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________________ 44 ] और मोक्ष के जैन दृष्टि कोण का जो अब तक विचार किया है उसका उपसंहार कर जैनधर्म की अन्य प्रमुखता का विचार करेंगे। प्राचार्य कुदकुद के शब्दों में इस प्रकार संवरण करेंगे :--- "अात्मा ही अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता है वह अज्ञानरूप पडल से अंध बना हुमा संसार में परिभ्रमण कर कर रहा है। यह संसार श्रद्धालु के लिए मर्यादित और अश्रद्धालू के लिए अमर्यादित है।" "यह अज्ञान का पड़दा समझ और इच्छाशक्ति को घेरे हुए हैं। इसको जड़मूल से चीर कर, रत्नत्रय से सुसज्जित हो, जिस निर्भय-यात्री ने परिस्थिति द्वारा उत्पन्न सुख दुःख को जीत लिया है और प्रात्मज्ञान के आदर्श में से प्रकाश प्राप्त करते हुए विकट मार्ग में जो चल रहा है वही पूर्णता के देवी मन्दिर में पहुंचता है।" इस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों से घिरा हुआ और अच्छे बुरे कर्मों के कारण अपनी स्वाभाविक स्थिति से बलात्कार दूर हुआ आत्मा जब इन सब विघातक और बाह्य प्रावरणों को दूर फेंक देता है तभी वह ईश्वर या परमात्मा के सब गुणों को धारण कर लेता है ऐसा कहा जाता है। कर्म रहित होने के पश्चात् सर्वज्ञ बना हुअा यह आत्मा प्रशांत अविकारी और शाश्वत सुख प्राप्त करता है। सच तो यह है कि ऐमा आत्मा ही जैनधर्म में ईश्वर का आदर्श प्रस्तुत करता है और एक समय सर्वोत्तम पद पर पहुंच कर फिर उसका वहां से पतन संभव ही नहीं है। श्री उमास्वातिवाचक कहते हैं कि दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रातुभर्वति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ।। अर्थात् भूमि में के बीज जल जाने पर फिर से अंकुरित नहीं होते उसी प्रकार कर्म रूप बीज जल जाने पर उनमें से संसार रूप अकुर नहीं फुट सकते हैं।" इस प्रकार ईश्वर शब्द से यद्यपि किसी व्यक्ति विशेष का निर्देश नहीं है तो भी सर्व मान्य गुण जब मनुष्य में पूर्ण विकसित हो जाते हैं तब वह ईश्वरत्व प्राप्त कर लेता है। ईश्वर मनुष्य की आत्मा में छुपी शक्तियों का सर्वोत्तम, महान् और सम्पूर्ण प्रकाश या विकास मात्र है ।' तीर्थ कर और केवली: यहां इतनी सूचना कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि ऐसी सर्वज्ञ प्रात्मानों में बुद्धि ही नाम कर्म के 1. कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकायसार, सेबुजे, पुस्त. 3, पृ. 75-76 ।। 2. “संक्षेप में शष्टिकर्तृव्य सिद्धान्त के मानने वाले ईश्वर को एक मानव ही बना देते हैं और उसे आवश्यकता और अपूर्णता की सतह तक नीचा खींच लाते हैं। पक्षान्तर में जैनधर्म मनुष्य को ईश्वरत्व में ऊंचा उठाता है और उसे दृढ़ श्रद्धा, सम्यकचारित्र और सम्यग्ज्ञान और ष्किलंक जीवन द्वारा यथा संभव ईश्वरत्व के निकटतम पहुंचने की पूरी-पूरी प्रेरणा देता है ।" -जैनी वही, पृ. 6 । 3. कुन्दकुन्दाचार्य वही, गाथा 151 (जैनी, वही, पृ 77 अंगरेजी अनुवाद)। 4. कर्मक्षयस्स करणेन भवतीश्वरो न पूननित्यमुक्तः कश्चिदेकः सनातन ईश्वरः । विजयधर्मसूरि, वही, प 150। 5. उमास्वातिवाचक, वही, अध्या. 10, सूत्र 8, पृ. 20।। अकर्मकीमतः परमात्मा न पुन: कर्मवानहीत भवितुम् मुक्ति प्राप्य न पुनरोधो वतारंः...-विजयधर्मसूरि, वही और वही स्थान । 6. राधाकृष्णन, वही, भाग 1, पृ. 331 । 4. जैसे गोत्र नामकर्म महावीर के क्षत्रियाणी के गर्म में ध्यवन में बाधक हना था वैसे ही यह नामकर्म है । तीर्थंकरनामसं ज्ञं न यस्य कर्मास्ति... -हेमचन्द्र, वही, प्रकाश 11, श्लो. 48 पृ. 30 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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