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________________ [ 45 फलस्वरूप तीर्थंकर कहलाती हैं। तीर्थकर का खास लक्षण है कि उन्हें किसी के उपदेश बिना ही आत्मा की स्वयं जागृति होती है और वे अपने उस शरीर से सत्यधर्म का उपदेश और प्रचार करते हैं । अन्य सर्वज्ञ आत्माएं सामान्य केवली कही जाती हैं। तीर्थकर अपनी अद्वितीय प्रभुता, प्रगब्म देवत् और असाधारण एवम् आलौकिक सुन्दरता, शक्ति, प्रतिमा और प्रकाश से जगत पर चिर स्मरणीय छाप छोड़ जाते हैं। तीर्थंकर कौन? तीर्थंकर जैनों का एक विशिष्ट परिभाषिक शब्द है। इसका बहुधा साधू, साध्वी, श्रावक और श्राविका के चतुर्विध संघ का स्थापक अर्थ भी किया जाता है, परन्तु यथार्थ अर्थ तो यही है कि इस विचित्र संसार रूप समुद्र में से पार उतारने के लिए और अध्यात्मिक सुख के शिखर पर पहुंचने के लिए आत्मिक प्रकाश चहुं ओर जो फैलाता है, वही तीर्थकर कहलाता है। क्योंकि उस प्रकाश द्वारा ही आत्मिक सुख की उच्चता को पहुंचा जा सकता है। ये तीर्थकर धर्म को नव जीवन, नया प्रकाश और पुनर्जागृति देकर जगत का कल्याण करते हैं और सर्व पूर्व कालों से जगत को आगे ला देते हैं। यह स्वाभाविक है कि आत्मा को चिपके हुए अच्छे-बुरे सभी कर्मों का सर्वथा नाश करने वाले ही उस उच्चतम दशा को प्राप्त कर सकते हैं और अपनी महान् विजय के चिह्न स्वरूप सभी तीर्थकर जिन या विजयी कहे जाते हैं। प्राचार्य योगेन्द्र कहते हैं कि "जिस आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य है वही पूर्ण सन्त है और स्वयं प्रकाशी होने के कारण वह जिनदेव या आत्मविजयी कहा जाता है। ये सब सर्वज्ञ जीवात्मा इस जगत पर की निश्चित प्रायु पूर्ण कर अन्तिम स्थान याने मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार जैनों का यह निर्वाण या मोक्ष गुण और सम्बन्ध विहीन एवम् पुनर्जन्म से विमुक्त स्थिति । बुद्ध द्वारा प्ररूपित मोक्ष की भांति यह शून्य में विलीन हो जाना नहीं है। उसमें देह से छुटकारा है परन्तु अत्मा के अस्तित्व का नाश नहीं है। "जैनों की दृष्टि में अस्तित्व तो अनिष्ट है नहीं, सिर्फ जीवन अनिष्ट है ।" शरीर जब प्रात्मा से पृथक हो जाता है तो चेतन अात्मा जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त हो जाती है, और इस प्रकार उसका निर्वाण, आत्मा का नाश नहीं अपितू, अनन्त प्रानन्द को स्थिति में प्रवेश मात्र है ।" (मुक्त) आत्मा न तो लम्बा है और न ठिंगना...; न श्याम है और न श्वेत...; न कटु है और न तिक्त...; वह अशरीरी, पुनर्जन्मरहित, पुद्गल के सम्बन्ध रहित, स्त्री-पुरुष-नपुंसक वेद रहित है । वह दृष्टा और ज्ञाता है, परन्तु उसकी कोई उपमा नहीं है (जिसके द्वारा मुक्त प्रात्मा की प्रकृति समझी जा सके)। वह अरूपी सत्ता है, वह शब्दातीत है इसलिए उसका कोई शब्द नहीं है।' 1. देखों जैनी, वही पृ. 2 । 2. “जब नया तीर्थकर धर्म प्रवर्ताता है तो पूर्व तीर्थंकर के अनुयायी इस नए तीर्थंकर का अनुसरण करने लगते हैं जैसा कि पार्श्वनाथ के अनुयायी महावीर का अनुसरण करने लगे थे।" स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, प. 2411 3. देखो जैनी वही, पृ. 78 । 4. कुछ विशदता के लिए हम यहां कह दें कि जैनों का दिगम्बर सम्प्रदाय बौद्धों से इस बात में सहमत हैं कि कोई भी स्त्री निर्वाण प्राप्ति की योग्यता नहीं रखती है। दिगम्बरों की मान्यतानुसार मोक्ष प्राप्ति के पूर्व स्त्री को पुरुष रुप में एक जन्म फिर से लेना आवश्यक होता है। पक्षान्तर में श्वेताम्बर मोक्ष का मार्ग स्त्री-पुरुष सभी के लिए समान रूप से मुक्त मानते हैं । अस्ति स्त्रीनिवागणं प्रवत, श्री शाकटायनाचार्य ने अपने 'स्त्री-मुक्तिकेवलिमुक्तिप्रकरणयुग्मम्' में स्पष्ट कहा है। देखो जैसासं, भाग 2, अक 3-4, परिशिष्ट 2 श्लो. 2 । 5. 'बौद्धलोग...निर्वाण शब्द का प्रयोग तृष्णा के विलेपन में ही नहीं जिससे जैन भी सहमत होंगे, अपितु प्रात्मा के विलोपन के अयं में भी करते हैं. परन्तु इसको जैन प्रखरता से अस्वीकार करते हैं।' स्टीवन्सन (श्रीमती). वही, पृ. 172। 6. वार्थ वही, पृ. 147 7. याकोबो, सेबुई. पुस्तक 22, पृ. 52 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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