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विनाश और लय पा कर बदलते हुए पदार्थों में परिमित हो जाता है। उनका यह सिद्धान्त इसीलिए अनित्यवाद कहा जाता है। मृत्तिका पदार्थ रूप से नित्य हो, परन्तु घटरूप में वह अनित्य है यान अस्तित्व में पा कर वह नाश प्राप्त हो जाती है। प्रस्तित्व, जैसा कि अद्वैतवादी कहते है, उतना सरल नहीं है परन्तु जटिल है और इसके लिए उसके विषय का हर विधान सत्य का अंश मात्र है। वस्तु के प्रत्येक धर्म का विधान तथा निषेध सम्बन्ध शब्द प्रयोग से सात प्रकार के हो सकते हैं जिसको जैन सप्तमंगी कहते हैं। यह विधान स्यात्' शब्द के उपयोग महिन 'अस्ति'. 'नास्ति' और 'प्रवक्तव्य' शब्दों के उल्लेख से व्यक्त किया जाता है । वस्तु के स्वपर्याय पर मार दिया जाए तो 'स्यादस्ति', परपर्याय सम्बन्धी उसके भेद पर मार दें तो 'स्यानास्ति', और जब उसके 'सत्' एवम् 'असत्' दोनों ही पर्यायों पर समान भार दिया जाए तो 'म्यादस्तिनास्ति' ही कहा जा सकता है। परन्तु किसी एक पर भी भार दिए बिना वह पदार्थ वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है यह बताने के लिए 'स्यादवक्तव्य' का व्यवहार किया जाता है । इसी प्रकार अमुक अपेक्षा से वह नित्य होते हए भी प्रवक्तव्य है यह बनाने के लिए 'स्यानास्तिग्रवक्तव्य' का व्यवहार होता है। इसके सिवा अमुक अपेक्षा से वस्तु नित्य और अनित्य होने के साथ ही अवक्तव्य है यह बताने के लिए 'स्यादस्तिनास्ति प्रवक्तव्य' ऐसा कहा जाता है। इन मात प्रकारों से समझने का इतना ही है कि सब समय सब प्रकार से और सब रूप में वस्तु अस्तित्व में है ऐसा विचारा ही नहीं जा सकता है । परन्तु वह एक ही स्थान में अस्तित्व रख सकती है और दूसरे स्थान में नहीं, एक ही समय में अस्तित्व रख सकती है और दूसरे समय में नहीं।"
"जैनधर्म का यह स्पष्टीकरण वेदान्ती और बौद्धों के दो प्रतिकेक का समन्वय है और वह बुद्धिग्राह्य अनुभव पर रचा हुअा है।" याकोबी और बेल्वलकर संजयवेलाठिपुत्र के अजेयवाद के विरोधात्मक द्धिान्त रूप इसको मानते हैं । "जब संजय कहता है कि" वह है यह में नहीं कह सकता हूं और वह नहीं है यह भी मैं नहीं कह सकता हूं। "तब महावीर कहते है कि" मैं कहता हूं कि एक दृष्टि से वस्तु है और विशेष में मैं यह भी कह सकता हूं कि अमुक दूसरी दृष्टि से वह वस्तु नहीं है।''
संक्षेप में स्याद्वाद जैन तत्वज्ञान का अद्वितीय लक्षण है। जैन बुद्धिमत्ता का इससे अधिक सुन्दर, शुद्ध और विस्तीर्ण दृष्टान्त दिया ही नहीं जा सकता है। जैन सिद्धान्त की इस खोज का श्रेय महावीर को ही है ।' दासगुप्ता के अभिप्रायानुसार इस विषय का जैन शास्त्रों में सब से प्रथम उल्लेख भद्रबाह की सूत्र कृतांग नियुक्ति (ई. पूर्व 433-350) की टीका में है। यह उस विद्वान ने स्व. डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण के आधार से लिखा है। और उनने प्रमाण में नियुक्ति से नीचे लिखी गाथा उद्धृत को है :
असियमयं किरियाणं अक्किरियाणं च होई चुलसीती।
अन्नारिणय सत्तट्टी वेरण इयारणं च बत्तीसा ।। अर्थात् 'क्रियावाद के 180, प्रक्रियावाद के 84, अज्ञानवाद के 60 और वैनेयिकवाद के 32 भेद । इमसे
1. देखो भण्डारकर, रिपोर्ट प्रान संस्कृत मैन्यूस्क्रिप्ट्स, 1883-1884, पृ. 95-96; राइस (ई.पी.) कैनेरीज लिटरेचर, पृ. 23-24 1 2. दासगुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 1751 . 3. बेल्वलकर, वही, पृ. 114 । देखो सेबुई, भाग 45, प्रस्तावना पृ. 27; बेल्वलकर और रानाडे, वहीं, पृ. 433 टिप्पण, 454 प्रादि। 4. बेल्वलकर, वही, पृ. 114।। 5. दासगुप्ता, वही, माग 1, . 181 टिप्पण ।। 6. विद्याभूषण, हिस्ट्री ऑफ दी मैडीवल स्कूल प्रॉफ इण्डियन लोजिक, पृ. 8; हिस्ट्री प्रॉफ इण्डियन लोजिक पृ. 167 । 7. सूत्रकृतांग, प्रागमोदय समिति, गाथा 119, पृ. 209 ।
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