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संशयवाद के खार से खाई जाने के स्थान में इसकी ज्ञान के वृक्ष रूप में वृद्धि हो और यह चरित्र के सर्वमंगलमय फल में फलित हो ।" इस प्रकार इन त्रिरत्नों में अनन्यतम महत्व का रत्न तो सम्यग्दर्शन ही है क्योंकि संशयवाद की प्रात्म-प्रवंचना और जटिल व्यर्थता से हमारी रक्षा यही करता है। पक्षान्तर में सम्यग्ज्ञान हमें उन सब बातों की सूक्ष्म परीक्षा करने की योग्यता देता है कि जो हमारे मानस पर श्रद्धा द्वारा अंकित होती हैं। संक्षेप में सम्यग्ज्ञान हमें उपर्युक्त तत्वों की यथार्थ और स्पष्ट अभिव्यक्ति कराता है। वस्तुतः सम्यग्ज्ञान जिनों द्वारा प्ररूपित जैनधर्म और उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही है । संक्षेप में श्रद्धायुक्त ज्ञान ही हमें अन्तिम ध्येयरूप सम्यक्चारित्र की ओर ले जाता है।
सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन दोनों ही यदि सम्यकचारित्र रहित हों तो व्यर्थ हैं । जिन द्वारा प्ररूपित सर्व नियमों के पालन में ही सम्क्यचारित्रक का समावेश होता है और उसी के द्वारा मोक्ष प्राप्त हो सकता है। हमारा अन्तिम ध्येय मोक्ष ही होने से स्वभावतः सम्यक्चारित्र ऐसा होना चाहिए कि जो शरीर का महत्व घटाए और प्रात्मा को उन्नत करे। मन, वचन और काया से पापरूप व्यापार का त्याग ही, संक्षेप में कहें तो सम्यकचारित्र है।
___ व्यवहारिक जीवन में चारित्र के दो भाग किए गए हैं:-1. साधू-चारित्र अर्थात् साधू की चर्या, और 2. गृहस्थ-चरित्र अर्थात् गृहस्थी की चर्या । परन्तु यहां इनके विवरण में जाना आवश्यक नहीं है । इतना ही कह देना यहां पर्याप्त होगा कि गृहस्थ-चरित्र की अपेक्षा साधू चरित्र के नियम स्वाभाविकतः ही कड़े होते हैं क्योंकि कठिनतम होते हुए भी निर्वाण का निकटतम मार्ग वही है। गृहस्थ-जीवन का ध्येय भी निर्वाण प्राप्ति ही है परन्तु यह मार्ग लम्वा और धीग है।
जैनधर्म स्वीकार के पूर्व वह प्रत्येक मनुष्य से नियमन की तीव्रता, दृढ़-इच्छा शक्ति और शुद्ध चारित्र की अपेक्षा रखता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच महाव्रतों से प्रारम्भ कर मन, वचन और काया का संयम पोषण करते हुए मनुष्य प्राध्यात्मिक जीवन की पराकाष्ठा को पहुंच जाता है कि जहां जीवन-मरण की आकांक्षा नहीं है और अन्त में अनशनव्रती या अनाहारी रह कर मृत्यु का स्वागत किया जाता है।
जैन आचारशास्त्र इतना सूक्ष्म और विचारपूर्वक रचा हुआ है कि यह स्वयम् अभ्यास रूप है। हमने जीवन
1. जैनी, वही, पृ. 34। 2. ...तत्वानां... ...अवबोधस्तमत्राहः सम्यग्ज्ञानं...।। -हेमचन्द्र वही, प्रकाश 1,
6. प. 1। जैन पांच प्रकार के ज्ञान मानते हैं और बहुत ही सक्षमता से सर्वज्ञता तक पहुंचाने वाले ज्ञान की इन पांचों श्रेणियों का विवेचन करते हैं, वे पांच ज्ञान हैं -मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्यायज्ञान और केवलज्ञान । इनको अंगरेजी में क्रमशः कहा जा सकता है:-सेन्स नालेज (Sense Knowledge), टेस्टीमनी (Testimony), नालेज आफ दी रिमोट (Knowledge of the remote), थाटरीडिंग (Thought reading) और प्रोम्नीसीएन्स (Omniscience)। 3. सनसावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते । -वही, प्रकाश 1, श्लो. 18, पृ. 2 । 4. अहिंसासत्यमस्तेयव्रह्मचर्यापरिग्रहाः ।...विमुक्तये ।। -हेमचन्द्र, वही, प्रकाश 1, श्लो. 19, पृ. 2 । 5. मरणकाल य प्रणसणा । -उत्तराध्ययनसूत्र, अध्या. 30 गाथा 9 । 6. "जैनदर्शन का मूल्य इसमें ही नहीं है कि इसने, हिन्दुधर्म के असमान, दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ नैतिक शिक्षा भी जोड़ दी है अपितु इसमें भी है कि इसने मानवी प्रकृति का अद्भुत ज्ञान भी अपनी नीति के प्रदर्शन में बताया है।"-स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 123 1
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