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________________ [ 51 अब पडिक्रमणम् अर्थात् प्रतिक्रमण का विचार करें। इसमें पापों का मुक्त स्वीकरण और उनके लिए सच्चाई से क्षमा मांगी जाती है। संक्षेप में कहें तो प्रात्मा को लगे हुए दोषों या पापों का यह प्रायश्चित्त है। "प्रतिक्रमगा में किसी भी इन्द्रिय वाले जीव के प्रति किए हुए अपराव का स्मरण कर जैनी क्षमा मांगते हैं । इसके सिवा ग्रारोग्य के नियमों के विरूद्ध किसी भी जीव-जन्तु की उत्पत्ति उनके द्वारा हो गई हो तो उसका भी इस समय विचार और प्रायश्चित किया जाता है।"। अहिंसा के सिद्धान्त में से उत्पन्न विश्व-बन्धुत्व के गुणों का विकास ही इस शिक्षा का स्वाभाविक परिणाम है और व्यावहारिक दृष्टि से मुक्ति के लिए हा-हा करती हुई मनुष्य जाति की सहायता करने का अर्थ इसमें से उद्भूत होता है। फिर जैनों का सामाजिक संगठन इस प्रकार का है कि उसमें उपरोक्त प्रादर्श व्यवहार में लाए जा सकते हैं। स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का सिद्धान्त :--- अब हम जैन तत्वज्ञान के एक विशिष्ट लक्षण का विचार करें कि जो भारतीय न्यायशास्त्र को जैन दर्शन का विशिष्ट योगदान माना जाता है । कम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाश और प्रचार ही सब धो का हेतु होता है । प्रत्येक धर्म मनुष्य को जगत-प्रपंचों से परे जाने या देखने की शिक्षा देने का प्रयास करता है। जैनधर्म का भी यही प्रयत्न है परन्तु इसके कथन में उनसे इतना ही भेद है कि वह किसी भी वस्तु को एकान्त स्वरूप याने मर्यादित बिन्दु से नहीं देखता है। सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैनधर्म के पास अपना ही तत्वज्ञान है जिसे स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का सिद्धान्त कहा जाता है । "नय का (दष्टि बिन्दु का) सिद्धान्त जैन न्याय का विशिष्ट लक्षण है ।" हम ने देख ही लिया है कि जैन अध्यात्मशास्त्र जगत को दो पकार याने जीव ओर अजीव में विभक्त मानता है और प्रत्येक में उत्पत्ति-उत्पाद, व्यय-नाश और धुवत्व-नित्यत्व के गुण स्वीकार करता है। यहां उत्पत्ति या उत्पाद का अर्थ नया सर्जन नहीं है क्योंकि जैन दृष्टि से सारा विश्व शाश्वत याने नित्य अनादि ही है। यहां इसका प्रयोग इस अर्थ में हना है कि इस शाश्वत जगत में पदार्थों का निरन्तर रूपान्तर होता ही रहता है। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ सहज-स्वाभाविक गुणों की अपेक्षा से सत्-धुव-नित्य है। परन्तु दूसरे पदार्थ के गुणधर्म की अपेक्षा से वह सत् नहीं होने से, असत् है यह स्वतः सिद्ध हो जाता है । "अनुभव से ऐसा भी मालूम होता है कि शाश्वत तत्व प्रत्येक क्षण कितने ही गुणों को त्याग नए गुण ग्रहण करता जाता है। इसी को संक्षेप में अनेकान्तवाद कहा जाता है। "बौद्धों के नानात्ववाद और उपनिषदों के ब्रह्मवाद के स्थान में ही जनों का यह अनेकान्तवाद है ।" इसी पर जैनों के स्याद्वादसिद्धान्त की रचना हुई है। इन परिस्थितियों में यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत पदार्थ को पृथक-पृथक दृष्टि बिन्दु से देखने पर नाना प्रकार के विरूद्ध दिखने वाले धर्म भी उसमें देखे जा सकते हैं।" प्रत्येक पदार्थ अनंतधर्म गुण रहे हुए हैं जो सब एक ही समय में व्यक्त नहीं हो सकते हैं । फिर भी पधकःपथक अपेक्षा से ये सब धर्म उसमें सिद्ध किए जा सकते हैं। प्रत्येक पदार्थ का भिन्न-भिन्न चार दृष्टियों से विचार 1. स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 10।। 2. राधाकृष्णन, वही, भाग 1, पृ. 298 । 3. वस्तुत्त्वं चोत्पाद्रव्ययधोव्यात्मकम् ... -हेमचन्द्र स्याद्वादमंजरी, पृ. 168 । देखो वही, श्लो. 21-22 । येनोत्पादव्ययधाव्ययुक्त यत्सत्तदिव्यते । अनन्तधर्मकं वस्तु तनोक्त मानगोवरः ।। -हरिभद्र, वही, श्लोक 57 । 4. देखो वारेन, वही, पृ. 22-23 1 5. दासगुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 175 1 . 6. तत्वं...जीवाजीवलक्षणम्, अनन्तधर्मात्मकमेव... -हेमचन्द्र, वही, पृ. 170 । 7. दासगुप्ता, वही, भाग,1,.. 174%; नंकानि मानानि...अनेकामान इति । -विशेषावश्यकमाष्यम्, माया 2186, पृ. 8951 8. वेत्वनकर, वही, पृ. 112 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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