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अंगशास्त्र भगवतीसूत्र में उस सम्प्रदाय के मुखी गोशाल का हमें पूरा वृत्तांत मिलता है । बुद्ध के उपालम्भ के चुने हए छह भिक्षुसंघों के नेताओं में का एक नेता रूप में गोशाल मंखलिपुत्र का उल्लेख बौद्ध धर्मग्रन्थों में अनेक गार मिलता है। फिर भी स्पष्ट रीति से उनमें कहीं भी उसका आजीवक सम्प्रदाय के साथ सम्बन्धित होने के रूप में उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु जैन और बौद्ध दोनों ही स्वतन्त्र इच्छाशक्ति और नैतिक उत्तरदायिता के निषेध के तात्विक सिद्धांत याने नियतिवाद के प्रचारक के रूप में उसे स्वीकार करते हैं। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्परा की इस विषय के समान मान्यता स्पष्टतः है ।।
जिस समय का यहां विचार किया जा रहा है वह प्राचीन भारत के धार्मिक-जीवन का संक्राति-काल अर्थात् देश के इतिहास में बुद्धिवाद का युग था । वह एक उत्थान का युग था जब कि गोशाला मंखलित्त, संजय वेल द्विपत्त और अन्य तत्ववेत्ता उत्पन्न हुए थे । सच तो यह है कि भारतवर्ष तब ऐसी धार्मिक जागृति में से गुजर रहा था कि...हमें यह जोरों के साथ कहना चाहिए कि उस समय में तत्वज्ञान का जीवन और व्यवहार को तलाक देकर मात्र विद्वत्ता या क्रियाकाण्ड के लिए शोभारूप माना जाना बंद हो गया था ।...इसने दृढ़ और ससारत्यागी व्यक्तियों को विकसित कर दिया था और अनेक प्रकार के अद्भुत तप और आचरण का प्रवेश भी जीवन में पा गए थे ।...इन अवैदिक स्वतन्त्र विचारकों को ही इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उनने तत्वज्ञान की विवेचना का द्वार मुक्त कर दिया और उसे जन साधारण के दैनिक जीवन और व्यवहार की समस्यामों का समन्वय करने को बाध्य कर दिया था। इसी लिए मंखलि गोशाल के आजीवक सम्प्रदाय के विषय में हम यह पढ़ते हैं कि सब "ये प्रकार के वस्त्रों का तिरस्कार करते हैं, सभी शिष्टाचारी स्वभाव का उनने त्याग कर दिया है, अपने हथेलियों में लेकर ही ये भोजन चाट जाते हैं ।...वे मछली और मांस नहीं खाते हैं, मदिरा अथवा मादक पदार्थ का सेवन नहीं करते हैं। कितने ही एक घर से और एक ही ग्रास भिक्षा लाते हैं, अन्य दो अथवा सात घरों में भिक्षा की याचना करते हैं। कितने ही एक बार ही भोजन करते हैं, कितने दो दिन में एक वार, सात दिन में मथवा एक पखवाड़े में एक दिन ही भोजन करते हैं ।" और यह कोई अपवाद रूप ही नहीं था। ऐसा लगता है कि मानो विचार मौलिकता और सुप्रकटता एवम् व्यवहार स्वातंत्र्य और उत्केन्द्रता का तब बहुमूल्य हो मया था।
यह तो स्पष्ट ही है कि गोशाल महावीर के संघ को पुष्ट करने के स्थान में प्रारम्भ से ही उनके संस्कारित जैनधर्म की प्रगति में बाधारूप हो गया था । उसने बौद्धों की सत्ता सुदृढ़ होने देने और महावीर की बढ़ती प्रतिष्ठा को भारी चोट पहुंचाने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया था। इस दृष्टि से निरीक्षण करते हुए महावीर और गोशाल के प्राथमिक संयोग के परिणाम गुरु और शिष्य दोनों के लिए निश्चय ही भयावह थे। “चारित्र और स्वभाव से दोनों ही इतने अधिक भिन्न थे कि छह वर्ष के सहवास बाद गोशाल की धूर्तता और अविश्वास से दोनों का सम्बन्ध ट ही गया और वे अलग-अलग हो ही गए।"4
1. वही। 2. वेल्वलकर और रानाडे, हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलोसोफी, भाग 2, पृ. 460-461 ।। 3. विवाद का मुख्य विषय पुनर्जीवन का सिद्धान्त था जिसको गोशाल ने वनस्पतिक-जीवों के मौसमी पूनर्जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर किया था और इसको उसने यहाँ तक साधरणीकरण कर दिया था कि वह यह सिद्धान्त प्रत्येक प्रकार के जीवों पर ही लागू करता था।" -बरुग्रा, जेडी एल, सं. 2, पृ. 8 । देखो शास्त्री (बेनरजी), वही, पृ. 56 भी। 4. हरनोली, वही, पृ. 259। "तेजोलेश्या अर्थात् दाहक शक्ति प्रक्षेप की विद्या कैसे प्राप्त की जाती है यह महावीर से जानकर, और पार्श्वनाथ के कुछ शिष्यों से पाठ अंगों का महानिमित्ता पढ़कर, गोशाल ने अपने आपको जिन घोषित कर दिया और अपने गुरु से वह पृथक हो गया ।" -विलसन, वही, भाग 1, पृ. 295-296 ।
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