियस के बैक्ट्रिया लौट जाने की बात क्योंकि शिलालेख स्पष्ट ही कहता है कि यवन-राज, 1. वही, सं. 13, पृ. 228 । 2. गार्गी-संहिता के युग-पुराण अध्याय में यह वर्णन है कि 'दुर्दमन वीर यवन' साकेत (अवध में) पांचाल देश (यमूना और गंगा के बीच का देवाब देश) और मथुरा को अधीन कर, पुष्पपुर (पाटलीपुत्र) पहुंचा; परन्तु वे मध्य देश में इसलिए टिके नहीं रहे कि उनके अपने देश में ही प्रापस आपस में घोर युद्ध छिड़ गया था (कर्न, वहत्संहिता, पृ. 37) स्पष्ट ही यह संकेत उस परस्पर विध्वंसी युद्ध की ओर है कि जो यूथाइडिमस और यूक्रेटाइडस के वंशों में चल रहा था। 3. बिउप्रा, पत्रिका, सं 13, पृ. 241. 242 4. देखी गार्डनर, केटे लोग आफ इण्डियन काइन्स, ग्रीक एण्ड सिथिक प्रस्ता.प. 22. 23 । 5. स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ. 239। 6. गार्डनर, वही, प्रस्ता. पृ. 37 । 7. देखो मेयेर (रुअडी), एसाइक्लो ब्रिटेनिका, भाग 7, प. 982 (11 वां संस्करण); और रालिन्सन, पाथिया (दी स्टोरी प्राफ दी नेशन्स माला), पृ. 65 । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] खारवेल के किसी प्रकार के उसके विरुद्ध प्राकमा किए बिना ही पीछा छूट गया था और मथुरा छोड़ गया था। इस प्रकार खारवेल का अनुमानिक समय डिमोट्रियस और मिनेण्डर के मध्य का है. यह निश्चित ही प्रतीत होता है। ' 1 इस डिमोट्रियस की विजयें ही उपके पतन का कारण हुई, ऐसा ग्रीक इतिहासज्ञ कहते हैं । उसकी विजयों के कारण उसके महाराज्य का केन्द्र बिन्दु बैक्ट्रिया से भी आगे चला गया था। उसका पितृ देश एक अधीन राज्य हो कर सन्तोष करनेवाला नहीं था। फलतः पराक्रमी और शक्तिशाली युफेटाइडस ने जिसके विषय में इतिहास कदाचिद ही कुछ कहता है, विप्लव कर पृथक राज्य की स्थापना कर ली। पार्थिया का राजा मिधटाइटस म के राज्यारोहण के साथ ही वह भी राजा बन गया। अपने भाई फात 1म के बाद ई. पूर्व 171 में 1म गद्दी पर बैठा याने हमें वान गुट्श्मिड की ई. पूर्व 175 की तिथि यूक्रेटाइडस के लिए लगभग सही मान लेना ही उचित है। " उसके राज्य का प्रारम्भ तुफानी था। वैक्ट्रिया का नहीं परन्तु भारतवर्ष सिंधु की ग्रासपास के प्रदेश) का राज डिमोट्रियस अपने प्रतिस्पर्धी युक्रेटाइडस द्वारा खड़ी की गई कठिनाई के कारण भारतवर्ष से पीछा लौट गया। डिमोट्रियस का या पनरावर्तन बैक्ट्रिया के इतिहासज्ञों ई. पूर्व 175 में हुआ मानते है और यह बात गोरयगिरि एवम् राजगृह के घेरे के साथ खारवेल के राज्य का प्रारम्भ ई. पूर्व 175 से मेल खा जाती है। इस प्रकार खारवेल के राज्य का प्रारम्भ ई. पूर्व 183 और इस शिलालेख के लिखे जाने का समय ई. पूर्व 170 माना जा सकता है। 1 ग्रीक राजा डिमोट्रियस के उपरोक्त वन के अतिरिक्त दूसरा साधन भी सारवेल का समय प्रायः निश्चित करने के लिए प्राप्य है। पश्चिम का सार्वभौम, आंध्र के राजा सातकर्णी को हो शिलालेख में खारवेल का प्रतिस्पर्थी लिखा है ।" हम इसे नानापाट के शिलालेख का सातकर्णी ही कह सकते हैं क्योंकि सातकरण की रानी नागनिका का नानाघाट का शिलालेख और हाथीगुफा का शिलालेख दोनों ही लिपि के आधार पर कृष्ण के नासिक के शिलालेख के ही काल के लगते हैं । " प्रथम सातवाहनों के नानापाट के शिलालेख 'अशोक धौर दशरथ के आज्ञालेखों के बहुत नहीं अपितु कुछ ही बाद के हैं और उत्कीर्णलिपि के आधार पर वे अन्तिम मौर्य अथवा प्रथम सुरंगों के काल के याने ई. पूर्व दूसरी सदी के प्रारम्भ के हैं । " हाथीगुफा का लेख यद्यपि तिथि रहित है फिर भी खारवेल का समय डिमोट्रियस और सातकर्णी के समय के साथ याने ई. पूर्व दूसरी सदी का पूवार्ध मानने के पर्याप्त कारण हैं । जब मौर्य साम्राज्य निर्बल पड़ गया था प्रांध्रवंश और कलिंगवंश साथ साथ ही सत्ता में आना चाह रहे थे और यह बात सूचित करती है कि इन दोनों राजों के समकालिक होने की बहुत अधिक संभावना है । इस प्रकार शिलालेख की तिथि का लगभग निर्णय कर लेने के पश्चात् अब हम उसकी बातों की इस रष्टि से निरीक्षा करेंगे कि जैनधर्म के इस महान संरक्षक के विषय में हमें क्या पता लगता है. उसका राजनयिक जीवन कितना व्यापक रहा था कि जिसने उसे भारतीय इतिहास के महान नरपुंगवों में से एक का मान प्राप्त कराया । शिलालेख की पहली पंक्ति जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है जैन रीति अनुसार प्रर्हतों और सिद्धों के नमस्कार स्मरण से प्रारम्भ हुई है। यह जैनों में आज भी प्रचलित पंच परमेष्ठित नमस्कार की पद्धति के अनुसार 1. केहि भाग 1, पृ. 446 इं, I 2. at 1 3. मेयेर, एडुअर्ड वही भाग 9, पृ. 8901 4. देखो बिउप्रा पत्रिका सं. 4, पृ. 398, और सं. 13, पृ. 226 I 5. देखो कूलर, पाच सर्वे व्येस्ट इण्डिया, पुस्त 5, पृ. 71 और इण्डिश पेलियोग्राफी, पृ. 39 1 6. व्हूलर, चि. सर्वे व्येस्ट इण्डिया, पुस्त 5, पृ. 71 आदि । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 141 ही है। यही हमें इस बात का पता लगता है कि खारवेल चेदिवंश का था और उस वंश के राजा 'अइर' विरुद धारण करने वाले थे । जायसवाल कहते हैं कि 'इरा' या 'इला' का उत्तराधिकारी ही 'अइरा' होती है और इसलिए इसे चेदिवंश के वंशज का द्योतक मानना चाहिए। वे इसे 'पुराणों में वर्णित ऐला, से मिलाते हैं कि जो प्रमुख राजवंशों में से एक था और पुराणों के अनुसार चेदि इसी वंश के थे। दूसरी पंक्ति में खारवेल के पन्द्रह वर्ष के युवराज पद का वर्णन है जब कि उसने भिन्न भिन्न विद्याएं सीखी थी। "राजा वेन की भांति ही महान् विजय प्राप्त करते हुए" उसने युवराज रूप में अनेक वर्षों तक राज्य किया। राजा वेन वैदिक व्यक्ति था। मनु' के अनुसार राजा वेन के अधीन यह सारी ही पृथ्वी थी । श्री जयसवाल कहते हैं कि “पद्मपुराण के वर्णनानुसार वेन ने अपना राज्य अच्छी रीति से प्रारम्भ किया परन्तु पीछे जाकर वह जैन हो गया। हाथीगुफा के लेखानुसार हमें पद्मपुराण की इस बात का परोक्ष समर्थन हो जाता है और वह भी यहां तक कि वेन जिसकी ब्राह्मण दन्तकथा में अन्त तक अच्छी ख्याति नहीं रही थी, जैन दंतकथा में आदर्श राजा की ख्याति भोगता है। यदि जैनों में उस समय भी जब कि यह शिलालेख उत्कीरिणत किया गया, वेन अपने राज्य काल के अन्तिम दिनों में बुरा राजा माना जाता होता तो खारवेल की स्तुति में उससे तुलना कभी भी नहीं की जा सकती थी। यह द्रष्टव्य है कि ब्राह्मणों ने वेन में एक मात्र दोष यही पाया कि वह जैन हो गया था याने वह जाति भेद नहीं मानता था। ऐसा लगता है कि वेन को बदनाम करने की दन्तकथा बाद की एवम् जैन-परवर्ती काल की है।' तीसरी पंक्ति में, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, हम पढ़ते है कि 24 वर्षे पूर्ण कर खारवेल ने कलिंगवंश के तीसरे राजा के रूप में 'महाराजा भिषेचनम्' विरुद्ध प्राप्त किया और उसने कलिंग की राजधानी में खिबीर ऋषि सागर की पाल का जीर्णोद्धार कराया और घाट बंधवाया था। चौथी पंक्ति से खारवेल के राजकीय जीवन का वर्णन प्रारम्भ होता है । पंक्ति के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि खारवेल ने 35 लाख की बहप्रस जनता को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया था।10 इतरी भारी जन सख्या से आश्चर्यान्वित होने जैसी कोई बात नहीं है । अशोक के तेरहवें पर्वतावालेख में कहा गया है कि उसकी सेना के विरुद्ध कलिंग ने 1,50,000 युद्ध बन्दी दिए, 1,00,000 कत्ल कर दिए गए और 'इनसे कितने ही गुणे मर गए थे' 111 हताहतों और बन्दियों दोनों की संख्या ही ढाई लाख की हो जाती है । शानहार्ट की गणनानुसार जन संख्या को प्रत्येक पन्द्रहवों व्यक्ति ने परराज्य-अाक्रमण के समय यदि अस्त्र ग्रहण किया हो तो अशोक के समय में ही कलिंग की बस्ती लगभग 38 लाख को हो सकती है । इसके सौ वर्ष पश्चात् अर्थात् खारवेल के राज्य काल में, मौर्य-विजय और मौर्य राज्य के कारण वह जनसंख्या घटकर 35 लाख रह जाना बहुत ही सम्भव है। 1. णमो अरिहंतारणं णमो सिद्धाणं प्राररियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लेए सव्वसाहणं, ऐसो पंवरणमुक्कारो... कल्पसूत्र, सूत्त 1। 2. देखो बिउप्रा, पत्रिका, सं] 4, पृ. 397 और सं. 13, पृ. 222 । 3. पार्जीटर, राएसो पत्रिका, 1910, पृ. 11, 26। 4. विउप्रा, पत्रिका सं. 13, प. 223 । 5. देखो वहां, सं. 4, पृ. 397 और स. 13, पृ. 224 1 6. ऋग्वेद, मण्डल 10, ऋचा 123 । 7. मन, अध्याय 9, श्लोक 66-671 8. बिउप्रा पत्रिका सं. 13, पृ. 224, 225 । 9. देखो वही, सं. 4,4. 397-8 और सं. 13, 1.2551 10. देखो वही सं. 4, पृ. 398, सं. 13 पृ. 226 । 11. न्हूलर, एपी. इण्डि., पुस्त. 2, पृ. 4711 12. देखो बिउप्रा पत्रिका सं. 3 पृ. 440 । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ] इस संख्या को स्वीकार करते हुए विन्सेट स्मिथ कहता है कि 'हम जानते हैं कि मौर्य और उनके पूर्वज जनगणना लगातार किया करते थे, इसलिए इस सख्या में सन्देह करने का हमारे लिए कोई भी कारण नहीं है। इस शिलालेख की अन्य बातों का विचार करने के पूर्व उस समय के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि फैक लेना उपयोगी है । डा. वारन्यैट के शब्दों में अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य तुरन्त ही टूट गया और पासपास के राजों को अपनी सीमा बढ़ाने की महत्वाकांक्षा पूरी करने का उपयुक्त अवसर पूरा पूरा मिल गया था। इन राजों में ही सिमुक नाम का एक राजा था जिसने ई. पूर्व तीसरी सदी के अन्तिम पाद में सातवाहन या सातकर्णी राजवंश की स्थापना की और इस वंश ने तेलुगू देश पर प्रायः पांच सदियों तक राज्य किया था । उसके अथवा उसके निकटस्थ उत्तराधिकारी उसके छोटे भाई कृष्ण या कान्ह के राज्यकाल में आंध साम्राज्य पश्चिम में कम से कम 74 देशान्तर और सम्भवतः अरब सागर तक भी विस्तार पा गया था। इन प्रारम्भिक सातवाहनों के काल में प्रांध्र राज्य की सीमा इतनी बढ़ गई थी कि उसमें सारा ही नहीं तो अधिकांश भाग विधर्व का, मध्यप्रदेश और हैदराबाद का समावेश होता था। 'परन्तु इस समय सूग और प्रांध शक्तियां ही देश के उस भू भाग पर जिसे अब मध्य भारत कहा जाता है, सत्ता जमाने का प्रयत्न नहीं कर रही थीं। हाथीगुफा का लेख बताता है कि ई. पूर्व लगभग 180 में कलिंगाधिपति खारडेल भी इसके एक प्रतिद्वन्द्वी रूप में 4 आया।' उस काल के राजनीतिक वातावरण में अपने देश को महत्व का स्थान प्राप्त कराने की खारवेल की महेच्छा ने उसे उसके पड़ोसी दक्षिण की सार्वभौम सत्ता के साथ टक्कर लेने को उकसाया। आंध्रराजा सातकर्णी के विरूद्ध उसने अपने राज्यकाल के दूसरे ही वर्ष पश्चिम में एक बड़ी सेना भेज दी। इस वंश के शिलालेख के अनुसार यह राजा सातवाहनकुल का और पुराणों के अनुसार मांध (प्रांधनृत्यों) कुल का था। मौर्य राज्य की दक्षिणी सीमा पर की यह अवशीभूत जाति थी और इसका घर मद्रास प्रेसीडेंसी का गोदावरी एवं कृष्णा नदी के बीच का तटीय प्रदेश था। सातवाहनों के मूल स्थान और वर्ण का विचार करते हए श्री बारूले कहते हैं कि खारवेल के लेख में सातवाहनों को कलिंग के पश्चिम में बताया गया है; जैन दन्तकथा में निजाम राज्य का पेठरण उनकी राजधानी कही गई है; कथासरित्सागर में इस वंश के उद्भव के दिए वर्णन में इस वंश के संस्थापक का जन्म पैठण में हुआ कहा गया है...सातवाहनों के अधिकांश शिलालेख नासिक में पाए जाते हैं; उनका प्राचीनतम शिलालेख पश्चिमीभारत के नानाघाट में है। उनके प्राचीनतम सिक्के भी पश्चिमी भारत में ही पाए गए हैं...इससे ऐसा मालूम 1. स्मिथ, राएसो पत्रिका, 1918, 4.545। 2. नासिक के शिलालेख सं. 1144 और पूना के उत्तर-पश्चिम 50 मील दूरस्थ नानाघाट के लेख सं. 2114 में इसका निर्देश है। 3. कैहिई, भाग 1, पृ. 599, 600। 4. वही, पृ. 600। 5. जिस प्रांध्र राजा का यहां संकेत किया गया है, वह पुराण वंशावली का तृतीय श्री-सातकर्णी ही हो सकता है कि जिसकी स्मृति, बम्बई के पूना जिले के प्राचीन नगर जूनार को कोकण से जाने वाले दर्रा, नानाघाट में मिली विरूपकृत परन्तु लेखोंकितउभरी मूर्ति में सुरक्षित है ।-व्हलर, प्राकियालोजिकल सर्वे ग्राफ व्येस्टर्न इण्डिया, सं. 5, पृ. 59 । 6. पाजींटर, डाइनेस्टीज आफ दी कलि एज, पृ. 36 । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 143 होता है कि सातवाहनों का मूल स्थान पश्चिमी भारत ही था... सातवाहन राजों के वर्ण या जाति के विषय में जैन दन्तकथा की माझी बड़ी उत्सभनभरी और प्रद्धय है एक दन्तकथा कहती है कि सातवाहन चार वर्षीय कुमारिका के पेट में से जन्मा था; दूसरी उसे यक्ष की वंशज कहती है । शिलालेख साक्षी सातवाहन को निश्चय ही ब्राह्मण बताती है ।' खारवेल के इस पश्चिमी प्रक्रमण का परिणाम यह हुआ कि सातकर्णी यद्यपि पराजित तो नहीं हुआ, फिर भी खारवेल को मूनिक राजधानी हस्तगत करके ही सन्तोष कर लेना पड़ा था। इसको उसने काश्यप क्षत्रियों की सहायता करने के लिए ही हस्तगत किया था। * ये कि बहुत संभव है कि सातकर्णी के अधीन मित्र थे और ऐसा लगता है कि मूषिक देश पैठण और गोंडवाना के बीच में होना चाहिए। जैसे कोसल उड़ीसा के उत्तर पश्चिम में है, वैसे ही मूषिक देश भी उसके पश्चिम में ही लगा हुया होना चाहिए। पांच पंक्ति हमें इससे अधिक कुछ भी नहीं बताती है कि खारवेल ने तीसरे वर्ष में संगीत, नृत्य प्रादि ललितकलायों में प्रवीणता प्राप्त की ।" छठी पंक्ति कुछ महत्व की है। इसी में हम नन्दयुग का कुछ उल्लेख पाते हैं । पहले तो यह कहा गया है कि सातकर्णी और भूपिकों के विरुद्ध अभियान करने के पश्चात् सारखे ने फिर अभियान पश्चिमी भारत की और किया। अपने राज्यकाल के चौथे वर्ष में उसने मराठा देश के राष्ट्रकों और बराड़ के भोजकों को नतशिर कराया जो कि प्रांनों के करद थे । शिलालेज के अनुसार उसने दक्खन के बांध राज्यों पर दो बार अभियान किया था। राज्यकाल के दूसरे वर्ष में उसने अश्व, गज, पैदल और रथों की भारी सेना मातकर्णी के विरुद्ध पश्चिम में भेजी; और चौथे वर्ष में उसने मराठा देश के राष्ट्रकों और बराड़ के भोजकों को जो कि दोनों ही प्रतिष्ठान के प्रांध्र राजा के अधीन थे, नशिर कराया 15 ये चढ़ाइयां निःसन्देह दवखरण की सार्वभौम सत्ता के चुनौती रूप थी, परन्तु इन्हें स्वरक्षा की सीमा से बाहर तक नहीं चलाया गया। प्रो. रेप्सन के शब्दों में "हम कल्पना कर सकते हैं कि खारवेल की सेना महानदी की घाटी, प्रौर उसकी सीमान्त को पार कर गोदावरी और उसकी शाखा वैधगंगा एवं वर्धा नदी की तराई को पार कर गई थी। इस प्रकार उसकी सेना ने उस क्षेत्र में चढ़ाई की कि जिसे ग्राघ्र राजा अपने राज्य में ही मानता था। परन्तु न तो यह कहा गया है और न ऐसा अनुमान करने का ही कोई ग्राधार है कि कलिंग और आंध्र की सेनाओं की वस्तुतः कोई मुठभेड़ इन दोनों चढ़ाइयों में से किसी में भी हुई ग्रथवा उनसे कोई महत्वपूर्ण राजनयिक परिणाम निकले थे।" यह हम खारवेल की विजयों की महत्ता कम करने के उद्ध ेश से नहीं कहते हैं इसमें सन्देह ही नहीं हैं कि अपने समय की राजनयिक घटनाओं में बहादुर योद्धा स्वरूप से उसने खूब ही हिस्सा लिया था, परन्तु इससे अधिक 1. राएसी, बम्बई - शाखा पत्रिका (नई माला) सं. 3, पृ. 49-521 2. विपत्रिका सं. 4. पू. 398 और सं. 13, पृ. 2261 3. देखो वही । 4. वही, सं. 4, पृ. 399 I 5. हैद्राबाद के श्रीरंगाबाद जिले में गोदावरी के उत्तरी तट स्थित आधुनिक पेठा, साहित्य में राजा सातकर्णी शक्ति कुमार की राजधानी रूप से प्रख्यात है। सातवाहन या शालिवाहा) और उसने पुत्र 6. रेशन, केहि भाग 1, पृ. 536 1 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 J कुछ भी नहीं किया वह अवश्य ही महान् पुष्यमित्र या महान् शालिवाहन के समक्ष खड़ा हो सकता है. परन्तु जैसा संकेत उसके दूसरे और चौथे वर्ष के अभियानों से मिलता है, यदि उसकी प्राकांक्षा प्रतिष्ठान के प्रांध्र राज से सार्वभौम सत्ता छीनने की थी तो उसके ये अभियान विफल ही कहे जाएंगे। वैसा करना उसके लिए सम्भव नहीं था और शिलालेख के उल्लेख का ऐसा अर्थ भी नहीं है । राज्यकाल के पांचवें वर्ष में खारवेल उस नहर को जो राजा नन्द के 103 वें वर्ष में खोदी गई थी और तनसुलिय या तोसली के राजमार्ग को कलिंग के नगर तक ले पाया।* इस प्रोर अनेक अन्य निर्मूल वर्णनों और वर्षकों से जो कि शिलालेख में हैं, फ्लीट स्मिथ आदि जैसे विद्वानों को यह अनुमान करने को प्रेरित किया कि उड़ीसा में सावधानी से इतिहास रखा जाता था और यह भी कि बिना किसी सम्वत् गणना के इन सत्र लम्बी अवधियों का हिसाब रमना सम्भव नहीं हो सकता था।" जिस सम्बत् से समय की गणना यहां की गई है वह नन्द सम्बत् था, यह लेख के पाठ से एक दम स्पष्ट है। यह इतना स्वाभाविक है कि कोई भी राजा विशेष के राज्य-काल से इतने लम्बे समयान्तरों की स्मृति रखने का विचार ही नहीं कर सकता है यदि उस राजा का वह सम्वत् लगातार प्रयुक्त होता नहीं रहा हो। जायसवाल के धनुसार यह राजा सिवा राजा नन्द वर्धन के दूसरा प्रोर हो ही नहीं सकता है कि जिसकी तिथी उनकी गणनानुसार ई. पूर्व 450 के लगभग ग्राती है । 1 जैसा कि हम पहले देख चुके हैं इस शिलालेख में ऐसा कोई ऐतिहासिक श्राधार या कोई अन्य संकेत नहीं है कि जिससे हम उक्त पहचान कर सकते हैं। जायसवाल का विश्वास है कि एलबरूनी निर्दिष्ट श्रीहर्ष सम्वत् के साथ यह सम्वत् मिलता हुया है और इसलिए जो स्थानीय दन्तकथा एलबरूनी ने हर्ष के विलय में दी है, उसी को जायसवाल ने नन्दी वर्धन" के साथ मूल से जोड़ दी है। इस लेखक की दृष्टि में बतान से पहचान करने की यहां कोई भी समुचित कारण नहीं है। यह कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है कि सम्वत् का प्रारम्भ जैनों का प्रथम नन्द अथवा पुराणों के महापद्म नन्द से हुआ हो। जो कुछ भी हमने पुराणों और प्राचीन वर्णनों से नन्दों के विषय में जाना है, उससे यह निश्चित है कि वह अपने नाम का सम्वत् प्रवर्तन करने जितना महान् अवश्य ही था। इससे हम उक्त सम्वत् को बिना किसी जोम के उसके द्वारा चलाया हुआ मान सकते हैं मतः छठी पंक्ति में निर्दिष्ट नहर की तिथी ई. पूर्व 320-307 स्वतः होगी जबकि हम महावीर निर्माण की तिथि ई. पूर्व 480-467 लेते हैं। सातवीं पंक्ति में जो कुछ लिखा है उससे हमें मालूम होता है कि खारवेल की रानी वज्रकुल' की थी, और जायसवाल कहते हैं कि 'रानी का नाम या तो लेख में दिया नहीं गया है अथवा वह 'घुषित (ता) है ।" यह उसके राज्यकाल का सातवां वर्ष था और ऐसा मालूम होता है कि इस समय उसको पुषरूप राजकुमार प्राप्त हो 22 गया था । " 1. यह मानना न्याय संगत होगा कि खारवेल की राजधानी तोसली थी जिसकी पड़ोस में हाथीगुफा और प्राची नदी पाए जाते हैं। हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार सोसली व्युत्पत्ति से होली हो सकता है जहां कि कलिंग प्राशालेख का एक सम्प्रदाय बाज भी है। स्मिथ वही, पृ. 546 2. देखो बिउप्रा पत्रिका सं. 4. पृ. 399 3. देखो फलीट, राएसो पत्रिका, 1910, पृ. 828; स्मिथ, वही, पृ. 545 4. बिउप्रा पत्रिका, सं. 13, पृ. 240 पत्रिका सं. 13, पृ. 240 5. देखो सचाउ, एलवरुनीज इण्डिया, भाग 2, पृ. 5 1 6. देखो बिउप्रा 7. वजिर-घर वंति घुसितघरिनि । - वही, पृ. 227 । डा. के. आयंगर के अनुसार यह वज्रवंश ही प्राचीन एवं प्रमुख वंश हैं जो गंगा के इस घोर के बंगाल का स्वामी था ।-सम कांटीब्यूशन्स ग्राफ साउथ इण्डिया टू इण्डियन RAGE 39 12 18. बिउप्रा पत्रिका, स. 13, प्र. 227 9. ... । कमार, प्रादि-वही । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 145 उसके राज्य के पाठ वर्ष का प्रारम्भ मगध की चढ़ाई से होता है। वह एक बड़ी सेना लेकर गोरगरि के सुदृढ़ गढ़ पर धावा बोलता है ।" लेल की यह धाठवीं पंक्ति महत्व की है। इसके विषय में पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है। उसमें निर्दिष्ट इण्डो-ग्रीक राजा डिमेट्रियस के उल्लेख ने कलिंग के इतिहास के लारवेल के समय के बहुत उलझन भरे और महत्वपूर्ण प्रश्न को स्पष्टीकरण कर दिया है उसकी पूर्व की पंक्ति के कितने ही अंश के साथ श्री जयसवाल के पंक्ति के नए वाचन के अनुसार उसका शाब्दिक अनुवाद इस प्रकार है और इसी को हमने ग्राधार लेकर यहां विवेचन किया" पाठवें वर्ष में वह (खारवेल) पोरठगिरि (गढ़) के सुरढ़ प्राहाते याने दीवाल, बाड) को बड़ी सेना द्वारा आक्रमण करवा कर, राजगृह के चहुं ओर दबाव डालता हैं ( राजगृह पर घेरा डालता है)। इस खबर हंगामे के कारण, वीरता के कार्यों से उत्पन्न (याने गोरठगिरि के गढ़ की विजय और राजगृह के आक्रमण ), प्रतापी राजा डिमेए (रियस) सेना और परिवहन को खींच याने अपनी सेना और रथों द्वारा अपने को सुरक्षित करता हुधा मथुरा का घेरा उठाकर लौट गया ।" इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने राज्यकाल के पाठवें वर्ष में खारवेल ने मगध पर प्राक्रमण किया था। यह स्पष्ट कर देता है कि वह न केवल स्वतन्त्र राजा ही अपितु आक्रामक राजा भी हो गया था। वह गया से पाटलीपुत्र की प्राचीन मड़क पर (गोरठगिरि) बारबर पहाड़ी तक पहुंच जाता है। खारवेल के इस अभियान की बात सुन कर उत्तरभारत का राजा डिमेट्रियस, पलायन कर जाता है, परिणामत: मथुरा का घेरा उठ जाता है, " और जिसके भीतरी आक्रमण और भारत से पलायन का वर्णन बैक्ट्रिया के इतिहास में ऐतिहासिकों द्वारा किया गया है ।" बहुत सम्भव है कि पुष्यमित्र ही उस समय सिंहासन पर था। पुराणों के अनुसार, पुष्यमित्र ने 16 वर्ष तक राज्य किया था और विसेंट स्मिथ के अनुसार पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य सम्राट हृदय को ई. पूर्व 185 में सिंहासन से उतार दिया था। जायसवाल के अनुसार यह घटना ई. पूर्व 188 में पटिल हुई और इसलिए पुप्यमित्र ने ई. पूर्व 185 से 149 या 188 से 152 तक राज्य किया । लेख की नौवीं पंक्ति में महत्व की ऐसी कोई बात नहीं है। इसमें ब्राह्मणों के दिए भूमि दान का वर्णन है, और इस प्रकार हिन्दु राज्य में प्रचलित ब्राह्मणों को दिए जाने वाले सामूहिक भूमि दान का यह समर्थन करती है ।" हम खारवेल के वैदिक रीत्यानुसार अभिषेक किए जाने का पहले ही कह आए हैं। वैसे ही यहां भी उनका जैन होना सनातन रीति की राष्ट्रीय संविधानिक प्रथा की परिपालना में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं डालती है। दूसरा निष्कर्ष जो हम इससे निकाल सकते हैं वह यह कि श्रार्यों के मूल जीवन पर स्थायी कुछ न कुछ प्रभाव पड़ा ही था चाहे और बौद्धधर्मं ब्राह्मणधर्म के प्रचलित आकार के विरुद्ध या दिखावटी मान और धन्य वर्गों से सामाजिक उच्चता का उनका दावा इन नहीं हुआ था। संगठन का जनता के सामाजिक उनका धर्म कुछ भी रहा हो। महावीर कॉल का जैन प्रत्यक्ष क्रांति ही हों, फिर भी ब्राह्मणों के प्रति यथार्थ क्रांतियों से विस्कुल ही प्रभावित 1. महता सेना महत भित्ति ) - गोरवगिरि घातपविता यादि वही सं. 4. पृ. 399, और स. 13, पृ. 227 2. विजा पत्रिका सं 4, पृ. 378, 379 और सं. 13, पृ. 228, 229 । 3. मेयेर (ई), वही भाग 9, पृ. 880 1 4. पार्जीटर वही, पृ. 70 1 5. स्मिथ, पर्ली हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया, पृ. 204 I 6. विउमा पत्रिका सं 13, पृ. 243 देखो वही, सं. 4, पृ. 400 धौर सं. 13, पृ. 229 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] यद्यपि ऐसी बाते व्यक्तिगत उदार भावनाओं पर बहुतांग में निर्भर करती है, फिर भी खारवेल अशांक की भांति ही प्रतापी सम्राट होने पर भी धम्राट नहीं था अशोक के शिलालेखों की भांति इसकी यह शिलालेख भी उसे परम उदार और धर्माध वृत्ति से दूर ही सिद्ध करता हैं । सर्वधर्म समभाव उसका गुण था और उसकी उदारवृत्ति और स्वभाव के कारण ही वह स्वयम्को 'म धर्म के लोगों का पूजक' कहता हो।' दसवीं पंक्ति कहती है कि प्यारवेल ने 38,00,000 सिक्के सर्च कर महाविजय (विजय प्रसाद) प्रमाद वनवाया था। उसके बाद 'साम दाम और दण्ड' नीति के अनुसार विजय के लिए उत्तर भारत की ओर उसने प्रयाण किया एवम् जिस पर उसने ग्राक्रमण किया उनसे उसे मूल्यवान भेटे प्राप्त की। भारतीय राजनीति की तीसरी प्रकार याने भेद नीति का उसने प्रयोग नहीं किया यह एक उल्लेखनीय घटना है और इसका कारण कदाचित यह हो कि खारवेल की नीति के लिए उसका प्रयोग ग्रति नीच और सम्मानीय माना गया था। * इसके बाद की पंक्ति हमारे उद्देश के लिए विशेष उपयोगी नहीं है । गधे के हल द्वारा खारवेल ने कोई मण्ड (सिंहासन) उखड़वाया इसका इसमें कहा गया है ।" यह भी कहा गया है कि वह किसी नीच यो दुष्ट राजा का सिहासन था। इस राजा की नीचता था दुष्टता जैनममं विरोधी पाचरण ही होना चाहिए। यहां जिस निमन की बात है वह कोई सजाई हुई बैठक या कोई विधी हुई गादी भी हो सकती है उस नीचा दुष्ट राजा का ऐसा कुछ भी उल्लेख शिलालेख में नहीं किया गया है कि जिससे हम उसे पहचान सकें। फिर खारवेल 113 वर्ष पूर्व प्रथवा 113" वर्ष बनी हुई सीने की प्राकृति या प्राकृतियों के समूह को नाश करता है। खारवेल के 11 वें वर्ष से 113 वर्ष पूर्व की गिनती लगाएं तो इस सीसे की प्रकृति या श्राकृतियों के निर्माण की तिथि ई. पूर्व 285 ग्राती है । परन्तु छटी पंक्ति के अनुसार यदि इसे नन्द संवत् मानते हैं तो तिथि ई. पूर्व 345 प्राती है । प्रथम घटना अपराज (दुष्टराज) की है। ऐसा लगता है कि दुष्टराज ने किसी प्रकार का याक्रमण किया होगा । परन्तु दूसरी प्रकार की घटना कुछ भी समझ में नहीं प्राती है। ये प्राकृतियां जैनों के सिवा अन्य नहीं थीं, यह निश्चित ही लगता है क्योंकि एक तो ऐसा कुछ कहा नहीं गया है और दूसरे उससे उसकी परधर्म उदारता का भी बाधा पहुंचती है। जैसा कि हम मागे सत्रहवीं पंक्ति में देखेंगे, खारवेल गव धर्मों का सम्मान करनेवाला था और इसीलिए ऐसा लगता है कि ये श्राकृतियां जैन तीर्थ करों को उपहास्य रूप में दिखाने वाली ही हों । इस घटना के सिवा इस पंक्ति से यह भी मालूम होता है कि खारवेल ने उत्तरापथ (उत्तर पंजाब और मीमा प्रदेश) पर भी अपनी धाक बैठा दी थी। फिर वारहवीं पनि भी हमारी दृष्टि से महत्व की है। सिर्फ खारवेल के विषय में ही उसका महत्व हो सो बात नहीं है । 'नन्द और उसके धर्म, जैनधमं और नंदवंश', 'जैन धर्म की प्राचीनता' और 'जैनों में मूर्तिपूजा' आदि प्रश्नों पर भी इससे पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इसमें के अनेक प्रश्नों की चर्चा तो पहले ही की जा चुकी है और शेष की चर्चा या यथास्थान की जानेवाली है। यहां तो मात्रा और इसके पूर्व की पंक्ति के मुख प्रदेश का शाब्दिक अनुवाद देना ही पर्याप्त होगा : -- 'बारहवें वर्ष में (वह) उत्तरापथ के राजों में मय का संचार करता है और मगध की जनता में बड़ा प्रातंक उत्पन्न कर (यह) अपनी गजसेना को सुगांगेय में प्रवेश कराता है, और वह मगध के राजा बहसतिमित्र को अपने 1. सय पासंद पूजकों... विउप्रा पत्रिका, सं. 4, पृ. 403 1 2. देखो वही, पृ. 400 3. देखो वही धौर सं. 13, पृ. 230 4. देखो वही 5. वही । 6. वही, पृ. 2321 7. सव - देव । यतन - संकारकारको... बिउप्रा पत्रिका, सं. 4, प्र. 4031 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 147 चरणों में नमाता है । (वह्) उस कलिगजिन की प्रतिमा को जो कि राजा नन्द द्वारा अपहरण कर ली गई थी, पुनः अपने देश में लोटालाता है और यंग एवम् मगध से दण्ड स्वरूप गृह रत्न भी वह लाता है।" इस प्रकार वायव्य सीमा के देशों को वशीभूत करता है और मगधराजा को उसके चरणों में भेंट चढ़ाने को बाध्य करता है। इससे यह भी जाना जाता है कि मगध को राजा नन्द पाटलीपुत्र को कोई जैनप्रतिमा ले गया था जो कि बारहमतिभित्र के हरा कर एवम् मगध की विजयों के अन्य विजय चिन्हों सहित उदीमा में मोटा लाता है। प्रथम दृष्टि में यह जीव है कि यह प्रतिमा 'कलिगजिन' क्यों कही गई है। इससे ऐसे किसी तीर्थ कर का मास नहीं होता है कि जिसकी जीवनलीला कलिंग से सम्बन्ध हो, परन्तु ऐसा लगता हूँ, जैसा कि मुनि जिमविजयजी कहते हैं, कि प्रतिष्ठा के स्थान के नाम से प्रतिमाओं को पहचान सदा ही की जाती है । " शतुरंजय के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव उदाहरणार्थ तु जय जिन कहे जाते हैं । इसी प्रकार ग्राबू की मूर्ति 'अ'जिन' और घुलेवा (मेवाड़) की मूर्ति 'धुवेवाजिन' कहलाती है। इसलिए यह श्रावश्यक नहीं है कि मूर्ति उमी जिन की हो कि नीला कलिंग से सम्बद्ध हो। कलिगजिन को वाक्य से इसलिए इतना ही अभिप्रेत है कि इस जिनमूर्ति की पूजा कलिए कलिन को राजधानी में हुआ करती थी। } तिमि फोन था कि प्रख्यात राजा से उसकी पहचान इसकेकी ति का विचार करने के पूर्व की जा सकती है और कलिंग में जैन धर्म कब से प्रचलित था, इन बातों का विचार करना यावश्यक है । उस काल का समकालिक इतिहास देखते हुए यह बात स्पष्ट है कि यह बहुपतिमित्र मुगराज पुपमित्र ही था । पश्चिम के सातवाहनों की भाँति वह ब्राह्मण था और उसने प्राचीन ब्राह्मण विचारों का विप्लव जगा कर मौर्यो को उखाड़ अपने वंश का राज्य स्थापन कर लिया था। इसका इतना ही अर्थ है कि ई. पूर्व दूसरी सदी में उसने ब्राह्मणधर्म की पुनः स्थापना की थी । तारानाथ ( ई. 1608, प्राचीन ग्रन्थों के प्राधार से) कि जिसका शुद्ध अनुवाद स्वीफनर ने किया है, की साक्षी दिव्यावदान के मन्तव्य से मिलती है जो कहता है कि पुण्यमित्र पाखण्डियों का मित्र था और उसने विहारों का भ्रम किया एवम् मियों को हनन किया था :-- "ब्राह्मगा राजा पुष्यमित्र की अन्य तिथियों के साथ लड़ाई हुई। उसने मध्यदेश से जलंधर तक के अनेक विहार जला कर भूमिसात कर दिए थे।"5 मित्र के इस धार्मिक विलय के पीछे खास राजनैतिक कारण भी होंगे परन्तु कहना चाहिए कि महान मौर्य सम्राट प्रशोक ने यह कदाचित मोचा ही नहीं था कि राजनैतिक सहजज्ञान का उसमें प्रभाव उसकी धार्मिक नीति, उसकी सर्वदेव पूजा, और उसका विभाजन सब ने मिल कर उसकी साम्राज्य की जड़े खोखली कर दी हैं । अन्यथा उसकी सुर जमाई हुई सैनिक तानाशाही महान् भारती नरेश की मृत्यु के पश्चात् 40 या 50 वर्ष में ही लुप्त नहीं हो जाती कि जिस सम्राट का बौद्ध संसार ग्राज भी प्रेम से स्मरण करती है घोर जो संसार भर में एक उत्तम और भला राजा माना जाता है। उसकी मृत्यु उत्तर भारत के ब्राह्मणों, दक्षिण के सत्ताशील ग्रांनों और भरत के विदेशी दुश्मनों को हितावह हुई। उसकी मृत्यु के पश्चात् हिन्दूकुश तक की मौयं सत्ता निर्बल हो 1. सेहि वितासयतो उत्तरापधराजानो मगधानां च विपुलं भयं जनेतो.. अंगमागच वसु च नेयाति वी. सं4, पृ. 401, पौर सं. 13. पृ. 232 2. देखो वा पत्रिका, मं. 4, पृ.3861 3. वही । 4. देखो कोयल एंड नील, वही, पृ. 434 1 विउप्रा 5. स्कीफनर तारानायूस हिस्ट्री ग्राफ बुद्धीज्म, पृ. 81 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ] गई । वायव्य प्रांत वाले अाक्रमण करने को मुक्त हो गए और बैक्ट्रिया, पाथिया आदि ग्रीक प्रान्तों एवम् सीमाप्रदेश की युद्ध-तत्पर जातियों के लिए भारतवर्ष असीम लालच का स्थान बन गया। उसके सर्वधर्म समभाव होते हुए भी ब्राह्मण लोग अपने धर्म को भय में देखते थे और इसलिए उसके याने अशोक के प्रति द्वेष रखते थे सम्भव है कि ब्राह्मणों ने अपने स्थापित अधिकारों में से भी अनेक उस काल में खो दिए होंगे। इन्हीं कारणों से मौर्य साम्राज्य के विरूद्ध महान् प्रतिक्रिया प्रारम्भ हई जिसमें ब्राह्मणों ने पहले छुपे-छपे भाग लिया और बाद में अन्तिम मौर्य के समय में उनका खुला विरोध ही हो गया। अशोक के उत्तराधिकारी के पास मात्र मगध और ग्राम पास के प्रदेश ही रह गए थे । अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ का उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने (भारतीय मैकव्येथ ने) नमक हरामी से वध किया । पौराणिक वर्णनों के आधार पर मौर्यवंश 137 वर्ष चला। इसको स्वीकार करते यह कहना होगा कि ई. पूर्व 322 में चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण से ई. पूर्व 185 तक मौर्यवंश का राज्य रहा था । यह समय प्रायः ठीक है। इस प्रकार वह ब्राह्मण वश कि जिसने बौद्ध मौर्य को उखाड़ फेंका था ई. पूर्व 185 में भारतवर्ष में सत्ता में पाया। इस प्रकार ब्राह्मणों के उकसाने से पुष्य या पुष्यमित्र ने नमक हराम हो कर अपने स्वामी का वध किया मन्त्रियों को कैद किया और राज्य का अपहरण कर उसने पापको राजा घोषित कर सुग या मित्रवंश का स्थापन किया जिसका कि राज्य लगभग 110 वर्ष चला और जिसने हिन्दू समाज एवम् साहित्य में प्राचीन विचार परम्परा की क्रान्ति फिर से कर दी । बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित में (ई. शती) इस सैनिक अधिकार का उल्लेख इस प्रकार किया है । "अपने मौर्य राजा वृहोद्रथ को कि जो सिंहासनारूढ़ होते समय प्रतिज्ञा को पालन करने में असमर्थ था, सेना बताने के बहाने, सेना का निरीक्षण करते हुए नीच पुष्यमित्र ने कचरधारण निकाल दिया।" इसी बात पर लिखते हुए 'दी हिन्दू हिस्ट्री' ग्रन्थ का लेखक कहता है कि "पुष्यमित्र, जब वृद्ध हो गया था, उत्तर भारत में सार्वभौम राजा की प्रतिष्ठा को प्राप्त हुया था। पाणिनीय व्याकरण के भाष्यकार अपने गुरू पन्तजलि की प्रमुखता और निर्देशन में इस पुष्यमित्र ने एक राजसूय और एक अश्वमेध यज्ञ बड़ी धूमधाम से किया । इस पुष्यमित्र ने हिन्दूधर्म को पुनरजीवित करने की भरसक चेष्टा की । उसके यज्ञ बौद्धों पर ब्राह्मणों की विजय चिन्ह रूप ही थे, बौद्ध ग्रन्थकरों ने पुष्यमित्र को धर्माध और अत्याचारी चित्रित किया है । ऐसा दोष मंढा जाता है कि उसने मगध से लेकर पंजाब के जालंधर तक के बौद्ध विहारों को जला कर भूमि सात कर दिया और भिक्षुत्रों को कत्ल किया। इसमें कुछ सचाई भी हो सकती है। पुष्यमित्र का कहना था कि उसके विरुद्ध जैनों और बौद्धों का पड़यन्त्र व्यापक था ।" उपर्युक्त सब बातों को ध्यान में रखते हुए एक बात स्पष्ट है कि अशोक की अन्यायानुसंधित्सु पद्धति को प्रतिक्रिया न सर्व प्रथम तो बौद्धधर्म पर सांघातिक ग्राघात किया और दूसरे अनेक राजनैतिक कारणों से उत्तर भारत में मौर्य प्राधान्य के भी मरणांत पहुंचा दिया। अशोक ने बौद्ध धर्म के और कुछ अंश में जैन धर्म के प्रति अमीम उदारता बताई उसके परिणाम स्वरूप ब्राह्मणों के विशेष अधिकारों को भारी क्षति पहुंची। फिर ये लोग रक्त-बलि की बंधी और जासमी की उत्तेजक कार्यवाहियों से भी असन्तुष्ट थे । इसलिए ज्यों ही वृद्ध राजा का सुदृढ़ 1. मजुमदार, वही, पृ. 626 । 2. देखो पाजींटर वही पृ. 271 3. बिउप्रा पत्रिका 10. पृ. 202 । 4. यह अनुवाद कोव्यल एवं टामस के (हर्षचरित, पृ. 193) और व्हलर (इं. एण्टी सं. 2, पृ. 363) एवं जायसवाल के अनुवादों को मिला कर दिया गया है । देखो स्मिथ, वही, पृ. 268 टि. 1 । , Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 149 हाथ दूर हुआ कि ब्राह्मणों की सत्ता के प्रभाव ने फिर से सिर ऊंचा किया और विप्लव मचा दिया कि जिसके फल स्वरूप, जैसा कि हमने देख लिया है, सुरंगवंश का स्थापना हो गई। सुरंगों के राज्य विस्तार का विचार करने पर हम देखते हैं कि पाटलीपुत्र, आधुनिक पटना, प्राचीन काल का पालीपोत्रा और उस समय की उत्तर भारत की राजधानी, सुरंगों की राजधानी बनी रही और आसपास के प्रदेश भी उनके अधिकार में रहे । दक्षिण में नर्मदा तक उनके राज्य का विस्तार था। बिहार, तिरहूत और ग्राधुनिक उत्तर प्रदेश भी उनके राज्य में था । पंजाब ती परवर्ती मौर्योों के अधिकार में से बहुत पहले ही निकल चुका था अतः वह सुरंगों के अधिकार में नहीं था । बृहस्पति और पुष्यमित्र एक ही व्यक्ति हैं, वह सामयिक इतिहास की बात वृहस्पति और पुरुष नक्षत्र के पार स्परिक सम्बन्ध से भी समर्पित होती है। इस पर टिप्पण करते हुए भी स्मिथ लिखता है कि 'वपति कुछ सिक्कों और छोटे शिलालेखों का बहुपति मिश्र ही प्रतीत होता है क्योंकि दोनों ही संस्कृत शब्द बृहस्पति के प्राकृत रूप हैं । फिर ज्योतिष में बृहस्पति ग्रह पुष्य या तिष्य नक्षत्र का कि जो कर्क राशि का ही अंश है, स्वामी कहा गया है। बहुपति निश्चय ही पुराणों की वंशावली के सुवंश का प्रथम राजा पुष्यमित्र का ही विकल्प नाम है। , इसी रष्टिकोण का समर्थन करते हुए भी हरप्रसाद शास्त्री इस प्रकार कहते हैं कि 'अशोक वस्तुतः बोद्ध राजा या और वह भी धर्मान्ध... उसने सारे साम्राज्य में सब प्रकार के पशु-यश बंध कर दिए थे... उसकी यह माना जहां भी ब्राह्मण रहते हो उनकी विशिष्ट जाति के विरुद्ध ही थी... इसी प्राज्ञा के बाद एक दूसरी प्राज्ञा भी थी जिसमें अशोक ने गर्व के साथ घोषणा की थी कि उसने इस भूमि पर देव माने जानेवाले लोगों को थोड़े ही समय में कुदेव बना दिया है । यदि इसका कोई अर्थ हो तो यही है कि भूदेव माने जानेवाले ब्राह्मणों का उसने परदा फाश कर दिया...। धर्ममहामातों की अशोक द्वारा नियुक्तियां भी ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के प्रति प्रत्यक्ष प्रक्रमरण था । इस प्रकार की गई अपनी हानि को ब्राह्मण चुपचाप सहने वाले नहीं थे । इन सब के कलश रूप, अशोक ने अपने एक प्राज्ञालेख में अपने समस्त अधिकारों को प्रादेश दिया था कि वे दण्डसमता और व्यवहारसमता के सिद्धांतों का कड़ाई के साथ परिपालन करें अर्थात् ज्ञाति, रंग और वर्ण और धर्म शिक्षा और समान व्यवहार का अमल करें... ऐसी परिस्थिति में प्रतिष्ठा सम्पन्न महान् विद्यान धौर विशिष्ट अधिकार प्राप्त ब्राह्मणों को भी अनार्यो के साथ जेल में रहने कोड़ों का दण्ड दिए जाने, जीवित ही भूमि में गाड़ दिए जाने अथवा फांसी पर लटकाए जाने के दण्ड ग्रपराधानुसार दिए जा सकते थे और यह उन्हें ग्रसह्य हो गया था | ये सब अपमान वे जब तक कि अशोक का सुहद बाहु साम्राज्य का संचालन करता था तब तक सहते थे... । परन्तु वे किसी ऐसे सैनिक की खोज में भी रहे कि जो उनके अधिकारों के लिए लड़े, और ऐसा व्यक्ति उन्हें मौर्य साम्राज्य को महासेनाधिपति पुष्यमित्र के रूप में मिल ही गया। वह रग-रग से ब्राह्मण था और बौद्धों से घृणा करता था ।" " की अवगणना करते हुए समान 1 संक्षेप में कहें तो यह कि वुपतिमित्र को पुष्पमित्र मान लेने में जरा भी कठिनाई या यापति नहीं है और न इससे कोई ऐतिहासिक क्षति ही पहुंचती है।" पक्षान्तर में ऐसा करने से ही उस समय के समसमयी पुरुषों 1. मजुमदार, वही, पृ. 36 । 2. देखो एसो कार्याविवरण और पत्रिका, 1910 पृ. 259-262 1 3. एपो पत्रिका, 1918, पृ. 5451 4. शास्त्री, हरप्रसाद बंएसो, कार्यवाही और पत्रिका, 1910 पृ. 259-2601 5. यहां यह द्रव्य है कि इस प्रकार के नाम - विकल्प भारतीय इतिहास में सामान्य बात है-याने बिंबिसा-श्रेणिक, अजातशत्रु - कूरिणय अशोक प्रियदसी, चन्द्रगुप्त- नरेन्द्र, बलमित्र प्रग्निमित्र, भानुमित्र वसुमित्र आदि । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] और ऐतिहासिक घटनाओं का पारस्परिक समन्वय और सम्बन्ध बैठ जाता है। पुप्यमित्र कट्टर ब्राह्मण था और खारवेल जैन, ये दोनों ही बातें खारवेल को राज्य का जैन इतिहास की दृष्टि से महत्व बढ़ा देती हैं। यदि पुष्यमित्र के ब्राह्मणीय धर्मयुद्ध में जैनधर्म की रक्षा करने वाला खारवेल उस समय न होता तो महावीर की धर्मक्रान्ति भी उसी प्रकार नष्ट हो गई होती जैसी कि बौद्धधमं की बुद्ध द्वारा की गई क्रान्ति ऐसे व्यक्ति के हाथों बिलकुल नष्ट हो गई कि जिसकी ख्याति 'बौद्ध सिद्धान्त के उन्मूलनकर्ता' नाम से है । जंगा कि हम पहले ही कह पाए हैं, खारवेस ने मगध पर दो बार चढ़ाइयां की थी पहली चढ़ाई में वह लगभग पाटलीपुत्र तक पहुंच गया था उस समय पुष्यमित्र ने युक्तिपूर्वक मथुरा की और पीछे हटने और खारवेल नं बराबर टेकरियों (गोरठगिरि) से मांगे नहीं बढ़ने में ही होशियारी या समझदारी मानी । परन्तु दूसरी चढ़ाई में खारवेल विजयी हुया । उत्तर भारत में प्रदेश कर हिमालय की तलेटी तक पहुंच उसने यकायक मगध की राजधानी पर गंगा की उत्तर से धावा बोल दिया। इस नदी को उसने कलिंग के प्रख्यात हाथियों द्वारा पार किया था। त्रिशरणागत हुआ और विजेता वेल ने उनके राज्य के कोम पर अपना अधिकार जमा लिया । उसमें कलिंगजित की प्रतिमा जो महाराज नन्द श्म ले प्राया था, वह भी थी । उसकी इस विजय का प्रभाव सुरंग राज्य की पूर्वी सीमा मात्र पर ही पड़ा उसने बंगाल एवम् पूर्व बिहार पर भी विजय प्राप्त की होगी जहां कि जैनधर्म के प्रभाव के अनेक प्रमाण ग्राज भी उपलब्ध हैं।" खारवेल की इस विजय के विषय में जयसवाल कहते हैं कि " पुष्यमित्र ने लड़ाई के परिणाम पर अपने राज्य सिहासन का दाव लगाने की अपेक्षा भूतपूर्व तीन सदियों के मगध कलिंग इतिहास को संक्षिप्त करने वाले पदार्थों को लौटा कर रक्षा की बहुत संभव है कि मगधराज की सत्ता ने ही इस चढ़ाई के उद्देश को कूट राजनैतिक विजय की अपेक्षा महत्व का बना दिया क्यों कि भारतवर्ष के इस साम्राज्य सिंहासन पर अधिकार न कर यही छोड़ देना किसी भी मनुष्य के लिए आसान बात नहीं था। ". बृहद्रथ खारवेल पुष्यमित्र का यह सिंहासन अपहरण नहीं कर सका था, यह बात शिलालेख के पाठ से स्पष्ट प्रगट है । उस सीमा तक कल्पना को खींचने की आवश्यकता ही नहीं है। वस्तुतः ऐसा हुआ दीखता है कि जैस सातकरण के सम्बन्ध में हुआ था वैसे ही खारवेल को अपने पड़ोसियों पर ना कुछ अधिक सर्वोपरिता जमा कर ही यहां सन्तोष कर लेना पड़ा होगा, क्योंकि अन्तिम मार्य राज की हत्या के पश्चात् मौर्य साम्राज्य की सम्पत्ति विभाजन कर लेने वाली शक्तियों की पारस्परिक प्रतिइन्द्रता से उस समय का राजनीतिक वातावरण बहरा रहा था । महान राज्य के पतन पर उठनेवाली शक्तियों में सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा था । इस संघर्ष में यह बिना जोखम के कहा जा सकता है कि चारवेल ने भी पूरा पूरा भाग लिया या यही नहीं अपितु जो भी उसे प्राप्त हो सका उसे ले लेने में उसे यश ही प्राप्त हुआ था। कलिंग में जैनधर्म की प्राचीनता की दूसरी बात का विचार करते हुए हम देखते हैं कि इस शिलालेख में कलिंगजिन के उल्लेख के अतिरिक्त हमें कुछ भी संकेत नहीं मिलता है जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है उसमें जिस वाक्यरचना का प्रयोग किया गया है उससे ऐसा लगता है कि उक्त मूर्ति कलिंग अथवा कलिंग की राजधानी 1. दव्यावदान पृ. 433-434 3. मजुमदार, वही. पृ. 633 2. स्मिथ, वही, पृ. 2009 4. विडा पत्रिका मं. 3.2.447 far, 1 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [151 में पूजी जानेवाली जिनमूर्ति ही होगी शिलालेख स्पष्ट ही कहता है कि यह मूर्ति राजा नन्द उठा ले गया था याने वह उसे कलिंग से मगध में ले गया होगा । हम यह भी देख आए हैं कि यह राजा नन्द जैनों का नन्द मि था नकिन जैसा कि श्री स्मिथ ने जायसवाल आदि विद्वानों ने साधार से मान लिया है।" यदि ये सब बातें ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक मानी जाए तो यह कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है कि बौद्धधर्म के कलिंग में पांव जमने के बहुत पहले से ही जैनधर्म वहां जम चुका था और जनता में लोकप्रिय हो गया था । संक्षेप में नन्द 1म की कलिंगविजय के समय वहां जैनधर्म प्रचलित धर्म था । इसे समर्थन करते हुए जायसवाल कहते हैं कि नागवंश को नन्दिवर्धन अर्थात् राजा नन्द के समय में ही जैनधर्म उड़ीसा में प्रवेश कर चुका था...। खारवेल के समय के पूर्व उदयगिरि पहाड़ी पर महंतों के मंदिर थे क्योंकि शिलासेल में उनका अस्तित्व सारवेल के समय से पूर्व संस्थानों के रूप में वग किया गया है। ऐसा लगता है कि कुछ सदियों से जैनधर्म उड़ीसा का राष्ट्रीय धर्म था।" इसका समर्थन एक जैनदन्तकथा से भी होता है जिसमे ई. पूर्व छठी सदी में उड़ीसा को क्षत्रियों का केन्द्र माना गया है । उस दंतकथा में कहा है कि उड़ीसा में महावीर के पिता का क्षत्रिय मित्र राज्य करता था और महावीर वहाँ गए थे। 'उड़ीसा एण्ड हर रिमेन्स' ग्रन्थ को लेखक विद्वान कहता है कि 'जैनधर्म की जड़ें इतनी गहरी थी कि हम उसके चिन्ह 16वीं सदी ईसवी तक भी पाते हैं । उड़ीसा का सूर्यवंशी राजा प्रताप रुद्र देव जैनधर्म की ओर बहुत भुका हुआ था।' लेख की अगली पंक्ति का विचार करने की ओर झुकें इसे पहले यह संकेत भर कर देना चाहते हैं कि शिलालेख से इस निष्कर्ष पर पहुंचने के भी अच्छे प्राधार हैं कि ई. पूर्व पांचवीं सदी के प्रारम्भ जितने प्राचीन समय में ही जैनों में मूर्ति पूजा का प्रचार था। इस मूर्तिपूजा के प्रश्न का विचार विस्तार से आगे इसी ग्रन्थ में हम करेंगे।" शिलालेख की इस बात को दृष्टि में रखते हुए श्री जायसवाल तीन महत्व के निष्कर्ष निकालते हैं जो कि इस प्रकार हैं:- ( 1 ) यह कि नन्द जैन था, और (2) यह कि जैनधर्मं का उड़ीसा में प्रवेश बहुत ही पहले, सम्भवत; महावीर के बाद ही या उनके समय में ही हो गया था (जैन दंतकथा उनके उड़ीसा में बिहार की बात कहती है 1. निर्दिष्ट नन्द राज पुराणों का नौवां शैशुनाग राजा नन्दिवर्धन लगता है । उसको एवं उसके उत्तराधिकारी महानंदिन 10 वां का नन्द ही उन नौ नन्दों से पृथक कि जो चन्द्रगुप्त और 10वें नन्द के बीच में होते है, मानना आवश्यक है। मेरे ग्रन्थ अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया के 1914 के तीसरे संस्करण में मैंने नन्दिवर्धन का राज्यारोहण ई. पूर्व 418 के लगभग रखा था। परन्तु अब इसे ई. पूर्व 470 के या इससे भी कुछ पूर्व में रखना चाहिए स्मिथ, राएसो पत्रिका 1918, पृ. 547 2. विजया पत्रिका सं. 3, प. 448 बिउप्रा पु. 1 3. ततो भगवं मोसलिंगम्रो....तत्व सुभागही नाम रडियो पियमितो भगवधो सो प्रोएड तनो सामी मोसलिंग...। आवश्यक सूत्र . 219-220 4. प्रताप रुद्र देव, गजपति राजों में से एक कि जिसने ई. सन् 1503 से राज्य किया, ने जनथमं परिस्थान कर दिया...लोग एसो पत्रिका, सांग 28. सं. 1 से 4 और 5, 1859. पू. 189 1 5. ली. वही पृ. 19 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 ] और शिलालेख की 14वीं पंक्ति भी सूचित करती है कि कुमारीपर्वत (उदयगिरि) वह स्थान था कि जहां धर्म का प्रवर्तन और उपदेश दिया गया था । लेख यह भी प्रमाणित करता है कि (3) लगभग या ई. पूर्व 450 या उससे भी कुछ पूर्व जैनमूर्तियों को खोने का यह अर्थ है कि महावीर निर्वाण की तिथि वह होना चाहिए जो कि हमें उन अनेक जैन कालनिरूपक सामग्रियों का पुराणिक और पाली सामग्रियों के साथ पढ़ कर कि जो सब उसे ई. पूर्व 545 में स्थिर करने एक्य स्थापन करते हैं, प्राप्त होता है (बिउप्रा, पत्रिका, सं. 1, पृ. 99-105) इन तीनों ही निष्कर्षों की चर्चा हमने पहले ही अच्छी तरह कर दी है। अब हम अनुगामी पंक्ति का विचार करेंगे। इसमें भी एक राजनैतिक घटना दृष्टव्य है-याने उसकी महान् विजय का वर्ष धुर दक्षिण से अतुल धन वर्षा का भी वर्ष था। आदि में यह पंक्ति हमें बताती है कि खारवेल ने भीतर में उत्कीर्ण काम की भव्य मीनारें या स्तम्भ बनवाए थे और 'उस योग्य पुरुष' ने कलिंग में पाण्ड्य देश (सिंहल के सामने को धुर दक्षिणी देश) के राजा से अद्भुत और विस्मयोत्पादक गज-वाहन, चुर्नोदा अश्व, माणक, मोती आदि अनेक रत्न प्राप्त किए । इसमें कलिंगाधिपति की पाइय देश पर आक्रमण का कोई उल्लेख नहीं है । खारवेल की महत्ता, और उसकी प्रांध्रों एवम् सुगों पर अधिपत्य को देख कर ही ये सब जयहिन्द पाण्ड्यों ने अपने आप खिराज रूप में भेज दिए हों। जैसा कि हम अभी ही देखेंगे कि खारवेल के सैनिक शौर्य के इस वर्णन के अतिरिक्त इस शिलालेख में उसके धर्मकृत्यों का भी अभिलेख किया गया है। इससे यह विश्वास करने का पर्याप्त कारण मिल जाता है कि राजा और उसके परिवार का जैनधर्म की अोर झुकाव था और उसके वंशज उत्तराधिकारी भी प्रत्यक्षतः उसी धर्म के मानने वाले थे। ___ चौदहवीं से लेकर लेख की अन्तिम पंक्ति तक के अभिलेख से हमें मालूम होता है कि राजा खारवेल निरा नाम का ही जैनी नहीं था अपितु उसने इस धर्म को अपने नित्य नैमितिक जीवन में भी उचित स्थान दिया था। वहाँ जो कुछ भी कहा गया है उससे स्पष्ट है कि उसके राज्यकाल के तेरहवें वर्ष में, राज्य विस्तार से सन्तुष्ट हो कर, उसने धार्मिक कार्यों में अपनी शक्ति मोड़ दी थी। वह कुमारी पर्वत के पवित्र स्थानों पर खूब धन खर्च करता है और गौरव से परिपूर्ण शिलालेख खुदवाता है। व्रतों की समाप्ति पर दिए जाने वाले राजकीय भत्ते उन याप प्राचार्यों को कि जिनने उस पवित्र कुमारी पर्वत की शरीरावशेषों के भण्डार पर तप करके अपने जन्मान्तरों के क्रम को समाप्त कर दिया हो देने का आदेश निकाला कि जहाँ 'विजेता का चक्र" खूब अच्छी 1. बिउप्रा पत्रिका, सं. 13, पृ. 245, 246। 2.सिंहली अपने गजों के निर्यात के लिए विशेष प्रकार नौकाएं बनाते थे। ऐसा लगता है कि शिलालेख निर्दिष्ट 'गजवाहन' इसी जाति के थे। 3. तु जठर-लिखित-वरानिसिहिरानि नीबेसयति...पंडराजा चेक्षनि अनेकानि मतमणिरतनानि-बिउप्रा पत्रिका ___ सं. 4, पृ. 401 और सं. 13, पृ. 233 1 4. बंगाल जिला विवरणिका, पुरी, पृ. 24 । 5. वह पवित्र स्थान था क्योंकि वहां जैनधर्म की देशना दी गई थी (पंक्ति 14)। 6. परम आदर्श जैन मुनि जिनने तपों द्वारा अपने को (प्रात्मा को) विमुक्त कर लिया है। जैन दर्शन में यह बहुत ही प्रादर्श धारणा हैं। 7. यह सूचित करता है कि जैनों में वर्द्ध धर्म विस्तार का भी चिन्ह था। मथुरा के जैन स्तूपों में पाए जाने वाले वर्ष के प्रतीक से भी यही समर्थित होता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 153 रीति से स्थापित हो चुका था। यह भी आगे कहा गया है कि खारवेल ने श्रावक के व्रतों की पालना कर जीव और देह का सद्विववेक अनुभव कर लिया था ।। खारवेल को जैनधर्म के प्रति दृढ़ता और पूर्ण श्रद्धा का इससे अच्छा प्रमाण और क्या हो सकता है ? याप प्राचार्यों और अन्यों को कि जो कुछ व्रतों का पालन करते दिया जाने वाला दान या भेट, और जैन दर्शनानुसार जीव और पुद्गल (देह) के पारिभाषिक महत्व का अध्ययन करने के प्रति प्रेम स्पष्ट बताता है कि यह अश जैन नहीं था । उसने अपने धर्म के प्रमुख लक्षणों को पहले जानने समझने का प्रयत्न किया और इस प्रकार अपने धर्म की महत्ता का अनुभव कर वह उन लोगों की सहायता और प्रोत्साहन को सदा ही तैयार रहता था जो कि साधू हो गए थे या जो भगवान् महावीर के दिव्य संदेश के लिए जीने और मरने के लिए सन्नद्ध थे । इस पंक्ति में कुछ ऐसे भी उल्लेख हैं जो कि भूतपूर्व दिनों के जैनाचार पर भी महत्व का प्रकाश डालते हैं और एक ऐसे वर्ग का परिचय भी देते हैं जो आज अस्तित्व में नहीं है' याप प्राचार्यों के वर्ग का उल्लेख बताता है कि उस समय जैनों में ऐसा एक सम्प्रदाय था। इन्द्रभूति के नीतिसार के अनुसार वह एक ऐसा मिथ्यादृष्टि संघ था जिनमें कि दक्षिण का दिगम्बर सम्प्रदाय तब विभक्त था: गोपुच्छक ? श्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः । नि:पिच्छकश्चेति पंचेते जैनामासा: प्रकीर्तिताः ।। उपरोक्त सूची में यापनीय का नाम सम्मिलित किया जाना एक आश्चर्यकारक बात है क्योंकि चालुक्य राजा, अम्मराज 2य के शिलालेख में उन्हें पवित्र और पूज्य नंदी-गच्छ का एक विभाग बताया है और उनके संघ को 'पवित्र यापनीय-संघ' कहा गया है। फिर श्रवण बेल्गोल के शिलालेखों में से एक में इस नन्दी-संघ को अर्हदबलि ने रुढिचुस्त माना है। उसकी राय में यह संघ 'संसार का नेत्र' था । नियमों से विपरीत सिताम्बर अोर अन्य संघों में उसने विभेद करने का कोई भी प्रयत्न नहीं किया है । और यदि कोई सेन, नन्दी देव और सिंह संघों के विषय में ऐसा विभेद करता है, उसको उसने 'मिथ्यात्वी या पाखण्डी' तक कह दिया है। इस विषय में जायसवाल कहते हैं कि भद्रबाहचरित में चन्द्रगुप्त के समकालिक भद्रबाह श्रुतकेवली के तुरन्त बाद के जैनधर्म का इतिहास देते हुए कहा गया है कि भद्रबाहु के शिष्यों में जो कि गुरू की अस्थियों की पूजा करते थे. ही एक सम्प्रदाय यापनीसंघ नाम से उद्भव हया और इस संघ ने अन्त में ही दिगम्बर रहने का निश्चय कर लिया। यह यापनसंघ दक्षिण में फलाफूला क्योंकि इसका कर्णाटकीय शिलालेखों में प्रमुखतया उल्लेख पाता है । अब यह लुप्त है । मुनि जिनविजय का यह मत है कि इस संघ के कितने ही सिद्धांत तो दिगम्बर सम्प्रदाय से मिलते थे और कितने ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय से। इस मत की दृष्टि से यापनसम्प्रदाय जनसंघ के इन दो स्पष्ट सम्प्रदायों में विभक्त होने से पूर्व का ही कदम होना चाहिए। इस शिलालेख से पता चलता है कि याप जिससे कि इस सम्प्रदाय का नाम पड़ा था, कुछ पवित्र प्राचारों को कहा जाता था । यदि हम इसका विचार उस अर्थ में करें कि जिसमें बरक-पीड़ा उपशामक या महाभारत 'प्राण-पोषक' में यह प्रयुक्त हुना है तो याप उपदेष्टा प्राणियों के शारीरिक दु:खों के उपशम के धर्म पर ही बल देते थे । 1. तेरसमे च वसे सुपवत-विजय-चक्र कुमारीपवते अरहिते यप-रवीण-संसितेहि काय...जीव-देहसिरिका परिखिता। बिउप्रा पत्रिका, सं. 4, पृ. 401, 402, और सं. 13, पृ. 233 । 2. प्रेमी, विद्वरत्नमाला, भाग 1, पृ. 132 .हुल्ट्ज, एपी. इण्डि., पुस्त. 9, पृ. 55, श्लो. 18, पृ. 50 4. एपी. करा., पुस्त. 2, एस. बी., 254। 5. वही। 6. बिउप्रा पत्रिका, सं. 4, पृ. 389 1 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 ] फिर. शिलालेख हमें कहता है कि ये याप प्राचार्य कुमारीपर्वत याने कायानिषीधि पर रहते थे । लेख की पंक्ति से ही प्रमाणित होता है कि यह निषीदि अर्हतों की ही निषीदि थी। निषीदि या निषीधि जैन साहित्य तीर्थ करों और गुरुओं प्रादि की पवित्र शोभा समाधियों के लिए जैन साहित्य में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु इसे विश्रामस्थान ही समझना चाहिए । इस पर ही डॉ. फ्लीट कहता है कि "निशीधि शब्द के लिए कि जो निषौधि, निशिधि और निशिदिगे रूप में भी मिलता है-डॉ. के. बी. पाठक मुझे सुचित करते हैं कि यह शब्द अाज भी जनसंघ के प्राचीन का वयोवृद्ध सदस्यों द्वारा प्रयोग किया जाता है, और इसका अर्थ है 'जैन साधु के अवशेषों पर खड़ी की गई समाधि' और उसने मुझे 'उपसर्गकेवलीगलकथे' से निम्न अंश उद्धृत किया है कि जिस में यह शब्द प्रयुक्त है "ऋषि-समुदायं = गृल्लं दक्षिणापथदि बंदु मट्टारर निषिदियन = एयदिद-पागल, आदिः “साधुओं का सारा समुदाय दक्षिण के प्रदेश में आकर और परम पूज्य की निषिधि पर पहुंच कर, आदि । कुमारीपर्वत पर की निषिधि जहां कि यह शिलालेख खुदा है, कोई शोमा समाधि सी नहीं दीखती अपितु एक यथार्थ स्तूप है, क्योंकि उस शब्द के पहले कायम विशेषण लगा हुआ है कि जिसका अर्थ होता है, 'शरीरावशेषों का' । शिलालेख पर विचार करते हुए जायसवाल कहते हैं कि "इससे यह मालूम होता है कि जैन अपने स्तुपों और चैत्यों को निषिधि कहते थे। मथुरा में पाया गया जैन स्तूप और भद्रबाहुचरित का यह कथन कि भद्रबाहु के शिष्यों ने अपने गुरू की अस्थियों की पूजा की, इस तथ्य की स्थापना कर देता है कि जैन (कम से कम दिगम्बर जैन तो) अपने गुरुषों के अवशेषों पर स्मारक बनाया ही करते थे।" प्रसंगतः यह भी कह दें कि यह प्रथा जनों और बौद्धों में परिसीमित नहीं थी, अपितु गुरुषों की स्मृति में स्मारक-चैत्य बनाने या खड़े करने की एक राष्ट्रीय प्रथा ही थी। जैसा कि पहले कह दिया गया है। पन्द्रहवीं पंक्ति हमारे सामने खारवेल का एक श्रद्धालु जैन का रूप प्रस्तुत करती है । साधुओं और एकांतप्रिय तत्वज्ञों के लिए खारवेल ने जो कुछ किया था उसका इसमें वर्णन है । परन्तु इस पंक्ति के कुछ शब्द लुप्त हो गए हैं इसलिए हमारे लिए यह जानना सम्भव नहीं है कि वस्तुत: वे कार्य क्या क्या थे । फिर भी यह स्पष्ट उल्लेख हुया है कि वह कार्य था संघ के नेता और प्रत्येक रीति से दक्ष पुरुष, पवित्र कार्य करने वाले और सिद्ध श्रमणों का।" इसके सिवा वह यह भी कहती है कि अर्हत् के अवशेषों के संग्रहस्थान के पास, पर्वत की ढ़लाई में, राजा खारवेल ने “सिंहपुर (= प्रस्थ) महल अपनी रानी सिंधुदा के लिए बड़ी दूर से अच्छी खानों के लाए हुए पत्थरों से, घंटा लगे स्तम्भों का कि जो नेपाल में खडें इसी वर्णन के सुन्दर मध्यकालीन स्तम्भों जैसे हैं, और उसमें फिरोजा जड़ा 75 लाख पणों की लागत से जो कि उस समय का प्रचलित पिक्का था, बनवाया था। जायसवाल जी ने इस महल की पहचान उस महान् शिलोत्कीरिणत भवन से जो कि 'रानी या 'रानी का महल' कहलाता है, की है। यह हाथीगुफा के पास ही, पर्वत की ढाल में है और यह भी द्रष्टव्य है कि इसकी ममती 1. एपी., इण्डि., पुस्त. 2, पृ. 274 ।। 2. इण्डि. एण्टी., पुस्त. 12, पृ. 9913. बिउप्रा पत्रिका, सं. 4, पृ. 389 । 4. सकति समण-सुविहितानं च सत-दिसानं...तपसि । -वही, सं. 4, पृ. 402 और सं. 13, पृ. 234 1 5. देखो प्रायंगर (के।, वही प. 75,761 6. देखो बिउप्रा पत्रिका, स. 4, पृ. 402, पौर सं. 13, पृ. 234, 235। 7. वही, सं. 13, पृ. 235 । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [155 में सिंह भी प्रमुख स्थानों पर रखे हैं। इस प्रकार अवशेष संग्राहक स्मारक प्रर्हत् निषीधि इसी रानी महल के पास कहीं होना चाहिए। जैसा कि शिलालेख में कहा गया है। अन्तिम कितने ही दशकों से जिसकी विवादास्पद चर्चा चल रही है सोलहवीं पंक्ति का वह यश अति महत्व का है इसमें खारवेल और उसके जैन इतिहास के संबंध में कुछ भी नहीं है। पूर्व पंक्ति की तरह यह भी इसी बात को समर्थन करती है कि खारवेल महान् जैन था । जैन शास्त्र और उनकी सुरक्षितता में उसे कितनी अधिक दिलचस्पी भी इसी का इसमें स्पष्ट उल्लेख है, क्योंकि इस पंक्ति में कहा गया है कि 'मौर्य राजा के काल में खोए 64 प्रकरण वाले चार खण्ड के अंग-सप्तिका ग्रन्थ का उसने उद्धार किया ।" " जैसा कि हम पहले देख चुके हैं. डा. फ्लीट का इस पंक्ति की व्याख्या भी बहुत कुछ ऐसी ही है । हम उसे यहां उद्धृत करना उचित समझते हैं 'सारे वर्णन में कोई भी तिथि नहीं दी गई है, केवल यही कहा गया है कि खारवेल ने मौर्य राजा वा राजों के समय में उपेक्षित सात ग्रंथों के संग्रह के 64 प्रकरणों यथवा अन्य विभागों का और कुछ मूल पाठों का उद्धार किया। यहां हमें मगध के महान् दुष्काल का स्मरण हो प्राता है कि जो बारह वर्ष का था और जिसकी चर्चा पूर्व अध्याय में की जा चुकी है। जैसा कि हम देख चुके हैं इसके परिणाम स्वरूप चन्द्रगुप्त राज्य छोड़कर अपने गुरू भद्रबाहु एवम् ग्रन्थ प्रवासियों के साथ दक्षिण में चला गया था। इस दुष्काल की समाप्ति पर पाटलीपुत्र " में स्थूलभद्र युगप्रधान की प्रमुखता में साधुसंघ एकत्रित हुआ था । ये स्थूलभद्र सब कुछ जोखम उठाकर भी देश के दु का भीषण दस्यों को देखने के लिए वहीं रहे थे। इस प्रकार शिलालेख की यह पंक्ति चन्द्रगुप्त काल में कुछ जैन शास्त्रों के नष्ट या लुप्त हो जाने के विवाद की दन्तकथा का समर्थन करती है। कलिंग ने बहुत कुछ भद्रबाहु और उनके साथ दक्षिण में गए अनुयायियों का अनुगामी होने से, मगध में एकत्र हुई साधूसंघ की शास्त्र वाचना या पाठ को स्वीकार नहीं किया यह स्पष्ट है । शिलालेख की ग्रन्तिम याने सत्रहवीं पंक्ति भी इसके पूर्व की सोलहवीं पंक्ति के साथ ही पढ़ी जानी चाहिए । इस प्रकार पढ़ने पर हम देखते हैं कि उसमें संक्षेप से खारवेल के प्रमुख गुरणों का वर्णन होने के साथ साथ, उसकी सत्ता की व्यापकता भी बताई गई है । शिलालेख के इस अंश में विशेष रूप से ही कुछ अतिशयोक्तिकता हो सकती है और ऐसा होना स्वाभाविक है। परन्तु जब हमारे सामने खारवेल का तुलनात्मक अध्ययन करने को और कोई भी साधन नहीं है तो हमें इस पंक्ति को शब्दार्थ से ही सन्तोष करना होगा। जो कि इस प्रकार है - "वह वैभव (क्षेम) का राजा, विस्तार (साम्राज्य के) का राजा ( या प्राचीन लोगों का राजा) भिक्षुग्रों को दानी (या राजा होते हुए भी भिक्षु) धर्म का राजा जो हित (कल्याणों को देखता, सुनता धीर धनुभव करता है...' " "राजा खारवेल - श्री महान् विजेता, राजर्षियों के वंश में अवतरित हुआ हो, उसने वह जिसका साम्राज्य विस्तार पाया है, जिसके साम्राज्य को रक्षा साम्राज्य (या सेना) नायकों द्वारा सुरक्षा की जाती है, वह जिसके रथ 1. वही, पृ. 236 2. एसो पत्रिका, 1910, पृ. 826-827 3. आधुनिक पटना इनके संघ के वृत्तों में ऐतिहासिक महत्व का स्थान और उस समय मौर्य साम्राज्य की राजधानी । 4. इस परिषद ने जैनों के पवित्र ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो के प्रागम साहित्य को निश्चित किया था। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 1 और सेना का अवरोध नहीं किया गया है, वह जिसने प्रत्येक मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया है, वह जो प्रत्येक धर्म का सम्मान करता है, वह जो विशिष्ट गुणों के कारण कुशल है...।"] . यहां कलिंग का महान् सम्राट, भिक्षुराज खारवेल और जैनधर्म के महान् समर्थक राजों में से एक की आत्मकथा समाप्त हो जाती है। प्रथम पंक्ति में ही किया अर्हतों और सिद्धों का मंगलाचरण, जैन श्रमणों के लिए निर्मित मन्दिर और गुफाएं, याप प्राचार्यों को भूमि एवम् अन्य आवश्यक पदार्थों का दान, राजा नंद द्वारा अपहृत कलिंगजिन प्रतिमा की पुनः प्राप्ति आदि सब बातें प्रतीत कराती हैं कि खारवेल जैन था, ई. पूर्व 183 में चौबीस वर्ष की अवस्था में वह राज्यगद्दी पर पाया था। बत्तीस वर्ष की अवस्था में उसने मगध पर पहली और 36 वर्ष की अवस्था में दूसरी चढ़ाई की थी । श्री जायसवाल के अनुसार उसकी मृत्यु संभवतः ई. पूर्व 152 में हुई थी।" वह एक ऐसा सम्राट था कि जिसके वंश के विषय में हम कुछ भी नहीं जानते हैं और जिसकी जीवनलीला के विषय में इस शिलालेख के कि जिसके ऊपर काल का प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सका है, सिवा अन्य कोई भी साधन हमें प्राप्त नहीं है। फिर भी हम इतना तो यहाँ अवश्य ही कहेंगे कि वह कोई पाश्चर्य की बात नहीं होगी कि किसी सुदिन कोई पुरातत्वज्ञ विद्वान को 'राजर्षियों की परम्परा के इस प्रख्यात वंशज या उत्तराधिकारी' धर्मराज के विषय में इससे अच्छा और अधिक विवरण वाला अभिलेख प्राप्त ही हो जाए। यह निःसंदेह ही आश्चर्य है, ही नहीं अविश्वासनीय है कि जैनों के पास ऐसे व्यक्ति के विषय में कहने का कुछ भी नहीं है कि जिसका जैन इतिहास में योगदान किसी से भी कम नहीं था। खारवेल के राज्य का परिणाम और उसके सिंहासनासीन होने के पश्चात् उसकी की हुई नई विजयों का परिचय देनेवाला ऐतिहासिक अथवा अन्य कोई भी समकालिक अभिलेख हमें उपलब्ध नहीं है । यह तो हमसे दूसरी ही दुनियां की उस ध्वनि जैसा ही है कि जो हमें कहती है कि प्रत प्राचीन काल में कलिंग का खारवेल नाम का एक महान् सम्राट था और उसको तुम्हें मान लेना चाहिए और उसके स्मृति चिन्ह रूप में हाथीगुफा के शिलालेख से मिलने वाली सूचनाओं के आधार पर ही समसामयिक ऐतिहासिक व्यक्तियों में से एक उसे भी मान लेना चाहिए। शिलालेख कहता है कि उसने उत्तर में महान् सुग राजा पुष्यमित्र को हराया था । यह समाचार सुन कर इण्डो-ग्रीक राजा डिमेट्रियस मथुरा का घेरा उठा कर अपने देश को लौट गया था। उसने दक्षिण में सातकर्णी और उसके करद राज्यों को आधीन किया और उसकी इन विजयों की कथा सुन कर धुर दक्षिणांत के पाण्ड्य राजा ने उसे बहुत और अमूल्य भेटें भेजी थीं। ___ तुलना के साधनों के अभाव में इस शिलालेख की कौनसी बात स्वीकार की जाए और कौन नहीं, अथवा उसे किस रूप में समझी जाए, यह एक बड़ी कठिनाई है। यह कठिनाई उस समय और भी जटिल हो जाती है जब कि ऐसे सैनिक अभियान जिनका इस शिलालेख में प्रचुर प्रमाण मिलता है, ऐसे समाज में कि जिसमें युद्ध एक व्यवसाय है और उस व्यवसायी जाति का परम्परागत सदस्य सैनिक है, एक सामान्य नियम हो जाता है और जहां अपने राज्य की सीमा विस्तार करने की आकांक्षा, जैसा कि हमारी स्मृतियां कहती है, ही राजत्व का एक प्रमुख 1. खेमराजा स बढराजा...अनुभवतो...कलाणानि सव-पासंड-पूजको...खारवेलसिरि । बिउप्रा पत्रिका, सं. 4, पृ. 403 और सं. 13, पृ. 236 । 2.बिउप्रा पत्रिका, सं. 13, पृ. 243 । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 157 गुण है । प्राचीन और मध्यकालीन भारत के जीवन का यह प्रमुख लक्षण राजों की विरदावलियों में सुस्पष्ट है और इसी से शिलालेखों के अधिकांश भाग कि जो आधुनिक काल तक प्राप्त हुए हैं, भरे हैं, हम चाहे जितनी भी उदारता उन्हें देखें फिर भी हमें स्वीकार करना ही होता है कि ये सब प्रशस्तियां राज-कवियों या कृतज्ञ उपहार प्रापकों की उपज मात्र है जिनका लक्ष्य अपने प्रश्रयदाता का गौरवगान ही होता था न कि उसके राज्य का भावी संतति के लिए यथार्थ वर्णन प्रस्तुत करना। यह स्पष्ट है कि सफलताएं प्रतिरंजित की जाती थी और असफलताएं चुप्पी साध उपेक्षा कर दी जाती थीं । शिलालेखों और प्रशस्तियों के वक्तव्य बहुतांश में पूर्वग्रहों साक्षियों के ही हैं। और उनका हमें मूल्यांकन भी उसी दृष्टि से करना चाहिए यदि हम काल सुरक्षित ऐतिहासिक साक्षियों के इन कतिपय अंशों का सच्चा मूल्यांकन करना चाहते हैं। हाथीगुफा के शिलालेख में खारवेल की सफलताएं अतिरंजित हैं और सर आसुतोष भुकरजी के शब्दों में कहें तो "उड़ीसा के सम्राट खारवेल का कि जिसका नाम देश के इतिहास में से लुप्त हो कर एक दम विस्मृत ही हो गया था, हालांकि भारतवर्ष में ई. पूर्व की दूसरी सदी में ऐसा महा नगर कदाचित् ही कोई था कि जो उसके नाम ही से नहीं तो कम से कम उसकी शक्तिशाली सेना के दर्शन मात्र से ही कांपता था, पाषाण ही हमें पूर्ण ब्यौरे वार वृत्तांत प्रस्तुत करता है ।' "I जो भी हो, फिर भी इसमें संदेह नहीं है कि खारवेल अपने समय का एक प्रमुख व्यक्ति था और नैतिक दृष्टि से वह उतनी ऊंचाई पर पहुंच गया था कि वह सुरक्षित था, और जहां वह खड़ा था वहां से फिसलने का ही नहीं था। संक्षेप में वह अपने समय का महान् व्यक्ति था, जिसने अपनी महानता के अनेक प्रमाण उस समय दिए भी जब कि देव ने उसे भारतीय इतिहास की अव्यवस्थित और परीक्षात्मक घड़ी में इस महान् निर्देशन का अवसर प्रस्तुत किया। 1. अनु अध्याय 9, श्लो. 251; अध्याय 10 श्लो. 119 आदि । 3 2. बिउमा पत्रिका, सं. 10, पृ. 8 1 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्याय मथुरा के शिलालेख खारवेल का हाथीगुफा का शिलालेख उत्तर-भारत के जैन इतिहास का जैसे पहला भूमिचिन्ह है, मथुरा के जैन शिलालेखों से वैसे ही उस इतिहास के दूसरे युग के भूमिचिन्ह प्रारम्भ होते है। इन दोनों के बीच का अर्थात् ई. पूर्व 150 से 16 तक का समय एकदम कोरा है ऐसा मान लेना आवश्यक नहीं है क्योंकि कलिंग के जैन राजा के पश्चात् उससे भी अधिक सुप्रसिद्ध उज्जयिनी का विक्रमादित्य हुआ था जिसको जैन अपनी सम्प्रदाय का रक्षक मानते हैं। वहां प्राप्त प्राचीन लेखों की साक्षी के संक्षेप में सर्वेक्षण करने के पश्चात् कलिंग और मालवा के अतिरिक्त मथुरा के जैनधर्म की एक बड़ी बस्ती हो गई थी इसका विचार करेंगे। महावीर-निर्वाण समय की चर्चा करते हुए ई. पूर्व 57 या 56 में प्रारम्भ होनेवाले विक्रम संवत् का भी निर्देश किया जा चुका है। "विक्रमचरित' का जैन प्रतिसंस्करण कहता है कि जैन मुनि सिद्धसेन दिवाकर का उपदेश सुन कर, विक्रम ने अपनी प्रतिष्ठा वृद्धि के लिए सारी पृथ्वी को ऋणमुक्त किया, और (ऐसा करके) उसने वर्धमान के संवत् में परिवर्तन (जिससे परिवर्तन की सूचना हो) कर दिया। उसी से परवर्ती भारतवर्ष को अपना सर्व प्रथम अविचलित युग याने सम्वत् प्राप्त हुआ कि जो आज तक भी उत्तर-भारत का सामान्य युग या सम्बत् है । एड्गटन के शब्दों में 'मात्र जैनों का ही नहीं अपितु समस्त हिन्दुनों का अनेक सदियों से ऐसा विश्वास रहा है । यह महान् अवन्तीपति जिसके कि गौरवमय दिनों की और अतिमानवीय गुणों की जैन एवम् ब्राह्मण दोनों ही साहित्यों में विस्तार से कीति गाई गयी है, अपने को विक्रमादित्य जिसका व्युत्पन्न अर्थ 'पराक्रम में सूर्य समान होता है, कहने लगा । उसके परवर्ती अनेक राजाओं को यह विरुद इतना अधिक आकर्षक हुआ कि अनेक ने, उस महान् वंश से कुछ भी सम्बन्ध न रखने पर भी, अपने नाम के साथ यह विरुद लगा लिया । इससे प्रतीत होता है कि प्रथम विक्रमादित्य अवश्य ही एक अति महान् राजा होना चाहिए क्योंकि ऐसा नहीं होता तो इस विरुद का इतना अधिक प्राकर्षण किसी को हो ही नहीं सकता था। यह वही विक्रमादित्य है कि जिसे जैनों के कथा-साहित्य में जैन कहा गया है। उसके पूर्वज गर्दा मल्ल के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि महान् जैनाचार्य कालकसूरि ने, अपनी भगिनी साध्वी के उसके द्वारा अपहरण किए जाने से अपमानित हो कर, सिथियन राजों में से एक को अपने पक्ष में किया और उसकी सहायता से उनने 1. एडगर्टन, विक्रमाज एडवेंचर्स, भाग 1, प्रस्ता. पृ. 58 । देखो प्रबन्ध चिन्तामणि, पृ. 11 आदि; शतुजय महात्म्य, सर्ग, 14, गाथा 103, पृ. 8081 2. एड्गर्टन, वही, प्रस्ता. पृ. 59। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 150 सफलता पूर्वक इस अपमान का बदला लिया । डा. शार्पटियर कहता है कि यह दन्तकथा ऐतिहासिक रस की माई REPREETTER तनिक भी नहीं हो सो बिलकुल बांत नहीं है क्योंकि इसमें यह उल्लेख है कि कैसे जैनाचार्य कालक, उज्जैन के राजा गर्दीमल्ल द्वारा जो कि, अनेक दन्तकथाओं के अनुसार सुप्रख्यात विक्रमादित्य का पिता था, अपमानित किए जाने पर उससे प्रतिशोध लेने की दृष्टि से शकों के देश को जिसका कि राजा साहानसाही' कहलाता था, गए। यह विरुद्ध, ग्रीक और भारतीय रूपों में, निश्चय ही पंजाब के शक राजों मौएस एवम् उसके उत्तराधिकारियों द्वारा जो कि इस युगे के हैं, वहन किया जाता था। उनके उत्तराधिकारी कुषाण राजों के सिक्कों पर शामोनानो शामो रूप में यह वस्तुत, पाया जाता है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा उचित ही है कि दंतकथा किसी अंश में अवश्य ही ऐतिहासिक है। जो भी हो, कथा आगे चल कर कहती है कि कालक ने कितने ही शक सत्रपों को उज्जैन पर चढ़ाई और गर्दीमल्ल वंश का उच्छेद करने को तैयार कर लिया। परन्तु उसके कुछ वर्ष बाद ही उसके पुत्र विक्रमादित्य ने आक्रामकों को वहां से निकाल भगाया और अपने पूर्वजों की गद्दी फिर से प्राप्त कर ली। इस दन्तकथा का ऐतिहासिक आधार क्या है यह सर्वथा अनिश्चित है । सम्भव हो कि इसमें ई. पूर्व पहली सदी में हुए पश्चिमी भारत में सिथियन राज्य की घुघली स्मृति ही हो। तथ्य जो भी हो, परन्तु यह जैनों का उज्जैन के साथ सम्बन्ध का निःसन्देह एक और प्रमारण प्रस्तुत करता है। यही बात उनके विक्रम संवत् के प्रयोग से भी कि जो मालवा देश में जिसकी कि राजघानी उज्जैन थी, प्रचलित हुअा था, सूचित होती है। जैनाचार्य कालक के सम्बन्ध में दूसरी बात यह कहने की है कि वे दक्खन के प्रतिष्ठानपुर के राजा सातयान के पास भी गए थे। राजा इन्द्रमहोत्सव के कारण भाद्र शुक्ला पंचमी को पयूषण' जैन वर्ष की समाप्ति का धार्मिक पर्व में भाग लेने में अशक्त था । अतः गुरू ने एक दिन पूर्व याने भाद्र शुक्ला चतुर्थी को वह पर्व उसके लिए मनाया। तभी में समस्त जैन समाज चौथ का सम्वत्सरी व्रत करने लगा हालांकि परवर्ती काल में बहुत वर्षों के बाद अनेक गच्छों के उद्भव होने के कारण यह चौथ उसी माह की पंचमी में फिर से बदला गई है। यह घटना यदि सत्य 1. कालिकाचार्य-कथा, गाथा 9-40, पृ. 1-4 । देखो कोनोव, एपी. इण्डि., पुस्त. 14, पृ. 293 । 'गर्दीमल्लो च्छेदक कालकसूरि वीरात् 453 में हुए थे ।'-क्लाट, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 1!, पृ. 251 । देखो वही, पृ. 24738 शाटियर, कहिइं, भाग 1, पृ. 168; श्रीमती स्टीवन्मन, वही, पृ. 75, मैसूर आकियालोजिकल रिपोर्ट, 1923, पृ. 11। 2. वशीकृतः सरिवरः स साहि ।-कालकाचार्य-कथा, गाथा 26, पृ. 2; साहानसाहिः स च मण्यतेर्डत्र । --वही, गाथा 27, पृ. 3 । देखो... । जैन ग्रंथ कालकाचार्य-कथानक में कहा है कि उनके राजा साही कहे जाते थे।' रायचौधरी, वही, पृ. 274; याकोबी, जेडडीएमजी, सं. 34, पृ. 262 । देखो कोनोव, वही, पृ. 293 । 3. उस (विक्रमादित्य) ने राष्ट्र और हिन्दूधर्म, सिथियनों को पूर्णतया हराकर, की रक्षा की कि जिनका राजनीतिक महत्व और विदेशीय प्राचार-विचार भारतवासियों को अखर रहा था। मजुमदार, वही, पृ. 63 । देखो वही, पृ. 638 भी । 'विक्रमादित्य ने शकों को निकाल भगाया एवं राजा बन गया, जिसके पश्चात् उसने अपना ही युग याने सम्वत् प्रवर्तन किया ।'-कोनोव, वही और वही स्थान । 4. शार्पटियर, वही और वही स्थान । 5 ततश्चतुथ्यां क्रियतांनपेण, विज्ञप्तमेयं गुरूणा नुमेने :-कालकाचार्य-कथानक, गा. 54, पृ. 5 । देखो श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 76 । जैसा कि क्लाट कहता है इसका समर्थन तपागच्छ पट्टावली से भी होता है (इण्डि. एण्टी., पुस्त. 9, पृ. 251) । पक्षान्तर में खरतरगच्छ पट्टावली में कहा है कि कालक जिनने पर्दूषणा पर्व तिथि में परिवर्तन किया, वीरात् 993 में हुए और यह कि इनके पूर्व इसी नाम के दो प्राचार्य और हो चुके थे जिनमें से एक वीरात् 453 में हुए और यही गर्दीमल्ल ने सम्बन्धित थे।'-इण्डि, एण्टी., पुस्त. 11, पृ. 247 । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] हो तो दो दृष्टियों से महत्व की है । एक तो वह दक्षिण में श्वेताम्बरों का सम्बन्ध बताती है और दूसरे दक्षिा के ऐसे जैन राजा का वह उल्लेख करती है कि जिसका कालकाचार्य जैसे महान् गुरू तक इतना मान रखते थे और जिसका पज्जूषण जैसे महान् जैन धार्मिक पर्व की तिथि परिवर्तन कराने में प्रमुख भाग था।' गर्दीमल्ल के उत्तराधिकारी विक्रमादित्य का विचार करते हुए जनों के उल्लेखों से हमें पता चलता है कि जन साहित्य के इतिहास में प्रखर ज्योतिधर श्री सिद्धसेन दिवाकर उसके दरबार में उस समय रहते थे और उन्हीं ने महान् राजा विक्रम को और श्रीमती स्टीवन्सन के अनुसार 'कुमारपुर के राजा' देवपाल को भी । जैनधर्मी बनाया था, इसी समय के लगभग दो और घटनाएं भी घटित हुई कही जाती हैं। पहली तो यह कि मरूच में जैन साधू स्नामक वादी आर्य खपुट द्वारा बौद्धों की वाद में हार । और दूसरी यह कि जैनों के परम पवित्र श'तुजय तीर्थ के पास पालीतारणा नगर की स्थापन यावसाहर । खरतरगच्छ पट्टावली कहती है कि महावीर के पाट से सोलहवें श्री वनस्वामी (वी.सं. 496-584) ने दक्षिण की ओर बौद्धों के प्रदेश में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया था । पालीतारणा स्थापना की दूसरी घटना का सम्बन्ध पादलिप्ताचार्य से है जो कि विक्रम महान् को समकालिक थे ।' जनों के अनुसार पादलिप्ताचार्य को आकाशगामिनी विद्या सिद्ध थी। इस पर टिपण करते हुए श्रीमती स्टीवन्सन कहती है कि "शत्रुजय की स्थापना एक जैनाचार्य ने की थी कि जिनमें आकाशगामिनी विद्या थी और जिनके एक शिष्य कोसुवर्णसिद्धि प्राप्त थी। इन दो शक्तियों के प्रभाव से वहां संसार का अद्वितीय मन्दिर नगर बस गया।" इस तीर्थ के सम्बन्ध में खरतरगच्छ पट्टावली में कहा है कि वीरात् 570 में वह जीर्ण हो गया था और विक्रम के समकालिक 1. राजा सातयान पक्का जैन था, यह कालकाचार्य-कथा (गाथा 50-54, पृ. 4-5) से यद्यपि स्पष्ट है परन्तु वह कौन था, इसका कुछ भी पता नहीं है । प्रतिष्ठानपुर सातवाहनों की पश्चिमी राजधानी थी, इससे हम अवगत हैं । जैन दन्तकथा इस वंश के राजा हल को भी जनी ही कहती है । देलो ग्लसन्यप डेर जैनिस्मस, पृ. 533; झवेरी, निर्वाणकलिका प्रस्तावना पृ. 11 । 2. देखो, श्रीमती स्टीवन्सन, वही और वही स्थान । 3. उस (सिद्धसेन दिवाकर) ने विक्रमादित्य को वीरात 470 में जैनधर्मी बनाया था। -"क्लाट, वही, पृ. 247 । देखो वही, पृ. 251; एड्गटन, वही, पृ. 251 आदि; श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 77; टानी, वही, पृ. 116 आदि; मैसूर आकियालोजिकल सर्वे, 1923, पृ. 101 4. विद्यासिद्धा प्रार्यखपुटा प्राचार्या:...मगुकच्छे...बुद्धो निर्गतः, पादयोः पतितः । -पावश्यक सूत्र पृ. 411-4121 देखो झवेरी, वही और वही स्थान। 5. देखो वही, प्रस्ता. पृ. 19%; श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 77-78 । 6. देखो क्लाट, यही, पृ. 247; हेमचन्द्र, परिशिष्टपर्वन्, सर्ग 12, श्लोक 311, 388; आवश्यक सूत्र, पृ. 295 । 7. क्लाट, वही, पृ. 247, 251 । “(पादलिप्त) पालितसूरि पालीतारणा को नींव से निःसन्देह सम्बन्धित हैं। झवेरी, वही, वही स्थान। 8. पादलिप्त ने पैरों में प्रौषधि लगाकर उड़ने की यह गगनवाहिनी विद्या प्राप्त की थी और वे रोज शत्रुजय, गिरनार या रेवतगिरि सहित पांच तीर्थो की यात्रा किया करते थे । -वही प्रस्ता. पृ. 11। देखो टानी, वही, पृ. 1951 १.श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 78, टिप्पण.1। "नागार्जुन...पादलिप्तसूरि का शिष्य...स्वर्णसिद्धि प्राप्त करने को प्रयत्नशील था..मादि -झवेरी, वही, प्रस्ता:पृ.12 1 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायड़ के पुत्र जागड़ ने उसका उद्धार कराया था। जैन दन्तकथानुसार यह राजा और जाव दोनों पालीताणा यात्रा के लिए गए और दोनों वहां रहे उस भर्ती में उनने शीघं की रक्षा के लिए बहुत मन खर्च किया था।" दक्षिण के साथ श्वेताम्बरों के सम्बन्ध के विषय में कालक की भांति ही पदालिप्त की भी गणना होना चाहिए । हरिभद्रसूरि की सम्यात्वसप्तति में लिखा है कि ये महान् प्राचार्य मान्यखेट गए थे । और इन सब स्थानों में 'सद्गुणों सम्पन्न जैनसंघ' थे। इस प्रकार पादलिप्त और कालक की दन्तकथाएं स्पष्टतः सूचित करती हैं कि ई. पूर्व पहली शती में दक्षिण में श्वेताम्बर जैनों की ही प्रमुखता थी। * सम्यात्वसप्तति के अनुसार प्रतिष्ठानपुर का राजा शालिवाहन पादलिप्त को 'सब बुरी धार्मिक पद्धतियों' का धन्त कर देने वाला कहता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि शालिवाहन भी पादलिप्त के ही सम्प्रदाय का याने श्वेताम्बर जैन होना चाहिए ।" विक्रम समय की इन सब बातों को विचार करते हुए कहा जा सकता है कि ये सब बहुतांश में पट्टावलियों पर ही आधारित है जो कि "बहुत कुछ काल्पनिक और सदिग्ध है और जनसंघ के आधुनिक गच्छों या उपभेदों द्वारा सुरक्षित रखी गई हैं।"" इसके सिवा इनका आधार वह साहित्य भी है जो उस काल का रचित है जिसकी हमारी प्रतिपाद्य प्रवधि से जरा भी मेल नहीं है। देखने की बात यह है कि इन सब संयोगों पर से क्या हम ऐसे निश्चय पर पा सकते हैं कि जैन दन्तकथा एकदम निराधार है और यह कि मध्यकालीन भारत के तथा कथित प्रख्यात वीरों में का यह विक्रमादित्य एकदम दन्तकथाओंों का ही राजा है ? [ 161 इस सम्बन्ध के भिन्न-भिन्न विद्वानों के मन्तव्यों की यथासम्भव सूक्ष्म परोक्ष एड्गर्टन ने अपने ग्रंथ 'विक्रम्स एडवेंचर्स" की प्रस्तावना में की है । उन मन्तव्यों के निरसन में प्रस्तुत किए इस विद्वान के तर्कों की पुनरावृत्ति किए बिना ही यह कहना पर्याप्त होगा कि विक्रमादित्य की बात अनेक व्यक्तियों के सम्बन्ध में निश्चय पूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा अभिलेखों या सिक्कों सेवारा निर्विवाद है । कोई भी कारण नहीं है कि "इस हिन्दू प्रार्थर राजा " - सच्चे राजा के लिए अनुकरणीय आदर्श की सत्यता में अविश्वास किया जाए जब कि उसका साधार "जैन और ब्राह्मण दोनों ही ग्रन्थों" में है। एड्गर्टन के शब्दों में कहा जा सकता है कि "ऐसा लगता है कि जैन युवप्रधानाचार्यों की सूचियों को अलग रख दे तो भी प्राचीन भारत की सकता है हालांकि उनकी ऐतिहासिकता 1. जावड़, सौराष्ट्र के एक व्यापारी ने चीन और पूर्वी द्वीप समूहों को एक जहाजी बेड़ा भेजा था जो बारह वर्ष बाद सुवर्ण से लदा हुया लौटा था जावद का पिता विक्रम का समकालीन वा...।" मजुमदार, वही, पृ. 65 1 देखो शत्रु जय माहात्म्य, सर्ग 14, गा. 104, 192 आदि, पृ. 808, 816 आदि; झवेरी, वही प्रस्तावना पृ. 19 । 2. देखो शत्रुज्य माहात्म्य सर्ग 14, गाथा 280 पृ. 824 3. मान्यसेट या मान्यक्षेत्र प्राज का मालाखेड़ा ही कहा जाता है जो कि निजाम राज्य में है । देखो ज्योग्राफिकल डिक्षिनेरी, पृ. 1261 यह मालाखेड़ा या मान्यखेट जहां पादलिप्तसूरि गए थे, परवर्ती सदियों में राजधानी रूप से प्रख्यात हो गया था कि जिनमें जैनधर्म के संरक्षक और मानने वाले राजा कुछ ही 4. यवत्वसप्तति श्लोक 96, 97 देखो मैसूर साकियालोजिकल रिपोर्ट 1923, पृ. 10-11 अधिकांश समय पादलिप्तसूरि मानलेटपुर में ही रहे थे।" झवेरी, वही, प्रस्ता. पृ. 10 देवो मैग्रारि 1923, पृ 11 भवेरी वही प्रस्ता. पृ. 11 5. सम्यक्त्वसप्तति गाथा 158 6. शार्पेटियर, वही, पृ. 1671 7. एड्गर्टन, वही, प्रस्ता. पृ. 58 आदि राष्ट्रकटों की नहीं थे । "जीवन का Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] याने पट्टावलियों भारतीय इतिहास के अन्य साधनों जितनी ही सस्य और विश्वस्त हैं ऐसा कहना निःसन्देह अतिशयोक्तिक नहीं माना जाना चाहिए)...मुझे यह ज्ञात नहीं है कि जैनों के इतिवृत्तों को बिलकुल ही अमान्य कर देने का कोई भी निश्चित और सुस्पष्ट कारण है और यह सुस्पष्ट कह देने का कि विक्रम नाम का कोई राजा ई. पूर्व 57 वर्ष में हुआ ही नहीं था। क्या हम उस सदी का इतिहास पर्याप्त जानते हैं कि जिससे हम यह कह सकें कि मालवा को स्थानीय उन नामों में से किसी भी नाम के राजा ने कि जिनसे विक्रम पहचाना जाता है, मध्यभारत में अपना राज्य इतना व्यापक नहीं कर लिया होगा (हालांकि हिन्दू अतिशयोक्तियां उसे सार्वभौम चक्रवर्ती ही मानती हैं परन्तु वैसा सर्वभौम उसे स्वीकार करने की हमें जरा भी आवश्यकता नहीं है ?"। एड्गर्टन के सिवा अन्य विद्वान जैसे कि हूलर और टानी भी जैन इतिवृत्तों की ऐतिहासिकता की रक्षा करते हैं । डॉ. व्हूलर कहता है कि "विशेषरूप से यह स्वीकार करना ही चाहिए कि प्राचीन और हाल की वर्णनात्मक कथानों की व्यक्तियां यथार्थ ही ऐतिहासिक हैं। यद्यपि कभी कभी ऐसा भी हना है कि कोई व्यक्ति जिम समय वह हुमा उससे पूर्व अथवा परवर्ती काल में रख दी गई हो और उसके विषय में कितनी ही एकदम असंभवसी बातें कह दी गई है, फिर भी ऐसी बात कोई नहीं है कि जिससे हम निश्चयता से यह कह सकें कि इन वृत्तों में उल्लिखित व्यक्ति एकदम काल्पनिक ही है। पक्षान्तर में, प्रत्येक प्राप्त होने वाला नया शिलालेख प्रत्येक प्राचीन पुस्तक संग्रह और प्रत्येक यथार्थतः ऐतिहासिक ग्रन्थ जो प्रकाश में आता है, उनमें वरिणत एक या दूसरे व्यक्ति के अस्तित्व का समर्थन ही मिलता है। इसी प्रकार उनकी दी हुई तिथिया भी हमारी विशेष सावधानी की अपेक्षा रखती हैं। इस वर्ग के दो ग्रन्थों से उनका जब समर्थन हो जो कि एक दूसरे से बिलकुल ही स्वतन्त्र हैं तो बिना हिचकिचाहट के उन्हें ऐतिहासिकरूप से सत्य मान लेना ही उचित है।" डॉ. स्टेन कोनेव तो इससे भी बढ़कर कहता है कि "विक्रम की दन्तकथाओं के प्रति अब विद्वान न्यून उपेक्षा रखने वाले होते जा रहे हैं। वह महान् सन्त 'कालकाचार्य-कथानक' को और उसके अजमानादि की बातों का उचित ही स्वागत करता है । उसके शब्द ही इस सम्बन्ध में उद्धृत करना ठीक है। वह कहता है कि "मैं जानता हूं कि अनेक यूरोपीयन विद्वान, यद्यपि उनमें से अधिकांश भारतीय दन्तकथा को ससम्मान वर्णन करते हैं, फिर भी सामान्यतया उनका कोई विचार ही नहीं करते हैं । परन्तु ऐसा उनके करने का कारण मेरी समझ में ही नहीं आता है। कालकाचार्य-कथानक के वृत्तांत को अविश्वास हम करें इसका मुझे कोई भी कारण नहीं मालूम देता है । मैं ने अन्यत्र यह सिद्ध किया है कि प्राचीन काल में मालवा में राजा विक्रमादित्य का होना मानने के हमारे सामने अनेक कारण हैं," अादि ।' इस प्रकार शार्पटियर, एड्गर्टन, हूलर, टानी और स्टेन कोनोव के प्रमाणानुसार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जनों का दन्तकथा साहित्य ऐतिहासिक माने जाने का यथार्थतः अधिकारी है, और विक्रम और उसके सम्वत् की वास्तविकता अस्वीकृत नहीं की जानी चाहिए। विसेंट स्मिथ का आधुनिकतम मत भी कुछ ऐसा ही है क्योंकि वह कहता है कि "ऐसा कोई राजा हा हो, यह सम्भव है। फिर, जैसा कि हम पहले ही देख आए हैं, अवन्ती अथवा मालवा का राज्य महावीर के दिनों में भी जैनधर्म का केन्द्र रहा था। मौर्यों के समय में वह और भी अधिकाधिक प्रागे पाया और अन्त में उनके अन्तिम दिनों के पश्चात जैन जैसे धीरे-धीरे मगध राज्य 1. वही पृ.64 । 2. म्हूलर, उबेर डास लेबेन ड्रेसजैन-मूकस हेमचन्द्र पृ. 6। देखो टानी, वही, प्रस्ता. पृ. 6-7; वही, पृ. 5 प्रादि । 3.कोनोव, वही, पृ. 29414.स्मिथ माक्सफर्ड हिस्ट्री प्राफ इण्डिया, 1511 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से अपना स्थान खाते गए, वैसे ही भारत के पश्चिमी प्रदेशों में प्रवासी होते गए जहाँ वे स्थायी रूप से बस गए और उनकी वह बसाहट वहां प्रांज तक कायम है। इसमें सन्देह नहीं कि उत्तर भारत के जैनधर्म के उस काल के इतिहास में कलिंग का अपना ही खास योगदान है, परन्तु फिर भी जैनों की तब सामान्य वृत्ति पश्चिम की ओर हो गई थी और ई. पूर्व दूसरी सदी के मध्य से जिस दूसरे स्थान में जैनों की बस्ती सुदृढ़ जम रही थी, वह मथुरा था । चन्द्रगुप्त के दिनों में और उसके पश्चात् सम्प्रति और खारवेल के दिनों में भी जैनों का फैलाव साधारण रूप से वीर्यवान रहा हो ऐसा लगता है। इन महान् सम्राटों के धार्मिक दृष्टिकोण और भावों की बात जाने भी दें तो भी जैनों के असाधारण वीर्यवान प्रसारण की साक्षी हमें उन अनेक जैन कुलों और शाबा में मिलती है कि जिनके जनसंघ में होने का हमे ई. पूर्व लगभग दूसरी सदी से प्रारम्भ होने वाले की तिथियों के मथुरा के शिलालेखों से परिचय मिलता है । मथुरा के ये शिलालेख हमें उत्तरी भारत के इण्डोसिथियन राज्य काल तक ले पाते हैं। हम यह तो देन ही पाए हैं कि चन्द्रगुप्त ने अपने को मेसीडोनी जुड़े के नीचे कराह रहे. उन भारतीयों का नेता बना लिया था और ये डर के प्रत्यागमन पश्चात् उसकी सेना को हरा कर भारत के गले पर से "दासता का वह जुड़ा " दूर फैक दिया था । अल्यैक्जेण्डर के प्रत्यागमन पश्चात् ही देश में कैसी घटनाएं घटी इसका स्पष्ट परिचय हमें नहीं है । "महान् प्रत्येक्जण्डर की मृत्यु के पश्चात् तुरन्त ही भारत की घटनाओं ने क्या मार्ग लिया था उस पर अंधकार का पनाकोहरा छाया हुआ है। फिर भी इतना तो निश्चित ही है कि उसकी मृत्यु के लगभग एक सदी पश्चात् तक मौर्य सम्राटों की सुद्ध बाहुयों ने भारत को भारतियों के लिए सभी प्राक्रान्तों से बचाए रखा बा और उनके पवन पड़ोसियों के साथ भी समान वर्ताव ही किया गया था । " 163 मौयों के पश्चात् गम का ब्राह्मण युगों का राजतन्त्र और उत्तर-पश्चिम का ग्रीक तंत्र खारवेल के नेतृत्व में हुए चेदियों के प्रचण्ड प्राक्रमणों के सामने झुकते जा रहे थे, यह हम देख प्राए हैं। डिमेट्रियस और युक्रेटिडस की प्रापसी लड़ाइयों में ग्रीक शक्ति को कितनी निर्बल बना दिया था कि यह भी हम उल्लेख कर चुके हैं। बैक्ट्रिया के यवनों के अन्य भारतीय दुश्मनों का और सुरंगों के विरुद्ध किए सातवाहनों के प्रचण्ड श्राक्रमणों का विचार करने का हमारा कोई इरादा नहीं है । परन्तु इतिहास की सलगता की दृष्टि से इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि 'ई. पूर्व दूसरी और पहली सदी में काफिरस्तान और गंधार के भागों में यवनों का राज्य उत्थापित होकर उसके स्थान में शकों का राज्य स्थापित हो गया था । * रेप्सन के शब्दों में भारत की राजनैतिक विच्छता, मिथि पनों द्वारा ई. पूर्व लगभग 135 में बैक्ट्रिया की विजय से और रोम एवम् पार्थिया के लम्बे संघर्ष से जिसका कि प्रारम्भ ई. पूर्व 53 में हुआ था समाप्त हो चुकी थी । " इन शक राजों में के एक मुरण्ड नाम के राजा के साथ पादलिप्फाचार्य का प्रगाढ़ परिचय था जैनों के दन्तकथा साहित्य के अनुसार यह मुष्ठ पाटलीपुत्र का राजा हो ऐसा लगता है । उसके दरबार में पादल्पित का प्रभाव पूरा-पूरा जमा हुआ था ।" इस महान् प्राचार्य ने इस 1. देखो शार्पेटियर, वही श्रोर वही स्थान 2. मॅकडोन्येल्ड, केहि भाग 1, पु. 427 3. देखो मिच, पर्ली हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया, पृ. 253 1 4. रायचौधरी, वही, पृ. 2731 5. रेम्सन, केहि भाग 1, पृ.60 1 6. पाटलीपुरे... राजास्ति मुरण्डो नाम...स... हुतान्तः करणां नृपः सूरेबलिस्य प्रादानां प्रणानेच्छु रवेरिव ।'प्रभावकचरित पादलिप्तप्रबंध, श्लोक 44 61 देखो सम्यक्त्व सप्तति, गाया 48; मंधारि, 1923, पृ. 11 झरी. वही, प्रस्ता. पृ. 80 1 " Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] राजा की भयंकर शिरपीड़ा को शांत किया था प्रभावकचरित नामक ग्रन्थ में इस घटना का इन शब्दों में वर्णन किया गया है ' पादलिप्त ज्यों ही अपनी अंगुली उसके घुटने पर लगाते हैं कि तुरन्त ही राजा मुरण्ड की शिरोवेदना दूर हो जाती है।" बैक्ट्रिया के सिथियन (शक) प्राक्रामकों के बाद यूथो पाए। जब ई. पहली सदी में इन यूचियों के प्रमुख कबीलों, कुषाण, ने तुर्किस्तान और बैक्ट्रिया सहित उत्तर-पश्चिम भारत तक अपना साम्राज्य विस्तार कर लिया तो यह कुषाण साम्राज्य भारत और चीन के बीच में शृंखला रूप हो गया और प्रापसी व्यवहार का एक सफल साधन भी वह बना जिसका परिणाम लाभप्रद ही हुआ। पिछले कुछ वर्षों की खोजों ने प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय संस्कृति, भारतीय भाषा और भारतीय प्रक्षर चीनी तुर्किस्तान में स्थापित हो गए थे । और ता. चि. महत्ता के शब्दों में फिर कहें तो चीनी तुर्किस्तान के गुहा मन्दिरों के चित्र कार्य में जैन विषयों का उपयोग किया गया है। भारतीय सामान्य इतिहास की इस रूपरेखा के बाद मथुरा के शिलालेखों की ओर हम पाएं पोर जैनधर्म के साथ उनके सम्बन्ध के महत्व की परीक्षा करे । कनिंथम के निम्न शब्दों की अपेक्षा उनका ऐतिहासिक महत्व दूसरा कोई भी अच्छी तरह से नहीं बता सकता है:-इन शिलालेखों से मिलने वाले तथ्य भारतीय प्राचीन इतिहास के लिए विशेष महत्व के हैं। इन सह लेखों का सामान्य अभिप्राय एक ही है याने अमुक व्यक्तियों द्वारा अपने धर्म की प्रतिष्ठार्थक लिए, और अपने एवम् अपने माता-पिताओं के लाभार्थं दिए दानों भेटों का अभिलेख करना। जहां शिलालेख केवल इस साधारण बात का ही विज्ञापन करता हो तो उसका कुछ महत्व नहीं होता, परन्तु जब इन मथुरा के अभिलेखों में, जैसा कि अधिकांश में देखा जाता है, दाताओं ने उस काल में राज्य करते राजा का नाम, दान देने की तिथि और सम्वत् दे दिए हैं. वहां ये नष्ट इतिहास के रूपरेखा पृष्ठों की वस्तुतः उतनी ही पूर्ति कर देते हैं। जो सीधी सूचना इनसे प्राप्त होती है, वह एक प्राचीन एवम् अति महत्व के युग की याने ईसवी सन् " के प्रारम्भ के कुछ ही पूर्व और परवर्ती काल की है जब कि, जैसा कि हम चीनी प्राधारों से जानते हैं, भण्डोसिथियनों ने समस्त उत्तर भारत को जीत लिया था हालांकि उनके विजित क्षेत्र का विस्तार बिल्कुल ही प्रज्ञात है । इसलिए इन उपलब्ध शिलालेखों का महत्व यह है कि हमें इनसे पता लगता है कि मथुरा पर स्थाई अधिकार सम्वत् 9 के कुछ ही पूर्व हो गया था जबकि झण्डो- सिथियन राजा कनिष्क उत्तर-पश्चिमी भारत वर्ष और पंजाब पर राज्य करता था ।" - मथुरा के अनेक जैन शिलालेख कंकाली टीले से ही प्राप्त हुए हैं जो कि कटरा से आधी मील दूर दक्षिण में है। कटरा मथुरा के पुराने किले से पश्चिम की घोर एक मील पर है। यह कंकाली टोला बहुत फैला हुआ रहा हो ऐसा लगता है। इससे प्राप्त हुई सभी ग्राकार बड़ी से बड़ी औरउससे छोटी की मूर्तियों की सख्या को जेल टेकरी से प्राप्त बौद्ध मूर्तियों की संख्या हालांकि वे भी बहुत है फिर भी, नहीं पहुंची है । 4 आज जहां वह टीला है, 1. प्रभावक चरित, श्लोक 59 | देखो सम्यक्त्व - सप्तति, गाथा 62; मैश्रारि, 1923, वही और वही स्थान | 2. मथुरा के वध के शिलालेख भी नी घोर विषय में जैनों के शिलालेखों जैसे ही हैं पत्रिका (नई माला). सं. पू. 182 3. कनिधन, आसई, पुस्त. 3, पृ. 38-39 । देखो डासन, राएसो 4. देखो वही, पृ. 46 । "कंकाली टोला क्या तो मूर्तियों में और क्या शिलालेखों में बहुत ही उर्वर रहा है और ये सब... विशुद्ध जैन स्मारक है। ऊंचाई की भूमि पर एक बड़ा जम्बू स्वामी का उत्सगित जैन मन्दिर है... वही, पृ. 191 यह मन्दिर चौरासी टीले के निकट है कि जो देखो वही पुस्त. 17 पू. 112 1 उस स्थान पर वार्षिक मेला लगा करता है... स्वयम् एक अन्य जैन स्थापत्य का स्थान है।" Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 165 वहां किसी समय दो भव्य मन्दिर रहे होंगे। अनेक लेख तो खड़ी और बैठी नग्न मूर्तियों के पादपीठ पर खुदे हुए हैं, जिनमें से कुछ मूर्तियां चोमुखी यानि चतुर्मुख हैं। डॉ. हूंलरे के अनुसार नीचे का लेख उनमें प्राचीनतम है। समनस माहरखितास प्रांतेवासिस वछीपुत्रस सावकास (स्रावकास) उत्तरदासक पासादोतोरनं ।। "महारखित (माघरक्षित) मुनि के शिष्य, वछी के पुत्र (वात्सी माता पौर) श्रावक उत्तरदासक (उत्तरदासक) के मन्दिर के उपयोग के लिए प्रासाद तोरण (भेट)।"' एक दम प्राचीन अक्षर और अन्य भाषायी विशिष्टतानों के कारण वह विद्वान मानता है कि यह लेख इसवीं पूर्व दूसरी शती के मध्य का होना चाहिए। इसके परवर्ती काल में वे दो शिलालेख पाते हैं कि जिनका सम्बन्ध मथुरा के सत्रपों से है। इनमें से एक तो पूर्ण है और दूसरा 'भा' से प्रारम्भ होने वाले किसी क्षत्रप महाराज का नाम मात्र देता है। पहला शिलालेख महाक्षत्रप शोडास के 42वें वर्ष और हेमन्त ऋतु के दूसरे महीने का है। इसमें पामोहिनी नाम की किसी स्त्री के पुजा की शिला उत्सगित कराए जाने का उल्लेख है । इस लेख में किस सम्वत् का उपयोग किया गया है, यह स्पष्ट नहीं है। ___ कंकाली टीले के इसी राजा के नाम वाले दूसरे शिलालेख पर से महाक्षत्रप शोडास का पता सबसे पहले कनिधम ने खोज निकाला था । अाजेज (Azes) के सिक्कों से मिलते जुलते इसके सिक्कों पर से उस विद्वान ने इसका समय लगभग 80-57 ई. पूर्व माना था और यह अनुमान लगाया था कि वह मथुरा के दूसरे क्षत्रप राजुबल अथवा रंजुबल का ही पुत्र हो। इस अनुमान का समर्थन मथुरा के सिंहध्वज से भी होता है कि शोडाम को छत्रव (क्षत्रप) और महाछत्रव राजूल (रंजुदुल) का पुत्र कहता है। प्रो. रेप्सन कहता है कि “महा क्षत्रप राजूल, जिसका दूसरे लेखों में राजुबल नाम भी मिलता है, निःसंदेह ही वह रंजुबुल है कि जिसने पूर्व पंजाब में राज्य करते हए यवनराज स्ट्रेटो । म और स्ट्रेटोश्य की नकल शत्रप और माहशत्रप नाम से सिक्के पाड़े थे । वह शोडास का पिता था कि जिसके समय में इस स्मारक का निर्माण हुअा था। इसके बाद मथुरा की अमोहिनीवाली शिला में शोडास स्वयम् महा क्षत्रप रूप से उल्लिखित है और उसका समय 42 वें वर्ष की हेमन्त ऋतु का दूसरा महीना है।" शिलालेख में किस संवत् का उल्लेख हया है इस सम्बन्ध में मत विभिन्नता है; परन्तु जिस शैली से इसमें तिथि दी गई है उससे यह बहुत ही सम्भव प्रतीत होता है कि उसमें किसी भारतीय संवत् का ही प्रयोग हुआ है।" यदि यह मान्य हो, जैसा कि सम्भव लगता है, तो वह विक्रम संवत् ही (ई.पूर्व 57) है, और इसलिए शिलालेख 1. व्हूलर, एपी. इण्डि., पुस्त. 2, लेख सं. 1, पृ. 198-199। 2. वही, पृ. 1951 3. देखो हूलर, एपी, इण्डि., पुस्त. 2, लेख सं. 3, पृ. 1991 4. देखो वही, लेख 2, पृ. 1991 5. देखो कनिधम, वही, पृ. 30, लेख सं. 1 । 6. देखो वही, पृ. 40-41 | "रंजुल, रजुवुल या राजूला का परिचय शिलालेखों और सिक्कों दोनों से ही मिलता है। मथुरा के निकटस्थ मोरा के ब्रह्मी अक्षरों के एक शिलालेख में उसे महाक्षत्रप कहा गया है। परन्तु ग्रीक दन्तकथा उसके कुछ सिक्कों पर उसे 'राजों का राजा, रक्षक' कहती हुई यह बताती है कि सम्भवतः उसने अपनी स्वतन्त्र सत्ता घोषित कर दी थी।" -रायचौधरी, वही, प. 283 । 7. वही। 8. रेप्सन, कहिइं, भाग 1, पृ. 575 । 9. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 283 प्रादि: स्मिथ, वही, पृ. 241, टि.1। 10. देखों रेप्सन, वही, पृ. 575-5761 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166] की तिथि ई. पूर्व 1,6-15 होना चाहिए डा. क्रोनोव ने शोडास के मिलालेख में विक्रम संवत् उल्लिखित किए जाने के वास्तविक काररण दिखाए हैं । ' उसका कहना है कि 'मुझे लगता है कि उस समय तक चार महीनों की एक ऋतु और तीन ऋतुनों के अनुसार तिथि देने की पद्धति ही बाद में विक्रम संवत् का खास लक्षरण माना जाने लगा था। प्राचीनतम शिलालेखों से जिनमें कि इस संवत् का उल्लेख है. सूचित होता है कि वह मालव सम्वत् कहा गया है। इस सम्बद के प्रयोग के दो प्राचीनतम उदाहरण याने नरवर्मन काल के मन्दसोर के और दूसरे कुमारगुप्त 1म काल की वहीं के लेख में ऋतुए स्पष्ट रूप से दी गई हैं। इस प्रकार मैं मानता हूं कि शोडास ने अपने शिलालेख में विक्रम संवत का ही व्यवहार किया है और यही सम्बत् कनिष्क और उसके वंशजों ने समस्त भारत वर्ष की अपनी तिथियों के लिए स्वीकार किया है क्योंकि प्रजाकीय गणना के लिए उत्तर भारत में वही सम्वत् व्यवहृत होता था । 2 इन दो क्षत्रप शिलालेखों के बाद वैसे नीचे वर्गित किया गया है और जो बहूलर के का एक उल्लेख योग्य है : 'अर्हतु वर्धमान को नमस्कारः शकों और पाथेयों को काले नाग के समान गोतिपुत्र ( गुप्तिपुत्र) की कौशिक गोत्र की पत्नि शिवमित्रा ने पूजा की एक शिला कराई थी । * शिलालेखों का समूह प्राता है जिन्हें 'श्रापे' (Archaie) शीर्षक के अनुसार कनिष्क के पूर्व के युग या काल के हैं । इन में से नीचे डा. कूलर के अनुसार गोतिपुत्र और कौशिक और शकों को एक काले नाग के समान वाक्य उसके है कि 'इससे जिन युद्धों का निर्देश होता है वे या तो अथवा उनकी सत्ता हट जाने के बाद के भी हो सकते हैं और सम्भवतया ई. पूर्व 1ली सदी के हो सकते हैं. सिथियन विजय से पहले का लिखा हुआ हो तो यह जैन मन्दिर की करता है जहां कि लेख उपलब्ध हुआ था ।" शिवमय दोनों ही राजकुल के थे और 'गोतीपुत्र, पायेयों वीर जाति के होने की सूचना देते हैं। वह विद्वान कहता कनिष्क के पूर्व सिथियनों ने मथुरा जीता उसके पूर्व के हीं हैं । लेख के प्रक्षर जो कि विशेष रूप से पुरानी परिपाटी के पहले विकल्प का पक्ष ही समर्थन करते हैं। यदि शिलालेख प्राचीनता का मूल्यवान प्रमाण भी प्रस्तुत तिथियां दी हैं और जो कनिष्क, हुविष्क जिन्हें भी उन्हीं के समय का कहा जाता इनके बाद कालक्रमानुसारी लेखों का वह समूह प्राता है कि जिनमें और वासुदेव का उल्लेख करते हैं। इनके अतिरिक्त भी तिथि वाले लेख है है हालांकि उनमें उस कुपाए राजों में से किसी के नाम का उल्लेख नहीं हुआ है ।' सं. 11 से 24 के लेखों का समूह', डा. बहूलर कहता है कि, भी तिथि वाले लेखों का है कि जो मेरी राय में कनिष्क, हृविष्क, और वासुदेव है। फिर भी मेरा विश्वास है कि के काल के ही हैं। परन्तु उनमें से एक में भी राजा का नाम नहीं दिया हुआ जो कोई इन राजों के नाम वाले तिथ्यांकित लेखों से सावधनी के साथ इन्हें पर नहीं आएगा 18 मिलाएगा, वह किसी ग्रन्य निष्कर्ष ये तिथीवाले कुपारा लेख सम्बत् 4 से सम्बद 98 की ज्ञात सीमा के हैं। यह सम्वत् विक्रम या अभ्य कोई यह ठीक ठीक कहना सम्भव नहीं है। "इस युग की काल गणना भारतीय इतिहास की प्रत्यधिक उसकी हुई समस्या रही है और अब भी इसका कोई हल निकल ग्राया हो ऐसा नही कहा जा सकता है । कहने का 1. देखो कोनोव एपी. इण्डि पुस्त. 14 . 139-141 3. स्कूलर, वही, पुस्त. 2. लेख सं. 4-10, पृ. 1961 5. वही, पृ. 3941 6. saz, qft. for.. gen. 196 1 , 2. देखो कोनोव, वही पु. 139 141 4. वही, लेख, सं. 23, पृ. 396 I 7. देखो वही कनिषम वही पु. 141 , Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 167 तात्पर्य यह है कि अनुमान आज भी शंका स्पद ही है।"1 कुषाण काल गणना की महत्वपूर्ण बात के विषय में ग्राज बहत मत विभिन्न उठता है। फिर भी, अनेक गणमान्य विद्वानों के साथ हम भी कह सकते हैं कि इन लेखों में प्रयुक्त सम्वत् ई. 78 से प्रारम्भ होने वाला शक सम्वत् ही है।" कंकाली टीले को जैन पादपीठ को एक शिलालेख इस प्रकार का है "सिद्ध महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सर नवमे...मासे प्रथ...दिवसे 5,' यादि। यद्यपि शोडास और अन्य कुषाण शिलालेखों की भांति एवम् प्राचीन मालव-विक्रम संवत् की रीति अनुसार यहाँ भी ऋतु, मास और दिन क्रमानुसार की तिथि उल्लेख करने की भारतवर्ष की प्राचीन पद्धति ही हम देखते है, फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि कुषाण राजों ने किसी भी संयोग में शक सम्वत् का उपयोग नहीं किया था। पक्षान्तर में प्राचीन विक्रम संवत् की इस लाक्षणिकता का कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों ने अपने ब्राह्मीलिपिक अभिलेखों में उपयोग किया हो तो वह कुछ भी अनहोनी बात नहीं है और हम यह जानते ही हैं कि कुषाणों में एक राजा का नाम वासुदेव था जो कि विशुद्ध भारतीय नाम है। . फिर कुषाणों के सम्बन्ध में विक्रम संवत् स्वीकार कर लेने से मथुरा के क्षत्रपों के उत्तराधिकारियों की स्थिति का निश्चय करना कठिन हो जाता है। हमारी यह कठिनाई उस समय और भी बढ़ जाती है जब कि हम जानते हैं कि कनिष्कवंशजों के समय में मथुरा भी उसी एक साम्राज्य का अंश था । अन्त में तक्षशिला के प्राचीन खण्डहरों की खुदाई में सर जाह्न मार्शल को मिले अवशेषों से यह निश्चित होता है कि कनिष्क का समय ईसवी पहली सदी के अन्त का होना चाहिए और इसको चीनी इतिहासकारों के वर्णनों से तुलना करते हुए और उसके साथ इन शिलालेखों की तिथि का मेल बिठाते यह निश्चय होता है कि ईसवी 78 में प्रारम्भ होता प्रख्यात शक सम्वत् कनिष्क ने प्रवर्तन किया ही होगा। इस प्रकार कुषाण शिलालेखों में निर्दिष्ट संवत् 4 से 98 का समय ई. लगभग 82 से 176 का आता है। कुषाण शिलालेखों में के दो विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें का एक साम्प्रदायिक इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्व का है जो इस प्रकार है : "79 वर्ष की वर्षा ऋतु के चौथे महीने के बीसवें दिन...की स्त्री श्राविका, दिना (दत्ता) द्वारा भेट दी गई मूर्ति देवों के निर्मित बौद्ध स्तूप में स्थापना की गई थी।" 1. रैप्सन, वहीं, पृ. 583 । 2. कनिष्क के काल सम्बन्धी विभिन्न मतों के लिए देखो रायचौधरी, वही, पृ. 295 प्रादि । 3. फम्यूं सन, प्रौल्डनबर्ग, टामस, बैनरजी, रेप्सन आदि विद्वानों के अनुसार कनिष्क ने ई. 78 में प्रारम्भ होने वाले सम्बत् का जो पीछे शक सम्वत् कहलाया, प्रवर्तन किया था।"-वही, पृ. 297 1 देखो हरनोली उवासगदसायो, प्रस्ता. पृ. 11। इस बात में बहुत मतभेद है कि शक सम्वत् का प्रवर्तक वास्तव में कौन था, यद्यपि यह तो निश्चित ही है कि कोई विदेशी शासक ही इसका पवर्तक होना चाहिए। जैसा कि पं. अोझा कहते हैं कि इस सम्बत् के पीछे कौन व्यक्ति है इसका निर्विवाद रूप से निर्देशन करना नहीं है, देखो, अोझा, प्राचीन लिपिमाला, 2 य संस्करण, पृ. 172-173 । 4. कनिधम वही, लेख सं. 4, प्लेट 13, पृ. 31। 5. कोनोव, वही, पृ. 141। 6. देखो कनिधम, वही, पृ. 41। 7. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 284। 8. रेप्सन, वही, प. 583 । 9. ब्हलर, वही, लेख सं. 20, पृ. 204। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] इस शिलालेख पर से हम देख सकते हैं कि मथुरा में एक प्राचीन स्तूप था जो स्टुलर के अनुसार ई. 157 (शक 79) में देव निर्मित माना जाता था. अर्थात् वह इतना प्राचीन था कि उसके निर्माण की सत्य कथा ही भुना गई थी। दूसरा शिलालेख कुषाण राजों के इतिहास के लिए महत्व का है। इसमें 'महाराज देवपुत्र हुक्ष (हुष्क याहुविष्क का नाम है। इससे हम निश्चय ही जान सकते हैं कि राजतंरिगिली में उल्लिखित और काश्मीरी गांव उपकर कपुर के नाम में सुरक्षित हुक शब्द सत्य ही प्राचीन समय में हुविष्क के पर्याय रूप ही प्रयोग होता था । " इन कुषाण शिलालेखों के बाद कालक्रम से कोई तीन शिलालेख प्राते हैं जो डा. व्हलर के अनुसार गुप्त-काल के हैं । * एक अन्य शिलालेख जो वहां मिला है, वह ई. 11वीं सदी का है। इस प्रकार लगातार लगभग एक हजार वर्ष से कुछ अधिक जैनों का धार्मिक केन्द्र स्थल रूप से मथुरा रहा लगता है।" गुप्तकाल के गिलालेखों की चर्चा हम आगे के लिए छोड़ देते हैं जहां कि उस काल में जैनधर्म की स्थिति का विस्तार से विचार किया जाएगा। यहां तो इन सब शिलालेखों की जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से क्या उपयोगिता है, उसी का विचार करेंगे क्योंकि राजकीय दृष्टि से तो विचार इनका ऊपर हो ही गया है। इस रष्टि से इन लेखों की महत्ता दो प्रकार या कारणों से हैं। पहली तो जैनधर्म या जनसंघ के इतिहास के विशिष्ट भावों की दृष्टि से और दूसरा उत्तरीय जैनों के इतिहास की सामान्य महत्ता की दृष्टि से : पहला कारण ही हम लें । इस सम्बन्ध में दो बातें हमारा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करती हैं । एक तो यह कि अन्तिम तीर्थंकर के अतिरिक्त ग्रन्य तीर्थ करों को इनमें नमस्कार किया गया या अंजलि अर्पित की गई है; दूसरा यह कि शिलालेखों में एक से अधिक तीर्थंकरों का उल्लेख है। पार्श्व और उनके पुरोगामी तीर्थकरों की ऐतिहासिकता का विचार करते हुए इसका विचार किया ही जा चुका है। फिर, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कुछ अभिलेख इस प्रकार समाप्त होते हैं 'सर्व प्राणियों के कल्याण और सुख के लिए हो।' जैन महिसा के आदर्श का विचार करते हुए इसका निर्देश कर हो चुके हैं इन कुछ बातों के अतिरिक्त कि जिनकी विवेचना पहले की जा चुकी है, इन मथुरा के शिलालेखों सम्बन्धी अत्यन्त महत्व की बात यह है कि इनमें जैन साध्वियों के नाम एवम् उनकी महान् प्रवृत्तियों का भी निर्देश है। इसमें जरा भी शंका नहीं की जा सकती है कि आर्या संगमिका और मार्या वसुला कि जिनका नाम निम्न शिलालेख में आया है, साध्वियां ही है.... अयसिङ्गमिकये शिशीनिनं प्रर्यावसुलये निर्वर्तनं... आदि । (पूज्य संगमिका की शिष्या पूज्य वसुला के उपदेश से ... ) । यह बात उनकी उपाधि 'अर्था' (पूज्य), उनकी शिशीनि (शिध्या) और वक्तव्य से उनके निर्वर्तन याने मांगने अथवा उपदेश से दिया गया दान पर से स्वतः सिद्ध होता है इतना निश्चय हो जाने पर यह मानने में कठिनाई होती ही नहीं है कि मथुरा के शिलालेख वहां के जैनों में साध्वियों का अस्तित्व बताते हैं । इस प्रकार श्वेताम्बर चतुविध संघ में साधू, साध्वी श्रावक और धाविका का अस्तित्व ईसवी युग के प्रारम्भ 1. वही, पृ. 198 देखो शापेंटियर वही. पृ. 167 3. वही, पृ. 198 ॥ 5. वही, सं. 41, पृ. 198 7. व्हूलर, एपी. इण्डि., पुस्त 1, लेख सं. 2, 5, 7, 12, 14, यादि, पृ. 382, 384-386, 388-3891 8. वही, लेज सं. 2, पु. 382 1 2. कूलर, वही लेख सं. 26, पृ. 2061 4. हजर, वही लेख सं. 38-40, पृ. 188 6. देखो ग्राजे. इण्टि एण्टी, पुस्त. 6, पृ. 219 I Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 169 तक बताया जा सकता है और इसका समर्थन वह जैन, शिलालेख भी करता है कि जो कनिंघम को मथुरा में एक टूटी शिला पर मिला था और जिसमें चतुर्वर्ण संघ पढ़ा जाता है। " 1 साध्वियों के अस्तित्व के विषय में विशिष्ट बात यह है कि कोई साध्वी किसी धाविक को उपदेश करती मालूम होती है ऐसा यह एक ही उदाहरण मिला है। यहां साध्वी पूज्य कुमार मित्रा अपनी संसारी पुत्री कुमारमट्टि को वर्धमान की मूर्ति कराने का उपदेश देती है।" अन्य शिलालेखों में साध्वियां संघ की आधिकाओं को समष्टि रूप से ही दान देने की प्रेरणा करती हैं। उक्त कुमार मित्रा विधवा या सधवावस्था में पति के साथ ही साध्वी बनी यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि दोनों ही बातें सम्भव हैं। कदाचित् यह भी हो सकता हैं कि उसने अपने पति की जीवितावस्था में अकेले ही उसकी प्राज्ञा से दीक्षा ली हो विधवा मानता है और कहता है कि "ग्राज के समय में भी जैन साध्वियों का अधिकांश भाग विधवाओंों का ही होता है, जो बहुतेरी जातियों के सामान्य नियमानुसार, पुनर्विवाह नहीं कर सकती हैं और उन्हें सिर मुंडी साध्वी बनाकर बड़ी सरलता से उद्धार के मार्ग पर लगा दिया जाता है। । * डॉ. हूलर उसको डॉ. 95 मथुरा के शिलालेखों में निर्देशित साधू- कुलों और शाखाओं के सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उनमें कितने ही नाम ऐसे पाए हैं कि जिनका जैनों की दन्तकथा साहित्य में आने वाले नामों के साथ मेल खा जाता है।" जैन साधुओं के इन विभागों में अन्य शाखाओं की अपेक्षा कोट्टिय- कोटिक गरण के साधू ही मथुरा में अधिक संख्या में होंगे। डॉ. बहूलर के अनुसार "यह द्रष्टव्य है कि यही एक गरण चौदहवीं सदी ईसवी तक परम्परागत चलता रहा था। उसकी इतनी दीर्घ आयु और उसकी शाखात्रों की जैसी कि ब्रह्मदासिका कुल, उच्चनागरी शाखा 7 और श्रीगृह जिला जाति प्रादि की दीर्घ आयु का लेख सं. 4 से समर्थन होता है। इस शिलालेख की अन्तिम सम्भव तिथि सम्वत् 59 याने ई. सन् 128 129 है । तब वर्तमान पूज्य प्राचार्य सीह चार पुरोगामी अपने गुरुयों का नाम गिनाते हैं जिनमें से सर्व प्रथम ईसवी काल के प्रारम्भ में ही हुए होगे। यह गरण, जैसा कि लेख से प्रकट होता है, उस पुरातन काल में भी इतना विभक्त हो गया था, और यह बात उसके ई. पूर्व 250 में प्रारम्भ होने की दन्तकथा को पुष्ट करता है ।" 18 1. यह विशिष्ट जैन, सिद्धान्त है कि श्रावक और श्राविकाएं भी जैनसंघ के भाग होते हैं। इस विषय में जैन बौद्धों से बहुत ही स्पष्टतया विभिन्न हैं । 2. उक्त शिलालेख का हमारा अक्षरान्तरीकरण इस प्रकार है-नमोरतानं नमो सिद्धानं से 62 गु. 3 दि. 5... शिष्या चतुर्वर्णस्य संघस्य... वापिकाये देसि यह अभिलेख स्पष्ट नहीं है। कुछ स्वर-संकेत और प्रक्षर ठीक-ठीक पड़े नहीं जा सकते हैं। इसकी तिथि सम्बत् 92 है, और इसमें कुए के विषय में सम्भवतः चतुर्वर्ण समुदाय के लिए कहा गया लगता है। तिथ्यांश और दानोल्लेखश बहुत कुछ पठनीय है । दाता कोई स्त्री शिव्या मी लगती है, लेसे के लिए देखो कनियम, धाकियालोजिकल सर्वे इण्डिया रिपोर्ट 20 लेख सं. 6 प्लेट 13 देखो हर वही, पृ. 380 4. देखो वयर्स इण्डि एण्टी, पुस्त. 13. पृ. 2781 3. देखा वही लेख सं. 7, पृ. 385 386; वही, पृ. 380 6. देखो वही, पृ. 378-379 5. स्तर, वही, पृ. 380 7. यह भौगोलिक नाम ऊंचनगर के गढ़ के अनुरूप ही लगता है कि जो उत्तरप्रदेश के बुलन्दशहर में है । देखो कनिधम, प्राकियालोजिकल सर्वे ग्राफ इण्डिया रिपोर्ट, 14, पृ. 147 8. ब्लर वही, पृ. 379-389 देखो क्लाट, वही, इण्डि एण्टी, पुस्त. 11 पृ. 246 कोट्टियगण के सम्प्रदायों की बात कुछ भी कठिनाई उपस्थिति नहीं करती है क्योंकि वे सब कल्पसूत्र में दिए तदनुकूल नामों से मिलते हुए हैं। देखो याकोबी, कल्पसूत्र पृ. 821 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 ] ___ इन शिलालेखों की भाषा, शब्द और रूप, मिश्र अर्थात् अर्ध-प्राकृत-संस्कृत है । ऐसा होते हुए भी कुछ शिलालेख पाली शैली की विशुद्ध प्राकृत में असिलिखित कहे जाते हैं । जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है उनमें अक्षर बहुत ही प्राचीन है और केवल इसी आधार पर उन्हें ई. पूर्व दूसरी और पहली सदी का माना जाता है । सर ए. कनिधम संग्रह के कुछ शिलालेखों में पूज्वीये या पूर्वये रूप जो कि जैन प्राकृत और महाराष्ट्री प्राकृत के हैं, प्रयुक्त हुए हैं। यह निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कि इन अभिलेखों की भाषा को किसने प्रभावित किया था जब तक कि हमें ईसवी पहली और दूसरी सदी में मध्य-भारत में प्रयुक्त भाषा का ठीक-ठीक परिचय न हो। फिर भी ऐसा लगता है, जैसा कि डॉ. व्हलर कहता है, कि "कितनी ही बातों में वह पाली और अशोक के आज्ञापत्रों तथा ग्रांध्र के प्राचीन शिलालेखों की भाषा की अपेक्षा जैन प्राकृत और महाराष्ट्री के बहुत अनुरूप है।" डा. भण्डारकर एवम् अन्य विद्वानों की भांति ही यह विद्वान भी इस मिश्र भाषा के मूल के विषय में कहता है कि 'अर्धदग्ध प्रजा के लेखन-वाचन के परिणाम से ही ऐसा हया होगा क्योंकि जिनको संस्कृत का अपूर्ण ज्ञान रहता था और इसीलिए जो उसे सामान्यतया प्रयोग करने के अभ्यासी नहीं थे, वे ही ऐसी भाषा लिख सकते हैं । इसमें शंका ही नहीं है कि मथुरा के सब शिलालेख गुरुपों और उनके शिष्यों द्वारा लिखे गए हैं क्योंकि किसी पर उनके लिखने वालों का कोई भी नाम नहीं है। परन्तु इस परिणाम पर हम इसलिए पहुंचते हैं कि उसौ प्रकार के परवर्ती अनेक अभिलेखों में उन यतियों के नाम दिए गए हैं जिनने उनकी रचना की है या लिखे हैं। पहली और दूसरी सदी में यतिलोग, जैसा कि आज भी करते हैं. अपने उपदेशों और धर्मशास्त्रों की व्याख्याओं में समकालिक बोलचाल की लोकभाषा का प्रयोग ही करते थे और धर्मशास्त्र प्राकृत में ही लिखते थे । यह स्वाभाविक ही था कि उनके संस्कृत लेखन के प्रयास अधिक सफल नहीं थे । इस सिद्धान्त का इस बात से प्रबल समर्थन होता है कि प्रत्येक अभिलेख में प्रायः अपभ्रशों की संख्या और लक्षण असमान हैं और अनेक वाक्यों से जैसे कि वाचकस्य पार्य-बलदिनस्य शिष्यो अर्या-मात्रिदिनः तस्य निर्वर्तना, ऐसा ही प्रमाणित होता है। उक्त वाक्य का अंतिमांश नए नवसिखिए की लिखावट ही लगता है।"4 उत्तर-भारत के जैन इतिहास की दृष्टि से मथुरा के शिलालेख ई. पूर्व तथा पश्चात् के इण्डो-सिखिक ममय धर्म की सम्पन्नावस्था के अचूक प्रमाण हैं, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। महावीर और अन्य तीर्थंकरों के मन्दिर एवम् प्रतिमाएँ बनाने वाली और उनको पूजने वाले चुस्त जैन समाज को अस्तित्व का ये सब लेख पूरा-पूरा भान कराते हैं । खारवेल के हाथी गुफा के शिलालेख के पश्चात् मथुरा का कंकाली टीला ही हमें इस बात का सम्पूर्ण एवं सन्तोष जनक प्रमाण प्रस्तुत करता है कि ईसवी युग के प्रारम्भ में जैनधर्म भी बौद्धधर्म जितना ही महान् सम्पन्न और समृद्ध था। 1. कनिंघम, प्राकियालोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट, सं. 3, लेख सं. 2, 3, 7 और 11, पृ. 30-33 । 2. न्हलर, वही, पृ. 37613. देखो भण्डारकर, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 12, पृ. 141। 4. न्हूलर, वही, पृ. 3771 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 171 छठा अध्याय गुप्त काल में जैनधर्म की स्थिति मथुरा के शिलालेख हमें बहुत कुछ कुषाण काल के अन्त तक ले पाते हैं । इस समय की दन्तकथाएं, स्मारक और शिलालेख यह सिद्ध कर देते हैं कि जैनों की सत्ता उत्तर-पश्चिमी भारत से लेकर दक्षिण में लगभग विध्याचल तक और पामीर की घाटियों से दूर प्रदेशों तक में थी। कनिष्क के राज्य से लेकर वासुदेव के समय में कुषाण सत्ता बिहार पर भी थी ऐसा मानने के पर्याप्त कारण हैं। उत्तर-भारत की यह सार्वभौम सत्ता वासुदेव के मरते ही टूट गई । कुषाण युग का यही अन्तिम राजा था और इसकी अधीनता में भारतवर्ष का बहुत व्यापक क्षेत्र था। स्मिथ कहता है कि यह तो स्पष्ट ही है कि कुषाण सना वासुदेव के लम्बे राज्य काल के अन्त में निर्बल पड़ गई थी और उसकी मृत्यु के पूर्व अथवा पश्चात् ही तुरन्त पौर्वात्य साम्राज्यों की जो दशा सामान्यतया होती है वही, कनिष्क के महान् साम्राज्य की भी हुई । अर्थात् थोड़े ही ममय तक सुन्दर संगठन का अनुभव कर वह भिन्नभिन्न भागों में विभक्त हो गया। अनेक राजों ने अपनी स्वतन्त्रता का दावा किया और उनने चाहे वह थोडे ही समय के लिए हुआ हो परन्तु फिर भी अपने पृथक-पृथक राज्य स्थापन कर लिये । परन्तु तीसरी सदी के इतिहास के साधन एकदम ही अप्राप्य होने के कारण यह कहना प्राय: असम्भव है कि ये स्वतन्त्र राज्य कितने और कैसे थे ? तीसरी और चौथी सदी के प्रारम्भ में पंजाब के अतिरिक्त उत्तरीय भारतवर्ष के राज्य वंशों का निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है। कुषाण साम्राज्य के अवसान और गुप्त साम्राज्य के उद्गम के बीच की एक सदी का समय भारतवर्ष के इतिहास का अन्धकारतम अन्तरिम काल है। फिर भी गुप्तों के उदय के साथ ही अन्धकार का वह पड़दा उठ जाता है और भारतीय इतिहास ऐक्य और रसका अनुभव करता है। गुप्तों के आगमन के साथ ही मगध फिर आगे आता है । 'इतिहास में दो बार उसने साम्राज्य की स्थापना की, मौर्य साम्राज्य ई. पूर्व चौथी और तीसरी सदी में, एवम् गुप्त साम्राज्य ई, चौथी और पांचवी सदी में ।' - छह सदी पहले के अशोक काल के साम्राज्य की विशाल सत्ता की अपेक्षा भी इस गुप्त साम्राज्य की सत्ता अधिक 1. देखो स्मिथ, वही, पृ. 274, 276; जायसवाल, बिउप्रा पत्रिका सं. 6, पृ. 22 । 2. स्मिथ, वही, पृ 288, 290 । 3. यह काल प्रत्यक्षतया अत्यन्त उलझन का था, यही नहीं अपितु उत्तर-पश्चिम से विदेशी आक्रमण भी तब हो रहे थे । इस स्थिति का दिग्दर्शन प्रामीरों, गर्दीमल्लों, शकों, यवनों, वाल्हीकों और अन्य प्रख्यात राज्यवंशों के कि जिन्हें बांधों के उत्तराधिकारी बताया गया है, पुराणों के विभ्रान्त वर्णनों से होता है । वही, पृ. 290 । 4. रेप्सन, वही, पृ. 310 । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 1 थी। इसमें उत्तर भारत के अत्यन्त घनी बस्तीवाले मौर उर्वर प्रदेश सभी छा गए थे। पूर्व में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में जमना और चम्बल नदी तक, और उत्तर में हिमालय की तलेटी से दक्षिण में नर्मदा तक वह साम्राज्य फैला हुआ था। इस विस्तृत सीमा के आगे भी मासाम और गांगेय ( डेल्टा ) व द्वीप के सीमान्त प्रदेश और हिमालय की दक्षिणी ढाल के राज्य, एवम् राजपूताना और मालवा के स्वतन्त्र कबीले उस साम्राज्य से सहायक संधियों द्वारा संलग्न थे । पक्षान्तर में दक्षिण के प्रायः सारे राज्यों में सम्राट की सेना छारखार कर उनसे अपनी सार्वभौम सत्ता और अपराजेय शक्ति मनवा आई थी। गुप्त काल में धर्म की स्थिति क्या थी इस विषय में इतना तो निश्चित है कि इस वंश के राजा प्रत्यक्षतः ब्राह्मणधर्मी हिन्दू थे और उनकी विष्णु के प्रति विशिष्ट भक्ति थी परन्तु वे मी सर्व धर्म के प्रति प्रादर की प्राचीन भारत की रूढ़ि का ही पालन करते थे । विशेष प्रीति नहीं होते हुए भी बौद्ध एवम् जैनधर्म दोनों ही को इनने फलने फूलने दिया था। अनुपान होता है कि वैष्णवधर्म के प्रति विशिष्ट समादर दिखाते हुए सर्वधर्म सहिष्णुता और परधर्मो में हस्तक्षेप नहीं करना ही उनका लक्ष्य था । 2 उदाहरणार्थं चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य या चन्द्रगुप्त त्य, गुप्तवंश का पाँचवा सम्राट, "बौद्ध और जैनधर्म के प्रति सहिष्णु होते हुए भी, स्वयम् सनातनी हिन्दू और विष्णु का परम भक्त था । "" गुप्त राजों को सर्वदर्शनसार संग्राहक नीति के सिवा भी, जैनों के प्रति उनका विशिष्ट प्रदर, जैसा कि पहले कहा ही जा चुका है, मथुरा के शिलालेखों से प्रमाणित होता है। उन जैन शिलाभिलेखों में तीन, डॉ. बहूलर के अनुसार, गुप्तकाल के हैं । उनमें से एक जो कि नीचे लिखे अनुसार है, के विषय में तो कोई शंका ही नही है क्योंकि वह एक बैठी मूर्ति पर खुदा हुआ है और कुमारगुप्त के राज्यकाल का है। वह लेख इस प्रकार है जय हो ! 113 वें वर्ष में, महान् राजों के महाराजा और चक्रवर्ती कुमारगुप्त के विजयी राज्य काल में, बीसवें दिन (शीत- मास कार्तिक के) - उस दिन मट्टिमव की पुत्री (और) दारणी ग्रहमित्रपालित की गृहपत्नि सामाढ्या (श्यामाढ्या) ने एक प्रतिमा स्थापन कराई कि जिसको यह प्राज्ञा (उत्सर्ग कराने की कोट्टियगण (और) विद्याधरी शाखा के तिलाचार्य ( दत्तिलाचार्य) ने दी 5 दूसरे दोनों शिलालेखों में से एक अच्छी स्थिति में नहीं है । इसलिए उसका संलग्ग अनुवाद देना संभव नहीं है परन्तु उसमें मन्दिर बनवाने या मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाने का अभिलेख ही हो ऐसा लगता है ।" तीसरा लेख लिपि की दृष्टि से, व्हूलर, के मतानुसार, गुप्तकाल का ही लगता है । यह शिलालेख एक छोटी मूर्ति या पूतले के पावपीठ पर खुदा हुम्रा है, इस प्रकार है :-- "सत्तावनवें 57 वें वर्ष में, शीत काल के तीसरे महीने में, तेरहवें दिन में (उपर्युक्त विशेष दिन ) दिन को... דיין 1. देखो स्मिथ, वही, पृ. 303 साम्राज्य का अस्तित्व 2. “मानासर, इसलिए, गुप्तयुग का संकेत करता लगता है..; समस्त भारत-व्यापी ब्राह्मण धर्म की लोकप्रियता और विशेषतः वैष्णव सम्प्रदाय की और मुकाव एवं बौद्ध व जैनधर्म के प्रति सहिष्णुता और विशेषाभाव...." प्राचार्य, इण्डियन प्राकिटेक्चर प्रकाडिंग मानासार शिल्पशास्त्र, पृ. 3941 3. स्मिथ वही पु. 309 4. देखो व्हलर एपी. इण्डि, पुस्त. 2 लेख सं. 38-40, पृ. 1981 5. व्हूलर, वही, लेख सं. 39, पृ. 210 211 7. वही लेख सं. 38, पृ. 210 1 | 6. वही, लेग सं. 40, पृ. 211 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 173 उसी विद्वान के शब्दों में “लिपि को प्राकार, और विशेषतः ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के चिन्हित करने की विशिष्ट शैली - याने दीर्घ की मात्रा व्यंजन के दाई ओर एवम् ह्रस्व की मात्रा बाई ओर लगाना - लेख सं. 38 को इससे पूर्व का समय देने के असम्भव मेरे विचार से, बनाती है ।" गुप्त सम्वत् 113 और 57 की तिथि वाले उपरोक्त दोनों लेखों के यथार्थ काल का निर्णय करने के लिए हमें गुप्तों के प्रवतित सम्वत् का विचार करना आवश्यक है। गुप्तकाल' 'गुप्तवर्ष' जैसे शब्द को गुप्त राजों के उस्कीणित लिपिक और अन्य अभिलेखों में पाते हैं, उनसे ऐसा लगता है कि वह सम्यत् उस वंश के किसी राजा ने अवश्य ही प्रवर्तित किया होगा परन्तु इसका कोई लिखित प्रमाण बाज तक तो उपलब्ध नहीं हुमा है । परन्तु इलाहाबाद के समुद्र गुप्त के मिलाने से जाना जाता है कि चन्द्रगुप्त 1म, जो कि उसका पूर्वज था, ही ऐसा राजा है कि जो अपने को 'महाराजाधिराज' कहता है। उसके पूर्वज, गुप्त और घटोत्कच दोनों ही राजा, केवल 'महाराज' कहलाते थे। यह और इसके साथ ही समुद्रगुप्त के और चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय के शिलालेखों के उल्लेख जो कि गुप्त संवत् 82 से 83 तक 3 के हैं. पर से विद्वानों ने गुप्त सम्बत् का प्रवर्तन काल चन्द्रगुप्त 1म के राज्य काल में निश्चित किया है । 2 स्मिथ कहता है कि पौर्वात्य पद्धति से उसके राज्यारोहण समय में जबकि उसे साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया गया और जिस समय दन्तकथानुसार पाटलीपुत्र पर अधिकार किया गया तब संवत् प्रवर्तित करने जितना ही उनका राजकीय महत्व भी था । गुप्त संवत् जो कि कितनी ही सदियों तक भिन्न-भिन्न प्रदेशों में चलता रहा था, का पहला वर्ष ता 26 फरवरी सन् 320 से ता 13 मार्च सन् 321 तक का था। इसकी पहली तारीख या तिथि चन्द्रगुप्त म के राज्यारोहण की तिथि रूप ली जा सकती है ।" गुप्त संवत् के प्रवर्तन की ई. 319--320 तिथि एलबरूनी के वक्तव्य के आधार पर निश्चित की गई है जो कहता है कि शक सम्वत् के 241 वर्ष संवत् का प्रवर्तन हुआ था । तदनुसार यह ई. सन् 319-320 आता है । का यह वकव्य सत्य सिद्ध पश्चात् गुप्त अरब पर्यटक 1. वही, पृ. 198 वह प्रोसे का सं. 3 (इण्डि. एण्टी, पुस्त. 4, पु. 219) है। इसकी विवेचना करते हुए विद्वान पण्डित कहता है कि "यदि यह तिथि उसी संवत् का 57 वां वर्ष है जो कि कनिष्क और हुविष्क के लेखों में है, तो यह इस क्षेत्र में मिलने वाली प्राचीनतम् जैन मूर्ति है । परन्तु मैं यह विश्वास नहीं कर सकता हूं । मेरे विवार से यह मूर्ति अपेक्षाकृत याधुनिक है..." प्रौसे, वही, पृ. 218 1 2. "जो (समुद्रगुप्त ) मानव के प्रतिपालनार्थ प्राचारों की प्रतिमालनोत्सव करने वाला प्रत्यलोक का मानव ही था, ( परन्तु अन्यथा इस भूमि पर रहता हुग्रा अवतार जो प्रख्यात गुप्त महाराजा के पोत्र का पुत्र था; जो प्रभान्वित चन्द्रगुप्त 1म महाराजाधिराज का पुत्र था, " आदि यादि । -फ्लीट कारपस इंस्क्रिप्शनम् इण्डिकोरम, सं. 3, लेख सं. 1, पृ. 15-16 देलो प्रोफा, वही पु. 174 1 3. देखो स्मिथ, इण्डि एण्टी, पुस्त. 31, पृ. 265; ग्रोझा, वही और वही स्थान । 4. स्मिथ, ग्रर्ली हिस्ट्री ग्रॉफ इण्डिया, पृ. 296 । देखो प्रोभा, वही, पृ. 175; बार्केट, एण्टीक्विटीज ग्रॉफ इण्डिया, पू. 46 " 5. गुप्तकाल के सम्बन्ध में लोग कहते हैं कि गुप्त बड़े दुष्ट और शक्तिशाली ये और जब उनका प्रस्तित्व मिट गया तो यह तिथि एक युग प्रवर्तन की मान ली गई। ऐसा मालूम होता है कि वल्लभ इनका अन्तिम सम्राट था क्योंकि गुप्त युग का संवत्, वल्लभी युग के संवत् की भाँति ही, शक काल के 241 वर्ष बाद ही शुरू होता है।" - सचाश्रो, एलबरूनीज इण्डिया, भाग 2, पृ. 7 । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 ] हुआ है, और फ्लीट के अनुसार मंदसौर का शिलालेख इसका समर्थन करता है ।" इस प्रकार गुप्त संवत् का प्रारम्भ ई. सन् 319 में 113 के हैं, अनुक्रम से ई. सन् 376 और 432 के कहे शिलालेख चन्द्रगुप्त 2 य का और दूसरा शिलालेख में कहे अनुसार कुमारगुप्त म पहले से ही कहा जा चुका है गुप्तों का प्राचीनतम शिलालेखी अभिलेख सं. 82 से बहूलर का यह कहना सत्य ही है कि पहला शिलालेख जैसे कि चन्द्रगुप्त 2य के उसके विषय में उसका अनुमान स्वीकार कर लिया जाता है तो 'उसकी तिथि, सम्वत् प्रथम उल्लेख है जो कि अब तक मिल सका है ।" लेने से मथुरा के ये दो शिलालेख कि जो वर्ष 57 और जा सकते हैं स्वीकृत गुप्तवंश के कालक्रमानुसार पहला का समय का है ।" जैसा कि प्रारम्भ होता है और इससे डा. समय का हम कह चुके हैं, यदि 57, गुप्त सम्वत् का सर्व 1 इन दो मथुरा मिलालेखों के सिवा मी जैनों से सम्बन्ध रखने वाले दो गुप्त सम्बन्धी अभिलेख और भी हैं। उनमें कालक्रमानुसार पहला उल्लेख उदयगिरि गुफा का शिलालेख है जिसमें स्पष्टत राजा के उल्लेख के स्थान में प्रारम्भ के गुप्त राजों की वंशावली दी हुई है उसकी तिथि पर से यह भी कुमारगुप्त 1म के समय का ही लगता है उसमें तिथि शब्दों में दी गई है जो वर्ष 106 ई. सन् 425-426) के कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की पांचवें सूर्य दिवस की है ।" उस शिलालेख के उस अंश का अनुवाद कि जिससे उसका जैन होना स्पष्ट प्रगट होता है इस प्रकार है उसने ( याने शंकर जिसका नाम 6ठी पंक्ति में है) जिसने (प्राध्यात्मिक) रिपुत्रों को जीत लिया है, (और) जिसने शांति और संयम साध लिये हैं, (इस) गुफा के मुख में जिन की यह मूर्ति नाम की विस्तृत फणों और परिचारिका देवी (भरपूर सजी हुई) सहित, (श्रीर) जिनों में सर्वोत्तम ऐसे पार्श्व के नाम वाली, निर्मित (और स्थापित ) कराई | वह निश्चय ही संत प्राचार्य गोशर्मन... का शिष्य है' श्रादि । " इस प्रकार उदयगिरि गुफा के शिलालेख का उद्देश गुफा के मुख पर पार्श्व या पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापना का उल्लेख करना मात्र है। जिस दूसरे शिलालेख की ऊपर बात कही गई है वह है कुमारगुप्त म के पश्चात् होने वाले स्कन्दगुप्त का कहाउं की पाषाण स्तम्भ पर का लेख । खाखी रेतिये पत्थर का यह स्तम्भ जिस पर कि 7 1. "प्रव तक में ने यही बताया है कि पहले पहले की गुप्त तिथियां धौर उनके साथ ही अन्य भी जो कि उसी सम श्रेणी की सिद्ध की जा सकती हैं, सब ई. 319-328 या उसके आसपास के युग की मानी जानी चाहिए जैसा कि एलबरूनी ने ध्यान खींचा है और जो वीरावल के शिलालेख, वल्लभी संवत् 945 के से समर्पित है।" फ्लीट, वही, प्रस्ता. पृ. 16 आदि । 2. देखो वही प्रस्तावना पृ 23 3. देखो स्मिथ, इण्डि एण्टी, पुस्त. 31, पृ. 265-266 चन्द्रगुप्त का राज्यकाल ई. लगभग 380 से ई. लगभ 412 तक रहा था और कुमार गुप्त का ई. लगभग 413 से ई. लगभग 455 तक देखो वही स्मिथ प हिस्ट्री ग्रॉफ इण्डिया, पृ. 345-346; भण्डारकर, वही, पृ. 48-49; बानयैर्ट, वही, पृ. 47-48 वही और वही स्थान । 5. देखो ली, वही, लेल सं. 61, पृ. 258 1 4. 1 6. वहीं, पृ. 259 देखो स्म इण्टि एण्टी, पुस्त. 11, पृ. 310 7. "इस शिलालेख का प्राचीन काकुम या काकुमग्राम, घोर बाज का कहाउं या कहवा उत्तर-पश्चिम प्रांत जिसका कि सब नाम उत्तर प्रदेश है, के गोरखपुर जिले की देवरिया या देखोरिया तहसील सलमपुर माहोली परगना का प्रमुख नगर, सलमपुर मझोली के दक्षिण से पश्चिम की ओर पांच मील दूर स्थित एक गांव है।" एसीट -फ्लीट, वही, पृ. 66 1 देखो भगवानलाल इन्द्रजी, इण्डि. एण्टी, पुस्त. 10, पृ. 125 8. देखो स्मिथ, वही, पृ. 346 पर बैठा था। देखो वही कहा जाता है कि कुमारगुप्त 1न के बाद ई. लगभग 455 में यह राजसिंहासन बार्पेट, वही पृ. 48 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 175 लेख खुदा हुआ है, कहा का निर्देश है । उसकी तिथि 461) और ज्येष्ठ मास । गांव के उत्तर में कुछ दूर पर है। उस लेख में प्राचीन गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के राज्य शब्दों में दी हुई है जिसके अनुसार वह है, 141 वां वर्ष (तदनुसार ई. सन् 460लेख का उद्देश उसके नीचे उद्धृत अंश से स्पष्ट होता है : 2 'उसने (अर्थात् मद्र ने, जिसका नाम लेख की 8वीं पंक्ति में उल्लिखित है), इस समस्त संसार को (सदा ही) परिवर्तनों की परम्परा से गुजरता देख भयभीत हो अपने लिए बहुत धर्म कमाया (और अपने से) -ग्रन्तिम सुख के लिए (और) (सब) जीवित प्राणियों के कल्याण के लिए, पांच सुन्दर (प्रतिमाएं ), पाषाण की बनी, उनकी कि जिनने पहंतों के मार्ग में जो कि धार्मिक क्रियाएं करते हैं, अनुसरण किया है, स्थापित करके उस भूमि में फिर यह अत्यन्त सुन्दर पाषाण स्तम्भ, जोकि मेरू पर्वत के शिखर की चोटी के समान लगता है, (और) जो (उसकी कीर्ति प्रदान करता है, रोपण किया । " - शश कहार्ड शिलालेख यह अभिलेख करता है कि मद्र नाम के किसी व्यक्ति ने आादिकीर्तियों याने तीर्थकरों की प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित कराई थी, और यह स्तम्भ पर की मूर्तियां द्वारा भी समर्थित होता है । इन मूर्तियों में की अत्यन्त महत्व की पांच खड़ी नग्न मूर्तियां हैं कि जो डा. भगवानलाल इन्द्रजी के अनुसार श्रादिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्व और महावीर इन पांच लोकप्रिय तीर्थकरों की हैं।' 5 विद्वतापूर्ण विवेचन गुप्तों और जैनों का सम्बन्ध बताने वालों शिलालेखी इन साक्षियों के अतिरिक्त, हम मुनि जिन विजय " 6 के अत्यन्त प्रभारी हैं कि जिनका कुवलयमाला " का इसके गुप्तकाल के जैन - इतिहास पर बहुत ही प्रकाश डालता है। जैनों के इस कथासाहित्य के रचयिता विद्वान उद्योतनसूरि ने स्वयम् को इस ग्रन्थ में ही इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि जो उस काल की कि जिसमें वे हुए और प्रवृत्ति की थी, यथार्थता का प्रतीक है। हमें यह कहा गया है कि यह रोचक प्राकृत कथा शक सं. 700 याने ई. सन् 779 में समाप्त हुई थी।" इस काल में अनेक अमर रचनाएं हुई थी, परन्तु उनके लेखकों ने उनमें अपना नाम देने की जरा भी चिन्ता नहीं की है। फिर भी कुवलयमाला कि जिसमें ऐतिहासिक दृष्टि बराबर धन्तनिहित हुई है उस काल की एवं उन परिस्थितियों की 1. देखो फ्लीट वही, लेख सं. 15, पृ. 96; भगवानलाल इन्द्रजी, वही और वही स्थान । 2. पलीट वही, पृ. 68; भगवानलाल इन्द्रजी, वही, पृ. 126 I 3. लेख के इस श्रंश के यथार्थ शब्द इस प्रकार हैं : नियमवतामर्हतामादिकर्तन् पंचेन्द्रिस्था पयित्वा ... आदि । डॉ. इन्द्रजी ने इसको इस प्रकार अनदित किया है । " तपस्वी अर्हतों के मार्गनुसारी पांच प्रमुख प्रादिकर्तृ (तीर्थंकरों)... की स्थापना कर ।" - इण्डि एण्टी, पुस्त. 10, पृ. 126 । इस अनुवाद पर विद्वान पण्डित ने इस प्रकार टिप्पर दिया है । " आदिकर्तृ-मूलस्थापक, वह जिसने पहले पहल मार्ग बताया, परन्तु यह विशेषण तीर्थकरों के लिए सामान्यतः प्रयोग किया जाता है। देखो कल्पसूत्र, शत्रस्तव समोर समरणस्स भगवधो महावीरस्स... चरमतित्थयरस्स | इसका संस्कृत इस प्रकार है। नमोस्तु धमरणाय भगवते महावीरायादिकृतँ चरमतीर्थकराय - ।" वही, पृ. 126, टिप्पण 16 । 4. वही, पृ. 126 1 देखो फ्लीट, वही, पृ. 661 5 जिन विजय, जैसास, सं. 3, पृ. 169 बादि । 6. यह 8वीं सदी का जैनों के वर्णनात्मक साहित्य का एक ग्रन्थ है । . आज मारवाड़ में, परन्तु एक समय गुजरात काही अंश माने जाने वालों जाबालीपुर (जालौर) में यह पूर्ण किया गया था । 7. सगकाले वोली पृ. 180 1 वरिसाब सहि सत्तहि गएहि एगविणेहि रहया अबरण्हवेलाए 11 वही गाया 36, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 } जिनमें उसकी रचना हुई और उसके रचियता सूरि की गुरुपरंपरा का यथार्थ चित्र बहुत कुछ हमारे सामने प्रस्तुत 1 करती है। प्रास्ताविक गाथाओं में हमारे लिए उपयोगी कुछ गाथाएं इस प्रकार हैं :--- (1) अस्थि पुहुपसिद्धा दोण्णिा यहा दोणि चेय देस ति । तत्मात् पह धामेरा उत्तरावहं ब्रहुजा || (2) सुहृविचारुसोहा विश्रमिश्रकमलारगरणा विमलदेहा । तत्थरिथजलदिमा सरिया ग्रह पंडामाय ति ।। (3) तीरम्मितीय पमटा पव्बइया ग्राम रमणसोहिला | जन्मतिथ ठिए भुत्ता पुहई सिरितोराए । ( 4 ) तरस गुरू हरिवतो मायरियो प्रासि गुत्तलाम्रो । मरीब विष्णो जेरण रिगवेसो तहि काले । तीय ( 5 ) तस्स वि सिस्सो पयडो महाकई देवउत्तणामो त्ति । * इन गाथाओं का मानार्थ यह है "विश्व में दो मार्ग और दो ही देश हैं (दक्षिणापथ और उत्तरापथ) कि जो सर्व प्रख्यात हैं । इनमें से उत्तरापथ विद्वानों से भरा पूरा देश माना जाता है । उस देश में चन्द्रभागा नाम की नदी बहती है, जो ऐसा लगती है कि मानो सागर की प्रिया ही हो । उस नदी के तट पर फवइथा नामक सुप्रसिद्ध और सम्पन्न नगर बसा हुआ है। जब वह यहां था तब श्रीतोरराय पृथ्वी पर राज्य भोगता था । आचार्य हरिगुप्त, जिनका गुप्तवंश में जन्म हुआ था, इस राजा के गुरू थे, और उस समय वह भी वहां रहते थे । देवगुप्त जो एक महा कवि था, इन आचार्य का शिष्य हो गया था ।" उद्योतनसूर की ये प्रस्ताविक गाथाएं उत्तर भारत की जैन समाज और सामान्य भारतीय इतिहास दोनों ही दृष्टियों से अत्यन्त महत्व की हैं। राजा तोरमाण या तोरराय जिसका तीसरी गाथा के उत्तरार्ध में निर्देश किया गया है. हूणों के प्रख्यात सरदार के सिवा और कोई नहीं है कि जिसके नेतृत्व में उत्तर-पश्चिमीय पाटियों में 1. जिनविजयजी सूचित करते हैं कि इस कुवलयमाला की दो ही हस्तप्रतियां अभी तक उपलब्ध हुई हैं । एक पूना के सरकारी संग्रह में और दूसरी जैसलमेर के जैन भण्डार में दोनों प्रतियां न केवल छोटी छोटी बातों में ही अपितु अति महत्व की ऐतिहासिक बातों में भी एक दूसरे से भिन्न हैं। विद्वान् पण्डित इन भेदों को मूल लेखक कर्तृक ही मानता है और विश्वास करता है कि दोनों ही प्रतियों में ये मतभेद मूल श्रोतों से ही प्राए हैं । देखो, वही, पृ. 1751 2. देखो वही, पृ. 177 पूना की प्रति में उपर्युक्त पहली दो गायाएं नहीं मिलती है वह प्रति तीसरी गावा से ही दम भिन्न है । वह लिखा हुआ है। प्रारम्भ होती है । फिर प्रस्ताविक गाथा भी इस प्रति की जैसलमेर के प्रति की गाथा से एक गाथा इस प्रकार है :- ग्रत्थि पयापरी तौररायेण के स्थान में पूना प्रति में तोरमाण पांचवीं गाथा के प्रथमा के स्थान में हम पूनः प्रति में निम्नलिखित सम्पूर्ण गाथा पाते है :-- (तस्स) बहुकलाकसलो सिद्धान्तयववाम्रो कई दलो आयरिय देवगुत्तों ज ( स्स) ज्जवि विज्जरए कित्ती । वही । 3. हूण मध्य एशिया में आर्यों की ही एक जाति थी । उनने गुप्त साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया था और कुछ समय तक भारतवर्ष के एक बड़े भाग पर उनका आधिपत्य भी रहा था। हुणों का राज्यवोरभारण के उत्तराधिकारी मिहिरकुल की पराजय और मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया था। इसको छठी सदी ईसवी के मध्य के लगभग रखा जा सकता है। हूणों के विशेष परिचय के लिए देखो श्रीझा, राजपूताना का इतिहास, भाग 1, पृ. 53 आदि, 126 आदि । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 177 हो कर हूणां के टोले के टोले उत्तर-भरतवर्ष में प्रलय की भांति सब ओर फैल गए थे। इस तोरराय को हण सरदार तोरमारण मान लेने में कोई भी ऐतिहासिक मूल नहीं है क्योंकि समस्त भारतीय इतिहास में केवल एक ही पृथ्वीभोक्ता तोरमारण है । वह अपने समय का एक अति प्रख्यात व्यक्ति ही था क्योंकि, जैसा कि हम अभी कह चुके हैं, वही हूणों के आक्रमण और परिणामत: गुप्त साम्राज्य के विघटन का प्रधान नायक था । मध्य एशिया को त्याग कर वह अपने अनुयायियों सहित भारतवर्ष में घुस आया और पंजाब एवं दिल्ली को विजय कर वह मध्य-भारत के मालवा देश तक भीतर में पहुंच गया था। विसेंट स्मिथ कहता है कि "भारतवर्ष के इस आक्रमण का कि जो कितने ही वर्षों तक निःसंदेह ही चलता रहा था, नेता तोरमाए नाम का सरदार था कि जिसने मध्यभारत के मालवा प्रदेश तक अपना अधिकार ई. सन् 500 के पहले ही जमा लिया था ऐसा कहा जाता है। उसने अपने लिए 'महाराजों का राजा' का भारतीय विरुद धारण किया था; और मानुगुप्त एवम् वल्लभी का राजा व अन्य अनेक राजों को उसने अपने करद राज्य बना लिये होंगे। स्वभावतः मध्यएशिया के आर्यों के नेता, इस हरणाधिपति, ने भारतवर्ष की राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक स्थितियों में भारी क्रांति ही ला दी होगी। उसके प्राधिपत्य का समय नि:संदेह अल्पकालीन था, परन्तु जिस समय उसकी मृत्यु हुई -ई. छठी सदी के प्रथम दशक में उसका जमाया हुआ भारतीय साम्राज्य इतना शक्तिशाली था कि वह उसके पुत्र एवम् उत्तराधिकारी मिहिरकुल को मिल सका। परन्तु यह आश्चर्य की बात है कि पुरातत्वज्ञों को उसकी राजधानी कहां थी इसका ग्रसंदिग्ध रूप से पता अभी तक भी नहीं लग पाया है । अनेक आधारों से हम इतना तो जानते हैं कि पंजाब का, शाकल, आधुनिक सियालकोट, उसके उत्तराधिकारी मिहिरकुल की राजधानी थी। फिर भी कुवलयमाला के कथानुसार, तोरमारण की राजधानी चन्द्रभागा माज की चिनाव, नदी के तट पर की पव्वइया नगरी थी। इस पव्व इया को जिसका कि संस्कृत रूपान्तर पर्वतिका या पार्वती है, उत्तरी-भारत में निश्चित करना कठिन है। युयानव्वांग के 'भारतवर्ष का पर्यटन याने ट्रेवल्स इन इण्डिया' ग्रन्थ में हमें मौ-लो-सन-पू-लू याने मुलतान से लगभग 700 ली उत्तर-पूर्व के पो-फा-टो देश में उसके जाने का पता चलता है । 'इस लेखांश का पो-फा-टो,' वाटर्स कहता है कि 'शब्द सम्भवतया पो-ला-फो-टा याने पर्वत का ही पर्याय मालम होता है। इससे क्या हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि चीनी पर्यटक का पर्वत नगर ही तोरमाण की राजधानी पब्वइया नगरी था ? विद्वान इस सम्बन्ध में सब एक मत नहीं हैं। इसलिए हम इतना ही कह सकते हैं कि, जैनों के 1. स्मिथ, वही, पृ. 335 । देखो वान्]ट, वही, पृ. 491 2. देखो स्मिथ, वही और वही स्थान । अोझा, वही, पृ. 128। 3. देखो स्मिथ वही और वही स्थान; ग्रोझा, वही, पृ. 129; वान्र्येट, वही, पृ. 50। 4. देखो वाटर्स, युनानसांग्स ट्रैवल्स इन इण्डिया, भाग 2, पृ. 255; बील, सी-यू-की, माग 2, पृ. 275 । 5. वाटर्स, वही और वही स्थान । देखो बील; वही और वही स्थान । 6. विसेंट रिमथ के अनुसार पो-फा-टो (पर्वत) काश्मीर राज्य जैसा कि वह आज संगठित है, के दक्षिण स्थित (जम्मू) जमू का राज्य होना चाहिए । देखो वाटर्स, वही, पृ. 342 । कनिंघम शोरकोट को ही पो-फा-टो कहता है, यद्यपि वह यह भी मानता है कि पर्यटक निर्दिष्ट स्थिति तो चेनाब पर के अंग के स्थान से मिलती है। कनिबम, एंजेंट ज्योग्राफी आफ इण्डिया, पृ. 233-234 । डा. फ्लीट के अनुसार, पो-फा-टो प्राचीन नगर हड़प्पा के सिवा दूसरा कोई हो ही नहीं सकता है। फलीट, राएसों पत्रिका, 1907, पृ. 650 । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ] अनुसार, तोरमाण की राजधानी पव्वइया नगरी थी और अब यही देखना शेष रह जाता है कि इस नगरी को उत्तर- भारत के नक्शे में किस स्थान पर ठीक ठीक स्थिरीकरण किया जा सकता है । हमारे लिए यहां महत्व की बात तो यह है कि कोई हरिगुप्त नाम के जैनाचार्य इस महान् तोरमाण के गुरू थे । कुवलयमाला का यह कथन वस्तुतः प्रति ही महत्व का है। कुछ ही शिलालेखों को छोड़ कर, कि जिनका हमने ऊपर निर्देश किया हुआ है, अभी तक कोई भी ऐसी व्यवहारिक बात नहीं मिली थी कि जो गुप्त काल में जैनधर्म की स्थिति पर प्रकाश डाल सकती थी। तोरमाण जैसे विदेशी और विजयी राजा का गुरू एक जैनाचार्य का होना जैन इतिहास में कोई कम महत्व की घटना नहीं कही जा सकती है। कितनो ही नगण्य इसे मानी जाए, फिर भी इससे हम इतना निष्कर्ष का आधार तो मान ही सकते हैं कि शैशुनार्ग, नन्दों और मौर्यो के काल की हो भांति भारतीय इतिहास के इस सुवर्ण युग में भी जंनाचार्य राजगुरू पद पर रहे थे। 1 प्राचार्य हरिगुप्त का विचार करने पर ऐसा लगता है कि वे उस समय के महान् आचार्य होना चाहिए । उनका परिचय हमें गुप्तवंशी कह कर ही कराया गया है। यह कहना अति कठिन है कि वे गुप्त राज्यवंश के ही व्यक्ति थे अथवा इसी नाम के किसी अन्य वंश के हमारे सामने ऐसी कोई भी साक्षी नहीं है कि जिससे हम इस विषय में कुछ भी कह सकते हैं । परन्तु जिनविजयजी के अनुसार, ' यह कहा जा सकता है कि जैन साधुओं में यह एक सामान्य प्रथा थी जब किसी प्रख्यात वंश या कुल का कोई व्यक्ति साधू बनता था तो इसका उल्लेख धर्म को प्रभावना की दृष्टि से बड़ी सावधानी से अवश्य ही किया जाता था। संघ के श्रावकों के समक्ष उपदेश देते हुए जैन साधू सामान्यतया अपने गुरुत्रों के इतिहास की ऐसी बातें कह कर श्रोताओं के मन पर भगवान् महावीर के धर्म और अनुयायियों की महत्ता की छाप बैठाना कभी नहीं भूलते थे । इस पर से यह अनुमान यदि हम करें कि प्राचार्य हरिगुप्त का वंश जिसके कि विषय मे तोरमाण और उसके गुरू के तीन शताब्दियों बाद होने वाले श्री उद्योतनसूरि ने उल्लेख किया है, अवश्य ही एक शक्तिशाली और सम्मान्य होना चाहिए तो वह कुछ भी अतिशयोक्तिक या ऐतिहासिक दृष्टि से अशोमन नहीं है । फिर इन हरिगुप्ताचार्य का हूण सम्राट के साथ सम्बन्ध भी इस अनुमान को समर्थन करता हैं। गुप्तों के राज्यकुटुम्ब को कोई व्यक्ति जैन साधू हो जाए, यह भले ही विस्मयकारी और अविश्वस्त सा लगता हो, परन्तु ऐसा मान लेने का ही कोई कारण नहीं है। फिर उन उद्योतनसूरि की प्रस्ताविक गाथाएँ यह भी सूचित करती हैं कि इन हरिगुप्त आचार्य के एक शिष्य महाकवि देवगुप्त था इस देवगुप्त के उद्योतनसूरि ने धागे की प्रस्ताविक गाथा में गुप्तवंश का राजवि कहा है।" इससे यह स्पष्ट है कि देवगुप्त गुप्त राजवंश की ही कोई व्यक्ति होना चाहिए। ये सब तथ्य ऐतिहासिक सत्य मान लिये जाएं इससे पूर्व निःसन्देह हमें और समकालिक निश्चित साक्षियों की आवश्यकता है कि जो परिणाम का समर्थन करें । फिर भी इस प्रकार को किसी ऐतिहासिक संरचना के लिए ऐसे तथ्यों की उपयोगिता और सार्थकता से इकार ही नहीं किया जा सकता है । इस पृष्ठभूमि से जब हम यहां तक पहुंच ही गए हैं तो एक कदम आगे बढ़ कर यह भी देखें कि क्या गुप्त राज्यवंश के किसी व्यक्ति से हरिगुप्त और देवगुप्त की समानता सम्भव भी होती हैं ? गुप्तों के विषय में जो भी ऐतिहासिक अभिलेख यब तक संग्रह किए जा चुके हैं, उनमें हमें हरिगुप्त का कोई नाम नहीं मिलता है। फिर भी 1894 में कनिधम ने अहिच्छत्रा में एक ऐसा तांबे का सिक्का प्राप्त किया था कि जिसके एक ओर पीठ पर रखा 1. जिनविजयजी, वही, पृ. 183 2. सो जय देवगुप्ता से गुस्तारा रावरिसी चतुरविजय कुवलयमाला - कथा (जैन मात्मानन्द सभा), प्रस्तावना, पृ.61 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [179 हुआ कलश या और दूसरी घोर ये शब्द: "श्री महाराजा हरिगुप्त "" उसमें दिए नाम की तुलना से सिक्का विज्ञानवेत्ताओं का मानना है ही पाया गया होगा । फिर भी इस हरिगुप्त का गुप्तवंश के किसी सकता है । प्राचीन लिपिशास्त्र के अनुसार ऐसा लगता है कि इस के मध्य में होना चाहिए।" इस प्रकार तिथि और स्थान जहां कि पर का वर्णन जैन हरिगुप्त के साथ ठीक बैठ जाता है । सिक्का पंजाब के किमी जिले से मिला है और 'हरिगुप्त' तोरमाण का समकालिक होने से वह भी विक्रम की छठी सदी के मध्य का होना चाहिए। इस प्रकार तिथि, स्थान, नाम और वंश इन सब बातों की समानता को दृष्टि में लेते हुए इस सिक्के का और जैनों का हरिगुप्त एक ही व्यक्ति माना जाए तो उसमें कोई भी भूल नहीं है । उसके अक्षरों के आकार और घाट से और कि यह सिक्का गुप्तवंश के किसी राजा द्वारा राजा के साथ सम्बन्ध बैठाया नहीं जा सिक्के में वर्णित हरिगुप्त विक्रम की छठी सदी यह सिक्का पाया गया था, और इस सिक्के ब्याही गई थी, का अब देवगुप्त का विचार करें। इसके विषय में भी वैसी ही कठिनाइयां हैं फिर भी बाग के हर्षचरित से जो कि ऐतिहासिक रोमांच कथा का सर्व प्रथम प्रयास कहा जाता है, हमें पता लगता है कि थागेश्वर और कन्नौज के महाराजा के ही काल में मालवा के सिंहासन पर एक राजा था जिसे हर्षवर्धन के बड़े भाई राज्यवर्धन ने हराया था क्योंकि मालवा राज कान्यकुब्ज के राजा ग्रहवर्मन कि जिसे हर्षवर्धन को भगिनि वेरी घोषित कर दिया गया था।" मालवा के इस राजा को डा. कूलर ने मधुबन शिलालेख को ही देवगुप्त ही माना है । " अब प्रश्न उठता है कि क्या जैन दन्तकथा का देवगुप्त हर्षचरित में जिसे मालवा का राजा बताया गया है, वहीं है। इस विषय में कठिनाई केवल दोनों देवगुप्तों के समय के समन्वय की है। तोरमाण की अनेक तिथियों में से सब ने बाद की तिथि ई. लगभग 516 की है। यदि इसे मान लिया जाए तो 75 वर्ष का रहनेवाला अन्तर केवल इसी कल्पना पर ठीक बैठाया जा सकता है कि तोरमाण की मृत्यु ई. 516 के कुछ ही बाद हुई होगी हरिगुप्ताचार्य अपने इस कृपालुराजा की मृत्यु के बाद भी बहुत 1. देखो एलन, कंटेलोग ग्राफ इण्डियन काइन्स गुप्ता डाइनेस्टीज, पृ. ग्राफ मैडीवल इण्डिया, पू. 19 प्लेट 2 7 चत्र 6 जिनविजयजी ठीक ही कहते हैं, जैनों का एक लोकप्रिय प्रतीक है । देखो जिनविजयजी, वही, 184 । 2. देखो कनियम, वही. पृ. 18-19 प्रहर 'ह' का ग्राकार गुप्तों का विशेष प्रकार का है।' वही, पृ. 19 लगभग 152 और प्लेट 26, 16 कनियम, काइन्स यहां यह भी कह देना चाहिए कि कला, जैसा कि 3. उनकी लिपि के अनुसार हरिगुप्त के सिक्के 5वीं सदी के मालूम होते हैं। एलन, वही, पृ. 105 4. कोयल और टामस हर्षचरित 5. देखो वही, प्रस्ता. पृ. 11-12 प्रख्यात राज्यवर्धन जिसके द्वारा, युद्ध में अपना दण्ड चलाते देवगुप्त आदि राजा जो दुष्ट अश्वों के समान थे, म्लान मुख हो, वश हो गए कूलर, एपी. इष्टि.. पुस्त. 1, पृ. 741 देखो वाट वही, पृ. 52 मुकर्जी राधाकुमुद, हर्ष, पृ. 16-19, 53 6. मारण के वर्णन की सत्यता को स्वीकार करते हुए... यह कहा जा सकता है कि देवगुप्त मालवा के राजा का नाम था वही प्रमुख रिपु था और उसके राज्य की विजय वारा के इस वन से भी समर्थित होती है कि मण्डिन जो राज्यवर्धन के साथ गया था, मालवा की लूट हर्षवर्धन के पास उस समय लाया कि जब हर्ष कुमार भास्करवर्मन के राज्य में राजा गौड़ से प्रतिशोध लेने के अभियान में पहुंचा था मैं यहां कह दूं कि मालव शब्द न तो यहां और न श्री हर्षचरित में अन्य उल्लेखों में ही मध्यभारत के मालव के लिए प्रयुक्त हुआ है । पंजाब में भी एक दूसरा मालव, थानेश्वर के निकटतम था और कदाचित् वही यहां प्रभिप्रेत है । बहूलर, वही, पु. 70 देखो मुकर्जी, राधाकुमुद, वही, पृ. 25, 50 आादि । प्रस्तावना, पु. 8 । 1 1 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 ] काल जीवित रहे होंगे और देवगुप्त ने अपने गुरू के अन्तिम दिनों में ही जैनदीक्षा ली होगी। तथ्य जो भी हो, हमें इस कल्पना पर अधिक भार देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि तब हम उस कालावधि के बाहर के विचार में उतर जाएंगे कि जिसका हमने अपने निबन्ध के लिए प्रतिबन्ध किया हुआ है । फिर उद्योतन सूरि की कथा के विषय में भी हम उस समय तक अधिक कुछ नहीं कह सकते हैं जब तक कि पुरातत्विक अधिक खोजें इसका कोई अन्तिम उत्तर नहीं दें। इस प्रकार का यह तथ्य कि गुप्तयुग में भी जैनधर्म एक क्रियाशील धर्म रहा था, अब तक के किए उपरोक्त विवेचन से प्रमाणित होता है। शिलालेखों के समूह से जो प्रायः समस्त या तो बौद्ध हैं या जैन और 'गुप्त राजों की' बौद्ध एवम् जैनधर्म दोनों ही धर्मों के प्रति परम सहिष्णुता नीति से भी ऐसा ही स्पष्ट होता है । अब एक बात और विचारने की रह जाती है और वह यह कि ई. 5वीं सदी के अन्त में वल्लभी वंश का उद्भव कैसे हुआ? इस वंश का उद्भव डेढ़ सौ वर्ष के गुप्तों के सुवर्ण राज्य के अन्तिम समय में ही हुआ कहा जा सकता है। कुमारगुप्त 1म की मृत्यु ई. 455 में निश्चय ही हो गई थी और तभी से उस साम्राज्य का पतन भी प्रारम्भ हो गया था। कुमारगुप्त 2य के राज्यकाल में इस साम्राज्य का निश्चय ही अन्त हो गया था । सौराष्ट्र द्वीपकल्प की पूर्व में आई हुई वल्लभी में इस वंश की जो कि ई. 770 तक चलता रहा था, स्थापना किसी भट्टारक नाम के सरदार ने की थी जो कि "मैत्रिक नाम के विदेशी कुल का एक सदस्य था।" वल्लभीवंश के इस भट्टारक के चार पुत्रथे और इन चारों को ही वल्लभीवंश ने राजों की सूची में कप्तान विलबरफोर्सब्यल एवं अन्य विद्वानों ने गिनाया है। इस सूची का चौथा राजा ध्र वसेन 1म, इस वंश के संस्थापक का तीसरा पुत्र होना चाहिए। हम उसका विशेष रूप से उल्लेख इसलिए करते हैं कि जैन-श्वेताम्बर-संघ के प्राचार्य देवधिगणि का वह समकालिक था, और ये दोनों ही उत्तर-भारत में जैनधर्म के शास्त्रों के अनभिलेखित युग के अंत होने के प्रतीक हैं। इसके अतिरिक्त श्री स्मिथ हमें यह भी विश्वास दिलाते हैं कि “वल्लभी के पहले-पहले के राजा स्वतन्त्र सत्ताधीश रहे हों ऐसा नहीं मालूम होता है। उन्हें हूणों को निःसन्देह खिराज देनी पड़ती होगी।"5 इस प्रकार यह ध्र वसेन भी हूणों का करद राजा ही होना चाहिए क्योंकि उसका राज्यकाल शाटियर और अन्य 1. स्मिथ, वही, पृ. 318, 320 । 2. वही, पृ. 346 । "...गुप्तों की शक्ति और प्रतापकम होता ही गया था और राज्य एवं अधिकार से वंचित होतेहोते ई. छठी सदी के अन्त तक बिलकुल ही उनका अन्त हो गया था।"-विलबरफोर्स-ब्यैल, दी हिस्ट्री ऑफ काठियावाड़, पृ. 37।। 3. स्मिथ, वही, पृ. 332 । "ई. लगभग 470 के, सौराष्ट्र के इतिहास में एक और परिवर्तन हुआ । इस वर्ष स्कन्दगुप्त की मृत्यु हुई, और चारणों का कहना है कि उस समयमैत्रक वंश को भट्टारक नाम का जो व्यक्ति सेना का महासेनाधिपति था । यह व्यक्ति सौराष्ट्र में पहुंचा, और अपने को स्वतन्त्र घोषित कर, उसने एक वंश स्थापित कर लिया जो कि आगे 300 वर्ष तक चलता रहा था । -विलबरफोर्स-ब्यैल वही और वही स्थान । देखो बान्यैट, वही, पृ. 49 ।। 4. देखो विलबरफोसं-व्यल, वही, पृ. 38-39; बान्यैट, वही, पृ. 49-50 । 5. स्मिथ वही और वही स्थान । “यह वंश प्रारम्भ में गुप्तों का मातहत था। फिर यह हूणों का मातहत हुआ और अन्त में स्वतन्त्र हो गया।" -बान्यँट, वही, पृ. 491 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 181 विद्वान ई.526 में पूरा हो जाना दिखाते हैं। स्मिथ और विलबरफोर्स-व्यल के अनुसार भटार्क ने ई. 490 में इस वंश की स्थापना की थी। भटार्क और ध्र वसेन के बीच में होने वाले राजा दो भाइयों ने अल्प काल तक ही राज्य किया होगा, और इस प्रकार ध्र वसेन 1 मई.526 में वल्लभी की गद्दी पर पाया होगा। इसका समर्थन इस बात से भी होता है कि वल्लभी वंश का सातवां राजा धरसेन 2 य ई. 569 में उस गद्दी पर आया था । वल्लभीपति ध्र वसेन की संरक्षकता में एकत्र हए जैन श्रमसंघ की चर्चा आगे के अध्याय में की जाएगी। यहां तो बस इतना ही कह देना पर्याप्त हैं कि जैनधर्म के मूल शास्त्र और अन्य साहित्य इस युग में लिख कर पुस्तकारूढ़ किए गए थे और जैन इतिहास में स्मृति परम्परा का युग तभी से समाप्त हो गया। जैन इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना का सम्बन्ध गुप्तवंश के साथ ही है, यह भी द्रष्टव्य है। इस समय तक जैनधर्म सारे भारतवर्ष में बहुत कुछ फैल गया था और इस तथ्य को किसी भी प्रकार अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । जैन जाति का उल्लेख करते शिलालेख ई. छठी सदी और उसके बाद संख्या में बढ़ जाते हैं । गुप्त साम्राज्य के अन्त हो जाने के पश्चात् भारत वर्ष का भ्रमण करनेवाले चीनी पर्यटक ह्य एनत्सांग ने भारत और उसकी सीमा के बाहर भी जैनधर्मको फैला हुआ देखा था। जैनधर्म के विषय में ऐसी बिखरी सूचनाओं का अनुसरण करना निःसंदेह बड़ा ही रोचक होगा, परन्तु ऐसा करना हमारे क्षेत्र के बाहर याने विषयांतर ही होगा। उद्धृत अभिलेख इस कथन का समर्थन करने के लिए पर्याप्त हैं कि महावीर निर्वाण के बाद की प्रथम पांच सदियों में बौद्ध दन्तकथा और यथार्थ ऐतिहासिक प्रमाण दोनों ही इस बात की साक्षी देते हैं कि बौद्धधर्म से बिल्कुल ही स्वतन्त्र रूप में प्रमुख धर्म रूप से देश में जैनधर्म अस्तित्व भोग रहा था। ऐतिहासिक प्रमाणों में कुछ ऐसे भी हैं कि जो इस शंका का बिलकुल निरसन कर देते हैं कि जैनों की दन्तकथाएं स्वयम् ही झूठी ठहरती है। 1. ध्र वसेन 1 म, वल्लभी का मैत्रक राजा, ई. 526-540 में राज्य करता था। -बान्यॆट, वही, पृ. 50 । “अब चूकि वल्लभी का यह ध्र वसेन 1 म ई. 526 में राजगद्दी पर बैठा कहा जाता है...।" -शाटियर, उत्तराध्ययनसूत्र, प्रस्ता. पृ. 161 विद्वान पण्डित की यह तिथि महावीर निर्वाण ई. पूर्व 467 पर और जैन शास्त्र-वाचना की तिथि वीरात् 993 पर आधारित है। वाचना की दूसरी तिथि बीरात् 980 है और इस गणना से वह ई. 514 के लगभग पाती है । देखो याकोबी कल्पसूत्र ,प्रस्ता. पृ. 15 1 फार्कहर, रिलीजस लिटरेचर ऑफ इण्डिया, पृ. 163 । इन दोनों तिथियों में अन्तर इसलिए है कि वीरात् 980 में जैनागम निश्चित रूप में लिपिबद्ध हुए थे और वीरात् 993 में ध्र वसेन प्रथम के आश्रम में प्रानन्दपुर के जनसंघ के सामने कल्पसूत्र पहले पहल पढ़ा गया था। नवशताशीतितमवर्षे कल्पस्य पुस्तके लिखनं नवशतत्रिनवतितमवर्षे च कल्पस्य पर्षद्वाचनेति ।-कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, सूत्त 148, प. 126। वीरात 980 और 993 की दोनों तिथियों के लिए देखो सेबुई, पुस्त. 22, पृ. 270 भी। 2. देखो स्मिथ, वही और वही स्थान; विलबरफोर्स-ब्यैल, वही, पृ. 38। 3. देखो वही, पृ. 391 “धरसेन 2 य...ई. 573-589 तक राज्य करता था।" -बान्यैट, वही, पृ. 51 । 4. र एनत्सांग का दिगम्बरों या निर्ग्रन्थों के कैपिशी में देखे जाने का उल्लेख...इस तथ्य का द्योतक है कि वे, कम से कम उत्तर-पश्चिम में तो, धर्मप्रचार भारतवर्ष की सीमा से परे करने लग गए थे। इलर, इण्डियन स्पैक्ट प्राफ दी जैनाज, पृ. 3-4, टि. 4; बील, वही, भाग 1, पृ. 55। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 ] सातवां अध्याय उत्तर का जैन साहित्य जनों ने सदा सर्वदा साहित्य के क्षेत्र में प्रसन्न प्रवृत्ति का विकास किया है। "यह साहित्य अत्यन्त ही विस्तृत और रस से अोतप्रोत है। भारतीय और यूरोपीय ग्रन्थालय जैन हस्तप्रतियों के ऐसे भारी संग्रह से भरे हैं । जिनका अभी तक भी कोई उपयोग नहीं किया गया है। जैन ग्रन्थकार अधिकांश साधूवर्ग के ही हैं। ये साधू चौमासे के चार महीने ग्रन्थ लेखन में उपयोग करते थे जब कि उनका भ्रमण करना धर्म से निषिद्ध है और इसलिए उन्हें एक स्थान में स्थिर निवास करना होता है। ग्रन्थ-रचयितामों में साधुनों के ही अधिकांशत: होने के कारण साहित्य में भी उनकी वृत्ति की छाया विषय और प्राशय दोनों में ही स्पष्ट मालूम होती है। प्रमुख बातों में वह साहित्य धार्मिक लक्षण वाला है और इस विषय में वह बौद्ध एवं ब्राह्मणीय साहित्य से मिलता हुआ है । ईश्वरवादी और दार्शनिक ग्रन्थ, सन्तों की कथाएं, धार्मिक पुस्तिकाएं, और तीर्थंकरों की स्तुति के स्त्रोत इस साहित्य के प्रमुख अंग हैं । विज्ञान, नाटक, काव्य, चम्पू और शिलालेख प्रादि सांसारिक विषयों के इनके ग्रन्थों में भी धार्मिक वातावरण ही गूजता है। जैन इतिहास के जिस काल का हम यहां विचार कर रहे हैं, उसका सम्बन्ध साहित्य लिखे जाने के पूर्व काल से ही है । देवर्धिगरिण एक दीपस्तम्भ के समान खड़े हैं और वे उस काल का अन्त कि जिसमें सिद्धान्त कहा जाने वाला जैनों का आगमिक साहित्य ही प्रमुखतया है, अंकित करते हैं। फिर भी जनों के समस्त साहित्य की प्रस्तावना रूप से यहां यह कह देना उचित है कि इस अपार साहित्य में भी चचित विषय अत्यन्त विविधता के है। “सर्व प्रथम तो सिद्धान्त और उस पर लिखी गई टीकात्रों का समूह है। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक साहित्य भी अनेक प्रकार का है। सिद्धान्त, न्याय और दर्शन की विशिष्ट पद्धति का विकास जैनों ने किया है। फिर उनने ब्राह्मणीय विद्वानों का भी बड़ी सफलता से विकास किया है। संस्कृत और प्राकृत दोनों ही के व्याकरण और कोश की उनने रचना की है । यही क्यों, गुजराती को भी कुछ कोश और व्याकरण उनके रचित मिलते हैं और फारसी का एक कोश भी। काव्य, अलंकार, छन्द और नीति की दोनों शाखाएं याने राजनीति एवम् सामान्य नीति के भी अनेक जैन ग्रन्थ हैं। नीति ग्रन्थों में जीवन के कुशल निर्वाह के नियम दिए गए हैं। राजकुमारों की शिक्षा के लिए जैनों ने गजशास्त्र, शालिहोत्र, युद्ध-रथों, और धनुष शास्त्र एवम् कामशास्त्र पर भी ग्रन्थ लिखे हैं । राजकुमारों से अतिरिक्त जनता के उपयोग के लिए उनने मंत्र-तन्त्र और ज्योतिष, चमत्कार याने जादू, शकुनअपशकुन और स्वप्नविचार पर ग्रन्थ लिखे हैं कि जिनका भारतीय जीवन में सदा ही महत्वपूर्ण भाग रहा है । उनके रचित वस्तुशास्त्र, संगीत, राग और वाद्य, सुवर्ण, रत्न आदि पर भी ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं... । संक्षेप में बहुव्यापक लोकप्रिय साहित्य के रचियता जैन हैं।" 1. हर्टल, पान दी लिटरेचर आफ दी श्वेताम्बराज आफ गुजरात, पृ. 4। 2. हर्टल, वही, पृ. 5-6 । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 183 इस संक्षिप्त प्रास्ताविक कथन के बाद अब हम जैनों के पवित्र धर्मग्रन्थ याने सिद्धान्त का विचार करें कि जो उनकी मान्यतानुसार उसी युग का है जिसका कि हम वहां विचार कर रहे हैं हम पहले भी देख चुके हैं और धागे इसी प्रध्याय में फिर देखेंगे कि उनके साहित्यिक वारसे के विषय में जैनों की दन्तकथा का हम अविश्वास नहीं कर सकते हैं। फिर भी यहां हम मात्र सिद्धान्त ग्रन्थों की एक सूची देते हैं कि जिनका स्वीकार ब्यैवर, विट्रनिट्ज, 2 शार्पेटियर, शापेंटियर यादि ने घोड़े बहुत अंश में कर लिया है : 8 1. चौदह पुव्वा या पूर्व (आज अनुपलब्ध) : 1. उप्पाय ( उत्पाद) । 3. वौरियप्पवाय (वीर्यप्रवाद) । 5. नारणप्पवाय (ज्ञानप्रवाद) । 7. प्रायप्पवाय (आत्मप्रवाद) । 9. पञ्चक्खाणप्पवाय (प्रत्याख्यानप्रवाद | 11. प्रबंध (मध्य) । 13. किरियाविशाल (क्रियाविशाल ) । 2. बारह अंग 3. बारह उपांग (बारह अंगों के अनुरूप) 1. उबवाइय (धोपपातिक) 3. जीवाभिगम । 5. सूरियपति सूर्यप्रज्ञप्ति 7 पति चन्द्र प्रज्ञप्ति) । 9. कप्पावदंसियाओ (कल्पावतंसिकाः) । 11. पुष्पचूलि श्राश्रो (पुष्पचूलिकाः) । 2. अगेशिय अथवा ममाशिय ? अशायरणीय) 4 4. अत्थिनत्थिष्पवाय ( प्रस्तिनास्तिप्रवाद) । 6. सच्चप्पवाय (सत्यप्रवाद) । 8. कम्मप्पवाय ( कर्मप्रवाद) । 10. विजयवाय (विधियानुप्रवाद)। 1. आयार ( आचार) । 3. ठारण (स्थान) । 5. वियापयति (व्याख्याप्रज्ञप्ति), जो 6. नायाधम्मकहाओ ( ज्ञाताधर्मकथा : ) । 8. पंतगडाम्रो (अ ंतकृतदशा) | 10. पहायागरणाई ( प्रश्नव्याकरणानि ) । 12. दिवा (ष्टिवाद), ग्राज उपलब्ध नहीं है। 12. पारगाउम (प्रारणायुः) । 14. लोगविदुसार (लोकबिंदुसार) । 2. सूयगड (सूत्रकृत) 1 4. समवाय सामान्यतया भगवती कहा जाता है। 7. उवासमदसाम्रो ( उपासकदशाः) । 9. प्रणुत्तरोववाइयदसाम्रो (अनुत्तरोपपातिकदशाः) | 11. विवागसूयम् (विपाकसूत्रम्) । 2. रायपसेरिगज्ज (राजप्रश्नीय) । 4. पनवरणा (प्रज्ञापना) । 6. जंबूद्दीवपण्णत्ति (जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति) । 8. निर्यावली । 10. पुष्पी ग्राम्रो ( पुष्पिकाः) । 12. afgeerst (afayeurr:) | 1. देखो व्यंवर, इण्डि एण्टी, पुस्त. 17, पृ. 279 आदि, 339 आदि; पुस्त. 18. पृ. 181 बादि 369 प्रादि पुस्त. 19, पृ. 62 आदि; पुस्त. 20, पृ. 170 आदि, 365 आदि; और पुस्त. 21, पृ. 14 आदि, 106 श्रादि, 177 श्रादि, 293 आदि, 327 आदि, 369 आदि । 2. देखो बिनिट्ज शिष्ट डेर इण्डिशन लिटरेटूर, भाग 2, पू. 291 प्रादि । 3. देखो शार्पेटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 9 आदि; बेल्वलकर, ब्रह्मसूताज ग्राफ बादरायाण, पृ. 107 आदि । 4. देखो शार्पेटियर, वही प्रस्ता. पृ. 12 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] 4. दस पहण अथवा प्रकीर्णानि : 1. चउसररण (चतु: शरण । 3. मक्तपरिष्ण (भक्त परिज्ञा) । 5. तंडुलयालय (?) | 7. देविदत्थव (देवेन्द्रस्तव) । 9. महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान ) । 5. छह छेद सूत्र 1. निसीह (निशीत्थ) । 3. व्यवहार (व्यवहार) । 5. बृहत्कल्प । 6. चार मूल सूत्र : 1. उत्तरउभयण (उत्तराध्ययन) । 3. दशवेयालिय (दशकालिक) । 7. दो सूत्र : 1. नन्दीसुत्त (नन्दीसूत्र ) । 2. उरपञ्चवाण ( आतुरप्रत्याख्यान ) । 4. संचार (संस्तार) | 6. चंदाविमा (चन्द्रवेध्यक) । 8. गरिगविज्जा ( गरिणत विद्या) । 10. वीरत्थव ( वीरस्तव) । 2. महानिसीह ( महानिशीथ ) । 4. प्रायारदसाओ (प्राचारदशाः), यावेसासूपरकंध (दशाभूतस्कंध । 6. पंचकल्प । 2. प्रणयोगदारसुत (धनुयोगद्वारसूत्र ) । उपरोक्त सब सिद्धान्त ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही हैं क्योंकि दिगम्बरों ने इन्हें अस्वीकार कर दिया है। दिगम्बरों की यह दन्तकथा उस भीषण दुष्काल से सम्बन्धित है कि जो मगध में चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य काल में पड़ा था। भद्रबाहुं और उनके शिष्यों के दक्षिण प्रवास के पश्चात् जैनधर्म के पवित्र सिद्धान्त ग्रन्थों का विस्मरण द्वारा नाश होने का भय उपस्थित हो गया और स्थूलभद्र एवम् उसके शिष्यों ने एक परिषद् उन साधुत्रों निमंत्रित की कि जो उधर ही रह गए थे। यह परिषद ई. पूर्व तीसरी सदी में मौर्य साम्राज्य की राजधानी एवम् जनसंध के इतिहास में प्रसिद्ध पाटलीपुत्र में एकत्रित हुई थी। जैनों की इस परिषद ने जैसा कि डा. शार्पेटियर कहता है, 'बहुत कुछ वही कार्य किया होगा कि जो बौद्धों की पहली संगीति याने परिषद ने किया था ।"" इस परिषद ने अंगों और पूर्वो दोनों का ही पाठ स्थिर किया और यही से सिद्धान्त की प्रथम भूमिका प्रारम्भ हुई । परन्तु दक्षिण से लौटने वाले मुनियों को सिद्धान्त के इस प्रकार स्थिर किए पाठ से सन्तोष नहीं हुआ उनने इस सिद्धांत को मानने से इन्कार ही नहीं किया अपितु यह भी घोषित कर दिया कि पूर्व ज्ञान और अंश ज्ञान दोनों ही विच्छेद 2. आवस्य (आवश्यक) । 4. पिडनिज्जुत्ति (पिण्डनिपुं क्ति) । 1. शार्पेटियर, वही, प्रस्तावना पृ. 14 | - बाहु रचित थे जैसे कि कल्पसूत्र, स्थिर हुए ।' वही । इसलिए पाटलीपुत्र में 2. 'इस प्रकार, स्थूलभद्र की दन्तकथानुसार, पहले दस पूर्व और अंगों का सिद्धान्त और अन्य शास्त्र जो कि भद्रएक परिषद बुलाई गई जिसमें अंगद्विद्विवाय नाम को संग्रहित इण्डिया, पृ. 75; याकोबी, लिए देखो परिशिष्ट पर्वन् सगँ ग्यारह अंग संकलित किए गए और हुआ ।' विटर्निट्ज, वही, पृ. 293 कल्पसूत्र, प्रस्ता. पु. 11, 15 9 श्लोक 55-76, 101-103 14 पर्वो में से बच रहे पूर्व का 12 वां देखो फार्कहर रिलीजस लिटरेचर श्राफ पाटलीपुत्र की परिषदे का हेमचन्द्र के दर्शन के Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 185 चला गया है । " दिगम्बरों की इस मान्यता का कि जो आज सिद्धान्त रूप से उपलब्ध है, वह मूल रूप से नहीं हैं, यही आधार है । हम आगे थोड़ी ही देर बाद देखेंगे कि उनकी यह दन्तकथा श्वेताम्बर मान्यता के कारणों के विचार दृष्टि से कुछ भी महत्व की नहीं है । में परन्तु इस प्रश्न पर विचार करने के पूर्व हम दूसरी परिषद का भी कि जो देवगिरि के नेतृत्व में बल्लमी गुजरात देश को एकत्रित हुई थी उल्लेख कर देना चाहते हैं। इस देवगिरि का जैन साहित्यक इतिहास में वैसा ही स्थान है जैसा कि बौद्ध साहित्य के इतिहास में बुद्धपोष का है। यह जैन परिषद ई. छठी सदी के प्रारम्भ में मिली थी। मगध की पहली परिषद के पश्चात् काल व्यतीत होते होते श्वेताम्बर सिद्धान्त फिर से अव्यवस्थित हो गया, यही नहीं अपितु उसके सम्पूर्णतया नष्ट हो जाने का मी पूरा पूरा भय हो गया । इसलिए जैसा कि हम पहले ही देख धाए हैं. महावीर निर्वाण के पश्चात् 980 अथवा 993वें वर्ष में एक देवधिगरि नाम के महान् जैनाचार्य ने जो कि क्षमाश्रमण कहलाता था, यह देख कर कि सिद्धान्तलुप्तप्रायः होता जा रहा है क्योंकि वह लिख नहीं लिया गया है, दूसरी बड़ी परिषद वल्लभी में एकत्रित की। बारहवां रंग तो जिसमें कि चौदह पूर्वी का ज्ञान संग्रह किया गया था, उस समय तक नष्ट हो ही चुका था और इसलिए जो कुछ शेष रहा था उसी को लिख कर तब सुस्पष्ट रूप दे दिया गया। इस प्रकार देवगिरिण का यह प्रयत्न कुछ प्राचीन लेखी प्रत पोर कुछ स्मृति परम्परा के आधार से पवित्र धर्मशास्त्रों के सिद्धान्त के संकलन और सम्पादन का ही रहा होगा । जैसा कि आधुनिक विद्वानों में से अधिकांश का मानना है, हमें भी यह शंका करने की आवश्यकता नहीं है कि सिद्धान्त का समस्त वाह्य रूप भवसेन के समय का ही है कि जिसकी संरक्षकता में यह महा परिषद सम्मिलित हुई थी। दिगम्बर दन्तकथा का विचार हम करें कि जो कहती है कि मगध के भीषण दुष्काल के बाद ही सिद्धांत सम्पूर्णतया विस्मृत या नष्ट हो गया था। पहली बात तो यह है कि इस प्रकार का प्रतिव्यापक कथन किया जा सके ऐसा कोई भी प्राधार हमें प्राप्त नहीं है। यहां एक बात प्रारम्भ में ही कह देना प्रति आवश्यक है और वह यह कि दिगम्बर भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य सब पूर्वो और प्रगों के ज्ञाता थे। उन्हें भी द्वादशांगी का श्वेताम्बरों की भांति ही बहुमान है।* इसलिए हमें यह निश्चय करना ही 1. मगध के भीषण दुष्काल यादि के लिए देखो वही स्थान | शार्पेटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 13-15; विनिट्ज, वही, और 2. शार्पेटियर वही प्रस्ता. पृ. 15 देखो बिनिट्ज वही, पृ. 293-294 याकोबी, सेबुई पुस्त 22, प्रस्ता पृ. 37-38 । एक अन्य परम्परा के अनुसार, सिद्धान्त का प्रकाशन श्री स्कंदिलाचार्य की प्रमुखता में हुई मथुरा की परिषद में हुआ था। व्यवर, इण्डि एण्टी.. पुस्त 17, पृ. 282 3. ' पूर्व सर्वसिद्धान्तानां पाठनं च मुखपाठनइ 'वा' सित ।' -याकोबी कल्पसूत्र, पृ. 117 | देखो विर्निट्ज, वही, पृ. 294 । इस परिषद के कार्य विवरण और प्रतिसंस्करणकारों की शैली को ठीक परिचय के लिए देखो शार्पेटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 16 आदि । 'प्रत्येक गुरू के अथवा कम से कम प्रत्येक उपाश्रय के लिए पवित्र धर्मग्रंथों की प्रतियां उपलब्ध करने को देवगिरि ने सिद्धान्त का बहुत बड़ा संस्करण याने अनेक प्रतियां तैयार कराई होंगी ।' - याकोबी, सेबुई, पुस्त. 22, प्रस्ता. पृ. 38 । 4. देखो कूलर, इण्डि एण्टी, पुस्त. 7 पु. 29 फिर भी हमें श्वेताम्बरों एवम् दिगम्बरों दोनों ही द्वारा कहा वाले सभ्य और सम्भवतया प्राचीन भी ग्रन्थ थे जिनकी मूलतः जाता है कि पंगों के अतिरिक्त पूर्व कहे जाने संख्या चौदह थी । याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 44 । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] शेष रह जाता है कि मूल सिद्धांत सर्वथा ही विलुप्त या नष्ट नहीं हो गया था। प्राचीन लिपिक साक्षी जो कि इस सम्बन्ध में प्रस्तुत की जा सकती है, वह मथुरा के शिलालेखों की है। जैसा कि हम देख आए हैं, उन अभिलेखों में जो अनेक शाखाओं और कुलों का निर्देश किया गया है, उनकी अभिन्नता उन शास्त्रों के उल्लेखों से बराबर प्रमारिणत होती है कि जिन्हें 'दिगम्बर परवर्ती और मूल्यहीन घोषित करते हैं हालांकि उनका कुछ अंश में उपयोग करते भी वे मालूम होते हैं।" फिर महावीर सम्बन्धी दन्तकथा भी मथुरा - शिल्प में जैसी कि श्वेताम्बर शास्त्रों में उल्लिखित पाई जाती है, वैसी ही अ ंकित मिलती है। जैन साधुत्रों को वाचक याने पाठक या उपदेशक के विरुद सहित उल्लेख किया गया है। डा. विटर्निट्ज के अनुसार यह शेषोक्त तथ्य इस बात की साक्षी प्राचीनलिपिक देता है कि जैनों के पवित्र धर्म शास्त्र ईसवी युग को प्रारम्भ तक तो अवश्य ही विद्यमान थे। फिर जैसा कि पहले कहा जा चुका है जैन साधू अपवाद रूप से नग्न भी रह सकते हैं ऐसा श्वेताम्बरों के ग्रन्थों में भी कहा गया है। ये सब बातें प्रमाणित करती है कि मूल पाठ में मनमाना फेरफार करने का जरा भी साहस किसी ने भी नहीं किया था अपितु उन्हें जहां तक सम्भव हुआ वहां तक सत्य रूप में ही दिया गया था। अन्त में जैन दन्तकथा की प्रामाणिकता की सब से बड़ी साक्षी यह है कि अनेक उपयोगी विवरणों में यह बौद्ध दन्तकथा से एकदम ही मिलती हुई है । 1 1 अनेक विद्वानों के अभिप्रायानुसार सिद्धान्त के होना भी इसका पुष्ट प्रमाण है कि ये सिद्धान्त ग्रंथ अपरिवर्तित और अबाधित रहना ही चाहिए परीक्षक मोर भारतीय छन्दशास्त्र को नि सामान्यतः इन सिद्धान्त ग्रन्थों में व्यवहृत सभों सिद्धान्त ग्रन्थों के छन्दों की अपेक्षा स्पष्ट ही अधिक एवम् धन्य उत्तरीय बौद्ध ग्रंथों में प्रयुक्त से अपेक्षाकृत स्पष्टतः प्राचीन हैं। इस प्रति निष्कर्ष पर पहुंचा कि सिद्धान्त का प्रमुख और महत्व का प्राचीन भाग ईसबी पहली शती और त्रिपिटक काल के मध्य का याने ई. पूर्व 300 से लेकर ई. 200 की अवधि में रचा हुआ होना ही चाहिए और मैं भी इस निष्कर्ष को बिलकुल न्याययुक्त ही मानता हूं 15 महत्वपूर्ण यंत्रों में ग्रीक खगोल के विचारों का उल्लेख नहीं अधिक नहीं तो कम से कम ईसवी सन् की पहली शती से तो 'उनके छंदों (Terminus a quo ) पर से याकोबी जैसे सूक्ष्म मी जैसे ही लगते ये सिद्धान्त ग्रन्थ प्रारम्भस्थल है क्योंकि चाहे वह तालिय, त्रिष्टुम और धार्या कोई भी हो, पाली विकसित हैं यही नहीं अपितु ये सिद्धान्त च ललितविस्तार प्रखर साक्षी से याकोबी इस इसके अतिरिक्त सारे सिद्धान्त ग्रंथों में छुटेछवाए अनेक वाक्य हैं कि जो जैन सिद्धान्त का समय निश्चित करने में परम सहायक होने जैसे हैं। इन सब वाक्यों को उद्धृत करना यहां श्रावश्यक नहीं है, फिर भी यहां एक 1. शार्पेटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 11 2. वाचकस्य बलवनस्य... आदि, पृ. q. 383-386 1 3. देखी बिनिट्ज, वही धौर वही स्थान । 1 4. देखो शापेंटियर वही प्रस्ता. पु. 25 परन्तु अधिक वजनदार तर्क यह है कि सिद्धान्त में हमें ग्रीक ज्योतिष का कुछ भी प्रभाव या चिन्ह नहीं दीखता है। सत्य तो यह है कि जैन ज्योतिष एक अविश्वासनीय सम्भवता की पद्धति है। यदि जैन ज्योतिष के लेखक को ग्रीक ज्योतिष का जरा भी ज्ञान होता तो वैसी असम्भव बातें लिखी ही नहीं जा सकती थी। चूंकि ग्रीक ज्योतिष का भारत में प्रवेश तीसरी या चौथी सदी ईसवी में हुआ लगता है, इससे ऐसा अनुमान होता है कि जैनों के आगम ग्रन्थ उस काल से पूर्व के ही रचित हैं ।' -याकोबी, वही, प्रस्तावना, पृ. 40 5. शार्पेटियर, वही प्रस्तावना, पृ. 25-26; याकोबी, वही, प्रस्तावना पु. 41 धादि । देखो बहूलर, वही और वही स्थान । तर एपी. इण्डि., पुस्त. 1, लेख सं. 3. 382 । देखो वही लेख सं. 4, 7, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 187 वाक्य उद्धृत करना उचित है क्योंकि सिद्धान्त-रचना काल के प्रश्न पर वह अच्छा प्रकाश डालता है। डा. शाटियर के शब्दों में वह इस प्रकार है : 'दूसरे उपांग रायपसेपइज्ज में जिसका दीघनिकाय के पायासीसूत्त से निकट सम्बन्ध देखकर, प्रो. लायमन ने दीर्घ विचार किया था, एक स्थान पर कहा गया है कि किसी ब्राह्मण ने अमुक अपराध किया हो तो उसे डाम दिया जाता था -याने सुनख (कुत्ते), या कुण्डिय का आकार उसके भाल पर डाम दिया जाता था । यह वर्णन कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दिए वर्णन के ही अनुरूप है जिसमें लिखा है कि चार चिन्ह इसके लिए प्रयोग किए जाएं-याने चोरी के लिए कुत्ते का, गुरूतल्पे (गुरू-पत्नि के साथ पापाचरण) के लिए भग का, मनुष्य की हत्या के लिए कबंध का, और सुरापान के लिए मद्यध्वज का चिन्ह डाम दिया जाए । परन्तु यह दण्ड-विधान मनु एवम् परवर्ती स्मृतियों में नहीं है यही नहीं अपितु इनमें ब्राह्मण को शारीरिक दण्ड से भी ऊपर माना गया है । ब्राह्मणों के शारीरिक दण्ड देने की प्रथा कौटिल्य के बाद ही बन्द हो गई होगी परन्तु जैन ग्रन्थों में ऐसे दण्ड का उल्लेख होने से यही अनुमान निकलता है कि अन्य धर्मशास्त्रों की अपेक्षा ये जैन ग्रंथ पहले के और कौटिल्य के समीपवर्ती काल के होना चाहिए । इन सब बातों को देखते हुए एक बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि श्वेताम्बरों के अभी के सिद्धान्त ग्रंथ के बाद के नहीं है यही नहीं अपितु कितने ही स्थानों पर उनमें घट-बढ़ हुई होने पर भी मूल ग्रंथों या पाठों पर ही वे रचित हैं । इन मूल पाठों की रचना समयक्रम से कब-कब हुई, यह प्रश्न रोचक होते हुए भी बड़ा उलझन मरा है । फिर भी इस बात में कोई भूल नहीं दीखती है कि इनका निश्चित रूप पाटलीपुत्र की परिषद में स्थिर किया हुपा ही होना चाहिए, यही नहीं अपितु कितनी ही विशिष्ट बातों में तो पाठ उससे भी प्राचीन काल के होना चाहिए । अब हम संक्षेप में पिद्धान्त-ग्रंथों के विषयों पर विहंगम ग प्रत्येक की आवश्यक बातों की चर्चा करते हुए उनका सारांश देने का यहां प्रयत्न करेंगे। क्रमानुसार प्रथम स्थान चौदह पूर्वो का है। ये ही सिद्धान्त के प्राचीनतम विभाग हैं और श्वेताम्बर भी दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग के साथ-साथ ही सम्पूर्णतया विच्छेद जाना इनका मानते हैं । ये सर्वोत्तम प्राचीन सिद्धान्त स्वतन्त्र रूप में स्थायी नहीं रह सके तो इनका संकलन दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग में किया गया था। परन्तु फिर भी इनका ज्ञान स्थायी नहीं रखा जा सका और दृष्टिवाद का बारहवां अंग भी विलुप्त हो गया। पहले कहा ही जा चुका है कि पूर्वो का उपदेश महावीर ने स्वयम् दिया था, परन्तु अंगों की रचना उनके गणधर शिष्यों द्वारा हुई थी । डा. शार्पटियर कहता है कि 'यह दन्तकथा पौराणिक तीर्थकर ऋषमदेव द्वारा सिद्धान्त के रचे जाने की बात की उपेक्षा कर देती है और सिद्धान्त के मूल का महावीर द्वारा ही रचा जाना कहना निश्चय ही उचित है। तथ्यों के सामान्य वर्णन की दृष्टि से यह कथन कि सिद्धान्त का प्रमुख अंश महावीर और उनके निकटतम उत्तराधिकारियों से उद्भूत है, विश्वस्त ही लगता है ।' पूर्वो के पश्चात् अंगों का नम्बर या स्थान प्राता है। प्रत्येक अंग में कुछ प्रौपचारिक विशिष्टता देखी जाती है कि जिमसे किसी किसी का पारस्परिक निकटतम सम्बन्ध प्रमारिणत होता है । बारह अंगों में से पहला, पायारांग 1. शामशास्त्री, कौटिल्याज अर्थशास्त्र, पृ. 250; उदयवीर, कोटलीय अर्थशास्त्र, अधि. 4, अध्या. 8, पृ. 136 । 2. शाटियर, वही, प्रस्ता. पृ 31 । 3. 'मुझे यह नहीं लगता है कि प्रमुख पवित्र धर्मग्रन्थ आज के रूप में, पाटलीपुत्र की परिषद् में निर्धारित पाठों __ के ही अनुरूप हैं।'-वही । देखो याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 9,43 । 4. शाऐंटियर, वही, प्रस्ता पृ 11-12 । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 ] या प्राचारांगसूत्र का विचार करने पर हमें पता लगता है कि यह गद्य और पद्य दोनों में ही रचित उपलब्ध सिद्धांत ग्रन्थों में प्राचीनतम है । इसमें जैन साधू के प्राचार का वर्णन है। इसके दो विभाग याने श्रुतस्कन्ध हैं जो शैली में और विषय-विवेचना की रीति में परस्पर भिन्न-भिन्न हैं । इन दो श्रुतस्कन्धों में का पहला श्रतस्कन्ध वर्तमान धर्मग्रन्थों में अत्यन्त प्राचीन नहीं तो प्राचीनों में से एक होने की छाप बैठाता है । सूत्रकृतांग एवम् अन्य सिद्धान्त ग्रंथों की ही भांति इस प्राचारांग में भी हम देखते हैं कि इसके बड़े अनुच्छेद की समाप्ति 'ति बेमि' अर्थात 'इति ब्रवीमि' में होती है और टीकाकारों के अनुसार महावीर के गणधर शिष्य, सुधर्मा ही ने इस प्रकार कहने का ढंग अपनाया था। गद्य भाग का प्रारम्भ इस प्रकार होता है : "सूयम् मे ग्राउस, तेणं भगवया एवं अक्खायं" अर्थात् हे आयुष्मन्, मैंने सुना है। इस प्रकार उस महासंत ने कहा है । इस शैली में, महावीर के वाक्यों या कथन का मौखिक अनुवाद सुधर्मा ने अपने शिष्य जम्बू को संम्बोधन करते हुए किया है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, प्राचारांगसूत्र में प्रमुखतया चार अनुयोगों में से एक ही का विवेचन है कि जिनमें पवित्र ज्ञान विभाजित कर दिया गया है याने धर्मकथा, गणित (काल), द्रव्य और चरणवरण ।' उसके उपदेशों में समभावी और निष्पक्ष गुरू की वाणी और उसकी गम्भीर चेतावनी, आध्यात्मिक अथवा अन्य, का संमिश्रण है। भली प्रकार समझने के लिए इस सूत्र का एक अंश ही यहां उद्धृत कर देना समीचीन है : 'भूत, वर्तमान और भविष्य के अहंत और भगवंत सब यही कहते हैं, बोलते हैं, बताते हैं, समझाते हैं कि श्वासोश्वास लेते, अस्तित्व रखते, जीवन बिताते चैतन्ययुक्त सभी प्राणियों को मारना नहीं चाहिए, उनके साथ हिंसक रीति से बरतना नहीं चाहिए, उन्हें गाली नहीं देना चाहिए, पीड़ा नहीं देना चाहिए तथा उनको धुत्कार हकाल नहीं देना चाहिए।' ___ 'यह शुद्ध, अप्रतिम और शाश्वत नियम संसार का स्वरूप जानने वाले ज्ञानी पुरुषों ने प्ररूपित किया है। यह नियम ग्रहण करके किसी को उसे छुपाना नहीं चाहिए और न उसे छोड़ ही देना चाहिए । सत्य रूप में इस नियम का स्वरूप समझने वाले को इन्द्रियों के विषयों के प्रति उदासीन भाव पोषण करना चाहिए और सांसारिक हेतु से कुछ भी नहीं करना चाहिए...'; जो सांसारिक सुख में लुब्ध बनते हैं वे बारम्बार जन्म-मरण करते हैं।' दृढ़ता से अप्रमादी रह कर रात दिन तू प्रयत्न करता रहे; निरन्तर अपनी बुद्धि को समतोल रखते हुए इतना देखता रहे कि मोक्ष प्रमादी से दूर रहता है; यदि तूप्रमाद रहित बन जाएगा तो तूं जीत जाएगा । ऐसा मैं कहता हूं।' दूसरा अंग सूयगडांग या सूत्रकृतांग काव्य में दार्शनिक चर्चा करता है और अन्त में क्रियावाद, प्रक्रियावाद, वैनेयिकवाद और अज्ञानवाद के तर्कों का प्रत्युत्तर देता है। इस सूत्र का हेतु बाल-साधुनों को नास्तिक सिद्धांत 1. देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 296; बेल्वलकर, वही, पृ. 108; व्यंवर, वही, पृ. 342 । 'मेरी सम्मति में प्राचा रांगसूत्र और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध दोनों ही सिद्धान्त के प्राचीनतम अंश माने जाना चाहिए ।-याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 41 । 2. देखो व्यवर, वही, पृ. 340; याकोबी, वही, पृ. 1,3; वैद्य, पी. एल., सूयगडांग, पृ. 65, 80 । 3. अनुयोग: चत्वारि द्वाराणि-चरणधर्मकालद्रव्यारख्यानि...सक्खिग्रज्जेहिं । जुगमासज्ज विभत्तो प्रणयोगों तो कयो __ चउहा ।।-पावश्यकसूत्र, पृ. 296 । 4. याकोबी, वही, पृ. 36-37। 5. देखो वैद्य, पी. एल., वही, पृ. 3-11। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 189 में रहे मय एवं लालच से सावधान करते हुए उससे बचकर अपने सिद्धान्त में छड़ कर उसे मोक्ष की घोर खींच ले जाने का ही है । पहले अंग की ही भांति यह भी दो श्रुतस्कन्धों में है । याकोबी तथा अन्य विद्वानों के अनुसार सिद्धान्त के प्राचीनतम अंशों में इसका प्रथम स्थान है । जैसा कि हम बौद्ध साहित्य में देखते हैं, यहां भी गद्य और पद्य दोनों ही मिले हुए हैं और यंत्र तंत्र रोचक उपमा के अनेक दृष्टांत दिए हैं। उदाहरण स्वरूप एक उपमा दृष्टांत देलिए जैसे (हिंदु जन्तु) बाजपक्षी (डंक) उन फड़फड़ाते पक्षी शावकों को कि जिनके पंख अभी पूर्ण विकसित नहीं हुए हैं, उठा कर ले जाते हैं... वैसे ही सिद्धान्त विहीन मनुष्य उन बालजीवों को कि जिनने धर्म का गहन विचार नहीं किया है, ललचा कर खींच ले जाते हैं।"" सूत्रकृतांग का प्रारम्भ बुद्ध और अन्य अर्जन धर्माचार्यों के जो थे, सिद्धान्तों के निरसन से हुआ है । फिर भी, जैसा कि विटर्निट्ज विषय में जो कुछ हमें प्राप्त होता है, वह घर्जन मतों के सिद्धान्तों से जिसका एक उदाहरण नीचे दिया है, बौद्ध शास्त्रों में भी पाया जाता है : महावीर के प्रमुख सिद्धान्त का विशेष करते कहता है, इस सूत्र से कर्म और संसार के अधिक भिन्न नहीं है। ऐसा दार्शनिक लक्ष्य ' मात्र में दुःख पाता हूं, ऐसा ही नहीं है । संसार के सभी प्राणी दुःख अनुभव करते हैं । चतुर पुरुष को ऐसा विचार करना चाहिए और जो कुछ भी दुःख या पड़े उसे पविकारी शांति से भोगना चाहिए ।" 1:0 सापू- जीवन के मार्ग में आने वाले अनेक कष्टों और प्रलोभनों का इसमें सूक्ष्म विचार किया गया है और प्रत्येक स्थान पर बाल साधू को ढ़ता से उन पर विषय पाने का उपदेश दिया गया है। उसे स्त्रियों के प्रलोभन से सचेत रहने की विशिष्टता से प्रेरणा की गई है। हम बहुधा देखते हैं कि इस प्रकार की चितौनी ऐसी यथार्थ रसिकता में पगी होती है कि सारा वातावरण घरेलू और यथार्थवादी हो जाता है। उदाहरणार्थ देखिए 'जब उनने (स्त्रियों ने) उसे वशीभूत कर लिया है तो उसको फिर वे अनेक प्रकार के कार्यों के लिए भेजती रहती हैं। जैसे कि, तू बी को उत्कीर्ण ( पर खुदाई करने के लिए सूची खोज कर लाओ, कुछ अच्छे फल लाओ । शाकादि पाचन के लिए ईंधन लाओ मेरे पदों में महावर लगाओ, मेरी पीठ खुजताओ... मुझे मेरी सुरमादानी, काजल कोटिविया, गहनों का पिटारा, बांसुरी ला कर दो.... चिऊंटी, कंधा, और पोटी बांधने के लच्छे आदि ला कर दो दर्पण ला कर दो या सामने लिए खड़े रहो, दन्तून पास ला कर धरो 14 । धागे के दो बंग याने स्थानांग और समवायांग का हम एक साथ ही विचार करेंगे बीद्धों के अंगुत्तरनिकाय की भांति ही, जैनागमिक साहित्य के इन दोनों ग्रन्थों में संख्या क्रम से धार्मिक महत्व की अनेक बातों की चर्चा की गई है। स्थानांग में संख्या 1 से 10 और समवायांग में 1 से 100 तक ही नहीं अपितु 10,00,000 तक की संख्या के विषयों का विवेचन हुआ है । इन दोनों के विषयों की पर हम देखते हैं कि स्थानांग में हमें नष्ट बारहवें अंग दिट्टिवाय की विषय-सूची, सात निन्हव याने संघ में मतभेद उत्पन्न करने वालों के नाम, स्थान और विषय की जानकारी प्राप्त होती है । समवायांग में, पक्षान्तर में, बारह अंगों के विषयों सूची का विचार करने 1. देखो याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 41; विटर्निट्ज, वही, पृ. 297 2. देखो याकोबी, सेबुई, पुस्त. 45, पृ. 3241 3. ait aratat, age, gen. 45 g. 251 1 5. विनिट्ज, वही, पृ. 300; बेल्वलकर, वही और वही स्थान । 6. देखो विनिज वही और वही स्थान: 4. वही, पृ. 226, 277 ब्वेवर, इण्डि एण्टी, पुस्त. 18, पृ. 370 I Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] का ठीक-ठीक वर्णन जहां किया गया है, वहां सिद्धान्त सम्बन्धी अनेक ज्ञातव्य बातें, पौराणिक भक्तों और जैन इतिहास का भी विवेचन है ।' सिद्धान्त को और अन्य अगणित कल्पनाओं को यथार्थ रूप में समझने का संपूर्ण भण्डार या विश्वकोश इन दोनों अंगों में हैं । जैनों का पांचवां अंग भगवतीसूत्र हैं। यह जैन सिद्धान्त का अत्यन्त महत्वपूर्ण घोर मौलिक ग्रन्थ है। जैन इतिहास की दृष्टि से भी इसका स्थान अद्वितीय है। पार्श्व और महावीर काल के एवं उनके समकालिकों सम्बन्धी अपने पूर्व प्रध्याथों में हमने इस अंग का एक से अधिक बार उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त इसमें जैन मान्यताओं की अनेक उलझनों का स्पष्टीकरण भी है जो कहीं उपदेश रूप से तो कहीं दन्तकथा के संवाद (ऐतिहासिक संवाद रूप से दिया गया है। इसकी दन्तकथाओं में सबसे प्रमुख वे हैं जो कि महावीर के समकालिकों पर पूर्वगामियों के पार्श्व के अनुयायियों के, जामानी और गोशाल के सम्प्रदायों के विषय में हैं। गोशाल पर तो भगवती का पन्द्रहवां शतक समूचा ही है । 2 'इन सब दन्तकथाओं से,' ब्यवर कहता है कि 'हमारे पर ऐसी छाप पड़ती है कि ये सब दन्तकथाएं परम्परा से सरल भाव में चलती या रही हैं। इसीलिए, बहुत सम्भव है कि, वे महावीर के जीवन काल की अनेक प्रमुख घटनाओं की (विशेषतः उनकी कि जो बौद्ध दन्तकथाओं के अनुरूप हैं) अति महत्व की साक्षी प्रस्तुत करती है ।" , सिद्धान्त के छठे अंगग्रंथ नायाधम्मकहाओ में हमें जैनों के वर्णनात्मक साहित्यक का दिग्दर्शन होता है। यह कहानियों या उपमेय दृष्टान्तों का संग्रह ग्रन्थ है जो नैतिक उदाहरण प्रस्तुत करने की दृष्टि से रचित हैं, पौर जैसा कि समस्त भारती वर्णनात्मक साहित्य में देखा जाता है. जैनों का यह कण साहित्य उपदेशात्मक ही है । अपने धर्मोपदेश के प्रारम्भ में प्रत्येक जैन धर्मोपदेशक साधू सामान्यतया कुछ गद्य में अथवा पद्यों में, अपनी धर्मदेशना का विषय कहता है और फिर उसके निरूपण में एक लम्बी रोचक कथा कह सुनाता है ताकि उसके अनुयायी वर्ग में महावीर के सिद्धान्तों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो क्योंकि यही उपदेश की प्रभावकता का प्रमो साधन है । हर्टल के अनुसार जैनों की ऐसी धर्मदेशना का साहित्यिक रूप बौद्ध जातकों से मिलता हुआ ही नहीं है, अपितु उससे कहीं बढ़ा-चढ़ा भी है 14 पौर्वात्य विद्याविद् का कहना है कि 'भारतीय इस कला को लाक्षणिक 1. देखो बिनिट्ज, वही और वही स्थान ब्येवर वही, पृ. 377 बारह अंगों के ब्यौरे सहित विवेचन के साथ यहां भी, जैसा कि नन्दी में हैं, दुवालसंगम गरिपिडगं समस्त पर एक पाठ दिया हुआ है। इस पाठ में उन सब आक्षेपों का कि जो भूतकाल में उस पर किए गए थे, जो वर्तमान में किए जा रहे हैं और जो भविष्य में किए जाएंगे, विचार संक्षेप में किया गया है और इसी भांति संक्षेप में इन्हीं तीनों कालों में जो इसे श्रद्धा सहित मौन' मति प्राप्त होने वाली है उसका भी विचार किया गया है और अन्त में इसकी शाश्वत्ता की निश्चित घोषणा की गई है न कबाइ न प्रासि न कपाइ ना 'सिय, न कवाइ भविस्सति । वही इस पर व्यंवर नीचे लिखी टिप्पणी करता है : 'अभयदेवसूरि के अनुसार जामाली, गोष्टामाहिल आदि आदि का विरोध - याने सात निरवों का वही, टिप्पण 65। 1 1 . 2. देखो विनिट्ज वही पू. 300-301 जिन दन्तकथायों का यहां संकेत किया गया है, वे ही हमारा खास ध्यान आकर्षित करती हैं कि जिनमें महावीर के समकालिक अथवा पुरोगामियों का, उनके भिन्न मती विरोधियों के विचारों का... और उनके धर्म परिवर्तन का विचार किया गया है। स्येवर इण्डि. एण्टी, पुस्त 19, पृ.64 3. वही, पृ.65 1 4. हर्टल, वही, पृ. 71 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 191 जैनों का वर्णनात्मक कथाएं हैं । कथा कहने की जैनों की रीति बौद्धों की कथा कहने की रीति से कुछ अति पावश्यक बातों में विभिन्न है । उनकी मूल कथा भूतकाल की नहीं अपितु वर्तमान काल की होती है; वे अपने सिद्धांत की बातों की शिक्षा प्रत्यक्ष रूप में नहीं देते; और उनकी कहानियों में भावी जिन या तीर्थकर को पात्र रूप में प्रस्तुत करने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती है ।। जनों के ये वृत्तांत अधिकांश में उपमेय वार्ता के रूप में हैं। सामान्यतः मुख्य वार्ता की अपेक्षा उसके उपमेय पर ही खूब भार दिया जाता है । विवेच्य आगम के प्रथम स्कन्ध में एक वार्ता ऐसी ही है जो इस प्रकार है : एक सेठ की चार पुत्र-वधुएं हैं । इनकी परीक्षा लेने के लिए सेठ प्रत्येक को पांच दाने शालि याने धान के देता है और उन्हें उस समय तक सुरक्षित रखने को कहता है जब तक कि वह उन्हें लौटाने का आदेश नहीं दे । इसके अन्तर इन पुत्र वधुओं में से एक यह विचारती हुई उन पांच दानों को फेंक देती है कि भण्डार में धान ही घान भरा हया है । जब सेठ मांगेंगे मैं उन्हें दूसरे दाने भण्डार में से लेकर लौटा दूंगी। 'दूसरी भी इसी प्रकार सोचती हुई वे पांच दाने खा जाती है। तीसरी उन्हें अपने आभूषणों के डिब्बे में सावधानी से रख देती है। परंतु चौथी उन्हें बो देती है और उनसे अच्छी फसल बार-बार उठाती है यहाँ तक कि पांच वर्ष में इस फसल से धान के भण्डार भर जाते हैं। जब सेठ अन्त में अपने दिए दाने लौटाने की आज्ञा देता है तो वह पहली दो पुत्र-वधुत्रों की निंदा करते हुए उन्हें गृहस्थी के निकृष्टतम कार्य करने का भार सौंपता है, तीसरी को गृहस्थी की समस्त सम्पत्ति की रक्षा का आदेश देता है और चौथी को सारी गृहस्थी का प्रबंध सौप देता है और उसे गृह स्वामिनी बना देता है । इस सामान्य कथा का उपनय यह है कि साधुओं की भी पुत्र-वधुनों को सी चार जातियां होती है। कुछ तो अंगीकार किए पंच महाव्रतों की परिपालना की जरा भी चिंता नहीं करते, कुछ उनकी उपेक्षा करते हैं, परन्तु अच्छे साधू वे है जो सतर्कता से पंच महाव्रतों को पालते है और उत्कृष्टतम वे हैं जो न केवल स्वयम् पालते ही हैं अपितु उन्हें पालने वाले अनुयायियों को भी खोजते हैं ।' सातवां, आठवां और नवां अंग भी बहुतांश में वर्णनात्मक विषयों के ही हैं। इनमें से सातवें याने उवासगदसायो में दस धनाढ्य और सुशील श्रावकों की कथाएं हैं कि जो गृहस्थ होने पर भी तपस्या द्वारा अन्त में उस उच्च दशा को पहुंच जाते हैं कि जहां श्रावक रहते हुए भी उनमें चमत्कारिक शक्तियां प्रगट हो जाती है। अन्त में वे यथार्थ जैन साधू की ही भांति संलेखना व्रत में दिवंगत होते हैं और मर कर तपस्वियों के उपयुक्त देवलोक या स्वर्ग में जाते हैं। इनमें से अत्यन्त रोचक कथा धनी कुम्हार सद्दालपुत्त की है कि जो कभी आजीविकों का सेवक याने अनुयायी था और जिसे महावीर ने अपने सिद्धांत का श्रद्धान विश्वास पूर्वक कराया था। इसी प्रकार पाठवें और नवें अंग में उन धर्मात्मानों की दन्तकथाए हैं कि जिनने अपने सांसारिक जीवन को समाप्त कर या तो मोक्ष या उच्चतम स्वर्ग प्राप्त किया था। अब हम दसवें और ग्यारहवें अंग का विचार करेंगे जो क्रमशः प्रश्नव्याकरण और विपाकसूत्र है । दसवां अंग दन्त कथाओं का नहीं अपितु सैद्धांतिक बातों का है। परन्तु ग्यारहवां तो दन्तकथाओं ही का है। दसवें में i. वही, पृ. 8 । 2. देखो ज्ञाता, सूत्र, 63 । पृ. 115-120 । 3. देखो हरनोली, उवासगदसायो, भाग 1, पृ. 1-44, आदि । 4. देखो हरनोली, वही, भाग 1, पृ. 105-140 । 5. देखो वान्येट, दी अन्तगडदसाम्रो एण्ड अनुत्तरोववाइयदसाम्रोष पृ. 15-16, 110 आदि । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 ] दस प्रकार के धर्म की चर्चा है। इसके दो विभाग किए गए हैं। एक में अधर्मों की विवेचना की गई है और दूसरे 1 में धर्मों की वधर्म याने जिनसे परहेज करना चाहिए जो कि पांच हैं याने हिंसा, सत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य धौर परिग्रह प्रासक्ति इन पांचों के उलट याने हिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच धर्म है जिनका ग्राचरण करना चाहिए ।" पक्षान्तर में विपाकसूत्र नामक ग्यारहवें मांग में पुण्य धीर पाप कार्यों के फलों की दन्तकथाएं हैं कि जो डा. विनिज के अनुसार यवदानशतक और कर्मशतक नामक बौद्ध धर्मकथात्रों जंभी हो है । बारहवां अंग ग्राज हस्थि में नहीं है। चौदह पूर्वो का कि जो रंग साहित्य से पृथक स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व में नहीं रहे थे, समावेश इस बारहवें श्रंग में किया गया था, परन्तु दुर्भाग्य से वह भी विच्छेद हो गया । बारहवें अंग दृष्टिवाद के विच्छेद हो जाने के विषय में एक प्रश्न विचारणीय है और वह महत्व का भी है। प्रख्यात योरोपीय जैनविद्याविद् कहते हैं कि जैन स्वयम् ही कोई विश्वासनीय कारण इस बात का नहीं देते हैं कि उनका यह प्राचीनतम और अत्यन्त पूज्य धर्मज्ञान कैसे नष्ट हो गया । ग्रतः इस सम्बन्ध में उनने अनेक मत प्रकट किए हैं क्योंकि उन्हें यह एक प्रति ग्रद्भुत बात दीखती है । हम यहां कुछ ही विद्वानों के मतों का दिग्दर्शन कराते हैं । कहता है कि सिद्धान्त के मूल तत्वों के अनुरूप नहीं होने से ही दृष्टिवाद की जैनों ने इरादापूर्वक उपेक्षा की ऐसा लगता है* डा. याकोबी कहता है कि दृष्टिवाद इसलिए अव्यवहृत और लुप्त हो गया कि उसमें महावीर और उनके विरोधियों के प्रवादों का ही वर्शन था और इनमें रस घटते घटते ऐसी स्थिति उपस्थित हो गई कि स्वयम् जैनों को ही वे एकदम अबूझ हो गए । अन्तिम मत हम डा. लायमन का देते हैं जो इसके विच्छेद जाने एक दम बनोला ही कारण कल्पना करते हैं। वे कहते हैं कि इसमें मन्त्र तन्त्र, इन्द्रजाल फलित ज्योतिष प्रादि विद्याओं के अनेक पाठ होना चाहिए और उसके विच्छेद जाने का भी यथार्थ कारण यही होना चाहिए ।" जैनों के बारहवें रंग के नष्ट हो जाने के उपरोक्त अनेक कारणों में जो एक सामान्य कमी मालूम पड़ती है। वह यह है कि रष्टिबाद स्वयम् जैनों की उपेक्षा ही से नष्ट हुआ दृष्टिवाद याने (पूर्व जो कि बहुतांश में नही है । 7 ) यह बात सुनने में कुछ अद्भुत सी लगती है और विशेषकर इसलिए कि वह जैनों की दन्तकथा से जरा मी मेल नहीं खाती है, क्योंकि जैनों की यह स्पष्ट मान्यता है कि पूर्वो का विच्छेद शनैः शनैः ही हुआ था और उनका 1. देखो व्यंबर, इण्डि एण्टी.. पुस्त 20, 1.23 1 2. देखो विनिट्ज, वही, पृ. 306 1 3. बारहवें रंग के तीसरे विभाग में चौदह पूर्व का समावेश किया गया था। देखो ध्यंवर, वही, पृ. 174 4. देखो व्यंवर, वही, पुस्त 17 पू. 286 । 5, देखो याकोबी, सेबुई, पुस्त 22, पृस्ता. पृ. 45, यादि । 6. '... des Ditthivay eineganzanaloge tantra-artige Texpartie gatanden hat sendern lasst damit zugleich aucher rathem, warrumder. Ditthivay veloran geganzen isto' Leumann 'Beziehungen der Jaina-literatur Zu Andern literatur-kreisen Indians.' Actesdu Congress a Leide, 1883, P. 559. 7. पेंटियर वही प्रस्ता. पृ. 22-23 दन्तकथा निःसंदेह पूर्वो का दिट्ठीवाय के अनुरूप ही मानती है, व्यंवर इण्ड. एण्टी, पुस्त 20, पृ. 1701 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 193 सम्पूर्णतया नाश तो महावीर निर्वाण के 1000 वर्ष पश्चात् ही हुमा यान सिद्धान्त ग्रन्थों के अन्तिम प्रतिसंस्करण के ही समय । चाहे जिस अंश में हम जैनों की इस दन्तकथा को स्वीकार करें, फिर भी डा. शाटियर के अनुसार हम भी यही कहेंगे कि 'जैनों का यह कथन मारा का सारा ही एक दम उपेक्षित और अवमानित किए जाने योग्य तो नहीं ही है। ___ अब सिद्धान्त के दूसरे विभाग उपांगों का हम विचार करें। पहली बात तो यह है कि अगों की संख्या के अनुरूप ही उपांगों की संख्या है। व्यबर और अन्य विद्वानों के अनुसार, 'अंगों और उपांगों में सच्चे अतरंग सम्बन्ध का ऐसा काई भी उदाहरण नहीं कि जो श्रेणी में ऐसा ही स्थान रखता हो। उदाहरणार्थ पहला उपांग औपपातिक को ही लीजिए। जैसा कि पहले कहा जा चुका है इसकी ऐतिहासिक महत्व इस बात में हैं कि इसमें महावीर के चम्पा में सागमन और वहां देशना देना एवम् चम्पा के राजा कूरिणय याने अजातशत्रु के महावीर के दर्शन और वन्दना को पाना है।। दूसरे उपांग राजप्रश्नीय का अधिकांश भाग सूर्याम देव के अपने बृहत्परिवार और परिकर सहित राजा श्वेत की अमलकप्पा नगरी में महावीर को वन्दन करने पाने और विशेषतः उनके समक्ष नाच, गान और वाद्यादि द्वारा अपनी भक्ति को प्रदर्शित करने के वर्णन में रुका हुआ है। फिर भी इसका सारातिसार राजा पएसी (प्रदेशी) और श्रमण कैसी के बीच हुए संवाद-विवाद में या जाता है जो कि जीव और देह के पारस्परिक सम्बन्ध को ले कर प्रारम्भ होता हैं और मुक्तमन राजा के जैनधर्मी हो जाने में समाप्त होता है। शेष उपांगों में से तीसरे और चौथे का हम साथ ही विचार कर सकते हैं क्योंकि वस्तु और चर्चा में दोनों ही समान हैं। तीसरे में संवाद रूप से चेतनमय प्रकृति के भिन्न भिन्न वर्गों और रूपों की चर्चा की गई है। पक्षान्तर में चौथे उपांग पन्नवरणा या प्रज्ञापना में जीवों के भिन्न भिन्न भेदों की जीवनचर्या की विवेचना है। यह प्रज्ञापना उपांग शेष सिद्धांत ग्रन्थों से भिन्न दीख पड़ता है। खरतर और तपगच्छ की पट्टावलियों में महावीरात् चौथी सदी में होने वाले आर्य श्याम (अज्ज साम) या श्यामार्य इसके कर्ता कहे गए हैं। पांचवाँ, छठा और सातवा उपांग सूर्यप्रज्ञाप्त, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति हैं। ये जैनों के वैज्ञानिक ग्रन्थ हैं। भारतवर्षकी दन्तकथानुसार इनमें खगोल, भूगोल, प्रौरस्वर्गादि का एवं काल-गणना पद्धति का अनुक्रमसे वर्णन किया गया है। पांचवें उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति पर विशेषरूप से विचार करना आवश्यक है । डा. व्यबर कहता है कि इसमें जैनों की खगोल का व्यवस्थित वर्णन है । ग्रीक प्रभाव ने इसमें परिवर्तन कुछ भी किया या नहीं, यह एक 1. देखो शाटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 23 । 2. व्यबर, वही, पृ. 366 । देखो विटनिटज, वही और वही स्थान । 3. देखो राजप्रश्नीयसूत्र (आगमोदय समिति) सूत्त । आदि । 4. देखो वही, सूत्त 65-79 1 5. देखो व्यबर, वही, पृ. 371, 373 । 6. देखो क्लाट, इण्डि. एण्टी., पूस्त ।1, पृ. 247, 251। शाटियर के अनुसार, चौथा उपांग स्पष्टतया युगप्रधान आर्य श्याम की रचना कही गई है जो कालकाचार्य से निःसंदेह ही अभिन्न है और जिनको दन्तकथा विक्रमादित्य के पिता गर्दभिल्ल के समय में होना कहती है। शाटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 27%; देखो याकोबी, जेडीएमजी, सं. 34, पृ. 251 आदि । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 ] विचारणीय प्रश्न है। कुछ भी हो, इसमें हमें भारतीय ज्योतिष की वह मूल पद्धति मिलती है कि जो ग्रीकों के प्रामाणिक और मारी प्रभाव के पहले की है। भारतीय खगोल विद्या की मौलिक पद्धति का सूर्यप्रज्ञप्ति एक अद्वितीय उदाहरण है। पूर्व में ग्रीक प्रभाव पड़ा उसके पूर्व की वह है। यह बात अन्य विद्वान भी स्वीकार करते हैं। जैन इतिहास की दृष्टि से इसका महत्व स्पष्ट है। अन्तिम पांच उपांग निरयावली सूत्र नाम के एक ही मूल ग्रन्थ के पांच विभाग है। व्यबर के शब्दों में इन पांच विभागों को पांच उपांग रूप से गिनना अगों की संख्या से उपांगों की संख्या मिलाने के विचार से हो उद्भव हुई मालूम होती है। आठवें उपांग का ऐतिहासिक महत्व इस बात में है कि कुणिक के दस सौतेले भाई महान् लिच्छवी राजा चेडग के विरुद्ध किए युद्ध में मारे गए थे और उसके फल स्वरूप उन सब ने भिन्न भिन्न नरकों में जन्म लिया । सिद्धांत के दूसरे समूह उपांग के विषय में इतना ही कहना पर्याप्त हैं । अब तीसरे समूह दस पयन्ना अथवा प्रकीणों का संक्षेप में विचार करें । ये ग्रन्थ जैसा कि इस नाम शब्द का भावार्थ है, 'असंलग्न', 'शीघ्रता में लिखी हुई रचनाओं का संग्रह हैं । जैसे वेदों के परिशिष्ट हैं, वैसे ही हम इन प्रकीणों को अंगों के परिशिष्ट कह सकते हैं । कुछ अपवादों को छोड़ कर हम इनको वैदिक परिशिष्टों की भांति ही पद्य में लिखे हुए पाते हैं । इनमें सर्वत्र सामान्यतया आर्या छन्द ही प्रयुक्त हुआ देखते हैं, वही छन्द जो अंगों में कारिकामों के लिए प्रयोग किया गया है। इन पहन्नों में अनेक विषय चचित हुए हैं। इन्हीं में से एक विषय है वे प्रार्थनाएं जिनके द्वारा अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म रूपी चार शरणों को स्वीकरण किया जाता है, अनशन द्वारा समाधि-मरण कहा जाता है। इन्ही में मूरण में चेतना, गुरू और शिष्य के गुण, देवों की गणना आदि आदि विषयों की भी चर्चा है। सिद्धान्त का चौथा समूह छेदसूबों का है। इनमें साधारणतः साधू-साध्वी की जीवनचर्या सम्बन्धी निषेधों का, उनकी स्खलना के दण्ड या प्रायश्चित्त का विचार किया गया है, हालांकि गौण रूप से अनेक दन्तकथाएं भी इनमें आ गई हैं। इसीलिए बौद्धों के विनय ग्रन्थों से ये मिलते हुए हैं। कितनी ही बातों में भिन्न होते हुए भी विषय और विवेचन पद्धति में दोनों में बहुत समानता है। विटनिट्ज और व्यबर दोनों के अनुसार वर्तमान छेदसत्रों का बहत सा माग अत्यन्त ही प्राचीन है, क्योंकि इस विभाग के परमसारांश छेदसत्र तीसरा, चौ पांचवां सिद्धांत का प्राचीनतम भाग हैं:8 ये तीनों अर्थात् तीसरा चौथा और पांचवां छेदसूत्र जिनका नाम क्रमशः दसा-कप्प-ववहार है, एक समूह 1. व्यबर, इण्डि. एण्टी., पुस्त 21, प. 14-15 । 2. देखो याकोबी, सेबुई, पुस्त 22, प्रस्तावना पृ. 40; लायमन, वही, पृ. 552-5531 थीबो, बंएसो पत्रिका सं. 49, 1880, पृ. 108। सूर्यप्रज्ञप्ति सम्बन्धी विशेष महत्व के कुछ तथ्यों के लिए देखो वही, पृ. 107 121, 181-2061 3. व्यबर, वही, पृ. 23 । 4. देखो निरयावालिकास्त्र, पृ. 3-19। 5. व्यबर, वही, पृ. 106। देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 3081 6. देखो ब्यबर, वही, पृ. 109-112; विटनिट्ज, वही और वही स्थान । 7. देखो व्यबर, वही, पृ. 179; विटनिट्ज, वही, पृ. 309 । 8. देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 309; व्यंबर, वही, पृ. 179-180 । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 195 रूप में ही हैं। इनमें से कल्प और व्यवहार की रचना बहुधा भद्रबाहु की ही कही जाती है जिनने इन्हें नौवें पूर्व से उद्धार किया था, ऐसा भी कहा जाता है। इस समूह में के दसा याने आचारदशा जिसे दशाश्रुतस्कंध भी कहा जाता है, के कर्ता रूप से तो भद्रबाहु के विषय में दन्तकथा भी समर्थन करती है। इसी का आठवां भद्रवाह का कल्पसत्र नाम से सुप्रसिद्ध है ही। यह सारा का सारा ही कल्पसूत्र है याने इस नाम के सारे ग्रन्थ के तीनों विभाग याने खण्ड । परन्तु याकोबी और अन्य विद्वान ठीक ही कहते हैं कि यथार्थ में अन्तिम याने तीसरा खण्ड ही जिसका शीर्षक 'सामाचारी'याने यतियों के नियम जिसे 'प!षणा कल्प भी कहा जाता है' ही वह है और वही, आयारदसायो के शेषांश सहित, भद्रबाहु रचित कहा जाने योग्य है। भद्रवाह के कल्पसूत्र की विस्तार से चर्चा करने को फिर से यहाँ अावश्यकता नहीं है। हम इसका पर्याप्त निर्देश महावीर और उनके पुरोगामी तेईस तीर्थकरों के चरित्र, महावीर के उत्तराधिकारी जैन युगप्रधानाचार्य, और यतियों के पालने के विधि-विधानों के वर्णन समय कर चुके हैं । छेदसूत्रों की इतनी सी चर्चा ही पर्याप्त है। आगे हम अन्तिम दो विभागों का याने मुलसूत्र विभाग और दो चूलिका सूत्र विभाग का संक्षेप में विचार करेंगे। पहले मूलसूत्र विभाग को ही लें। जैन सिद्धांत के इस विमाग समूह का नाम मूलसूत्र क्यों दिया गया यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। सामान्य बोलबाल में तो इस शब्द का अर्थ यही होता है कि मौलिक ग्रन्थ । परन्तु शाऐंटियर के अनुसार ऐसा हो सम्भव दीखता है कि बौद्धों की ही भांति जनों ने भी इस मूल शब्द का प्रयोग मूल-पाठक के अर्थ में ही किया हो, और वह भी भगवान महावीर के मूल शब्दों को अनुलक्ष करके ही किया गया हो। इन सूत्रों के विवक्षित विषयों का जब विचार करते हैं तो इनमें से पहले तीन, साहित्यक दृष्टि से, अत्यन्त महत्व के प्रतीत होते हैं। इनमें भी उत्सराध्ययन जो इस विभाग का सर्व प्रथम सूत्र है, और जिसमें प्राचीन श्रामणिक काव्य के उदाहरण हैं. सिद्धान्त का अति मूल्यवान विभाग है । साधू की आदर्श जीवनचर्या के नियमों और उन्हें स्पष्ट करने वाली उपमा कथाओं से यह सूत्र भरा हुआ है । प्राचीन विद्वानों के मन्तव्यों का जो सार याकोबी ने दिया है उससे मूल ग्रन्थ का उद्देश नएसाधू को उसके मुख्य प्राचारों की सूचना करने, उदाहरणों और उपदेशों से साधू जीवन की महत्ता बताने, आध्यात्मिक जीवन के भय स्थानों से उसे सावधान करने, और कुछ सैद्धान्तिक सूचनाएं देने का हैं । जैन साहित्य के आधुनिक विद्वानों के अनुसार, इसके अधिकांश विषय हमारे पर उसके प्राचीनतम होने की छाप डालते हैं और हमें ऐसे ही बौद्धशास्त्रों का स्मरण दिलाते हैं, विशेषतः दूसरा अंग अर्थात् वह कि जो सिद्धांत का अत्यन्त प्राचीन ग्रंश है। उसका उद्देश और उसमें चर्चित विषय इस प्रकार सूत्रकृतांग से मिलते जुलते हैं। फिर भी उत्तराध्ययन में प्रजनवादों की चर्चा पूरी तौर से नहीं की गई है, कहीं कहीं संकेत मात्र उनका कर दिया गया है। दृष्टतः समय बीतने के साथ अजनवादों का भय कम होता गया और जैनधर्म की संस्थाएं दृढ़ता से जमती गई । नए साधू के लिए जीव और अजीव का ठीक ठीक ज्ञान होना महत्व का माना गया है क्योंकि इस ग्रन्थ के अन्त में इसी विषय पर एक लम्बा अध्याय जोड़ दिया गया है।' 1. देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 309; व्यबर, वही, 179, 210। 2. दसकप्पम्ववहारा, निझढा जेण नवपपव्वाप्रो । वादामि भद्रबाहु,...। ऋषिमण्डलस्तोत्र, श्लो. 166 । 3. याकोबी, कल्पसूत्र, पृ. 22-233; विटर्निट्ज, वही, वही स्थान ; व्यबर, वही, पृ. 211 । 4. शार्पटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 32। 5. याकोबी, सेबुई, पुस्त 45, प्रस्ता. पृ, 39 । .6. देखो शाटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 34; विटनिट्ज, वही, पृ. 312; व्यबर, वही, पृ. 310 । 7. याकोबी, वही और वही स्थान । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1961 इन मूलसूत्रों में दूसरा प्रावश्यकसूत्र है और इसमें जैन साधू और गृहस्थ के प्रावश्यक छह कर्तव्यों का विचार किया गया है । " इन क्रियानों के साथ ऐतिहासिक और अर्ध ऐतिहासिक महत्व के वृत्तांत भी दिए गए हैं जो कि टीकात्रों में हमें वारसे के रूप में प्राप्त होते हैं। व्यंबर के अनुसार 'इस शास्त्र में इस विषय के महावीर के सिद्धांत की विवेचना मात्र ही नहीं है अपितु इस सिद्धान्त का इतिहास भी दिया गया है, याने महावीर के पुरोगामियों का, स्वयम् महावीर का और उनके ग्यारह गणधरों, एवम् विरोधियों निन्हवो का भी वर्णन है कि जिनने उनके उपदेशों में शनैः शनै स्थान प्राप्त किया था। इन निन्हवों का कालक्रमानुसार विचार किया गया है। हरिभद्र ने प्राकृत गद्य में और कभी कभी पथ में सम्बन्धित कथाए बहुत विस्तार से दी है और विट्ठति एवं उदाहरणों की भी कथाएं दी हैं कि जो सूत्र में बहुधा दिए गए हैं। अब हम अन्तिम दो मूलसूत्रों का विचार करें। इनमें का दसवेयालिय विनय याने जैनसाधू के नियमों का विवेचन करता है । डा. विटर्निट्ज के अनुसार यह सूत्र हमें बोद्धसूत्र धम्मपद का स्मरण कराता है ।" प्रमुख जैन सिद्धांतों के सम्पूर्ण परिदर्शक इस ग्रन्थ के रचियता महावीर के चतुर्थ पट्टधर शयवम्भव या सज्जंभव हैं । श्रीमती स्टीवन्सन इस सूत्र को 'साधू जीवन में भी पाए जानेवाले पुत्र के प्रति पिता के प्रेम का स्मारक' रूप मानती है क्योंकि इसकी रचना माक नामक पुत्र के लाभार्थ ही की गई थी।" चौथा मूलसूत्र पिण्डनिज्जुती आगम का परिशिष्ट रूप मात्र है । चोथा अब जैन सिद्धांत के उन दो चूलिका सूत्रों का विचार करना ही हमारे लिए शेष रह जाता है कि जिनके नाम हैं नन्दी सूत्र धीर धनुयोगद्वारसूत्र । इन दोनों के विषय यद्यपि समान हैं परन्तु चर्चा की पद्धति भिन्न भिन्न है । दोनों ही एक प्रकार के ज्ञानकोश के समान हैं। ये पवित्र सिद्धांत शास्त्रों के यथार्थ ज्ञान और समझ के श्राधारों और रूपों की आवश्यक सूचनाओं सम्बन्धी प्रत्येक बात की पद्धतिसर समीक्षा इनमें की गई है । " इस प्रकार, व्यंबर कहता है कि इनके कर्ताओं ने पाठकों के लिए एक मध्यरूप प्रस्तावना प्रस्तुत कर दी है। उसी के शब्दों में कहें तो उन लोगों के लिए इनदोनों ग्रन्थों की योजना प्रत्यन्त ही सुधड़ है कि जो उनका प्रतिसंस्करण या संग्रह समाप्त कर पवित्र ज्ञान के ही विषय में ज्ञान प्राप्त करने के अभिलाशी है । " इस प्रकार जैनों की साहित्यक दन्तकथा के अनुसार देवगिरिण ही यद्यपि इन दोनों के रचियता हैं, परन्तु व्यैवर और शार्पेटियर के अनुसार, इस दन्तकथा या मान्यता पर प्राने का कोई भी ऐसा बाह्य कारण समझ में नहीं आता है कि जो इनकी विषयसूची से मिलने वाली सूचना से भी समर्थित होता हो। शापेंटियर कहता है कि 'अन्ततोगत्वा में समझता : 1. समरण सावरा य अवस्कायव्ययं वइ जम्हा अंतोग्रहोसिस्स व तम्हा ग्रावस्तयं नामं यावश्यकसूत्र, पृ. 53 यह आवश्यक अनुक्रम से इस प्रकार है समाश्वं याने बुरे कर्मों से निवर्तनः बडविसत्वो याने 24 तीर्थकरों की स्तुति वेदरणं वाने गुरुयों की वंदनः पक्किमरणं याने पालोचना काउसमा याने पापों की ध्यान द्वारा निर्जरा और पच्चक्खाण याने ग्रसनादि का त्याग। देखो वही । 2. व्यंवर, वही, पृ. 330 3. देखो विनिट्ज, वही, पृ. 315 1 4. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 701 5. देखो याकोबी, कल्पसूत्र, पृ. 118; पलाट, वही, पृ. 246, 251; दशनैकालिक की रचना सम्बन्धी दन्तकथा के लिए देखो हेमचन्द्र, परिशिष्टपर्वत, सगं 5 । 6. देखो व्यंवर, बही, पु. 293-294 विटर्निट्ज, वही धौर वही स्थान । 7. व्यंबर, वही, पृ. 294 1 8. देखो यही शार्पेटियर, वही प्रस्ता. 18 7 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 197 हूं कि इनके देवगिरि की रचना होने का कोई भी डढ़ प्रमाण नहीं है, हम इतना ही कह सकते हैं कि वह इन शास्त्रों के प्रतिसंस्करण का सम्पादक ही या प्रतिसंस्करणकर्ता ही था रचियता नहीं ।' श्वेताम्बर जैनों के सिद्धांत ग्रन्थों के विषय में इतना विवेचन ही यहां पर्याप्त है।" उनकी भाषा के सम्बन्ध में, देवगिरि के समय तक की जैन साहित्य की अव्यवस्थित दशा पर से इस अनुमान पर आ सकते हैं कि उत्तराविकार में मिलने वाली भाषा में भी शनैः शनैः परिवर्तन होता गया था फिर भी इतना तो बहुत ही सम्भव प्रतीत होता है कि ई. पूर्व उठी नदी के धर्म-सुधारकों ने कि जिनने लोक समूह के अधिकांश भाग को ब्राह्मण पण्डितों के पुरोहिती ज्ञान के विरोध में मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया था, अपनी देखना के लिए जन साधारण की भाषा ही का उपयोग किया न कि संस्कृत की विद्वद् भोग्य भाषा का लोकसमूह की यह भाषा महावीर के गृह मगध देश की बोलवाल की भाषा ही होगी ऐसा लगता है। फिर भी जैनों द्वारा प्रयुक्त मगधी 'अशोक के शिलालेखों एवं प्राकृत वैयाकरणों की मागघी से बहुत ही कम मेल खाती है। यही कारण है कि जैनों द्वारा प्रयुक्त भाजा मिश्रित भाषा याने 'अर्थ - मागघी' कही जाती है कि जो बहुत्रांश में मागधी से ही बनी है परन्तु जिसने परदेशी बोलियों के तत्वों को भी ग्रहण कर लिया है। महावीर ने अपने संसर्ग में पाने वाले लोगों को अपनी बात समझाने के लिए इसी मिश्र भाषा का उपयोग किया था और इसीलिए उनकी भाषा मातृभूमि की सीमा पर के निवासी भी उसे अच्छी प्रकार समझ सकते थे। 4 15 जैन दंतकथा के अनुसार प्राचीन सूत्र अर्धमागधी भाषा में ही रचे हुए थे, परन्तु प्राचीन सूत्रों की जैन प्राकृत टीका ग्रन्थों और कवियों की प्राकृत से बहुत विभिन्न है। इस प्राकृतिक भाषा को जैन आ याने ऋषियों की भाषा कहते हैं, जबकि जिस भाषा में सिद्धांत लिखे हुए हैं, वह महाराष्ट्री की निकटतम है और वह जैन महाराष्ट्री कहलाती है । जैन ग्रन्थों को अन्तिम रूप देने के पूर्व जैनों द्वारा प्रयुक्त और विकसित भाषा की विशिष्टता के विवरण में जाने की हमें घावश्यकता नहीं है। इतना भर कहना ही पर्यार्णत है कि 'जब एक बार जैन महाराष्ट्री पवित्र भाषा स्वीकार कर ली गई तो वह जैनों की साहित्यिक भाषा भी उस समय तक बनी रही थी जब तक कि उसे संस्कृत ने स्थानापन्न नहीं कर दिया । जैनों के सिद्धांतारिक्त साहित्य में एक ओर अगणित टीका साहित्य है जिसका प्रतिनिधित्व निज्जुत्ति या नियुक्तियां करती हैं और दूसरी ओर वह स्वतंत्र साहित्य है जिनमें कुछ तो साधू - अनुशासन, नीति और सिद्धांत को भोग्य रचनाएं हैं और कुछ काव्य हैं जिनमें जिनों के प्रभाव की स्तुतियां या स्त्रोत भी हैं। परंतु अधिकांश भाग वर्णनात्मक साहित्य का ही है। यह निश्चित प्रतीत होता है कि देवगिरिण द्वारा सिद्धांतों की अंतिम वाचना या संकलन किए जाने के बहुत पूर्व ही जैन साधू श्रागमें पर टीकाएं भाष्य आदि लिखने लग गए थे क्योंकि प्राचीन 1. वही । 2, दिगम्बरों के सिद्धांत के लिए देखो विटर्निट्ज, वही, पृ. 316: याकोबी वही, प्रस्ता. पृ. 30 3. याकोबी, वही प्रस्ता. पू. 17 4. ग्लांसन्यप, डेर जेनिस्मस, पृ. 84 1 5. पोराणमद्यमागमासानिययं हवइ सुत्तं । हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण गाथा, 287 । 1 6. याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 20 जैनों के पवित्र ग्रन्थों की भाषा के अधिक विवरण के लिए देखो वही, प्रस्ता. पू. 17 आदि व्लासम्यप, वही, पृ. 81 आदि । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 ] तम टीकाएं जिन्हें नियुक्ति कहते हैं, कई बातों में सूत्रों से बहुत ही निकट संबंधित हैं अथवा उन्हें स्थानापन्न भी उनने कर दिया है। पिण्डोर घोष नियुक्तियों ने तो सिद्धांत ग्रन्थों में ही स्थान प्राप्त कर लिया है। घोषनियुक्ति. पूर्वी में से ही कुछ के धाधार पर रखी गई कही जाती है।" शापेंटियर के अनुसार नियुक्तियां यद्यपि प्राचीन हैं, परन्तु वे जनों के टीका साहित्य के प्राथमिक ग्रन्थ रूप कम नहीं कही जा सकती हैं। वे ही प्राचीनतम नहीं हैं अपितु जैनों के सिद्धांत पर उपलब्ध या वर्तमान प्राचीनतम टीकाएं अवश्य ही हैं । ऐसा कहने का कारण यह है कि नियुक्तियां मुख्यतया अनुक्रमणिका रूप में हैं, उन विस्तृत टीका की कि जिनमें सब वार्ताएं और दंतकथाएं विस्तार से दी गई हैं, ये सार रूप हैं । प्राचीनतम टीकाकार भद्रबाहु ही थे कि जिनने पहले कहे अनुसार वर्धमान के निर्वाण पश्चात् 170 वें वर्ष में काल धर्म प्राप्त किया था । सिद्धांत के भिन्न-भिन्न ग्रन्थों पर उनने दस नियुक्तियों की रचना की ऐसा कहा जाता है जिनके नाम इस प्रकार हैं:प्राचारांगनियुक्ति, सूत्रकृतांक नियुक्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति, दशाशुतस्कंध नियुक्ति, कम्पनियुक्ति, व्यवहारनिर्युक्ति, श्रावश्यक नियुक्ति, दशवैकालिक नियुक्ति, उत्तराध्ययन निर्युक्ति और ऋषिभाषित नियुक्ति | 2 बनारसीदास जैन के अनुसार भद्रबाहु की आवश्यक निर्युक्ति ही ऋषभदेव के पूर्वभवों का प्राचीनतम प्रमाण है क्योंकि 'प्रगों में तीर्थंकरों के पूर्व भवों का विशेष रूप में वर्णन नहीं मिलता है हालांकि उनमें महावीर के समसामयिकों में से अनेक के मत एवम् भविष्य भवों को अनेक निर्देश प्राप्त होते हैं। ये सब टीका ग्रन्थ इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि उनने हमारे लिए ऐतिहासिक और अर्धऐतिहासिक दंत कथाओं भिक्षु भी भारतीयों की उन्हें टिकाए रखने के वार्ताओं के इस प्रकार और लोकवार्ताओं का महान समूह संग्रहित कर दिया है। बौद्ध भिक्षुओंों की भांति ही जैन धार्मिक कथाएं सुनने की लुब्धता का लाभ उठाते अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने और लिए महर्षियों की कथाओं और लोक वार्ताओं का उपयोग करते रहे हैं । 'दंतकथाओं और संगृहित समूह में से अनेक तो प्राचीन काल की लोक कथाओंों के समूह में से हैं और कितनी ही जनों की अपनी दंतकथाओं में से ली गई है। शेष में से कितनी ही कदाचित परवर्ती काल में रची गई हो ऐसा लगता है और वे बाद में मूल ग्रन्थों की स्थाई टीकाओं में स्थान पाकर अमर हो गई हैं।" इसी प्रस्थात भद्रबाहु को मद्रबाहवी-संहिता कि जो सगोल विद्या का एक ग्रन्थ है. घोर पार्श्वनाथ की स्तुति 'उवसगहर' स्रोत का रचयिता कहा जाता है। उन्त भद्रबाहवी संहिता का कर्ता और नियुकियों का कर्ता भद्रवाह एक ही व्यक्ति है कि नहीं यह शंकास्पद है । यह संहिता भी अन्य संहिताओं जैसी ही है, फिर भी वराहमिहिर ने इसका कोई हवाला अपने ग्रन्थ में नहीं दिया है, हालांकि अपने प्रामाणिकों की सूची में उसने सिद्धसेन" एक अन्य जैन ज्योतिर्विद का नाम अवश्य ही गिनाया है। इसमें ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि यह भद्राबाहवी संहिता वराहमिहिर के परवर्ती काल की है । याकोबी के शब्दों में कहें तो स्थिति जो भी हो, इस संहिता का रचयिता वही मद्रबाहु कभी नहीं हो सकता है कि जिसने कल्पसूत्र की रचना की थी, क्योंकि उसका अन्तिम प्रति संस्करण, नामक 6. देखो विटिज, वही, पु. 317 I 2. शार्पेटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 50-511 प्रस्ता. 12 1 पृ6. कर्न, बृहत्संहिताष भूमिका, पृ. 29 । 3. देखो आवश्यक सूत्र, गा. 84-86, पू. 61; याकोबी, वही, 4. जैन, जैन जातकाज; प्रस्ता. पृ. 31 5. शार्पेटियर नहीं, प्रस्ता. पु. 51 1 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 199 जिसकी तिथि (वीरात् 980 = ई. सन 454 या 514) उसी में दी हुई है, वराहमिहिर के पहले की नहीं तो भी कम से कम समयमयी तो है ही।। उवसग्गहर स्रोत्र का रचियता भद्रबाह को मानने की दन्तकथा इस इलोक पर बंधी हुई हैं : उवसग्गहरं थुत्त काऊरणं जेण संधकल्लाणं । करुणापरेण विहिनं स भद्दबाहं गुरू जयउ ।। अर्थात् 'संघ के कल्याण के लिए दयाद गुरू भद्रबाहु ने उवसग्गहर स्रोत्र की रचना की, उनकी जय हो।' स्तोत्र का विषय है भगवान् पार्श्वनाथ का प्रभावानुवाद । इस स्रोत्र की अन्तिम गाथा से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है जो इस प्राशय की है:- 'हे महायश ! भक्ति के समूह से पूर्ण भरे हुए अन्तःकरण से यह स्तवना मैं ने की है, इसलिए हे देव ! पार्श्व जिनचन्द्र ! मुझे जन्मोजन्म में बोधबीज देते रहो ।' भद्रबाहु को इस स्तुति का रचयिता स्वीकार करते हुए याकोबी कहता है कि यदि ऐसा हो तो जैन स्तुतियों के नए विस्तृत साहित्य में यह एक प्राचीनतम उदाहरण भी है। 4 भद्रबाह के अतिरिक्त भी अनेक अन्य स्वतन्त्र ग्रन्थ यद्यपि उपलब्ध हैं, परन्तु हम उनमें से कुछ ही अत्यन्त महत्व के ग्रन्थों का यहां वर्णन करेंगे। इन ग्रन्थों में सब से पहला जो हमारा ध्यान आकर्षित करता है वह धर्मदासगरिण की उपदेशमाला है कि जिसको महावीर का ही समकालिक होने का जैनों का दावा है। इस ग्रन्थ में गृहस्थ एवम् साधुओं के लिए नैतिक नियमों का संग्रह किया गया है, इसकी ख्याति इसकी अनेक टीकानों पर से हैं जिनमें से दो टीकाएं तो इसवी सन् की नौवीं सदी की हैं। धर्मदास के बाद उमास्वाति का स्थान है कि जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में मान्य है । विटर्निट्ज के अनुसार, चूकि वह ऐसी मान्यताओं का प्रतीक है कि जो दिगम्बरों की मान्यता से मेल नहीं खाती हैं, इसलिए वे उसे अपने में का एक नहीं कह सकते हैं । उमास्वाति के किन तथ्यों पर यह बात कही जा सकती है या समझा जाना चाहिए, हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं । फिर भी विद्वान पण्डित का इस परिणाम पर अन्य विद्वानों की भांति ही पहुंचना उचित लगता है कि सम्भवतः वह महान् प्राचार्य कास पूर्व समय में होना चाहिए कि जब जनसंघ इन दो सम्प्रदायों से स्पष्ट रूप से विभक्त नहीं हो गया था। इसका तपागच्छ पट्टावली से भी समर्थन होता है। उसके अनुसार वीरात चौथी 1. याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 14 । भद्रबाह 2 य सम्बन्धी दिगम्बरों की दन्तकथा के लिए और श्वेताम्बरों की भद्रबाहु एवम् वराहमिहिर सम्बन्धी दन्तकथा के लिए देखो वही, पृ. 13, 30 । विद्याभूषण मैडीवल स्कूल आफ इण्डियन लोजिक, पृ. 5-6।। 2. क्लपसूत्र, सुबोधिका टीका पृ. 162 । 3. देखो याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 13। 4. देखो वही, पृ. 12 । 5. देखो धर्मदासगरिण, उपदेशमाला (जैनधर्म प्रसारक समा, भावनगर), पृ, 2।। 6. देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 343; मैक्डोन्यल, इण्डियाज पास्ट, पृ. 74; श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 82 । 7. देखो विनिट्ज, वही, पृ. 351; हीरालाल, रायबहादुर, कैटेलोग आफ मैन्युस्क्रिप्ट्स इन सी. पी. एण्ड बरार, प्रस्ता. पृ. 7-9; विद्याभूषण, वही, पृ.91 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ] शती में हुए श्यामा प्रज्ञापनासूत्र के कर्ता उमास्वाति के थे। ! शिष्य 1 पक्षान्तर में श्री हीरालाल के अनुसार इस प्रश्न का स्पष्टीकरण यह है कि उमास्वाति ने दोनों सम्प्रदायों के विवादास्पद विषयों को स्पर्श ही नहीं किया है । " ये उमास्पातिवाचक धमरा रूप से विशेष प्रख्यात हैं। तस्वार्थाविगमसूत्र की श्वेताम्बरकारिका के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि वे नगरवाचक भी कहे जाते थे । वे स्वयम् प्रशस्ति में कहते हैं कि उनका जन्म न्यग्रोधिका में हुआ था, परन्तु ये कुसमपुर या पाटलीपुत्र में ही रहते थे। हिन्दू दार्शनिक माधवाचार्य उनका परिचय उमास्वातिवाचकाचार्य कह कर कराता है। इस महान् प्राचार्य की कृतियों के विषय में यह किंवदन्ती है कि इनने कोई पांचसौ प्रकरणों की रचना की थी परन्तु उनमें से केवल पांच ही धान उपलब्ध हैं। इन सब की याने 1. तत्वार्थाधिगमसूत्र ; 2. इसी का भाष्य; 3. पूजाप्रकरण 4. जम्बूद्वीपसमास; और 5. प्रशमरति की प्रशस्ति में जैसी कि वह बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के इनके संस्करणों में प्रकाशित हुई है, इस प्रकार तिला हुआ है:'कृतिः सिताम्वराचार्यस्य महाकवे समास्थातिवाचकस्य इति । 15 उपरोक्त ग्रन्थों में से तस्यार्थाधिगगन पर ही उनकी कीर्ति प्राधारित है कितने ही मूल्य ग्रन्थरत्न कि जो काल कराल ग्रास बनने से बच गए उनमें का यह अति मूल्यवान है। जैनों के आगम साहित्य का दोहन कर जैन तत्वज्ञान को संस्कृत सूत्रों में रचने की पद्धति में प्रवेश करनेवाले ये ही सबसे पहले जैनाचार्य हैं । उनका यह ग्रन्थ इसीलिए जैन इंजील (बाईबल) रूप माना जाता है। जैनों के सभी सम्प्रदाय इसको मानते हैं। यह कितनी प्रामाणिक और उत्तम कृति है, इसकी प्रतीति उसके प्रति जैन टीकाकारों के दिए लक्ष्य से स्पष्ट समझ में ग्राती है। इस पर कमती से कमती इकतीस टीकाएं प्राज उपलब्ध हैं। इसके सूत्रो में कोई भी जैन सिद्धान्त या मान्यता प्रत्यक्ष या परोक्ष रीति से व्यक्त हुए बिना नहीं रही है। तस्वार्थसूत्र निःसंदेह जैन तत्वज्ञान की अमूल्य और पवित्र निधि है ।" उमास्यातिवाचक के सम्बन्ध में इस प्रस्ताविक विवेचन के बाद हम विक्रमादित्य युग के सुप्रसिद्ध जैन साहित्याकाश के प्रकाशमान नक्षत्र श्री सिद्धसेन दिवाकर औौर श्री पादलिप्ताचार्य का संक्षेप में विचार करेंगे।" 1. देखो क्लाट वही, पृ. 251 श्वेताम्बर पट्टावलियों के इस वर्णन में उसका ई. पूर्व अनेक सदियों में हुआ बताती है। महावीर के दसवें पट्टधर पायें महागिरि का निधन निर्वाण पश्चात् 249 में वर्ष में हुआ था। उनके दो शिष्य थे :- बहुल और बलिस्सह । बलिस्सह के शिष्य थे उमास्वाति । देखो वही पृ. 246, 251 | दिगम्बर वृत्तान्तों में उमास्वाति भद्रबाहु से छठे पट्टधर कहे गए हैं और कुन्दकदाचार्य के उत्तराधिकारी उनका निधन काल वि. सम्यत् 142 याने ई. 85 बताया है। देखो हरनोली इण्डि एण्टी, पुस्त. 20. पृ. 341 उमास्वाति के विशेष विवरण के लिए देखो हीरालाल रायबहादुर, वही, प्रस्ता. पृ. 7-9; पेटरसन, रिपोर्ट प्रान संस्कृत मैन्युस्क्रिपट्स, पुस्त. 4 प्रस्ता. पृ. 16: जैनी से बुजे, पुम्त 2 प्रस्ता. पृ. 7-9 1 ! 2. हीरालाल रायबहादुर, वही प्रस्ता. पृ. 9 1 , 3. तत्वार्थाधिगमसूत्र ( संपा : मोतीलाल लधाजी), (अध्याय 10, पृ. 2031 4. देखो कोव्स एण्ड नौफ, सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. 55 5. हीरालाल, रायबहादुर, वही, प्रस्ता. पृ. 8 । 6. जैनी, वही. प्रस्ता. पू. 8 । 7. राइस ई. पी., कनैरीज लिटरेचर, पृ. 41 । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 201 सिद्धसेन और विक्रम के धर्म-परिवर्तन सम्बन्धी प्राचीन बोर वह जैन दन्तकथा की यथार्थता के विषय में पहले ही विवेचना की जा चुकी है। इसलिए दिवाकर काल के इस विवादास्पद प्रश्न पर फिर से लिखना यहाँ आवश्यक नहीं है। फिर भी दो तथ्य दन्तकथानुसार सिद्धसेन की तिथि के समर्थन में यहां प्रस्तुत किए जा सकते हैं। एक तो यह कि वाचक-श्रमरण की ही भांति, सिद्धसेन दिवाकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों को मान्य है दूसरा यह कि दोनों सम्प्रदायों के साहित्य में इस प्राचार्य सम्बन्धी उल्लेख प्राचीन है।' ! महान् सिद्धयेनरचित साहित्य में जैन-न्याय पौर बत्तीस बत्तीसियां कही जाती है उनने कुल कितने ग्रन्थ रचे इस अप्रधान बात को दूर रखते हुए यह कहा जा सकता है कि यही प्रकरण लिखनेवाले सर्व प्रथम श्वेताम्बराचार्य है। प्रकरण उस प्रद्धत्यानुसार रचना को कहा जाता है जिसमें प्रत्येक विषय वैज्ञानिक रीति से चर्चे जाते हैं । इसमें सैद्धांतिक प्रयों की भांति चाहे जैसे भिन्न भिन्न प्रथवा दन्तकथा रूप में विषय की चर्चा नहीं की जा सकती है यह प्राकृत में भी रखा जा सकता है. परन्तु सामान्यतः यह संस्कृत रचना ही होती है। सिद्धसेन धौर धन्य महान् प्राचार्यो ने ई. पूर्व और पश्चात् की कुछ सदियों में इस प्रकार के प्रयत्न भारतीय मानसिक संस्कृति के उच्चतम स्तर तक श्वेताम्बरों को ऊंचा उठाने के लिए किए जिनकी समाप्ति हेमचन्द्राचार्य द्वारा हुई थी कि जिनने प्रमुख भारतीय विज्ञानों की प्रशसनीय पाठ्य पुस्तकें भी जैनधर्म सम्बन्धी मान्य ग्रन्थों के अतिरिक्त लिखी थीं । यायावतार और सम्मतितर्क दो सुप्रसिद्ध ग्रन्थों के रचियत रूप से सिद्धसेन की विशेष प्रसिद्धी है। पहला न्याय का पद्यमय ग्रन्थ है जिसमें न्याय और प्रमाण का स्पष्ट विवेचन किया गया है। दूसरा सामान्य दर्शन का एक मात्र प्राकृत भाषा का पद्यमय ग्रन्थ है जिसमें तर्कशास्त्र के सिद्धांतों का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। इन दोनों विद्वता पूर्णं ग्रन्थों की रचना के पूर्व जैन न्याय विषयक किसी भी प्रमाणभूत ग्रन्थ का अस्तित्व जानने में नहीं आया हालांकि इस न्यायशास्त्र के सिद्धांत तो धर्म और नीति के साहित्य में यत्र तत्र मिलते ही रहे थे । डा. विद्याभूषरण कहते हैं कि भारतवर्ष के अन्य धर्मों की भांति ही जैनों के प्राचीन ग्रन्थों में धर्म और नीति की चर्चा में न्याय का मिश्रण हुआ तो था ही । परन्तु न्याय के ही विषय की विशुद्ध चर्चा करने का प्रथम मान सिद्धसेन दिवाकर को ही है क्योंकि विद्या की अनेक शाखाओं में से दोहन कर बत्तीस श्लोकों में न्याय विषय पर न्यायावतार नामक ग्रन्थ लिख कर इस विषय को पृथक रूप दे देने वाला जैनों में सिद्धसेन ही सब से पहला हैं । " भद्रबाहु की ही भांति सिद्धसेन के साथ भी जैनों की एक स्तुति को पार्श्वनाथ की ही है, जुड़ी हुई है। इस स्तुति का नाम 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' है इसके विषय में निम्न दन्तकथा है: एक समय सिद्धसेन ने अपने गुरू के समक्ष अभिमान पूर्वक यह प्रकट किया कि समग्र प्राकृत जैन साहित्य को वह संस्कृत में कर देने की इच्छा रखता है। ऐसे देवद्वेषी या पाखण्डी कथन के पाप के प्रायश्चित्त स्वरूप गुरू ने उन्हें पारांचिक प्रायश्चित्त का दण्ड दिया जिसके अनुसार बारह वर्ष तक का मौन धारण करते हुए उन्हें तीर्थ भ्रमण करते रहना था । इस प्रायश्चित्त को करते हुए एकदा वे उज्जैन में पहुँचे और वहाँ के महाकाल मन्दिर में उनने निवास किया। वहाँ उनने शिव 1. हीरालाल, रायबहादुर, वही, प्रस्ता. पृ. 13 । 2. याकोबी, समराइच्च कहा, प्रस्ता. पृ. 12 3. विद्ययाभूपरण, न्यायावतार, प्रस्ता. 11 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] को नमस्कार और उसकी स्तुति नहीं कर पुजारियों को प्रति रुष्ट कर दिया। उनने तुरन्त जा कर राजा विक्रमादित्य से यह शिकायत की जिसने उन्हें शिव को वन्दन करने की आज्ञा दे कर बाधित किया। तब सिद्धसेन ने कल्याणमन्दिर स्तोत्र के पाठ द्वारा शिव की स्तुति की, फल स्वरूप शिव प्रतिमा के दो टुकड़े हो गए और उस खण्ड में से जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हो गई। इस प्रकार की दिव्य शक्ति से प्रभावित हो कर विक्रमादित्य और अनेकों ने उनसे जैन धर्म स्वीकार कर लिया ।" राजा मुरण्ड को जैनधर्मी बनाया था। यह तरंगवती नाम की अति प्राचीन पौर पादलिप्त के विषय में हम पहले ही बता आए हैं कि उनने मुरण्ड राजा 'कान्यकुब्ज की छत्तीस लाख की प्रजा का सम्राट था । " सुप्रसिद्ध रोमांच जैनकथा के रचियता के रूप में भी इनकी सुख्याति है । मूल कथा यद्यपि नष्ट हो गई दीखती है। क्योंकि वह अब तक तो उपलब्ध नहीं हुई है, परन्तु उसका बाद का किया संक्षेप 'तरंगलोला' नाम से सुरक्षित है। संक्षेपकार नेमीचन्द्र ने उलझनभरे श्लोकों और लोकपदों को इस संक्षेप में से लोप कर दिया है। संक्षेप करने का कारण बताते हुए इस नेमिचन्द्र ने स्वयम् ही कहा है कि मूल बहुत ही विस्तृत उल्झनमरा, श्लोक - यूगलकों, घटकों, कुलकों आदि पूर्ण होने से मात्र विद्वयभोग्य हो गया था और सामान्य जन उसका लाभ नहीं ले सकते थे । फिर भी तरंगवती का ही संक्षिप्त होने पर भी तरंगलीला महान् साहित्यिक रसवाली कृति है एवम् उस समय के प्रचलित लोकवार्ता साहित्य का एक अच्छा प्रतिविम्ब है कि जो संस्कृत एवं प्राकृत दोनों ही भाषाधों में तब विशाल होना चाहिए हालांकि उसके बहुत थोड़े ही ग्रन्थ हमें प्राज वारसा रूप उपलब्ध हैं। ऐसे साहित्य के अन्य नमूनों की ही मांति इस रोमांचक कथा में भी अन्त में नायक और नायिका दोनों ही संसार का त्याग कर दीक्षा ले लेते हैं। पूर्वभव का जाति स्मरण ज्ञान और उसके परिणाम ही इस कथा के हेतु हैं। इस कथानक में यत्र तत्र धार्मिक उपदेश और सूचनाएं भी मिलती ही हैं, परन्तु तब भी कथा उपदेशात्मक नहीं बन जाती है । तरंगवती के सिवा, पादलिप्त के ग्रन्थों में फलित ज्योतिष का ग्रन्थ 'प्रश्न - प्रकाश' और प्रतिमा प्रतिष्ठा पद्धति का ग्रन्थ 'निर्वारण- कलिका' या 'प्रतिष्ठा पद्धति' प्रसिद्ध है । यह निर्वारण- कलिका प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा सम्बन्धी क्रिया-काण्डों का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है । यह पुरातत्वविदों के लिए भी बड़े उपयोग का है। क्योंकि वह जैनागमों के रचना काल श्रोर वाचना-काल याने जब कि वे लिखे गए थे, के बीच की कड़ी प्रस्तुत करता है । यह संस्कृत में लिखा हुआ ग्रन्थ है । उस काल में जैनाचार्य अर्धमागधी में ही रचनाएं किया करते थे । अतः उस काल की प्रथा के प्रतिकूल संस्कृत में इसकी रचना एक आश्चर्यजनक बात है । ... इसी में आचार्यपदवी प्रदान की भी विधि दी हुई है जो बड़ी ठाठ बाठ की है। राज्यचिन्ह जैसे कि हाथी, घोड़े, पालखी, चौरी, छत्र, योगपट्टक ( पूजा करने का चित्र ), खर्टीक (कलम), पुस्तकें, स्फटिक की जपमाला, और खड़ाऊ प्राचार्य को पदवीदान के समय दिए जाते थे ।... नित्यकर्मविधि में अष्टमूर्ति का निर्देश भी एक महत्व का है। वह यह 1. हीरालाल, रायबहादुर, वही, प्रस्ता. पृ. 13 । देखो इसी कथा का विक्रमचरित में दिया जैन रूपान्तर भी देखो एड्गर्टन, वही, पृ. 253 1 2. वही, पृ. 251 I 3. देखो बेरी, निर्वण-कलिका प्रस्तावना, पृ. 12-13 1 4. झवेरी, निर्वाण - कालिका, प्रस्ता. पृ. 1। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 203 बताता है कि जैनो की पूजाविधि पर तांत्रिक-प्रागमों का जिनमें पूजनीय देव शिव है, अच्छा प्रभाव पड़ गया था। इस प्रकार जैसा कि हम ऊपर देख आए हैं, यह निर्विवाद है कि जैन इतिहास का अनभिलिखित युग भी साहित्य शून्य नहीं है । उस युग का भी प्राचीन साहित्य लिखा हुआ मिलता है। इस युग के जैन दन्तकथा साहित्य का हमारा यह सर्वेक्षण चूडाँन्त नहीं कहा जा सकता है, फिर भी ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस युग का जैन साहित्य अन्य भारतीय साहित्य की तुलना में क्या गुण और क्या विविधता किसी भी दिशा में जरा भी कम नहीं था । इस जैन साहित्य में सभी विषय के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। ऐसे ग्रन्थ ही नहीं कि जिनका सिद्धात से निकटतम सम्बन्ध है, याने सैद्धांतिक, नैतिक, वादानुवादात्मिक और पक्ष-समर्थक अपितु इतिहास, दन्तकथा, महाकाव्य, रोमांचक, एवम् वैज्ञानिक जैसे कि खगोल, और भविष्य-कथन विषयक भी जैनाचार्यों ने उस काल में लिखे थे । 1. झवेरी, वही, प्रस्ता. पृ. 5। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्याय उत्तर-भारत में जैन कला हम इस अध्याय में उत्तर भारत की कला के इतिहास में शिलालेख, स्थापत्य और चित्रकला में जैनों के योगदान का सामान्य रूप से विचार करेंगे। डॉ. गैरीनोट कहता है कि "भारतीय ललितकला को जैनों ने अति अद्वितीय अनेक स्मारक प्रदान किए हैं। स्थापत्य में विशेष रूप से जैन उस प्रवीणता के पहुँच गए हैं कि जहाँ उनकी प्रतिस्पर्धी कोई भी नहीं है ।"] यह निःसंशय सत्य है कि जैनों का प्रत्युत्तम प्रदर्शन स्थापित में हुआ है । इसका कारण जैनों का वह विश्वास है और जो भारतीय अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक भी है, कि मोक्ष की साधना में मन्दिर-निर्माण उपकारक है । इसलिए उनकी स्थापित्य रचनाएं उनकी जन संख्या की तुलना में अन्य धर्मों की अपेक्षा कहीं अधिक संख्या में हैं। पहली बात तो यह है कि इनके स्थापत्य में विचित्रता बहुत पाई जाती है। वे अपने मन्दिर जंगल भरी या अनुर्वर पहाड़ियों के ढ़लाव में, और सजावट की जहां असीम क्षेत्र हो वैसे वियावान स्थानों में बनाना ही पसन्द करते हैं । समुद्र सतह से 3000 से 4000 फुट ऊँचे शतुजय एवं गिरनार पर्वतों के शिखर पर मन्दिरों के भव्य नगर सुशोभित हो रहे हैं। इस प्रकार मन्दिर नगर बनवाने की विशिष्टता का अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनों ने ही विशेष रूप से अमल किया है । "शतु जय के शिखर पर, विशेषतया, प्रत्येक दिशा में सुवर्णमय और रंग-बिरंगी नक्शीदार मन्दिर खुले और मूक खड़े हैं। उनमें चमकते प्रदीपों के बीच में भव्य और शांत तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं । इन प्रशांत मुद्राओं के समूह वाली मन्दिरों की श्रेणियां और गगनचुम्बी गढ़ों में के देवदेवी यह सूचना करते मालूम पड़ते हैं कि ये सब स्मारक मानवी प्रयत्न से नहीं, अपितु किसी देवी प्रेरणा से ही निर्मित हुए हैं ।"3 आकार और संरचना की इस विविधता के होते हुए भी, शतु जय और गिरनार के समूह दोनों ही, जूनागढ़ के पूर्व में स्थित बावा प्यारा नाम से कहलाते अाधुनिक मठ और अनेक जैन गुफाओं के अतिरिक्त, कोई भी ऐतिहासिक उल्लेख या स्मारक नहीं हैं कि जिनकी सुगमता से खोज की जा सके। ऐसे कोई भी उल्लेख या स्मारक यदि वहाँ रहे होते तो भी "मुसलमान राज्यकाल की चार शताब्दियों में प्राचीनता के अधिकांश चिन्हों को मिटा दिया होगा।" कल्पना की सुन्दरता और कला का धीर संस्कार दोनों ही दृष्टि से जैन ललितकला को प्रदर्शित करने वाले अद्वितीय स्मारकों में चित्तौड़ को कीर्ति और विजय स्तम्भ, एवम् प्राबू-पर्वत के जैन मन्दिर गिनाए जा सकते हैं । 1. गैरीनोट, ला रिलीजियां जैना, पृ. 279 1 2. फरग्यूसन, हिस्ट्री ऑफ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, भाग 2, पृ. 24 । देखो स्मिथ, ए हिस्ट्री ऑफ फाइन आर्ट इन इण्डिया एण्ड सीलोन, पृ. 11 ।। 3. ईलियट, हिन्दूइज्म एण्ड बुद्धीज्म भाग 1, पृ. 121 । 4. देखो बन्यस, पासवेई, 1874-1875, प. 140-141, प्लेट 19 अादि । “यहां बौद्ध लक्षणिकता का कोई स्पष्ट चिन्ह तक भी नहीं है । औरों की भांति ये भी संभवतः जनमूल के ही हैं।" -फरग्यूसन, वही, पृ. 31 । 5. वही। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 205 मन्दिर तीर्थयात्रा का घाम बाबू शिल्प की सूक्ष्म कोमलता एवं कलाविधान की विशिष्टता की दृष्टि से धैर्य और अत्यन्त श्रम व्यय करने वाले इस देश में भी अप्रतिम हैं। इसी प्रकार विवाद में पाया सम्मेतशिखर या पार्श्वनाथ तीर्थ, राजपूताने में सादड़ी मारवाड़ के निकटस्थ राणकपुर का भव्य मन्दिर, पटना जिले का पावापुरी का जल मन्दिर व आदि का नाम बताया जा सकता है । परन्तु जैनों के कला के प्रति प्रेम प्रदर्शन करानेवाले स्थापत्य के ये उदाहरण जैन शिल्पकला के या तो प्रथम अथवा महान् युग के हैं जो कि ई. 1300 प्रथवा उसके कुछ काल बाद तक चलता रहा था, " अन्यथा जैन स्थापत्य की मध्य शैली के हैं, कि जिसका पुनरुजीवन पन्द्रहवीं सदी में मेवाड़ वंश के प्रति शक्तिशाली राजाओं में से एक राणा कुम्भा के राज्यकाल में हुआ था कि जिसकी राजधानी चित्तौड़ थी। जनों के इन सब सुन्दर स्मारकों से सम्बन्ध रखनेवाली स्थापत्यकला, प्राचीनता और पौराणिकता का खोज करवा रसप्रद और ज्ञान वर्धक हो सकता है, परन्तु ऐसा करने के लिए हमें अपने लक्ष्य से बाहर जाना होगा जो किसी भी तरह से उचित नहीं है । 2 स्थापितों की तरह ही जैनों की चित्रकला के अवशेष में भी ऐसे कोई नहीं है कि जो हमारी काल मर्यादा में आ सकते हैं। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय ललितकला के नमूने जो कि जैनों के गम्भीर प्रभाव में विकसित हुए हैं, सचित्र हस्तलिखित ग्रन्थों में जैन दन्तकथा और परमार्थविद्या की रचनाओं में क्षमापना या विज्ञप्तिपत्रों में कि जो जैन धावक और धमरा पड़ोस के प्राचायों को सम्बरसरिका पर भेजने के लिए महान् परिश्रम और सजावट से तैयार करते थे, देखे जा सकते हैं । परन्तु ये सब जैन रस-संवेद कला के विशिष्ट नमूने ईसवी 12वीं सदी से प्रारम्भ होनेवाले मध्यकालीन गुजरात या जैन काल के हैं। हमारे ही निर्दिष्ट काल के जैन स्थापत्य घोर मूर्तिशिल्प के अवशेषों का विचार करने पर हम देखते हैं कि हमारे मुख्य साधन उदयगिरि और खण्डगिरि की उड़ीसा की गुफाएं जूनागढ़ का गिरनार पर्वत, मथुरा का कंकाली टीला और अन्य टेकरियों प्रादि को स्थापत्य हैं । परन्तु इनका विचार करने के पूर्व भारतीय ललितकला की कुछ लाक्षणिकता पर सामान्य रूप में कुछ प्राथमिक बातें कह देना ग्रावश्यक है । पहली बात जो इस सम्बन्ध में स्मरण रखने की है वह यह है कि भारतीय ललितकला का साम्प्रदायिक वर्गीकरण, जैसा कि फरम्युसन ने माना है, कुछ दोषयुक्त ही है। सच बात तो यह है कि स्वापत्य या मूर्तिशिल्प में बौद्ध जैन, या हिन्दू शैलियां है ही नहीं । जो कुछ है ये हैं श्रपने युग की भारतीय शैली के बौद्ध, जैन और हिन्दू अवशेष।" ये अवशेष कला के घौपचारिक विकास में प्रान्तीय विभेद ही दिखाते हैं जो कि विशुद्ध शैली में - 1. बल मन्दिर... पण्डों के अनुसार, महावीर का निर्वाण हुआ उसी स्थल पर बना हुआ है और जल मन्दिर उनके दाहसंस्कार के स्थान पर, " - विउडिगप, पृ. 224 । देखो वही, पृ. 72 2. फरम्युसन, वही, पु. 59 3. वही, पृ. 60 4. देव मेहता स्टडीज इन इण्डियन पेंटिंग, पू 1-2 5. परसी ब्राउन, इण्डियन पेंटिंग, पृ. 38, 511 व्हूलर ने मधुरी की खोजों के सिखाए पाठ पर बल देते हुए कहा है कि भारतीय जलतकला साम्प्रदायवादी नहीं दी थी। बौद्ध, जैन और हिन्दू सब धर्मों ने अपने काल और देश की कला का उपयोग किया है और सब ने समान रूप से लाक्षणिक और रवाजी हथकण्डों के सामान्य कोश से प्रेरणा प्राप्त की है। स्तूप चैत्यवृक्ष कट हरे, चक्र, यादि आदि जनों, बौद्धों और सनातन हिन्दुओं को धार्मिक या सजावट के रूप में समान रूप से प्राप्त 1 1 ये स्मिथ दी जैन स्तूप एण्ड सदर एण्टीक्विटीज ग्राफ मथुरा प्रस्तावना. पू. 61 देखो हूनर, एपी. इष्टि.. पुस्त 2, पृ. 322 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 ] साम्प्रदायिक विभिन्नताओं हमें भारतीय कला के साम्प्रदायिक विभाजन या वर्गीकरण की ओर ललचाती है, परन्तु यह ठीक नहीं है। इसमें संदेह नही, जैसा कि हम आगे चल कर देखने ही वाले हैं, कि प्रत्येक धर्म की विविध अनिवार्य आवश्यकताओं का प्रभाव, विशिष्ट अभिप्राय के प्रावश्यक संरचना के स्वभाव पर पड़ता है, परन्तु फिर मी ललितकला कृतियां जिनमें स्थापत्य भी समाविष्ट है, उनकी भौगोलिक स्थिति और आयु की दृष्टि से ही वर्गीकरण की जाना चाहिए न कि जिस धर्म की सेवा के लिए उनकी कल्पना की गई हो उसकी दृष्टि से ।। इसलिए स्थापत्य या शिल्प की जैन शैली जैसो कोई भी बात नहीं है। यह बात इससे और भी स्पष्ट हो जाती है कि बौद्ध एवम् जैन दोनों ही के प्रमुख मूति-शिल्प इतने तादृश हैं कि उन्हें ऊपरि दृष्टि से देखने वाला इस प्रकार वर्गीकरण कर ही नहीं सकता है कि अमुक-अमुक सम्प्रदाय का है और अमुक-अमुक सम्प्रदाय का । इस प्रकार का शीघ्र विवेक करने के लिए पर्याप्त और लम्बे अनुभव की आवश्यकता है।' भारतीय कला के अभ्यासी के लिए दूसरी महत्व की बात यह है कि यद्यपि सब भारतीय कला धार्मिक ही है। फिर भी भारतीयों को धार्मिक, सौन्दर्य, और वैज्ञानिक दृष्टि अवश्य ही विरोधात्मक नहीं है, और उनकी सभी कला कृतियों में, चाहे वह शान-वाद्य की, साहित्यिक या भास्कर्य किसी की भी क्यों न हो, ये दृष्टिकोण कि जिन्हें आजकल इतनी स्पष्टता से व्यक्त किया जाता है, प्रपार्थक्यरूप में मिले हए होते हैं। यह निःसन्देह देखना ही शेष रह जाता है कि यह मर्यादा या अनुशासन शक्ति के श्रोत का काम देता है अथवा उसे उपदेशी अभिप्राय का दास बना देती है। फिर भी यद्यपि धार्मिक कथा, प्रतीक या इतिहास कलाकार को कार्य करने की प्रेरणा देते हैं, परन्तु वे ही उसको हाथ चलाने की प्रेरणा नहीं देते हैं। ज्यों ही वह काम करने लगता है, कला उन्मुख हो जाती है और वह इन तीनों ही से भाववही प्रेरणा प्राप्त करता रहता है। यही कारण है कि "नवजागृत इटली का प्रचण्ड धर्मोत्साह अपने समस्त चित्र प्रतीकों सहित अपने कलाकारों को उपदेशक की अपेक्षा कुशल चित्रकार बनने से रोक नहीं सका था और वे धर्म-प्रचारक की अपेक्षा मण्डनकारों के प्रति ही निष्ठावान रहे थे । सिग्नोरेली, इसी कारण अपने पवित्र प्रसंगों को वास्तविक जीवन से प्रेरित कला की अपनी खोजों के प्रमुख साधन रूप में 1. देखो कुमारास्वामी, हिस्ट्री आफ इण्डियन एण्ड इण्डोनेसियन पार्ट, पृ. 106 । परन्तु, यद्यपि प्राय: सब भार तीय कला धार्मिक है, यह सोचना भ्रमपूर्ण है कि शैली धर्म पर निर्भर करती थी फरग्यूसन का प्रार्ष ग्रन्थ हिस्ट्री आफ इण्डियन प्रार्किटेक्चर इस भ्रामक मान्यता से कि बौद्ध जैन और हिन्दू की स्पष्ट शैलियाँ विद्यमान थी, बुरी तरह भ्रष्ट हो गया है । स्मिथ, ए हिस्ट्री प्राफ फाइन आर्ट इन इण्डिया एण्ड सीलोन, पृ. 9। 2. वही । 3.जन स्तुपयाकृति में बौद्ध स्तूप से कुछ भी भिन्न नहीं होते हैं और जैन वक्रीय शिखर हिन्दू मन्दिरों के शिखरों के समान ही प्रायः होते हैं । "-वही।"...अत्यन्त सुशिक्षित व्यक्ति भी एक प्रकार की मूर्ति का दूसरी मूर्ति से विवेक नहीं कर सकते हैं।" -राव, एलीमेंट्स आफ हिन्दू ग्राहकोनोग्राफी, भाग 1, खण्ड 1, पृ. 220 । 4. देखो कुमारास्वामी, दी पार्टस एण्ड क्राफ्ट्स आफ इण्डिया एण्ड सीलोन, पृ. 16 । नियाम याने शास्त्रानुसार (निर्मित मूर्ति) सुन्दर होती है, अन्य कोई भी निश्चय ही सुन्दर नहीं होती; कोई उसे सुन्दर (कहते हैं) जो (उनकी ही) अपनी कल्पनानुसार होती है। परन्तु वह जो शास्त्रानुकूल नहीं होती, जानकार मर्मज्ञों को वह असुन्दर (लगती है)। वही । हिन्दू सदा ही धार्मिक उदाहरण के ब्याज से सौन्दर्य-विज्ञान के तत्व ही प्रस्तुत करते हैं । स्मिथ, वही, पृ. 8 । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 207 व्यवहार किए बिना नहीं रह सका था और फा बरटोलोम्भिग्रो के प्रशंसकों ने उसकी सर्वोत्कृष्ट और अतीव आकर्षक सन्त सेबास्टियन की प्रतिकृति को गिरजाघर की भींत पर से सखेद उतार दिया था।" भारतीय कला विषयक इस सामान्य चर्चा के पश्चात् अब हम जैनों के विशिष्ट कलावशेषों का विचार करें। इसमें उड़ीसा की गुफाएं हमारा ध्यान सर्व प्रथम आकर्षित करती हैं कि जो भारतीय गुफाओं में अति रसप्रद्ध और साथ ही विलक्षण हैं । वे गुफाएं अधिकांश जैन ही हैं, इसमें शंका ही नहीं की जा सकती है। “कलिंगदेश में जैनधर्म' शीर्षक अध्याय में इन गुफाओं में पाई जाने वाली तीर्थंकरों की प्रतिमानों और उसमें भी पार्श्व की अनेक मूर्तियों एवं उसके सर्प-फरण लांछन की अनेक प्राकृतियों को लेकर उनको दिए प्रमुख स्थान प्रादि का निर्देश कर चुके हैं । गुफाओं के निरीक्षण में कोई ऐसे अवशेष उपलब्ध नहीं होते हैं कि जो स्पष्टतया बौद्ध कहे जा सकते हैं । दागोबा, बुद्ध या बोधीसत्व, बौद्ध दन्तकथानों में स्पष्टतया खोज निकाले जा सकने वाले दृश्य, कोई भी वहाँ नहीं हैं । उनमुक्त या नोकदार त्रिशूल, स्तूप, स्वस्तिक, बन्ध कटहरे बाड़ लगे वृक्ष, चक्र, श्री देवी वहाँ अवश्य ही पाए जाते हैं, परन्तु ये प्रतीक तो जैनों में भी इतने ही प्रचलित हैं जितने कि अन्य धर्मों में। फिर इस तथ्य को सभी मान्य विद्वानों के सामान्य रूप से स्वीकार कर लिया है। पुरातत्वज्ञों और शिल्पविशारदों जैसे कि प्रो 'भाले, मन मोहन चक्रवर्ती, ब्लाक, फरग्यूसन, स्मिथ,' कुमारास्वामी, आदि आदि ने। इस प्रकार प्राज वर्तमान प्राचीनतम मूर्तिशिल्प के नमूने बताते हैं कि अन्य धर्मों की मांति ही, जनों ने भी अपने साधुओं के निवास के लिए गुफाए या भिक्षु-गृह खुदवाए थे । परन्तु उनके धर्म की व्यवहारिक आवश्यकताएँ पूरी करने जितनी ही उनके निर्माण की शैली पर प्रभाव अवश्य ही पड़ा था। यह एक सामान्य नियम था कि जैन मुनि बड़ी संख्या में एक साथ नहीं रहते थे और साथ ही उनके धर्म की प्रकृति के कारण भी उन्हें बौद्ध चैत्यों के से बड़े बड़े विहारों की आवश्यकता नहीं होती थी। जैसा कि पहले ही हम देख आए हैं, जैन सम्प्रदाय के प्राचीनतम और अधिकतम इस प्रकार की प्राचीन गुफाएं उदयगिरि नाम की पूर्व की ओर की पहाड़ी में हैं । आधुनिक गुफाएं पश्चिमी अंश में हैं जो कि खण्डगिरि नाम से प्रख्यात है । 'उनके दिखाव की भव्यता, उनके शिल्प और स्थापित की बारीकियों की लाक्षणिकता उनकी प्राचीनता से मिल कर उन्हें सूक्ष्म सर्वेक्षण के परम योग्यतम बना देती हैं । 1. मोलोमन, दी चार्म आफ इण्डिय आर्ट, पृ. 86-87 । 2. देखो चक्रवर्ती, मनमोहन, वही, पृ. 5%; फरग्यूसन, वही, पृ. 1।। 3. यो 'भाले', बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पुरी. पृ. 2661 4. अपनी यात्राओं में इन गुफामों का सूक्ष्म निरीक्षण करने के पश्चात् मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि सभी गुफाए, जहाँ तक कि वर्तमान सामग्री कहती है, जैनों की कही जानी चाहिए न कि बौद्धों की। चक्रवर्ती, मनमोहन, वही और वही स्थान । 5. गुफाओं बौद्धधर्म का कुछ भी नहीं है, परन्तु दृश्यतः सब ही जैनों की हैं, यह तथ्य प्रायः सभी अधिकारी विद्वानों द्वारा, मैं समझता हूं कि सामान्यरूप में...स्वीकृत है । देखो वही, पृ. 20 । 6. बहुत थोड़े ही दिनों पहले तक, फिर भी, भ्रम से बौद्ध मानी जाती रही हैं, हालांकि वे ऐसी स्पष्टतः कभी भी नहीं थी। फरग्यूसन, वही, भाग 1, पृ. 1771 7. देखो स्मिथ, वही, पृ. 84 । 8. देखो कुमारास्वामी, हिस्ट्री आफ इण्डियन एण्ड इण्डोनेसियन आर्ट पृ. 37। 9. फरग्यूसन. वही. भाग 2, पृ. 9। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 ] स्थपित की दृष्टि से नहीं तो पुरातत्व की दृष्टि से तो अवश्य ही हमारा ध्यान आकर्षण करनेवाली उदयगिरि की गुफाओं में हाथीगुफा की गुफा है जो कि एक बड़ी प्राकृतिक गुफा है और उसका शैलप्रान्तलेख लिखने के उपयुक्त चिकना कर दिया गया प्रतीत होता है। इस लेख का विचार तो विस्तार से हम पहले कर ही चुके हैं । अाज जिस रूप में यह गुफा खड़ी है, उसमें शिल्प की विशिष्टता बहुत ही न्यून रह गई है । परन्तु इतना निश्चय तो है ही कि उसके प्राकृतिक होने के बावजुद, परन्तु उसके अभिलेख की महत्ता को देखते हुए हाथीगुफा कुछ कम महत्व की गुफा नहीं होना चाहिए । इसका यह कारण कि पहाड़ों के टोलों में गुफा या मन्दिर खोदने की भावना शाश्वत पुण्य की आकांक्षा में से उद्भव होती है और वैसे स्थान या मन्दिर या स्मारक कठोर पाषाण पर्वत-खण्डों में ही बनाए या खोदे जा सकते हैं क्योंकि जब तक ये स्मारक खड़े रहते हैं, वहाँ तक उनके निर्माता को पुण्य प्राप्त होता रहता है। फिर इस हाथीगुफा को कला की दृष्टि से व्यापक कि याने और सुधारने गया था, यह इस बात से समथित होता है कि सामान्यता गुफा-खोदनेवाले ऐसी चट्टान ही इसके लिए पसन्द करते हैं कि जो ठोस होने के साथ ही दरार और सलवालो भी नहीं हो न कि प्राकृतिक खोह । इसका कारण यह है कि प्राकृतिक खोह का टोल पोला होता है और उसके कभी टुकड़े टुकड़े भी हो सकते हैं और इसलिए उसमें रहनेवालों को जीवन का भय सदा ही बना रहता है । जैसा कि कहा जा चुका है, कला की दृष्टि से उदयगिरी टेकरी की रानी और गणेश गुफाए रोचक हैं । ये दोनों वेष्टनीवाली दुमंजिली गुफाए हैं और इनके ऊपर एवं नीचे की प्रोमारी में अनेक भवन-द्वार हैं। रानी गुफा सब गुफाओं में बड़ी और सुन्दर सजी हुई है। उसकी भव्य नक्काशीदार वेष्टनियाँ मानवी प्रवृत्तियों के सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करती हैं। इन उत्कीरिणत दृश्यों में और गणेशगुफा में बहुत-कुछ उनके ही पुनरावृत्ति के विषय में जिला विवरणिका एवम् चक्रवर्ती आदि सूप्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार पार्श्व के जीवन प्रसंग प्रस्तुत किए गए हैं। इस बात का विचार हम पहले ही कर चुके हैं, अपितु हम इन वेष्टनियों के दृश्यों के विषय का भी विस्तार मे कुछ कुछ विचार कर चुके हैं। इन प्राचीन जैन अवशेषों के शिल्प के विषय में हम देखते हैं कि, मथुरा शिल्प के नमूनों की ही भांति जिनका कि विचार हम आगे करने वाले हैं, इनमें भी स्त्रियों और पुरुषों के वस्त्र एवम् वेश-भूषा में ग्रीक और भारतीय तत्वों का समिश्रण है । ई. पूर्व युग की सदियों में यवन भारतवर्ष में बहुत भीतर तक प्रवेश कर गए थे, यह बात जहाँ स्वतः प्रमाणित है वहाँ खारवेल के हाथी गुफा लेख से भी यह प्रमाणित होता है जिसमे यवनराज डिमेट्रियस को भारतवर्ष से पीछा हटा देने में खारवेल के प्रभाव का वर्णन है। फिर इन दृश्यों के चित्र, मथुरा शिल्प की भांति ही, कुछ ऊंचे उभरे खुदे हैं और इनमें की स्त्रियां बहुत मोटे सांकले भी पैरों में पहनी हुई हैं। उड़ीसा और अन्य जैन अवशेषों की यह विशिष्टता इस वक्तव्य की सत्यता का उचित ही समर्थन करती है कि "पृथ्वी भर के निवासियों में शृगारिक भूषणों का आदान-प्रदान उसी समय से चलता रहा होगा जब से कि मनुष्य ने पहले पहले सज्जा रूपों का चेतन रूप में पैदा करने लगा था। और यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि इस प्रकार के नकल किए भूषणों में नकलकर्ताओं द्वारा प्रयोग करते समय अवश्य ही कुछ संस्कार हुए बिना नहीं रहा था । इस प्रकार की नकल और संस्कार की व्यापकता असीम है और ये भूषण अपने मूल स्थान में अद्भुत रूप से परिवर्तित हुए वापिस भी पहुंच जाते हैं परन्तु बहुधा उनका पहचानना ही संभव नहीं होता है।" 1. देखो कुमारास्वामी, वही, पृ. 381 2. एण्ड्रज, इंफ्ल्यूएन्सेज आफ इण्डियन आर्ट, प्रस्तावना, पृ. 11 । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 209 प्राक्-गंधार युग की भारतीय या जन कला में विदेशी तत्वों के प्रवेश की इस बात के सिवा भी, हमारी यह सम्मति है कि इस प्राचीन जैन शिल्प में विशिष्ट चारुता रही हुई है। भूषणों की प्रचुरता और कला की प्रवीणता के अतिरिक्त उसमें भवों की अद्भुत ताजगी और पुष्टि कारक आनन्द अज्ञातभाव वर्तमान है। ये उभरे भास्कर्य, मानव प्रवृत्तियों के अन्य दृश्यों में, याने आखेट, लड़ाई, नाच, मद्यपान और प्रेम-प्रदर्शन के दृश्य दिखाते हैं, और फरग्यूसन के अनुसार, इनमें "धर्म अथवा प्रार्थना के किसी भी रूप के दृश्यों के सिवा"। और सभी कुछ दिखाए गए हैं । स्वस्थ्य प्रजा की यह ऊष्मा सभी उत्तम बौद्ध एवं जैन कला की विशिष्टता है और गांधार सम्प्रदाय की आर्ष सीमा से वह अवश्य ही किसी अंश में दब गई कि जो बाद में सामने आई । उड़ीसा के जैन अवशेषों की विशेष चर्चा यहाँ नहीं की जा सकती है, फिर भी मथुरा के जैन अवशेषों का विचार करने के पूर्व कला विषयक जैन योगदान की दो विशिष्टताओं का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली विशिष्टता है स्तूप के रूप में अवशेष-पूजने की प्रथा और दूसरी जैनों में मूर्ति-पूजा । जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, हाथीगुफा शिलालेख की चौदहवीं पंक्ति से हमें पता लगता है कि मथुरा शिल्प-युग के बहुत पहले से ही बौद्धों की भांति जैनों में भी अपने गुरुत्रों के अवशेषों पर स्तुप या स्मारक खड़े करने की प्रथा प्रचार में थी । "प्राचीनतम स्तूप निःसन्देह किसी धार्मिक सम्प्रदाय के प्रतीक नहीं थे। वे अग्निदाह के स्थान में भूमि में दबा देने की प्रथा के साथ-साथ मृतों के स्मारक मात्र थे ।"३ हो सकता है इस प्रकार की पूजा बौद्धों की भांति जैनों में इतनी प्रचार नहीं पाई हो । परन्तु यह तो निश्चित है कि थोड़ी ही लोकप्रियता के पश्चात् वह अप्रचलित हो गई थी। परन्तु मथुरा के बौद्ध स्तूप से कि जो, जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, देव निर्मित था, हम यह दृढ़ता से कह सकते हैं कि जैन में स्तूप-पूजा भी कभी एक निश्चित स्थिति को पहुंच गई थी। ऐसा कहने का मुख्य आधार यह है कि स्तुप, मूलत:, किसी नेता या धर्माचार्य की मस्मि पर मिट्टी के ऊंचे ऊंचे ढ़ेर मात्र ही थे और उनकी रक्षा के लिए काष्ठ की बाड़ उनके चारों ओर लगा दी जाती थी। बाद में ये ही मिट्टी के प्रतरतम अंश सहित ईट या पाषाण के बनाए जाने लगे और काष्ठ-बाड़ भी पाषाण बाड़ में बदल गई। मथुरा के बौद्ध एवं अन्य स्तूपों के दिखाव पर से उनका प्रारम्भिक रूप प्रगट नहीं होता है. यह हम उनको देखते ही कह सकते हैं उनमें हम काष्ठ-बाड़ के स्थान में पाषाण की बाड़ पाते हैं और उनके बाह्य भाग को अत्यन्त सजाया हुआ भी देखते हैं। दूसरी बात जिसका कि हमें विचार करना है, वह है जैनों का मूर्तिशिल्प । हाथीगुफा शिलालेख से हम जानते हैं कि जैनों में अपने तीर्थकरों की मूर्तियाँ नन्दों के काल में भी बनती थी। इसका किसी अंश में समर्थन मथुरा के अवशेषों से भी होता है । जिनसे हम जानते हैं कि इण्डो-सिथिक काल के जैनों ने किसी प्राचीन मन्दिर के सामान का उपयोग मूर्तिशिल्प में किया था। स्मिथ के अनुसार यह इतना तो अवश्य ही प्रमाणित करता है कि मथुरा में ई. पूर्व 150 के पहले जैन मन्दिर कोई अवश्य ही था। फिर जैनों के दन्तकथा साहित्य से भी हमें जानना पड़ता है कि, महावीर के जीवन काल में भी, उनके माता-पिता एवम् उस समय का जनसंघ पार्श्वनाथ तीर्थकर को पूजते थे। जैनों में मूर्तिपूजा निश्चित रूप से कब प्रवेश हई थी, इस प्रश्नों की मीमांसा करने की हमें 1. फरग्यूसन, वही, पृ. 15। 2. हेण्यल, एंशेंट एण्ड मैडीवल पाकिटेक्चर आफ इण्डिया, पृ. 46 । 3. कजन्स, पाकिटेक्चरल एण्टीक्विटीज ग्राफ व्यस्टर्न इण्डिया, पृ. 8 । 4. स्मिथ, दी जैन स्तूप एण्ड अदर एण्टीक्विटीज प्राफ मथुरा, प्रस्तावना प.3। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] आवश्यकता नहीं है, हालांकि यह तो निश्चित प्रतीत होता हैं, किसी न किसी रूप में यह महावीर काल से तो जैनों में प्रचलित ही है मूर्तिपूजा का प्रश्न हमारा विचारणीय नहीं है, परन्तु मूर्ति-शिल्प का अवश्य ही विषय हमारे लिए विचारगीय है। पूजा के मुख्य पदार्थ तो चौबीस तीर्थ कर ही हैं, परन्तु महायान बौद्धों की भांति ही, जैनों ने भी हिन्दू देवी-देवताओं का परितत्व स्वीकार कर लिया है, यही नहीं अपितु उन्हें सचना उनमें से ऐसों को अपने मूर्ति-शिल्प में स्वीकार कर लिया है कि जिनका सम्बन्ध उनके तीर्थंकरों की कथाओं के साथ है। ऐसे वे देव-देवी हैं. इन्द्र, गरुड़, सरस्वती, लक्ष्मी, गन्धवं पप्सरा यादि यादि इनका एक अपना ही देवसमाज है जिसके उनने पार विभाग माने हुए हैं, यथा भवनाधिपति, व्यंतर, ज्यौतिष्क और वैमानिक । जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है तीर्थकरों की पहचान उनके चिन्ह या लांछन द्वारा होती है कि जो उनकी मूर्ति के नीचे चिन्हित या अकित होता है। हमने यह भी देखा कि उड़ीसा की एक से अधिक गुफाएं नांदनवाली तीर्थकरों की मूर्तियों और कुछ उभरी ख़ुदी बैठी मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार की जैन तीर्थकरों की मूर्तियां मथुरा के अवशेषों में भी प्राप्त हैं। वे मूर्तियां एक वर्ग रूप से दिगम्बर शंसी की ही हैं।" इस प्रकार ऐतिहासिक रूप से भी चौबीस तीर्थकरों की चौबीसी की दृढ़ मान्यता प्रत्येक तीर्थंकर के अपने ही लांछन या चिन्ह सहित, न केवल ईसवी युगे के प्रारम्भ से अपितु उससे पूर्व से ही प्रचलित थी । तीर्थंकरों की मूर्तियाँ सामान्यतः बुद्ध की मूर्ति के समान ही पालगथी (पैर पर पैर रख कर बैठना ) लगा कर बैठे आकार में और शांत, ध्यानमग्न अवस्था में देखी जाती हैं। यदि उड़ीसा एवम् मथुरा दोनों ही मूर्ति-शिल्पों में नर्तकियों की आकृतियाँ विकास की द्योतक हैं तो योगी मुद्रा में बैठी जिन मूर्तियाँ उतनी ही विकास के प्रत्याहार और पूर्ण स्वातंत्र्य की हृदयग्राही मूर्तियाँ हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि यह देहदमन का प्रतीक नहीं है। यह तो भारतीय विचारकों द्वारा ध्यान के लिए स्वीकृत सब से सुगम अनादि कालीन मुद्रा है। इसे अभिव्यंजनाशून्य नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि वह वैयक्तिक विशिष्टता जिसे सामान्यतया श्रभिव्यंजना प्रदर्शक माना जाता है, नहीं बताती है। पक्षान्तर में रोथेनस्टीन के अनुसार, समाधि याने धार्मिक अन्यमनस्कता के नमनीय व्याख्या कला के इतिहास में एक सर्वोच्च कल्पना है और इसके लिए समस्त संसार भारत को मनोषि मस्तिष्क का ऋण है। ध्यानस्थ दशा का यह मूर्त स्फटिकीकरण, 'वह विद्वान कहता है कि,' श्राकार में इतना पूर्ण एवम् अनिवार्य विकसित हुआ कि 2000 वर्ष से अधिक होने पर भी वह मनुष्य निर्मित प्रतीकों में का प्रत्यन्त प्रेरक धौर सन्तोषकारक एक है।" अब हम मथुरा के जैन ग्रवशेषों का विचार करें। यह नगर स्मरणातीत प्राचीन है । परन्तु जैनावशेष कटरा के प्राधा मील दक्षिण स्थित कंकाली नामक टीले से और उसके आसपास की खुदाई में प्राप्त हुए हैं । इसी को जैनी टीला भी कहा जाता है। भारतीय कला के इतिहास में इन अवशेषों का महत्व दो कारणों से है। पहला तो यह कि ये प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय कला की 'खला रूप है और दूसरा यह कि इनकी उस गंधार सम्प्रदाय से अत्यन्त हो घनिष्टता है कि जिसका उत्तर-पश्चिमी सीमा का संचार क्षेत्र केन्द्र था और वहीं 1. देखो कूलर, इण्डियन सेक्ट ग्राफ दी जैनाज, पू. 66 आदि । 2. देखो बोम्बल कैटेलोग ग्राफ दी पाकियालोजिकल म्यूजियम एट मथुरा, पु. 41 विशेष विवरण मथुरा संग्रहालय की तीर्थंकरों की मूर्तियों के लिए देखो वही पु. 41-43, 66-821 3. रोथेनस्टीन, एक्जाम्पुल्स ग्राफ इण्डियन स्कल्पचर प्रस्तावना, पृ. 8 । 1 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 211 इस सम्प्रदाय की अनेक उत्कृष्ट कृतियाँ प्राप्त हुई हैं। “भौगोलिक दृष्टि से,' स्मिथ कहता है कि, "मथुरा उत्तर पश्चिम के गंधार, दक्षिण-पश्चिम की अमरावती और पूर्व के सारनाथ से केन्द्र स्थानीय है । इसलिए यह पाश्चर्य की बात नहीं है कि वहाँ की कला में ऐसे मिश्र लक्षण दीख पड़ें कि जो एक ओर तो उसको गंधार की यावनी कला से जोड़ देते हैं तो दूमरी ओर विशुद्ध अन्तर भारतीय कला सम्प्रदाय से ।"1 यह गंधार-मथुरा सम्प्रदाय सम्भवतः ई. पूर्व पहली सदी में उद्भुत हुई होगी और ई. 50 से 200 तक के काल में पूर्ण विकसित रूप में चमकी होगी । भारत की प्राचीन कला में यावनी नमूनों के स्वीकरण से इसका उद्भव हुमा कि जो शनैः शनैः उसकी ही प्रात्मा रूप हो गए। "गंधार सम्प्रदाय," डॉ. बान्यैट कहता है कि, "एक उपचित वाक्य है जो यह प्रकट करता है कि अनेक कलाकारों के विविध सामग्रियों में काम करती अनेक पीढ़ियों में विविध कला कौशल वाले परिश्रम का यह फल है। कभी कभी यावनी नमूनों का अन्धानुकरण भी किया गया था और इस चतुराई पूर्ण नकल में उन्हें सफलता शायद ही प्राप्त हुई है। सामान्य रूप से देखें तो उनने इससे भी अधिक किया था। म्लेच्छ कला की वस्त्रों, भावनाओं आदि का स्वीकार करते हुए उनने ग्रीक प्रभा और सुषुमा, सौंदर्य और सुसंगति, का भी प्रायात किया जिससे पुरानी कला की आकृतियाँ, कला की मानवीयता और सत्यता को निर्बल किए बिना, उच्च स्तर को उठ गई। भारतीय कला में इन विदेशी तत्वों का समावेश और भारतीय कला का विदेशियों द्वारा स्वीकरण दोनों ही बाहरी दुनिया के साथ भारतीय राजनैतिक एवम् व्यापारिक सम्बन्ध के आभारी हैं। यही कारण है कि आज का भौगोलिक भारत भिन्न-भिन्न जातियों का निवास स्थान है कि जिनका कला का प्रादर्श, धर्म का प्रादर्श एकसा बिलकुल ही नहीं हैं और जिनने, अधिकांश में परवर्ती ऐतिहासिक काल तक में परदेश से आए हुए होने से, सुशोभन कला के विदेशी तत्वों का प्रवेश किया, परन्तु जो उन परदेशियों की ही मांति, यहाँ के ही हो गए हैं यहाँ नहीं अपितु स्थानीय हरिद्वर्ण भी उनने प्राप्त कर लिया है। फिर भी एन्ड्यूज के अनुसार, जलवायु और अन्य कारणों से उन देशों से कि जो भारतीय सम्पर्क से विशेष प्रभावित हए थे, कला-विषयक कोई भी रोचक तथ्य प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं और इसीलिए 'कलापों का हमारा अधिकांश ज्ञान उन पदार्थों के प्रांम्यंतरिक साक्षियों से ही संग्रहित किया जा सकता है कि जो जलवायु एवं धर्मान्धता की विनाशक शक्तियों से आज तक बचे रह गए हैं । मथुरा सम्प्रदाय के विषय में सामान्य प्रस्ताविक विचार करने के बाद, अब हम वहाँ के जैन शिल्प के कुछ उदाहरणों का विचार करेंगे जो कि कंकाली टीला से प्राप्त हुए हैं। कला-देवी अपने भक्तों से जो निर्विवाद तन्मयता मांगती है, वह जैन कलाविदों ने कितने प्रमाण में साधी है और यवन तत्वों विशुद्धप्रात्मीकरण करने में वे कहाँ तक सफल हुए हैं, इसका भी हम विचार करेंगे। जिन कतिपय मथुरा शिल्प के नमूनों का हम यहां विचार करने वाले हैं उनमें पहले हम पायागपटों का विचार करें कि जो बहुत रोचक और सुन्दर कलाकृतियाँ हैं । 'प्रायागपट', डा. व्हूलर कहता है कि. 'एक शोभा 1. स्मिथ, हिस्ट्री आफ फाइन आर्ट इन इंडिया एण्ड सीलोन पृ. 233 । देखो, योग्बल, वही, पृ. 19 । 2. "इस सम्प्रदाय की कला की यह पराकाष्टा का काल ई. 50 से ई. 150 या 200 तक का कहा जा सकता है।" -स्मिथ, वही, पृ. 99 । 3. बान्वेंट, एण्टीक्विटीज ग्राफ इण्डिया, प. 253। 4. एण्ड्रज, वही, प्रस्तावना पू. 12 । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 ] शिला है कि जिसमें जिन की प्रतिकृति या कोई अन्य पूज्य प्राकृति होती है। इस शब्द की यथाविहितरूप में व्याख्या' पूजा या समर्पण की शिला की जा सकती है क्योंकि ऐसी शिलाएँ मंदिरों में स्थापित कीजाती थीं और जैसा कि उन पर के अनेक शिलालेखों से कहा हुआ है, 'अर्हतों की पूजा के लिए:'...इसका प्रयोग जैनों में बहुत काल पहले ही स्थगित हो गया था जैसा इन पर के लेखों के प्राचीन अक्षर अनिवार्यतः प्रगट करते है, और जिनमें कहीं भी कोई तिथि नहीं दी गई है।1। प्राचीन जैन कला के प्रायागपट एकान्त नहीं अपितु प्रमुख लक्षण हैं । जैसा सामान्यतः देखा गया है, इन अति संवारे पटों के विषय में भी जैन शिल्प का लक्ष्य 'सौन्दर्य की स्वतन्त्र कृति प्रस्तुत करना नहीं था। उनकी कला स्थापित स्मारकों के सजावट की परतन्त्र कला ही थी ।' फिर भी यह कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है कि मध्य स्थान में शोभती बैठी जिन की योगी-मुद्रा, विविध प्रकार के पवित्र प्रतीकों सहित अत्यन्त सुशोभित त्रिशूल, उत्कृष्ट वक्रीयविमिण्डन, और ईरानी-अकीमीनी शैली में मोटे मोटे स्तम्भ कला-प्रेमी दर्शक को आसानी से यह विश्वास नहीं करने का पूर्वग्रही कर दें कि मथुरा शिल्प का प्रमुख ध्येय प्रतीक प्रदर्शन ही था और इसी ध्येय से 'इन पूजा की शिलानों' पर शिल्पीने अपनी छेनी चलाई थी। पक्षान्तर में, इन पायागपटों के सम्बन्ध में तो अवश्य ही, एक कदम और आगे बढ़ कहा जा सकता है कि उनकी कृतियों की स्वतन्त्रता और सजीवता में ही उनकी कला की उत्कृष्टता प्रगट हुई है, और इस प्रकार स्वयम् उत्साही कलाकार होने के कारण शिल्पीने धार्मिक विषयों को ही एक बहाना मात्र, न कि अपनी कृतियों का साधन और साध्य, रूप में बहुधा प्रयोग किया ऐसा ही लगता है । दो ही पायागपटों का वर्ण करना यहाँ पर्याप्त हैं- एक तो नातिक्क फगुयश की पत्नि शिवयशा स्थापित, और दूसरा महाक्षत्रप शोडास के राज्यकाल के 42वें वर्ष में उत्सर्गित ग्रामोहिनी का जिसका उल्लेख पहले भी किया जा चुका है। पहले में, स्मिथ के अनुसार, जैन स्तूप का एक सुन्दर दृश्य दिया हुआ है जिसके चारों ओर कटहरे द्वारा सुरक्षित एक भमती (परिक्रमा) है। उस भमती तक अति सुसज्जित तोरण द्वार में हो कर पहुँचा जा सकता है और द्वार चार सोपान की चाढी से । द्वार के नीचे ही नीचे के शहतीर से एक भारी माला लटक रही है। कमर में कटिबन्ध स्वरूप परिच्छद और सामान्य अलंकार याने कटिमेखला के अतिरिक्त सम्पूर्णतया नग्न नतिका द्वार के दोनों ओर कटहरे के ऊपर असम्य रीति से खड़ी या टिकी हैं। विचित्र पाये वाले दो भारी स्तम्भ भी दिखाए गए हैं, और कटहरे का कुछ भाग ऊपर की भमती को घेरा हुआ भी दीखता है ।"4 इस सुन्दरता से तक्षित तोरण पर एक संक्षिप्त अर्पण-पत्रिका उत्कीरिणत है । स्मिथ के अनुसार इस लेख के अक्षर "ई. पूर्व 150 लगभग के या सुगों के राज्यकाल की तिथि की भारत स्तूप के द्वार पर के धनभूति के लेख के अक्षरों से कुछ अधिक प्राचीन हैं।" डा. व्हलर भी इसको 'पार्ष प्राचीन' के समूह में ही गिनता है। परन्तु वह यह भी कहता है कि "यह कनिष्क से पूर्व समय का है। इस पायागपट की कला के गुणों के विषय में भावना से ही विचार करना आवश्यक नहीं है। वैयक्तिक पसंदगी या अपसंदगी अथवा विशिष्ट सिद्धान्तों के सिवा भी सर्व मान्य परीक्षाएं हैं। विसेंट स्मिथ को दो नर्तकी प्राकृतियों की भाव-भंगिमा असम्य प्रतीत हुई हैं । 1. ब्हलर, एपी., इण्डि., पुस्त. 2 4. 314। 2. चन्दा, पासई, 1922-1923, पृ. 106 3. देखो व्हूलर, वही, सं. 5 पृ. 200 । 4. स्मिथ, दी जैन स्तूप एण्ड अदर एण्टीक्विटीज आफ मथुरा, पृ. 19, प्लेट 12 । 5. स्मिथ, वही, प्रास्तावना पृ. 31 6. व्हूलर, वही, पृ, 196 । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 213 उनने इसी प्रकार अन्यत्र के कुछ कटहरों पर की स्त्री-पुतलियों की नग्नाकृतियाँ असम्य रूप में नग्न नही हैं ।। इस प्रकार के दृश्यों में ऐसा लगता है कि निकट का अथवा दृश्य विषय-तत्व ही मुख्य होता है कि जो वैयक्तिक पसंदगी या अपसंदगी को व्यक्त करता है और कला का अर्थ भी हमारे लिए उम निकट या दृश्य विषय से अधिक गहन नहीं रहता है। जैसा भी है, शिवयशा के प्रायागपट और कुछ कटहरे के स्तम्भों पर की स्त्री प्राकृतियाँ, चाहे वे विकृत वामनों पर खड़ी हों, या किसी अन्य भंगिमा में हों, अच्छी या बुरी प्रवृत्तियों को उकसाना नहीं चाहिए क्योंकि सभी कला जिसका कुछ भी सचेतन अभिप्राय है, भाव प्रवण ही होता है । कला का यथार्थ नैतिक मूल्य उसकी अनासक्ति और दर्शनशनि के गुण में है। प्राचीन भारतीय कलाकार जिस प्रकाश में नारी का परिदर्शन करते थे, वह गम्भीर, अमायिक और उदार होता था। पैरों में भारी सांकले. याने लंगर, सूक्ष्म पतला वस्त्र, भारी कर्णफूल, बाजूबन्द, कण्ठहार, और मेखला सर्व-विजयी एवम् आकर्षक मग्नता गोपन नहीं अपितु इसकी शोभा में अभिवृद्धि करते हैं। इस काननचारी सौन्दर्य में अश्लीलता अथवा .ठी लज्जा की झिझक का लवलेश भी नहीं होता है। नीच अथवा संकुचित क्षेत्र में ही नहीं, अपितु उनकी प्रात्मा के महलों में भी मथुरा के कलाकारों ने जैसा कि सांची एवम् अन्यत्र के कलाकारों से किया है, नारि को स्मृति-मन्दिर में प्रतिष्ठित किया है । इसीलिए उनने उसकी मूर्ति को सर्व सौन्दर्य के अमर प्रतीक आकाश में ऊँची उठा कर, चिरस्थायी पाषाण में, जैसा कि उपर्युक्त था; छाप दिया है और आकाश की प्रास्मानी पृष्ठभूमि में खड़ा कर दिया है। आमोहिनी द्वारा स्थापित समर्पण शिला के विषय में स्मिथ कहता है कि 'इस सुन्दर उत्सर्ग शिलामें, जो निश्चय हो पायागपट है, हालांकि उसे ऐसा कहा नहीं गया है। एक राजमहिनी तीन परिचारिका और एक बालक सहित दिखाई गई है। हिन्दू पुरातन प्रथानुसार परिचारिकाएं जो कि आज तक दक्षिण भारत में प्रचलित है, सिर से कमर तक नग्न हैं। एक अपनी स्वामिनी पर छत्र किए हुए है और दूसरी पंखे से उसे हवा कर रही है : तीसरी उसे अर्पण करने को हाथ में हार लिए खड़ी है। यह कलाकृति सुस्पष्ट है और कला-गुण से एकदम ही रहित नहीं है। आयागपटों के अतिरिक्त हम यहाँ देव निर्मित बोद्ध स्तूप के शिल्प का भी विचार कर लें। इस कलाकृति के केन्द्र का पवित्र प्रतीक त्रिशूल पर टिका हा धर्मचक्र है। त्रिशूल कमल पर टिका हुआ है। धर्मचक्र जैन, हिन्दु और बौद्ध तीनों ही धर्मों में धर्म-चिन्ह या प्रतीक रूप में प्रयोग होता है। जो चक्र-विशिष्ट इस कलाकृति में दिखाया गया है बौद्ध ही नहीं अपितु अन्य जैन शिष्यों से एक बात में विभिन्न है क्योंकि इसके शीर्ष पर कान के 1. कुमारास्वामी के अनुसार ये स्त्री प्राकृतियाँ नर्तिकानों की नहीं हैं, जो कि स्मिथ ने अनुमान किया है। उसकी राय में वे यक्षों, देवता या वृक्ष का, अप्सराएँ और वन देवियाँ हैं और लोक-मान्यता या विश्वास के अनुसार सस्य उर्वरता के शुभ प्रतीक ही मानी जानी चाहिए। कुमारास्वामी, वही, पृ. 64 । देखो बोग्येल, प्रासइ, 1909-1910, पृ. 771 2. स्मिथ, वही, पृ. 21, प्लेट 14 । 3. ...यह आश्चर्य की ही बात होगी कि स्तूपों, पवित्र वृक्षों, धर्मचक्रों आदि की पूजा कि जिसके प्रायः स्पष्ट चिन्ह सभी धर्मों में और शिल्प की प्रतीकों में पाए जाते हैं, एक ही धर्म का कारण हो न कि सुदूर प्राचीन काल से भारतीय ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ के। उत्तराधिकार में प्राप्त सब धर्मों की प्रथा है। व्हूलर, वही, पृ. 323 1 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 सर दोनों ओर प्राकृतियाँ हैं एवम् नीचे के कमल-पाद के सहारे दो शंख भी खड़े किए हुए हैं।" कृति के दाई ओर के पूजकों के समूह में चार स्त्रियों हाथों में पुष्पहार लिये दिखाई गई हैं जिससे वे लेल निर्दिष्ट की पूजा करने की प्रत्यक्षतः इच्छुक प्रतीत होती हैं। पहली तीन प्राकृतियों में से प्रत्येक दाएं हाथ में लम्बी डंडीवाला कमल है, और चौधी जो कि सब से छोटी एवम् स्पष्ट हो न्यूनावस्था की लगती है, भक्तिभाव से हाथ जोड़े हुए खड़ी है। वह शिला के एक सिरे पर बैठे कठोर घसीरियाई सिंह से कुछ माच्छादित है डालर के अनुसार इन स्त्रियों की मुखाकृतियाँ चित्र सी लगती हैं, और उनका वेश, जो कुछ अद्भुत सा है, समस्त शरीर को पैरों तक ढकनेवाला एक ही वस्त्र का बना हुआ है और वह कमर में लपेटा हुग्रा है । शिला के खण्डित अंश के विषय में कुछ कठिनाई उपस्थित हो जाती है। धर्म चक्र के दाई ओर की पुरुषाकृति, डा. व्हूलर के अनुसार, नग्न साधू की है जिसके दाएं हाथ पर, सदा की भांति ही, एक वस्तु लटक रहा है। सम्भवतया लेख निर्दिष्ट महंतु यही है " यह कहना कठिन है कि यह आकृति किसी नम्न साधू की ही है। , स्मिथ के अनुसार शिला के दूसरे छोर पर खड़े चार पुरुषों में की ही यह एक प्राकृति है। " इस लेखक का मत यह है कि स्मिथ का कथन स्वीकार करना अधिक उपयुक्त है क्योंकि तब यह समूचा ही शिल्प उस पर उत्कीर्ण लेख के बहंद की पूजा की तैयारी करते हुए स्त्री और पुरुष धावक-धाविकाओं को प्रदर्शित करनेवाला समझा जा सकता है । मथुरा शिल्प के इस नमूने का महत्व इस बात में है कि यह देव-निर्मित बोद्ध स्तूप से सम्बन्धित है। 'देवनिर्मित' शब्द के महत्व का विचार तो हम पहले ही कर चुके हैं। वह ई. पूर्व अनेक सदियों पहले निर्मित हुआ होगा क्योंकि यदि वह उसी काल में बनाया गया होता जबकि मथुरा के जैनी अपने दानों का लेख सावधानी मे रखते थे, तो इसके निर्माता का नाम भी उन्हें अवश्य ही ज्ञात होता । इसकी जैन दन्तकथा, जिसको स्मिथ ने उदधृत किया है, इस प्रकार है:- यह स्तूप मूलतः सुवरां निर्मित था और उस पर रुन भी जड़े थे। वह सातवें जिनवाने तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के मान में धर्मरुची और धर्मघोष नाम के दो साधुओं की प्रार्थना पर देवी कुबेरा ने बनाया था। तेईसवें जिन श्री पार्श्वनाथ के समय में सुवर्णमय स्तूप को ईंटों के स्तूप से लिखा गया और बाहर में एक पाषाण मन्दिर बना दिया गया। मथुरा शिल्प के इन कतिपय नमूनों के अतिरिक्त हम एक तोरण का भी वर्णन करना चाहेंगे कि जिसमें मानवों और देवों द्वारा पवित्र पदार्थो एवम् स्थानों के प्रति पूज्य भाव प्रदर्शन किया गया है । इन तोरणों का कलाकार किसी विशिष्ट दन्तकथा अथवा शास्त्र का चित्रण करना नहीं चाहता है । वह तो इतना भर दिखाना चाहता है कि देव और मानव तीर्थकरों उनके स्तूपों और मन्दिरों का अभिवादन करने को कितने अधिक उत्सुक हैं। यही कारण है कि इस तोरण के दृश्य में एक या अनेक जिन मन्दिरों की पूजा का और इसी लक्ष्य से की यात्राों के संघों का प्रदर्शन किया गया है । शिल्प के इन उदाहरणों में एक ऐसा भी है जो दश्यतः पुरातत्विक प्रति महत्व का है। यह शिल्प एक तोरण का है कि जिसमें दो सुपरग (अर्ध-मनुष्य- अर्ध- पक्षी) और पाँच किन्नरों द्वारा स्तूप पूजा का दृष्य अंकित है । पाँचों किन्नराकृतियों के सिर पर पगड़ी है जैसी कि बौद्ध शिल्पे में ग्रभिजात्यवर्ग के बताई गई है । 'कुछ इसी जैसा दश्य डा. स्कूलर कहता है कि जहाँ सुपर स्तूप की " 1. वही, पृ. 321 बौद्ध शिल्प के उदाहरण के लिए देखो फरम्युसन ट्री एण्ड सपेंट वशिप, प्लेट 29 चित्र 2 । 2. व्हूलर, वही और वही स्थान । 3. वही 4. स्मिथ. वही, पृ. 12 5. वही, पृ. 151 मनुष्यों के सिर पर बँधी पूजा कर रहे हैं. साँची के Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 215 उभरे शिल्प में हमें मिलता है ।" परन्तु यह भी ष्ट है कि साथी की प्राकृतियां ग्रीक राक्षसियों से अधिक मिलती हुई हैं जबकि इन शिल्प में प्राकृतियाँ प्रसिरी और ईरानी शिल्प की पंखाकृतियों जैसी अधिक औपचारिक रीति की है हिन्दूधर्म कृतियों में से गरुड़, सुपलों का राजा की प्राकृति गुप्त सिक्कों पर की तुलनीय है ।" गया और अन्य बौद्ध स्मारकों पर जो किन्नरों की प्राकृतियाँ देखी जाती हैं वे बहुत सम्भव है कि ग्रीक नमूनों के अनुरूप हैं । हमारे इस तोरण की शिला पर की प्राकृतियों ने जो विशेष दृष्टव्य बात है कि वह है वृक्ष की एक शाखा द्वारा प्राकृति के उस भाग का प्रावृत होना कि जहाँ अश्व की जंघा मनुष्य देह से जुड़ती है । " प्रार्ष पुराविद्या के निष्णात मेरे साथियों से जहाँ तक मैं जान पाया हूं, मैं कहूंगा कि इस विशिष्टता को बताने वाला ग्रीक शिल्प कोई नहीं है ।" इस शिल्प के दूसरी ओर की आकृतियों को विचार करने पर हम देखते हैं कि तोरण के लट्ठ में वरघोड़े या जुलूस का अंश ही कि जो दृश्यतः किसी पवित्र स्थान को पहुँच रहा है, दिखाया गया है। इस जुलूस की गाड़ी प्राजकल की शिगराम जैसी ही है और सारथी भी जो डण्डा हाथ में ऊँचा किए हुए हैं, उसी प्रकार वम पर बैठा है जैसे कि वह आज भी बैठता है । कितने ही पशुत्रों का कि सांची के शिल्प में दिखाया गया है । परन्तु वहाँ इस प्रकार की शिगराम गाड़ी जबकि उसके स्थान में ग्रीक नमूने के से घोड़ों के रथ वहां दीखते हैं । साज ठीक वैसा ही है जैसा बिलकुल नहीं दीख पड़ती है बार अनुभव हो जाता है जब दिया जाता था तो ये अन्त में हम वह शोभा जिला लेते हैं कि जिसके सामने की घोर महावीर के नेमेस द्वारा गर्मापहार का दृश्य विसाया हुआ है और पीछे की ओर इस महा चमत्कार से हर्षित और उत्सव मनाते नर्तिकाएं और गायिकाएँ दिखाई गई हैं । इस शिल्प को देखने से हमें फिर एक कि धार्मिक कथा और नैतिक शिक्षा जिनके विज्ञापन का कार्य भारतीय कलाकारों को उसकी कला की पूर्ण प्रभि व्यक्ति में जरा भी बाधक नहीं होते थे। मथुरा का शिल्पी उस समय अत्यन्त सन्तोषकारक सुन्दर प्राकृतियाँ उस्की करने में पूर्ण सफल हुआ प्रतीत होता है जबकि उसकी सेवाओं की उसके साथू और राजा संरक्षकों द्वारा प्रचार के लिए प्रत्यन्त ही माँग थी । विशेषतः जब उसे किसी सुप्रसिद्ध कथा या दन्तकथा के चित्रण का काम दिया जाता था तो वह ग्रनुपात और हाव-भाव के परम्परागत सिद्धान्तों का प्रयोग बहुत असाधारण रीति से कर सकता था और उनमें साम्य पैदा करने के लिए वह सर्वशक्ति लगा देता था । महावीर के गर्मापहार की लोकप्रिय दन्तकथा प्रदर्शित करने वाली इस शिला के प्रतिरिक्त चार नष्ट भ्रष्ट पुतले भी हैं जिन्हें कनिधम ने प्रस्तर लेख द्वारा मुद्रित कराया था । इनमें से दो पूतले बैठी हुई स्त्रियों के हैं । प्रत्येक की गोद में धान में रखा हुआ एक शिशु है। बाएँ हाथ से पाल सम्हाल रखा है, परन्तु दायाँ हाथ ऊपर कंधे तक उठा हुआ है । दोनों ही स्त्रियाँ नग्न दीखती हैं। दूसरे दो पूतले नेगमेशी या नेगमेशी के हैं और वे डा. न्हूलर के 1. देखी फरग्यूसन, वही, प्लेट 27, चित्र 1 । 2. देखो फ्लीट, कोईई, पुस्त. 3, प्लेट 37; स्मिथ, बंएसो पत्रिका, सं. 58, पृ. 85 प्रादि, प्लेट 6 | 3. 'ऐसा अन्य कोई भी उदाहरण नहीं मिलता है कि जहाँ प्रश्वासुर के श्रश्व और मनुष्य के संयोगस्थल को प्रावृत करने के लिए वृक्ष-पत्र को उपयोग किया गया हो।' स्मिथ, हिस्ट्री आफ फाइन आर्ट इन इण्डिया एण्ड सीलोन, पृ. 82 सर वही, पृ. 319 । 4. 5. फरम्बूसन, वही, प्लेट 33: यही प्लेट 34 चित्र 1 6. सुलर वही और वही स्थान Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] धनुसार, 'अजमुखी' उचित ही बनाए गए हैं जैसे कि दूसरे शिल्प की आकृति में हैं। इस शिला' की प्राकृति की कनिंघम के चार पुतलों की आकृतियों से तुलना करने पर डा. व्हूलर, प्रख्यात् पौर्वात्यविद्, कहता है कि 'शिशु की स्थिति और उसे लिये स्त्री को भावभंगिमा का एकदम साम्य बिलकुल ही स्पष्ट है धीर इस बात का नेगमेश नेमेसो की निचान्त प्राकृति के साथ विचार करते हुए, हम इस निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचे बिना रही नहीं सकते हैं कि निर्दिष्ट दन्तकथा दोनों शिल्पों में एक ही होना चाहिए।" " वास्तव में उड़ीसा के और गुजरात के जूनागढ़ या गिरनार के कार्य को वेष्टनियों सहित और छोटी से छोटी बात और सजावट में से सजे तोरण व प्रयागपट हमारे समक्ष कला के अवशेष रूप में उनमें सौन्दर्य, आदर्श और आध्यात्म का उत्तम संमिश्रण भारतीय की अपेक्षा इसका अनुभव अच्छी तरह किया जा सकता है क्योंकि एक दूसरे में भेद, विस्तृत कला-विज्ञान के क्षेत्र नहीं पितु रूचि के अज्ञात प्रदेश में प्रकट हो ही जाता है । गुहामन्दिर और निवास अपनी सूक्ष्म तक्षणपरिपूर्ण, श्रौर मथुरा के अवशेषों के सुन्दरता ही नहीं अपितु उसके जीवित प्राप्तवचन हैं कला का त्रिगुणादर्श प्रदर्शित होता है । देखने 1. बहूलर. वही, प्लेट 2, ए । 3. कूलर, वही, पृ. 318 । 2. कनियम यस पुस्त, 20 प्लेट 4 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 217 उपसंहार जो सफल है वही चतुर है, यदि संसार का यही नियम है तो उत्तर में अपने अनेक प्रतिस्पधियों के होते हुए भी अपना अस्तित्व बनाए रखने में जैनधर्म की महान् विजय इस मान्यता को भ्रान्त प्रमाणित कर देती है कि जैनधर्म ने उत्तर भारत में, बौद्धधर्म की भांति, अपनी जड़े गहरी नहीं जमाई थी, और यह कि भारतीय इतिहास में जैनयुग जैसे नाम का कोई युग कभी नहीं रहा था । ऐसी मान्यता रखने वाले विद्वानों का पूर्ण सम्मान रखते हुए भी हम यह विश्वास रखने या करने का साहस करते हैं कि इन पृष्ठों में उत्तर-भारत में जैनधर्म के किए अध्ययन से, हालांकि वह अनेक बातों में अपर्याप्त ही है, विपरीत बात की पर्याप्त साक्षी मिलती है । उत्तर भारत में जैनधर्म की प्राचीनता चाहे जितनी भी हो, इस बात से इन्कार किया ही नहीं जा सकता है कि ई. पूर्व 800 याने पार्श्व के समय से लेकर ईसवी युग के प्रारम्भ में सिद्धसेन दिवाकर द्वारा महान् विक्रम के जैनधर्मी बनाए जाने तक और किसी अंश में कुषाण और गुप्त काल तक भी जैनधर्म उत्तर में प्रत्यन्त प्रभावशाली धर्म रहा था और इसके पर्याप्त निर्णायक प्रमाण बराबर प्राप्त हैं । एक हजार से अधिक वर्ष के इस गौरवशील काल में उत्तर में एक भी राज्यवंश ऐसा नहीं हुआ था, चाहे वह महान् हो या लघु ही, कि जो किसी न किसी समय जैनधर्म के प्रभाव में नहीं आया हो । यहाँ वहाँ की ऐतिहासिक महत्व की कुछ बातों को यदि हम छोड़ दें तो इस ग्रन्थ के प्राय: प्रत्येक अध्याय में ऐसी सामग्री मिलती है कि जिसकी खुब लम्बी खोज-परख हो चुकी है, और अनेक मत उद्धृत कर दिए है । इस प्रकार अल्पाधिक, हमारा प्रयत्न मान्य पण्डितों के परिश्रमों के परिणामों को रीतिसर संकलन करने का ही रहा है कि जैन इतिहास के अनभिलिखित युग पर पठनीय ग्रन्थ प्रस्तुत किया जा सके, न कि जैन पुरातत्व विषयक सूक्ष्म चर्चा का कोई ग्रन्थ । इस हेतु की साधना में जो भी अनुमान या तर्क किए गए हों उन्हें वैसा ही माना जाए न कि ऐसिहासिक खोज । जहाँ तक सम्भव हुअा है, सूक्ष्म विवरण से दूर ही रह गया है । फिर भी पुनरावर्तन जहाँ वह उत्तर भारतीय जैनधर्म के इस युग की आवश्यक वातों और प्रमुख तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए अावश्यक था, करने में संकोच नहीं किया गया है। परन्तु जब तक अनेक जैन शिलालेख और जैन ग्रन्थ जो उत्तर में स्थान-स्थान पर हैं, संग्रह किए जाकर अनूदित नहीं होते, और जब तक पुरातत्वाशेषों की योजना नहीं बने एवम् अंकगणना नहीं की जाए, वहाँ तक उत्तर-भारत में जैनधर्म की सत्ता और विस्तार ही नहीं, अपितु उसके अस्तित्व-समय के उतार-चढ़ावों की कुछ भी कल्पना करना निरर्थक है । यह कार्य हाथ में लिये जाने का सर्वथा उपयुक्त है और यदि ऐसा सफलता से किया जाए तो भारतीय प्रजा के धार्मिक और कला विषयक इतिहास के प्राज उपलब्ध अपर्याप्त साधनों में अमूल्य वृद्धि होगी, यह लेखक का दृढ़ विश्वास है। 1. स्मिथ, आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ. 55। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 | सामान्य ग्रन्थ सूची आधारभूत 1. पुरातात्विक और शिलालेखिक एलन, जहान, कैटेलोग आफ दी काइन्स आफ दी गुप्ता डाइनेस्टीज एण्ड आफ शशांक, किंग आफ गौड़ । लन्दन, 1914 । एन्युअल रिपोर्ट आफ दी माइसोर पाकियालोजिकल डिपार्टमेंट फार दी इयर 1923, पृ. 10 आदि बंगलोर, 1924 । कनिंघम, प्रात्येक्जैण्डर, इंस्क्रिप्शन्स आफ अशोक, काइंई, पुस्तक 1, 18791 वही, पाकियालोजिकल सर्वे आफ इण्डिया, 1871-1872, सं. 3, 1873 । वही, वही 1878-1879, 14, 1882 । वही, काइन्स आफ मेडीबल इण्डिया, लन्दन, 1884 । वही, प्राकियालोजिकल सर्वे आफ इण्डिया, 1881-1882, सं. 17, 1884 । वही, वही 1882-1883, सं. 20, 18851 कोनोव, स्ट्य न, एपीग्राफी, पाकियालोजिकल सर्वे ग्राफ इण्डिया, 1903-1906, 1909, पृ. 165 आदि । वही, टैक्सिला इंस्क्रिप्शन्स आफ दी हायर 136 । एपी. इण्डिका, सं. 14, 1917-1918, पृ. 284 आदि । वही, दी अर इंस्क्रिप्शन आफ कनिष्क 2यः दी इयर 41 । एपी.इण्डि. 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[ 221 वही, ज्ञाताधर्म कथांग (सुधर्मा का), टीका सहित (ग्रागमोदय समिति), बम्बई, 1919 । वही, भगवती-सूत्र (सुधर्मा का) भाग 1 से 3, प्रागमोदय समिति, बम्बई, 1918-1921 । वही, स्थानांग, सुधर्मा का. भाग 2, प्रागमोदय समिति, बम्बई, 1920 । एडगर्टन, फैकलीन, विक्रम्स एडवेंचर्स, भाग 1, हारवर्ड ओरियन्टल सीरीज सं. 26, केम्ब्रिज, 19261 कर्न, एच., बृहत्संहिता पाफ वाराहमिहिर, कलकत्ता, 1865 । ___वही, दी बृहत्संहिता, पार कंप्लीट सिस्टम ग्राफ नैच्युरल एस्ट्रालोजी ग्राफ वराहमिहिर । राएसो पत्रिका, सं. 6 (नई सिरीज), पृ. 36 आदि, 279 आदि । कोव्यल, ई.बी., और गौफ, ए.ई., सर्वदर्शनसंग्रह प्राफ माधवा चार्य (लोक संस्करण), लन्दन, 1914 । कौव्यल, ई बी., और नील, प्रार.ए., दी दिव्यावदान ! कैम्ब्रिज, 1886 । गीगर, विल्हेल्म, दी महावंश, लन्दन, 1908 । गैरीनोट, ए., एसे डी बिब्लिोग्राफी जना । पेरिस, 1906 । ग्रिफिथ, राल्फ टी. एच., हिम्स आफ दी ऋग्वेद, भाग 2 2य संस्करण, बनारस, 1897 । घोषाल, शरत चन्द्र, द्रव्यसंग्रह ग्राफ नेमिचन्द्र । सेबुज, पुस्तक | 1917 । चक्रवर्ती, ए, पंचास्तिकायसार आफ कुन्दकुन्दाचार्य । सेबुजे, पुस्तक 3, 1920 । 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उत्तराध्ययन, भाग 1 और 2 उपसल, 1922 (देवचन्द लालभाई), बम्बई, 1923 1840 1 शीलंकाचार्य, सुधर्मा का आचारांगसूत्र, ग्रागमोदय समिति, बम्बई 1916 1 वही. सुधर्मा का सूत्रकृतांग, प्रागमोदय समिति बम्बई. 1917 सुखलाल संघवी और बेवरदास दोशी, सम्मतितर्फ सिद्धसेन का भाग 3 अहमदाबाद, 1928 1 सोनी, पन्नालाल भावसंग्रहादिः, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई । स्टीवन्सन, दी रेवरैण्ड, जे., दी कल्पसूत्र एण्ड नव तत्व, लन्दन, 1848 हरनोली, रुडाल्फ ए.एफ., उवासगदसाम्रो भाग 1 और 2, कलकत्ता, 1888, 1890 1 वही, वही. वही, ७ टू पट्टावलीज ग्राफ दी सरस्वतीगन्छ ग्राफ दी दिगम्बर जैनाज, इण्डि एण्टी, पु. 20, 1891, पृ. 341 आदि। वही, श्री फरदर पट्टावलीज ग्राफ दी दिगम्बराज, इण्डि एण्टी, पु. 21, 1892, पृ. 57 आदि । हरिभद्रसूरि सुधर्मा का प्रावश्यक सूत्र (धागमोदय समिति), बम्बई 1916 1917 1 वही, षड्दर्शनसमुच्चय, बनारस, 1905 । हीरालाल रामबहादुर, कैटेलोग आफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैम्यूस्क्रिप्ट्स इन दी सेन्ट्रल प्रोविन्सेन एण्ड बरार नागपुर, 1926 । हेमचन्द्र अमिधान वितामणि । वही, यही, हेमविजयगरण पार्श्वनाथचरितम् बनारस, 1916 । त्रिष्टि लाका-पुरुष चरित, पर्व 9 10 जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर 1908 1909 योगशास्त्र हस्तप्रति सं. 1315, 1886-1892 की भण्डारकर प्राच्य मन्दिर, पूना । 7 योगशास्त्र, सटीक, भावनगर, 1926 1 प्राकृत व्याकरण, सम्पा: कृपाचन्द्रजी, सूरत, 1919 । [ 223 3. यात्र विवरण आदि बील, सेम्युल सी यू की, भाग 1 और 2 लन्दन, 1906 1 वही, दी लाइफ ग्राफ हा एनत्सांग लोक संस्करण, लन्दन, 1914 मैडल जे.डब्ल्यू. एंसेंट इण्डिया इज बिस्क्राइब्ड बाइ मेगस्थनीज एण्ड अश्विन, लग्दन, 1877 वही, इनवेजन ग्राफ इण्डिया बाइ एलेक्जेण्डर दी ग्रेट । व्यैस्टमिंस्टर, 1893 1 साऊ, एडवर्ड जी., एलबरूनीज इण्डिया, भाग 1 और 2 लन्दन, 1910 1 वाटर्स, टामस धान धान व्यांस ट्रैवल्स इन इण्डिया, भाग 2, लग्दन, 1905 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 ] साहित्य 1. ग्रन्थ प्राचार्य, प्रसेन कुमार, इण्डियन प्राकिटेक्चर अकार्डिग टू मानसार-शिल्पशास्त्र । आक्सफोर्ड, 1927 । आयंगर, कृष्णास्वामी, समकांट्रीव्यूशन्स आफ साउथ इण्डिया टू इण्डियन कल्चर । कलकत्ता, 1923 1 प्रायंगर, रामस्वामी, और राव, 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शुद्धि पत्रक :-: [टीप० मुद्रण अशुद्धियों को प्रदर्शनी रूप इस पुस्तक की उन साधारण अशुद्धियों का शुद्धिकरणयहाँ नहीं किया गया है जिन्हें कि सामान्य पाठक गण स्वयं के विवेक से ही सही पढ लेंगे । ] 23 31 16 13 17 15 24 " धम जन धर्म को 14 वस्तुओं 15 गजपर कर्मवेश 232 अवस्थित मानी जाना 17 हैं कि 2012 की प्रजा भोर 23 12 ऐसी राजौ 3 करने में 12 या 12 शांति 2613 क्षत्रियों के 2 18 का वेलक 30 6 मोता शुद्ध जैचंद बन रिलोजन माग जैन रिलीजन भाग 2 सुधर्मी सुधर्मा अमप्राय अभिप्राय "" धर्म जैन धर्म की अकार्य खोजों अव्यवस्थित माने जाने ज्ञात मचौर्य वस्तुओं का गणधर कमवेश 言 पर पहिले ऐसे राजाओं करने में कि था जाति क्षत्रियों के प्रधानत्व ज्ञाता ! पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध विद्वानों विद्वानों ने वर्धमाग प्रतिभा 32 7 34 1 6 35 36 37 39 40 1 2 कि 7 कोई नहीं 2 प्रो 6. को 442 15 स्वम् वास्त वाचना जब अनतदर्शन प्रनत 30... में 9 8 43 16 धीरा 45 3 प्रगन्म 46 23 प्रतिकूल भुकाना 50 9 सामयिक 14 करेभियंते 23 सवभाव 51 27 पदार्थ 52 20 सोविक 53 16 प्रतिकेक 54 4 तत्वेशा SS 9 प्रतिबन्दी 12 प्रतिद्वन्द्रवता 19 ने सद्दालपुत्र में शुद्ध विद्वानों ने विद्वान व मान प्रतिमा कि जिसकी कोई नई नहीं हो के स्वयं वारेन वाचना भव अनन्तदर्शन अनन्त वे दर्शन कहते हैं जैसे मैं धीमा प्रगल्भ प्रति दुकाना सामायिक करेमिमंते समभाव पदार्थ में से मायिक प्रतिरेक तत्त्वशों प्रतिद्वन्द्वी प्रतिदन्ता में सदासपुत्र ने Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ] पृष्ठ पंक्ति शुद्ध 56 -16 सब ये 59 13 60 5 61 20 29 63 7 65 21 67 68 69 9 10 72 11 15 12 25 मा 15 की 16 मूर्ति मंजकों 18 इसको 15 प्रारूप 486 पास नाना जनसान का कि गारषगिरि पूण्य कर 250 a o भेद के कारण बढ धनुषायों 18 26 भीमल 33 श्रावकों 35 इसको 70 22 भाप्त 23 जैन 29 9 एक रूप अप बाहर $30 भारत 71 4 प्रपवत्तित 14 मस्य ने... परिसीमध जैनों का विभाग का 10 15 ईद्वाकु 73 22 कठिस 24 फिर शुद ये सब - पोप 496 पास से नाना के पास जनसान था कि गोरगिरि पूज्य कह 520 पार्श्व का मूर्ति मंजको इसके भेद बढ अनुयायियों एक निगम रूप अपने से बाहर भीनमाल श्रावकों का इसका प्राप्त है जन प्रपेक्षाकृत तंग परिसीमाम्रों भारत में अपरिवसित " वैमनस्य जैनों के विभाग की ईक्ष्वाकु कठिन मौर 73 26 fter 29 उल्लेखों 74 8 रोहिलखण खण्ड 75 26 76 79. 32 77 8 26 80 पंक्ति पंक्ति अशुद्ध 81 उपलब्ध 31 ऐतिहासिक 89 91 28 31 82 18 86 3 ज्ञात का और अन्धकारों 13 17 18 931 8 94 4-5 8 24 4 95 96 24 104 2 4 30 4 26 नंदनी 1 यह स्पष्ट पश्चात् 1 ग्रीरा 5 fr 8 पालना 9 को वीतमय थे राजज्योतिषि नाम म्भवतया सो वीर को पश्चिक के धनहिज मृगावती धोर सानीक 2 य दीएक राजों केसा फी यही का बड़ा घनपद सम्बन्ध धन्यासियो सन्देह अभिलिखित श्रेणिक का अवध ऐतिहासिक उल्लेख किये हैं परन्तु इनको संसार के इतिहास ज्ञात फिर अधिकारों थे। राजनमि शुद्ध उल्लेखों से रोहिलखण्ड लंदनी पश्चात् ग्रीस त्रिशला लिच्छवी पालता के वीतभय संभवतया सो वीर पश्चिम को नहिल और मृगावती ससानीक द्वितीय दीपक राजाओं के साथ का का यही बाड़ा जनपद सम्बद्ध अनुयायियों सन्देश अच्छी समितिसित श्रेणिक को Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 106 107 पशुड 2 बल 3 सम्पति 3 कारावाग़ में 14 जाते 19 मुणे 123 20 उस पर्व 28 दुर्भाग्यपूर्ण 30 31 2 बुद्ध... शत्रु 16 क 4 मूल 6 मास 109 26 मीर्फ 110 26 112 6 16 भरकस 32 श्रर्माचार्य 2 113 35 114 16 115 116 17 शास्त्र: मतभेद 1172 सनय 24 पुण्यमित्र 19 23 4 स्थापन प्राचार्य 13 होता 1 म प्रथन वन्दराज नंदराज इसका समर्थ इसका समर्थन इसका समर्थन मंदा 150 1 बिंदुसार अपने दरिणरण जोखम के मुनि की श्रमरणों के 13 अशोक 125 7 जासने 126 8 विक्रय शुद्ध काल सम्पति कारावास में उसने चाहते शास्त्रज्ञोमतभेद मेरी 130 भरसक धर्माचार्यो (बुद्ध... शत्रु ) उपर्युक्त भूल भास सिर्फ दो 22 खुदी उसके पूर्व 25 प्रणों दुर्भाग्यपूर्ण 131 12 स्त्रियों 15 द्वितीय मढा 155 पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध बिन्दुसार समय पुष्यमित्र स्थापित 127 प्राचार्य थे होता है दक्षिण 129 9 जैन धर्म का 23. प्रार्थ 14 27 1138 139 19 132 20 133 18 135 27 कष्ठ 137 15 17 34 10 15 18 140 7,8 11 1 भी निम्न श्राज स्थापित 8 भाग्य 13 20 30 141 17 कुरती रानीनूर से खुदी हुयी स्वर्गी पंडितजी की ते था । ही पंक्ति द्वेश का जातियों या 1 म राज या पनरावर्तन इतिहासज्ञों राज्य का प्रारम्भ प्रथप पंच परमेष्ठित विरुद्ध प्राररियागं विधर्व जोखम के कहा मुनि के 27 श्रमणों को 142 10 अशोक ने 14 खारडेल जानने 143 26 उद्धश विजय 144 6 इस घोर शुद्ध जैन धर्म के आषं प्राज भी स्थापत्य खुदा फरण शासन देवियां अद्वितीय कुर्सी रानीनूर ख़ुदा हुआ काष्ठ स्वर्गीय पण्डितजी का तो था ही । पंक्ति का भाष्य सिक्कों था या प्रथम राजा यह पुनरावर्तन इतिहासज्ञ राज्य के आठवें वर्ष से याने लगभग प्रथम पंच परमेष्टि विरुद रामो पायरिया विदर्भ खारवेल - उद्देश्य इस पोर Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ] पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध 144 7 147 4 8 8 11 149 150 152 153 154 155 20 विहारों का भिक्षुप्रों को 20 156 256 2 2 2 2 0 151 2,6 2 सुंगवंश का वर्षको से मगध को जिम विजयजी को को 26 32,33 5 ती 9 प्रदेश को 12 2 म को या 1 म 7 को 11 सुदू 14 को 17 इसे 3 13 25 को खोने जय हिन्द प्रकार वड प्रश 16 23 26 खड़े 29 ममती 24 ही दिगम्बर 5 को 29 को 14 ही 16 परिणाम 157 3 उदारता 6 पूर्वग्रहों शुद्ध वर्षा को ने मगध का जिन विजयजी की के विहारों को भिक्षुओं का सुगवंश की तो का के प्रवेश प्रथम था, प्रथम के सुदूर का इसके के होने चिन्ह प्रकार की चक्र ग्रन्धा द्वितीय दिगम्बर ही खड़े भमती का की यही परिमाण उदारता से पूर्वाग्रही पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 158 2 ? 159 3,9 20,36 160 4 8 9 161 16 20 162 5 19 163 28 164 165 6 14 15 20, 23 8 18 166 6 167 10 स्थापनयावसाह | 12 महान को 2 पदालिप्त 6 गर्दी मल्ल गर्दीमल्ल गर्दीमल्स गर्दीमल्ल 25 मरूच जैन साधू... द्वारा होना सम्यात्व सप्तति परोक्ष सेवारा को श्रजमानादि. पादल्पित कबीलों सह प्रतिष्ठार्थक लिए झण्डो सत्रपों 1 म... ..माह सत्रप 1म काल को समूह कि भी कि जो शुद्ध गर्दभिल्ल गर्दभिल्ल गर्दभिन्न गर्द भिल्ल भरूच वादी धार्य सपुट नामक जैन साधु द्वारा स्थापना या बसाहट महान के पादलिप्त होनी सम्यक्त्व सप्तति परीक्षा द्वारा के प्रथमानादि पादलिप्त कबील सब प्रतिष्ठार्थ इण्डो क्षत्रपों प्रथम और स्ट्रेटो द्वितीय की नकल कर क्षत्रप और महाक्षत्रप प्रथम काल के समूह भी कि जो 2 विभिन्नडता विभिन्नता 4 को जैन पाद पीठ को के जैन पाद पीठ का 30 करना करना सम्भव Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंकि पशु 169 3 श्राविक 26 92 27 28 लेखे 2 प्रतिनिखित 22 इण्डोसिखिक 24 को 26 गर्दीमल्लो 12 14 170 171 172 173 177 8,12 17,27 25 15 का इसके 178 3 179 175 176 3 यहाँ दामोल्लेल 18 त्य राजों को को के 1 म 1 म प्रालोक 14 6 चंछाभाय 2 मूल 20 युवानव्वांग 10 होना 21 24 को कोई के 1 या 3 पाया को ही 17 ने 182 10 स्त्रोत 19 विद्वानों 1 पहण्ण 9 यादेसास्यस्कंध 12 उत्तरउभयरण 14 दो सूत्र शुद्ध | पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 1 84 भविका 62 दानोल्लेलॉस 29 को लेस |186 78 साली प्राचीन लिपिक प्रमिललित इण्डोसिपिक के गर्दभिल्लो द्वितीय राजाओं की 187 का ६ को प्रथम प्रथम मत्र्यलोक 20 में प्रयुक्त से 12 ग्रंथ के 17 रष्टि 4 यंत्र तंत्र 12 में 15 विषय 16 चितौनी का 21 चिऊंटी पहा 192 16 जाने चंदाभाय 193 11 सूर्यामदेव होने का कोई को था पाहा (दाल) का से स्तोत्र विज्ञानों पइण्णा या दसासूय स्कंध 19 माधुयों 25 प्रश 189 उत्तरज्भयरण दो चूलिका सूत्र 122233 भूल प्रानच्वांग 194 15 पहनो 195 196 3 17 H4ST S को को... हैं 17 14 कैसी 15 मूल मूल पाठक 7 दिट्ठति 11 17 24 27 शययम्भव ये पवित्र में पक्किम मगधी अर्थ मागधी 197 9 11 11 बहुत्रांश 13 23 सीमा पर को [ 5 शुद्ध साधुत्रों की मङ्ग से प्राचीन लिपिक साक्षी के के निष्णांत को भी वे सिद्धांत ग्रंथ से ही लगते है। से ग्रंथ दृष्टि द्वारा यत्र तत्र 备 विजय चेतावनी चिमटी जाने का सूर्यामदेव देशी पयन्नों भ्रूण मूल पाठ दृष्टान्त शयंभव पवित्र मैं पढिक्कम मागधी वर्ष मागधी बहुतांश सीमा पार की Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 ] पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 197 198 2 5 10 14 26 2 3, 6, 7 स्त्रोत्र कास 19) 24 विभोग्य स्त्रोत पिण्ड प्रोर कम 220 21 206 21 202 12 18 24 205 1 204 46 स्थापित (स्य) समूह दोनो ही को " सूत्रकृतांक को इसमें समयमयी सम्प्रदायों से विद्वद्यभोग्य घाम 2 विवाद 4 5 9 करवा 11 19 को 26 मथुरी 30 नहीं दी थी 1 स्थापितों विभिन्नताथों हमें 4 उनकी 5 की 07 29 गुफाओं ::08 1 स्थपित 5 बावजूद परन्तु 9 28 मनुष्य ने पहले 29 पहले सज्जा शुद्ध कि याने और सुधारने विद्वद्भाग्य स्तोत्र पिण्ड श्रीर कभी सुत्रकृताङ्ग के इससे समसमयी स्तोत्र सम्प्रदायों में विद्वभोग्य स्थापत्य दोनों ही समूह के पृष्ठ पंक्ति मशुद्ध 208 29 रूपों का 209 1,5 209 15 सिवा 210 उस 213 मथुरा नहीं थी विभिन्नताओं के साथ साथ विद्यमान था। यही विनिता हमें 211 घाम बिहार 215 करना स्थापत्यों 219 214 DOM 2004-0 6 स्वस्थ्य 224 224 225 1226 30 प्रश्नों 3 22 को 19 212 4 स्थगित 26 10 1 नहीं 31 5 का 223 6 31 23 18 27 31 अवश्य ही विषय 11 25 27 यक्षों 9 8 यहा नहीं तत्वों उनका 227 1 FENT 229 6 गुफाओं में 12 स्थापत्य बावजूद किया और सुधारा मनुष्य पहिले पहिले सज्जा मग्नता ...ठी शिष्यों वस्तु शिल्पे है कि वह है को 1838 1924 इज 1824 महता. नि. वि. हीरालाला / ... भाग 1 स्पेक्ट / ... भाग 1 जैनतस्वदन 269 शुद्ध रूपों को सिवाय स्वस्थ प्रश्न विषय अवस्य हो के यही नहीं तत्त्वों का स्थापित कही नग्नता झूठी शिल्पों यक्षणियां वस्त्र शिल्पों है. वह है का 1837 1925 एज 1884 मेहता ना. चि. हीरालाल / ... भाग 2 स्पेक्ट / ... भाग 2 जैन तत्त्वज्ञान 369 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa For Private & Personal only