________________
48 ]
व्यावहारिक जीवन में भी जैनों का जीवों के प्रवि, दयाभाव आश्चर्य जनक है जब .. सा. ५.० ५। संघर्ष दिनों दिन बढ़ रहा है। ग्राज के जैनों की वर्तगणी की..टीका करना किसी अपेक्षा से उचित भी हो फिर भी जैनों की अहिमा का महान प्रादर्श अर्थात् प्रागी मात्र पर प्रेम और उसके प्रति मित्रता अद्भुत है । इस समझने के लिए संक्षेप में कुछ कहना यहां उचित है। जैन माधु के लिए, किसी भी जाति की हिंसा उममे न हो, इसलिए, यह नियम है कि वह सदा तीन वस्तुएं अपने पास रखे ही एक पीने का पानी छानने के लिए बम्त. दूसरा रजोहरण और तीसरा सुक्ष्म जीवों की जाने-अनजाने हो जानेवाली हिंसा को बचाने के लिए महपनी। 'इस नियम के परिपालनार्थ ही केशों का लोच, पूर्ण काट कर होते हए भी, किया जाता है. कि जो दीक्षा लेने के समय ही, प्राचीन प्रथानुसार, उतारे जाते हैं। केशलौंच की यह प्रथा जैनों की विशिष्ट प्रथा है और भारत के अन्य किमी तपस्वी समाज में यह नहीं पाई जाती है ।''
इसी प्रकार हिमावत का भंग नहीं हो जाए इस दृष्टि मे. एक गृहस्थ जैनी भी दैनिक जीवन में बहुत मावधान रहता है। इसमें भी एक विशिष्टता है और वह यह कि वे रात में याने सूर्यास्त के पश्चात् इसलिए नहीं खाते और सम्भव होते पानी भी नहीं पीते हैं कि अनजान में भी कहीं जीव-जन्तु उनके खानेपीने में नहीं पा जाए। इसीलिए हेमचन्द्र कहते हैं कि 'जिस रात्रि के अन्धकार में मनुष्य भोजनादि में पड़नेवाले जीवजन्तु को देग्य नहीं सकता है, उस रात्रि में भोजन करना ही कोन चाहेगा ?'2.. इन सब प्रथानों का विचार करते हुए यही कहा जा सकता है कि किसी हिन्दुधर्म ने अहिमा याने जीव मात्र की रक्षा के लिए इतने मान और त्याग भाव को महत्त्व नहीं दिया है।'
व्यावहारिक जीवन में नियमों की इन सब कठोरताओं से एक क्षण के लिए भी किसी को यह नहीं मान लेना चाहिए कि उपरोक्त नियमों के पालने से जैनधर्म जगत में खड़ा रही नहीं सकता है क्योंकि उससे राष्ट्र में गुलामी, अकर्मण्यता गौर दरिद्रता फैल जाएगी। 'जैनधर्म के विषय में ऐसी खोटी समझ का कारण है कि इसकी अपूर्ण जानकारी और पूर्वग्रह । अपना कर्तव्य करते रहो । जितनी भी सहृदयता से वह कर सको करने रहो। 'यही संक्षेप में जैनधर्म की प्रमुख प्रौर सर्वप्रथम शिक्षा है । अहिंसा किसी भी मनुष्य के कर्तव्य निर्वहन में बाधक नहीं है ।' जनों को अहिंसा दुर्बलों की अहिंसा तो है ही नहीं। वह तो एक वीर प्रात्मा का प्रात्मबल है कि जो जगत के सब अनिष्ट बलों से उच्च है अथवा उच्च होने की अभिलाषा रखता है। हेमचन्द्र ने इसे इस मूत्र पर अाधारित ठीक ही कहा है कि 'पात्मवत् सर्वभूतेषुः । गरीब से गरीब, नीच से नीच और मान भूले हुए के प्रति एक जैन का भाव कैसा होता है इसका उत्तराध्ययन सूत्र में एक बड़ा अच्छा दृष्टान्त दिया है जो इस प्रकार है:
हरिकेश एक श्वपच याने चाण्डाल था। वह इन्द्रियों का दमन कर उच्चतम गुण प्राप्त एक महान् साधू हो गया था । एक समय गोचरी (मिक्षाचरी) के लिए भटकते हुए वह ब्राह्मणों के यज्ञ के एक बाड़े के पास प्रा पहुंचा। उसने वहां कहा :
"हे.ब्राह्मणों ! आप किस लिए यह अग्नि जला, पानी.द्वारा बाह्य पवित्रता प्राप्त करने हो ? मुज पुरुषों का तो यह कथन है कि जो बाह्य पवित्रता तुम खोज रहे हो, वह यथार्थ वस्तु नहीं है.।"
हलर, वही, पृ.15 1. 2... हेमचन्द्र, वही. हस्तूपोथी, प्रकाश 3, श्लो. 49, पृ. 8 3. बार्थ, वही, पृ. 145
1 4. जबी, वही, पृ. 72-1 5. प्रात्मवत् सर्वभूतेषु...हेमचन्द्र, वही, प्रकाश 2, श्लो. 20, पृ. 3 ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org