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________________ [55 जैनधर्म में पड़े हुए मुख्य भेद___महावीर द्वारा संस्कारित जैनधर्म विषयक विचार करने के पश्चात् रब हमें उसमें हए प्रमुख मतभेदों का भी संक्षेप में विचार कर लेना चाहिए। महावीर के संघ में हए इन मतभेदों को जैन समाज कसे पचा सका उसका भी साथ साथ थोड़ा विचार हमें करना होगा। सभी पैगम्बरों और धर्मसूधारकों के सम्बन्ध वैसा हना करता है ऐसा ही महावीर को दुर्भाग्य से अपने जीवित काल में और उनके धर्म को पीछे भी पाखण्डी धर्मगुरुयों का सामना करना पड़ा था। ऐसे पाखण्डियों में ही जैनों में सुप्रसिद्ध सात निण्हवों (निन्हवों)।। अर्थात् जिन प्ररूपित धर्म के विरूद्ध मत प्रचारकों का भी समावेश हो जाता है।' जमाली, तीसगुत्त, आषाद, अश्वमित्र, गंग, छलुए और गोष्ठा माहिल' ये सात निन्हव हैं । परन्तु विरोधियों में सबसे विख्यात और महावीर का प्रचण्ड प्रतिद्ववन्द्ववी गोशाल मंखलिपुत्त था जो कि पाली सूत्रों में उल्लिखित बुद्ध के छह पाखण्डी प्रतिस्पधियों में के एक मंसलि गोशाल के साथ बराबर ठीक उतरता है । उसका और उसके आजीवक संघ का हमें नगण्य परिचय ही मिलता हैं। अभी तक अस्तित्व में रहने वाले जैन और बौद्ध दोनों ही महान संघों की एक समय संख्या और महत्व में प्रतिद्ववन्द्ववता करने वाले इस सम्प्रदाय के सिद्धांत और क्रियाकाण्ड के सम्बन्ध में हम वास्तविकतया अन्धकार में ही हैं।'' गोशाल के बाद हम महावीर के जामाता जामाली, जैन संघ के एक पवित्र साधू तीसगुत्त आदि अन्य मतभेदकारकों का नाम ले सकते हैं। मंखलीपुत्र गोशाल: गोशाल पहले पहल महावीर को राजगृह में मिला था और वहां वह उनका तुरन्त ही शिष्य हो गया। वह गोशाला में जन्मा था इसलिए गोशाल कहलाता था। उसका पिता एक भिक्षुक था । ये सब संयोग प्राजीवक कहे जाने वाले भिक्षुओं की धर्म-सम्प्रदाय के संस्थापक की हीनता उत्पत्ति बनाने के लिए पर्याप्त हैं।'' सातवें अंगशास्त्र ने सद्दालपुत्र में गोशाल का प्राजीवक सम्प्रदाय स्वीकार किया था ऐसा कहा गया है। फिर पांचवें 1. बहुरय...। सत्तेएगिण्हगा...वद्धमारणस्स । आवश्यकसूत्र, गाथा 778, पृ. 31। 1; प्रथ सप्त निन्हवस्वरूपं ...लिख्यते । मेरुतुग, विचारश्रेणी, जैसासं भा. 2, सं. 3-4, परिशिष्टि, 4 11-12 । 2. भगवतीसूत्र, प्रागमोदय समिति, भाग 2, 4410-430 । 3. याकोबी, कल्पसूत्र, प्रस्तावना पृ. 1। 4. हरनोली उवासगदशाओं, भाग 2, प्रस्तावना पृ. 12 । देखो व्हलर, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 20, पृ. 362 । 5 महावीर के केवलज्ञानी तीर्थ कर होने के पश्चात् चौदहवें वर्ष में उनके भानजे और जवाई जामाली ने उनके विरोध का नेतृत्व किया और इसी प्रकार इसके दो वर्ष पश्चात् ही संघ में से एक साधू तीसगुप्त ने उनका विरोध किया था। ये दोनों ही विरोध नगण्य बात के सम्बन्ध में थे...जमाली अपन विरोध में अपने जीवन पर्यत दृढ़ रहा था।' शाटियर, केहि, भाग 1, पृ. 163 1 6. कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पृ. 102 । 'गोशाला, भिक्षुजीवि मंखली और उसकी भार्या भद्रा का पुत्र था। उसने मावत्थी के धनिक ब्राह्मण गोबहुल की गोशाला में सर्व प्रथम दिन का प्रकाश देखा था याने वह जन्मा था । शास्त्री (बेन रजी), बिउप्रा पत्रिका, सं. 12, पृ. 55 । 7. 'पाजीवक' नाम ऐसा लगता है कि मूल में गोशालक और उसके सम्प्रदाय को व्यवसायी भिक्षु कह कर निन्दा करने का ही सूचक था, हालांकि बाद में जब यह साधुनों की एक सम्प्रदाय विशेष का नाम ही हो गया तो इसका फिर वह निंदापरक अर्थ नहीं रहा। हरनेली, एंरिए, भाग 1, प्र.259 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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