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"तुम कुशघास, यज्ञ-यूप, काष्ठ श्रौर तृरण को व्यवहार करते हो। प्रातः सायं पानी का श्राचमन करते हो और जीवित जन्तुनों का तुम नाश करते हो। इस प्रकार तुम अपने अज्ञान के कारण बारंबार पाप करते हो ।" धर्म ही मेरा सरोवर है, ब्रह्मचयं मेरा स्नानागार है जो मलिन नहीं है. परन्तु प्रात्मायें प्रति विशुद्ध है। तप ज्योति है, धर्म व्यापार मेरे यज्ञ का चाटू है, शरीर मुदा है. कम मेरी समिधा लकड़ियां है, संयम मेरा यथार्थ पुरुषार्थ है और शांति बलिदान है। इनकी साधुपुरुषों ने प्रशंसा की है और वहीं मैं बलि देता हूं।"
यह तनिक भी धाश्चर्य की बात नहीं है कि उत्तराध्ययन] पुकार-पुकार कर कहता है कि "तपश्चर्या का फल दीख पड़ रहा है। जन्म का कोई महत्व नहीं है। श्वपच के पुत्र हरिकेश पवित्रात्मा को देखो उसकी शक्ति अनन्त है ।"1
उपरोक्त दृष्टान्त जैनों के ग्राह्य उन नैतिक गुणों का स्पष्ट दिग्दर्शन करता है कि जिन्हें की प्राचीन काल के जैन पुनः पुनः उपदेश द्वारा शिक्षा दिया करते थे वस्तुता यह है कि इस धर्म का विशिष्ठ लक्षण इसकी सर्वव्यापकता ही है । और उसकी पृष्ठ भूमि में उसकी महान आदर्श अहिंसा है जो केवल मोक्षार्थी जैन साधू का ही प्रादर्श नहीं अपितु उन सभी संघ के सदस्य साधुओं का प्रादर्श है जो दूसरों को भी पार लगाना चाहते हैं । "यह... मात्र कुलीनों पार्यों को ही नहीं, अपितु नीचकुल शूद्रों और भारत में प्रत्यन्त निरस्कृत माने जाते परदेशियों और म्लेच्छों तक को पाने मनुष्य मात्र को मुक्ति की चोर का उनके लिए अपना द्वार मुक्त करने का महान् उद्देश घोषित करता है ।" "
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किसी भी वर्ग के व्यक्ति को अपने धर्म में स्वीकार करने की स्वतन्त्रता जंयी सार्वभौमिक भावना और इस प्रकार सहयोगिता के सिवा भी दूसरे धर्मों के दिनों की रखी गई उदार भावना भी कम प्रशंसनीय नहीं है । वह बताता है कि दूसरे के मात्रों को ऐस नहीं पहुंचे इस विषय में जैनधर्म किस सीमा तक सतर्क था । श्रीमती स्टीवन्सन को भी यह स्वीकार करना पड़ा है कि जैनधर्म की पद्वितीय प्रतिष्ठा यह है कि वह अपना ध्येय सिद्ध करने के लिए परयमियों की योग्यता को भी स्वीकार करता है जबकि भारत के अनेक धर्म यह बात लिए बहुमान रखने की यह प्रशस्त भावना जैनधर्म की सर्वोत्तम दर्शनसमुच्चय के जैनधर्म विभाग के प्रारम्भ में ही प्राचार्य
स्वीकार नहीं करते हैं ।" " दूसरे धर्मो के प्रभावशाली अनेक विभूतियों का प्रमुख लक्षण है हरिभद्रसूरी कहते हैं कि
पक्षपातो न में वीरान द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।।
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1. याकोबी, सेबुई, पुस्त. 45, पृ. 50-561
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2. ब्लर, वही, पृ. 3 "जैनसंघ पति और श्रावक ऐसे दो विभागों में विभक्त है। यदि भारत के किसी भी.... भाग में, जैन जातिभेद को व्यावहारिक रूप में मानते हैं तो वह ठीक वैसा ही है कि जैसे कि दक्षिण भारत के ईसाईयों और मुसलमानों मानते हैं । यही क्यों सिंहलद्वीप के बौद्ध मानते हैं । इसका धर्म से जरा भी सम्बन्ध नहीं है। यह तो सामाजिक उच्चता की मान्यता ही कारण है कि जो भारतियों के मस्तिष्क में खूब गहरी ठसी हुई और जिसे धर्मसुधारकों के वचन ही मिटा सकते हैं ।" - याकोबी, कल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 4 । 3. "कैपिशी में निर्ग्रन्थों याने दिगम्बरों के देखे जाने पर ह्य् एनत्सांग ( बील की सी-य-की, भा. 1, पृ. 55 ) का टिप्पण प्रत्यक्ष रूप से यह तथ्य बताता है कि उनसे कम से कम उत्तरे- पश्चिम में तो भारत की परिसीमाम्रों से परे अपना धर्म का प्रचार किया था। "स्लर, यही पू. 4
4. स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 243
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