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अर्थात् 'मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि के प्रति ही कोई द्रुप है । जिसका कथन युक्तियुक्त हो उसको स्वीकार करने में मेरा कोई भी पूर्वग्रह नहीं है।" सामायिक और प्रतिक्रमण की दो अावश्यक क्रियाए:
जैनों की जहां एक ओर ऐसी उदार भावना है वहीं दूसरी ओर उनके अहिंसा के अादर्श ने उन्हें अपने दोष या पाप-स्वीकरण को भी जनसघ में पोषण और पर्याप्त प्रमुखता देने को बाध्य किया है। मनुष्य जीवन में हिंसा कुछ अंशों में अनिवार्य सी ही है और इसलिए सारे दिन होने वाले पापों और स्खलनामों का दिन प्रति दिन ध्यान रहना और उनका दैनिक स्वीकरण अन्तिम ध्येय सिद्ध करने के लिए आवश्यक है। इसे जैनधर्म का अद्वितीय लक्षण नहीं माना जा सके तो भी जैनधर्म में दोष-स्वीकरण को जो महत्व दिया गया है वह अवश्य ही अद्वितीय है। इस दोष-स्वीकरण के तत्व में से ही फलित होने वाले दो विधान याने सामयिक और प्रतिक्रमण साधू और श्रावक दोनों के ही जीवन में महत्व के हैं। सुधर्मास्वामी का प्रावश्यक सूत्र तो यहां तक कहता है कि 'मामायिक से प्रारम्भ और विदुसार नामक चौदहवें पूर्व में समाप्त होने वाला ज्ञान ही सत्य याने सम्यग्ज्ञान है । उसका पतिणाम सत् या सम्यकचारित्र है और ऐसे चारित्र से निर्वाण प्राप्त होता है।"
सामायिक व्रत जिससे कि प्रात्मा स्वभाव की शिक्षा प्राप्त करता है, का विधान है कि दिन में कम से कम 48 मिनट. अर्थात दो घड़ी तो ध्यान में बिताए ही जाएं। इस व्रत का अनिवार्यतम अश 'करेमियते' का पाठ है जिसका अर्थ इस प्रकार है:
हे भगवत ! मैं मामायिक करता हूं । मैं सब प्रकार पापमय व्यापारों से निवृत्त होता हूं । जब तक मैं जीवित रहं, मन-वचन और काया से न तो मैं ही पाप करूगा, और न किसी दूसरे से ही पाप कराऊंगा । हे भगवंत ! मैं किए पापों को भी वोसिराता याने छोड़ता हूं। गुरू और प्रात्मा की साक्षी से मैं पाप का मिच्छामि दुक्कड़ देता हूं। और पापमय कार्यों से मेरी आत्मा को मुक्त रखने के लिए मैं यह सामायिक व्रत स्वीकार करता हूं।
महावीर ने संसार का त्याग कर साधू की दीक्षा ली उस समय उनने उपरोक्त शब्द प्रतिज्ञा रूप से उच्चारण किए थे। हरिभद्रसूरि ने ग्रावश्यकसूत्र की टीका में इस सामायिक की नीचे लिखी व्याख्या की है:
जिसने सवभाव प्राप्त कर लिया है और जो सब प्राणियों में अपनी ही प्रात्मा को देखता है उसीने यथार्थत: सामायिकव्रत पालन किया है। जहां तक आत्मा राग-द्वेष का त्याग नहीं करती है वहां तक किसी भी प्रकार का तप लाभकारक नहीं है जब जीव प्राणी मात्र के प्रति समभाव से देख सकता है तमी राग और द्वेष पर विजय प्राप्त उसने कर ली ऐसा कहा जाता है।'
1. हरिभद्र, वही, पृ. 39; देखो यह भी
भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णूर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मे ।। हेमचन्द्र, महावीरस्तोत्र श्लो. 44 । 2. सामाइयमाईयं...। ...निवारणं ।। प्रावश्यकसूत्र, गाथा 93, पृ. 69। 3. देखो स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 21514. करोमिमंते...वोसिरामि । आवश्यकसूत्र 4541.
चो भगवान्...करेमिसामाइमं...उच्चरति । कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका पृ. 96 1 देखो पावश्यकसूत्र, पृ. 2815 6. यः समः' मध्यस्थः, मात्मानभिव परं..., 'सर्वभूतेषु'..., तस्य सामायिक भवति । प्रावश्यकसूत्र, पृ. 329 1 7. देखो दासगुप्ता, वही, भाग 1, पृ. 2011
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