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स्पष्ट है कि स्व. डा. ऐसे खोटे खयाल में थे कि नियुक्ति की उपरोक्त गाथा में सप्तभंगी नय का उल्लेख है । जना को मान्य चार नास्तिक मतों के 363 भेद ही यहां तो प्राप्त होते हैं। निश्चय ही हमारा अभिप्राय यह है कि जैनों का स्याद्वाद सिद्धांत और सात नयों का उल्लेख स्थानांग, भगवती और अन्य जनशास्त्रों में प्राप्तव्य है। अन्त में लाला कन्नोमल के शब्दों में कहें तो 'इस ज्ञान के तत्वैज्ञा ने सत्य स्वरूप और उसकी खूबियों को समझाने के लिए अनेक महान् ग्रन्थ रचे हैं जो भारत में प्रचलित परस्पर विरोधी दीखती धार्मिक प्रवृत्तियों को जो कि बहुधा विचारभेद बढ़ा देती हैं, समझने के लिए इस विचार पद्धति का उपयोग किया जाए तो समाधान की पोर प्रत्यक्ष झुकाव होना सम्भव है।'
इस प्रकार यदि अहिंसा को जैनधर्म का मुख्य नैतिकगुण-विशेष माना जाए तो स्याद्वाद जैन प्राध्यात्मवाद का मुख्य और अद्वितीय लक्षण माना जाना चाहिए, और शाश्वत जगतकर्ता सम्पूर्ण ईश्वर का स्पष्ट निषेध करनेवाले जैनधर्म का यह सन्देश है कि 'हे मनुष्य ! तू ही अपना मित्र है उसके विधिविधानों का केन्द्रबिन्दु कहा जाना चाहिए । अहिंसा के प्रादर्श के साथ उपरोक्त सब बातें हमें सिखाती हैं कि
He prayeth well who loveth well Both man and bird and best, He prayeth best who loveth least all things both great and small;
-कोलोरिज (Coleridge) अर्थात् जो मनुष्य अथवा पशु-पक्षी को प्रेम से चाहता है, वही ठीक प्रार्थना भी कर सकता है जो छोटे बड़े सब पदार्थों को उच्च भाव से चाहता है वही उत्तम प्रकार की प्रार्थना करता है । वही कारण है कि जैन सदा ही कहते हैं कि
खामेमि सव्वजीवे, सब्वे जीवा खमंतु में। मेत्ती में सब्वभूएसु, वेरं मझ न केराई ।।
अर्थात् मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं। सब जीव मुझे क्षमा करें। सब जीवों के साथ मेरी मैत्री है । मेरा क्रिमी के साथ वैर नहीं है।
इन सिद्धान्तों के एक भी लक्षण के विषय में गलतफहमी खड़ी करना अथवा विपरीत रीती से उन्हें समझना जैनधर्म के सत्य स्वरूप के प्रति ही अन्याय करना है। हमें खुले मन से स्वीकार करना चाहिए कि महावीर के उद्देश उच्च और पवित्र थे और मनुष्य जाति एवम् सर्व जीवात्मा की समानता का उनका सन्देश भारत के यज्ञयागादि से त्रासित और जाति भेद से क्षुभित लोगों के लिए उदार और महान् पाशीर्वाद रूप थे ।
1. देखो याकोबी, वही, प्रस्तावना पृ. 26; वही, पृ. 315 प्रादि । 2. स्थानांग (नागमोदय समिति), पृ. 390, सूत्र 552; भगवती (ग्रागमोदय समिति) सूत्र 469, पृ. 592 । अन्य सन्दर्भो के लिए देखो सुख लाल और वे चरदास. सिद्धसेन का सम्मतितर्क, भाग 3, पृ. 441 टिप्पण 10। 3. कन्नोमल, वही, प्रस्तावना पृ. 7 । 4. दासगुप्ता, वहीं, पृ. 200 । 5. आवश्यक सूत्र पृ. 763 ।
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