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________________ 52 ] किया जा सकता है यान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से । इस प्रकार 'स्याद्वाद का सिद्धांत यह प्रतिपादन करता है कि प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मी होने के कारण चाहे जिस एक दृष्टि बिन्दु से निश्चित किया उसका विधान एकदम सत्य नहीं माना जो सकता है। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में भिन्न भिन्न अपेक्षा से नाना प्रकार के विरूद्ध धर्मों का स्वीकार करना ही स्याद्वाद है।' पदार्थ को संयोगात्मक रीति से समझने की ही यह पद्धति है।' __ इस स्याद्वाद के सिद्धांत को बहधा संशयवाद कह दिया जाता है। परन्तु अधिक सत्य तो यह है कि उसको वैकल्पिक शक्यता का सिद्धांत मानना ही उचित है। सुप्रसिद्ध विद्वान प्रानन्द शंकर ध्रव कहते हैं कि 'स्याद्वाद का सिद्धांत संशयवाद तो नहीं ही है । वह मनुष्य को विशाल और उदार दृष्टि से पदार्थ को देखने को प्रेरित करता है और विश्व के पदार्थ किस प्रकार देखे जाए यह सिखाता है। यह वस्तु का एकान्त अस्तित्व नहीं स्वीकार करता है और न वह उस प्रकार के स्वीकरण को एकदम अस्वीकार ही करता है। परन्तु वह कहता है कि वस्तु है, अथवा नहीं है अर्थात् अनेक दृष्टि बिन्दु में की एक दृष्टि से उसका विधान हुआ है यह वह म्पष्ट स्वीकार करता है । वास्तविकता का सच्चा और सचोट प्रतिपादन तो मात्र प्रापेक्षिक और तुलनात्मक ही हो सकता है और उस प्रतिपादन की शक्यता वह स्वीकार करता है। प्रत्येक सिद्धांत सत्य होता है परन्तु कुछ निश्चित संयोगों में ही याने परिकल्पना में ही । अनेकधर्मी होने के कारण कोई भी बात निश्चय रूप में नहीं कही जा सकती है। वस्तु के विविध धर्मों को बताने के लिए विधि-निषेध सम्बन्धी शब्द प्रयोग सात प्रकार के होते हैं, यही इस सिद्धांत का वक्तव्य है। इन सात प्रश्नों उत्तर देने की पद्धति को ही सप्तभंगी नय अथवा सात-वचनप्रयोग भी कहते हैं । यह तात्विक सिद्धांत अत्यन्त गहन और रहस्यपूर्ण है, इतना ही नहीं अपितु वह विशिष्ट परिभाषिक भी है। यह स्पष्ट करने के लिए नीचे के वह सरल और सुन्दर विवरण से अधिक स्पष्ट कुछ नहीं हो सकता है । 'अद्वेत वादियों का कहना है कि यथार्थ अस्तित्व तत्व एक ही है याने प्रात्मा । अन्य कुछ भी नहीं है। एकमेवाद्वितीयम् और वह नित्य है । इसके अतिरिक्त सब असत् होने सोयिक है। इस प्रकार प्रात्मवाद, एकवाद या नित्यवाद इसको कहा जाता है। इन अद्वतावादियों का मात्र यही तर्क था कि जैसे प्याला. तश्तरी जैसी कोई वस्तु ही नहीं है, वह तो पृथक पृथक नामों से कही जाती मिट्टी मात्र ही है वैसे ही भिन्न भिन्न नामों से पहचाने जाते विश्व के पदार्थ एक प्रात्म-तत्व के ही पक्षक भेद मात्र हैं। दूसरी पोर बौद्ध कहते हैं कि मनुष्य को नित्य ग्रात्मा जैसे किसी तत्व का सच्चा ज्ञान ही नहीं है । वह तो मात्र अटकल है क्योंकि मनुष्य का ज्ञान उत्पत्ति, 1. दासगुप्ता. वहीं, भाग I, पृ. 109। 2. वारेन, वही, पृ. 20 । 3. देखो हुन्टज, एपी. इण्डि., पुस्त. 7, पृ. ।। 3 । 'शून्यवादी बौद्ध मान्यता के स्थान में जनों ने संशयवादी पक्ष स्वीकार किया है और इसलिए उन्हें कथंचित् दार्शनिक' याने स्याद्वादिन कहा जाता है हापकिंस, वही, प. 29।। 4. देखो फलीट. इण्डि. एण्टी., पुस्त. 7, प. 107 | "इस दृष्टि को स्याद्वाद दृष्टि कहा जाता है क्योंकि इसमें ज्ञान संभावित ही माना जाता है। प्रत्यक स्थिति हमें केवल कदाचित्, स्यात् हो ऐसा ही कहती है। हम न तो किसी पदार्थ का पूर्णतया समर्थन हो कर सकते हैं और न इन्कार ही। कुछ भी निश्चित नहीं है क्योंकि वस्तुएं अनन्त भदात्मक हैं।' राधाकृष्णन, वही. भाग |, प. 302 ) 5. कन्नोमल, सप्तभंगी न्याय, प्रस्तावना प. 8। । 6. उपाधिभेदोपहित विरुद्ध नाथेष्वसत्वं सदावाच्यते । च हेमचन्द्र, वही, श्लो. 24, पृ. 194 । 7. राधाकृष्णन्, वही. भाग I. 4. 302; स्याद्वादो हि सापेक्षस्तथैकस्मिन् ...सदसत्वनित्यानित्यत्वाद्यनेकधर्मान्युपगमः । विजयधर्मसूरि, वही, पृ. 151 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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