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________________ [ 47 अर्थात् जो तू अपना यह कसाई का धन्धा छोड़ दे तो मैं तुझ को धन दूंगा क्योंकि तू धन के लिए ही लोभ से कमाई है। राजा की इस प्रार्थना का कसाई पर कुछ मी प्रभाव नहीं हया और उसने निडर होकर राजा को उत्तर दिया कि सूनायां मन को दोयो यया जीवन्ति मानवा: । तां न जातु त्याजामीति...... अर्थात् जिससे मनुष्यों का निर्वाह होता है उस कसाईपन से क्या हानि है ? मैं तो इसे कदापि छोड़ने वाला नहीं हूं।... इस प्रकार राजा ने जब देखा कि कसाईपन से निवृत करने का अन्य मार्ग नहीं है, तो उसने उसे एक अंधेरे कुए में कैद कर दिया परन्तु सारी रात उसमें लटकाए हुए रखा । परन्तु वहां भी उस कसाई की दुर्बुद्धि ने उसे कुए की भींत पर पशुओं की प्राकृतियां खींचने और उन्हें वहां की वहां मिटा देने की प्रेरणा दी और इस प्रकार वह अपनी वृत्ति सन्तुष्ट करता ही रहा । अन्त में वह किसी भयंकर व्याधि में ग्रसित होकर मरा एवम् नरक में गया । पिता की मृत्यु के पश्चात् सुलस के सगे-सम्बन्धी सब तुरन्त ही एकत्र हुए और उसको कुल-व्यवसाय चलाते रहने को समझाया । उत्तर में उसने उनसे कहा कि “जैसे मुझे मेरा जीव प्रिय है वैसे ही वह सब जीवों-प्राणियों को प्रिय है, और यह सब जानते हुए भी कौन मूढ़ हिंसा के व्यवसाय द्वारा जीवन निर्वाह करना पसन्द कर सकता है ?" परन्तु सुलस के सगे-सम्बन्धियों पर इस तर्क का प्रभाव कुछ भी नहीं हमा, यही नहीं उनने उसके कर्मो के फल में साझी बनने की पूरी-पूरी तत्परता दिखाई। फिर सुलस ने एक भैंसे को मारने का ढोंग करते हुए, अपने पिता की कुल्हाड़ी को अपने ही पैर पर मारकर एक भारी घाव कर लिया जिससे मूछित होकर वह भूमि पर गिर पड़ा। जब वह संचेत हुआ तो उन सम्बन्धियों से यों कहने लगा...बन्धवो यूयं विमण्य मम वेदनाम् ।'...हे भाइयों। अब ग्राप मेरे इस दु:ख में साझी बनिए याने इसमें का कुछ ग्राप ले लीजिए। सिवा शाब्दिक सांत्वना देने के वे कोई भी कुछ नहीं कर सके । तब उसने अपने पूर्व वचनों का स्मरण कराते हुए उनसे कहा कि "...व्यथामियतीमपि । न मे ग्रहीतुमीशिध्वे तत्कथं नरकव्यथाम् ।। अर्थात् पाप जब इतनी सी मेरी व्यथा भी नहीं बंटा सकते हैं तो फिर नरक में मुझे मिलने वाला दुःख प्राप कैसे ले सकेंगे? इस प्रकार सुलस ने सब सम्बन्धियों को अपनी मान्यता की पोर झुका लिया और जैन श्रावक के बारहवत अंगीकार कर मृत्योपरान्त वह स्वर्ग में गया ।। इस कथा का सार एक दम स्पष्ट है । यह कर्म-सिद्धान्त जितनी ही अहिंसा-सिद्धांत के प्रति जैनों के प्रत्यताग्रह की घोषणा करता है। यज्ञ के लिए पशु-हिंसा की जा सकती है ऐसे मनु के वाक्य उद्धृत करते हुए 'योगशास्त्र' में कहा गया है कि 'नास्तिकों की अपेक्षा भी वे लोग अत्यन्त पापी हैं कि जो हिंसा की शिक्षा देनेवाले शास्त्र बनाते हैं।" 1. हेमचन्द्र, योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्तिसहित, अध्या. 2, श्लो. 30, पृ, 91-95 । बहुधा स्वर्ग को ही मोक्ष मान लिया जाता है परन्तु यह ठीक नहीं है। जैनों की दृष्टि से मोक्ष वह स्थिति है कि जहां से प्रात्मा कभी भी नहीं लोटती है। परन्तु स्वर्ग में जीव की प्रायु की सीमा है। परन्तु प्रात्मा जब मोक्ष पा लेती है तो सदा सर्वदा के लिए वह अनंतसुख की भोक्ता हो जाती है । कभी प्रायु समाप्त नहीं होती है । 2. हापकिंस, वही, पृ. 288 । ह स्थिति है कि जहां से प्रात्मा को मोक्ष मात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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