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________________ 461 अहिंसा का आदश:...जैनधर्म के मुख्यतानों का विचार करने पर सबसे अधिक ध्यान प्राकर्षित करने वाली बात उसका अहिंसा का प्रादर्श है । प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि "जीव चेतन, अरूपी, उपयोग वाला, कर्म से जकड़ा हमा, कर्म का कर्ता और भोक्ता, सूक्षम-स्थूल शरीर धारण करने वाला, और कर्म बन्धन से छूट कर लोक के अग्र भाग तक उर्ध्व गमन करने वाला है।"। जैनों के अनुसार जीव शाश्वत है और कार्य-कारण के अबाधित नियमाधीन है। मनुष्य में जीव होता है इतना ही नहीं, अपितु वनस्पति, पशु, पक्षी, जीव जन्तु, पृथ्वी, अग्नि, पानी, हवा आदि के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अदृश्य अणुमों में भी जीव होता है। याकोबी कहता है कि “यह जड़चेतनवाद सिद्धान्त जैनों की प्रमुख विशेषता है और “उनकी सम्पूर्ण दार्शनिक पद्धति और सदाचार सहिंता में वह अोतप्रोत है।"" पाषाण वृक्ष और बहते झरणों आदि में भूतास्तित्व की मान्यता से यह सिद्धान्त एक दम भिन्न है । इस भूततत्व को अपर रूप अमूल्य प्राणियों के नाश द्वारा रक्त बलि देकर सन्तुष्ट करना होता था। परन्तु जैनों की दृष्टि में जीव मात्र, चाहे किसी भी रूप में वह हो, पवित्र है और सब एक ही ध्येय के लिए उच्च दशा में जाने वाले होते हैं इसलिए उन्हें किसी भी प्रकार के बल प्रयोग द्वारा दुःखी प्राणविहीन नहीं किया जाना चाहिए । जैनधर्म में प्रमुखतम प्रभुत्वशील लक्षण अर्थात् अहिंसा सिद्धान्त की सही युक्ति या मनस्तत्व की पृष्ठभूमि है । अहिंसा की परिभाषा प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस प्रकार की है: न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् । वसनां स्थावराणां च तदहिंसावतं मतम् ।। "प्रमादवश पंचेन्द्रिय, चतुरेंद्रिय, वेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय किसी भी जीव का हनन नहीं करने में अहिंसाव्रत का पालन माना जाता है।" प्राचार्य श्री हेमचन्द्र इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए “योगशास्त्र" में जो दृष्टांत देते हैं बैसा अत्यन्त्र कहीं भी मिलना सम्भव नहीं है। वह दृष्टांत इस प्रकार है। श्रेणिक राजा के काल में अपनी क्रूरता के लिए प्रख्यात ऐसा काल सौरिक नाम का एक कसाई धा। उसे सुलसा नाम का एक पुत्र था जो कि महावीर का पूर्ण भक्त था और इसलिए धर्म भावना से वह श्रेणिक राजा के पुत्र अभयकुमार का मित्र था। इस कसाई का मानस इतना ऋर और क्षुद्र था कि उसे जैनों की अहिंसा के प्रतिकूल भुकाना एकदम ही असम्भव था । श्रेणिक महावीर का परम भक्त था। इसलिए वह इस बात से खूब दुःखी होता था और इस कसाई को उसने उच्च बुद्धि से प्रेरित हो कर इस प्रकार कहा।...... '... सूनां विमुच यत् । दास्ये हमर्थमर्थस्य लेमस्त्वमसि सैनिकः ।। 1. कुन्दकुन्दाचार्य सेबुज, पुस्त. 3, पृ. 27; देखो द्रव्यसंग्रह, सेबुज, पुस्त. 1, पृ. 6-7 । 2. याकोबी, वही, प्रस्तावना प. 33 । 3. सर्वजीवतत्व की भावना कि प्रायः सभी पदार्थों में प्रात्मा है, सिद्ध करती हैं कि जैनधर्म महावीर भीर बुद्ध से भी पहले का है। इस विश्वास का उद्भव अति प्राचीन काल में ही हो गया होगा जब कि धार्मिक विश्वासों का उच्चतम रूप सामान्य रूप से भारतीय मानस पर अधिकार नहीं जमा पाया होगा। देखो याकोबी, वही. . पुस्त. 45, प्रस्तावना, पृ. 33। 4. देखो स्मिथ, प्राक्सफर्ड हिस्ट्री प्राफ इण्डिया, पृ. 53।। 5. हेमचन्द्र, वही, प्रकाश 1, श्लो. 20, पृ. 2 । (अनुवाद के लिए देखो स्टीवन्सन, श्रीमती, वही, पृ. 234)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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