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हुए ही रहते हैं और इसलिए इस जगत में कार्मिक वर्गणायुक्त जीव प्रज्ञान, दुःख, दरिद्रता, वैभव प्रादि द्वारा बाह्य सुखदु:ख अनुभव करता है। जीव के ऐसे विलक्षण परिभ्रमण को ही संसार कहा जाता है उससे मुक्ति प्राप्त करना ही मोक्ष या अन्तिम छुटकारा है। इसमें जीव को बाहर से कुछ भी नहीं प्राप्त करना है परन्तु कार्मिक बन्धनों के पाश में से छूट कर अपनी स्वाभाविक स्थिति मात्र ही पाना है । '
संक्षेप में सब कर्म बन्धनों से म्रात्मा की मुक्ति ही मोक्ष दशा है शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म श्रात्मा को बादलों की भांति आवरणरूप हैं । जब बादल हट जाते हैं तो जैसे झल-झलाट चमकता हुआ सूर्य प्रकाशमान हो जाता है, वैसे ही कर्मरूपी आवरण के दूर हो जाने पर भ्रात्मा के सकल गुण प्रकट हो जाते हैं। इसमें एक वस्तु दूसरे का स्थान ले लेती हो वैसी कोई भी बात नहीं है । सिर्फ विघ्नकर्ता वस्तु का ही नाश इसमें होता है । जब कोई पक्षी पिंजरे में से मुक्त होता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि पक्षी पिंजरे को छोड़ कर दूसरी वस्तु ग्रहण कर रहा है। परन्तु यही अर्थ है कि परतंत्रता रूप पिंजरे को ही वह त्याग कर रहा है। इसी प्रकार मात्मा जब मोक्ष प्राप्त करता है तब सब पुण्य एवं पाप कर्मों का सर्वथा नाश कर वह कोई नई वस्तु ग्रहण नहीं करता है अपितु वह शुद्ध श्रात्मस्वरूप का तब अनुभव करता है । इस प्रकार जब श्रात्मा को मोक्ष मिल जाता है तब वह पवित्र और मुक्त आत्मा भौतिक शरीर और उसके अंतराय से मुक्त होकर अपनी स्वाभाविक दशा को प्राप्त कर लेता है । तात्पर्य इतना ही है कि मुक्त आत्मा अपनी उज्जवलता, श्रानंद, ज्ञान और शक्ति सहित पूर्ण रूप में प्रकट हो जाता है।
तीन रत्नों द्वारा मोक्ष:
सुख दुःख की सब परिस्थितियों के मूल को इस प्रकार समझने पर ही मोक्ष प्राप्त कैसे किया जाए यह प्रश्न उपस्थिति होता है । श्रौत्तर-बाह्य तपश्चर्या से जीवन के दुखों में से बाहर निकलने का मार्ग जैनधर्म बताता है । जिन भगवान ने बताया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्वरित्र इन तीन रत्नों द्वारा मोक्ष मिल सकता है । " प्रथम रष्टि में पृथक-पृथक दिखते हुए भी ये तीनों बौद्धधर्म के त्रिरत्न बुद्ध, नियम और संघ से मिलते हुए ही हैं।"
यह “रत्नत्रय" जिसका परिणाम, जैनों के अनुसार, आत्मा की मुक्ति है, उस जैन योग का मूल आधार है जिसे हेमचन्द्र मोक्ष का कारण कहते हैं । * इनमें से पहला रत्न कहता है कि जिन प्ररूपित तत्वों में श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। 5 इसका अस्वीकार एक प्रकार का संशयवाद है कि जो सब प्रकार के गंभीर विचार में स्कापट करता है । इस सम्यग्दर्शन का एक मात्र लक्ष्य यह है कि "शुष्क न्याय और कुतर्क वितण्डा से नष्ट होने अथवा
1.... आत्मनः स्वभावसभावस्थानंम् वही... स्वभावजं सोस्थम् हेमचन्द्र, योगशास्त्र, प्रकाश 11 श्लोक 61, पृ. 1 हस्तप्रति भण्डारकर प्रा. मं. पुस्तकालय सूची 1886-1892 सं. 1315
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2. सम्यग् दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । उमास्वातिवाचक, वही अध्या. 1 सूत्र 1 देखो हरिभद्र, वही, श्लो. 53 । 3. वार्थ, वही, पृ 147। “बुद्ध, नियम और संघ, इन बौद्ध त्रिरत्नों से जैन इन त्रिरत्नों की तुलना करना अवश्य ही मनोरंजक है। मुसलमानी त्रिपुटी, खेर मेर और बंदगी और पारसी त्रिवर्ग याने पवित्र मन, पवित्र वाचा और पवित्र वर्तन भी तुलनीय है ।" स्टीवन्सन (श्रीमती), वही, पृ. 247 ।
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4. चतुर्वर्गे प्रीमो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं च म हेमचन्द्र वही, प्रकाश 1, श्लो. 15, 15 तत्वार्थद्धानं सम्यग्दर्शनम् । उमास्वातिवाचक, वही, प्रध्या 1. सूत्र 2 यहां जिन तत्वों का निर्देश किया गया है वे उपर्युक्त नव-तत्व ही हैं। हरिभद्र, वही, पृ. 531
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